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अपभ्रंश साहित्य में रामकथा
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का रूप (पउमचरिय) देने वाले विमलसूरि ने लिखा है कि आचार्य परम्परा से आगत नामावली के रूप में निबद्ध जितना भी पद्मचरित है, मैं उस सबको यथानुक्रम से कहता हूँ।
णामावलियणिबद्ध आयरिय-परंपरागमं सव्वं ।
वोच्छामि पउमचरियं अहाणुपुग्विं समासेन उद्देश्य ॥ विमलसूरि को भी इसकी आवश्यकता तब पड़ी होगी, जब दूसरे मतों में उसने काव्य का आकार ग्रहण कर लिया होगा और वह धर्म प्रचार की लोकप्रिय विधा हो उठी होगी। ऐसा प्रतीत होता है कि उत्तरभारत में वाल्मीकि की रामकथा प्रचलित थी और दक्षिण भारत में उत्तरपुराण की । गुणभद्र के अनुकरण पर पुष्पदंत ने उसे सामंतवाद की पृष्ठभूमि पर जैनसिद्धान्तों के अनुरूप काव्य का रूप दिया। किसी भी पौराणिक आख्यान या घटना महत्त्व यही है कि वह समकालीन चेतना और लोक-विश्वासों के मेल से नए सृजन का रूप ग्रहण करने की क्षमता रखती है । अन्य दूसरे पौराणिक कवियों की तरह, जैनपुराण कवियों को भी अपने सृजन में इस बात के लिए संघर्ष करना पड़ा कि मूलस्रोत, परम्परा और नए समकालीन तथ्यों और प्रसंगों का सामंजस्य करते हुए वे अपने सृजन को नई भाषा में क्या आयाम दें ?
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