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कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : द्वितीय खण्ड
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घटना के रंगीन चित्र छपे हए आज घर-घर में टंगे मिलेंगे। चित्र काल्पनिक अवश्य हैं किन्तु इस जनश्रुति के प्रमाण में यह चित्र सहायक अवश्य हैं।
सिरियारी के आस-पास बहुत से खण्डहर मिलते हैं । अब ये भूमिसात जरूर हो गये हैं ; किन्तु किंवदन्ती है कि ये खण्डहर पाटन नगर के हैं । पाटन कौन सा और कैसा नगर था, यह इतिहास व पुरातत्त्व का विषय है, लेकिन कभी समृद्ध रहा होगा, यह खण्डहरों को देखने से कहा जा सकता है । सिरियारी के पूर्व में अरावली पहाड़ है। इसकी एक ऊँची चोटी गोरम की चोटी कहलाती है। इसे गोरमघाट भी कहते हैं । इस चोटी पर गोरमनाथ का एक मन्दिर बना हुआ है । इतनी ऊँची चोटी पर मन्दिर व कुआ कैसे बना होगा, यह आश्चर्य का विषय है । पहाड़ी के नीचे तलहटी में गोरमनाथजी की धूणी आई हुई है। इसके पास ही काजलवास है। यहाँ पर आश्रम व बावड़ी है। सम्प्रदाय का यह क्षेत्र कभी बड़ा केन्द्र था । काजलवास में बनी विभिन्न नाथों की समाधियां इसका प्रमाण हैं।
प्राचीन काल में यहाँ मालूमसिंहजी ठाकुर थे जो बड़े वीर और पराक्रमी थे। जोधपुरनरेश के यहाँ पर किन्हीं सिंघवीजी का बड़ा प्रभाव था लेकिन किसी कारणवश दरबार के साथ उनकी अनबन होने से उन्हें वहाँ से देशनिकाला दे दिया गया तथा वे मेवाड़ की ओर रवाना हो गये। रास्ते में सिरियारी ग्राम होते हुए जा रहे थे कि अचानक उन्हें ठाकुर मालूमसिंहजी की बहादुरी का ध्यान आया और वे सीधे ठाकुर से मिलने गये । बातचीत में असलियत का पता लगा और ठाकुर मालूमसिंह ने सिंघवीजी को शरण दे दी। इसकी खबर जोधपुर दरबार तक पहुँची। जोधपुरनरेश ने दूत भेजा और कहलाया कि सिंघवीजी को शरण न दें, यदि शरण दी तो फिर लड़ाई के लिए तैयार हो जायें । खबर सुनते ही ठाकुर को क्रोध आया और कहलाया कि मैंने तो शरण दे दी, आप चाहे जैसा करें। सच्चे राजपूत शरण देकर उसकी रक्षा करने के लिये हर वक्त तैयार रहते हैं । मैंने अपना कर्तव्य किया है । यह खबर दरबार के पास पहुंची । जोधपुर से सेना तैयार कर सिरियारी पर चढ़ाई की गई । उस समय REE घर ओसवालों के थे । यह नगर सिरियारी गढ़ के नाम से प्रसिद्ध था । यहाँ की आबादी काफी अधिक थी। नगर के चारों ओर पहाड़ी आने से नगर पहाड़ों के बीच में अदृश्य सा लगता था। सेना के आने पर चारों ओर के दरवाजे बन्द कर दिये गये तथा बुों पर तोपें लगा दी गई । सिर्फ पूर्व की ओर का दरवाजा जो देवगढ़ दरवाजा कहलाता था, रसद के लिये खुला था । जोधपुर की सेना कई दिनों तक रही, मगर नगर में प्रवेश नहीं पा सकी।
किन्तु कहावत है कि 'घर का भेदी लंका ढावे'; इसके अनुसार पास के ही सिंचाणा गाँव के राजपूतों में से किसी ने नगर-प्रवेश का गुप्त रास्ता जोधपुर दरबार को बता दिया। फिर क्या था ? फौज सीधी देवगढ़ दरवाजे से प्रवेश पाने हेतु उधर मुड़ी। दरवाजा रसद आने-जाने के लिए खुला था। रातोंरात फौज उधर पहुंच गई। पहरेदारों के साथ घमासान युद्ध हुआ, मगर सेना अधिक थी। अत: नगर में प्रवेश पाना सरल था । इधर ठाकुर सा० मालूमसिंहजी को जब पता लगा तो वे फौरन केसरिया बाना पहनकर युद्ध के लिये तैयार हो गये। जोरदार युद्ध हुआ। कहते हैं कि मालूमसिंहजी का सिर बाजार के बीच जहाँ आचार्य भिक्षु का स्वर्गवास हुआ, उस स्थान पर गिरा। केवल धड़ ने सेना का नाश करते हुए सेना को पीछे खदेड़ दिया । देवगढ़ दरवाजे के बाहर सेना को निकालकर धड़ वहीं गिर पड़ा। वहाँ पर बनी उनकी छतरी इस घटना की आज भी याद दिलाती है तथा आज तक उस योद्धा की पूजा की जाती है। ऐसी वीरभूमि में आचार्य भिक्षु के सात चातुर्मास हुए और अन्तिम देह संस्कार इसी नगर में नदी के किनारे बावड़ी के पास सोजत दरवाजे के बाहर किया गया जिसकी याद में उत्तर में भव्य स्मारक बना हुआ शोभा पा रहा है।
सिरियारी के पश्चिम की ओर दूर-दूर तक वीरगति पाये वीरों के चबूतरे बने हुए हैं जो इस भूमि की वीरता की याद दिलाते हैं । यहाँ पर कई युद्ध हुए हैं, अतः ओसवालों के ६६E के करीब जो घर थे, वे अन्यत्र जाकर बस गये । और वे नौ काछबलियों में बस गये । ये नौ काछबलियाँ-सिरियारी से करीब ही हैं। इस प्रकार अब केवल १५०-२०० की संख्या जैनियों की रह गई, जिसमें तेरापंथी समाज के ६०-७० घर आज मौजूद हैं। ये सभी धर्म पर बलिदान की भावना वाले हैं।
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