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________________ Jo666 ----0 O २६० @4 कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड है । जो एक है, वह अनेक भी है। जो नित्य है, वह अनित्य भी है। इस प्रकार हर एक वस्तु परस्पर विरोधी गुण-धम से भरी हुई है। स्याद्वाद के विषय में उसकी जटिलता के कारण ऐसे विवेचनों की बहुलता यत्र-तत्र दीख पड़ती है। इस जटिलता को भी आचार्यों ने कहीं-कहीं इतना सहज बना दिया है कि जिससे सर्वसाधारण भी स्याद्वाद को भली-भाँति समझ सकते हैं। जब आचार्यों के सामने यह प्रश्न आया कि एक ही वस्तु में उत्पत्ति, विनाश और ध्रुवता जैसे परस्परविरोधी धर्म कैसे ठहर सकते हैं? तो स्याद्वादी आचायों ने कहा एक स्वर्णकार स्वर्ण कलश तोड़कर स्वर्ण मुकुट बना रहा है। उसके पास तीन ग्राहक आए एक को स्वर्णपट चाहिए था, दूसरे को स्वर्णमुकुट और तीसरे को केवल स्वर्ण चाहिये था। स्वर्णकार की प्रवृत्ति को देखकर पहले को दुःख हुआ कि यह स्वर्णकलन को तोड़ रहा है। दूसरे को हर्ष हुआ कि यह मुकुट तैयार कर रहा है। तीसरा व्यक्ति मध्यस्थ भावना में रहा क्योंकि उसे से काम था। तात्पर्य यह हुआ कि एक ही वस्तु (स्वर्ण) में उसी समय एक विनाश देख रहा है, एक है और एक ध्रुवता देख रहा है । तो केवल स्वर्ण उत्पत्ति देख रहा इसी प्रकार जब किसी व्यक्ति ने पूछ लिया कि आपका स्याद्वाद क्या है, तो आचार्यों ने कनिष्ठा व अनामिका सामने करते हुए पूछा- दोनों में बड़ी कौन-सी है ? उत्तर मिला- अनामिका बड़ी है। कनिष्ठा को समेट कर और मध्यमा को फैलाकर पूछा- दोनों अंगुलियों में छोटी कौन-सी है ? उत्तर मिला - अनामिका । आचार्यों ने कहा—यही हमारा स्याद्वाद है, जो तुम एक ही अंगुली को बड़ी भी कहते हो और छोटी भी । यह स्याद्वाद की सहजगम्यता है । इसी प्रकार जो सत् है, वही असत् कैसे हो सकता है ? और यह एक विरोधाभास भी प्रतीत हो सकता है, किन्तु वास्तव में ऐसी बात नहीं है । जैन दार्शनिकों ने स्याद्वाद की दृष्टि से, अनेक भिन्न-भिन्न दृष्टिबिन्दुओं तथा विचारधाराओं का एक साथ विचार करने के बाद ही यह बात कही है। द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की चारों अपेक्षाओं, सातों नयों द्वारा की गई तुलना और सप्तभंगी से मिलान करने के पश्चात् ही जैन शास्त्रकारों ने यह विचित्र किन्तु सम्पूर्ण रूप से सत्य बात कही है। जैन तत्त्वज्ञानियों ने सर्वथा असंदिग्धता से भारपूर्वक कहा है कि एकान्त नित्य से अनित्य का या एकान्त अनित्य से नित्य का स्वतन्त्र उद्भव असम्भव है । भगवतीसूत्र में प्रश्न किया गया है-भगवन् ! परमाणु पुद्गल शाश्वत है या अशाश्वत ? भगवान् महावीर कहते हैं- हे गौतम! द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से परमाणु पुद्गल शाश्वत है- नित्य है और वर्णपर्यायों से लेकर स्पर्श - पयार्यो की अपेक्षा से अर्थात् पर्यायार्थिक नय दृष्टि से यह अशाश्वत, अनित्य, अस्थित है, क्षणिक है। इसका स्पष्ट अभिप्राय यह है कि वस्तु अन्य की अपेक्षा से नित्य है और पर्याय की अपेक्षा से अनित्य भगवान् महावीर एक स्थान कहते हैं— 'अनेगे आया' अर्थात् परन्तु सैद्धान्तिक दृष्टि से उनमें वस्तु में नित्यत्य अनित्यत्व एकत्व अनेकत्व - पर कहते हैं— 'एगे आया' - आत्मा एक है। और अपने उपदेश में दूसरे स्थान पर आत्मा अनेक हैं। शाब्दिक दृष्टि से दोनों कथनों में विरोध दिखाई देता है, कोई विरोध नहीं है, केवल भेद है, अतः उन दोनों में सत्यता है आदि अनेक धर्म हैं और उनको हम एक-एक अपेक्षा से समझ सकते हैं । से जितने भी एकान्तवादी दर्शन होते हैं, उन सबका समावेश हो सकता है, इस अपेक्षादृष्टि को नय कहते हैं । नयवाद क्योंकि वे वस्तु के स्वरूप को एक दृष्टि से देखते हैं। परन्तु वे अपनी दृष्टि को सत्य और दूसरों की दृष्टि को एकान्ततः मिथ्या बताते हैं, अतः वे स्वयं मिथ्या हो जाते हैं । उनमें परस्पर संघर्ष शुरू हो जाता है । जैसे द्रव्य की अपेक्षा से आत्मा के नित्यत्व को देखने वाला विचारक यह आग्रह रखता है कि आत्मा नित्य ही है, वह अनित्य नहीं है । नित्यवाद ही सही है । अनित्यवाद का सिद्धान्त पूर्णतः गलत है। इस एकान्त आग्रह के कारण वह नय मिथ्यानय हो जाता है । उसमें सत्यांश होते हुए भी एकान्त का आग्रह अन्य सत्यांगों का अस्वीकार और अपनी दृष्टि से व्यामोह का जो विकार है, वह उसे मिथ्या रूप में परिणत कर देता है । दार्शनिक क्षेत्र में फिर संघर्ष शुरू होता है और सभी दार्शनिक एवं विचारक अपने माने हुए सत्यांशों को पूर्णतः सत्य और दूसरे के अभिमत सत्यांशों को पूर्णतः असत्व सिद्ध करने के लिये वाक्युद्ध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
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