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कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड
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हो जाती है, परन्तु रिक्त होना तो पहले से ही था। प्रभु महावीर के शब्दों में इसे 'आवीचिमरण' कहा जाता है। जो इस तत्त्व को हृदयंगम कर लेता है, वह कभी मौत से भयभीत नहीं होता । सप्तमाचार्य श्री डालिगणि के समय में साध्वीप्रमुखा के रूप में काम करने वाली महासती जेठांजी का समाधिमरण बड़ा विचित्र ढंग से हुआ। बीकानेर के थली प्रदेश में 'राजलदेसर' नाम का एक अच्छा कस्बा है। श्री जेठांजी वृद्धावस्था के कारण वर्षों से वहाँ स्थानापन्न थीं। एक बार अचानक वे यावज्जीवन अनशन के लिए तैयार हो गईं। कारण पूछने पर आपने अपना अनुभव सुनाते हुए कहा-'मेरे कानों में दिव्यवादित्रों की ध्वनियां आ रही हैं जो अश्रुतपूर्व एवं अवर्णनीय हैं। बस मेरा महाप्रयाण सन्निकट है।' ऐसा कहकर उन्होंने पूरे संघ के मध्य उच्चस्वर से आजीवन अनशन स्वीकार लिया। स्वयं सतियों के मध्य स्थित थीं। पार्श्ववर्ती सध्वियाँ आराधना आदि का श्रवण करवा रही थीं। नमस्कार महामन्त्र का परावर्तन हो रहा था। दो-तीन घंटा तक ऐसा कार्यक्रम चला । सारे संघ के समक्ष इसी वातावरण में महासती श्री जेठांजी बैठी-बैठी स्वर्गगामिनी बन गईं। सारा समाज देखता ही रह गया। लोगों के आश्चर्य का पार न था। सभी मान गए कि इसे कहते हैं, समाधिमरण । किन्तु ऐसा तभी सम्भव हो सकता है जबकि हमारी पूर्व तैयारी ययार्थतया से हुई हो। समाधिमरण को पाने वाला ही भवजल का किनारा पा सकता है। यही हमारे जीवन का चरम लक्ष्य है।
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लब्भन्ति विमला भोए, लम्भंति सुर संपया। लभंति पुत्त मित्तं च, एगो धम्मो न लब्भई ॥ संसार में उत्तम भोग, देव संपदा तथा पुत्र-मित्र आदि स्वजन संबंधियों की प्राप्ति सुलभ है किन्तु एक सद्धर्म की प्राप्ति होना दुर्लभ है।
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