________________
'कांठा' का भौगोलिक और सांस्कृतिक परिवेश
__ कांठो शब्द का प्रयोग पास, समीप, निकट आदि अर्थ के साथ-साथ सरहद, सीमा, किनारा, नदी का तट आदि के सन्दर्भ में भी हुआ है। प्रो. नरोत्तमदास स्वामी द्वारा सम्पादित राजस्थानी साहित्य संग्रह, भाग एक, में कांठ शब्द का प्रयोग द्रष्टव्य है
"उर गजराज रेवा नदी र कांठौ, दुह ऊपर पांच से हाथी रे हलके लीजा मोड़ी खबर करी नै रहोआ छ ।"
राजस्थानी में "काठ लियो" शब्द का अर्थ पहाड़ों के निकट रहने वाली एक जाति के व्यक्ति के सन्दर्भ में किया जाता है। भावसाम्य की दृष्टि से कांठ व कांठलियो शब्दों में ज्यादा अन्तर नहीं है । निकटता का मूल भाव इसमें भी है।
उपयुक्त सन्दर्भो में कांठा शब्द का अर्थ भी कांठ या कांठौ शब्द से भिन्न नहीं है। कांठा का अर्थ भी वही है ने कांठ अथवा कांठो का है। कांठा क्षेत्र का नामकरण 'कांठा' भी इस दृष्टि से सार्थक है। यह अरावली पर्वतः ला के समीप का क्षेत्र भी है और सूकड़ी नदी के पास का अथवा इस नदी के किनारे या तट का भी है । यह नदी कांठा के लगभग मध्य में होकर बहती है, इस कारण नदी के दोनों ओर का क्षेत्र नदी के तट का या समीप का क्षेत्र है । यह मेवाड़ राज्य की सीमा के समीप का क्षेत्र मारवाड़ राज्य की दृष्टि से है, इस कारण भी यह नाम सार्थक है। नामकरण की यह परम्परा राजस्थान से बाहर भी है। बनासकांठा व साबरकांठा नाम इसके अच्छे उदाहरण हैं ।
जलवायु, पानी व भूमि कांठा क्षेत्र का जलवायु स्वास्थ्यवर्द्धक है किन्तु ग्रीष्म ऋतु में तेज गर्मी पड़ती है और तापक्रम भी काफी ऊँचा रहता है । सर्दी में बहुत तेज सर्दी और तापक्रम काफी नीचे रहता है। वर्षा दक्षिणी-पश्चिमी मानसून से होती है । वर्षा का वार्षिक औसत २० से ४० से.मी. है। इस क्षेत्र में कुओं की गहराई अधिक नहीं है। बीस फीट से ४० फीट की गहराई तक पर्याप्त पानी मिल जाता है। पानी मीठा और सुपाच्य है। मरुस्थल का दक्षिणी छोर होने पर भी यहाँ पानी की कमी नहीं है । मिट्टी मटमैली, उपजाऊ तथा इसकी तह काफी गहरी है। बंजर भूमि नहीं के बराबर है। यहाँ की मिट्टी अरावली शृखला की देन है। तलहटी का क्षेत्र होने से मिट्टी रेगिस्तानी बालू की तरह नहीं है।
इतिहास इस क्षेत्र का अलग से कोई लिखित इतिहास उपलब्ध नहीं होता लेकिन जनश्रुतियों के आधार पर पता चलता है कि कांठा क्षेत्र का इतिहास बहुत प्राचीन है । सिरियारी व उसके आस-पास के क्षेत्र के बारे में जो दन्तकथाएँ प्रचलित हैं और वहाँ पर जिस रूप में प्राचीन खण्डहर आदि मिलते हैं, उनके आधार पर यह कहा जा सकता है कि यह क्षेत्र पौराणिक काल से प्रसिद्ध था। ऐसी मान्यता है कि भक्त प्रहलाद को ईश्वर के अस्तित्व के प्रति एक प्रमाण सिरियारी गाँव में भी मिला था। बताया जाता है कि यहाँ पर सिरियारी (श्रिया) नाम की एक कुम्हारी रहती थी। वह परम ईश्वरभक्त थी। एक दिन उसके घर पर मिट्टी के बर्तन पकाये गये, किन्तु बर्तन पकाने के लिये नेवों में जब आग दी गई तो उसके बाद पता चला कि मिट्टी के एक बर्तन में बिल्ली के छोटे बच्चे हैं, लेकिन आग पूरे वेग पर थी, ऐसी हालत में बच्चों का बचाना कठिन था। सिरिया ने ईश्वर की आराधना आरम्भ की और जब आग शान्त हो गई और पके हुए बर्तन छाँटे जाने लगे तो यह देखकर आश्चर्य हुआ कि जिस बर्तन में बिल्ली के बच्चे थे, वह बर्तन अभी कच्चा ही है तथा उसमें समस्त बच्चे जीवित हैं। भक्त प्रहलाद भी उस समय वहीं था। उसने भी यह घटना देखी और ईश्वर के इस चमत्कार को देखकर ईश्वर के प्रति प्रहलाद का विश्वास पहले से ज्यादा हो गया। उसी सिरिया देवी के नाम से इस गाँव का नाम सिरियारी पड़ा । सिरियादेवी का मन्दिर आज भी गांव में विद्यमान है। सिरियारी के आस-पास विशाल क्षेत्र में फैले खण्डहर भी किसी प्राचीन सभ्यता की ओर संकेत करते हैं । वह सभ्यता कौनसी व कैसी थी, इसकी प्रामाणिक जानकारी तो पुरातत्त्व विभाग द्वारा खुदाई करने पर ही ज्ञात हो सकती है। लेकिन ऐसी मान्यता है कि राजा हिरण्यकश्यप के साम्राज्रयह एक हिस्सा था । यहाँ पर चौरासी डटन गाँव थे।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org