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आत्म : स्वरूप-विवेचन
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करता है और शरीर विनाश पर आत्मा का साक्षात्कार परमात्मा से होता है, परन्तु यह संयोग स्थायी नहीं होता है, यदि आत्मा ने मोक्ष प्राप्ति की योग्यता अजित नहीं की। ऐसी अवस्था में आत्मा अपने मूल (ब्रह्म) से पृथक् होकर पुनः देह धारण करती है, यह जन्म-मरण का चक्र तब तक चलता रहता है जब तक कि आत्मा परमात्मा के साथ स्थायी मिलन की पात्रता अजित न करले । तब उसे ब्रह्म से पुनः पृथक् नहीं होना पड़ता है और यही मोक्ष है।
इस धारणा से भिन्न जैन दर्शन के अन्तर्गत आत्मा को ऐसी किसी परमसत्ता के अंश के रूप में नहीं माना गया है। आत्मा को स्वतन्त्र सत्ता स्वीकार की गयी है। जैन दर्शन वस्तुतः ऐसी किसी ईश्वर की कल्पना तक नहीं करता जो जगत्कर्ता हो, आत्मा का मूल हो । यह दर्शन तो व्यक्ति और आत्मा की सत्ता को ही सर्वोच्च स्थान देता है।
. इन कतिपय तात्त्विक और महत्त्वपूर्ण अन्तरों के होते हुए भी जैन दर्शन और उपनिषद् के आत्म-विषयक दृष्टिकोणों में समानताएँ भी कम दृष्टिगत नहीं होती। जैन दार्शनिक आचार्य कुन्दकुन्द ने आत्मा के उपनिषदीय निम्न स्वरूप को सर्वथा स्वीकार किया है कि
आत्मा चेतन है जो न तो कभी जन्म लेती है और न ही कभी करती है। आत्मा अनादि और अनन्त है, अनश्वर है । जन्म-मरण रहित नित्य है, शाश्वत और पुरातन है।
आत्मा किसी के किसी कार्य की परिणाम नहीं है। साथ ही वह अभाव रूप से भावरूप में स्वयं भी नहीं आयी है।
आत्मा में कर्तृत्व शक्ति भी है और भोक्तृत्व शक्ति भी। आत्मा अशब्द-अस्पर्श-अरूप-अरस-नित्य और अगन्ध है। आत्मा महत्ता के तत्व से परे है और ध्रुव है । आत्म-तत्त्व की प्राप्ति से मनुष्य मृत्यु से छुटकारा प्राप्त कर सकता है ।
प्रश्न : आत्मा के अस्तित्व का? आत्मा होती है, आत्मा जैसी कोई वस्तु होती ही नहीं-ये दोनों ही विचार भारतीय चिन्तन-धाराओं में रहे हैं । प्रश्न है सत्यासत्य के विवेचन का। दोनों ही पक्ष अपने-अपने समर्थन में तर्कों का भी अभाव नहीं रखते, किन्तु वास्तविकता तो कोई एक पक्ष ही रख सकता है। अन्य पक्ष आधारहीन सिद्ध होना ही चाहिए। इन दो पक्षों में से कौन-सा वस्तुतः सत्य है ? भारतीय दर्शन की समस्त शाखा-प्रशाखाएँ आत्मतत्त्व के इर्द-गिर्द स्थित हैं, आत्मवादी
और अनात्मवादी दोनों ही धाराओं में आत्मा का विस्तृत विवेचन है, चाहे वह स्वीकारात्मक हो या नकारात्मक स्वरूप का हो। आत्मा किसे कहा जाए-इस विषय में भी मत वैभिन्न्य है। कहीं इन्द्रिय को आत्मा कहा जाता है तो कहीं विवेकबुद्धि को और कहीं मन को, यहाँ तक कि कहीं-कहीं तो शरीर को ही आत्मा कह दिया गया है । इसके विपरीत कहीं इन सबसे स्वतन्त्र अस्तित्व में आत्मा के स्वरूप को स्वीकार किया गया है । ये तो वे पक्ष हैं जो आत्मा के अस्तित्व को स्वीकृति देते हैं, चाहे आत्मा को किसी भी स्वरूप में मानते हों किन्तु चार्वाक तो आत्मा के अस्तित्व को ही नहीं मानता।
___ जब हम उन कारणों पर विचार करें कि आत्मा के अस्तित्व को नकारा क्यों जा रहा है तो हम उनके मूल में, आत्मा की इस आधारभूत विशेषता को पाते हैं, कि वह भौतिक रूप नहीं रखती। उसका सूक्ष्म और अमूर्त रूप है । वह शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्धादि की अनुभूति का विषय नहीं। परिणामतः उसका प्रत्यक्ष नही होता, उसका कोई रंग रूप आकार-आकृति नहीं। अतः उसे नकारा जाता है। उसके अस्तित्व में अमान्यता का भाव होता है। प्रमाण द्वारा उसके होने को सिद्ध नहीं किया जा सकता। अन्य प्रत्यक्ष अस्तित्वधारी पदार्थों की भाँति आत्मा
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