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कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड
योगशास्त्र के इस अन्तिम प्रकाश में हेमचन्द्र ने मन का विशेष रूप से विश्लेषण किया है। उन्होंने योगाभ्यास के प्रसंग में विक्षिप्त, यातायात, श्लिष्ट तथा सुलीन-यों मन के चार भेद किये हैं। उन्होंने अपनी दृष्टि से इनकी विशद व्याख्या की है। योगशास्त्र का यह प्रकरण (प्रकाश) साधकों के लिए विशेष रूप से अनुशीलनीय है।
हेमचन्द्र ने विविध प्रसंगों में बहिरात्मा, अन्तरात्मा, परमात्मा, औदासीन्य, उन्मनीभाव, दृष्टिजय, मनोजय आदि उपयोगी विषयों पर बड़े सरल शब्दों में अपने विचार उपस्थित किये हैं। बहिरात्मा, अन्तरात्मा तथा परमात्मा के रूप में आत्मा के जो तीन भेद किये जाते हैं, वे आगमोक्त हैं। विशेषावश्यक भाष्य में उनका विस्तृत वर्णन है।।
इस प्रकाश में आचार्य हेमचन्द्र ने और भी अनेक महत्त्वपूर्ण विषयों की चर्चा की है, जो यद्यपि संक्षिप्त हैं, पर विचार-सामग्री की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं। उपसंहार
योगदर्शन साधना और अभ्यास के मार्ग का उद्बोधक है। उसकी वैचारिक पृष्ठभूमि या तात्त्विक आधार प्रायः सांख्यदर्शन है। अतएव दोनों को मिलाकर सांख्ययोग कहा जाता है। दोनों का सम्मिलित रूप ही एक समग्र दर्शन बनता है, जो ज्ञान और चर्या-जीवन के उभय पक्ष का समाधायक है। सांख्यदर्शन अनेक पुरुषवादी है। पुरुष का आशय आत्मा से है। जैन दर्शन के अनुसार भी आत्मा अनेक हैं। जैन दर्शन तथा सांख्य दर्शन के अनेकात्मवाद पर गवेषणात्मक दृष्टि से विशद एवं गम्भीर परिशीलन वांछनीय है।
. इसके अतिरिक्त पातंजल योग तथा जैन योग के अनेक ऐसे पक्ष हैं, जिन पर गम्भीरता से तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन किया जाना चाहिए क्योंकि दोनों परम्पराओं में काफी सामंजस्य है। यह सामंजस्य केवल बाह्य है या तत्त्वतः उनमें कोई ऐसी आन्तरिक समन्विति भी है, जो उनका सम्बन्ध किसी एक विशेष स्रोत से जोड़ती हो, यह विशेष रूप से गवेषणीय है।
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स्वात्मानं स्वात्मनि स्वेन, ध्याते स्वस्मौ स्वतो यतः । षट्कारकमयस्तस्माद्, ध्यानमात्मौव निश्चयात् ॥
-तत्त्वानुशासन ७४ आत्मा का, आत्मा में, आत्मा द्वारा, आत्मा के लिए, आत्मा से ही ध्यान करना चाहिए। निश्चय दृष्टि से षट्कारकमय यह आत्मा ही ध्यान है।
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