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कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड
अत: मर्यादा, अपरिपक्वता का परित्राण है, संयमी जीवन का प्राण है, आत्म-समाधि का सोपान है और समस्याओं का सुन्दर समाधान है।
जिस धर्मसंघ में संघ की प्रगति के लिए आचार्य के द्वारा सामयिक और तत्कालीन मर्यादाओं का परिवर्तन, परिवर्धन व नवीनीकरण होता रहता है वह धर्मसंघ प्राणवान कहलाता है।
संघीय परम्परा का बेजोड़ उदाहरण आज विश्व में तेरापंथ धर्म संघ है, जिसकी उजागरता के लिए धर्मसंघ में सारे संघ की सारणा, वारणा और प्रेरणा एक कुशल आचार्य के नेतृत्व में होती है। तेरापंथ धर्म संघ में हर गतिविधि और प्रवृत्ति के मुख्य केन्द्र आचार्य ही होते हैं। एक आचार्य, एक समाचारी, एक विचार-ये तेरापंथ धर्म. संघ की अखण्ड तेजस्विता का द्योतक है। एक सूत्र में आबद्ध, सैकड़ों साधु-साध्वियाँ विश्व में कीर्तिमान स्थापित करते हैं । इस गरिमामय संघ को पाकर हम अत्यन्त गौरवान्वित हैं।
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ऋचो ह यो वेद, स वेद देवान् यजषि यो वेद, स वेद यज्ञाम् ॥ सामानि यो वेद, स वेद सर्वम् ।
यो मानुषं वेद, स वेद ब्रह्म ॥ ऋग्वेद को जानने वाला, केवल देवताओं को जानता है, यजुर्वेद को जानने वाला यज्ञ को ही जानता है, सामवेद को जानने वाला सब को जानता है। किन्तु जो मनुष्य को जानता है, वही वास्तव में ब्रह्म को जानता है ।
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