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कर्मयोगी श्री केसरीमलजो सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड
(क) पुद्गल
जिसका संयोग व विभाजन हो सके, उसे पुद्गल कहते हैं।' वे स्पर्श, रस, गन्ध व वर्ण गुण वाले होते हैं। वे दो प्रकार के होते हैं-अणु (Atomic) और स्कन्ध (Compound) । अणु सबसे छोटा भाग है, जिसका विभाजन असम्भव है, जबकि स्कन्ध दो या उससे अधिक अणुओं से निर्मित होता है। (ख) आकाश
आकाश तत्व प्रत्यक्षगम्य नहीं है, यह अनुमान द्वारा सिद्ध होता है। वह सभी अस्तिकाय--द्रव्योंजीव, पुद्गल, धर्म व अधर्म को अवकाश प्रदान करता है। बिना आकाश के इन अस्तिकाय-द्रव्यों की स्थिति असम्भव है। क्योंकि द्रव्य आकाश को व्याप्त करता है और आकाश द्रव्य के द्वारा व्याप्त होता है । जीव, धर्मादि तत्त्वों को आश्रय देने वाले आकाश को लोकाकाश कहते हैं। जहाँ उक्त द्रव्य हो, उसे अलोकाकाश कहते हैं। लोकाकाश में असंख्य प्रदेश होते हैं, जबकि अलोकाकाश में अनन्त । (ग) काल
__आकाश-तत्त्व की तरह काल भी प्रत्यक्षगम्य नहीं होने से, यह भी अनुमान पर ही आधारित है। द्रव्यों की वर्तना, परिणाम, क्रिया, नवीनत्व, या प्राचीनत्व काल के कारण ही सम्भव होती है। द्रव्यों के अस्तित्व से ही काल की सत्ता सिद्ध होती है। इसकी विभिन्न अवस्थाएं हैं। जैसे-घण्टा, मिनट, दिन व रात्रि आदि । काल भी अणु कहलाता है। यह प्रदेश को व्याप्त करता है, इसलिये इसका कोई कार्य नहीं है । ये अणु समस्त लोकाकाश में व्याप्त रहते हैं, ये परस्पर मिलते भी नहीं हैं। ये अदृश्य, अमूर्त, अक्रिय व असंख्य होते हैं। (घ) धर्म
जैन-दर्शन में स्वीकृत धर्म की कल्पना नितान्त भिन्न है। यह स्वयं जीव को गति प्रदान करने में असमर्थ है, किन्तु उसके लिए उचित वातावरण का निर्माण करता है। जिस प्रकार जल में तैरने वाली मछली के लिए जल सहायक होता है, उसी प्रकार धर्म भी जीव-पुद्गल द्रव्यों को गति में सहायक होता है । (ङ) अधर्म
अधर्म का प्रमाण स्थिति है । वह द्रव्यों की स्थिति में सहायक होता है। जिस प्रकार थके पथिक के लिए वृक्षों की शान्त व सुखदायी छाया मदद करती है, उसी प्रकार अधर्म भी द्रव्यों की स्थिति में सहायक सिद्ध होता है। यहाँ छाया व स्थिति क्रमशः पथिक व द्रव्यों को बाध्य नहीं करती हैं, अपितु सहायता मात्र करती हैं।
यहाँ अधर्म की कल्पना धर्म के एकदम विरुद्ध मान्यता प्रस्तुत करती है।
७. मानव और उसके लौकिक-मूल्य
जैन-दर्शन में जहाँ पारलौकिक-तथ्यों का विशद विवेचन प्राप्त होता है, वहाँ इहलौकिक-तथ्यों का भी वैज्ञानिक विश्लेषण उपलब्ध होता है । इस दार्शनिक सम्प्रदाय का उद्भव ही मानव की इहलोकवादी चिन्तना से हुआ
१. पूरयन्ति गलन्ति च"....." । --सर्वदर्शन संग्रह, माधव, वाराणसी, पृ० १५३. २. पड्-दर्शनसमुच्चय, गुणरत्न की टीका-४६. ३. वर्तना-परिणाम-क्रियाः परत्वापरत्वे च कालस्य ।
-तत्त्वार्थाधिगम सूत्र-५.२२. ४. धर्मादीनां गत्यादिविशेषाः । -सर्वदर्शनसंग्रह, माधव, वाराणसी, १६७८, पृ० १५४.
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