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कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ षष्ठ खण्ड
नागौर में ओसवाल श्वेताम्बर जैन एवं दिगम्बर जैनों की अच्छी बस्ती है। ओसवालों का सुराणा वंश यहीं से सम्बन्धित है और बाद में बीकानेर आदि में गया। सुरराणाओं की कुलदेवी सुसानी देवी का मन्दिर तो सोलहवीं शती का मोरयाणा में है जिससे सम्बन्धी दन्त कथाएँ नागौर के नवाब से सम्बन्धित है, पर वहाँ का ११२६ संवत् का लेख उस कुलदेवी को मुसलमानों के आगमन से पूर्व की प्रमाणित करता है, अस्तु । भारत के इतिहास में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन करने वाले सुप्रसिद्ध जगत सेठ के पूर्वज यहीं के अधिवासी थे ।
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जैन साहित्य के परिशीलन से नौवीं दशवीं शताब्दी से जैन धर्म का नागौर से विशिष्ट सम्बन्ध प्रमाणित है । जैन श्रमण कृष्ण और जयसिंहरि के उल्लेख सर्वप्राचीन हैं। श्री जयसिंहरि ने सं० २१५ में नागौर में ही 'धर्मोपदेशमाला-विवरण' की रचना की और कृष्णर्षि ने सं ६१७ में नारायण वसति महावीर जिनालय को प्रतिष्ठित किया था। उस समय नागौर में पहले से ही अनेक जिनालय विद्यमान थे, ऐसा उल्लेख "नागउराइ जिनमंदिराणि जायाणिणेग्यणि" वाक्यों से धर्मोपदेशमाला विवरण में किया है। यहाँ के नारायण श्रेष्ठि को प्रतिबोध देने वाले न मुनि कृषि थे। श्री कुमारपाल परि महाकाव्य प्रशस्ति में इसका उल्लेख इस प्रकार पाया जाता हैपुरा निजगिरा नारायणष्ठितो प्रतिष्ठाप्य च ।
श्रीमन्नागपुरे
निर्माष्योत्तम वैश्यमन्तिम जिनं तत्र श्रीवीरान्त-चन्द्र-सप्त (११७) मरदिपमेतेषु तिच्या शुची बंभाद्यात् समातिष्ठ यत् स मुनिराट् द्वासप्तति गोष्टिकान् ॥
इस श्लोक से विदित होता है कि नारायणवसति की स्थापना के समय ७२ गोष्ठी ट्रस्टी नियुक्त किये गये थे। अतः उस समय वहां जैनों की अच्छी वस्ती होना प्रमाणित है। उपकेशवच्छ प्रबन्ध के अनुसार इसकी प्रतिष्ठा कृष्णयि की आशा से गुजरात से देवगुप्तसूरि को बुलाकर करवायी गई थी। चौदहवीं शताब्दी के स्तयनों में प्रस्तुत नारायणवसति को कन्हरियीवसति' नाम से भी सम्बोधित किया है। जिनालय 'जीणं जिणहर' बतलाया गया है। उपकेशगच्छ - प्रबन्ध में कोई भी प्राचीन जिनालय के अवशेष वहाँ नहीं मिलते ।
सतरहवीं शताब्दी में यह नारायणवसति महावीर इसकी स्थिति कोट के स्थान में लिखी है । अब
खरतरगच्छ युग प्रधानाचार्य गुर्वावली के अनुसार नागौर में श्रावकसंघ ने श्री नेमिनाथ भगवान के बिना और प्रतिमा का निर्माण कराकर उसकी प्रतिष्ठा श्री जिनवल्लभसूरिजी महाराज के करकमलों से कराई थी, यह मन्दिर कब लुप्त हो गया, पता नहीं ।
सं० १३५२ के आसपास श्री पद्मानन्दसूरि के समय में ट्रिकलश ने 'नागौरचैत्य परिपाटी गा० ६ और स्तुति गा० ४ की रची थी जिन्हें मैंने 'कुशल निर्देश' वर्ष ४ अंक ५ में प्रकाशित की है। इन दोनों में नागौर के ७ जिनालयों का उल्लेख है। यद्यपि विवरणवार देखा जाय तो तीर्थकरों के नाम आदि से संख्या अधिक हो जाती है परन्तु अवान्तर देवकुलिकाएँ तथा अपरनाम, निर्मातानाम एवं इतर देहरियों की प्रतिमाओं को मूलनावरूप समझकर समन्वय किया जा सकता है स्तुति संज्ञक रचना में पार्श्वनाथ चोवीसटा, ४ महावीरस्वामी व २ चन्द्रप्रभ जिनालय - इन सात जिनालयों में ऋषभदेवादि अन्य प्रतिमाएँ होना लिखा है चैत्य परपाठी के अनुसार इस प्रकार है-
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चौवीसटा बड़ा मन्दिर है जिसमें मन्त्री तिहुंराय कारित सुराणा वसही में भ० पार्श्वनाथ, नाहर -विहार में शान्तिनाथ और श्रीसंघ के भवन में मल्लिनाथ हैं। डीडिंग वसही सूरह कुल-सुराणों की निर्मापित है जिसमें चौकी, मण्डप और संबल स्तंभ है। चउवीसवट्ट्य ( चतुर्विंशति पट्टक) पीतल धातुमय तोरण परिकर युक्त है। चौवीस भगवान, महावीरस्वामी और चन्द्रप्रभुजी के बाद कन्हरिषि ( नारायणवसति), छजलानी, उच्छितवाल- इन तीनों मन्दिरों में महावीर स्वामी है । आदीश्वर जिनालय के गोष्टी ओसवाल (गच्छ उपकेश) है और चन्द्रप्रभ का उल्लेख है । इन दोनों को (आदीश्वर को ) चन्द्रप्रभ के अन्तर्गत मान लेने से सातों मन्दिरों का समन्वय हो जाता है तथा जीर्णोद्धार केसमय मूलनायक परिवर्तन भी हो सकता है।
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