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अनुयोग और उनके विभाग
- मुनि श्री किशनलाल (युगप्रधान आचार्य श्री तुलसी के शिष्य)
भाषा से भावों की अभिव्यक्ति और विचार-विनिमय होता है। जो व्यक्त ध्वनि विचारों और भावों को दूसरों तक पहुँचाने में सहायक होती है, उसे भाषा कहा जाता है। 'भाषा' रहस्य' में भाषा की परिभाषा करते हुए लिखा है- 'मनुष्य मनुष्य के बीच वस्तुओं के विषय में अपनी इच्छा और मति का आदान-प्रदान करने के लिए व्यक्त ध्वनि-संकेतों का जो व्यवहार होता है, उसे भाषा कहते हैं। तात्त्विक दृष्टि से वह ध्वनि जो काय योग से गृहीत वागयोग से निसृष्ट भाषा वर्गण सहित होती है, उसे भाषा कहते हैं।
ध्वनि को चिह्न या संकेतों से अंकित कर लिया जाता है जिसे हम लिपि कहते हैं । लिपि और भाषा मानवसमाज की एक विशिष्ट सम्पत्ति है जिससे विचारों का स्थायित्व और विनिमय होता है। स्थायित्व से साहित्य वाङ्मय और विनिमय से समालोचना शास्त्र का आविर्भाव होता है जिससे मानव सम्यक् और असम्यक् का निर्णय कर 'सत्यं शिवं और सुन्दरं' की ओर प्रेरित हो सकता है।
भाषा को रूपक में हम यों समझ सकते हैं । भाषा आत्मा रूपी कुएँ का वह नीर है जो आठ बाल्टियों से निकाला जाता है जिन्हें हम स्थान कहते हैं। नीर वैसा ही निकलेगा जैसा कुएँ में होगा। भाषा की भी यही अवस्था है, जिसकी आत्मा पवित्र होती है। उसकी भाषा भी पवित्र होती है । भगवान् महावीर ने राग-द्वेष के बीजों को दग्ध किया। आत्मा पवित्र बन गई। उसके पश्चात् ही दूसरों को पवित्रता की ओर प्रेरित करने के लिए प्रवचन करना प्रारम्भ किया। वे अर्थ का कथन करते हैं जैसा कि बृहद् वृत्ति में बताया गया है
अत्थं भासई अरहा, तमेव सुत्तीकरेंति गणधरा।
अत्थं च विणा सुत्त, अणि स्सियं के रियं होई॥ अरिहन्त केवल अर्थ की भाषा में बोलते हैं । उसको ही गणधर सूत्र रूप में ग्रथित करते हैं । अर्थ के बिना सूत्रों का क्या मूल्य ? सूत्र जब ही मूल्यवान् बनते हैं, जब वे अर्हन् अर्थ से संयुक्त होते हैं। सूत्रों की मूल्यवत्ता अर्थ के आधार पर ही तो है । अर्हन् वाणी के अनुकूल होने से ही अनुयोग कहा गया है। अनुयोग का अर्थ है व्याख्या की पद्धति । उसके लिए अनुयोग द्वार एक स्वतन्त्र आगम है।
--श्री स्थानांगवृत्ति, पृ० १७३
१. द्रष्टव्य-पृ० २८. २. काययोगगृहीत वाग्योग निसृष्ट भाषा द्रव्यं संहत्ति । ३. कालु कौमुदी, पृ०७ :
अष्टौ स्थानानि वर्णानां उर कंठ: शिरस्तथा । जिह्वा मूलं च दन्ताश्च नासिकौष्ठं च तालुका ।।
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