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कर्मयोगी भी केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन प्रन्थ : पंचम खण्ड
इम करतां ते मननी थिरता हुवै । तिवारे पछे तीर्थंकर नो ध्याण करणो। २४ तीर्थकर जे रंगे थया ते तीर्थकर रग सहित चितवणा । आप बैठो तिण आगे हाथ दोय तथा तीन तथा चार हातरे आंतरे तीर्थकर थापणा । जाण इण ठिकाण भगवंत विराज्या छै। थिर आसण छ। रंग काले छै, तथा नीले छ तथा पीले छ तथा राते छ तथा धवले छ। ए पाँचुई रंग मांहि आप रो मन हुवै सो ही रंग री चितवणा करणा।"
(ख) छोटा ध्यान-इसका ग्रन्थ-परिमाण केवल ३७ अनुष्टुप् श्लोक जितना है। इसमें पांचों पदों के गुणों के ध्यान का विवरण है।
इतिहास संकलन-श्रीमज्जयाचार्य महान् इतिहासकार थे। उन्होंने अपने जीवन काल में घटित छोटी-मोटी घटनाओं का अविकल संकलन किया। उन्होंने अपने विद्यागुरु हेमराजजी स्वामी से बहुत कुछ सुना । और उसे तत्काल लिपिबद्ध कर उसे स्थायित्व दे डाला। ऐसा ही एक ग्रन्थ 'दृष्टान्त' के नाम से प्रसिद्ध है। उसके चार पत्र हैं और वे मूल राजस्थानी गद्य में लिखे गए हैं। युवाचार्य अवस्था में श्रीमज्जयाचार्य ने विक्रम संवत् १९६३ का चातुर्मास मुनिश्री हेमराजजी के साथ नाथद्वारा मेवाड़ में बिताया। वहाँ हेमराजजी स्वामी ने प्राचीन इतिहास की कई बातें सुनाई। श्रीमज्जयाचार्य ने उनका संकलन किया। उसका प्रारम्भ इस प्रकार है
'हेमजी स्वामी मूहढा सू एती वारता लिखाइ ते सं० १९०३ चौमासा में, ते लिखियै छ।'
'सोजत में अणंदै पटवै कहयो—हूँ तो इण भीखनीया रो महढो न देखू । इम बार-बार क्रोध रै वस बोल्यो। पापरा उदाथी सातमै दिन आंधौ होय गयो । लोक बोल्या-बचन तौ अणंदैजी तीखी पाल्यौ । आंधा होय गया सो भीखनजी रो मूहढो कदेइ देखै नहीं। लोक में घणी निद्या पायी। (दृष्टान्त १)
इन संस्मरणों में तात्कालिक स्थिति का भी सुन्दर बोध होता है। उस समय आबादी कम थी । यातायात के साधन भी इतने नहीं थे । मुनिजन जब एक गाँव से दूसरे गाँव में विहार करते तब मार्ग में उन्हें अनेक आपत्तियों का सामना करना पड़ता था। मार्ग में चोर, लुटेरे उन्हें लूट लेते, अनेक यातनाएँ देते। वे कपड़े उतरवा लेते और यदा-कदा पात्रों को भी ले लेते थे।
'नगजी जातिरो गूजर । तिण घर छोड़ने भेष पहिर्यो । ते दोनू गुरु चेला विहार करता थकां 'करेहै' आवै । मारग में एक चोर उठ्यो सो गुरां रा तो कपड़ा खोस लीया, नगजी रा लवा लाग्यौ जद नगजी बोल्यौ-थां कनै तरवार है । म्हारै लौहरो संगटो करणो नहीं सो सस्त्र अलगा मेल दै । जद तिण सस्त्र दूरा मेल्या । कपड़ा लैवा आघौ आयौ तद नगजी चोर रा दोन बाहुडा पकड्या, पछावट लाग्यौ जद तिण रो गुरु बोल्यो-'रै अनरथ करै । मनख मार।' जद नगजी बोल्यो-'यूं साधां ने खोस जद विचरस्यां किस तरह श्यूं । म्हैं तो घर में ई घणाई सुसला मार्या था । जाण्यौ एक सुसलौ वधतो मार्यो । एक तलौ प्राछित रो ऊरौ लैसू, पिण इण नै तो छोडूं नहीं। पर्छ गुरु घणो कह्यो, मार मती, जद कमरडी दोरी तूं दो हाथ पूठ बाँध णांम र गौरवं आण नै छोड दीयो।'
-(दृष्टान्त २५) इतिहास अतीत को जोड़ने वाली कड़ी है। प्रत्येक परम्परा अतीत की घटनाओं से प्रेरणा लेती है। एक प्रेरक घटना प्रस्तुत है जो कि भाव और भाषा-दोनों दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण हैं
__ 'कोटवाला दौलतरांमजी माहिथी चार आया-बडौ रूपचंद, छोटो रूपचन्द वधमानजी, सुरतौ । तिण में सुरती तो थोड़ा दिन रही छूट गयौ। अनै बधमानजी घणां वर्स साध पणौ पाल्यौ, पछ ढूंढार में मारग में लू लागी, चामडों खाच्यां हाथ में आवै। इसौ सरीर सीझ गयौ । हालता हेठा पड़ गया । बेठा होय चलता फैर हेठा पड गया । साथै अखैरामजी मायारामजी हुँता ते गाम मांही थी
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