Book Title: Chanakya Sutrani
Author(s): Ramavatar Vidyabhaskar
Publisher: Swadhyaya Mandal Pardi
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि श्री रामावतार विद्याभास्कर Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ YGENERGENERGossERGENERGOOGOOGeog AMAL चाणक्यसूत्राणि [अर्थ और विवरण सहित] महामति आर्य विष्णुगुप्त उपनाम चाणक्य (चणकात्मज) कौटल्य ( कुटलगोत्रिय ) RGEOGAOGRAMODGEMERGEOGRAMODGOOGLEDGEMERGENERGENA भाषान्तरकार तथा व्याख्याकार स्व. श्री रामावतार विद्याभास्कर बुद्धिसेवाश्रम, रतनगढ (जि. बिजनौर) --ser~ स्वाध्याय-मंडल, पारडी १९४३ मूल्य १८) रु. HIRDERATIOCORDER.CONDORom Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुद्रक और प्रकाशक : वसन्त श्रीपाद सातवलेकर, बा. ए., भारत- मुद्रणालय, स्वाध्याय मंडल, पोस्ट- 'स्वाध्याय मंडळ ( पारडी )' पारडी [ जि. सूरत ] Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमि का आर्य चाणक्यने भारतसन्तानको ज्ञानदान करनेके लिये जिन दिनों भारत में जन्म लिया था, संयोगसे उन्हीं दिनों यूनानके राजसिंहासनको कलंकित करनेवाले विश्वनिन्दित प्रसिद्ध माततायी सिकन्दरने भारतपर आक्रमण किया था । यह आक्रमण भारत के लिये वरदान सिद्ध हुआ । ( 1 ) भार्य चाणक्यने पश्चिमोत्तर भारतकी अश्वकजातिके नेता वीरयुवक चन्द्रगुप्तको कुख्यात भीषण सिकन्दर के विरुद्ध समराभियानके लिये प्रेरणा देकर उसकी क्षात्रशक्ति से उसे विताडित कराकर देश से बाहर धकेल दिया था, ( २ ) सिकन्दर के राज्यलोभको उतेजित करनेवाले भारतीय देशद्रोहियों को नामशेष बना डाला था, (३) विलासव्यसनासक्त राजाओंके भोगक्षेत्र बने हुए शतधा खण्डित परस्पर कलहायमान गणराज्योंमें विभक्त भारतको एक सुसंगठित दर्श साम्राज्यका रूप देकर, चन्द्रगुप्त को उसका एकछत्र सम्राट् बनाकर संसार के समक्ष सूर्यके समान तेजस्वी सर्वश्रेष्ठ आदर्श राजचरित्रका जीवित उदाहरण उपस्थित किया था ( ४ ) और अन्तमें चन्द्रगुप्तके शासन के सौर्य तथा सौष्ठव के लिये शासनविधानके रूपमें राजनैतिक साहित्यका शिरोमणि कौटलीय अर्थशास्त्र प्रस्तुत करके उससे साहित्य जगत् में अमरता प्राप्त की । मानवका देहधारण तब ही सार्थक होता है या यों कहें कि देहधारणकी यही सार्थकता है कि उसका व्यक्तित्व उसे जन्म देने, मानव के पालने, Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि पोसनेवाले समाजके हिसमें काम आये और उसीमें विलीन हो चुका हो । मानव अपने हितको समाजके हितसे अलग समझता हो और व्यक्तिगत सुखसुविधा में जीवन व्यय कर रहा हो इसमें उसका कदापि हित नहीं है । मूढ मानव अपनी भूलसे अपने हितको अपने समाज के हित से अलग बनाये रखनेके शतधा प्रयत्न करता तो है, परन्तु उसकी इस दुष्प्रवृत्तिसे उसका व्यक्तिगत हित भी नष्ट हो जाता उसका निश्चित मानसिक अकल्याण होता है और परिणामस्वरूप उसकी मूल्यकता मानवता भी लुप्त हो जाती है । अपने हितको समाजके हित से अलग रखना मूढ मनुष्यकी आपातमनोरम स्वहितविरोधी प्रवृत्ति है। मानवके व्यक्तित्वका समाजहितसे विच्छिन्न होजाना उसे अनिवार्य रूपसे समाजद्रोही, आत्मघाती असुर बनाकर छोड़ता है । जीवनकी धन्यता तो वे ही लोग पा सकते हैं जो समाजके हित में आत्मसमर्पण करके रहनेवाले ही जीवनकी धन्यता पा सकते हैं । व्यक्ति तथा समाजके दितका द्वैविध्य ( अलगाव ) ही मानव समाजका अमघात है । सुशिक्षा ही समाजको इस आत्मघाती रोगसे बचानेवाली एकमात्र रामबाण चिकित्सा है । देहका यह रोग सत्साहित्य के द्वारा सुशिक्षा से ही मिटाया जा सकता है । आर्य चाणक्यने राष्ट्रको सुशिक्षित करने ही के लिये अपना राजनैतिक साहित्य रचा है । सम्पूर्ण मानव समाजको सामाजिक सुशिक्षा देनेवाले भारतके राजनैतिक गुरु आर्य चाणक्यको उसकी मद्दती राजनैतिक सेवाओंके कारण राजनैतिक जगद्गुरुका उच्चासन स्वयमेव प्राप्त हो गया है । नाभिषेको न संस्कारः सिंहस्य क्रियते वने । विक्रमार्जितलत्वस्य स्वयमेव मृगेन्द्रता ॥ सिंहका वनमें कोई राज्याभिषेक नहीं करता और कोई उसे राज्यदीक्षा . नहीं देता। अपने लिये अपने हीं भुजबल से सम्मानित पदका उपार्जन करनेवाला सिंह स्वयमेव ' मृगेन्द्र ' बन बैठता है । यह लोकोक्ति चाणक्य जैसे ही महापुरुषोंके लिये बनी है । 8 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका कौटल्यगोत्रिय ऋषि चणकके पुत्र आदर्श ब्राह्मण विष्णुगुप्तने ढाई सहस्र वर्ष पूर्व भारत के राजामोंको राजनीति सिखानेके लिये अर्थशास लघु. चाणक्य, वृद्ध चाणक्य, चाणक्यनीति, चाणक्यराजनीतिशास्त्र आदि अन्योंके साथ व्याख्यायमान चाणक्यसूत्रोंका भी निर्माण किया था। राजाओंको राजनीतिकी शिक्षा देना वास्तव में राजा बनानेवाले समाजको ही राजनीति सिखाना है । समाजको राजनीति सिखाना वास्तव में समाजके भविभाज्य अंगों, समाजकी मूलभूत प्रथम इकाइयों अर्थात् व्यक्तियों को ही राजनीति सिखाना है। राजनीतिमें सर्वे पदा हस्तिपदे निमनाः ' के अनुसार मानवसन्तानको मनुष्यतासे समृद्ध करनेवाले समस्त शास्त्र तथा समस्त धर्म स्वभावसे सम्मिलित हैं, राजनीतिपर ही समस्त धर्मों के पालनका यही उत्तरदायित्व है। आन्वीक्षिकीत्रयीवार्तानां योगक्षेमसाधनो दण्डः। तस्य नीति दण्डनीतिः, अलब्धलाभार्था, लब्धपरिरक्षणी, रक्षित. विवर्धनी, वृद्धस्य तीर्थेषु प्रतिपादनी च । तस्यामायत्ता लोकयात्रा तस्माल्लोकयात्रार्थी नित्यमुद्यतदण्डः स्यात् । ( कोटलीय अर्थशास्त्र १-४) दण्डनीति का स्वरूप यही है कि भान्वीक्षिकी त्रयी तथा वार्ता तीनोंके योगक्षेम दण्ड (अर्थात् सुव्यवस्थित राजशक्ति ) से ही सुरक्षित रहते हैं। संसार दण्डमय होनेपर ही भान्वीक्षिकी (मात्मविद्या ) आदिमें प्रवृत्त होता है; नहीं तो नहीं । उस दण्डनीतिका उपदेष्टा शास्त्र भी दण्डनीति कहाता है । दण्डनीतिके अप्राप्त की प्राप्ति, प्राप्तकी रक्षा, रक्षितका वर्धन तथा वर्धितका लोककल्याणी कार्यों में विनियोग नामक चार फल हैं। लोगोंकी जीवनयात्रा दण्डनीतिकी सुरक्षा (सुप्रयोग ) पर ही निर्भर होती है। इसीलिये राजनीति समस्त धमाका मूल है। इस कारण राजनीति. सम्पन्न लोग सदा ही अन्याय अत्याचारके विरुद्ध दण्डप्रयोगके लिये उद्यत रहें। Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि क्योंकि राजनीति ही समस्त शास्त्रों तथा धौकी सुरक्षाका सुनिश्चित समाश्वासन है, इसीलिये ज्ञानकर्म समुच्चयवादी मार्य चाणक्य ने अपने राष्ट्र को राजनीति सिखाना ही अपने जीवनका मुख्य लक्ष्य बना लिया था। आर्य चाणक्यकी राजनीतिका सारांश समाजको इस प्रकार सुशिक्षित करना है कि वह अपनी राजशक्तिको केवल उन लोगों के हाथमें रहने देनेका सुनिश्चित प्रबन्ध करके रक्खे, जो अपने आपको समाजहितके सुरत बन्धनों में बांध रखने में न केवल हर्ष और गौरव अनुभव करते हों प्रत्युत इसीको अपना महोभाग्य भी माने । समाज ही व्यक्तिका विकासक्षेत्र है । जहाँ समाज नहीं है वहां व्यक्तियोके पास सामाजिक कर्तग्य नहीं हैं । समाजहीन लोग क्षुद्र स्वार्थों में उलझे पडे रहते हैं । असामाजिक व्यक्तियोंके प्रमादसे उनके समाजके हितको अनधिकारी लोग अपने व्यक्तिगत स्वार्थीका साधन बनानका अवसर पा लेते हैं और परिणामस्वरूप लोगोंके व्यक्तिगत स्वार्थोकी भी अकथनीय दुर्गति होती है। समाजचिन्ताके प्रसंगमें यह जानना अत्यावश्यक है कि ग्राम ही समा. जके निर्माता हैं, नगर नहीं। नगर तो समाजहीन ( परस्पर सम्बन्धहीन ) संस्था हैं। नगरोंका निर्माण भोगी राजाओं के स्वार्थासे हुया है और होता है । भोगलक्ष्यवाली राज्य संस्थायें नगरों को तो बढावा देतो चली जाती हैं और समाजरचनाके स्वाभाविक क्षेत्र ग्रामों की ओर दुर्लक्ष्य करके उन्हें उजडने और घटते चले जाने के लिये विवश करके रखती है। नगरोंको समाज न कहकर ' समज' कहा जा सकता है। समाज केवल उस मानव. समुदायका नाम है जो सम्पदविपदमें परस्पर सहानुभूति रखता है । एक दूसरेके विपन्मोक्षमें सहायक बनने का सरसाहस न करने वाले असहाय पशुओका साहसी मानवसमूह समाज कहलानेका अधिकारी नहीं है। उसे तो पशुसमूहके समान ' समज' कहना ही उपयुक्त है। ग्राम ही सामाजिकताकी स्वाभाविक जन्मभूमि है। सामाजिकताकी स्वाभाविक जन्मभूमि ग्रामों में उत्पन्न होनेवाला मानवसमाज ही समाज. Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका हितके बन्धनों में माबद्ध रह सकता है। ग्रामों के इस बन्धनका टूटना या टूटने देना, शिथिल होजाना या शिथिल हो जाने देना अस्वाभाविक उधारी स्थिति है। ग्रामों में मिन भित्र जातियों और सम्प्रदायोंके लोगों का कौटुम्बिक सम्बन्धों जैसा परस्पर पवित्र घनिष्ट सम्बन्ध होता है। इसीलिये प्रामवासी लोग एक दूसरेको दादा-दादी चाचा-चाची ताऊ-ताई बहनभाई भादि कौटुम्बिक उपाधियोंसे ही सम्बोधित करते हैं । यह सामाजि. कता शहरों में कहां है ? ग्रामवासी लोग माकस्मिक विपत्तियों में नगर. वासियों के समान मांख बन्द करके न बैठे रहकर परस्परके सहायक बन. नेके लिये एकत्रित होजाते हैं। ग्रामवासी लोग एक दूसरेका विपद्वारण करने में अपने प्राण तक होम देते हैं । यही तो ग्रामों की सामाजिकता है । संकेतमात्र पर्याप्त है । नगरवाली सामाजिक बन्धनसे पृथक रहते हैं। वे केवल व्यक्तिगत क्षुद स्वार्योसे पूर्णरूपसे अभिभूत रहते हैं। उनके हृदयों में समाजहिताकांक्षा नामवाली कोई स्थिति नहीं होती। इनकी समाजहिताकांक्षा इनके नेता बन जाने तक सीमित रहती है। सामाजिक हितों की चिन्ता न रखना मानवका मसाधारण अपराध है। इस रूपमें अपराध है कि सामाजिक हितों की चिन्ता न रखना ही तो समाजका अहितचिन्तक शत्रु बन जाना है। समाजकी उपेक्षा ही समाजसे शत्रुता है। हितकर कर्तग्यसे विमुख रहना ही सो महित करना है । नगरवासी लोग समाजचिन्ताहीन होने के रूपमें समाज के अहितचिन्तक शत्रु होते हैं । आज जो भारतमें राजशकि हथियाने वाले दलोंकी बाढ आई है, वह मिथ्या महत्वाकांक्षी उज्ज्वल वेषी ( सफेद पोश ) नगरवासियों के ही तो मनकी उपज है। राजशक्ति हथियाने वाले दलोंकी बाढ नगरवासियों की असामाजिक मनोवृत्तिका ही तो परिणाम है । शहरी लोगों की असामाजिक 'मनोवृत्तिने ही राजशक्ति हथियाने के इच्छुक दलों की सृष्टि की है। यही कारण है कि समस्त राजनीतिक संस्थाएं नगरों में से ही उपजनी हैं और Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि शहरी लोग ही इनके नेता होते हैं । इनका परिणाम यह हुआ है कि ग्रामोंसे प्राप्त करोंले नगर पाले और बढाये जाते हैं । नगरवालोंके प्रभुतालोभका ही परिणाम आजके द्विखंडित भारतको भोगना पड रहा है । आर्य चाण क्यको नीतिको जो सर्वमान्यता मिली है वह समाजकी राजशक्तिको प्रभुतालोमी हाथमें न रहने देनेकी शिक्षा प्रचलित करना चाहने से ही मिली है | चाणक्य प्रभुतालोभियोंका प्रबल शत्रु था । इसी कारण उसने पर्वतकको नष्ट किया और चन्द्रगुप्त को राज्याधिकार सौंपा। राजशक्तिका नगरहितैषी न होकर समाजहितैषी होना अनिवार्य रूपले आवश्यक है । राजशक्तिके समाजहितैषी होनेपर ही समाजकी शान्तिकी सुरक्षितताका आश्वासन मिल सकता है । यदि राजशक्ति समाजहितका ध्यान न रखकर प्रजाके धनका नगरसंवर्धन में अपव्यय करती है तो वह समाजके सिरपर चढ बैठा हुआ एक अपसारणीय बोझ बन जाती है । इस प्रकारकी नगरपक्षपातिनी राजशक्ति समाजकी शान्तिको सुरक्षित नहीं रख सकती सब मानते हैं कि राज• शक्तिको समाजसेविका बनकर रहना चाहिये। जो राजशक्ति समाज तथा उसकी धनशक्तिको अपनी मिथ्या प्रतिष्ठा और बाह्याडंबर ( दिखावा ) पूरा करनेके काम में लाने लगती है, उसका सर्वभक्षी पेट सुरसाके पेटके समान बढ़ता चला जाता है । वह भस्मक रोगी के समान राष्ट्रके समस्त खाद्यांशको स्वयं खाकर राष्ट्रको भूखा, नंगा, निर्बल बनाये रखती है । इस रूप में वह समाजकी शत्रु होती है । समाजको बाह्य तथा आभ्यन्तरिक दोनों प्रकार के शत्रुओंसे सुरक्षित रखना राजशक्तिका महान् उत्तरदायित्व है । जो राजशक्ति राष्ट्रको दोनों प्रकारके शत्रुओंसे सुरक्षित रखनेका उत्तरदायित्व पूरा नहीं करती, वह निश्चय ही राजशक्ति बने रहने योग्य नहीं है । ऐसी कर्तव्यहीन राजशक्तिके सिर पर आत्मसुधारका कर्तव्य लाद देना चाहिये । परन्तु ऐसा करना समाजके अतिरिक्त अन्य किसीका भी कर्तव्य नहीं है। राजशक्ति पर आत्मसुधारका कर्तव्य लादना जटिल कर्तव्य है । Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका राजशक्तिके सिरपर डाला जानेवाल। इस प्रकारका दबाव वास्तव में राज्य. संस्थाके निर्माता समाजपर ही मारमसुधारका नैतिक दबाव डालना होता है। जो स्वयं नहीं सुधरा वह राज्यसंस्थाको कैसे सुधार सकता है ? कोई भी समाज मास्मसुधार किये बिना अपनी राजशक्तिको कदापि नहीं सुधार सकता। संशुद्ध उद्बुद्ध समाजका ही यह भनिवार्य कर्तव्य है कि वह अपने समाजमेंसे अनैतिकताका बहिष्कार करे और उसे बाह्य तथा माभ्यन्तर दोनों प्रकारके आक्रमगोंसे होनेवाली हानिसे सुरक्षित रक्खे । व्यक्तियों का हित समाजके हितसे पृथक नहीं है और समाजका भी व्यक्तियोंके हितोंसे पृथक् कोई हित नहीं है। ऐसी परिस्थिति में यदि कोई राज्यसंस्था या समाज व्यक्ति के हितके प्रश्नको व्यक्तिगत प्रश्न कहकर टालता या उसकी उपेक्षा करता है, तो वह राज्यसंस्था और वह समाज दोनोंके दोनों अपराधी हैं, और दोनों ही मासुरी हैं। इसलिये हैं कि व्यक्तियों से अलग तो समाजका कोइ हित ही नहीं है। भादर्शसमाजकी स्त्री हुई राज्यसंस्थाको अनिवार्य रूप से व्यक्तियों की व्यक्तिगत हनियों से अपने मापको ही क्षतिग्रस्त माननेवाली होना चाहिये। उसे किसी भी अत्याचारित नगण्य व्यक्ति तककी क्षतिपूर्ति के लिये एडीसे चोटी तकका समस्त बल लगा देना चाहिये। ऐसा करने पर ही राज्यव्यवस्थाका लोगोंसे कर लेना वैध माना जा सकता है। __ जो राज्यसंस्था अपने इस महान् उत्तरदायित्वको नहीं पालती उसके विषयमें इस प्रकार सोचिये कि जो अत्याचारित व्यक्ति आजतक इस राज्य. संस्थाको अपने करदानसे पालता पा रहा है, और जो राज्य संस्था उससे कर लेना न केवल अपना अधिकार मानती आ रही है, प्रत्युत अत्याचारकी इस घटनाके पश्चात् भी उससे कर लेने का लोभ छोडना नहीं चाहती प्रत्युत मागेको भी लेनेका प्रबन्ध किये बैठी है, इसमें कहां तक औचित्य है? 'निश्चय ही समाजके लोग आकस्मिक अत्याचारोंसे मामरक्षाके ही लिये राज्यसंस्थाओं को जीवनबीमा कम्पनियों को दिये जानेवाली किस्तोंके रूप में Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि कर देते हैं। जो राज्यसंस्था किसी भी व्यक्तिकी व्यक्तिगत सुरक्षाका उत्तरदायित्व पूरा करने में असमर्थ हैं, उसे न केवल इस अत्याचारितसे प्रत्युत किसी भी व्यक्ति से कर लेते रहनेका कोई औचित्य या अधिकार नहीं । १० यदि कोई राष्ट्र अपनी राज्यसंस्थाको पवित्र रखना चाहे तो उसे अस्यावारितोंकी व्यक्तिगत हानि या तो अत्याचारितों से पूरी करानी चाहिये या फिर राजकोष से पूरी करना अनिवार्य बना लेना चाहिये । इसीके साथ एक भी किसी अत्याचारितकी असंशोधित हानि पर सम्बद्ध उत्तरदायी राजकर्मचारीको पदच्युत करनेका कठोर नियम बनाकर रखना चाहिये । इतना किये बिना राज्यसंस्थाको कर्तव्यतत्पर रखनेका अन्य कोई भी साधन नहीं है । राजशक्तिके सिरपर भी तो एक दण्ड होना चाहिये । तब ही वह कर्तव्य तत्पर रह सकती है। एक भी अत्याचारितके प्रति राज्यसंस्थाकी उपेक्षापूर्ण उदासीनता, उसे समस्त प्रजाका प्रच्छन्न बैरी सिद्ध करनेवाली भातती मनोदशा है । प्रजाकी हानिका समाचार पाकर भी उसकी हानिके सम्बन्ध निर्लिप्त रहनेवाली राज्यसंस्था स्पष्ट रूप में राष्ट्रद्रोही है, प्रजापीडक है और आसुरी राज्य है । चाणक्य के मन्तव्यानुसार राज्यसंस्थाके आदर्श राज्यसंस्था होनेकी यही कस्पोटी है कि वह राज्यसंस्थाके निर्माता समाजमें ऐसी शक्ति जगाकर बक्खे, उसे ऐसा ओजस्वी सतर्क और समाजहितचित्रक बनानेके लिये विवश कर दे जिसके उद्दीप्त प्रभावसे वह नेता तंत्र के पंजे में फंस ही न सके और अपने उपार्जित सार्वजनिक संपत्तिरूपी राजकोषको प्रतारणामयी लम्बी चौडी शोषक योजनाओ में अपव्ययित होनेसे रोक सके और उसे केवल जन कल्याण में व्यय होनेके लिये सुरक्षित कर दे । आदर्श राज्यसंस्था वही है जिसकी योजनायें प्रजाको उसके भूमि, धन, धान्यादि पाते रहने के मूलाधिकार से वंचित कर देनेवाली नहीं, उसे लंबी चौडी योजनाओंके नामसे कारभारसे आक्रान्त न कर डाले । राष्ट्रोद्धारक योजनायें राजकीय व्ययों में से बचत करके ही चलाई जानी चाहिये । राजग्राह्य भाग देकर बचे प्रजाके टुकडके भरोसे पर लम्बी चौडी योजना क्रेड बैठना प्रजाका उत्पीडन है । Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ भूमिका प्रजा में बल, चेतना सतर्कता, अधिकारतत्परता पैदा करना, प्रजाशक्तिको प्रबल तथा उसे राजशकिका शासक बनाकर रखना ही चाणक्यकी राजनीति है | यही राजनीतिका अभ्रान्त बादर्श भी है यदि समाज राजनीतिके इस अभ्रान्त आदर्शको अपनाले तो निश्चय ही समाजमें स्वर्ग उतर आये । क्योंकि शान्तिप्रियता मानवस्वभाव है इसलिये प्रजाशक्तिका स्वभावसे दानव दलनकारीणी होना स्वतः सिद्ध है। यदि किसी देशकी राजशक्ति कर्तव्यपरायण हो तो वह प्रजा के दानवदलनी स्वभाव के सदुपयोगसे देश में शान्तिरक्षा कर सकती है। सुशिक्षा के द्वारा प्रजाशक्तिपर सत्यका नेतृत्व सुप्रतिष्ठित रखना ही प्रजाशक्तिको राजशक्तिका शासक बनाना है और यही समाजमें शान्ति तथा न्यायको सुरक्षित रखना भी है। प्रजाके सुशिक्षित होनेपर ही समाज में शान्ति और न्याय सुरक्षित रह सकता है । राजनीतिके इस अभ्रान्त आदर्श की शिक्षा से ही में मनुष्यता उत्पन्न हो सकती है । आर्य चाणक्यका साहित्य समाजमें शान्ति तथा न्यायकी रक्षा सिखानेवाला शिक्षाको सुप्रतिष्ठित रखनेवाला ज्ञानभंडार है । राजनैतिक शिक्षाका यह उत्तरदायित्व है कि वह मानवसमाजको राज्यसंस्थापन, राज्यसंचालन तथा राष्ट्रसंरक्षण नामक तीनों काम सिखाये । बिल्ली के भागसे टूटे छींके समान केवल राज्य पा जाना और बात है तथा राज्यसंचालन संरक्षण तथा संवर्धन दूसरी बात है | दुर्भाग्य से भारतने चाणक्य के इस ज्ञानभंडारकी उपेक्षा करके स्वदेशी विदेशी दोनों प्रकारके शत्रुको आक्रमण करनेका निमन्त्रण देकर अपनेको शत्रुओं का निरुपाय आखेट बनानेवाली आसुरी शिक्षा अपनाली है। उसने शिक्षा में से नैतिकतारूपी धर्मका बहिष्कार करने में गौरव अनुभव किया है। शिक्षा में से नैतिकता अर्थात् चरित्रको बहिष्कृत रखना उसे या तो सरकारी कार्यालयोंके लिये लेखक ( क्लर्क ) पैदा करनेवाली या सिद्धान्तहीन पेटपूजा सिखानेवाली बनाकर रखना है । केवल उक्त दो प्रकारके लोग पैदा करना ही तो शिक्षाका आसुरीपन या आसुरी शिक्षानीति है। नैतिकताहीन शिक्षा ही अर्थकारी ( टका ढालनेवाली ) विद्याका मूल है । आज जो Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ चाणक्यसूत्राणि भारतवासी बाह्य और आभ्यन्तरिक दोनों प्रकारके शत्रुओंका आखेट बना है, वह इस अनीतिप्रसारक अर्थकारी विद्याके पीछे पडनेके परिणामस्वरूप मासुरीसमाज बन जानेसे ही बना है। अर्थका दास सम्मान या आत्म. गौरव नहीं चाहता। वह तो केवल अर्थ चाहता है। अर्थकारी विद्या देशमें अनीतिका प्रसार किये बिना नहीं मान सकती और स्वाभिमानहीन मनुष्य पैदा करने से नहीं रोकी जा सकती। श्रिया ाभीक्ष्णं संवासो दर्पयेन्मोहयेदपि । श्रीसे मनुष्य में दर्प और मोह उत्पन्न होना अनिवार्य है। श्रीक। जीवनमें उपयोग होने पर भी उसे जीवन में सर्वोपरि स्थान नहीं दिया जा सकता। श्रीको नैतिकताके बन्धनमें सीमित रखनेसे ही उसे मानवोपयोगी बनाकर रक्खा जा सकता है। नैतिक बन्धनोंसे हीन श्रीमहाविनाशका कारण बन जाती है। भारतका समाजसुधार तथा राज्यसुधार तब ही संभव है जब राज. नीतिका भारतीय दृष्टिकोण अपनाया जाय और अध्यारम तथा राजनीतिकी एकताको लेकर चलनेवाली भारतकी आर्यराजनीति के प्रतीक चाणक्यसूत्रों को भारतसन्तानकी पाठविधिमें सम्मिलित किया जाय। मानवसन्तानको जीवनके नैतिक आधारोंसे सपरिचित कराकर उसे ज्ञानालोकका दर्शन करा देना ही शिक्षाका उद्देश्य है । पाश्चात्य विचारोंसे प्रभावित लोग माध्या. त्मिकताके नामसे चौकते हैं। उन्हें जानना चाहिये कि भारतको राजनीति नैतिकता, मनुष्यता और आध्यात्मिकतामें कोई भेद नहीं है : ये सब अभिन्न है। ये एक ही वस्तु के विवक्षाभेदसे तीन अनेक नाम हैं। कर्तव्यपालन में जिस दृढताकी आवश्यकता है वही अध्यात्म है । दृढता सध्यात्मकी ही देन है । दृढताके विना राष्ट्र नहीं रह सकता। मानवीय यथायज्ञान बाध्यात्म. नैतिकता, मनुष्यता या मुक्ति मादिका यही स्वरूप है कि मानव माठों प्रहर भोगभोजनान्वेषी होकर भटकते फिरनेवाले भात्मम्भरि पशुपक्षियों के समान न हो जाय और केवल अपने व्यक्तिगत क्षुद्र स्वार्थो में फंसा न पा Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका रहे, किन्तु मानवोचित्त मानसिक स्थितिमें रहने के लिये समाजकल्याणको ही अपना वास्तविक कल्याण समझे । १३ अपने व्यक्तिगत क्षुद्र लाभको ही जीवनका लक्ष्य मान लेना मनुष्यका स्वविषयक घोर अज्ञान है । ऐसे मानवने नहीं पहचाना कि मानवताका सम्बन्ध केवल अपने देहसे न होकर सारे ही संसारसे है । मानवसे सारा ही संसार कुछ न कुछ भाशा करता है । मानव संसारभरके कल्याणमें भोग देनेकी क्षमता रखता है । आपने देखा कि मानव बनना कितना उसरदायित्व वहन करता है ? व्यक्तिगत क्षुद्र लाभको ही जीवनका लक्ष्य मान लेनेवाले मानवने भगवान् व्यासकी 'न मानुषात् श्रेष्ठतरं हि किंचित् ' घोषणाका रहस्य नहीं समझा कि मानवीय सत्ता कितनी महामहिम सत्ता है और इस कारण उसका अपने, कुटुम्ब, ग्राम, समाज, देश तथा इस संसारके सम्बन्धर्मे कितना बडा उत्तरदायित्व है । आजकल अपने विषय में घोर अंधेरे में रहते हुए भी स्वभिन्न संसारके विषय में परिचय प्राप्त कर लेना ज्ञानकी परिभाषा बन गई है परन्तु निश्चय ही यह ज्ञान नहीं है; किन्तु अपने आपको जान लेना ही ज्ञान है । यह वह ज्ञान है जिसका मानव के चरित्रनिर्माण पर महत्वपूर्ण प्रभाव पडना है । शिक्षाका काम विद्यार्थीको अपने स्वरूपसे या यों कहें कि इस सृष्टिके विधाता के मानवदेह धारण कर लेनेके गुप्त उद्देश्य से परिचित कराकर समाजमें अद्रोद्दी शुद्ध आचारधर्मकी स्थापना करके सामाजिक शान्तिको सुप्रतिष्ठित करना है | पेटपूजा तो वे कछवे भी कर लेते हैं जिनके पास किसी यूनिवर्सिटीकी कोई डिगरी नहीं होतीं । शिक्षा वही है जिसके प्रभाव से मानव के मनमें अपने पराये दोनोंके अस्तित्व के विषयमें किसी प्रकारका अशान्तिजनक, . उसेजक, अत्याचारी, स्वार्थी, मूढ विचार शेष न रह जाये और शिक्षित मानव कर्तव्य त्यागने तथा अकर्तव्य अपनानेकी स्थिति से अपना सुनिश्चित उद्धार करके सुदृढ निष्ठा रखनेवाला मानव बने । विज्ञ मानवकी अनुभविक आन्तरिक ज्ञानचक्ष उन्मीलित होजानी चाहिये और उसे त्रिनेत्र महादेव Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्सूत्राण बनकर व्यवहार भूमि में अत्यन्त सतर्क होकर रहना चाहिये। उसे दीख जाना चाहिये कि यह जगत् प्रतिक्षण उत्पन्न हो होकर क्यों नष्ट होता चला जा रहा है ? विज्ञ मानवके लिये यह जगत् विधाताकी अपने मानव विद्यार्थीको ज्ञानदान करनेवाली पाठ्यसामग्री बन चुकना चाहिये । बात यह है कि जगतका मानवहितपी पर्वज्ञ विधाता जागतिक घटनाओं को ही द्वार बना बनाकर अपने मानव विद्यार्थीकी ज्ञानचक्षु उन्मीलित करके उसे ज्ञानो बना देना चाहता है । यह जगत् अपने निरन्तर उत्पत्ति विनाशोंसे मानव विद्यार्थीक सामने अपने मिथ्यात्व अर्थात् अस्थिरता ( अविश्वास्यता ) का डंका पीट पोट कर अपनी सांकेतिक अव्यक्त भाषामें अपने उत्पत्ति विनाशकी मूल भूमि अपने विश्वव्यापी अमर सनातन सच्चिदानन्दस्वरूप विधाताका विद्वद्गम्य यशोमान करता चला जा रहा है। यह नितन्तर म्रियमाण जगत् अपनी नश्वरताके द्वारा अपने विधाताके जगद्रचनाके उद्देश्यका अमर डिण्डिम बना हुक्षा है। यह अपने विधाताकी गुणावलिका स्तुतिपाठक बन्दी ( आट ) है । यह संसार मानवको अपने विधाताका गौरवमय परिचय देने ही के लिये उत्पन हुमा है। और नष्ट हो रहा है। मानवदेह धारण कर लेने वाले देवीको संसारमें भाकर इसी सत्यका दर्शन करना है जो संसारकी घटनावलिके पीछे छिपा हुआ है। मानवका देही इसी सत्यका दर्शन करके भखण्ड मास्मस्मतिका लोकोत्तर आनन्द लेनेके लिये बार बार अनन्त बार देहधारणकी लीला करता चला मा रहा है। मानवीय मस्तिस्वकी महिमाका कहीं पार नहीं है । यह समस्त संसार मानवीय अस्तित्वकी दी तो पृष्ठभूमि है। मानव • इससे अपनेको पृथक नहीं कर सकता और यह संसार भी उससे अलग होकर अपने आपको अस्तित्व और प्रकाश में नहीं रख सकता । मानवीय मस्तित्व ही इस संसारका अस्तित्व और मानवीय मस्तिस्वकी प्रतीति ही संसारकी प्रतीति है । यह संसार अपने अस्तित्व तथा प्रतीति दोनों के लिये मानव पर माश्रित है ! यही मानवको महामहिमा है । Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका न तत्र सूयां भाति न चन्द्रतारकं नमा विद्युतो भान्ति कुता. ऽयमग्निः । तमेव भान्तमनुभाति सर्वे तस्य भासा सर्वमिद विभाति ॥ १५. मानव अस्तित्व के प्रतीत हो जानेके पश्चात् ही तो संसारका भान प्रतीति होता है | इतना ही नहीं उसीके प्रतत्यित्मक प्रकाश से इस जगत् में प्रकाशमानता आती है । स्वयं इस जगत् में प्रकाशमानता नहीं है ! मानव यह जाने कि जगत्को प्रकाशमानता जगत् पर मानव के ही प्रकाशस्वरूप अस्तित्वका उधार है । यहां हमने देखा मानव क्षुद्र वस्तु नहीं है । यहां हमने मानव के अभौतिक, अलौकिक, अनन्त असमाप्य अस्तित्व के दर्शन किये और दूसरी महामहिम स्थितिके सम्बन्ध में परिचय पाया । वास्तव में मानव हृदय बाश्चर्यकारी सामर्थ्य लिये बैठा है उसके शक्तयुन्मेष होने में संकल्पमात्रका विलम्ब है । वह संकल्पमें दृढता लाते ही दिव्य ज्ञानी लोकका दर्शन कर सकता और दिव्य बलका आवाहन कर सकता है । परन्तु मानवके देहाध्यासने ( उसके मैं देह हूं इस भ्रान्त विचारने ) तथा देहाध्यासजन्य क्षुद्र संकल्पों ( इच्छाभों ) ने उसके इस महामहिम सामर्थ्यको कुण्ठित कर रक्खा है । इस द्दीन स्थितिमें उत्साहवर्धक समाचार यही है कि मानवके पास या तो ज्ञानी या अज्ञानी बननेकी स्वतन्त्रता है उसकी यह स्वतंत्रता ही समस्त बलों का भंडार हैं। मनुष्य ज्ञानी बननेकी स्वतन्त्रताकी शक्तिके सदुपयोग से ही अपनी निकृष्ट स्थितिको विनष्ट कर सकता, स्वरूपबोधमयी भ्रान्तिशून्य स्थिति पा सकता और उससे संसार में सत्कर्मों की भागीरथी बड़ा सकता है । मानव इच्छामात्र से इस स्वतन्त्रताका सदुपयोग या दुरुप्रयोग करता है । मानवको जो ज्ञानी या अज्ञानी बनने की स्वतन्त्रता मिली है और उसे जो इस स्वतन्त्रता के सदुपयोग या दुरुपयोगका अधिकार प्राप्त हुआ है वह उसके लिये सदा ही दो विरोधी मार्गोका संगमक्षेत्र बना रहता है | मानवको मिली यह स्वतन्त्रता उसे केवल एक क्षणमें इतना परिवर्तित कर डालती तथा कर सकती है कि वह या तो उसे चिर Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि कालके लिये नित्य सुखी या उसे क्षणिक आत्मविस्मृतिके गहरे गर्तमें डुबो. कर अनन्त दुःखी बना डालती है । __ मानवमें जो यह क्षणिक स्वरूपविस्मृतिका भावेश भाता है वही तो उसके सामने आपातमनोरम मिथ्या स्वार्थक्षेत्र रचकर खड़ा कर देता है । और उसे उसी स्वकल्पित क्षेत्र के बन्धनमें बंधकर पड जाने के लिये विवश कर डालता है। इस दृष्टि से सच्ची शिक्षाका यही स्वरूप मानना पडता है कि वह मानव सन्तानको देहाध्यासजन्य मात्मविस्मृतिके गर्त में गिर मरनेसे बचाये और उसे ऐसी उदार मानसिक स्थितिमें प्रतिष्ठित कर दे जिसमें उसे सच्चे व्यावहारिक अर्थों में मात्मबोध हो जाय और परिणामस्वरूप उसकी कर्मभूमिमें किसी प्रकारका भौतिक स्वार्थबन्धन उसके मन पर प्रभाव न जमा सके और उसे कर्तव्यपथसे भ्रष्ट न कर सके । चाणक्य. सूत्रों में यही शिक्षा समाजकल्याणकारिणी ज्ञानज्योति लेकर विद्यमान है। भारतकी वर्तमान स्थार्थमूलक तथा अज्ञान मूलक राजनैतिक दुर्दशामें एकमात्र चाणक्यका ज्ञानभण्डार ही भारतका पथप्रदर्शक बननेकी क्षमता रखता है। वही भारतवासियोको राजनैतिक, सामाजिक तथा माध्यास्मिक मुक्तिका मार्ग दिखा सकता है। भारतकी वर्तमान सदोष राष्ट्रीय परिस्थिति इसकी वर्तमान कुशिक्षा ही के कारण है । भारतकी वर्तमान राष्ट्रीय परिस्थिति आज भारतीय राज्य हो जाने के दस वर्ष पश्चात् भी उसी कुशिक्षाके कपटजाल में फंसी हुई है जिसमें इसे बिटिश लोग अपने वैदे. शिक स्वार्थसे फांस गये हैं। उसके कारण भाजके भारतवासीके सिर पर राष्ट्रीय भावना राष्ट्रहित तथा मनुके भादोंकी उपेक्षा करानेवाली स्वार्थचिन्ता मारूतु ( सवार ) हो गई है। भारतको राजनैतिक क्षेत्र में व्यामोह । धोके ) में डाल दिया गया है। भारतमें लोगोंको अपने पीछे चलाने. वाले प्रभुतालोभी नेतापनके दूषित भादर्शको तो राष्ट्रीय शिक्षाका ध्येय बना दिया गया है तथा मर्थकरी विद्याको समस्त समाजका ध्येय बना दिया गया है. इससे देश में सांस्कृतिक ध्वंस मच गया है । परिणामस्वरूप नैतिकता कान पकड कर समाजसे बहिष्कृत कर दी गई है। Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ મમ ब्राह्मणेन निष्कारणो धर्मः षडंगो वेदोऽध्येयो शेयश्च ।। छों अंगोंसहित वेदोंका अध्ययन तथा मर्मज्ञान प्राप्त करना विद्या. प्रेमी मामवका निष्कारण धर्म है । महर्षि पतंजलिका शिक्षाका यह निष्काम पवित्र आदर्श, जिसके बलसे भारत सदासे महापुरुषों की जन्मभूमि बनता भा रहा था, सर्वथा लुप्त हो गया है । आप भारतकी वर्तमान तथा भावी सन्तानोंके साथ विगत पीढियों की तुलना करके इस सत्यको प्रत्यक्ष कर सकते हैं। भाजकी भारतकी मानसिक स्थिति हमारे राष्ट्र में राष्ट्रीयताको म्रियमाण और असामाजिकता तथा नीतिभ्रष्टताकी उदीयमान स्थिति है । भारतको इस स्थिति से शीघ्र ही उबारनेकी आवश्यकता है। प्रभुतालोभी नेता. पनकी मदिराने भारतको नशे में चूर बना डाला है । देशसे इस प्रभुता. लोभी मदिराका बहिष्कार करनेका एकमात्र उपाय उसकी पाठविधिमें चाणक्य की राजनैतिक चिन्ताधाराको समाविष्ट करना ही है। यदि भारत. माताको सत्यानुगामी स्वतन्त्र विचारक स्वतन्त्रता प्रेमी वीरों की जननी होनेका गौरव देना हो तो उसका एकमात्र उपाय, देशको राष्ट्रसुधारकशिरोमणि, राजनैतिक धन्वन्तरि चाणक्यकी विचारधारासे भाप्लावित कर डालना ही है । यदि आजके भारतीय युवकों को भारतीय राजधर्म प्रकाण्ड पण्डित चाणक्य की सुपरिमार्जित विचारसरणीसे सुपरिचित न कराया गया तो भारत भोगैकलक्ष्य दास कापुरुष उत्पन्न करने वाला बना रहेगा। हितं मनाहारि च दुर्लभं वचः । यह एक सुनिश्चित सिद्धान्त है। हितकारी वधनों का मीठा होना अपनी वैज्ञानिक स्थिति, है । इस लोकोक्ति में दुर्लभका अर्थ असंभव है। इस हा है कि भ्रान्त पथके अवरोधक उद्बोधक हितकारी वचनों का कर्णकटु तथा गात्रदाहक होना न केवक मनिवार्य है प्रत्युत आवश्यक भी है । यदि कोई वक्ता या लेखक हितकारी वचनोंकी कटुताको घटा देना चाहता है, तो उससे उस वचनकी भ्रान्तपथ रोधकता तथा उद्बोधकता भी घटे विना २ (चाणक्य.) Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. चाण रहती । तब उसे अपने वचनों में से ये दोनों मंश घटा देने पड़ते हैं। ऐसी स्थिति में श्रोता तथा पाठकोंके मलों में कटु आलोचना सुनने तथा पढनेका धीरज होना उनके सौभाग्य तथा उनकी वर्धिष्णुताका चिन्ह माना जायगा। अप्रियस्य च पथ्यस्य वक्ता श्रोता च दुर्लभः ॥ अप्रिय पथ्य कहने और सुननेवाले दोनों ही दुर्लभ होते हैं। हितकारी कटु मालोचना सुनना जैसे किसी एक व्यक्ति के लिये हितकारी तथा कल्याणकारी है इसी प्रकार वह समाज, राष्ट्र तथा राज्यसंस्थाके लिये भी तो कल्याणकारी है। कडवी औषध बिन पिये मिटे न तनका ताप । हितकी कडवी विन सुने मिटे न मनका पाप ॥ कौन नहीं जानता कि उत्पश में जाने वाली शक्तियोंके दूषित प्रवाहोंको रोक देने के लिये प्रयुज्यमान सद्बोधन, कर्णकटु तथा गात्रदाहक होते ही हैं। रोगियोंको अनिच्छापूर्वक कटु औषध पिलानेवाले पद्वैद्यों या अभिभावकों. के समान ज्ञानपूर्वक या मानपूर्वक समाजका अहित करनेवालों के कटु सत्य सना कर उनकी विपरीत प्रवृत्तियों को शेकना और उन्हें कतं. व्यका सच्चा मार्ग सुझाना समाज के निष्ठावान सेवकों का अनिवार्य कर्तव्य है । कटु हित कहनेवालेकी यही भावना होती है कि अहितको हित समझ बैठनेवालोंके न चाहने पर भी उनको मोहनिद्रा भंग करने के लिये उन्हें झकझोर कर उठा दिया जाय और उन्हें मोहनिद्रा त्यागने के लिये विवश कर डालनेवाली परिस्थिति उत्पन्न कर दी जाय। अपृष्टोऽपि हितं बृयात् यस्य नेच्छेत् पराभवम् । मनुष्य जिसे पराभूत होता देखना न चाहे, उसके बिना पूछे भी उस हितकी बात सुझाना उसके हितचिन्तकों का अनिवार्य अत्याज्य कर्तव्य हो जाता है। किसीके हितचिन्तकों का उसकी भ्रान्त प्रवृत्तियोंको न रोक कर Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका उदासीन रह जाना उससे शत्रुता करना है। निद्रितोंको असह्य प्रतीत होनेवाली जागरण प्रेरणामोंके समान मोहनिद्रामों में अचेतन पड़े हुए व्यक्तियों, समाजों या राज्यसंस्थानोंकी भ्रान्त प्रवृत्तियोंकी मालोचनामों से इन्हें अपनी मोहनिद्रा भंग किये जानेका असा प्रतीत होना स्वाभाविक है । मोह रजनीमें भी तो एक प्रकारका तामस सुख या सुखभ्रान्ति रहती है। वह सुखभ्रान्ति कल्याणकारी यथार्थ सुखको ठके रहती है। सच्ची मालोचनामें सदा ही असन्मार्ग छुडाने तथा सन्मार्ग ग्रहण कराने की भावना होती है। उन्नतिशील लोग अपनी भालोचनासे अपना धीरज खोकर घवरा नहीं जाते। प्रत्युत वे हितकर्ता विरोधी पक्षका निम्न शब्दों में स्वागत करते हैं। जीवन्तु मे शत्रुगणाः सदैव येषां प्रसादात् सुविचक्षणोऽहम् । यदा यदा मे विकृति भजन्ते तदा तदा मां प्रतिबोधयन्ति ॥ मेरे उद्देश्य या नीतिकी त्रुटि दिखानेवाला मेरा वह समालोचक शत्रु पक्ष सदा बना रहे जिसकी कटु मालोचनासे सदा सतर्क रहने के लिये विवश हो जानेवाला मैं सुचतुर निर्दोष बन गया हूं। यह पक्ष जब मेरी त्रुटि देखता है तभी मुझे अपनी भूल सुधारने के लिये सावधान कर देता है। __ संसारका अनुभव है कि कोई भी संस्था शत्रुवेशी सच्चे समालोचकों के बिना निर्दोष रूपसे काम नहीं कर सकती । सच्ची मालोचनामोंसे लाम सठानेवाले लोग कटु हितवादीके गुणग्राही और कृतज्ञ हो जाते हैं। इसी लिये मार्य चाणक्यने अपने अर्थशास्त्र (१-७ ) में कहा है। मर्यादां स्थापयेत् आचार्यानमात्यान् वा य एनमपायस्थानेभ्यो वारयेयुः प्रमाधन्तमभितुदेयुः । राजालोग किन्हीं ऐसे विधावृद्ध, वयोवृद्ध, तपोवृद्ध, अनुभववृद्ध, सस्करणीय विद्वानोंको अपने लिये अनुल्लंघनीय सीमा बना कर अपने पास रखें जो इसे प्रमाद न करने दें प्रत्युत प्रमाद करनेसे अधिकारपूर्वक टोके मौर रोकें । Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि राष्ट्र कल्याण इसी में होता है कि समाजका हित कर सकनेवाली देवी पाक्तियों को ही राज्याधिकार मिले । परन्तु समाजके दुर्भाग्यसे सदा ऐसा नहीं होता । जनमतकी अनुक्षुद्धतासे बहुधा व्यावहारिक रूपमें समाजके शत्रुता करनेवाली वावदूक वार्ताविक्रयी, मक्कार, प्रतारक, मासुरी शक्तिये राज्याधिकार पा जाती हैं । राज्याधिकार पा जानेवाली भासुरी शक्तिये मोहनिद्राके कारण अहितको हित समझ बैठनेवाले श्रमिष्ठ लोकमतकी मोहान्धतासे अनुचित लाभ उठा उठा कर समाजको प्राणशक्तिका शोषण करने लगती हैं । समाज तथा राजशक्ति दोनोंके मोहान्ध बन नानेके विकराल काल में राज्यसंस्थाके निर्माता मोहनिद्रासे अभिभूत समानके कानोंको हितोपदेश सुनाना विचारधर्मी सेवकोंका ऐसा अनिवार्य कर्तव्य बनकर उनके सामने मा खडा होता है जिससे वे अपनेको रोक ही नहीं सकते । सब उन्हें समाज तथा राज्यशक्ति दोनोंके मोहनिद्राभिभूत जड मस्तिष्कोपर तीव्र ज्ञानाकुंशके उद्बोधक प्रहार करने पड़ते हैं। ऐसे विकट समयोंपर विष्णु. शर्माके शब्दों में जनपदहितकर्ता त्यज्यते पार्थिवेन्द्रः। राजरश्मि पकडे रहनेवाले लोग नहीं चाहते कि जनता स्वाधिकार रक्षाके लिये स्वयं उद्बुद्ध हो या कोई अन्य उसे उबुद्ध करे । बृहदारण्यकमें भी इसीके समान रोचक वर्णन पाया है । तस्मादेषां तन्न प्रियं यदेतन्मनुष्या विद्युः । । यह देवताओंको प्रिय प्रतीत नहीं होता कि मनुष्यों को भारमबोध हो जाय । जैसे देवताओंकी जीविका (इन्द्रियोंकी विषयकण्डूतिपूर्तिस्पृहा) अनुबुद्ध लोगोंके ही सहारेसे चलती है इसी प्रकार सुषुप्त लोकमत स्वार्थी राज्याधिकारियों के स्वार्थका क्षेत्र हो ही जाता है । लोकमतके जाग उठनेपर तो राज्याधिकारियोकी मिथ्या प्रतिष्ठाका धूलमें मिला दिया जाना अनि. वार्य होजाता है। इसलिए जनजागरणकी सेवाको अपनानेवालोंको मासुरी राजशक्तिका रोषपात्र बन ही जाना पड़ता है। वह उनके भाषण तथा लेखनके Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका प्रचारमें बाधा उपस्थित करने में अपना हित समझनेकी भूल कर बैठती है । संसारमें राजशक्तिका दुरुपयोग करनेवाले समाजशत्रु सदासे होते मा रहे हैं । मार्य चाणक्यने ढाई सहस्र वर्ष पूर्व ज्वालामयी भाषामें सशरीर विद्यमान रहकर तत्कालीन भारतवासियोंकी मनोदशाको भारतकी शतधा. विच्छिना राजशक्तिका दुरुपयोग करनेवाले समाजके शत्रुभोंके विषैले प्रभावसे मुक्त करने का जगप्रसिद्ध महान् अभिनय करा दिखाया था और इस देशसेवात्मक यज्ञकी पूर्तिके लिए उसमें देशद्रोहियोंकी चुन चुनकर पाहुति दी थी। उपरि करवालधाराकाराः क्रूरा भुजङ्गमपुङ्गवाः । अन्तः साक्षाद् दाक्षादीक्षागुरवो जयन्ति केऽपि जनाः ॥ कुछ उदारकर्मी लोग ऊपरसे देखने में तो विषधर सर्प तथा मसिधाराकी लपलपाती कठोर भाकृतिके समान महा कर बनकर रहते हैं परन्तु इम लोगोंका मन्तरात्मा लोक हितके माधुर्य में इतना पगा रहता है मानो इन्होंने द्राक्षाओंसे माधुर्यकी दीक्षा ले रक्खी हो । कर्मके तो कठोर परन्तु हृदयके मधुर विराटकर्मी लोग संसारमें अति न्यून होते हैं। मार्य चाणक्य इसी प्रकारके लोगों से थे। भाज हमारे राष्ट्रको राजनीति विशारद सुचतुर वैद्यको गम्भीरतम मावश्यकता है । इसलिए है कि भाज भारतवासी मासुरी प्रभावमें आकर अहितको हित समझ कर मोहनिद्रासे अभिभूत हुभा पडा है। इस विकराल स्थिति यह हमारा सौभाग्य है कि चाणक्यकी दुग्धकुम्भी ज्वालामयी भाषामें लिपिबद्ध राजचरित्र तथा राष्ट्रचरित्रका निर्माता चाणक्यसूत्र उनका प्रतिनिधित्व करने के लिये आज भी हमारे पास है। इन सूत्रोंका प्रत्येक शब्द सुन्दर मणिमुक्तागर्भित सुगम्भीर भाव. सागरका वहन कर रहा है । पाठक इस व्याख्याको द्वार बनाकर यत्र तत्र देखेंगे कि इनमें मार्य चाणक्यका अभूतपूर्व राजनैतिक कौशल तथा व्याव. हारिकता कूट कूट कर भरी है। चाणक्य के दूरदर्शी उदार मनमें राज्यव्यवस्था तथा राष्ट्रचरित्र निर्माणके सम्बन्धमें जितनी सुधारक योजनायें पी वे सब संक्षेपसे इनमें सन्निहित हैं। Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि इन सूत्रोंका प्रत्येक शब्द चाणक्य के हृदयस्थ जिस गम्भीर भावसागरका वहन कर रहा है, हमें इस व्याख्यामें उनके हृदय की उस राजनीतिविशा. रद ध्वनिको अपने पाठकोंतक पहुंचा देनेके कर्तग्यसे विवश होकर कहीं कहीं भ्रान्तिशून्य विकल्पहीन पत्याज्य तीन भाषाके प्रयोगके द्वारा देशके मभिमत असत्योंपर कषाघात करके विश्वकल्याणकारी सत्यको प्रकाश में लान:पडा है। इस कर्तव्यमयी विवश स्थितिमें इस भाष्य के इस कषाघातके समाजके यथार्थ हितकी भोरसे भीख मीचकर बैठे हुए कुछ लोगोंको कटु तथा दाहक प्रतीत होनेकी पूरी सम्भावना है। हम इसके लिये अपने पाठकोसे विनयपूर्वक लेखनीके प्रेरक भावों को समझने की प्रार्थना करते हैं। परन्तु साथ ही यह विश्वास हमारी लेखनीका वर्णनातीत सहारा भी बना हुला है कि हमारी भाषाको समाजसेवक सधी पाठकोंके मार्मिक भावोंको ध्यक्त करनेवाली चाणक्य हृदयकी प्रतिध्वनि होने का गौरव प्राप्त है । इस. लिये इसके देशभक्त भारतीय समाजके लिये श्रवणमधुर हृदयग्राही तथा अनुमोदनीय होने में लेशमात्र भी सन्देह नहीं है। अन्तमें हम निम्न दो लोकोक्तियों के साथ अपना प्रास्ताविक समाप्त करते हैं पुरुषाः सुलभा राजन् सततं प्रियवादिनः । प्रियस्य च पथ्यस्य वक्ता श्रोता च दुर्लभः ॥१॥ ये नाम केचिदिह नः प्रथयन्त्यवक्षा जानन्ति ते किमपि तान् प्रति नैष यत्नः ॥ उत्पत्स्यते तु मम कोऽपि समानधर्मा कालो ह्ययं निरवधिविपुला च पृथ्वी ॥ २ ॥ राजन् सदा मुखपर मीठी बात बनानेवाले पुरुष तो सर्वत्र मिल जाते हैं परन्तु अप्रिय पथ्यको कहनेवाले और सुननेवाले दोनों ही दुर्लभ होते हैं। जो लोग हमारी इस रचनाको अवज्ञाकी दृष्टिसे देखते हैं उनका दृष्टिकोण दसरा है। उनके लिए यह ग्रन्ध नहीं रचा जा रहा है। यह ग्रन्थ उनके लिये रचा गया है जो संसारमें हमारे जसे विचारोंको लेकर जन्म ले रहे Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका है या लेंगे। निराशाका कोई कारण नहीं है, काल अनन्त है, पृथ्वी भति विस्तीर्ण है । कभी कहीं कोई तो हमारी बात सुनेगा ही। चाणक्यके ग्रन्थ १- घुचाणक्य १०८ श्लोक, २- वृद्धचाणक्य २५० श्लोक, ३- चाणक्य नीतिदर्पण ३४८ श्लोक, ४- चाणक्य राजनीतिशास्त्र प्रायः १००० श्लोक, ५- कौटलीय अर्थशान ६००० श्लोक परिमाणप्रन्थ, ६- चाणक्यसूत्र ५७। सूत्र । चाणक्यसूत्रोंकी प्रामाणिकताके संबन्धमेंइस व्याख्यामें १९१९ ई० में मैसूर विश्वविद्यालयसे प्रकाशित कोट. लीय अर्थशास्त्र के अन्तमें मुद्रित सूत्रों में कई अपार्थक सूत्रों के होते हुए भी उन्हीके सबसे अधिक प्रचारित होने के कारण उन्हीं की ५७१ संख्याको प्रामा. णिक मान लिया गया है। इसमें अन्यत्र उपलब्ध सूत्रान्तर तथा पाठान्त. रोका भी पूर्ण संकलन किया है। इस टीकामें मैसर मुद्रित ५७१ सत्रोंसे ४६ सूत्र अधिक हैं। उपलब्ध पाठभेद भी सब दिये हैं जो लगभग २५७ हैं। पाठभेद सुभीतेकी दृष्टिसे कहीं तो कोठकों में तथा कहीं पाठान्तर शब्द के साथ दिये गये हैं। बहुतसे पाठान्तर मूल सूत्रों से अधिक युक्तिसंगत हैं। कहीं कहीं मूल सत्र अपार्थक प्रतीत हो रहे हैं और पाठान्तर उचित है । हुन सब तथ्योंका उल्लेख टीकामें यथास्थान किया गया है। ५६ मधिक सूत्री तथा महत्वपूर्ण पाठभेदोंकी व्याख्या की गई है । साधारण पाठभेद अन्याख्यात छोड दिये गये हैं । मधिक सूत्रों तथा पाठान्त. रोंको स्वतंत्र संख्या न देकर ५७१ संख्या ही अन्तर्युक्त कर दिया गया है। यह इस दृष्टि से किया गया है कि पाठकों को प्रचलित सूत्रसंख्यानुसार सूत्र ढूंढने में कठिनाई न हो। ये अधिक सूत्र तथा पाठ भेद श्री ५. ईश्वरचन्द्र शर्मा शास्त्री, वेदान्तभूषणके १९३१ में कलकत्सेसे मुद्रित संस्कृत व्याख्या युक्त चाणक्यसूत्रोंसे लिये गये हैं। Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ বাগবাগি उनके लेखानुसार उन्हें इन सूत्रोंको चार आदर्श प्रति मिली थीं। उन्होंने उन्हींसे मूल सूत्रों तथा पाठभेदोंका संकलन किया है। किस प्रतिसे कौनसा पाठभेद लिया इस विषय में उनकी लेखनी मौन है। कल्पना होती है मानना चाहिये कि उन्होंने चारोंसे ही पाठभेद लिये हैं। चारों से कौनसीको मुख्य रखकर व्याख्या सूत्रसंख्या दी है यह निर्देषा भी उनकी लेखनी नहीं कर रही है । उनको मिली चारों प्रति निम्न प्रकार है-(1) कालिकटनिवासी श्री गोविन्द शास्त्रीसे प्राप्त, (२) अनन्त शयनम् यन्त्रालयमें मुद्रित, (३) मैसूर राजकीय संग्रहालयके अध्यक्ष भार श्री महादेव शास्त्रीसे प्राप्त ( ४ ) मैसूर राजकीय मुद्रणालयमें द्वितीया वृत्तिके रूपमें १९२९ ख्रिष्टाब्दमें मुद्रित कौटलीय अर्थशास्त्रके मन्तमें संलग्न उन्होंने जिप प्रतिको मुख्य मानकर व्याख्या की है उसमें इन सूत्रोंको ६ अध्यायों में विभक्त किया है। उनकी व्याख्याधार प्रति के अनुसार चाणक्यसूत्रों की संख्या ५९९ है । अर्थात् प्रथमाध्यायमें १००+ द्वितीयमें ११६+ तृतीयमें ७९+ चतुर्थ में १०८+ पंचममें ११३+ षष्ठमें ८३ - संकलन ५९९ । इस टोकामें सूत्रोंको दी हुई ५७१ संख्याके अनुसार उनके अध्यायों का स्थान निम्न है- १०१ सूत्रपर प्रथम, २१३ पर द्वितीय, २९० पर तृतीय, ३९२ पर चतुर्थ, ५०२ पर पंचम, तथा ५७१ पर षष्ठ अध्याय समाप्त होता है। परन्तु इस अध्याय विभागका कोई उचित आधार प्रतीत नहीं होता। इन सूत्रों में विषयक्रम तथा अर्थसंगति दोनोंका प्रायः अभाव है। इनमें सूत्रकारने राजचरित्र निर्माणके साथ राष्ट्र चरित्र निर्माणको प्रेरणा देनेकी दृष्टि से मनमें समय समयपर मानेवाली विचारतरंगोंका ज्यों का त्यों संकलन किया प्रतीत होता है। संभावना है कि उन्हें इनको विषयानु. सारिता देने का अवसर नहीं मिल पाया। इनमें राजनीति, सामान्यनीति, समाजधर्म, अपस्यविनय, मादि विषयोंक। विप्रकोण वर्णन हुमा है। Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका इनमें से अव्याख्यात छोडे हुए ग्यारह सत्रोंकी कुरुचिपूर्णता नीति. विगर्हितता, समाजघातकता, अप्रासंगिकता तथा युक्तिहीनता मस्यन्त स्पष्ट है । इनकी व्याख्याको समाजके मादर्श ज्ञानी गुरु विश्वमानवके मनोराज्यके एकत्र सम्राट ऋषि चाणक्य के पवित्र हृदयके निःश्वास अमृतवर्षी ज्ञानभंडारमें सम्मिलित करके इस भाषाके कलेवरको कालिमा लिम करनेके लिये लेखनी उद्यत ही नहीं हुई। केवल मूल ग्रन्थके प्रचलित रूपतया संख्याको अक्षुण्ण रखनेकी दृष्टि से सूत्रोंके मूल रूपका बहिष्कार उचित नहीं माना गया। विश्वास है कि इस व्याख्या त्यागसे भाष्यमें पूर्णाङ्गताबाई है। प्रत्येक प्रकारके पाठककी दृष्टिसे पठन पाठनके दोषों को दूर रखना ही भाष्यकी पूर्णाङ्गता मानी गई है। कृतज्ञता-प्रकाश गुरुकुल महाविद्यालय ज्वालापुरके प्रमुख अध्यापक श्री प. छेदी प्रसादजी न्याकरणाचार्य तथा वहीं के मेरे सब्रह्मचारी श्री प. उदयवीरजी शास्त्री, न्यायसांख्य योगतीर्थ इस व्याख्याको सुनकर कई उपयोगी सम्मतियोंसे इसकी शोभावृद्धि में सहायक बने हैं। वाराणसीके श्री विश्वनाथ पुस्तकालयके अध्यक्ष श्रीकृष्णपन्तजी, साहित्याचार्यने उपयोगके लिये श्री ईश्वरचन्द्र शर्मा, शास्त्री वेदान्तभूषणकी सारार्थबोधनी टीका देकर अनुगृहीत किया । वे परम धन्यवाद के पात्र हैं। साहित्यचर्चा लगभग पच्चीस वर्ष बीत रहे हैं बुद्धि सेवाश्रमके बालकोंमें विचारशक्तिको जगानेके उद्देश्यसे ब्रह्मविद्याग्रन्थमाला नामसे सर्वथा नवीन शैलीसे पाठ्य. ग्रन्थों की रचना की गई थी। उसमेंसे भारतकी अध्यात्ममूलक संस्कृति मर्थात् जाग्रत जीवन, सिद्धान्तसार, बालप्रश्नोतरी, बोधसार, पंचदशी, मनुष्यजीवनका लक्ष्य, गीतापरिशीलन, नारदभक्तिसूत्र, भारतीय संस्कृ. तिके अनुसार भारतीय संविधानकी रूपरेखा तथा वर्तमान विधानको प्रजा. Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि तन्त्रिक आलोचना, शतश्लोकी, दशश्लोकी वाक्यसुधा तथा बालगीत मुद्रित हो चुके हैं । ईश्वरभक्ति, आदर्श परिवार ( सन्तानपालनकी योग्य विधि ), शिक्षकका मार्गदर्शक ( आदर्श पाठशालाओं की योजना ) ग्रामसुधार ( ग्रामको स्वतंत्र राष्ट्रों का रूप देने की योजना ), बालजागरण, बालोद्बोधन, जीवनसूत्र, भावसागर, समाजवाद, बेकारी डरें क्यों ? व्यवहारशास्त्र, भक्ति आदि स्वतंत्र ग्रन्थ अमुद्रित अवस्थामें योग्य प्रकाशकों की प्रतीक्षा कर रहे हैं। २६ इसके अतिरिक्त उपदेशसाहत्री, गौडपादकारिका सनत्सुजातवाद, अध्यास्पटल, विवेकचूडामणि, सर्ववेदान्तसिद्धान्तसारसंग्रह, प्रबोधसुधाकर श्री अाथ शंकराचार्य के समस्त प्रकरण ग्रन्थ वेदान्तस्तोत्र, योगदर्शन ( श्री सदाशिवेन्द्र सरस्वतीकी टीकाका हिन्दी रूपान्तर ), पंचीकरण, पंचीकरणवार्तिक ( श्री सुरेश्वराचार्यकृत ), गीता गुटका आदिका भाष्य भी निम्न पते पर योग्य प्रकाशकोंको विना पारिश्रमिक देनेके लिये प्रस्तुत हैं बुद्धिसेवाश्रम पो. रतनगढ जि. बिजनौर (उ. प्र. ) निवेदक रामावतार Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि । - - ( सुखका मूल ) सुखस्य मूलं धर्मः ॥१॥ धर्म ( नोति या मानवोचित कर्तव्यका पालन ) सुखका विवरण- जगत् ( समाज का धारण या पालन करनेवाली नीतिमत्ता या कर्तव्यपालन ही मनुष्यका धर्म है। धर्म ( नीति ) ने ही समस्त जगत्को धारण कर रखा है। नहीं तो वह कभीका लड-झगडकर नष्ट हो गया होता। अधर्म आपातहष्टिसे सुखका मूल दीखनेपर भी दुःखका मूल है। धर्मपालनसे दुःखदायी पापकी संभावनायें नष्ट हो जाती हैं। मानसिक अभ्युस्थान और ऐहिक मभ्युदय दोनोंको समान रूपसे साथ-साथ सिद्ध करनेवाली नीति "धर्म" कहाती है । इस लिये जो लोग राज्याधिकार लेना और उससे सुख अर्थात् दोनों प्रकारका अभ्युदय पाना चाहें वे सावधान हो जायें और उससे भी पहले धर्म ( नीतिमसा ) को अपनायें। नीतिका अनुसरण किये बिना मनुष्यको मानसिक अभ्युत्थानमूलक सच्चा सुख प्राप्त नहीं हो सकता। मानसिक अभ्युत्थानमूलक सुख ही सुख है। मानसिक पतनसे मिलनेवाला सुख सुख न होकर सुखभ्रम या अनन्त दुःख जाल Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि पुस्तकान्तरमें इससे प्रथम यह स्वतंत्र सूत्र उपलब्ध है। सा श्रीर्वोऽव्यात् ॥ वह परमसम्पत्तिदात्री ऐश्वर्यकी अधिष्ठात्री देवता राज्यश्री आप राज्याधिकारियोको सुमति देकर रक्षा करे। विवरण- राज्यश्री माप लोगोंके पास भाकर मापको श्रीमदमत्त न बनाकर, समाजसेवाके सर्वोत्तम क्षेत्र राज्यसंस्थाका सुचारुरूपसे संचालन करनेकी सुमति प्रदान करे । भाप लोग राज्यको अपने राष्ट्रकी पवित्र धरोहर मानकर इसे राष्ट्रसेवाका तपोवन बनाकर रखें । (धर्मका मूल) धर्मस्य मलमर्थः ॥ २॥ धर्मका मूल अर्थ है। विवरण-धर्म अर्थात् नीतिमत्ताको सुरक्षित रखने में राज्यश्री ( अर्थात् सुदृढ सुपरीक्षित सुचिन्तित राज्यव्यवस्था ) का महत्वपूर्ण स्थान है। जगत्को धारण करने ( जगत्को ऐहिक सभ्युदय तथा मानसिक उत्कर्ष देने) वाली नीतिको राष्ट्र में सुरक्षित रखने में अर्थ अर्थात् राज्यश्री ही मुख्य कारण होती है । राजकोषमें दरिद्रता आ जाने पर प्रजामें अनीतिकी बाढ मा जाती है। क्योंकि तब राज्य के पास अनीति रोकनेवाला साधन नहीं होता। राज्यसंस्था जितनी ही संपच और तेजस्वी होती है, प्रजा उतनी ही नीतिपरायण रहती है। राजकोषमें दरिद्रता मा जानेपर राष्ट्र-व्यवस्था ग्रीष्मकालीन कुनदियोंके समान लुप्त हो जाती है। ( अर्थका मूल ) अर्थस्य मूलं राज्यम् ।। ३॥ राज्य ( राज्यकी स्थिरता ) ही अर्थ (धन-धान्यादि संपत्ति या राज्यैश्वर्य) का मूल (प्रधान कारण ) होता है । विवरण- राज्यकी स्थिरता ही ऐश्वर्यको स्थिर रखनेवाली वस्तु है । ऐश्वर्यहीन राज्य परस्पर व्याहत भव्यावहारिक कल्पना है। राज्य तो हो पर Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राज्यका मूल उसे स्थिर रखनेवाला ऐश्वर्य उसके पास न हो तो राज्य स्थिर नहीं रह पाता । राजा और प्रजा दोनों ही अर्थसे ऐहिक अभ्युदयवाले कर्म करके जीवनयात्रा करते हैं। राजाको राष्ट्र , दुर्ग, कुल्या, बांध, सेना, मन्त्री, राजकर्म: चारी, शस्त्रास्त्र, रणपोत, अश्व, रथ आदि विविध प्रकारके यान आदि संग्रह करके तथा प्रजाकी रक्षा-शिक्षा भरण-पोषण मादिमें विपुल धनकी आवश्य. कता होती है। क्योंकि मर्थागम राज्यके सुप्रबन्धपर ही निर्भर होता है, इस लिये राज्याधिकारी लोग राज्यको सर्वप्रिय बनाकर स्थिर बनाने में प्रमादसे काम न लें। ( राज्यका मूल ) राज्यमूलमिन्द्रियजयः ॥ ४ ॥ अपनी इन्द्रियोंपर अपना आधिपत्य प्रतिष्ठित रखना राज्यका ( राज्यमें राज्यश्री आने और उसके चिरकाल तक ठहरनेका ) सबसे मुख्य कारण है। विवरण- राज्याधिकारियों की स्वेच्छाचारिता, विषयलोलुपता और स्वार्थपरायणता राज्यके लिये हालाहलका काम करती है । जब भोगलोलुप राज्याधिकारी राजशक्तिके दबावसे अपनी व्यक्तिगत भोगेच्छा पूरी करने के लिये प्रजासे धन ऐंठनेवाले बन जाते हैं, तब वह राज्य संस्था प्रजाके अनु. मोदनसे वंचित होकर नष्ट होजाती है। राज्य संस्थाको प्रजाका हार्दिक अनुमोदन मिलते रहनेके लिये राज्याधिकारियोंमें स्वेच्छाचारिता नहीं मानी चाहिये । वे अपनी स्वेच्छाचारितापर पूरा अंकुश रखें तब ही किसी राज्यका राज्यैश्वर्य सुरक्षित रह सकता है । राष्ट्र में राज्यश्रीको सुरक्षित रखनेके लिये राज्यके प्रत्येक कर्मचारीका इन्द्रियविजयी सन्त महात्मा होना अनिवार्य रूपसे आवश्यक है। इतिहास साक्षी है कि जब जब राज्याधिकारियोंकी स्वेच्छाचारिता नहीं रोकी गई, तब तब राजाओंके ऐश्वर्य प्रकुपित प्रजाके द्वारा अनेकों बार धूलमें मिलाये जा चुके हैं । जबतक राज्याधिकारी लोग अपनी इन्द्रियोंको संयत रखना अपना पवित्र कर्तव्य नहीं मान लेते, तबतक Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 30 चाणक्यसूत्राणि वे राज्यसंस्थाको कभी सुरक्षित नहीं रख सकते । इन्द्रियोंपर विजय न पानेवाले राज्याधिकारी लोग जनताको राज्यका शत्रु बना लेते हैं । अवशेन्द्रिय राजकर्मचारियों की भूले, स्नान करके अपने ही ऊपर धूल फेंकनेवाले हाथी के समान राज्य संस्थाको मलीमस बना देनेवाली होती है । विषयलोभी राजकर्मचारियोंकी भूलें अपनी राज्यसंस्थाको अपयश दिलानेवाली, उसे अश्रद्धेय तथा घृणास्पद बना डालनेवाली होती हैं । पाठान्तर राज्यस्य मूलमिन्द्रियजयः । ( इन्द्रियजयका मूल ) इन्द्रियजयस्य मूलं विनयः ॥ ५ ॥ विनय ही इन्द्रियों पर विजय पानेका मुख्य साधन है । विवरण- विनीतों की संगतमें रहकर उनसे शासनसम्बन्धी सत्यासत्यका विचार सीखकर सत्यको पहचानकर, सत्य के माधुर्य से मधुमय होकर, अहंकार त्यागकर सत्यके बोझके नीचे दबकर नम्र हो जाना विनय अर्थात् सत्याधीन होजाना है । पात्रापात्रपरिचय, व्यवहारकुशलता, सुशीलता, शिष्टाचार सहिष्णुता उचितज्ञता, न्यायान्यायबोध तथा कार्याकार्यविवेक आदि सब विनयके ही व्यावहारिक रूप हैं । विनयी मनुष्यकी इन्द्रियां उसकी सुविचारित स्पष्ट माज्ञाले बिना संसा रमें कहीं एक पैर भी नहीं डालतीं । उसकी इन्द्रियों के पैरोंमें शमकी वद भारी शृंखला पडी रहती है जो उन्हें कुमार्गमें जाने ही नहीं देती । नम्रता सुशीलता आदि सब विनीत मनके धर्म हैं । मनके धर्मपरायण होते ही इन्द्रियां अपने आप विजित हो जाती अर्थात् विजित मनके प्रति मात्मसमर्पण करके रहने लगती हैं। विनयी मानव अपनी स्थिरता तथा धीरता के प्रभाव से अपनी इन्द्रियोंपर वशीकार पाकर रहता है । अविनीत मनुष्य अविमृश्यकारी होता है । उसकी इन्द्रियां प्रत्येक समय उसे अधिकारहीन Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनयका मूल तथा अनुचित भोगोंके लिये उत्तेजित करती रहती हैं । राज्याधिकारी लोग अपने विनयसे ही राष्ट्र के कोकमतको वश में रख सकते हैं । इतिहास बताता है कि बहुतसे राजा लोग भविनयसे ऐश्वर्य सहित ध्वस्त हो चुके हैं। इसके विपरीत बहुतसे लोग विनयके कारण झोपडोंके निवासी होकर भी राज्य पाकर गये हैं । इसलिये राज्याधिकारी लोग पवित्र ज्ञानवृद्धों की संगत किया करें और उनसे विनय सीखकर विनीत बनें। यदि वे विनीत नहीं बनेंगे तो वे मस्तकसे मालाको उतार फेंकनेवाले मस्त हाथीके समान राज्यश्रीको नष्ट-भ्रष्ट कर डालेंगे । विनयके विना उनकी स्वेच्छाचारिता रुकना असंभव है और उसके रहते हुए उनका राज्य खो बैठना सुनिश्चित है । (विनयका मूल ) विनयस्य मूलं वृद्धोपसेवा ॥ ५ ॥ ज्ञानवृद्धोंकी सेवा विनयका मूल है। विवरण- विनय अर्थात् नैतिकता, नम्रता, उचितज्ञता, शासनकुशलता, आदि रूपोंवाली सत्यरूपी स्थिर संपत्ति अनुभवी ज्ञानवृद्ध लोगोंकी सेवामें श्रद्धापूर्वक बार बार ज्ञानार्थी रूप में उपस्थित होते रहने से ही प्राप्त होता है। मनुष्यको ज्ञानवृद्धोंके सत्संगसे सत्यरूपी थिर धन प्राप्त हो जाता है । मनुष्य विद्या, तपस्या और अनुभवसे ज्ञानवृद्ध बनता है । ज्ञानवृद्धोंके पास जाकर उनकी योग्य परिचर्या करते हुए जिज्ञासु या शुश्रूपु बने रहना वृद्ध सेवा कहाती है। ज्ञानवृद्धोंके पास बार बार जाते रहनेसे उनकी विद्या, तपस्या तथा उनके दीर्घकालीन अनुभवोंसे लाभ उठानेका अवसर मिल जाता है । ज्ञानवृद्ध लोग पानसे बाहर बहना त्यागकर भंडारमें आ जानेवाली शरत्कालीन नदियों के समान मर्यादापालक तथा कार्याकार्यविवेकसंपन्न होते हैं । दण्डनीति तथा व्यवहारकुशलताके पाठ ऐसे ज्ञानवृद्धोंसे ही सीखे जा सकते हैं। ज्ञानवृद्धोंकी सेवासे विनीत राजा ही प्रजाको विनय के पाठ सिखा सकता है और राज्य भोग सकता है। Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि ( शासन-कुशलता सीखने का साधन ) वृद्धसेवाया विज्ञानम् ॥ ७ ॥ विजिगीषु मनुष्य वृद्धोंको सेवासे व्यवहार कुशलता या कर्तव्याकर्तव्य पहचानना सीखे । विवरण- विज्ञान अर्थात् ज्ञानकी परिपक्वावस्था अर्थात् यथार्थ ज्ञानकी प्राप्ति किंवा अपने ज्ञानको व्यवहारभूमिमें ला खडा करनेकी कला अर्थात् कार्यकुशलता या कर्तव्याकर्तव्य का समुचित परिचय तब प्राप्त है, जब मनुष्य माग्रह और श्रद्धासे ज्ञानवोंके पास निरन्तर उठता बैठता रहता, उनके घातावरणका अंग बनकर रहता, उन्हें अपनी भूलें बताने भार उनपर नि:शंक टोकते रहने का अप्रतिद्वत्त सलीम अधिकार देकर रखता है। ज्ञानवृ. दोंकी श्रद्धामग्री सेवासे जहां बिनय प्राप्त होता है वहां विज्ञान अर्थात् कार्यकुशलता भी आ जाता है। न सा सभा यत्र न सन्ति वृद्धा न ते वद्धा ये न वदन्ति धर्मम् । नासौ धर्मो यत्र न सत्यमस्ति न तत्सत्यं यच्छलेनाभ्युपेतम् ॥ जिन सभाओं या समाजोंमें अनुभवी वृद्ध न होकर अवृद्ध सेवी तथा अनुभवहीन लोग भर लिये जाते या उन्हींका बोलबाला हो जाता है, वे सभायें सभा, और वे समाज सभ्य समाज नहीं कहे जा सकते । वे वृद्ध वृद्ध नहीं होते, जो ( आत्मविक्रय करके, दलगत राजनीति के भाग [पुरजे ] बनकर अपनी स्वार्थकलुषित महत्वाकांक्षा परितृप्त करनेकी दुरभिसंधिसे, व्यवस्थापरिषदोंमें व्यवस्थानिर्माता और सामाजिक विवाद प्रसंगोंमें निर्णायक बनकर जा तो बैठते हैं परन्तु ) धर्म या न्यायकी बात मुंहपर नहीं ला सकते । ( जो धर्मके निःशंक वक्ता नहीं होते, वे किसी भी प्रकार वृद्ध विद्वान् या विवेकी नहीं कहे जा सकते ) वह धर्म धर्म नहीं है, जिसमें Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग्य शासक बननेकी विधि सत्य नहीं है, ( अर्थात् जिस धर्ममें मनुष्यकी अन्तरात्मा नहीं बोल रही है, जिसे मनुष्य किसी संसारी प्रभावमें आकर ऊपरवाले मनसे कहता है वह धर्म नहीं होता ) वह सत्य सत्य नहीं है, जिसमें छलका मिश्रण होता है (और जिसमें बातोंको तोड-मरोडकर घुमा-फिराकर कहा जाता है । ) (योग्य शासक बननेकी विधि ) विज्ञानेनात्मानं संपादयेत् ॥ ८॥ राज्याभिलाषी लोग विज्ञान ( व्यवहारकुशलता या कर्तव्याकर्तव्यका परिचय प्राप्त करके ( अर्थात् सत्यको व्यवहार भूमिमें लाकर या अपने व्यवहारको परमार्थका रूप देकर) अपने आपको योग्य शासक बनाये ।। विवरण- आदर्शशासक तथा चतुरशासक बनना राज्याभिलाषियोंका सबसे मुख्य कर्तव्य है। अपने को एला बनाना राज्योपार्जनसे भी अधिक मह. वका काम है। बिल्लो के भारसे टूटे छींक के समान राज्य तो अयोग्य लोगों को भी मिल जाता है. परन्त चतुर आदर्शशापक बनना उससे कहीं अधिक महत्व रखता है। इसलिये शासकीय विभागमें जाने के इच्छुक लोग शासन विभाग को अपने स्वार्थसाधनका क्षेत्र न समझकर उसमें सेवाभाव से जायें। वे शास. कीय योग्यता सम्पादन के महत्वपूर्ण काममें प्रमाद न करें। यदि वे इसमें प्रमाद करेंगे तो न तो स्वयं कहींके रहेंगे और न राज्यसत्ताको स्थिर रहने देंगे। . __यदि राजकीय विभागों में जानेवाले लोग जितेन्द्रियताको अपना भादर्श बना लें, योग्य बनें, अपने आपको प्रजाके सामने अनुकरणीय चरित, आदर्श पुरुषके रूपमें रखें, तो अनुकरणमार्गी संसार राजचरित्रका अनुसरण करके • धर्मारूढ हो जाय और तब दुश्चारित्र्य देशसे स्वयमेव निर्वासित हो जाय । राज्याधिकारी लोगोंके धर्मको पालने लगनेपर प्रजामें अपने माप धर्मकी रक्षा होने लगती है । भारतमें ठीक ही कहा है Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि आत्मानमात्मना रक्षन् चरिष्यामि विशांपते । मैं अपने विज्ञानी विवेकी मनसे अपनी रोक-थाम करता हुआ राज्यव्यवहार चलाया करूंगा । ( आत्मविजयी ) सम्पादितात्मा जितात्मा भवति ।। ९ ।। शासकोचित सत्य व्यवहार करना सीख लेनेवाला ही जितेन्द्रिय हो सकता है । विवरणमनुष्य की सत्यनिष्ठा या कर्तव्यपरायणता ही उसकी जितारमता या जितेन्द्रियता होती है। मनुष्य के अन्तरात्माकी प्रसन्नता निर्मलता स्वच्छता या निष्कामता ही उसकी जितात्मता है । जितात्मा होना ही संसार विजय है । नीति तथा विज्ञानसे युक्त मानवको संपादितात्मा कहा गया है ! सत्य ही नीतिका सार या सर्वस्व है । सत्यके विना मनुष्यका आत्मविकास नहीं होता । सत्यदर्शनके विना समस्त प्रजावर्ग में राज्याधिकारियोंकी वह आत्मबुद्धि ( अर्थात् समस्त प्रजावर्गको अपना ही रूप देखनेकी वह उदात्त भावना) नहीं हो सकती जो एक अच्छा लोककल्याणी राज्य चलानेवाले राजाओं या राज्याधिकारियोंकी अनिवार्य आवश्यकता है 1 जितास्माका अर्थ सुपरिष्कृत मन तथा सुपरिष्कृत इन्द्रियोंवाला बनजाना है जितात्मा मानव न्यायान्यायविवेक करके अपनी क्षुद्र प्रवृत्तियोंको, विषकरे अपने गले में ही रोक रखनेवाले विषकण्ठ महादेव के समान, कभी न उभरने देनेके लिये अपने मानस में दाबकर बैठ जाता और स्वभावसे प्रजाका पूज्य, आदरणीय तथा श्रद्धेय बन जाता है । राजाको प्रजाकी दृष्टि में पूज्य बुद्धि मिलनेसे राजकाज अपने आप हल्का होता चला जाता है । तब राजाका आदर्श चरित्र ही प्रजापर शासन करने लगता है । यदि राजा लोग न्यायान्याय तथा कर्तव्याकर्तव्यका विवेक न रखकर केवल लोलुप होकर उत्तरदायित्वद्दीन मनसे राज्यशासन जैसे उत्तरदायित्वपूर्ण काममें हाथ डाल देते हैं, तो वे } Q ―――― - Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जितात्मताका लाभ अपने साथ राज्यसत्ताको भी ले डूबते हैं। राजनीतिके आचार्य बृहस्पति कह गये हैं कि- “मात्मवान् राजा "- राजा लोग अच्छे शासक बननेके लिये प्रजापर शासन करने से भी पहले अपने ऊपर शासन करना सीखें। राजा या राज्याधिकारी लोग राजसत्ता हाथमें सिंभालने से पहिले अपने जीवनोंको बेद वेदान्तोंकी मूर्तिमती टीका तथा भाष्योंका रूप देकर रखें । राजकीय विभागों में जानेवाले लोग कान खोलकर सुन लें कि दुष्टनिग्रह और शिष्टपालन ही राज्य का मुख्य कर्तव्य है । सोचिये तो सही कि जो राजकर्मचारी अपनी ही दुष्ट अभिलाषामोंपर शासन नहीं कर सकता वह शासनदण्डका उचित प्रयोग कैसे कर सकता है ? जिससे अपना अकेला मन वशमें नहीं रखा जाता वह विशाल राष्ट्रको केसे वशमें रख सकता है ? एकस्यैव हि योऽशक्तो मनसः सन्निवर्हणे। महीं सागरपयेन्तां स कथ हावजष्यति ॥ जो सबसे पहले अपनी दुष्ट अभिलाधाओंपर शासन कर सकेगा वही प्रजाकी दुष्ट प्रवत्तियों को पकड और रोक सकेगा। जैसे अपनी सन्तानको सुधारना पिताके मात्मसुधारसे अलग वस्तु नहीं है इसी प्रकार प्रजापर शासन करना राजाके आत्मशासनसे अलग कोई वस्तु नहीं है। राज्याधि. कार संभालना बहुत बडा उत्तरदायित्व है। आदर्श मनुष्य ही राज्याधि. कार संभाल सकता है। राजा राज्य-संस्थारूपी तपोवनका कुलपति है। समस्त प्रजाके कल्याण अकल्याणसे सम्बन्ध रखने वाली राज्य जैसी सार्वजनिक संस्थांको अपने व्यक्तिगत क्षुद्र स्वार्थोंसे बिगाड डालना देशद्रोह तथा आरमनाश है। अपनेको बिना सुधारे राज्याधिकार संभाल बैठना मगारुडिक (सर्प विद्या न जाननेवाले ) का सांपोंसे खेलने जैसा भयंकर मनिष्ट कर डालनेवाला व्यापार है। ( जितात्मताका लाभ ) जितात्मा सर्वार्थः संयुज्येत ।। १० ॥ जितात्मा नीतिमान लोग समस्त संपत्तियोंसे संपन्न होकर रहे । विवरण- सपनेपर विजय पा चुकनेपर राज्यसंस्था में हाथ डालनेवाले. Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसुत्राणि जितेन्द्रिय लोग जिस काम में हाथ डालते हैं उसे पूरा करके समस्त संपत्तियों से संपन्न हो जाते हैं । ऐश्वर्य और सिद्धियां जितेन्द्रियोंके पास मानेके लिये उतावली हो जाती हैं। वे लोग सामाजिक कार्योंको अपनी निर्लिप्त मानसिक स्थिति के सहारेसे पौरुषके साथ करने की योग्यता पा जाते हैं। इसीलिये आत्मविजय सम्पत्ति के भर्जनले पहला काम है । अजितात्मा लोग मनिवार्य रूपसे सत्कर्मों में उदासीन होते हैं। ऐसे कापुरुषोंका अनीतिपरायण होना अनिवार्य होता है। अनीतिपरायणता ही राज्य. तन्त्रकी असफलता है। आचार्य बृहस्पति ने भी कहा है- " गुणवतो राज्यम् "- राज्य में गुणी लोगोंका ही अधिकार है। जितेन्द्रियता ही राज्याधिकार की योग्यता या गुण है । राज्य करना केवल वेतनार्थी. उत्कोचजीवी, निर्गुण, उदरम्भरि भोजनभोगपरायण लोगोंका काम नहीं है । राज्य-संस्था तो सदगुणी लोगोंकी तपस्याका पवित्र तपोवन है। घटना. चक्रवश निर्गुणों को राज्याधिकार मिल जानेपर उनकी राज्य-संस्थाकी दुर्गति और प्रजामें असन्तोष, रोष तथा हाहाकार फैल जाना अनिवार्य हो जाता है । राजकीय गुणोंसे रहित लोगोंका राज्याधिकार तो एक प्रकारका लूटका टेका होता है। राजशक्तिका अयोग्य हाथों में भा जाना राष्ट्रका महान् पाठान्तर- जितात्मा सवार्थस्लयुज्यत । (प्रजाको संपन्नता तथा राजभक्तिका कारण ) अर्थसंपत प्रकृतिसंपदं करोति ॥ ११॥ राजाओंकी अर्थसम्पत्तिसे प्रजाओके भी अर्थकी वृद्धि स्वभा. वसे हो जाती है। विवरण- शासन की सुव्यवस्था राजा-प्रजा दोनों को सम्पन्न बना देती है। राज्यको मार्थिक संपन्नता या उसका ऐश्वर्यलाभ ही प्रजाकी अर्थवृद्धि कर सकता या प्रजाको राज्यसंस्थामें अनुरक्त बनाकर रख सकता है। (प्रजाकी गुणवृद्धिका कारण ) पाठान्तर- स्वामिसंपत् प्रकृतिसम्पदं करोति । Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राष्ट्रका महालाभ राज्याधिकारियोंकी नीतिमत्ता सत्यपरायणता तथा विवेकितासे प्रजामें नीति, सत्यनिष्ठा तथा विवेककी वृद्धि हो जाती है। यदि राजा राज्याधिकारी या स्वामी उक्त संपूर्ण राजकीय गुणोंसे सम्पन्न होता है ( अर्थात् यदि वह नीतिमान विनयी ज्ञान-विज्ञान-संपन्न होता है) तो अमात्य, राजकर्मचारी तथा प्रजा भी इन सब गुणोंसे संपन्न बन जाती है। प्रजा पाप-पुण्य, नीति-अनीति, न्याय-अन्याय आदि प्रत्येक बात राजचरितसे सोखती है। राशि धर्मिणि धर्मिष्टाः पापे पापाः समे समाः। राजानमनुवर्तन्ते यथा राजा तथा प्रजाः ।। राजाके धर्मात्मा होने पर प्रजा धर्मात्मा, पापी होने पर पापी, सम होने. पर सम बन जाती है। प्रजा तो राजचरित्रका अनुसरण किया करती है । जैसा राजा होता है वैसी ही प्रजा बन जाती है । __ प्रकृति शब्द मन्मियों राज कर्मचारियों तथा देशके करदाता नागरिकों का वाचक है । राजा सुनिपुण तथा पूर्ण संयमी होकर राष्ट्रव्यवस्थाका संचा. लन करनेपर ही राष्ट्र की मानसिक तथा बौद्धिक योग्यता बढ़ती है । राजाको समस्त प्रजाको सपने औरस पुत्रों के समान पालना चाहिये । राजा वही सफल हो सकेगा और वही चिरकाल तक राज्यश्री भोग सकेगा जो प्रजाको अपने ही विराट परिवार के रूपमें देखेगा और उसके हिताहितमें पूरा पूरा सम्मिलित होकर रहेगा । जो राजा या राजकर्मचारी अपने स्वार्थको प्रजा या राष्टके स्वार्थ से अलग रखेगा, वह राष्ट्रका तथा अपना दोनों ही का नाश करके मानेगा । यही बात मार्कण्डेय पुराणमें “ प्रजाः पुत्रानिवारसान् ” में कही है। (प्रजाजनोंकी गुणवृद्धिसे राष्ट्रका महालाभ ) प्रकृतिसम्पदा ह्यनायकमपि राज्यं नीयते ॥१२॥ प्रजाजनोंके नीतिसम्पन्न होनेपर किसी कारण राजाका अभाव हो जानेपर भी राज्य सुपरिचालित रहता है। Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि विवरण-- नीतिमान राजाके प्रभाव से मंत्रिगण राजकर्मचारी तथा कर देनेवाली प्रजाके प्रमुख पुरुष भी राजोचित नीति, विनय, कर्मकौशल, न्यायान्याय कार्याकार्य विवेकसे संपन्न हो जाते हैं। तब राजाके अलाध्य रोगी या अकस्मात् अन्त हो जानेपर भी उस राज्यका परिचालन यथापूर्व बना रहता है । देशका जनमत योग्य राज्यसत्ताके प्रभावसे सुशिक्षित होकर स्वयं ही राज्यसंस्थाका संचालक बन जाता है। बात यह है कि जनमतके अतिरिक्त राज्यसत्ताको जन्म देनेवाली और कोई शक्ति नहीं है । इसलिये नीतिमान लोकमत राजाके शून्य पदपर अधिकार करके बनायक राज्यका कर्णधार बनकर स्वयं ही प्रजामें शान्तिका संरक्षक बन जाता है । वह शान्त वाता. वरणमें लोक कल्याणकी दृष्टि से राजाके योग्य उत्तराधिकारीका राज्याभिषेक करके राज्यको सनायक बना लेता है । प्रबुद्ध लोकमत, राजाका अन्त हो जाने पर राजसिंहासनको उसके अयोग्य पुत्रों या अन्य महत्वाकांक्षी लोगोंके आघात-प्रतिघातोंकी लीलाभूमि नहीं बनने देता। देश में शक्तिशाली जनमत न होनेपर ही शून्य राजसिंहासनपर उसके उत्तराधिकारियों को प्रात्मकलह करनेका अवसर मिलता है । राजाके अयोग्य उत्तराधिकारियों को इस प्रकार कलह करने देनेके परिणामस्वरूप अयोग्य लोग राज्यकी बागडोर हथिया लेते और राष्टको अधःपतित कर डालते हैं। इस प्रकारके दुष्ट उदाहरण इतिहासोंके पृष्ठों को सदासे कलंकित करते आ रहे हैं। अनीतिपरायण राजसत्ताके कुप्रभावसे प्रजाके अधःपतित . हो जानेका वर्तमान उदाहरण स्वयं भाजका भारत है । नीतिहीन विदेशी राजशक्तिने यहांके जनमतको जानबूझकर नहीं जागने दिया और वह भारत त्यागने के अवसरपर भारतमें जो अनर्थ उत्पन्न करके गई है, उसे कोई भी अस्वीकार नहीं कर सकता। यदि भारतका जनमत सुशिक्षित तथा राज्यशक्तिका स्थान ग्रहण करनेकी योग्यतासे समृद्ध होता, तो न तो भारतमाताको दो विवदमान ( लडने-झगडनेवाले ) खंडों में बंटना पडता और न दोनों भागोंकी राजसत्तापर पार्टीबाज स्वार्थी लोगोंका अधिकारसंघर्ष चल पाता। . सूत्र विशेष रूपसे इस बात का संकेत कर रहा है कि जनमत सुशिक्षित Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राष्ट्रका महालाभ होकर या तो स्वयं ही राजशक्ति बनकर रहे या राजशक्तिका सुदृढ नेतृत्व करे, यही राष्ट्रकी शान्तिको सुरक्षित रखनेका एकमात्र उपाय है। देशके लोकमतके इस आदर्शको अपनाले नेपर ही राज्यव्यवस्थाको अयोग्य हाथों में जानेसे रोका जा सकता तथा शक्तिशाली स्वतन्त्र राष्ट्र का निर्माण किया जा सकता है । वृद्ध कह गये हैं राजानं प्रथम विन्द्यात्ततो भार्या ततो धनम् । राजन्यसति लोकेऽस्मिन् कुतो भार्या कुतो धनम् ॥ सुखी जीवन बितानेके इच्छुक लोग सबसे पहले अपने देशमें न्यायकी संरक्षक, सुपुष्ट, अनभिभवनीय, अदम्य, अप्रकम्प्य, अदृष्य राजशक्ति खडी करें । इसी में उनके कल्याणका रहस्य छिपा है। उससे पहले पत्नी और धनधान्यका संग्रह करनेका कोई अर्थ नहीं है । ये तो सुपुष्ट सुविश्वस्त राज. शक्ति बनाचुकने के पश्चात् संग्रह करनेकी वस्तु हैं। सुविश्वस्त राजशक्तिके बिना भार्या और धन भरक्षित हो जाते हैं। राजशक्तिकी निर्बलतासे अपना सर्वस्व लुटवा कर नष्ट हुआ पंजाब तथा बंगाल इस वृद्ध प्रतिपादित सिद्धान्तके दुःखद उदाहरण है। पंजाब बंगालवाले उदाहरणोंसे हमारे राष्ट्र के लोगोंको शिक्षा लेनी चाहिये और अपनी राजशक्तिको पवित्र और पुष्ट बनाये रखनेमें अबतकवाली उदासीनता न बरतनी चाहिये । यह जान लेना चाहिये कि राजशक्ति हमारी ही प्रतिनिधि संस्था है। उसका सुधार हमारा ही आत्मसुधार है । यदि हम लोग अपनी राजशक्तिको इसी प्रकार उत्तर. दायित्वहीन ढोली-ढाली बनी रहने देंगे तो इस प्रकारकी दुर्घटनाओं की पुनरावृत्ति होना केवल संभव ही नहीं प्रत्युत अनिवार्य है। इस मूत्र के अनुसार " सूत्रका पाठान्तर उचित है। प्रकृतिकोपः सर्वकोपेभ्यो गरीयान् ।। १३॥ राज्यके विरुद्ध जनरोष समस्त रोषोंसे भयंकर होता है। विवरण- मान्त्रियों, राजकर्मचारियों या कर देनेवाली प्रजाओं में राज्य के Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि विरुद्ध रोप उत्पन्न होजाना समस्त अनर्थोंसे भयंकर है । प्रजावर्गकी शुभेच्छा और स्वीकृति दी राज्यसंस्थाका मूल है । जनमतमें राज्यसंस्था के संबन्धमें क्षोभ या रोष उत्पन्न होजाना, राज्यसंस्थाके लिये महा अनिष्टकारी है । जब प्रजावर्ग राज्यके दुष्प्रबन्ध तथा दुष्ट राजकर्मचारी रूपी भेडियों के उत्पीडनों से त्रस्त होकर, कानूनको हाथमें ले लेनेके लिये विवश कर दिया जाता है तब राज्यसंस्थानोंके नष्ट होनेमें एक क्षण भी नहीं लगता । एक बलवान नारा लगनेकी देर होती है कि राज्यसंस्था धूल में मिल जाती है । इसलिये राज्याधिकारी लोग जनतामें अपनी राज्यसंस्था के प्रति क्षोभ पैदा करनेवाले कामोंसे बचें, प्रजा दुःशासन, अन्याय, उत्पीडन, दुर्भिक्ष, भूकम्प, महामारी, जलप्रलय, कुशिक्षा, भ्रष्टाचार, उत्कोच आदि कष्टों से कुपित हो जाती, राज्यसंस्थासे द्वेष मानने लगती, और अन्तमें द्रोह करनेपर उतर आती है । प्रजाका राज्य के प्रति रोष महामारियों तथा वैदेशिक आक्रमणोंसे भी अधिक विनाशक होता है । इसलिये प्रजाको शान्त तथा राज्यसंस्थाका प्रेमी बनाकर रखना राज्याधिकार संभाल कर बैठनेवालोंका सबसे पहला काम है । राज्यसंस्थाका जीवन और स्थिरता प्रजांकी मानसिक सन्तुष्टिपर ही निर्भर होता है । प्रजाके असन्तुष्ट रहनेपर अचिर भविष्य में राज्यसंस्थाकी हानि तथा राष्ट्रकी दुर्गति अनिवार्य हो जाती है । १४ अणुरप्युपहन्ति विग्रहः प्रभुमन्तः प्रकृतिप्रकोपजः । अखिलं हि हिनस्ति भूधरं तरुशाखान्तनिघर्षजीऽनलः ॥ ( भारवि ) जैसे वृक्ष की शाखा के अग्रभाग के संघर्षण से उत्पन्न अभि अकेले उसी वृक्षको नहीं किन्तु उस समस्त पर्वतको तथा उस समस्त वनको फूंक डालता है, जिसमें वह वृक्ष खडा होता है, इसी प्रकार राज्य के किसी भी क्षुद्र से क्षुद्र व्यक्ति न्यायसंगत रोष से उत्पन्न छोटासा भी विग्रह समग्र प्रभुसत्ताको धूल में मिला डालनेवाला बन जाता है । इसलिये राज्याधिकारी लोग प्रजाके रोषको Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचायती राज्यकी कल्पना क्षुद्र रूपमें न देखकर भावी परिणामोंको सहस्रगुणा करके देखें और उसे उत्पन्न न होने देने की पूरी सावधानी रखें। ( पंचायती राज्य की कल्पना ) अविनीतस्वामिलाभादस्वामिलाभः श्रेयान् ॥१४॥ अयोग्यको राजा बनानेसे किसीको राजा न बनानेमें राष्ट्रका कल्याण है । अयोग्य एकाधिपत्यसे राज्यको पंचायती राजका रूप देना हितकर है। विवरण- नीतिहीन, सत्यहीन, समुद्धत, अन्यायी, अत्याचारी, स्वार्थी मनुष्यको राजा बनानेसे राजहीन रहना ही राष्टके लिये हितकारी होता है। राजा बनानेके लिये कोई विनीत व्यक्ति न मिले तो राजा बनानेकी योग्यता तथा अधिकार रखनेवाले सुशिक्षित जनमतका मनिवार्य कर्तव्य हो जाता है कि राज्यतन्त्रको अपने ही हाथों में रखकर गणतन्त्रताको स्थापना कर ले। किसीको राजा बनाना राकी अनिवार्य मावश्यकता नहीं है। सुम्य. वस्थामात्र राष्ट्रकी अनिवार्य रूपसे वांछनीय मावश्यकता है। सत्यहीन राजाको सिंहासनारूढ न रहने देना तथा सत्यानिष्टको ही राजा बनाना जनमतका ही उत्तरदायित्व है और यह उसीका पवित्र कर्तव्य भी है। जन. मतकी सत्यानुकूल सामूहिक इच्छायें ही राजशक्ति हैं । यों भी कह सकते हैं कि सत्य ही राजशक्ति है। देशका जनमत सत्यहीन व्यक्तिको राजा न बनाने या हटा देनेपर अपनी स्वतन्त्र सामूहिक चिन्ताशक्तिसे अशान्तिकार दमन करनेवाली शक्तियों को अपने हाथमें लेनेका अवसर पाता है। जब देशका सुशिक्षित जनमत मिल-जुलकर अपनी सामूहिक सदिच्छासे राज्य सत्ता संभालनेके लिये खडा हो जाता है तब उसके लिये राज्यसंचालन कठिन काम नहीं रहता । परिवर्तनसे डरकर सत्यहीन राजाको राजा रहने देने और सत्यहीन राजकर्मचारीको राज कर्मचारी बनाये रखनेमें, यह दोष रहता है कि ये लोग अपने पदोंपर रहकर प्रजाकी अशान्तिदमनकारिणी शक्तियोको दाबकर बैठ जाते हैं और देश में अशान्तिकी ज्वालाको भडकते रहनेको Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि छूट देते रहते हैं। ऐसी अवस्थामें लोकमतका कर्तव्य हो जाता है कि सत्यहीन व्यक्तिको राजा न रहने दें तथा सत्यहीन राजकर्मचारीको उसके पदसे हटाकर माने । राज्यसत्ताके दुष्टनिग्रह, शिष्टपालन तथा सुशासन ये तीन काम हैं। ये तीन काम न करनेवाली नीतिहीन राज्यसत्ता या राजाकी संपत्तियें शीघ्र नष्ट हो जाती हैं। द्वाविमौ ग्रसते भूमिः सो बिलशयानिव । अरक्षितारं राजानं ब्राह्मणं चाप्रवासिनम् ॥ ( विदुर ) बिल के निवासी चूहे मादि जन्तुओं को खाजानेवाले सांपके समान भूमि भी अरक्षक राजा तथा गुणसंग्रह के लिये प्रवास न करनेवाले ब्राह्मण, इन दोनों को प्रप लेती हैं। पाठान्तर- ‘अविनीतस्वामिभावादस्वामिलामः श्रेयान् ।' स्वामीके अविनीत होने से स्वामिहीन रहना श्रेष्ठ है। सम्पाद्यात्मानमन्विच्छेत् सहायवान् ॥१५॥ राजा अपनेको राजोचित गुणोंसे सम्पन्न बनाकर अपने ही जैसे गुणो सहायकों या सहधर्मियोंको साथ रखकर राजभार लेना चाहे। विवरण- जब राजा या राज्याधिकारी पहले अपने आपको अपनी इन्द्रियों को तथा मनको नीति, सत्य, विनय आदि शासकोचित गुणों से सम्पन्न बना लें (जब वे सर्व प्रकारके कलुषित आचरणोंसे अतीत रहनेका सुदृढ निश्चय कर लें ) तब ही राज्य संस्था में हाथ लगायें और तब भी योग्य गुणो साधि. योंको साथ लेकर उसमें जाना चाहें । राज्यसंस्थामें एकतन्त्रता एकछत्रता या निर्बाध भोगसुखके मूढ सपने न देखें | वे अपने आपको बुद्धिमान सदाचारी व्यवहारकुशल मन्त्री, पुरोहित, भमास्य,भृत्य आदि हितैषियोंकी सदिच्छाओंका अनुयायी बनाये रखकर ही सुख समृद्धि चाहें और सहायक Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचायती राज्यकी कल्पना हीन होनेकी भूल कभी न करें। अपने ऐसे धार्मिक प्रभावशाली गुणी साथी रखें जो राजकीय प्रमाद, मन्याय या अत्याचारका प्रबल विरोध कर सकें और उसे रोक सकें । चाटुकारोंको अपना साथी न बनायें। राज्योंकी स्थिरता, समद्धि, यश और सफलता सहायकोंकी ही योग्य छोटपर निर्भर करती है। राजा लोग शौर्य, ज्ञान, विज्ञान तथा नीतिसे संपन्न सहकर्मियों को लघुबुद्धिसे उपेक्षित न कर बैठे । पाठान्तर- सम्पाद्यात्मानमन्विच्छेत् सहायान् । राजा अपनेको योग्य बनाकर अपने योग्य सहकारी नियत करे । नासहायस्य मन्त्रनिश्चयः ॥१६॥ मन्त्रिपरिषद्की बौद्धिक सहायतासे हीन अकेला राजा अपने अकेले सीमित अनुभवोंके बलसे राज जैसे सुदूरव्यापी जटिल कर्तव्योंके विषयमें उचित निर्णय नहीं कर सकता। विवरण-"सब, सबकुछ नहीं जान सकते" की लोकोक्तिके अनुसार एक मनुष्य के अपने पराये राष्ट्रों की परिस्थितियोंसे परिचित न होसकनेके कारण स्वपरराष्ट्र संबद्ध कर्तव्योंके निर्णय में स्वदेशसंबंधी तथा वैदेशिक दोनों प्रकारका अनुभव रखनेवाले सूक्ष्मदर्शी, प्रतिभाशाली, अनागतविधाता, प्रत्युत्पत्रमति, अनुभवी विद्वान् मन्त्रियोंसे मन्त्रणा करना आवश्यक होता है । स्वराष्ट्र परराष्ट्र के संबंध सोचते समय दोनों राष्ट्रों की समस्त परिस्थि. तियें तथा आवश्यकतायें चित्रलिखितके समान ध्यानमें होनी चाहिये और सस ध्यानसे अपने राष्ट्रकी समस्त आवश्यकताओंकी रक्षा होनी चाहिये । उन उन विषयोंके विशेषज्ञ मन्त्रियोंके बिना न तो स्वराष्ट्रपरराष्ट्रविषयक उचित संवाद चल सकते और न उन संवादों में से कोई लाभकारी परिणाम निकाला जा सकता है । इसलिये राज्याधिकारियोंको प्रभावशाली बुद्धिमान् मन्त्रियों की भावश्यकता रहती है। "सहायताध्यत्वं राज्यत्वम्" राज्यसंस्था व्यक्तिगत संस्था नहीं है । Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि इसमें सहायकों की अनिवार्य मावश्यकता है। राज्यकी समस्यायें समस्त राष्ट्रकी समस्यायें होती हैं । इसलिये राजा या राज्याधिकारी लोग अपने राज्यमें से व्यवहारकुशल चरित्रवान् सर्वश्रेष्ठ बुद्धिमानोंका संग्रह करके, उनके अनुभवोंसे लाभ उठाकर, अपने राष्ट्रको विपत्तियों से भी बचायें और संपन भी करें। महामन्त्री, सेनापति, राज्यश्रेष्ठी, प्रधान न्यायाधीश, राज्यके चार सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति, सब प्रकारकी सेनाओं के एक एक मुखिया, पुरोहित, अमात्य भादि राजाके सहायक कहाते हैं । समाजके ललामभूत इन योग्य अधिकारियोंके कारण भारतके एकछत्र कहलानेवाले राज्य भी सदासे प्रजातंत्र रहते आरहे हैं । वयस्कमताधिकार नामवाला योरोपसे भारतमें उधार लाया हुमा प्रजातंत्र इसलिये प्रजातंत्र नहीं है कि वयस्क होजानेमानसे किसीका मन इतना संस्कृत नहीं हो जाता कि उसके मुखसे समस्त प्रजाकी सदिच्छायें व्यक्त होने लगें । राज्याधिकारपर प्रजाके तपस्वी व्यवहारकुशल विद्वानोंका प्रभावशाली होकर रहना ही प्रजातंत्र कहला सकता है। प्रजाकी सामूहिक सदिच्छाओंका राज्यतन्त्रपर प्रभावशाली (हावी) रहना ही तो प्रजातंत्र की परिभाषा है । प्रजाके निष्कर्षभूत योग्य सदाचारी व्यवहारकुशल विद्वानों के मुखसे प्रजाकी सदिच्छायें न केवल व्यक्त अपितु राज्यतंत्रपर प्रभाव रखनेवाली होकर उस एकतंत्र दीखनेवाले राज्यको भी प्रजातंत्र ही बनाये रखती हैं । राजाको व्यवहारकुशल सदा. चारी विद्वानोंको सदा अपना सहयोगी बनाये रखना चाहिये । राष्ट्रीय कर्त. ज्योंके विषय में इन सब लोगोंका ऐकमत्य होजाना ही 'मन्त्र', कहाता है। नैकं चक्रं परिभ्रमयति ॥१७॥ जैसे रथका अकेला चक्र रथको नहीं चला पाता इसी प्रकार राजा तथा मन्त्रिपरिषद्पी दो चक्रोंसे हीन एकतन्त्र राज्य रथ अकार्यकारी हो जाता है। विवरण- राज्य में एकतन्त्रताके सुपने देखनेवाला राजा राज्यसंस्थाको मव्यवस्थित करके राष्ट्र में अराजकता फैलानेवाला बनजाता है । सहायसाध्य Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन्त्रोत्पादन सार्वजनिक कार्यों में अकेले अकेले मनुष्योंकी कोई उपयोगिता नहीं होती। अनुभवी मन्त्रियोंकी व्यवहारकुशल सम्मतियोंके बिना अकेला राजा राष्ट्र में अनर्थ खडा कर देता है । राज्य राजाओंकी पारिवारिक समस्या नहीं है। इसमें उन्हें राष्ट्र के व्यवहारकुशल दूरदर्शी विशिष्ट पुरुषों की सहायता लेनी ही चाहिये । इसीलिये कौटलीयमें कहा है सहायसाध्यं राजत्वं चक्रमेकं न वर्तते । कुर्वीत सचिवांस्तस्मात्तेषां च शृणुयान्मतम् ॥ राजधर्म योग्य सहायकोंके साहाय्यसे ही पाला जाता है । इसलिये राजा भाचार्यों तथा मन्त्रियों की बात ध्यानसे सुने और तदनुसार आचरण करके अपने राजदण्डधारणको सार्थक करे। पाठान्तर-नैकं चक्रं परिभ्रमति । __ सहायः समदुःखसुखः ॥१८॥ सुख-दुःख दोनों में अभिन्नहृदय साथी होकर रहनेवाला मंत्री आदि सहायक कहाता है । विवरण- सुख-दुःखका एकसा अनुभविता और दुःखका एकसा प्रतिकर्ता ही सहायक माना जाता है । सुख-दुःखमें तटस्थ रहनेवाला सहायक या हितैषी नहीं माना जासकता। सहायक लोग समशक्ति, दीनशक्ति तथा प्रबलशक्ति तीन प्रकारके होसकते हैं । यह मेद उनकी परिस्थितिपर निर्भर करता है। ये तीनों प्रकार के सहायक समानभावसे अपनाने योग्य होते हैं। पाठान्तर-- सहायः समो दुःखसुखयोः । (मन्त्रोत्पादन) मानी प्रतिमानिनमात्मनि द्वितीयं मन्त्रमुत्पादयेत् ॥१९॥ समुन्नतचेता स्वाभिमानी राजा प्रबन्धसंबन्धी जटिल समस्याओंके उपस्थित होनेपर अपने ही भीतर दूसरे प्रतिमानी विचारात्मक मन्त्रको उत्पन्न कर लिया करे और निगूढ कार्योंके विषयमें सबसे पहले उस मन्त्रके सहारेसे सोचा करे । Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि विवरण - राजा विचारणीय समस्या के अनुकूल, प्रतिकूल दोनों रूपों या करने न करने अथवा अन्यथा करनेके समस्त परिमाणोंपर दृष्टि डालने के लिये उपस्थित विचारणीय कर्तव्यका विरोध करनेवाली प्रतिकूल युक्तियों को भी विचारचक्षुके सामने ला लाकर अपने निर्णयको अभ्रान्त तथा अखण्डनीय रूप देकर कर्तव्यका निर्णय किया करे | वह इन कार्योंके विषय में अनुकूल, प्रतिकूल दोनों पक्षोंको स्वयं ही उपस्थित करनेवाला स्वयं ही सम्मति मांगने और स्वयं ही सम्मति देनेवाला द्विभागात्मक बन बन कर कर्तव्यका निर्णय किया करे । २० किन्नु मे स्यादिदं कृत्वा किन्नु मे स्यादकुर्वतः । इति संचिन्त्य कर्माणि प्राशः कुर्वीत वा न वा ॥ बुद्धिमान् मनुष्य अपने उपस्थित कार्यके विषय में मैं इस कामको करूंगा तो उसका क्या परिणाम और प्रभाव होगा ? तथा न करूंगा और विपरीत करूंगा तो उसका क्या परिणाम और प्रभाव होगा ? यह सब पूर्णांग रूपसे विचार चुकनेपर उचित समझे तो करे और उचित न समझे तो न करे । मनुष्य गहनकार्योंके विषय में स्वयं ही दोनों पक्ष उपस्थित करनेवाला द्विभागात्मक बन बन कर कर्तव्यनिर्णय किया करे । इसी अभिप्राय से "" राजा प्रज्ञासहायवान् " कहा गया है । कर्तव्यकालमें कर्तव्यनिश्चय के लिये आत्माभिमुख होनेपर वहां से मन्त्रार्थी मनुष्यको एक निरपेक्ष मन्त्र या स्वतन्त्र सम्मति प्राप्त होती है । यह सम्मति मानवके अन्तरात्मासे प्रस्तुत होकर भाती है । इसीको "आत्मामें प्रतिमानीमन्त्रका उत्पादन " कहा जा रहा है । सूत्र कहना चाहता है कि विचारशील मनुष्य बाह्यमन्त्रणादाता के अभा में अपनेको असहाय न मान लिया करे और मन्त्रियोंपर कर्तव्यका समग्र भार डालकर समस्या से असंपृक्त न होजाया करे। वह समझे कि मन्त्रणादाता उसीके मन में सदसद्विचारबुद्धिका रूप लेकर रहरहा है । अपने हृदयस्थ उस मन्त्रणादाताको अपनी उभावनी शक्तिसे अपनी कल्पनामें जाप्रत करके अपने ज्ञानकणसे उसका अव्यर्थ उपदेश सुना करे और उससे कर्तव्यपालन में अभ्रान्त बने । Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन्त्रीकी नियुक्ति २१ ( मन्त्रीकी नियुक्ति ) पाठान्तर - मानी प्रतिपत्तिमानात्मद्वितीयं मन्त्रिणमुत्पादयेत् ॥ स्वयं अपनी सूझबूझ रखनेवाला मानी ( समुन्नतचेता सम्मानार्ह विचारशील स्वाभिमानी यशस्वी ) राजा अपना दूसरा योग्य साथी बनाने के लिये सचिवलक्षणोंसे युक्त अपने अनुकूल किसी सद्गुणी स्वराष्ट्रवासी व्यक्तिको प्रधानमन्त्री के रूपमें नियुक्त करे । विवरण - यशस्वी, प्राज्ञ, समृद्ध, उत्साही, प्रभाव संपन्न, कष्टसहिष्णु, कठोरकर्मा, शुचि, मिष्टव्यवहारी तथा राजसंस्थाके साथ सुदृढ अनुराग रखनेवाला स्वराष्ट्रवासी व्यक्ति मंत्री होना चाहिये । यह कौटलीय अर्थशास्त्रमें वर्णित है । मन्त्रियों के लक्षणों के विषय में मत्स्यपुराणसें लिखा है- कि मन्त्री भक्त, शुचि, शूर, आज्ञानुवर्ती, बुद्धिमान्, क्षमी, कार्याकार्यविवेकी, तर्कशास्त्र, वार्ताशास्त्र, त्रयी तथा दण्डनीति आदिका विद्वान् सुदेशज और स्वदेशज होना चाहिये । राजाको चाहिये कि मुख्य मन्त्रीके अतिरिक्त अन्य मंत्रियों से मंत्रणा करने के प्रसंगपर उन्हें कल्पित घटनायें बता बता कर उनपर इस प्रकार सम्मति लिया करे कि ऐसा हो तो क्या करना चाहिये ? मंत्रके विषय में मुख्य मंत्रीके अतिरिक्त किसीका भी विश्वास करना और किसीको भी मन्त्र बता देना कल्याणकारी नहीं है । इसलिये मन्त्रणाके विषय में केवल इस एक सुपरीक्षित व्यवहारकुशल उपधाशुद्ध प्रधानमन्त्री के साथ मालोचना करके ही किसी विषयका अन्तिम निर्णय करे और यह प्रधानमन्त्री उस निर्णयको गुप्त रखनेका पूर्ण उत्तरदायी हो। इससे निश्चय करना इसलिये आवश्यक है कि राजकीय निर्णयों में दूसरे विज्ञपुरुषकी बुद्धियोंका सहयोग अपेक्षित होता है । इसलिये राजा लोग स्वनिश्चित बातको भी अपने प्रधानमन्त्री से पुनर्निश्चय करायें । उस कर्तव्य के विषयकी सविस्तर आलोचना के लिये प्रधानमन्त्री अपने विभागों के बहुत से विशेषज्ञोंके साथ मंत्रणा करके कर्तव्यका Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि स्वरूप तो निश्चित करलें परन्तु अन्तिम निर्णय न करे । उसके विषय में अन्तिम निर्णय ही मन्त्र कहता है । अन्तिमनिर्णय केवल दो व्यक्ति करें । वह मन्त्र केवल प्रधानमंत्री तथा राजाको ही ज्ञात हो । इन दोनोंके अतिरिक्क तीसरे किसी भी व्यक्तिको मन्त्र के स्वरूपका, फलसे पहले ज्ञान न हो सकने की सुदृढ व्यवस्था होनी चाहिये । २२ ( मन्त्रणाके अयोग्य ) अविनीतं स्नेहमात्रेण न मंत्रे कुर्वीत ॥ २० ॥ सत्यहीन ( कार्याकार्यविवेकहीन ) व्यक्तिको केवल स्नेही होनेसे हितकारी रहस्योंकी आलोचनामें सम्मिलित न करे । विवरण - ऐसा करना संकटशून्य नहीं है । कौटल्य में कक्षा है-" कार्यसामर्थ्यात् पुरुषसामर्थ्यं कल्पते " । कार्यकी गुरुता तथा उसके सम्पादनकी योग्यता अयोग्यता से ही कर्ताकी शक्तिकी कल्पना होती है । उसीसे उसे योग्य या अयोग्य ठहराया जाता है । कार्योंकी निपुणता दी मन्त्रियों का सामर्थ्य माना जाता है । ( मंत्री की योग्यता ) श्रुतवन्तमुपधाशुद्धं मन्त्रिणं कुर्यात् ॥ २१ ॥ तर्कशास्त्र, दण्डनीति, वार्ता आदि विद्याओंके पारंगत तथा गुप्त रूपसे ली हुई लोभपरीक्षाओंसे शुद्ध प्रमाणित व्यक्तिको मंत्री नियुक्त करे । " विवरण -- कौटलीयमें मंत्रीके गुण निम्नप्रकार वर्णित हैं। मंत्री स्वदेशज शुद्धवंशज उदात्त संबन्धियोंवाला, राजकीय प्रमादपर राजाको दृढता से रोक और टोक सकनेवाला, समस्त प्रकारके यानोंके संचालन तथा वाहनमें कुशल, युद्ध, आयुष, गान्धर्व आदि विद्याओं में पारंगत, अर्थशास्त्रका ज्ञाता, स्वाभाविक सूझवाला, अविस्मरणशील अविकत्थनशील शीघ्रकारी मधुरस चितभाषी, अत्यन्त चतुर, प्रतिकार तथा प्रतिवचन में समर्थ, पुरुषार्थी, Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन्त्रीकी योग्यता प्रभावयुक्त कष्टसहिष्णु, शुद्धस्निग्धव्यवहारी, सुरढ राजानुरागी, शील, बल, भारोग्य तथा बुद्धिसंपन्न, गर्वहीन नम्र, स्थिरबुद्धि, सौम्यमूर्ति, तथा निवैर होना चाहिये। मन्त्रमला: सोरम्भाः॥ २२॥ भविष्यमें किये जानेवाले सब काम मंत्र अर्थात् कार्यक्रमकी पूर्वकालीन सुचिन्तासे ही सुसम्पन्न होते हैं। विवरण- उस उस विषयके विशेषज्ञोंके साथ उन कर्माकी विधियों, साधनों तथा कर्तामोंकी सांगोपांग चिन्ता ही समस्त कर्मोंकी मूल अर्थात् प्रारंभिक आधारशिला है। कौके समस्त उपक्रम मंत्रपूर्वक होनेपर ही समी. चीन होते हैं । तब उनके सुफलोत्पादक होनेका सुनिश्चित विश्वास होजाता है । सोचकर किये हुए कर्म ही समीचीन होते हैं । सुचिन्तित वचन तथा सुचिन्तित कार्य कभी नहीं बिगडते । सब कर्मोंकी स्थिरता मोर दृढताकी रक्षा करनेका मूल मन्त्रणामें ही रहता है। हिताहितविचारकी गुप्त बातें “मन्त्र" कहाती हैं । अपने राष्ट्रकी सुष्यवस्था तथा परराष्ट्र के साथ सन्धि, विग्रह मादि कार्योंके स्वरूपकाका निर्धारण चिन्तापूर्वक करना पड़ता है। कर्म करने से पहले कर्मकी स्वरूपचिन्ता कर. लेनी चाहिये । उसके पश्चात् उसे करना चाहिये । यही सफलताका सुनिश्चित मार्ग है । इसलिये राजा लोग किसी अविचारित कामको हाथ न लगाकर प्रत्येक काममें ,मन्त्रकी नीतिको अपनायें । महामति चाणक्यने मन्त्रणामें विचारणीय पांच विषयों का वर्णन इस प्रकार किया है__ कर्मणामारम्भोपायः, पुरुषद्रव्यसंपत् , देशकालविभागो, विनिपातप्रतिकारः कार्यसिद्धिश्चेति । १- काँको प्रारंभ करनेके उपाय, २- पुरुष तथा अपेक्षित द्रव्योंकी उपस्थिति, ३- कार्ययोग्य देश तथा कालका उचित निर्णय, ४- बिगडे कार्यका सुधार तथा ५- कर्मकी स्थिति, वृद्धि आदि तथा उसके उपायोंका निरीक्षण । Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि १-कर्मोंका भारम्भ और उनके उपाय- अपने देश में कहां खाई, दुर्ग, भवन, कुल्या, प्रपात, झील, विद्यालय, भातुरालय, पान्थशाला, सेनानिवेश मादि बनाने हैं ? और वे कैसे बनाने हैं ? उनके लिये क्या क्या प्रारम्भिक कार्यवाही करनी है ? २- दूसरे राष्ट्रोंसे सन्धि, विग्रह आदि करने के लिये कहां किसे दूत बना कर भेजना है ? दुर्ग, पोत, कुल्या, बांध मादि निर्माणों के लिये निर्माणकुशल शिल्पी लोग कहांसे कैसे प्राप्त करने हैं ? लोहा लकी चूना पत्थर आदि निर्माणसामग्री कहांसे, कैसे लानी है ? देश विदेशोंसे समाचार लानेवाले दूत तथा सेनापति आदि महत्वपूर्ण पदोंपर किन किन पुरुषोंको नियुक्त करना है ? सोना, चांदी, धनधान्यादि कहांसे कैसे प्राप्त करने हैं ? किसे किस काम के लिये कितना धन, किस किस प्रकार कितने बारमें देना है ? इत्यादि। ३- कौन काम, किस स्थानपर, किस ऋतु और किल परिस्थिति में करना है ? कर्तव्यकी भौगोलिक स्थिति कैसी है ? वहां किस ऋतु और परिस्थि. तिमें काम ठीक होसकता है। देशमें सभिक्ष रखने और दर्भिक्ष हटाने के लिये क्या क्या उपाय करने हैं ? कर्म सदा ही देश, काल और विशेष परि. स्थितिकी अनुकूलता चाहा करता है। ४- अमुक बिगडे कामको कैसे सुधारना है ? राष्ट्रीय कार्योंकी विपत्तियां कैसे हटानी हैं ? अतिवृष्टि, अनावृष्टि, मूषक, शलभ, टिड्डी, तोते, माका. मक राजा तथा माभ्यन्तर राष्ट्रकण्टकोंसे राष्ट्रको कैसे बचाना है ? ५- कौनसे कार्यकी कैसी स्थिति है ? कौनसे कामको कैसे वद्धि देनी है ? कौनसे कामको साम, दाम, दण्ड, भेद आदि किस किस उपायसे सिद्ध करना है ? __ ये मन्त्रके पांच अंग हैं । कार्य इन सबके पूर्णांग विचारसे ही सिद्ध होते हैं। कर्मसे पूर्व ही कमोपयोगी समस्त चिन्तन पूर्ण होजाना चाहिये। कर्मके मध्यमें उसके सम्बन्धमें कुछ भी सोचना शेष न रहजाना चाहिये। Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन्त्रीकी योग्यता मन्त्ररक्षणे कार्यसिद्धिर्भवति ॥ २३ ॥ कार्यसंबन्धी हिताहितचिन्तारूपी मन्त्रको गुप्त रखनेसे ही कार्य सिद्ध होपाता है। विवरण- कार्योंके उद्देश्य, उनके साधन, उनके स्थान, उनकी विधि गुप्त रखनेसे ही कार्य निर्विघ्न होते हैं । कार्यसिद्धिसे पहले उसका पता शत्रुओंको चल जानेपर उन्हें उसे व्यर्थ करनेका अवसर मिल जाता और कार्य सिद्ध होने से रह जाता है । मन्त्ररक्षाका सुदृढ प्रबन्ध न होनेपर मन्त्र. फूट जाता है। __ यदि कोई उत्तरदायित्ववाला मंत्री मन्त्रभेद कर दे तो " उच्छियेत् मन्त्रभेदी" इस कौटल्य के अनुसार उसे मरवा डालना चाहिये । बृहस्पतिने कहा है कि "मन्त्रमुलो विजयः" विजय अर्थात् सब कार्यों में सफलता मन्त्रोंसे ही मिलती है। मंत्रभेदसे राज्योंके योगक्षेम नष्ट होजाते हैं । मान्त्रियोंके भी कुछ मन्त्री होते हैं, तथा उनके भी कुछ श्रोता तथा मन्त्रणादाता होते हैं। यही परम्परा मन्त्रभेद किया करती है । इसलिये राजा जिस किसी मन्त्री से मंत्रणा न करके केवल प्रधानमन्त्रीसे करे और वह उसकी सुरक्षाका पूर्ण उत्तरदायी हो । उम प्रधानमन्त्रीको मावश्यकता प्रतीत हो तो वह अपने उस विषयके विशेषज्ञोंसे मन्त्रणा करके बातका ममे जान कर उसपर राजाके साथ विचार विमर्श करके अन्तिम निर्णयपर पहुंचे। पाठान्तर-मन्त्रसंवरणे कार्यसिद्धिर्भवति। मन्त्रविसावी कार्य नाशयति ।। २४ ।। किसी भी प्रकारकी असावधानतास मन्त्रकी गोपनीयताको सुरक्षित न रख सकनेवाला कार्यको नष्ट भ्रष्ट कर डालता है। विवरण-- असावधानता, मद, स्वप्नविप्रलाप, विषयकामना, गवे, गुप्तश्रोता, मन्त्रकाल में मूढ या अवोध समझकर न हटाया हुमा व्यक्ति Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि एकान्तमें विचारसे निर्णीत गुप्त बातको बाहर फैला देता है। इन सबसे मन्त्रको रक्षा करनी चाहिये। इस विषयपर भारद्वाज, पाराशर, विशालाक्ष, पिशुन, बृहस्पति, उशना, मनु, वातव्यधि, कौटिल्य तथा बाहुदन्तीपुत्रोंके मन्तव्य, कौटल्य अर्थशास्त्र तथा मोशनस सूत्रोंमें उल्लिखित हैं। पाठान्तर-मन्त्रनिःस्रावः सर्व नाशयति । हानि करनेवालों को गुप्तरूपसे विचारित मन्त्रणाका पता चल जाना चिन्तित समस्त कार्यको नष्ट कर डालता है। प्रमादाद द्विषतां वशमुपयास्यति ॥२५॥ यदि राजा या राज्याधिकारी मन्त्ररक्षामें थोडासा भी प्रमाद करेंगे अर्थात् मन्त्र सुननेके अनधिकारी व्यक्तियोंसे कर्तव्यकी गोपनीयताको सुरक्षित न रख सकेंगे तो वे अपना रहस्य शत्रुओंको देकर उनके वशमें चले जायेंगे। सर्वद्वारेभ्यो मन्त्रो रक्षितव्यः ॥ २६॥ मन्त्र फूट निकलने के समस्त द्वारोंको रोक कर उसकी रक्षा करनी चाहिये। विवरण- मन्त्र शत्रु या उसके किसी हितैषीके पास तक नहीं जाना चाहिये । मन्त्रको रक्षा उसे किसीके भी पास न जाने देने की पूरी साव. धानीसे ही हो सकती है। शत्रु, पिशन, लोभी, छिद्रान्वेषी लोग मन्त्रभेद किया करते हैं । अथवा-मन्त्रलेख धादि साधनोंकी भरक्षासे भी मन्त्रभेद होता है। एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्रका भेद लेने के लिये नानाविध कुटिल उपायोका प्रयोग करता है । उन सब कुटिल प्रयोगोंसे अपने मन्त्रको रक्षा करना अत्यन्त गम्भीर कर्तव्य है । जैसे कोषागारका प्रहरी भुशुण्डी हाथमें लेकर टहल टहल कर जागरूक रहकर उसकी रक्षा करता रहता है, उसी प्रकार राष्ट्रनिर्माता मन्त्रोंपर भी कठोर पहरा रहना चाहिये । चाणक्यने कहा Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन्त्रीकी योग्यता है- ' प्रच्छन्नोऽवमतो वा मन्त्रं भिनत्ति ।' या तो शत्रु गुप्त रहकर मन्त्र को लेउडता है या कोई भेद जाननेवाला राजकर्मचारी किसी अपराधपर निर्भसित दण्डित या कार्यबहिष्कृत कर देयेजानेपर द्वेषाधीन होकर मन्त्रको शत्रुओं को देदेता है । जैसे योगी लोग समस्त इन्द्रियद्वारोंको रोककर निरुपद्रव होकर योगानुष्ठान करते हैं, इसी प्रकार मन्त्रणा करनेवाले राजा या राज्याधिकारी लोग मन्त्रसंगोपन में अपनी संपूर्ण बुद्धि और सतर्कता व्यय कर डालें । तस्मान्नास्य परे विद्यः कर्म किंचिश्चिकीर्षितम् । आरब्धारस्तु जानीयुः आरब्धं कृतमेव वा ॥ २७ कौटलीय अर्थशास्त्र. राष्ट्र के किसी भी चिकीर्षित कामको उसकी चिकीर्षित अवस्थातक कोई भी दूसरा व्यक्ति न जानने पाये । आरम्भ करनेवाले लोग भी उसे केवल तब जानें जब वह काम प्रारम्भ कर दिया जाये । शेष लोगों को तो वह काम पूरा किया जा चुकनेपर ही पता चलना चाहिये । मन्त्रसम्पदा हि राज्यं वर्धते ॥ २७ ॥ मन्त्रकी पूर्ण सुरक्षा तथा उसकी पूर्णाङ्गता अर्थात् निर्दोषतासे ही राज्यश्री की वृद्धि होती है विवरण - राष्ट्र या राजकाज ? मन्त्रनैपुण्यरूपी सिद्धि या मन्त्रप्रणिधानरूपी कौशल से ही वृद्धि पाता है । इसीसे अर्थशास्त्रमें कहा है' तस्मान्मन्त्रोद्देशमनायुक्तो न गच्छेत् ।' कोई भी अनधिकारी असंबद्ध मनुष्य मन्त्रस्थान या उसके आसपासतक न जाने पावे । यह भी कहा है - नास्य गुह्यं परे विद्यः छिद्रं विद्यात्परस्य च । गूहत् कर्म इवाङ्गानि यत्स्याहिवृतमात्मनः ॥ कौटलीय अर्थशास्त्र. कोई भी बाहरवाला विजोगीपुके रहस्यको न जानने पावे और वह अपने दूतों के द्वारा शत्रुके रहस्य वा निर्बलताको जाना करे। ऐसा करनेसे अपना Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि प्रयोजन अनायास सिद्ध होगा। राजा मन्त्रित कार्योको बाहर निकल जानेवाले अंगोंको थोडीसी भी शंका पर झट समेट लेनेवाले कच्छपके समान गुप्त रखे । आचार्य बृहस्पति कह गये हैवालं दुष्टमसाहसिकं अज्ञातशास्त्र मन्त्रे न प्रवेशयेत् । बालक, दुष्ट, साहसहीन तथा अशास्त्रज्ञको मंत्रणामें सम्मिलित न करे। चत्वारि राशा तु महाबलेन वान्याहुः पण्डितस्तानि विद्यात् । अल्पप्रज्ञः सह मन्त्रं न कुर्यान दीर्घसूत्रैः रभसैश्चारणैश्च ।। विदुर. महाबली राजाको जो चार बातें छोडनी हैं पण्डित उन्हें जाने- वह मल्पमतियों, दीर्घसूत्रियों, विचारशून्यों, मुंहदेखी सम्मति देनेवालों तथा चाटुकारोंसे मन्त्रणा न करे । पाठान्तर- मन्त्रसम्पदा हि राज्यं विवर्धते। श्रेष्ठतमा मन्त्रगुप्तिमाहुः ॥२८॥ राजधर्मके आचार्य बृहस्पति, विशालाक्ष, बाहुदन्तीपुत्र, पिशुन प्रभृति विद्वान् लोग मन्त्रगुप्तिकी नीतिको अन्य सव नीतियोंका सिरमौर बता गये हैं। विवरण- कर्तव्यमें शक्तिसंचार करनेवाली वस्तु मन्त्र ही है। राज्यकी सुरक्षा मन्त्रबल से ही होती है । शत्रुको ज्ञात होजानेसे मन्त्रका व्यर्थ होजाना ही मन्त्रका नाश है। मन्त्रका नाश शक्तिका ही नाश है। इस अर्थ मन्त्ररक्षा ही शक्तिरक्षा है । मन्त्रको सुरक्षित रखना ही शक्तिमान बनना है। भोजराजका कहना है कि- 'मन्त्रमूलं यतो राज्यमतो मन्त्रं समाश्रयेत्' राज्यके मन्त्राश्रित होनेसे राजा श्रेष्ठ मन्त्र पानेकेलिये पूर्ण सजग रहे । बृहस्पति भी कह गये हैं- 'मूढा दुराचारास्तीक्ष्णा आत्मबुद्धयः क्षिप्रकुद्धा बाला न मन्त्रयोग्याः।' मूढ, दुराचारी, तीक्ष्णस्वभावी, मारमबुद्धि ( खुदपसन्द ) शीघ्र गरम होजानेवाले तथा बालक मन्त्रमें सम्मिलित करने योग्य नहीं होते। Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन्त्रीकी योग्यता चिकीर्षितं विप्रकृतं च यस्य नान्ये जना कर्म जानन्ति किंचित् । मन्त्रे गुप्ते सम्यगनुष्ठिते च नाल्पोप्यस्य च्यवते कश्चिदर्थः ॥ विदुर. २९ पूरा होने से पहले जिसके चिकीर्षित तथा आरब्ध शत्रुविरोधी कामको दूसरे लोग जान ही नहीं पाते, जिसका मन्त्र काममें आचुकने तक पूरा पूरा गुप्त रहता है, उसका कोई भी काम अधूरा या खण्डित नहीं हो पाता । कार्यान्धस्य प्रदीपो मन्त्रः ॥ २९ ॥ मन्त्र अंधेरे में मार्ग दिखानेवाले दीपकके समान कार्यान्ध ( किंकर्तव्यविमूढ ) को उसका कर्तव्यमार्ग दिखा देता है । विवरण - जैसे गृहस्वामी दीपकके विना रात्रिके अंधकार में अपने ही सुपरिचित घरमें अन्धा बना रहता है इसी प्रकार मनुष्य मन्त्र (सुविचार ) विना कर्तव्यपालनमें अन्धा बना रहता है । पाठान्तर-- कार्याकार्य प्रदीपो मन्त्रः । यह कार्य इष्टसाधन है या अनिष्ट साधन है ? इस प्रकारके संशयान्धकार के समय मन्त्र अंधकारविनाशक दीपकका काम करता है । जैसे दीपक अन्धकारको हटाता है इसी प्रकार मन्त्र प्रज्ञाकी मन्दतारूपी अंधेरे के समय, उसे हटाकर मनुष्यको बुद्धिकी प्रखरतारूपी प्रकाश देता है । इस लिये वृद्ध लोग कह गये हैं " सम्मन्त्र्य सूरिभिः सार्धं कर्म कुर्याद्विचक्षणः ।' बुद्धिमान मनुष्य, उन विषयोंके विशेषज्ञों के साथ सम्मन्त्रणा करके काम करे तो पूरा होने में संशय न रहे । अमन्त्रित कार्यों की स्थिति जलमें कखे घडकी सी होती है । सम्मन्त्रित कार्य तो जलमें पक्व कुम्भके समान अटळ बने रहते हैं । "" मन्त्रचक्षुषा परछिद्राण्यवलोकयन्ति ॥ ३० ॥ विजीगीषु राजा लोग मन्त्रियोंसे परामर्श करने रूप आंख से प्रतिपक्षियोंकी राष्ट्रीय निर्बलताओंको जान लेते हैं । Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि विवरण-शत्रुकी निर्बलताका पूरा पता लगालेनेपर ही उसपर विजय पानेकी पूर्णाग सबद्धता होसकती है । राजाके लिये शत्रुकी निबं. लता जाननेका उपाय कुशलमन्त्रियोंके साथ विचारविनिमय करनेके अतिरिक्त दूसरा कोई नहीं है । राजा योग्यमन्त्रीके बिना राज्यरक्षाके सम्ब. न्धमें अंधा बना रहता है । देशविदेशके विशेषज्ञ मन्त्रियोंके लिये ही संभव है कि वे शत्रुशक्तिके विषय में ठीक ठीक पता चलाकर या तो युद्ध की प्रेरणा दें या युद्धसे निवृत्त रखें। इसलिये मन्त्रियोंके साथ राजाका अत्यन्त धनिष्ट सम्बन्ध रहना चाहिये । राजाको भी मन्त्रीको सम्मति. पर विश्वास करके राज्यका परिचालन करना चाहिये । राजा शत्रुकी शक्तिका पूरा पता होनेपर ही अपनी शक्तिको अजेय बना सकता है । मन्त्रणा करते समय बालक, बन्दर, तोता, मैना मादि ऐसा कोई जीवजन्तु न हो जो मन्त्रको लेउडे और उसे शत्रुपक्षमें पहुंचादे । मन्त्रकाले न मत्सरः कर्तव्यः ॥ ३१ ॥ मन्त्रग्रहण करते समय मन्त्रदाताके छोटे बडेपनपर ध्यान न देकर उसके अभ्रान्तपनेपर ईर्ष्या न करके श्रद्धाके साथ मन्त्र ग्रहण करना चाहिये। विवरण- उस समय किसीको दाबकर अपनी बात ऊपर रखनेका प्रयत्न न होना चाहिये । अच्छी बात सबकी सुननी चाहिये । मन्त्रके समय शाब्दिक संघर्ष नहीं होना चाहिये । उस समय अपने. अभ्रान्तपनेपर स्टने से धैर्यहानि तथा कार्यका न्याघात निश्चित होजाता है। त्रयाणामेकवाक्ये सम्प्रत्ययः ॥ ३२ ॥ विचारणीय प्रस्तुत कर्तव्यके विषयमें, ऊपर वर्णित तीनों मन्त्रणाकर्ताओंका ऐकमत्य होजाना मन्त्र की श्रेष्ठता है । उससे कार्यसिद्धि सुनिश्चित हो जाती है । विवरण- 'मानी प्रतिमानिनं ' इस सूत्रके अनुसार (1) मन्त्रग्रहीता, (२) अपना माभ्यन्तरिक ज्ञानस्वरूप मन्त्रणादाता तथा (३) Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन्त्रीकी नियुक्ति विश्वस्त हितैषी ग्यवहारकुशल महामन्त्री इन तीनोंका किसी एक विषयमें ऐकमत्य होजाना कार्यका निष्पादक मानाजाता है । कार्याकार्यतत्वार्थदर्शिनो मन्त्रिणः॥ ३३॥ कार्य, अकार्य दोनोंकी वास्तविकताको ठीक ठीक समझनेवाले ( अर्थात् मन्त्रकी यथार्थताको स्वभावसे पहचान जानेवाले ) अपने नियत वेतनसे अधिक न चाहनेवाले तथा मन्त्रके रहस्यको समझानेवाले मन्त्री होने चाहिये। विवरण- मन्त्री लोग विद्याओं में पारंगत विशुद्धकुलीन धर्म, अर्थ दोनों में प्रवीण सरल स्वभाववाले ब्रह्मवेत्ता होने चाहिये । मन्त्र जब प्रारंभ में ही भेद पा जाता है तब किसीके बसका नहीं रहता। इस दृष्टिसे मन्त्रियों के निर्धारणमें बड़ी सावधानीकी मावश्यकता है । मन्त्रसंगोपनकी शक्ति ही मन्त्रियों का एकमात्र मूल्य है। पाठान्तर- अकामबुद्धयो मन्त्रतत्वार्थदर्शिनो मन्त्रिणः। अकामबुद्धि (अर्थात राजकाजसे अपना कोई व्यक्तिगत स्वार्थ निकालना न चाहनेवाले स्वार्थशून्य अलोलुप निमसर विवेकी । लोग मन्त्री बनाये जाने चाहिये। पटकर्णाद् भिद्यते मन्त्रः ॥ ३४ ॥ मन्त्र छः कानों में पहुंचनेपर फूट निकलता है । विवरण-मन्त्र राजा तथा मुख्यमन्त्रीके अतिरिक्त किसी भी तीसरे व्यक्तिके कानोसक पहुंचते ही असार तथा हतवीर्य होजाता है। तीन मन्त्रियोंकी मन्त्रणाका फूट जाना प्रायः सुनिश्चित है। यही इस सूत्रका भाव है। इसके अनुसार जब मन्त्रणाको अन्तिम निश्चित रूप मिलना हो . उस समय केवल दो उत्तरदायी मनुष्य ही उसे निश्चित अन्तिम रूप दें। जब कि दोकी मन्त्रणाके ही सुरक्षित रहसकनेका सिद्धान्त मान लिया जाय, तब " त्रयाणामेकवाक्ये संप्रत्ययः” इस सूत्रके " त्रयाणाम् ' इस पदका Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्रा तथा “ मानी प्रतिमानिनमात्मनि द्वितीय मन्त्रमुपादयेत् " इस सूत्रका हमारा अर्थ ही युक्तिसंगत ठहरता है । यह पाठक विशेष ध्यानसे देखें । राजा और महामन्त्री अथवा महामन्त्री और विभागीय मुख्याधिकारी ये ही दो दो मिलकर किसी कार्यकी अन्तिम रूपरेखा नियत करें। अपने विभागीय मन्त्रियोंसे मन्त्रणा करके किसी कर्तव्यका निर्णय करना महामन्त्रीका काम होनेपर भी कार्यका अन्तिम निर्णय राजा और महामन्त्री करें । ये दानों मन्त्रगुप्तिके लिये उत्तरदायी हों। पाठान्तर- षट्कर्णो मन्त्रश्छिद्यते। छ: कानों में पहुँचा हुभा मन्त्रा छिन्नभिन्न होजाता है। आपत्सु स्नेहसंयुक्तं मित्रम् ॥ ३५॥ विपत्तिके दिनोंमें (जब कि सारा संसार विपद्ग्रस्तको विपन्न होनेके लिये अकेला छोड भागता है ) सहानुभूति रखनेवाले लोग मित्र कहाते हैं। विवरण- जो लोग विपन की विपत्तिको अपने ही ऊपर माई विपत्ति मान लेते और मापकालमें विपद्ग्रस्तका साथ देते हैं, उन्हींको किसीसे मित्रताका संबन्ध जोडने या किसीको अपना मित्र कहनेका अधिकार होता है। इनके अतिरिक्त जो लोग आपत्तिके समय मित्रोंको अकेला विपत्र होनेके लिये छोड देते हैं वे किसीके मित्र बनने या कहलानेके अधिकारी नहीं होते। भानेवाली विपत्तियें ही विपनको शत्रु-मित्रकी पहचान कराती हैं और सच्चे मित्रसे मिलानेवाली सच्ची मित्र बनजाती है। आपत्तिके दिनों में विपक्षका साथ देना और इस साथ देने में जो संकट आ खडा हो उसे सहर्ष सहन करना ही सच्ची मित्रता है । सच्चे लोगोंके पारस्परिक संबन्ध ही मित्रता कहाते हैं । क्योंकि सरचे लोगोंकी मानसिक स्थिति सत्यकी प्रेमिका होती है इस कारण ये लोग शरीरसे भिनभित होते हुए भी मनमें अभिन्न होते हैं। स्वार्थबन्धन मित्रता नहीं है। मित्रता सत्य. निष्ठोंका ही एकाधिकार है । दलीय कार्यक्रम (पार्टीप्रोग्राम ) मित्रता नहीं Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन्त्रीकी नियुक्ति हैं । सत्यनिष्ठ लोग अपनी सत्यनिष्ठाके परिणामस्वरूप किसी भी सत्यनिष्ठपर आगई हुई विपत्तिको अपने ही ऊपर आई विपत्ति मानकर उस विप. द्वरण तथा विपद्वारणमें विपन्नके स्वभावसे साथी बनजाते हैं। कृत्रिम मित्र लोग जिस विपत्ति में विपन्नको त्याग देते हैं वह विपद् वास्तवमें सत्यनिष्ठाके परिणामस्वरूप माई हुई होती है। मनुष्य की सत्यनिष्ठा आसुरीसमाजमें अनिवार्य रूपसे राजामों या शक्तिमानोंके रोषका कारण बन जाती है । आसुरी समाज तो आसुरी राज्य या अधिक शक्तिवाले लोगोंके सामने नतमस्तक होकर उसे स्वीकार किये रहता है इस लिये उससे राज्यशक्ति या बडे लोगोंके संघर्षका अवप्तर नहीं माता । परन्तु सत्यनिष्ठ व्यक्तिसे मासुरी राज्य और घमंडी लोग सहे नहीं जाते, इसीसे संघर्ष खडा होजाता है। वह प्राणोंपर खेलकर भी उस राज्य तथा भौतिक बलशालीके बलको अस्वीकार करना अपना अत्याज्य कर्तव्य माना करता है। उस समय उसका राजरोष या प्रबल व्यक्ति के रोषका पात्र बनजाना ही मित्रकी पद. चान करानेवाला होजाता है। “राजद्वारे श्मशाने च यस्तिष्ठति स बान्धवः ।" उस समय, केवल समृद्धि के दिनोंवाले कृत्रिम मित्र उसे विपक्ष होने के लिये अकेला छोड देते और अपने को मित्र होनेके अयोग्य घोषित कर दते हैं। स किं सखा साधु न शास्ति योऽधिपं हितान्न यः संशणुते स किं प्रभुः । सदानुकृलेषु हि कुर्वते रति नृपष्वमात्येषु च सर्वसंपदः ॥ स्वामीके हितका अनुपदेष्टा अमात्य आदि नामोंवाला मित्र सच्चा मित्र नहीं है । अपने हितोपदेशी मित्रोंसे अपने कल्याणकी बात न सुननेवाला स्वामी खोटा स्वामी है। सच्चे मित्रों को, राजाके हितकी बात, उसके सुन. .नेको उद्यत न होनेपर भी, उससे बलपूर्वक कहदेनी चाहिये, तथा सच्चे स्वामोको अपने हितकी कटु बात भी मित्रोंसे श्रद्धापूर्वक सुननी चाहिये । तब ही राजा और उसके मित्रों अर्थात् मन्त्रियोंका ऐकमस्य रहसकता है। Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्रााण राजा और अमात्योंके परस्परानुरक्त रहनेपर ही राष्ट्र में सकल संपत्तियों का वास होता है। भिन्नभिन्न विद्वानोंने मित्रके निम्न लक्षण किये हैं । तन्मित्रमापदि सुखे च समक्रियं यत् । मित्र वह है जो संपत् और विपत् दोनों में पूरा पूरा साथ दे और समान प्रतिकार करे। ___ मन्दायन्ते न खलु सुहृदामभ्युपेतार्थकृत्याः । मित्रोंके वे कर्तव्य जो एक बार अपने विपन्न मित्रकी सहायताके रूपमें स्वीकृत होजाते हैं कभी मन्द नहीं होते। ___ समानशीलव्यसनेषु सख्यम् । जिनके शील समान और जो एक विपत्तिके माखेट होते हैं, उनमें मित्रता होती है। कराविव शरीरस्य नेत्रयोरिव पक्ष्मणी । अविचार्य प्रियं कुर्यात् तन्मित्रं मित्रमुच्यते ॥ जैसे शरीरपर चोट पडनेपर हाथ शरीरकी और मांखपर माघात माने. पर पल के भाखोंकी रक्षाके लिये बिना विचारे स्वभावसे कटिबद्ध होजाती हैं, उसी प्रकार जो मित्रको विपन्न देखकर बिना भागा पीछा देखे उसकी सहायताको दौड पडता है वही मित्र है। शुचित्वं त्यागिता शौर्य सामान्यं सुखदुःखयोः। दाक्षिण्यं चानुरक्तिश्च सत्यता च सुहृद्गुणाः ॥ निष्कपटता, मित्र के लिये त्याग, मित्रके विपद्वारण के लिये शौर्य, सुखदुःख में समानता, उसके हितसाधनके लिये चातुर्य अनुराग तथा सत्यता ये मित्रके आठ गुण हैं। उत्सवे व्यसने चैव दुर्भिक्षे राष्ट्रविप्लवे। राजद्वारे श्मशाने च यस्तिष्ठति स बान्धवः ॥ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन्त्रीकी नियुक्ति जो मनुष्य उत्सव, विपति, दुर्भिक्ष, राष्ट्रविप्लव, राजद्वार तथा मृत्युके संकटमें भी साथ देता है वही बान्भव है। . शोकारातिभयत्राणं प्रोतिविश्रम्भभाजनम् । केन सृष्टमिदं रत्नं मित्रमित्यक्षरद्वयम् ॥ शोक शत्रु तथा भयसे रक्षा करनेवाली, प्रीति तथा विश्वासकी पात्र यह मित्र नामकी दो अक्षरों की जोडी किसने बनाई ? प्राणैरपि हिता वृत्तिरद्रोहो व्याजवर्जनम् । आत्मनीव प्रियाधानमेतन्मैत्रीमहाव्रतम् ॥ प्राणपणसे भी हितचेष्टा करना, द्रोह तथा छल कपट से व्यवहार न करना मित्रका अपने समान प्रिय करना, यही मैत्री नामक महाव्रत है। पापान्निवारयति, योजयते हिताय, गुह्यं च गृहति, गुणान् प्रकटीकरोति । आपद्गतं न च जहाति, ददाति काले, सन्मित्रलक्षणमिदं प्रवदन्ति सन्तः ॥ पापसे रोकता, हितमें लगाता, गोपनीयको छिपाता, गुणोंको प्रकट करता, विपत्तिमें फंसेको नहीं त्यागता, सहायताके सर्वोत्तम समयपर सहायता करता है, उसीको सन्त लोग सन्मित्र कहते हैं। मित्रं , प्रीतिरसायनं नयनयोरानन्दनं चेतसः, पात्रं यत् सुखःदुखयोः सह भवेन् मित्रेण तद्दुर्लभम्। ये चान्ये सुहृदः समृद्धिसमये द्रव्याभिलाषाकुलास्, ते सर्वत्र मिलन्ति तत्त्वनिकषयावा तु तेषां विपत् ॥ जो मित्र नयनको प्रीतिरस तथा चित्तको मानन्द देनेवाले, मित्रके सुखदुःखको अपने ही सुखदुःख माननेवाले हों, ऐसे मित्र संसारमें दुर्लभ होते हैं । ये जो समृद्धि के दिनोंमें द्रव्याभिलापासे आकुल होनेवाले मित्र नामक जन्तु होते हैं, ऐसे लोग तो संसारमें बहुत मिल जाते हैं । परन्तु विपत्ति Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि उन स्वार्थी मित्रोंकी कसोटी बनजाती और उनके मित्रताके ढोंगका भंडाफोड कर देती है । ३६ ऊपरवाले वचनों में मित्रके लक्षणोंका उल्लेख हुआ है । परन्तु भाजके संसार में मित्रोंके जो व्यवहार देखनेमें आते हैं वे सब इन लक्षणोंकी कसौटीपर खरे नहीं उतरते | वे मैत्रीके नामपर सम्मानित होनेके स्थानपर वैरके नामसे निन्दित होने योग्य दिखाई देते हैं। संसार में राष्ट्रों के साथ राष्ट्रोंकी, पार्टियों के साथ पार्टियोंकी तथा व्यक्तियोंके साथ व्यक्तियोंकी ऐसी ही धूर्ततापूर्ण मैत्री देखने में भाती है। इन सब मित्रताओं में स्वार्थमोह, स्वभा वजमोह, या रूपज मोद्दोंमें से कोई एक बन्धन अवश्य रहता है । ये बन्धन कुछ सीमातक चलते हैं । इन मित्रताओंका कारण भौतिक सीमातक सीमित रहता है । जो स्वार्थ राष्ट्रों दलों या व्यक्तियों को दलबद्ध करता है, उस स्वार्थकी संभावनाका अन्त होते ही मित्रताका बन्धन टूट जाता है । रूपज मोहवाला बन्धन भी अपनी सीमातक रहता है । वह भी उस सीमाको पार करते ही टूट जाता है । इसके विपरीत सच्ची मित्रताके बन्धनों का कभी न टूट पानेवाला स्थायी बन्धन होना अनिवार्य होता है । सत्यनिष्ठकी सच्ची मित्रताका बंधन सत्यका ही बंधन होता है इसलिए वही बंधन अटूट और स्थायी होता है । सत्यनिष्ठ मित्र अपने सत्यनिष्ट मित्रकी सेवामें सत्यकी ही सेवा और सत्य के विरोध के जिस अनुपम अमृतका आस्वादन करते हैं उसे वे समग्र संसारके विनिमय में भी त्यागनेको उद्यत नहीं हो सकते । स्थायी मित्रताके अटूट बन्धनका रूप गीताके निम्न श्लोक में स्पष्ट हैउद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत् । आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुः आत्मैव रिपुरात्मनः ॥ गीता बाह्यमित्रताओं के धोकेमें आजानेवाले लोगों को सावधान कर देना चाहती है कि मनुष्य के शत्रु मित्र बहिर्जगत् में नहीं है । मनुष्य स्वयं ही अपना शत्रु या मित्र है । मन ही मनुष्यका स्वरूप है । सत्यनिष्ठ उचित व्यवहारी मन स्वयं ही अपना मित्र है । उसके विपरीत पापनिष्ठ मन स्वयं Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन्त्रीकी नियुक्ति ही अपना शत्रु है। स्वयं अपने मित्र बने हुए सत्य के प्रेमी लोग शरीरोंसे पृथक् होनेपर भी एक दूसरेके स्वरूप होने के कारण, स्वाभाविक मित्र होते हैं । इन लोगोंका मित्रत्वबन्धन सुरढ माध्यात्मिक आधारोंपर माधारित होनेके कारण अटूट अभ्रान्त तथा अनन्तशक्तिमान् होता है । मित्रकी इस परिभाषाका समर्थन ऊपरवाले सब लक्षणोंसे प्रमाणित होजाता है। इनमें से एक वचनकी सत्यतापर विचार करनेसे ही सब वचनोंकी सत्यता स्वयमेव प्रमाणित हो जायगी। जैसे हाथ शरीरकी और पलक नेत्रकी रक्षा बिना विचारे स्वभावसे करते हैं, इसी प्रकार जो व्यक्ति अपनाये हुए दूसरे व्यक्तिको बिना विचारे सब समय रक्षा करनेको अद्यत रहता है, वही मित्र है। शरीरपर आई विपत्ति में शरीरकी रक्षा करना हाथकी मात्मरक्षा ही है । पलकके लिये मांखकी रक्षा करना पलककी आत्मरक्षा ही है। इस रक्षाप्रवृत्ति में हाथ और पलक दोनों की स्वाभाविकता है । इसलिये है कि यहां अपने परायका विचार करने का अवसर ही नहीं है । अपने आपमें भेदबुद्धि न होनेके कारण ही यहां विचारका अवसर नहीं पाता। मनुष्य अपनेपर विपत्ति आनेपर स्वभावसे उसे हटानेको उद्यत होजाता है। जो इस विपद्को हटानेको उद्यत होजाता है वह कौन होता है ? विपन्न व्यक्ति स्वयं ही अपना विपदुद्धारक बनजाता है। मनुष्यका अपना मन ही अपने ऊपरसे विपद्को हटाने के लिये स्वभावसे विवश होता है । जब मनुष्यका मन सत्यको अपने स्वरूपके रूपमें पहचान लेता है तब वह सत्यस्वरूप बनकर अपना मित्र बन जाता है। वही मन सत्यसे हीन बनकर अपना शत्रु बनजाता है। सत्यहीन दलबद्ध राष्ट्रों, राजनैतिक व्यक्तियों तथा स्वभावज अथवा भौतिक स्वार्थ रखनेवाले संबंधोंसे संबद्ध मनुष्यों तथा लूटनेवाले डाकुओंके समूहों में सत्यका अभाव होनेके कारण ये सब लोग एक दूसरे के मित्र कहलाने लगनेपर भी शत्रु ही होते हैं । मित्र केवल सत्यनिष्ठ व्याक्तियोंमें ही उत्पन्न होने और मिलने संभव है। जब कोई भी व्यक्ति अपनी सत्यनिष्ठाके कारण विपत्ति में फंसता है तब संपूर्ण सत्यनिष्ठ समाज उस विपत्तिको अपने ऊपर माई विपत्ति मानकर उसका मित्र बनजाता है और Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि भसत्यका विरोध करते हुए संपूर्ण मनुष्य समाजका प्रतिनिधि बनकर भारमरक्षा करता हुभा संपूर्ण मनुष्यसमाजकी मनुष्यताका रक्षक बनजाता है । स्पष्ट शब्दों में सत्यनिष्ठ व्यक्ति जहां एक दूसरेके स्थायी हार्दिक संबंध रखनेवाले सच्चे मित्र होते हैं वहां वे संपूर्ण समाजके भी स्थायी मित्र होते हैं। (मित्रसंग्रहका लाभ ) मित्रसंग्रहणे बलं संपद्यते ॥ ३६॥ सच्चे मित्रोंका संग्रह करने या सच्चा मित्र मिलजानेसे मनुध्यको बल प्राप्त होजाता है। विवरण-- सच्चे मित्र मिलनेसे मिलनेवाला बल स्वामी, अमात्य, राष्ट्र, दुर्ग, कोष, सेना, तथा मित्र इन सातों या इनमें से कुछ रूपों में प्राप्त होता है, ऐसा कामन्दक नीतिकारका वचन है। अमरसिंहकी नीतिमें कर देनेवाली जनताको मिलाकर माठ प्रकारका बल कहा है। बल शरीर. सामर्थ्य का वाचक भी है । परन्तु यहांपर बल राजशक्ति से संबद्ध बलका पारिभाषिक नाम है। इससे पहले सूत्रमें सच्चे मित्रोंसे मिलानेवाले सत्यको ही मनुष्यको बलवान् बनानेवाला मित्र बताया है। इस सूत्र में उसीका स्पष्टीकरण इस प्रकार किया है कि सत्यको अपनाकर असत्यका विरोध करते हुए विपन्न होनेसे न डरना शक्तिमानोंका स्वभाव होता है। यों शक्तिमानोंकी शक्ति उनके किये हुए असत्य विरोधोंसे ही सूचित होती है। समचे मित्र भी असत्यके विरोधोंसे ही हाथ आते हैं। किसी असत्यका विरोध करने लगना ही संसारमेंसे सच्चे मित्रोंके मिलनेका उपाय बनजाता है। सत्यनिष्ठासे ही बलवान् बनाजाता है । सत्यनिष्ठासे सच्चा बल संगठित हो जाता है। (बलका उपयोग ) बलवानलन्धलाभे प्रयतते ॥ ३७ ॥ सत्य या सच्चे मित्रोंके बलसे बलवान् व्यक्ति अप्राप्त राज्य. श्वर्य पाने ( अर्थात् उसे उत्पन्न करने तथा उसे निरन्तर बढाते Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आलस्य से हानि रहने ) के लिये सत्यानुमोदित प्रयत्न किया करे, या किया करता है । ३९ विवरण - सत्य के बलसे बलवान् व्यक्ति अप्राप्त राज्यैश्वर्य पानेके लिये उचित उद्यम उत्साह तथा मध्यवसाय से युक्त होकर रहे, तब ही बलका यथोचित उपयोग और विकास संभव है । " बलेन किं यच्च रिपून बाधते " वह बल किस कामका जो पापी शत्रुओंका संहार करके अपनी राज्यश्री बढाने के काम न आता हो । बल अनुपयोगसे कुण्ठित होजाता है । जैसे अयात्रा घोड़ोंके लिये बुढापा है इसी प्रकार अनुपयोग बलकी मृत्यु है 1 बलवानलब्धलाभे प्रयतेत । पाठान्तर ( आलस्य से हानि ) अलब्धलाभो नालसस्य ॥ ३८ ॥ अप्राप्त राज्यैश्वर्यको निरन्तर संग्रह करते चले जाना प्रयत्नहीन शक्तिहीन मन्द आलसीका काम नहीं है । विवरण - मनुष्य में सत्यनिष्ठा न होना ही आलस्य है । सत्यद्दीन व्यक्ति न करने योग्य काम करता तथा करने योग्य सत्यानुमोदित प्रयत्नोंमें प्रमाद करता है | अकर्तव्य अर्थात् न करने योग्य काम करना तथा कर्तव्यों अर्थात् करने योग्य कामोंसे बचे फिरना ही आलस्य है । पड़ दोषाः पुरुषेणेह हातव्या भूतिमिच्छता । निद्रा तन्द्रा भयं क्रोध आलस्यं दीर्घसूत्रता ॥ विदुर कल्याणकामी मानव इस संसार में अतिनिद्रा ( स्वास्थ्यकी आवश्यकता से अधिक निद्रा ) तन्द्रा, भय, क्रोध, आलस्य तथा दीर्घसूत्रता ये छ दोष छोड़ दे । आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महा रिपुः । आलस्य मनुष्य के ही शरीर में रहनेवाला मनुष्यका घरेलू महाशत्रु है । Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० चाणक्यसूत्राणि इसलिये कल्याणार्थी मनुष्य अपने शरीरस्थ शत्रु आलस्यको पददलित करके रखे, तब ही ऐहिक अभ्युदय और मानसिक उत्कर्ष पासकता है । अलसस्य लब्धमपि रक्षितुं न शक्यते ॥ ३९ ॥ अलस सत्यहीन प्रयत्नहीन व्यक्ति के कर्तव्यपालनमें प्रमादी होनेसे उसका प्राप्त राज्यैश्वर्य भी सुरक्षित नहीं रह पाता। विवरण--- देव यदि मालसीको कुछ दे भी दे तो उससे उस देवदत्त द्रव्य की रक्षा नहीं होती। अलसो मन्दबुद्धिश्च सुखी च व्याधिपीडितः। निद्रालुः कामुकश्चैव षडेते कर्मगर्हिताः ॥ थालसी मन्दबुद्धि सुखासक्त रोगी निद्रालु तथा कामुक ये ६ लोग निन्दितकर्मा माने गये हैं। उद्यम उत्साह तथा अध्यवसाय ही पुरुषके मालस्य का विरोध करते और उसे कर्ममें प्रवृत्त रखते हैं । इसलिये भूनिकामी लोग सदा उद्यम उरलाह तथा अध्यवसायसे सम्पन्न रहें । न चालसस्य रक्षितं विवर्धते ॥४०॥ अलस सत्यहीन प्रयत्नहीन व्यक्तिका दैववश संचित राज्य श्वर्य कुछ कालतक सुरक्षित दीखने पर भी उसके बुद्धिमान्द्यसे वृद्धिको प्राप्त नहीं होता। विवरण- उसके राज्यश्वर्यकी वृद्धि न होना ही उसकी भरक्षितता अर्थात् अनिवार्य विनाश है । क्योंकि आलस्य देहस्थ मन्तःशत्रु है इसलिये मानव मालस्य रूपी दोषका सदा विष्ठा मादि दैहिक मलोंके समान त्याग करता रहे । सूत्र कहना चाहता है कि मनलस ही लब्धको रक्षा करपाता है, और उसीकी वृद्धि होना अवश्यंभावी होता है। पडेव तु गुणाः पुंसा न हातव्याः कदाचन । सत्यं दानमनालन्यमनसूया क्षमा धृतिः ॥ विदुर Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आलस्यसे हानि ४ मनुष्यको सस्य दान अनालस्य मनसूया क्षमा तथा प्रति ये ६ गुण कभी न त्यागने चाहिये। पाठान्तर- न चालस्ययुक्तस्य रक्षितं विवर्धत । न भत्यान् प्रेषयति ॥४१॥ अलस ( सत्यहीन प्रयत्नहीन भोगासक्त ) राजा या राज्याधिकारी राजकीय कर्मचारियोंको काम या उचित सेवामें लगाने तथा उनसे उचित सेवा लेनमें प्रमाद कर बैठते हैं। विवरण- काम करनेसे बचना जिप्सका स्वभाव होजाता है, वह भृत्योंसे काम लेनेरूपी कमसे भी स्वभावसे बचता है। यही उसके आलस्यका स्वरूप है । आलस्य न त्यागना, भृत्योंसे यथोचित काम न लेना, राजाका राज्यव्यवस्थाको अव्यवस्थित कर देने रूपो भयंकर अपराध है। पाठान्तर- न भृत्यान् पोषयति । आलसी राजा मालस्यजन्य दरिद्रतासे भृत्यपोषण करने अर्थात् यथोचित कार्यों के लिए भृत्य नियुक्त करने में असमर्थ होजाता है। विवरण--- उससे उसकी राज्यव्यवस्था पंगु होकर नष्ट भ्रष्ट हो जाती हैं। नीतिज्ञ सोमदेवके शब्दों में " अलसः सर्वकर्मणामनधिकारी ।" माल. सीको किसी भी कर्म का अधिकार नहीं है। अधिक सूत्र- न तीर्थं प्रतिपादयति ॥ आलसी राजा राज्यके कर्मकुशल विचक्षण अनुभवी प्रधानपुरुषोंके अनुभवोंकी उपेक्षा करके उनसे लाभ उठानेसे वंचित होजाता है। विवरण- विद्या अनुभव और धर्मके केन्द्र तथा धर्मज्ञानसंपल लोग • तीर्थ' कहाते हैं । आलसी राजा स्वभावसे मूर्ख तथा अवगुणी होनेके Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि कारण धर्म विद्या तथा अनुभवोंके केन्द्र गुणी पुरुषों, उनके गुणों, धर्मविधा मादिकी संरक्षक तथा प्रचारक संस्थानोंको सुरक्षित न करके प्रत्युत उपेक्षा करके, समाजसे धर्म और ज्ञानको विलुप्त करके अज्ञान तथा मनीतिका प्रसारक बनजाता है। ___ महामन्त्री, मुख्यन्यायाधीश, सेनापति, राजश्रेष्ठी, ज्योतिर्विद, राज्यका सबसे प्रभावशाली व्यक्ति, समाजोंके चार मुखिया, समस्त प्रकारकी सेना. भोंके मुख्यपुरुष, पुरोहित, मन्त्री मादि राजाओंके तीर्थ होते हैं। इन्हें अपनी नीतिका पूर्ण समर्थक बनाये रहने या अपनी नीतिमें इन सबके अनुभवोंका समावेश होने के लिये इनके घनिष्ट संपर्क में रहना, यह एक असाधारण अवधान, परिश्रम, इन्द्रियसंयम, तथा निरलसताका काम है। यह काम मालसीसे नहीं होता। (राज्यतन्त्रका लक्षण ) अलब्धलाभादिचतुष्टयं राज्यतन्त्रम् ॥ ४२ ॥ १- अलब्धका लाभ २- लब्धकी रक्षा ३- रक्षितका वर्धन ४- तथा रक्षितका राजकर्मचारियोंकी उचित नियुक्तिसे उचित कार्यों में विनियोग या व्यय, ये राज्यव्यवस्थाके चार आधार हैं। य चारों बाते मिलकर राज्यतन्त्र कहाने लगती हैं। विवरण-- राज्य इन्हीं चार बातोंपर निर्भर होते हैं । राज्यकी ये ही चार मुख्य समस्यायें होती हैं । इसका यह अर्थ हुआ कि राज्याधिकारी लोग न तो अर्थवृद्धि में प्रमाद करें न राज्यश्रीका मसव्यय करें और न उसे मनुपयोगसे नष्ट होने दें। क्योंकि श्रीकी दान भोग तथा नाशसे चौथी गति नहीं है । राजा लोग सामादि उपायोंसे, फूलों में से अति शुद्र मात्रामें रस लेते फिरनेवाले मधुकरोंके समान सुसह्य उपायोंसे प्रजा से धनसंग्रह करें और पृथ्वीपरसे जल सोखकर उसे पाथवीपर ही बरसा देनेवाले मेघोंके समान उसे प्रजाकी ही श्रीवद्धि में व्यय कर डालें । उसे लटके मालकी भांति अपनी Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राज्यतन्त्रका लक्षण व्यक्तिगत सुख सुविधाओं तथा राजकीय भाडम्बरों में व्यय करके नष्ट न कर डालें। राज्यतन्त्रायत्तं नीतिशास्त्रम् ।। ४३॥ समाजमें प्रचलित या व्यवहृत नीतिशास्त्र, राज्यव्यवस्थाकी नीतिके ही अधीन ( अनुसार) होता है। विवरण-- राष्ट्र तब ही नीतिपरायण रहसकता है, जब कि उसका राज्यतन्त्र नीतियुक्त हो । यदि राज्यतन्त्रमें नीतिका प्रयोग न होरहा हो तो लोकमें नीति नामकी कोई वस्तु नहीं रहती । राज्यतन्त्रका अर्थ समा. जकी नीतिमत्ता है। राज्यतन्त्रसे बाहर नीति नामकी कोई वस्तु नहीं रहती । नीति राज्यतन्त्रमें सीमित और राज्यतन्त्रसे ही सुरक्षित रहती है। राज्यतन्त्र मनुष्यसमाजके साथ साथ चलता है। राज्यतन्त्रहीन समाज मनुष्यसमाज कहलानेका अधिकारी नहीं होता। राज्यतन्त्रको न मानने या भंग करनेवाला, नीतिहीन कहाता है। समाजसे बाहर चलाजाना या समा. जको अस्वीकार कर देना ही नीतिहीनताका अर्थ है। राज्यतन्त्र ने ही नीतिको जन्म दिया है। पहले समाज बना पीछेसे नीति बनी। समाज और राजमें कोई भी भेद नहीं। नोतिने समाज नहीं बनाया किन्तु समाज अर्थात् राज्यतन्त्र ने ही नीति बनाई। मनुष्योंका शान्ति के बंधनमें रहने लगना ही 'समाज' कहाता है। समाजबद्ध रहना मनुष्यको सामाजिक स्थिति है। अपने इस स्वभाव से समाजबद्ध होकर समाजसंगठनको सुरक्षित रखने अर्थात् समाजमें शान्तिका राज्य सुप्रतिष्ठित रखने की आवश्यकताने ही नीतिको जन्म दिया है । समाजबद्ध तो पशु भी रहता है । किन्तु पशुओंमें नीति नामकी वस्तु नहीं होती। नीतमत्ता मानवसमाजकी ही विशेषता है। राज्यव्यवस्था नीतिसम्पस हो तो उससे समाजमें नीति. मत्ताको जन्म देने तथा फलने फूलने का अवसर मिलजाता है। राज्यसंस्थाके नीतिसंपन्न होनेपर ही देश में नीति पालीजाती है। राज्यव्यवस्थासे नीतिके Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि हटते ही राष्ट्रभरमें दुर्नीति फैल जाती है। राज्यव्यवस्थाके भनीतिपरायण होनेपर समस्त समाजका सहस्रगुण अनीतिपरायण होजाना अनिवार्य होजाता है । नीति शब्द दण्डनीति, रणनीति तथा अर्थनीति तीनोंका वाचक है। मनु, नारद, इन्द्र, बृहस्पति भारद्वाज, विशालाक्ष, भीष्म, पराशर, विदुर आदि पूर्वाचार्य धर्म, अर्थ तथा काम तीनोंको अबध्यघातक रखकर तीनोंपर सुनियन्त्रण रखने के लिये शास्त्र बना गये हैं। इनके पशात् आचार्य विष्णुगुप्तने इन सब पूर्वाचार्योका सार लेकर गभीराशय अर्थशास्त्र बनाया है । उसीका नाम कौटलीय अर्थशास्त्र है। राज्यतन्त्रेप्वायत्ती तन्त्रावापौ ॥४४॥ तन्त्र अर्थात् स्वराष्ट्रसंबन्धी तथा आवाप अर्थात् परराष्ट्र सम्बन्धी कर्तव्य अपनी राघव्यवस्थाके ही अंग होते है। विवरण- स्वराष्ट्रसंबन्धी तथा परराष्ट्रसे व्यवहारविनिमयसंबन्धी दोनों प्रकारके कर्तव्य राज्यतन्त्रमें सम्मिलित होते हैं । अर्थात् उसके भले बुरेके अनुसार भले बुरे होते हैं । परराष्ट्रचिन्ताके बिना राज्यता अधूरा रहता है । तन्त्र अर्थात् स्वराष्ट्र अर्थात् अपनी प्रजाके जीवनसाधनोंकी रक्षा तथा आवाप नामसे प्रसिद्ध परराष्ट्रचिन्ता या उससे व्यवहार ये दोनों बातें राज्यव्यवस्थाकी इतिकर्तव्यतामें सम्मिलित हैं। पाठान्तर- राज्यतन्त्रेष्वायत्तौ मन्त्रावापौ । मन्त्रावापौ पाठ भपपाठ है। (तन्त्र) तन्वं स्वविषयकृत्येप्वायत्तम् ॥४५॥ स्वराष्ट्रव्यवस्था तन्त्र कहाती और वह केवल स्वराष्ट्रसंबन्धी कर्तव्योंसे संबद्ध रहती है। विवरण- राज्य स्वदेशसंबन्धी कर्तव्य करते रहने मात्रसे अपने भाप व्यवस्थित होता चला जाता है । जहां राज्य व्यवस्थित होता है, वहां Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मण्डल ४५ राज्याधिकारियों की स्वदेश संबन्धी कर्तव्योंकी अवहेलना ही उसका कारण होती है । उसीसे राष्ट्र में अव्यवस्था फैलती है। पाठान्तर- मन्त्रं स्वविषयकृत्येष्वायत्तम् । मन्त्रवाला पाठ अपपाठ है। ( आवाप आवाणे मण्डलनिविष्टः॥४६॥ आवाप अर्थात् परराष्टसंबन्धी कर्तव्य मण्डल अर्थात् पडौसी राष्ट्रसे संवन्ध रखता है। विवरण- शत्रुचिन्तारूपी भावाप अर्थात् शत्रुओं के कार्यों या उनकी गतिविधियोंकी देखभालका संबन्ध मण्डल अर्थात समीपवर्ती राष्टों के साथ और उन्हींपर निर्भर होता है। यदि आसपासकी राजशक्तियां शत्रुकी सहायता करती होती है, और उन्हें शत्रुकी सहायता करनेसे साम दाम दण्ड भेद आदि उपार्योसे रोका नहीं जाता, तो शत्रु आलवालमे जलसिंचनसे बढनेवाले फली वृक्ष के समान मण्डलसे बल पाता रहकर बढता चलाजाता है। इसलिये राजालोग अपने मण्डलको शत्रुओं के प्रभाव या वशमें न आने देने तथा उन्हें अपने अधीन या सहायक बनाये रखने की गम्भीर चिन्ता रखें। मण्डलको अपनी उपेक्षासे अपने प्रभावसे बाहर न होने दें। कामन्दकीय नीति, बाईस्पत्य सूत्र तथा कौटलीय अर्थशास्त्र में यह विषय विस्तार से वर्णित है। पाठान्तर-आवापो मण्डले सन्निविष्टः । ( मण्डल ) सन्धिविग्रहयोनिर्मण्डलः ॥ ४७॥ राज्यसंपृक्त वे पडोसी राज्य मण्डल कहाते हैं जिनके साथ सन्धि और विग्रह होते हैं। Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि विवरण- सन्धि विग्रहों का व्यवहार पडौसी राष्ट्रोंके ही साथ होता है। सन्धिविग्रहके क्षेत्र राष्ट्र मण्डल कहाते हैं । सन्धिका अर्थ सन्धान तथा विग्रहका अर्थ विरुद्ध कर्म करना या विरोधीकर्म अपनाना है। धनदानादि उपायोंके द्वारा प्रेमका सम्बन्ध जोडना या मित्र बनाना सन्धि है। राजा लोग कुछ पदार्थ ले देकर आपसमें प्रतिज्ञाबद्ध होते हैं। यह सन्धि कहाती है । उसीको पण भी कहते है । पणसे होनेवाली सन्धि पणबन्ध कहाती है। सोमदेवके शब्दोंमें “पणबन्धः सन्धिः । अपराधो विग्रहः "। जब कोई किसी राजाका अपराध करता है, तब ही विग्रह खडा होता है। दूसरे राष्ट्रमें दाह लूट मार मादि भी विग्रहके ही रूप हैं। सन्धि और विग्रहोंके बहुतसे रूप हैं । प्रकटविग्रह, कूटविग्रह, मौनविग्रह भेदसे विग्रहके भी तीन भेद बताये जाते हैं। कोई दुर्बल राजा बली राज्यको पणदानसे जबतकके लिये सन्तुष्ट करता है तबतक उन दोनोंकी सन्धि रहती है। पडौसी राष्ट्र के साथ समयकी भावश्यकता तथा पडौसी राष्ट्रोंके बर्तावके अनुसार सन्धि विग्रह करते रहना राज्यव्यवस्थाका राष्ट्रीय कर्तव्य होता है । किसीसे न तो सदा सन्धि रह सकती है और न सदा किसीसे विग्रह ही रहता है। किस समय कौनसी नीतिकी आवश्यकता है यह देखते रहना ही नीतिमत्ता पाठान्तर- सन्धिविग्रहयो>निर्मण्डलम्। सन्धिविग्रहोंके कारण बनते रहनेवाले पडोसी राष्ट्र मण्डल कहाते हैं। (राजा) नीतिशास्त्रानुगो राजा ॥८॥. नीतिशास्त्रका अनुगामी होना राजाकी योग्यता है । विवरण- हेतुशास्त्र, दण्डनीति, तथा अर्थशास्त्र नीतिशब्दसे कहे जाते हैं । शासनव्यवस्थासे सम्बन्ध रखनेवालेको इन सब राजशास्त्रोंका सूक्ष्म ज्ञान होना चाहिये । यदि राज्याधिकारी लोग राजशास्त्रसे परिचित Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शत्रुराष्ट्र ४७. रहकर तथा अपने कृत्योंपर कोई सामाजिक नियन्त्रण न रखकर स्वेच्छाचारितासे राज करेंगे तो प्रवल अनिष्ट उठ खडे होने सुनिश्चित हैं। राजाको नीतिप्रोक्त नियमों के अनुसार ही मात्मरक्षा तथा प्रजापालन करना चाहिये। मनुके शब्दोंमें “ बहवोऽविनया नष्टा राजानः "वेन भादि बहुत राजा अविनय या दुनीतिसे विनाश पाचुके हैं। (शत्रुराष्ट्र) अनन्तरप्रकृतिः शत्रुः ॥४९॥ स्वदेशसे अव्यवहितदेशके राजा स्वभावसे शत्रु होते हैं। विवरण- जिनसे हरघडीका सीमासंघर्ष मादि कलह होने की संभा. वना बनी रहती है वे परस्पर शत्रु बनजाते है। राज्याधिकारी लोग निकटवर्ती राज्योंसे सदा सतर्क रहें और उनकी स्वविरोधी गतिविधि देखते रहें। अहिताचरण करनेवालोंकी परस्पर शत्रुता हो जाती है। सुखदुःखमें एकसा रहना मानवसमाजको संगठित करनेवाला स्वाभाविक बन्धन है । इस मधुर बन्धनमें आबद्ध न रहकर दूसरेका सुख छीनने तथा दुःख पहुंचाने की स्वार्थी प्रवृत्ति रखने वाले लोग पारस्परिक शत्रु बन जाते हैं । समाजबन्ध. नको अस्वीकार करने और उसे मिटा डालनेवाला होना ही शत्रुकी परिभाषा है । समाजका शत्रु स्वभावसे व्यक्तिका भी शत्रु होता है । यदि पढौसके राजा एक दूसरेके हितैषी हों तो वे परस्पर सहायक बनकर शक्तिमान् होसकते हैं। इस भादर्शके अनुसार पर्वतों तथा समुद्रोंसे बनी हुई चार प्राकृतिक सीमावाले भारतराष्ट्रकी सीमाके प्रत्येक स्वतन्त्र राजाका अपने पडौसीसे शत्रुता न करके उसका मित्र बनकर सम्मिलित भारतका एक विशाल शक्तिशाली साम्राज्य बनजाना ही “भारतको राष्ट्रीयताका आदर्श" है । भारतके वर्तमान राज्योंका पारस्परिक शत्रु बनजाना भारतकी राष्ट्रीयताका घातक है । जो राजा अपने पडौसी राज्यकी सुख समृद्धि अपहरण करनेकी भावना Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि रखता है वह जहां संपूर्ण राष्ट्र के सामूहिक संगठनका शत्रु है वहां वह अपने राष्ट्रका भी शत्र ही है। जो राज्याधिकारी इस प्रकारकी क्षुद्र स्वार्थभावनासे पडौसी राष्ट्रपर आक्रमण करनेवाला बनता है वह निश्चय ही स्वभावसे लोभान्ध होकर अन्याय बुद्धि के द्वारा परराष्ट्रके ही भीतर नहीं अपने राष्ट्र के भीतर भी प्रजाके धन प्राण तथा शान्तिका अपहरण करनेवाली अन्यायी अत्याचारी भासुरी राजशक्ति बने बिना नहीं रह सकता। साम्राज्यविस्तार चाहनेवाले प्रत्येक लोभी राष्ट्रकी माभ्यन्तरिक प्रजामें भी असन्तोष तथा राजविद्रोह होना अवश्यंभावी स्थिति है । राज्याधिकार के लोभियों ने भारतभूमिको दो भागों में बांटकर पृथक सिंहासनोंपर बैठ कर अपने अपने राष्ट्रों की प्रजामें जो अशान्ति उत्पन्न करडाली है, वह तबतक नहीं जा सकती जब. तक भारत फिर प्रजाहितकारी अखण्डशक्तिमान राज्यशक्ति न बने । (मित्रराष्ट्र) एकान्तरितं मित्रमिष्यते ॥ ५० ॥ निकटवाले शत्रुराज्यसे अगला राज्य जिसकी हमारे शत्रुसे शत्रुता रहना स्वाभाविक है उस शत्रुके विरुद्ध, स्वभावसे ही हमारा मित्र बनजाता है। विवरण- किसी शत्रुसे शत्रुता करनेवाले अनेक राष्ट्रोंका परस्पर मित्रताका बन्धन होना स्वाभाविक है । हेतुतः शत्रुभित्रे भविष्यतः॥ ५१।। शत्रु मित्र अकारण न होकर कारणवश हुआ करते हैं। विवरण- सदाचरण या उपकारसे मित्र, तथा असदाचरण या अनुप. कारसे शत्रु बन जाया करते हैं। नित्यमित्र, सहजमित्र, तथा कृत्रिममित्र तीन प्रकारके मित्र होते हैं। अकारण पाल्यपालक बन जानेवाले नित्यमित्र, कुलपरम्परासे चले मानेवाले मित्र सहजमित्र तथा प्रयोजनसे स्नेह करने. वाले कृत्रिममित्र होते हैं। Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निवल राजाकी सन्धिनीति ४९ शत्रु मित्रपरिवयके निम्न कारण प्रत्यक्ष उपस्थित होजाते हैं । जो मनुष्य मित्रकी विपत्तिको अपनी विपत्ति मानकर, मित्रके चित्तको स्थिर तथा दृढ बनाये रखनेके लिये स्वयं हृढताके साथ उसका साथ देकर अपना कर्तव्य पूरा करता है वही सच्चा मित्र है। सच्चा मित्र संपत्ति के दिनों में मित्रकी संपत्तिको अटल बनाये रखता तथा विपत्तिके दिनों में उसकी विपलको हटाये रखनेके उद्देश्य से उसके सच्चे हितमें आत्मदान कर देता है। हित में आरमदान करनेवाला मित्र ही सच्चा मित्र है । जो व्यक्ति कृत्रिम मित्र बनकर मित्रके अच्छे दिनों में तो उसका धनशोषण तथा अपना स्वार्थीद्वार करता है और मित्र के दुर्दिनोंमें आंखें फेर लेता, शत्रुसे मेलजोल रखता तथा मित्रकी निन्दा करता है, वह वास्तव में शत्रु हो है । जो विश्वासपात्र बनकर विश्वासघात करता, सब बातों में मतभेद रखता, सदा धनशोषण करता, स्वयं कभी कुछ नहीं देता, सदा अपना ही गीत गाता, अपना ही रोना रोता, शत्रु पैदा करता, अपने ही संबन्धको प्रधानता तथा महत्व देकर रहता और समय पात ही पैशुन्य करता है, उसे कभी मित्र न मानना चाहिये । ( निर्बल धार्मिक राजाकी संधिनीति ) हीयमानः सन्धिं कुर्वति ।। ५२ ।। निर्बल नीतिमान् राजाका तात्कालिक कल्याण इसी में है कि वह अधिक शक्तिशाली अन्यायी सशक्त राज्यक साथ सन्धिकी नीतिको अपनाकर आत्मरक्षा करे और उपस्थित संग्रामको टालदे । " विवरण -- वह अपनी हीयमान अवस्थाका शत्रको पता चलने से पहले 'ही अपनी ओर से सन्धिका प्रस्ताव करके आत्मरक्षाका प्रबन्ध करे । वह युद्ध स्थगित करने के अवसरका अपनी शक्तिवृद्धि में उपयोग करे । नीतिमान् राजा के लिये ये दोनों ही बातें अभीष्ट नहीं हैं कि वह सन्धिके द्वारा अपने से ४ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि बलवान् अधार्मिक शत्रुके हाथों में आत्मविक्रय करे या पराजय निश्चित होने पर उससे संग्राम करके मिट जाय । ऐसे समय नीतिमान् राजाका कर्तव्य है कि शत्रुसे सामयिक सन्धिके सहारे भात्मरक्षा करके शक्तिसंचय करने में लगा रहे। यही उसकी सन्धिका उद्देश्य रहना चाहिये । (सबल धार्मिक राजाकी सन्धिनीति ) अधिक सूत्र-- हीयमानेन न सन्धिं कुर्वीत । वर्धिष्णु नीतिमान् धार्मिक राजाका कल्याण इसी में है कि वह अपनी विजय निश्चित होने तथा नीतिहीन शत्रुकी हायमान अवस्थाका पता चल जानपर उसके सन्धिप्रस्तावको स्वीकार न कर। विवरण-- नीतिमान् बलवान् राजाके लिये यह कदापि उचित न होगा कि वह अधार्मिक निर्बल शत्रुको संग्रामभूमिमें आखडा पाकर भी उसे न मिटाकर उसकी मीठी बातोंके चक्कर में लाकर उससे सन्धि करके उसे भविष्य में शक्तिमान् बनकर शत्रुता करते रहने के लिये जीवित रहनेद। शत्रुको उसकी प्रस्तावित सन्धिसे जीवित रहनेका अवसर देदेना राजनैतिक मौतरूपी भयंकर प्रमाद है । (सन्धिका कारण) तेजो हि सन्धानहेतुस्तदर्थानाम् ॥ ५३॥ सन्धानार्थी दामेस दोनोंकी तेजस्विता प्रभावशालिता तथा प्रताप हा साचो सान्धका कारण होता है। विवरण---- कोष तथा दण्डज प्रताप तेज कहाता है । धनभंडार कोष कहाता है। दमन तथा सेना ये दो दण्डके भेद हैं। अधिक्षपावमानादः प्रयुक्तस्य परण यत् । प्राणात्ययेऽप्रसहनं तत्तेजः समुदाहृतम् ॥ (भरत ) Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्धिका कारण ५१ दूसरेके किये अधिक्षेप तथा अपमानको न सहना तथा इस असहनमें प्राणोत्सर्ग तक करनेको प्रस्तुत होजाना 'तेज' कहाता है। "मुहूर्त ज्वलितं श्रेयो न च धूमायितं चिरम् ।” चिरकाल तक धूयेके साथ निष्प्रभ होकर पछता पछताकर सुलगते रहनेकी अपेक्षा ज्वालामालाके साथ एक क्षणभर भी जीलेना शोभाकी बात है। सूत्र कहना चाहता है कि जब कोई दूसरे पक्षमें अधिक तेज देखे और सन्धि करना आवश्यक माने तब अपने सम्मानको सुरक्षित रखकर हीयमान होते हुए भी शत्रुको अपनी हीयमानता न दिखाकर, बन्दरघुडकी दिखाते हुए ही उससे सन्धि करे । सन्धि करने में अपने सम्मान और अस्तित्वको सुरक्षित रखना अपना विशेष कर्तव्य माने । ध्यान रहे कि सम्मान सुरक्षित नहीं होगा, तो सन्धि सन्धि न होकर भात्मसमर्पण होजायेगा। सन्धिके समय हीयमानका कर्तव्य होता है कि वह सन्धिप्रस्तावमें अपनेको मिटाकर सन्धि न करे। किन्तु निर्विष होनेपर भी फुकार मारना न त्यागनेवाले सांपकी भांति अपने तेजको अक्षुण्ण रखकर सन्धि करे । पाठान्तर-- तेजो हि सन्धानहेतुस्तदर्थिनाम् । नातप्तलोहो लोहेन सन्धीयते ।। ५४ ॥ जैसे बिना तपे लोहेकी बिना तप लोहेस सन्धि नहीं होती, इसी प्रकार दोनों पक्षामें तेजस्विता न हो तो सन्धि नहीं होती। विवरण- यह तो ठीक है कि दोनोंमेंसे एकके प्रतापका अधिक होना अनिवार्य है तो भी उनमें सन्धि होना तब ही संभव होगा, जब दीयमान राजा अपने पौरुष ढोले न छोडचुका होगा। यदि वह पौरुष ढीले छोड देगा तो अपना स्वतंत्र अस्तित्व ही खो बैठेगा। सन्धि तब ही होसकेगी जब निस्तेज राजा भी शत्रुसे संधिप्रस्तावमें अपनी तेजस्विताको अक्षुण्ण बनाये रखकर शत्रपक्षपर सन्धिका दबाव डाल रहा होगा । बात यह है कि शत्रपक्ष अधिक बलवान होनेपर भी युद्ध के अनिष्टकारी परिणामोंसे बचना चाहा करता है। ऐसी स्थितिमें नीतिमान धार्मिक राजा अधार्मिक शत्रुपर Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि अपनी तेजस्विता के दबाव से अपनी निर्बलताको छिपाये रखकर सन्धिका प्रस्ताव करे | तब ही सफलमनोरथ होकर आत्मरक्षा करसकता है । अमर्षशून्येन जनस्य जन्तुना न जातहार्देन न विद्विषादरः ॥ महाकवि भारवि जब मनुष्य अमर्षशून्य और पराभवसहिष्णु होजाता है, तब यथार्थ में वह सभ्य समाजके लिये तो मर ही जाता है । तब न तो मित्रपक्ष उसका आदर करता है, और न शत्रुपक्ष | जैसे एक गरम और एक ठंडा लोहा परस्पर सन्धि नहीं कर पाते, जैसे मिश्रित होनेके लिये दोनों को नावश्यक मात्रा में उष्ण होना चाहिये, इसी प्रकार दोनोंमें आवश्यक तेजस्विता होनेपर हो सन्धि संभव है । यदि मनुष्य अपना तेजस्वीपन खोकर बन्दरघुडकी देना भी छोडकर सन्धि मांगेगा तो प्रतिपक्षी युद्ध ही करेगा । सब जानते हैं कि सीधी अंगुलियोंसे घी नहीं निकलता। यदि सन्धिका इच्छुक शत्रुको अपनी विवशता दिखाबैठेगा और गिडगिडाकर सन्धि मांगेगा तो उसका आखेट बने बिना नहीं रहेगा। इस प्रकार यदि सन्धि हो भी जायेगी तो वह निस्तेज पक्ष के लुण्ठनका कारण बनजायेगी । पाठान्तर -- नातप्तलोहं लोहेन सन्धत्ते । ( युद्धका अवसर ) बलवान् हीनेन विगृह्णीयात् ॥ ५५ ॥ ५२ वली राजा शत्रुको हीन पाकर ही उससे युद्ध ठाने । विवरण - यदि शत्रु हीन न हो तो उससे युद्ध न ठान कर उसे उपायान्तरसे नष्ट करनेवाले बौद्धिक प्रयोग करे । मनुष्य यह जाने कि बुद्धिबल भौतिकबलसे अधिक महत्ववाला होता है । " एकं हन्यान्न वा हन्यादिषुर्मुक्तो धनुष्मता । बुद्धिर्बुद्धिमतोत्सृष्टा हन्ति राष्ट्रं सनायकम् ॥ धनुर्धारीका मारा एक तीर अपने लक्ष्यको मारसके या न मारसके, परन्तु बुद्धिमानों की प्रयुक्त बुद्धि नायकसहित राष्ट्रका ध्वंस कर डालती है । Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युद्धका अवसर ५३ मनुष्य विग्रह वहां न करे, जहां वह अशान्तिका कारण हो । क्योंकि अशान्तिदमन और शान्तिस्थापन ही विग्रहका उद्देश्य होना चाहिए । शान्तिप्रिय निर्बल व्यक्तिसे भी विग्रह करना कभी उचित नहीं है । हां, यदि निर्बल दुष्ट हो तब तो उससे विग्रह करना अनिवार्य ध्य होता है । जब कि विग्रहका उद्देश्य शान्तिस्थापना और अशान्तिका दमन करना है तब भशान्तिकारक मनुष्यको क्योंकि वह निर्बल है केवल इस लिये क्षमा नहीं किया जा सकता । शान्तिद्रोही निबल शत्रसे तो युद्ध प्रत्येक अवस्थामें करना चाहिये । परन्तु किसी बलवान्से हारजानेके लिये लडपाना भी नीति नहीं है । सुनिश्चित विजय होनेपर ही युद्ध करना चाहिये । सारांश यह है कि विग्नह सदा अपनेसे निबल दुष्ट के साथ ही उनना चाहिये । प्रौढ दुष्ट से तत्काल युद्ध न करके उसे अचिर भविष्य में इरादेने योग्य बलवान बनने के लिये जागरूक होकर रहना चाहिये और युद्धको टालते रहना चाहिये। युद्ध का उद्देश्य अशान्तिकारकका दमन और शान्तिको स्थापना होना चाहिये । शान्तिप्रेमी राजा अशान्त्युत्पादक शत्रुधर भाक्रमण करनेसे पहले शत्रको शक्तिका ठीक ठीक पता लगाकर ही शत्रदमनके लिये युद्धभूमि में उतरे । शत्रुको अपनेसे बलवान् जानकर भी रणभमिमें उसका माह्वान करके उससे पराजित दोबैटना अशान्तिको ही विजयी बनानेवाला होजाता है। इस दृष्टि से अपने बलवान् शत्रुके अशान्तिजनक होनेपर भी उसके विरुद्ध संग्रामघोषणा न करके, उसले भधिक शक्तिशाली बनकर ही उसके दमनके विषय में निश्चित तथा निश्चिन्त होकर उससे विग्रह करे । अर्थात् उसका दमन करने के लिये शक्तिसंचय करने में अपनी समस्त शक्तियोंका प्रयोग करे। . पाठान्तर --- बलवान हीन न विगृह्णीयात् ।। 'हीनेन ' इस तृतीयान्त पाठके स्थानपर 'हीने न ' इस प्रकार सप्त. म्यन्त पाठ मान लेने पर “ बलवान् हीनसे विग्रह न करें " यह अर्थ होता Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ चाणक्यसूत्राणि है । परन्तु यह अर्थ भव्यावहारिक होनेसे स्वीकरणीय नहीं है । इससे यह पाठ अपपाठ है । उसका कारण यह है कि हीन यदि दुष्ट हो तो उससे विग्रह क्यों नहीं करना चाहिये ? यह बात इसमें नहीं बताई गई । अशान्तिका उत्पादक शत्र चाहे बलहीन हो तब भी उसे बलहीन होने के कारण अपेक्षित नहीं किया जा सकता । ऐसे समय उसकी बलहीनताको उसपर आक्रमण न करने या उसे उचित शिक्षा न देनेका कारण नहीं बनाया जा सकता। दुष्टको हीन देखकर उसकी उपेक्षा करना तो राष्ट्रद्रोह है। उसकी बलहीनताको ही उसपर माक्रमणका कारण बनाया जाना चाहिये । इसलिये बनाना चाहिये कि उसकी बलहीनताकी अवस्थामें ही तो विजय सुनिश्चित होती है। न ज्यायसा समेन या ॥ ५६ ॥ अधिक भौतिक बलवाले या समान बलवालेसे भी विग्रह न छेडे। विवरण- जिसपर विक्रम, बल तथा उत्साहनामक तीन शक्ति भधिक मा समान हैं उससे युद्ध ठानने का अर्थ स्वनाश ही होता या होसकता है । ऐसे अवसरपर तात्कालिक युद्धको स्थगित रखकर स्वयं तो शत्रुसे अधिक शक्तिशाली बनने तथा शत्रुको बलहीन बनाने के लिये जितना कालक्षेप मावश्यक हो उतना करके शत्रुदमनका प्रबन्ध करे । युद्धके विना शत्रुदमनका कोई उपाय संभव नहीं है । इसलिये युद्धको अनिवार्य मानकर संग्रामके लिये सदा सन्नद्ध रहना ही राजनीति है। गजपादविग्रहमिव बलवद्विग्रहः ॥५७ ॥ बलवानसे युद्ध करना युद्ध में गजसेनासे निश्चित रूपमें हार. जानेवाली पदाति सेनाके युद्ध जैसा निर्बलका ही विध्वंसक होता है। विवरण- गजारूढ सैनिकों के सम्मुख पदाति सेनाकी जो गति होती है, वही गति बलवान् शत्रुके सम्मुख निर्बलकी होजाती है। इस दृष्टिसे Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युद्धका अवसर ५५ अशान्तिजनक आततायीका दमन करने के लिये उससे अधिक शक्तिशाली बनकर अर्थात् उसे हाथीके पैरके नीचे कुचल डालने जैसी उससे कई गुनी शक्ति एकत्र करचुकनेके पश्चात् ही उससे विग्रह करना उत्कृष्ट राजनीति है। इस सूत्रका भाव संग्रामविमुखताकी प्रेरणा देना नहीं है। इसमें तो सुमिश्रित विजय दिलानेवाली युद्ध सजा ( तैयारी ) करनेकी प्रेरणा है । पाठान्तर- हस्तिनः पादयुद्धमिव बलवद्विग्रहः । बलवान्से युद्ध हाथोके पैरसे उलझनेके ममान निर्बलका घातक बन जाता है। आमपात्रमामेन सह विनश्यति ।। ५८ ॥ जैसे, कच्चा पात्र कच्च पात्रसे टक्कर लेने लगे तो दोनों ही टूट जाते हैं, इसी प्रकार समान शक्तिवालीका युद्ध दोनों हीका विनाशक होता है। विवरण- क्योंकि समान शक्तिवालोंके युद्धोंके परिणाम दोनों हीके लिये विनाशक होते हैं, इसलिये युद्ध के बिना कोई गति शेष न रहनेपर ही युद्धका मार्ग अपनाना चाहिये । जब युद्ध न करनेका भी परिणाम विनाश ही सुनिश्चित दीखने लगा हो, तब वीरतासे युद्ध में जूझकर मरकर वीरगति पाना ही श्रेष्ठ नीति होती है। ऐसे भी समय आखडे होते हैं जब युद्ध करना अनिवार्य कर्तव्य होजाता है। ऐसे समय प्रतिपक्षीके यमराज बनकर उससे युद्ध ठानना कर्तव्य होता है । ___ इस दृष्टिसे शान्तिस्थापनाके इच्छुक राजाको अशान्तिदमन करने के लिये कच्चे पात्रको मिटा डालनेवाले पक पात्रके समान मिटा डालनेकी शक्ति एकत्र करना उत्कृष्ट राजनीति है । संग्रामविमुखता तो कदापि राजनीति 'नहीं है। पाठान्तर- आमपात्रमापेन सह विनश्यति । अपक्क मृत्पात्र जलोंके सम्पर्कमें आते ही नष्ट हो जाता है। यह पाठ व्याकरण संगत नहीं है। Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि ( शत्रुप्रयत्नोंका निरीक्षण) अरिप्रयत्नभभिसमीक्षेत ।। ५५ ।। शत्रुओंके प्रयत्नों, चेष्टाओं, उद्यमों, राज्यलाभो, परराष्ट्रासे सन्धियों आदिको अपने गुप्तचरोंके द्वारा ठीक ठीक जाने ( और आत्मरक्षामें पूरी सावधानी बरते )। विवरण- विजीगीषु राजा सन्धि या विग्रह प्रत्येक अवस्था में शत्रु. ओंके प्रयत्नोंपर पूरी दृष्टि रखे । वह शत्रुपक्षके श्वास प्रश्वासोतकका परिचय प्राप्त करता रहे। पाठान्तर- अरिप्रयत्नमभिसमीक्ष्यात्मरक्षयावसत् । राजा शत्रुके प्रयत्नोंपर दृष्टि रखता हुआ आत्मरक्षा करे । सन्धायकतो वा ॥६०॥ विजिगीषु राजा सन्धि या विग्रह प्रत्येक अवस्था में शत्रुके प्रयत्नोंपर सुतीक्ष्ण दृष्टि रखता रह । अरिविरोधादात्मरक्षामावसेत् ।। ६१॥ राजा अपने राष्ट्रको बाहरी तथा आभ्यन्तरिक शत्रुके लूट, दाह, अनीति आदि पापों से बचाता रहे। (सन्धिका अवसर शक्तिहीनो बलवन्तमाश्रयेत् ।। ६२॥ शक्तिस्थापनाका इच्छुक राजा किसी धार्मिक शक्तिशाली राजाको मित्र बनाले और उससे अपनी स्वतन्त्रताको सुरक्षित करे। विवरण- राष्ट्र , सेना, दुर्ग तथा कोषरूपी शक्तियोंसे असमृद्ध राजा. इन सब शक्तियों से सम्पन्न किसी प्रतापी धार्मिक राजाके साथ मित्रतम करके उसके सहयोगसे शत्रदमनकारिणी विशालशक्तिकी सष्टि करे । Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्धिमे सावधानता दुर्बलायो दुःखमावहति ॥ ६३ ॥ दुर्वल ( अर्थात् अपनी शक्ति में विश्वास न रखनेवाले, स्वत: न्त्रता या अशान्तिदमनके आदर्शको न अपनानेवाल ) कापुरुप के साथ सम्मिलित होना दुःख ( अर्थात् विनाश का कारण बन जाता है। विवरण- प्रायः देखने में भाता है कि भौतिक शक्तिहीन दो टुबलों के सच्चे मिलनसे नवीन महाशक्ति का जन्म होजाता है। इसीलिये इस सूत्रमें दुर्बल शब्दका “ अपनी शक्तिपर भरोसा न करनेवाला '' " कापुरूप" अर्थ किया है । इस सत्र दुर्बल शुब्द का यह अर्थ मान्य नहीं है कि मान लिक शक्तिसंपन्न कुछ दुर्बल राध संगठित होकर शक्तिमान् नहीं दन सकते। पाठान्तर- दुर्बलाश्रयो हि दुःखमावहति । (सन्धि गावधानता) अनिवद्राजानमाश्रयेल ।। ६४ ।। किसी राजासे आश्रयका सम्बन्ध जोडना आवश्यक होजान पर भी उसकी ओरसे अग्निके संबधके समान, उसे अपनी हानि न करने देने के संबंधमे पूरा सावधान रहकर व्यवहार करे । विवरण- उसे अपनी हानि करने का अवसर न दे। उसे इतना न चिपट जाय कि वह चाहे जब गला घोट सके । जैसे भागमें स्वयं जल मरन आगका दुरुपयोग है, परन्तु जैसे भागकी दाहिका शक्तिको मात्मरक्षाका साधन बनालेना उसका सदुपयोग है, इसी प्रकार विजोगीपु मनुष्य अशा न्तिकारक शत्रुका दमन करने के लिय किसीका माश्रय करे। वह किसीका आश्रय लेकर अपनी शान्ति तथा स्वतन्त्रता न खोबैठे। जैसे अग्निके दाहक शोषक होनेपर भी जीवन में उस महत्वपूर्ण उपयोग हैं, क्योंकि उसके विना काम नहीं चलते। इसी प्रकार जब बली राजाका पाश्रय लिये बिना जीवन धारण संभव होजाय तब बलहीन राजा राजलक्षणों से सम्पन्न Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि किसी धार्मिक तेजस्वी राजाके साथ मित्रताका सम्बन्ध जोडें और एक सम्मिलित वर्धित शक्तिसे शक्तिमान् बने । सोमदेवके शब्दों में राजाके लक्षण- 'धार्मिकः कुलाचाराभिजनो विशुद्धः प्रतापवान् नयानुगतवृत्तिश्च स्वामीति ।' गजाको स्वधर्म तथा प्रजापालनमें रत कुलाचारका पालक अस्वेच्छाचारी कुलीन यतेन्द्रिय शौर्य, वीर्य, भीमता आदि गुणों के युक्त प्रतापी तथा न्यायनिष्ठ होना चाहिये । (राजद्रोह अकर्तव्य ) राज्ञः प्रतिकूलं नाचरेत् ।। ६५ ।। राजद्रोह न करे। विवरण--- राजाके प्रतिकूल माचरण न करे । राष्ट की सम्मतिसे सिंहासनारूढ राजाका द्रोह राष्ट्र का ही द्रोह है । प्रश्न होता है कि क्या राजाके अनातिपरायण होनेपर भी उसकी अनुकूलता करे ? क्योंकि भनीतिपरायण होना तो मनुष्यताविरोधी स्थिति है, इसलिये अपनी मनुष्यताको तिलांजलि दंकर अनीतिपरायण बने हुए राजाकी अनुकूलता करना चाणक्य जैसे आदर्श राजचरित्र तथा आदर्श समाजकी परिशुद्ध कल्पना करनेवाले मनस्वीके इस सत्रका अभिप्राय कभी नहीं होसकता । फिर प्रश्न होता है कि क्या इस सूत्रका यह अर्थ है कि अनीतिपरायणा राजाके तो प्रतिकुल आचरण करे और धार्मिक राजाकी प्रतिकूलता न करके उसकी अनुकूलता करे ? वास्त. विकता तो यह चाहती है कि धार्मिक मनुष्यमात्रकी अनुकूलता की जाय । चाहे वह राजा हो या सामान्य नागरिक हो। धार्मिक मनुष्यके लिये धर्मकी अनुकूलता करना स्वभावसिद्ध होता है। इस बातके लिये सत्रकी कोई विशेष लावश्यकता स्वीकार नहीं होसकती । राजाके भनीतिपरायण होनेपर ही उसकी भनीतिपरायणताके संबन्ध में प्रजाका जो कर्तव्य बनता है उसीको स्पष्ट कर देना इस सूत्रका उद्देश्य है। प्रजाकी राष्ट्रसेवा राजाको राष्ट्र के सामूहिक नैतिक प्रभावसे नीतिपरायण रखने तक ही सीमित है । राजद्रोह करके राष्टकी शान्ति तथा शृंखलाको भग करना तो राष्ट्रदोह है। यदि राष्ट्र राजाको नीतिपरायण रखने में असमर्थ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोम्य वेष है, तो राजाकी अनीतिपरायणता राष्ट्रकी ही अनीतिपरायणता है । राजाके अनीतिपरायण होनेका अपराध राजाके व्यक्तित्व तक ही सीमित नहीं रहता। राजाके बनीतिपरायण होने में सारा ही राष्ट्र कारण होता है। राष्ट्र के स्वयं अनीतिपरायण रहनेतक राजाका अनीतिपरायण होना अनिवार्य है। राजा वास्तव में राष्ट्र का ही प्रतिबिम्ब होता है । जैसा राष्ट्र होता है वैसा ही उसका राजा होता है। जैसे बिम्बको सुधारे विना प्रतिबिम्बका सुधार असंभव है इसी प्रकार राष्ट्रको सुधारे विना अकेले राजाको सुधारना असंभव है । क्योंकि प्रजाकी निर्विघ्न जीवनयात्राके लिये राज्यसंस्थाका होना अनि . वार्य रूपसे आवश्यक है इसलिये विवेकी लोग राज्यसंस्थाके सहायक बन कर रहें और उसका द्रोह न करें। यही सत्रका तात्पर्य है। जहां तक और जब तक संभव हो राजाको नीतिपरायण रखनेके प्रयत्नों को तो चालू रखें परन्तु उसका द्रोह करनेपर न उतरें । राज्यसंस्थाको सुधारकर रखना कर्तव्य होनेपर भी अराजकता फैलाना प्रजाके लिये कल्याणकारी नहीं है। नीति. वाक्यामृतके शब्दों में 'अस्वामिकाः प्रकृतयः समृद्धा अपि निस्तरितुं न शक्नुयुः। 'समृद्ध भी राजहीन प्रजायें निर्विन्न जीवनयात्रा नहीं कर सकतीं। इसलिये राज्यसंस्थाका द्रोह न करके जहां तक संभव हो उसका लहायक बनकर रहे । सत्रकार सांकेतिक भाषामें कहना चाहते हैं कि दूषित राज्यसंस्थाको भी नष्ट करनेका उपक्रम न करके उसे भी सुधारनेका ही प्रयत्न करना चाहिये । राज्य संस्थाका सकलोच्छेद तो भगतिक या अन्तिम उपायके रूपमें दी काममें लाना चाहिये । अराजकताको उत्तेजना देनेवाले लोग जानें कि अराजकतासे देशको अकल्पित विपत्तियों और विनाशोंका सामना करना पड़ता है। भारत अपने विभाजनके दिनों में अभी अभी अरा. जकताका भयंकर रूप देख चुका है। (सोम्य वेष ) उद्धतवेषधरो न भवेत् ॥६६॥ दृष्टिकटु ( द्रष्टाके मनमें तिरस्कारबुद्धि उत्पन्न करनवाल) रुचविगर्हित असाधारण वेष न पहने । Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि विवरण- मनुष्य समाजानुमोदित सभ्य वेष धारण करे ! साधारण रहनसहन, सार्वजनिक उत्सव तथा राजसभा आदि सब ही इस सूत्र के व्यवहारक्षेत्र हैं। मनुष्य सभ्य समाजानुमोदित वेषभूषा पहनकर ही व्यव - दार करे। वह कहीं भी स्वेच्छाचारी वेषभूषा या अपनी शृंगार प्रियताका प्रदर्शन न करे । चाहे जितना समृद्ध होनेपर भी मनुष्यकी वेषभूषा राष्ट्रकी सार्वजनिक वेषभूषाकी प्रतीक होनी चाहिये । सार्वजनिक स्थानों में अना कपक, सौम्य वेषभूषामें ही जाना चाहिये । पाठान्तर--- नोद्धतवषधरः स्यात् । न देवचरितं चरेत् ॥ ६७ ॥ मनुष्य राजचरित्रका अनुकरण न कर । ६० विवरण -- मनुष्य धनमदमें आकर मुकुट, छत्र, चामर, ध्वज, विशेष वाइन आदि राजचिन्हों का उपयोग न करे । राजाके ऐश्वर्य से प्रतिद्वन्द्विता करनेवाले प्रदर्शन न करे । अथवा समाजमें व्यक्तिगत महत्वाकांक्षामूलक यशोलिप्सा, किसी साम्प्रदायिक या जातिगत स्वार्थी दलका नेतृत्व, प्रभुता आदि राष्ट्रसेवाविरोधी प्रदर्शनोंसे समाजकी भावनाको विपथगामी न करें : ( राजद्रोही संगठनों का विनाश ) द्वयोरपीष्यतोः द्वैधीभावं कुर्वीत ॥ ६८ ॥ अपने राज्यश्वर्यले ईर्ष्या करनेवाले, विरोधके ही लिये सम्मि लित होनेवाले माण्डलिक राजाओं या दो व्यक्तियों तक में अपने कृटप्रयोगोंसे पारस्परिक द्वेष पैदा करके, उन ईर्ष्यालुओं की महत्वाकांक्षाको तो पददलित तथा उनके अस्तित्वको विलुत करडाले | विवरण - राज्यविरोधी बडे संगठनों के संबन्ध में सतर्कताका तो कहना ही क्या राज्यविरोधी दो व्यक्तियों तकको विरोधी दल बनाकर संगठित होनेका अवसर न पाने दे | Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यसनासक्ति से हानि ( व्यसनासक्ति से हानि ) न व्यसनपरस्य कार्यावाप्तिः ॥ ६९ ॥ - 67 1 व्यसनासक्त से सफल कर्म नहीं हो पाता विवरण - व्यसनासक्तका कर्म फलदायी नहीं होता । क्योंकि व्यसनासक्तका कर्म उत्साह, दृढता, संकल्प तथा आत्मविश्वास से हीन होता है इसलिये उसके किये कर्म निष्प्राण होते हैं । उसका मन व्यसनासक होने से सब समय कर्तव्यबुद्धिसे भ्रष्ट बनकर रहता है। राजाकी राजकार्यों में निष्ठा तब ही हो सकती है जब वह प्रजारंजनको अपनी तपश्रर्याके रूपमें स्वीकार करके तपस्वी जीवनको अपनाये । राजाके लिये राजधर्मपालन से भिन्न या महत्वसंपन्न दूसरा कोई भी कर्तव्य धर्म स्वभाव या प्रवृत्ति स्वीकरणीय नहीं होसकती । राजधर्मपालन ही राजाके मनुष्यदेहधारणकी सार्थकता है । व्यसनी राजा स्वयं तो नष्ट होता ही है अपने साथ राष्ट्रको भी नष्ट कर डालता है । व्यसनहीन धीर राजा या राज्याधिकारी ही बुद्धिमान् माने जाते और प्रशंसा पाते हैं। उनके ही काम सुनिश्चित कर्मफलवाल होते हैं । समय शक्ति या धनका गिरावट में उपयोग 'व्यसन' कहाता है । कामज तथा कोपज दोष व्यसन कहाते हैं। मानवधर्मशास्त्र में राजा के दस (१० ) कामज तथा आठ ( ८ : कोपज भेदसे १८ प्रकारके व्यसन गिनाये हैं । १- आखेट, २- जुमा ( शतरंज ताश, लाटरी, घुडदौड, सट्टे आदि), ३- सकलकार्य विनाशक दिवानिद्रा, ४- परनिन्दा, ५- व्यभिचार, ६- मद्यपानजनित पद, नृत्य, ८- गीत, ९- वादित्र, १० व्यर्थ भ्रमण ये दस कामज व्यसन हैं 9- किसीपर मिथ्या दोषारोपण, २- मिथ्याप्रतिष्ठा के दुरामइसे किसीकी सच्ची बात न मानना, ३- निरपराध से व्यक्तिगत द्वेष, ४- परश्रीकातरता ( दूसरोंके गुणका असहन ), ५- दूसरोंके गुणोंमें दोषोद्भावन, ६ - परधनापहरण तथा पराये धनका अप्रत्यावर्तन, ८- ताडनादि ये आठ प्रकार के कोपज व्यसन हैं 1 दुर्वचन, ६१ - 60 ܐ इन्द्रियवशवर्ती चतुरङ्गवानपि विनश्यति ॥ ७० ॥ इन्द्रियोंका आज्ञाकारी असंयतेन्द्रिय राजा समस्त प्रकारकी सेनाओंसे सुसज्जित होनेपर भी नष्ट होजाता है । Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि विवरण- इन्द्रियासक्तकी कर्मशक्ति कुण्ठित हो जाती है। यह बात सूत्रके " भपि " शब्दसे कही गई है। इन्द्रियासक्तकी समस्त कर्मशक्ति उसकी इन्द्रियासक्तिमें ही क्लान्त समाप्त और गतार्थ होकर दूसरा कोई भी महत्वपूर्ण कर्म करनेके योग्य ही शेष नहीं रहती । असफलता हो इन्द्रियासतोंकी अमिट ललाटलिपि या कमरेखा बनजाती है। पाठान्तर- इन्द्रियवशवर्तिनो नास्ति कार्यावाप्तिः । इन्द्रियाधीनका कोई भी कार्य सिद्ध नहीं होता। पांच ज्ञानेन्द्रिय, पांच कर्मेन्द्रिय, तथा मन प्रत्येक समय मज्ञानी मनुष्य के ज्ञान, संयम, विचार तथा शान्तिरूपी धनको चुरा चुरा कर उसे संसार. रूपी पण्यशालामें व्यर्थ व्यय कर डालना चाहते हैं। इन्द्रियोंको वशमें न रखनेवाले राजा या राज्यधिकारियों के इन्हें अपना ज्ञानधन चुरा लेने देने पर वे काम जिन्हें करना उनका कर्तव्य है निश्चित रूपमें फलहीन रहते हैं। कार्य तो संयतेन्द्रिय लोगोंके ही सफल होते हैं। जीयन्तां दुर्जया दहे रिपवश्चक्षुरादयः जितेषु ननु लोकायं तेषु कृत्स्नस्त्वया जितः परवानर्थसंसिद्धौ नीचवृत्तिरपत्रपः । अविधेयेन्द्रियः पुंसां गौरिवेति विधयताम् । भारवि तुम अपने ही देहमें रहनेवाले चक्षु आदि इन्द्रियरूपी घरेलू दुर्जय शत्रु. ओंको विजित बनाकर रखो । यदि तुम उन्हें जीतकर रखोगे तो निश्चय जानो कि तुम विश्वविजयी बन चुकोगे। अवशेन्द्रिय मानव स्वार्थसाध नमें पराधीन नीचवृत्ति निर्लज होकर पशुओंके समान दूसरोंकी अधीनतामें माजाता है। जिसकी अपनी इन्द्रियां तक अपने वशमें नहीं हैं, जो अपनी इन्द्रियों तकपर अपना शासन स्थापित करने में असफल हो रहा है, निश्चय है कि वह अपनी चतुरंग सेनाको भी कर्तव्यनिष्ठ न रखकर उसे भी अपनी इन्द्रियों के समान ही कर्तव्यभ्रष्ट बनाये रखेगा। उसके असंयत मनका Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तसे हानि कुप्रभाव सेनापर भी पडेगा और उसे भी असंयत कर्तव्यहीन उत्तरदायित्वहीन निकम्मा बनाडालंगा । जैसे इन्द्रियासक्तका मन, काम, क्रोधादि रिपुओंके आक्रमणसे पतित होजाता है. इसी प्रकार उसके राज्याधिकारपर माक्रमण करनेवाले शत्रुके माक्रमणके अवसरपर उसकी सेनाका निकम्मापन उसके पतनका कारण बने विना नहीं रहता। (तसे हानि ) नास्ति कार्य द्यूतप्रवृत्तस्य ।। ७१॥ द्यूतासक्त लोग कर्तव्यहीन होते हैं। विवरण- धूतासक्त लोग कर्तव्यका माह्वान आनेपर धैर्यच्युत हो जाते हैं। ऐसी कर्तव्यद्वेषिणी द्यूतासक्ति राजाका राष्ट्रवाती अपराध है ! पाठान्तर-- नास्ति कार्य द्रुतप्रवृत्तस्य । अविचार और भधैयसे शीघ्रतामें माकर काम प्रारंभ कर देनेवालेके काम सिद्ध नहीं होपाते । सहसा विदधीत न क्रियामविवेकः परमापदां पदम् । वणुत हि विमश्यकारिणं गुणलुब्धाः स्वयमव संपदः ॥ भावि मनुष्य सहसा कोई भी काम न करे । अविवेक परम भापत्तियों का घर बन जाता है । संपत्तियोंको भी गुणोंका लोभ होता है। गुणोंका लोभ रखनेवाली संपत्तियां विचारकर काम करनेवालोंको अपने आप माकर वरती हैं। सुचिन्त्य चोक्तं सुविचार्य यत्कृतम् । सुदीर्घकालेपि न याति विक्रियाम् ॥ विष्णुशर्मा सुचिन्तासे बोले वाक्य, तथा सुविचारसे किये काम लम्बे काल तक भी नहीं बिगडते । मनुष्य परिणामपर दृष्टि डाले विना तथा पूर्वापर पर्यालोचन किये विना किसी काममें हाथ न डाले। उपस्थित कर्मपर सूक्ष्म बुद्धिसे Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसुत्राणि विचार करके ही उसे करना चाहिये । सोचकर करना चाहिये । करके सोचनेका कोई अर्थ नहीं है । तब तो पछताना ही पछताना होता है। कामज कोपज व्यसनोंके दोष दिखानेका प्रसंग चल रहा है, इस कारण दुत शब्दको अपगठ मान लेना पडता है । इस पाठसे विचारकी शंखला टूट जाती है। (भृगयासे हानि ) मगयापरस्य धर्मार्थी विनश्यतः ।। ७२ ॥ आखेटव्यसनीके धर्म और अर्थ ( कर्तव्यपालन तथा जीवनमाधनोंका संग्रह और रक्षा ) दोनों ही नष्ट हा जाते हैं । अर्थपणा न व्यसनेषु गण्यते ॥ ७३ ॥ जीवनसाधनोंके संग्रहको इच्छा व्यसनाम नहीं गिनी जाती। विवरण-धन जीवन यात्रा, राष्टरक्षा तथा राष्ट्रोन्नतिका साधन है। अत: धन कदापि त्याज्य नहीं है । धनासक्ति या कृपणता ही त्याज्य है। अजरामरवत्प्राज्ञो विद्यामर्थ च चिन्तयत् । गृहीत इव केशेषु मृत्युना धर्ममाचरेत् ।। मनुष्य अपनेको अजर, अमर मानकर विद्योपार्जन और धन संचय करता है । परन्तु धर्मका उपार्जन तो तत्काल करे और इस बुद्धिसे करे कि मौतने भाकर मेरा केशपाश पकड लिया है, जो कुछ धर्म करना है इसी क्षण कर लें। मनुष्य फिरके लिये धर्मको न टाले। अधिक सूत्र- अर्थेषु पानव्यसनी न गण्यते । मदिरासक्त लोग महत्वपूर्ण कामों में विश्वास करने योग्य नहीं होते। (कामासक्तिसे हानि ) न कामासक्तस्य कार्यानुष्ठानम् ।। ७४ ॥ कामासक्त चरित्रहीन व्यक्ति किसी भी कामको ठीक नहीं कर सकता। Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कठोर वाणीसे हानि विवरण - यदि राष्ट्रको पवित्र रखना हो तो उसका एकमात्र उपाय यह है कि राज्यसंस्थाको राष्ट्रीय पवित्र तपोभूमिका रूप देकर रखो । जनता राज्यसंस्थाके अनुकूल अपना चरित्र बनाती है । राज्यसंस्थाका स्वभाव हो राष्ट्रका स्वभाव बनजाता है । कामी लोग सूक्ष्म कामों में ध्यान नहीं दे सकते, उनका मन एकाग्र होना नहीं जानता। उन्हें सौंपे कार्यों में राज्यको हानि होती और सुफलकी संभाबनायें नष्ट हो जाती हैं । काम एष क्रोध रजोगुणसमुद्भवः r: 1 महाशना महापाप्मा विद्धयनमिह वैरिणम् ॥ ६५ एष ( श्रीमद्भगवङ्गीता ) काम ही क्रोध है । काम ही किसीसे प्रतिबद्ध होनेपर क्रोध बनजाता हैं । यह रजोगुणसे उत्पन्न होता है । यह महाभोजी हे । कामका पेट सारा संसार पाकर भी नहीं भरता । यह महापापी है । यह अपने स्वार्थसे संसारभरका सर्वनाश करनेको प्रस्तुत होजाता है । यह यद्यपि ऊपर से देखने में भोगदायी मीठा मित्र और हितैषी लगता है, परन्तु तुम इसकी मित्रताके धोके में मत रहो। तुम इसे अपना शत्रु मानों और इससे बचकर रहो । कामेन रावणो नशे देवराजाऽपि गर्हितः ।' कामकी दासता से रावण वो अपनी जान से ही हाथ घोबैठा और इन्द्रने काम की दासता करके अपने पर अमिट कलंक लगा लिया । " ( कठोर वाणांसे हानि ) अग्निदाहादपि विशिष्टं वाक्पारुय्यम् ॥ ७५ ॥ किसीको मर्मभेदी अरुन्तुद वाक्य कहना अग्निदाह से भी अधिक दुखदायी होता हूँ । विवरण- कठोर कर्कश अश्लील वाणी बोलना भी एक महा दुयेसन है । मनमें क्रोक्के उद्दीप्त होनेपर वाणा में पारुष्य आजाता है । मर्मभेदी पुरुष कर्कश कदम अश्लील वाणी दुष्ट मनमें से ही निकलती है । Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि इससे श्रोताके मनमें क्रोध बढकर भावी विवादके बीज बो दिये जाते हैं । शस्त्रका घाव तो मरजाता है परन्तु वाणीका घाव जीवनभर नहीं भर पाता । परुष वाणीकी पैदा की हुई शत्रुता जीवनभर नहीं मिटती । पाठान्तर- अग्निदाहादपि विशेष्ये वाक्पारुष्यम् । वाक्पारुष्यको अग्निदाहसे भी अधिक क्षोभजनक जानना चाहिये। ( कठोर दण्डसे हानि ) दण्डपारुष्यात सर्वजनद्वेष्यो भवति ॥ ७ ॥ दण्डदाताके मनमें व्यक्तिगत द्वेष या रोष आजानेसे दण्डके कठोर होजानेपर वह न्यायाधीशके पवित्र आसनसे पतित होकर जनताका द्वेषभाजन बनजाता है। विवरण- इसलिये दण्डाधिकारीको दण्डमें कठोर न होना चाहिये। राज्य प्रजामोंकी शुभेच्छाओंपर ही ठहरा रहता है। इसलिये राज्यसंस्थामें काम करनेवाले लोग सदा प्रजाका हार्दिक अनुमोदन पाते रहने तथा क्षोभ उत्पन्न न होने देनेवाली नीति अपनायें । प्रकृतिका क्षोम अशा. न्ति तथा राष्ट्रविनाशका कारण बनजाता है । दण्डपारुष्यसे कौनसी बात किसको कितनी चुभ जाय और क्षुब्ध प्रकृतिमेसे कब कोई क्या करबैठे इसकी कोई निश्चित कल्पना नहीं की जासकती । लोगों में बनन्त प्रकारकी शक्तिये और प्रवृत्तिये सोयी पड़ी रहती हैं। राज्य संस्थाके कार्यकर्ताओंको अपनी भलोसे जनतामें राज्यविरोधी प्रवत्तिये न जागने देनेकी साथधानता रखने के लिये अपनी उत्तेजक उच्छृखल दण्डप्रवत्तियोंपर पूर्ण शासन रखना चाहिये तथा अत्यन्त सावधानतासे दण्डमें भौचित्यका सुगंभीर सनिवेश करना चाहिये । दण्ड सदा अपराधके अनुरूप होना चाहिये तथा अपराधीको ही मिलना चाहिये, निरपराध को नहीं। अपराधीका यथाविधि. निग्रह ही ' दण्ड ' कहाता है । अभियुक्त व्यक्ति राज्यधिकारियोंके व्यक्ति गत द्वेषका पात्र होनेपर अन्यायपूर्वक दण्ड पाजाता है । इस सूत्रमें उस दण्डको ही निन्दित किया जारहा है। Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आर्थिक संतोषकी घातकता ( आर्थिक संतोष की घातकता ) अर्थतोषिणं श्रीः परित्यजति ॥ ७७ ॥ राज्यलक्ष्मी अपर्याप्त राजकोषसे सन्तुष्ट होजानेवाले, उसकी वृद्धि में उदासीन उपेक्षापरायण नैष्कावलम्बी राजाको त्याग देती है विवरण- राजकोषके असली स्वामी अगणित प्रजाका प्रतिनिधित्व करनेवाले राजाके लिए अपनेको राजकोषका स्वामी समझना तथा समझकर असे पर्याप्त मान बैठना भ्रान्ति है। राजकोषका सदुपयोग ही उसकी वृद्धिका अनिवार्य कारण होता है। राष्ट्रीय धनको राष्ट्रकी आवश्यकताओंपर न्यय न करके उसे कोषमें दबा बैठना चाहनेवाले कृपण राजाके धनागमके समस्त मार्ग अनिवार्यरूपसे अवरुद्ध होजाते हैं और उसका परिणाम उसका राज्यश्रीहीन होजाना होजाता है। राज्यश्री, हस्तगत अर्थमात्रको पर्याप्त मानकर उसीसे सन्तुष्ट होबैठने वाले तथा इस उद्योगको मागे न बढानेवाले एवं उपार्जित मर्थको राष्ट्रकी उचित मावश्यकताओंपर व्यय न करनेवाले राजाको छोड जाती है । "असन्तुष्टा द्विजा नष्टाः सन्तुष्टाश्च महीभुजः।" असन्तुष्ट ब्राह्मण तथा सन्तुष्ट राजा नष्ट होजाते हैं । राज्यसंस्थाका संबन्ध राष्ट्र के मनुष्यमात्रसे होने के कारण उसकी आवश्यकतायें अनन्त है। राजाके लिये अर्थसन्तोषनामकी कोई स्थिति वांछनीय नहीं है। राज्य के सम्बन्धमें अर्थसन्तोष विनाशक कल्पना है। पाठान्तर- अर्थदूषकं श्रीः परित्यजति। श्री अर्थदूषक ( अर्थात् धनको कुत्सित कामों में बहा देनेवाले . अपव्ययी तथा कुत्सित उपायोसे उपार्जन करनके इच्छुक ) मनुष्यसे मुंह मोड लेती है। विवरण- कुत्सित उपायोंसे भानेवाला धन माता ही आता अच्छा लगता है । वास्तवमें तो वह घरके धन को भी न करनेवाला होता है। Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि उत्साहसम्पन्नमदीर्घसूत्रं क्रियाविधिज्ञ व्यसनध्वसक्तम् । शूरं कृतक्षं दृढसौहृदं च लक्ष्मीः स्वयं मार्गति वासहेतोः ॥ ( विष्णुशर्मा ) लक्ष्मी निवासके लिये उत्साही, अदीर्घसूत्री, क्रियाकुशल, व्यसनोंसे अलग रहनेवाले, शूर, कृतज्ञ, दृढमित्र मनुष्यको ढूंढती फिरा करती है । ( शत्रुदमन दण्डनीतिपर निर्भर ) ६८ अमित्रो दण्डनीत्यामायत्तः ॥ ७८ ॥ क्योंकि तुम्हारे शत्रुकी हानिप्रदता, प्रबलता या निर्बलता तुम्हारी दण्डनीतिकी ढिलाई या सतर्कतापर निर्भर करती है इसलिये अपनी दण्डव्यवस्थाको ठीक रखो । विवरण -- यदि तुम्हारी दण्डनीति ढीली होगी, अपराध करनेवाले शत्रुओं के अपराधोंकी उपेक्षा कर रहे शत्रु प्रबल होजांयगे और उन्हें तुम्हारे विरुद्ध खुलकर मिल जायेगा । इस अवस्था में तुम अपने ही राष्ट्रमें अपने शत्रु बढा रहे होंगे । यदि तुम दण्डनीति अर्थात् शष्टदमनकारी उचित उपायों को नहीं जानोगे और पूर्ण सतर्क होकर उन्हें निरन्तर काममें नहीं लाओगे, तो तुम्हारे शत्रुओंका बल पकडजाना अनिवार्य होजायेगा । जब तुम्हारा सतर्क जागरूक दण्ड राष्ट्रसेवाकी भावनासे प्रेरित होकर दण्डनीय लोगोंके पास अनिवार्य रूप से पहुंचता और उनके पापी सिरपर चढकर बैठा रहेगा तब ही तुम निर्वैर निष्कण्टक राज्य भोग सकोगे । राज्यकी रश्मि पकड़नेवाले लोगों को दण्डनीतिका ज्ञान तथा उसे प्रयोगमें लाने के ढंगों का पूरा परिचय अनिवार्य रूप से होना चाहिये। दण्डका उचित प्रयोग न जाननेवाले लोग हाथ पैर जोडने मात्र से उस प्रश्नकी राष्ट्रीय महत्ताको भूलकर उसे अपना व्यक्तिगत प्रश्न माननेकी भूल करके शत्रुओंको क्षमा कर बैठते हैं और अन्तमें उन्हींसे मारे जाते हैं । इतिहास में इसकी बहुतसी साक्षी विद्यमान है । यदि तुम राष्ट्रीय होगे, तो तुम्हारे खेलने का अवसर दुर्भाग्य से भारत बहुत दिनोंसे अपनी राजशक्तिमें दण्डनीतिका प्रयोग करना छोडबैठा है । वह अपनी दण्डनीतिकी ढिलाईरूपी भूलसे विनाश Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दण्डनीति प्रजाकी संरक्षक पर विनाश पाता चला मारहा है और उसकी राष्ट्रीयशक्ति छिनभिज्ञ होती चली आरही है। जब तक भारत दण्डनीतिका सच्चा पाठ नहीं सीखेगा तब तक उसकी स्वतन्त्रता मरुमरीचिका बनी रहकर वास्तविकतासे दूर खडी रहेगी और भारतके लोग शान्तिके सांस नहीं ले सकेंगे । ऐसी विकट स्थिति में भारत के प्रत्येक नागरिकका कर्तव्य है कि वह इस दण्डनीतिको अपने देशकी राजशक्तिमें प्रतिफलित करके देशकी सच्ची सेवा करे । परन्तु ध्यान रहे कि भारतवासी लोग इस दण्डनीतिको देशकी राज्यशक्ति में तब ही मूर्तिमान कर सकते हैं जब वे अपने सामाजिक जीवन में प्रत्येक सत्यद्रोही और देशद्रोहीके साथ, चाहे वह मित्र, पुत्र, भ्राता या घनिष्ट संबन्धीतक क्यों न हो, इस दण्डनीतिको राष्ट्र कल्याणकी भावनासे प्रयोगमें लायें । जब तक भारत के लोग देशद्रोहियोंके साथ भी सम्बन्ध बनाये रखनेवाली अपनी ममनुष्योचित दुर्यल भावनाको हृदयसे निकाल बाहर नहीं करेंगे तब तक भारतकी दण्डनीति भारतकी राष्ट्रशक्तिके ऊपर अपना सुप्र. भाव स्थापित करने में अनंतकाल तक भसमर्थ बनी रहेगी। ( दण्डनीति प्रजाकी संरक्षक ) दण्डनीतिमधितिष्ठन् प्रजाः संरक्षति ।। ७९ ॥ राजा दण्डनीतिका अधिष्ठाता रहकर ही प्रजाका संरक्षण करने में समर्थ होता है। विवरण- राजा प्रजाके कल्याणकी दृष्टिसे दण्डनीतिका प्रमादशून्य सार्वदिक सार्वत्रिक प्रयोग करता रहकर ही प्रजापालन करसकता और अपने स्वामित्वको सटल रख सखता है । दण्डनीति ही राजाका अस्तित्व बनाये रखनेवाला एकमात्र साधन है । दण्डनीति में तिल बराबर भी प्रमाद हो जानेसे राज्यश्रीपर घातक प्रहार होने लगते हैं। उसका अनिवार्य परिणाम राज्यका नष्ट भ्रष्ट होजाना होता है। दण्डनीति ही राज्यके शत्रुओंको दमन करनेवाला एकमात्र साधन है। राज्यसंस्थाको दुष्टनिग्रहका सतर्क कठोर कर्तव्य करना पडता है। उसकेऊपर समस्त राष्ट्रको रक्षाका गम्भीर उत्तरदायित्व रहता है। उसे राज्य Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि कण्टकों का मुखमर्दन करनेके लिये प्रत्येक समय सतर्क और सन्नद्ध रहना पढता है । उसे किसी भी दण्डनीय व्यक्ति के मिथ्याविनयसे प्रभावित होकर राष्ट्रीय अपराधियों को भूलकर भी क्षमा न करनी चाहिये और निर पराधको दण्डित करके प्रजा में क्षोभ उत्पन्न नहीं होने देना चाहिये । दण्डairat दण्ड मिलने की अचूक व्यवस्था रहनी ही चाहिये । पापीको क्षमा तथा निरपराधको दण्ड मिलजानेसे देश में पापकी वृद्धि, उसे प्रोत्साहन तथा राज्यकी शत्रुवृद्धि होती हैं । राज्यव्यवस्थाकी इस भूलसे देश की राजशक्तिका दण्डनीय आततायी लोगों के हाथों में फंप जाना अनिवार्य होजाता और प्रजामें हाहाकार मच जाता है। उसका अन्तिम परिणाम राष्ट्रविप्लव होता है । तब आततायियों को शान्तिप्रिय जनताका आखेट करनेका अवसर मिल जाता, रक्तकी नदियों बद्द निकलती और स्त्रीबालहत्या, व्यभिचार, लूटपाट, हत्याकांड आदि अत्याचार बिना रोक टोक होने लगते हैं । आजका भारत यह सब आंखोंसे देख चुका है और देख रहा है। राष्ट्रमें नृशंसता भ्रष्टाचार, अत्याचार आदिका खुल्लमखुल्ला नंगा नाच होने लगना ही राज्यशक्तिका आततायी के हाथोंमें चले जानेका स्पष्ट प्रमाण है । जो राज्यसंस्था पापियोंको उचित दण्ड दिये बिना उनकी चाटूक्ति या उत्कोचसे वशमें जाने लगती, पापियोंकी चाटुकारिता करने लगती और निरपराध शान्तिप्रिय नागरिकोंको अपना व्यक्तिगत शत्रु बनाकर उन्हें दण्डित करने लगती है, वह राज्यसंस्था स्वयं ही पापी और आततायी होती है । वह राज्यसंस्था लूटका ही ठेका होती है । ऐसी राज्यसंस्थाके प्रभावक्षेत्र में प्रजापीडनकी महामारी फैले बिना नहीं रहती | सज्जन सताये जाने लगते और पापी शक्ति सिर उठा लेती है। उचित दण्डप्रयोगके बिना अराजकता फैल जाती और दुष्टोंके उत्साह बढ जाते हैं । राजा या राज्यधिकारी जानें कि दण्ड उनकी व्यक्तिगत आवश्यकता नहीं. है । दण्ड तो राष्ट्र में मात्स्य न्यायकी रुकावट बने रहनेके लिये राष्ट्रभर की आवश्यकता है । दण्डप्रयोगके बिना प्रजामें मात्स्यन्याय चलपडना अनि Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दण्डनीति प्रजाकी संरक्षक वार्य होजाता है । प्रजा जब राज्य संस्थावालोंको भी प्रजाका आखेट करता देखती है तब उसकी देखादेखी भापस में ही एक दूसरेका भाखेर करने लगती है। राजा स्वभावसे ही राष्टचरित्रका बादश बन जाता है। राजा समस्त प्रजाकी मांखों के सामने अनुकरणीय कानूनोंका रूप लंकर भाखडा होता है। राजाका पाप सहस्रगुण होकर प्रजापर बरसने लगता है। अधिक क्या कहें दण्डके अविवेक दुष्प्रयोग तथा डिलाईसे राज्य संस्था ही नष्ट भ्रष्ट होनाती है । राज्यों के अस्तित्व, दण्डनीतिके समुचित प्रयोगसे ही सुरक्षित रहते हैं। पापीको क्षमा मिलना या दण्ड न मिलपाना ही निरपराधोंको दण्ड मिलना होजाता है । पापीका रक्षण निरपराधका वध बन जाता है । जिस राज्यसंस्थामें पापियोंको क्षमा मिल जाती है, जो राज्यसंस्था पापियोंका बाल बांका करने में समर्थ होजाती है, मान लीजिये कि वह स्वयं ही माततायी बन गई है। पापीको क्षमा या अरण्ड ही राजाका आततायीपन है। पापको क्षमा मूढ लोगों की भ्रान्त दृष्टि में शिष्टता प्रतीत होनेपर भी विचक्षणोंकी दृष्टि में राजाका ही माततायीपन होता है। राष्ट्र में से पापको देशनिकाला देनेकी दृष्टि से पापीको क्षमा करना भयंकर राष्ट्रीय अपराध है। शिष्टरक्षा, अशिष्टदमन, राष्ट्रीय शान्तिरक्षा आदि सब दण्डका ही उत्तरदायित्व और माहात्म्य है । दण्डनाति या दण्डधर्ममें अपराधीको चाहे वह काली गाय ही क्यों न बनता हो, क्षमा करनेका कोई औचित्य नहीं है। इसलिये राज्यसंस्थाको शिष्टोंकी रक्षा, अशिष्टोंके दमन तथा राष्ट्रकी शान्तिरक्षाके लिये उचित दण्ड देनेवाली बनकर रहना चाहिये । राजनीतिके विद्यार्थी जाने कि अपराधीके प्रति नक्षमा शत्रुसे प्रतिशोधका अविस्मरण ये दोनों गुण राष्ट्रों की जीवनरक्षाके लिये अनिवार्यरूपसे भावश्यक हैं। कोई भी राष्ट्र किन्हीं अनुभवहीन मिथ्या उपदेशकों के उपदेशसे प्रभावित होकर अपनी दण्डनीतिको ढीला न करे । राष्ट्रग्ना नामक धर्मपालन के लिये शान्तिघातक पापी देशद्रोहियों को मिटा डालना राजाका राष्ट्रीय कर्तव्य है । उस समय विशाल राष्ट्र के व्यापक कल्याणकी दृष्टि से ये कठोर समझ हुए काम भी धर्मकी श्रेणी में माते हैं। Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि दण्डः शास्ति प्रजाः सर्वा दण्ड एवाभिरक्षति । दण्डः सुप्तेषु जागर्ति दण्डं धर्मं विदुर्बुधाः ॥ ( मनु ) दण्डनीति ही प्रजापर शासन करती और वही दुःसाहसियोंसे प्रजाकी रक्षा करती है । दण्ड सोते हुओं में भी जागता है । विद्वान् लोग दण्डको ही धर्म बताते हैं । पाठान्तर ७२ दण्डनीतिमनुतिष्ठन् प्रजाः संरक्षति । ( दण्डका माहात्म्य ) दण्डः सम्पदा योजयति ॥ ८० ॥ 1 दण्ड ही राजा या राजको समस्त संपत्तियों से युक्त बनाता है । विवरण - दण्ड न्यायका पर्यायवाची है । दण्ड हो न्याय है । प्रजा दण्डसे ही वशमें रहती है। प्रजाके राज्यसंस्था के वशमें रहने से ही संपत्तियें राजा के पास अहमहमिकया होड लगाकर भाने लगती हैं। राज्य में दण्डव्यवस्था न रहने से क्रय विक्रय, खान, भाकर, आयकर, तटकर, ऋणदान, ऋणादान, न्यायान्याय, घट्ट, हाट आदि आयके समस्त मार्ग रुक जाते और बड़े लोग छोटोको कुटकर खाने लगते हैं । तब देशमें उपद्रव खडे होजाते हैं । यही राज्यनाश या सम्पद्विनाशकी स्थिति बनजाती हैं । उचित दण्डव्यवस्था ही राष्ट्रको विनाशसे बचाती और राज्य तथा राष्ट्र दोनों को संपन्न बनाये रखती है । पाठान्तर - दण्डः सर्वसम्पदा योजयति । ( दण्डभाव से हानि ) दण्डाभावे मन्त्रिवर्गाभावः ।। ८१ ।। राज्य में दण्डनीतिके उपेक्षित होनेपर राजा सुमन्त्रियोंसे परित्यक्त हो ( कर कुमन्त्रियों के वशमें आ ) जाता है १ विवरण- देशविदेशसंबन्धी दण्डनीतिके सदुपयोग के लिये श्रेष्ठ विचक्षण मन्त्रियोंकी आवश्यकता होती है । दण्डकी उपेक्षा करनेवालोंको सुमन्त्रियों के स्थान में दुर्मन्त्रियोंकी भीड घेर लेती है । तब राजाकी स्वेच्छाचारिता बढकर राज्यको निर्मूल कर डालती है । Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दण्डाभावले हानि ७२. पाठान्तर-दण्डाभावे त्रिवर्गाभावः । गष्ट में दण्डव्यवस्थाका स्थान न रहने पर त्रिवर्ग अर्थात धर्म, अर्थ, काम तीनों आरक्षित होकर नष्ट होजाते हैं। दण्ड न होनेपर दुष्ट प्रबल होजाते हैं । तब प्रजाके त्रिवर्गके विनाशसे देश में हाहाकार मचजाता है । राजभिः कृतदण्डास्तु शुद्धयन्ति मलिना जनाः । कृतार्थाश्च ततो यान्ति स्वर्ग सुकृतिनो यथा ॥ पापी लोग राजाओंसे दण्ड पा पाकर शुद्ध होनेसे कृताय होकर पुण्याम्मा बनकर पुण्यात्माओं के समान ही स्वर्ग पाजाते हैं। अथवा-- 'क्षयः स्थानं च वृद्धिश त्रिवगों नीतिवेदिनाम् के अनुसार क्षय स्थिति तथा वृद्धि नीतिज्ञोंके त्रिवर्ग हैं । दण्डकी उचित व्यवस्था न रहनेपर न तो शत्रुक्षय होपाता है, न अपनी शक्तिकी भित्ति दृढ प्रतिष्ठित होती है. तथा न शकिकी ही वृद्धि होती है। इन तीनों के अभावका अवश्यंभावी परिणाम शत्रकी वृद्धि, अपनी शक्तिहानि तथा राज्यव्यवस्थाका उन्मूलन होता है। दगड ही राज्यव्यवस्थाकी आधारशिला है। दण्ड और न्याय पर्यायवाची शब्द हैं। जो दण्ड है वही न्याय है। जो न्याय है वही दण्ड है। अन्यायी दण्डव्यवस्था तो आसुरी संगठन है। असुरविनाश ही राष्ट्र धर्म है। वधोऽर्थग्रहणं चैव परिक्लेशस्तथैव च । इति दण्डविधान दण्डोऽपि त्रिविधः स्मृतः ।। दण्ड विधान के विशेषज्ञोंने प्राणदण्ड, अर्थदंड तथा ताडनादि भेदसे दण्डको तीन प्रकारका बताया है। राष्ट्रमें असुरविनाशिनी दण्डव्यवस्था न रहनेसे अष्टवर्गका विनाश हो जाता है। कृषिणिक्पथो दुर्गः सेतुः कुंजरबन्धनम् । खन्याकरबलादानं शून्यानां च विवेचनम् ॥ कृषि तथा हाटकी व्यवस्था, दुर्ग, सेतु, यात्रासाधन, खान, कोष, सैन्य. संग्रह तथा शून्य संपत्तियोंका विवेक ( अर्थात् उनका उपयोग तथा उनपर प्रजावर्गमेंसे किसीका स्वामित्वस्थापन ) यह राज्यका अष्टवर्ग कहाता है। Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ चाणक्यसूत्राणि ( दण्डके लाभ ) न दण्डादकार्याणि कुर्वन्ति ॥ ८२ ॥ अपगधशील लोग निग्रह,ताडन, वध तथा अर्थदण्डके भयसे विधानविरोधी नीतिहीन कार्योसे निवृत्त रहने लगते हैं। विवरण- पापशीलोंका दण्ड भय से पापसे निवृत्त रहना ही धर्मका गज कहाता है । क्योंकि धर्म ही धर्म, अर्थ और कामकी रक्षा करता है इसलिये धर्म ही त्रिवर्ग कहाता है। दण्डेन सहिता ोषा लोकरक्षणकारिका । ( महाभारत) राजशक्ति दण्डको अपने साथ रखकर ही लोकरक्षा करने में समर्थ होती है। दण्डः संरक्षते धर्म तथैवार्थ विधानतः । कामं संरक्षत यस्मात् त्रिवर्गो दण्ड उच्यते ॥ (महाभारत ) क्योंकि दण्ड ही धर्म, अर्थ तथा काम तीनों की रक्षा करता है इसलिये दण्ड ही त्रिवर्ग कहाता है। पाठान्तर- दण्डभयादकार्याणि न कुर्वन्ति । (दण्ड आत्मरक्षक) दंडनीत्यामायत्त मात्मरक्षणम् ।। ८३ ॥ दण्डनीतिको ठीक रखने पर ही आत्मरक्षा हो सकती है। जिलकी दण्डनीति अभ्रान्त होती है, उसीकी भारमरक्षा सुनिश्चित होती है । राजाका विपद्विजय केवल इसी बातपर निर्भर करता है कि उसकी दण्डप्रयोजक नीति क्या है और कैसी है ? प्रजाका कल्याण ही राजाका मात्मकल्याण तथा प्रजाकी रक्षा ही उसकी आत्मरक्षा है। प्रजाके कल्याणसे अलग राजाका कल्याण या उसकी रक्षासे अलग उसकी रक्षा नामकी कोई वस्तु नहीं है । प्रजाके अस्तित्व से अलग राजाका कोई अस्तित्व नहीं है। राजा प्रजाका ही प्रतीक है। राजा अपने राष्ट्रका सबसे पहला मुख्य नागरिक है। दूसरे शब्दों में प्रजा ही राजाका रूप ले लेती है और स्वयं ही अपना शासन या आरम Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजाकी आत्मरक्षाका राष्ट्रीय महत्त्व ७५ रक्षा करती है । राजा प्रजाके अनुमोदनसे ही राजा बनता है। यही कारण है कि प्रजाका अहित करनेवाले राजाका मिटजाना संसारकी अटल घटना है । जो राजा स्वेच्छाचारी बनकर राज पुरुषों की एक अलग शासक जाति बनानेकी भूल कर बठता है, वह निश्चय ही अपने ऋर हाथोंसे आत्महत्या कर लता है । इस दृष्टि से राजाको अपनी कर (टैक्स ) देनेवाली प्रजा, मन्त्री, पुरोहित, युवराज, सेनापति, द्वारपाल, कारागाराधिपति, कोषाध्यक्ष, कार्यनियोजक, दण्डपाल, दुर्गपाल, राष्ट्रपाल, अटवीपाल, गुप्तचर भादिपर अपना प्रभुत्व स्थिर रखते हुए तथा अपनी दण्डनीतिका यथायथ प्रभाव डालते हुए आत्मरक्षा करनी चाहिये। इन सबपर अपना प्रभाव बनाये रखना तथा इनमे से किसकिो भी अपने ऊपर प्रभाव स्थापित करनेवाला न बनने देना, राजाकी राजकीय प्रासादों में बैठकर करनेकी सुमहती तपस्या है। यह तपस्या ही उसकी दण्डनीति है । इसमें वह जहां कहीं भूल करता है वहीं मार खा बैठता और भक्षित होजाता है। (राजाकी आत्मरक्षाका राष्ट्रीय महत्त्व ) आत्मनि रक्षिते सर्व रक्षितं भवति ।। ८४ ।। राजाकी आत्मरक्षा रहनेपर ही समस्त राष्ट्र रक्षित रहता है। विवरण- राजा समस्त राष्ट्रको सदिच्छाओं तथा शक्तियों का मूर्त प्रतिनिधि होता है । उसपर प्रत्यक्ष माक्रमण होना राष्ट्र पर माक्रमण होना, उसका पराभूत होजाना राष्ट्रका पराभूत होना होजाता हैं । राजापर माक्रमण या उसका पराभव गष्ट की अवस्थाको रात्रिमें दीपकहीन घरके समान अन्धकारमय बनाडालता है। इसलिये राजा लोग, अपनी दण्डइस्ततासे अहंकाराभिभूत न बनें और दण्डनीतिका दुरुपयोग न करें। वे ऐसा करके प्रजाके शत्रु तथा दुराचारी स्वार्थी माततायियोंके मित्र न बनें और राज्यद्रोहरूपी बात्म द्रोह करके आत्मघात न करें। आत्मायत्तौ वृद्धिविनाशौ ॥ ८५ ।। मनुष्य के वृद्धि और विनाश अपने ही अधीन होते हैं । Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि विवरण- राष्ट्रको वृद्धि या समुच्छेद राजा प्रजा दोनोंकी योग्यता अयोग्यतापर निर्भर होते हैं । सुबुद्धिसे वृद्धि तथा कुबुद्धि से विनाश होता है। राजाके योग्य होनेपर ही राज्यका विस्तार होता तथा उसके नीतिहीन मद्यप, दुराचारी, व्यभिचारी, आखेटव्यसनी, जुआरी तथा निर्गुण होनेपर सुशासन न रहनेसे राज्यको निश्चित हानि होती है। ( दण्डप्रयोगमें सावधानता ) दण्डो हि विज्ञाने प्रीयते ।।६।। दण्डका प्रयोग समझकर किया जाना चाहिये। विवरण- दण्डका यथार्थ स्वरूप ही ऐसा है कि उसकी सम्यक मालोचना करनेपर सदसद्विचाररूपी ज्ञानमयो स्थिति अनिवार्यरूपसे प्रकट होती है। देखते हैं कि छोटे छोटे झगटे उच्च न्यायालयोतक पहुंचकर वहांके न्यायाधीशोंको चकरा देते हैं। वे किसे दण्ड दें यह समझने में असमर्थ रह जाते हैं । अपराधीका पकडा जाना तथा अपराध सिद्ध होना हंसी खेल नहीं है । इन सब दृष्टियोंसे दण्ड उत्तेजित होकर, किसी व्यक्ति, दल या संप्रदायसे प्रभावित होकर, या अपने किसी क्षुद्र स्वार्थकी भावनासे प्रेरित होकर प्रयोग करनेकी वस्तु नहीं है। दण्डका प्रयोग सक्ष्म विचार कर लेने पर ही उचित होता है। यदि दण्डको बाह्य प्रभावोंसे बचा लिया जाय तो वह स्वभावसे अभ्रान्त हो जाता है। पाठान्तर- दण्डनीत्यादि विज्ञाने प्रणीयते । दण्डनीतिका प्रयोग सापराध निरपराधका पूर्ण विवेक हो चुकनेपर ही किया जाना चाहिये । नीलकण्ठ भट्टने ' दण्डनीतिः प्रजापालन विद्या' दण्डनीतिको प्रजापालनकी विद्या नामसे कहा है। वास्तव में प्रजापालनकी विद्या ही दण्डनीति कहाती है । (राजाकी अवज्ञा राष्ट्रीय अपराध ) दुर्बलोपि राजा नावमन्तव्यः ।। ८७ ॥ राजाको दुर्बल साधारण मानवमात्र मानकर उसकी अवज्ञा न करे। Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजाकी योग्यताका प्रमाण ७७ विवरण- क्योंकि राजा अकेला ही समस्त प्रजाशक्तिका प्रतिनिधि होता है, इस कारण उसके अकेलेपन में समस्त प्रजाशक्ति स्वभावसे सम्मिलित रहती है। यही राजाका वास्तविक स्वरूप है । नास्त्यग्नेविल्यम् ॥ ८८॥ जेस आग कभी दुबल नही होती, जैसे उसका क्षुद्र भी विस्फुलिंग ईधनके संयोगसे महाग्नि बनकर विशाल वनों को फूंक डालनेका सामर्थ्य रखता है, इसीप्रकार जिन लोगोंमें राज्यश्री प्रकट होता है, वे क्षुद्रशक्ति दीखनेपर भी अपनी अन्तर्निहित संग्रथनात्मक शक्तियोंस जनताके सहयोगसे अनेक साधन पाकर प्रबल होकर अवमन्ताके लिये भयंकर बन जात है। विवरण- इसलिये राजशक्तिको थोडा मानकर उसे केवल व्यक्तिगत रूप में देखकर उपेक्षा करना उचित नहीं है । जो राजा प्रजासे अलग अपना व्यक्तित्व रखने की भल करके अपने क्षुद्र अनुयायियोंकी संकीण शासकजाति बना लेता है, वह स्वयं ही जनताकी उपेक्षाका पात्र बनजाता है। जब तक राजा प्रजाके साथ रहता है तब तक प्रजा भी उसके साथ लगी रहती है और उसे महाशक्ति बनाये रहती है । ( राजाकी योग्यताका प्रमाण ) दण्डे प्रतीयते वृत्तिः ॥ ८९ ॥ राजाकी वृत्ति ( अर्थात् सम्पूर्ण शासकीय योग्यता या विशे. पता) उसकी दण्डनीति ( अर्थात् उसकी प्रजापालनकी विद्या या कलामें या कला ) से प्रकट होती है। पाठान्तर-दण्डे प्रणीयते वृत्तिः। प्रजाकी वृत्ति ( अर्थात् प्रजाको जीवनयात्रा ) दुःसाहसी लोगोंपर न्यायदण्डका प्रयोग होते रहने पर ही ठीकठीक चलती है । देश में न्यायदण्डका अभाव हो जाने पर लोगों के पारस्परिक विवादोंसे जीविकाकी हानि Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि होकर लोकयात्रा रुक जाती है । तब प्रजा राजाके विरुद्ध विद्रोह करनेपर विवश होजाती है । ७८ ( राजचरित्र अर्थलाभका आधार ) वृत्तिमूलमर्थलाभः || ९० ॥ राज्यभीकी प्राप्ति राजाके चरित्रपर निर्भर होती है । विवरण --- राज्यैश्वर्य का लाभ चरित्रमूलक या दण्डनीति के उचित प्रयोगसे ही होता है । राजा प्रजा दोनोंका चरित्र ठीक होनेपर ही दण्डनीतिका उचित प्रयोग होता रहकर दोनोंको ऐश्वर्यलाभ होता है । चारित्रिक सुव्यवस्था या देश में मानसिक शान्ति और सदिच्छाओंके वातावरणके बिना ऐश्वर्यलाभ असम्भव है । राजशक्तिके भ्रष्टाचारी होजानेपर प्रजामें शान्ति, सौमनस्य, सदाचार धर्म आदिको प्रवृत्तियें न रहने या पैदा न की जानेसे धर्मकी और उसीके साथ अनिवार्य रूप से धनार्जनकी भी महती हानि होती है । प्रजाको जीवन के साधनोंके अप्राप्य होजानेसे विद्रोह तथा लोकक्षय होजाता है । राष्ट्रमें सुखशान्ति तथा समृद्धि रहने के लिये राजा प्रजा दोनों में धार्मिक प्रवृत्तियों का होना राष्ट्रके धनी होनेसे न्यून आवश्यक नहीं है । अधार्मिक राष्ट्रका बाह्यतः धनवान होना वास्तव में धार्मिक जनताकी दरिद्रताका द्योतक होता है। किसी अधार्मिक राष्ट्रके धनी होनेका अर्थ यह है कि वहां के धार्मिक लोग दरिद्र हैं । परन्तु धार्मिक लोगों की दरिद्रता राष्ट्रका अभिशाप है । इसलिये है कि राष्ट्रकी धार्मिक जनता ही वास्तव में राष्ट्रका सच्चा प्रतिनिधि है । राष्ट्रकी अधार्मिक जनता तो राष्ट्रकी शत्रु होती है प्रतिनिधि नहीं । वह स्वार्थवश होकर राष्ट्रकी हानिकी ओर से आंख मीचलेती हैं । इस कारण उसे राष्ट्र के नाम से सम्मानित न करके राष्ट्रद्रोही ही समझना चाहिये । अधर्म से उपार्जितधन देशके धार्मिकोंको सतानेवाला बन जाता है। धर्मअधर्मका यह देवासुर संग्राम आजका नहीं है । यह तो सदासे चला आ रहा है । अधर्मोपार्जित धनसे धनवान बनजानेवाले राष्ट्रके बाह्य दृष्टिसे धनवान बनजानेपर भी उस राष्ट्रकी आभ्यन्तरिक स्थितिमें राष्ट्रविप्लव के बीज वर्त - 4 Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म तथा कामका आधार ७२ मान रहते है और वे प्रजामें राष्ट्रनीति के प्रति असन्तोषका रूप लेकर रहते हैं । ये राष्टविप्लवके बीज अन्तमें राज्यको विध्वस्त करडालते हैं। अथवा- राजा प्रजा दोनोंका ऐश्वर्य प्रजाकी जीवनयात्राके अक्षुण्ण चलते रहने अर्थात् प्रजाके उपार्जनसाधनोंके निर्विघ्न बने रहनेपर ही निर्भर होता है। पाठान्तर- वृत्तिमूलोऽर्थलाभः । मर्थलाभ प्रजाको शान्त स्थितिपर निर्भर करता है। __(धर्म तथा कामका आधार ) अर्थमलौ धर्मकामौ ॥ ९१ ॥ (ऐहिक कर्तव्योंके पालनके साथ साथ मानसिक उत्कर्ष रूप ) धर्मका अनुष्ठान, तथा राष्ट्रकी कामनाओं (अर्थात् अभावों या आवश्यकताओं) की पूर्ति, राज्यश्वर्यकी स्थिरतापर ही निभर रहा करती हैं। विवरण- अर्थके बिना देशहितकारी कर्मों में दान तथा भोग नहीं होता। परन्तु इसका यह अर्थ न लिया जाय कि मनुष्य जिप्त किसी अभद्र उपायसे उपार्जन करे । इस प्रकारका धनोपार्जन मानवको अशुभ कर्मों में प्रवृत्त करके उसका सर्वनाश किये बिना नहीं मानता । इसीसे महाभारत में कहा है- “परित्यजेदर्थकामौ यो स्यातां धर्मवर्जितौ" मनुष्य उस अर्थ और उस काम या भोगको तिलांजलि देदे जो मानवधर्मके अनुरूप न हो, जो मनुष्यताकी हत्या कर दे । धर्म, अर्थ, कामका त्रिवर्ग समान भागमें पालित होनेपर ही राष्ट्रके लिये कल्याणकारी होता है । केवल धर्म, केवल अर्थ या केवल काम अव्यावहारिक तथा अन्तमें मानवको पछाड डालनेवाली प्रवत्ति हैं । ये तीनों एक दूसरेके अवध्यघातक अर्थात भाभिमबुद्धि से पाले जाते रहें, इसीमें मानवका कल्याण है। धर्म तथा कामके उपयोगमें माना ही भयंका अभिप्राय या उसकी सार्थकता है । अर्थ तथा काम धर्मके अनु. गामी होनेपर ही सार्थक होते हैं । अन्यथा अधर्मोपार्जित अर्थ तो अनर्थ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसुत्राणि बनजाता तथा अधर्मप्राप्त काम अनर्थोत्पादक होनेसे राष्ट्रका कोई अभाव पूरा न करके, उसे अभावग्रस्त मनुष्यताहीन तथा कंगाल बनाकर नष्ट कर देता है । ८० ( राष्ट्रीय कायाका आधार ) अर्थमूलं कार्यम् ।। ९२ ।। अर्थ कार्योंका मूल होता है । विवरण राज्यश्री ही राजशक्तिकी कर्मण्यताको संरक्षिका होती है । लौकिक काम भी साक्षात् या परम्परया धनधान्यदिसे ही निष्पन्न होते हैं । जैसे पर्वतसे नदियां निकल कर बढ़ने लगती हैं, इसी प्रकार प्रवृद्ध अर्थों से समस्त काम होने लगते हैं । यदल्पप्रयत्नात् कार्यसिद्धिर्भवति ॥ ९३ ॥ राज्यश्री पानेपर कार्य अल्प प्रयत्नसे सिद्ध हो जाते हैं । 1 विवरण - क्योंकि राजकाजकी सिद्धि तथा राज्यश्री एक दूसरे पर समानभाव से निर्भर होती हैं ( अर्थात् सुसंपन राजकार्योंसे तो राज्यश्री की प्राप्ति होती और राज्यश्री की प्राप्तिसे राजकाज सुसंपन्न होते हैं ) इस दृष्टि से अल्पप्रयत्नों से कार्य सिद्ध होने की बातका कोई अर्थ नहीं है । प्रयत्नमें अल्पता अधिकताका प्रश्न ही व्यर्थ है । कार्यसिद्धिमें उपायका ही प्रश्न उठता है । कार्य उपायोंकी अभ्रान्तता से ही सिद्ध होते हैं। उपाय अभ्रान्त होनेपर जितना प्रयत्न आवश्यक होता है, उतना करना ही पडता है और करना ही चाहिये | उतना प्रयत्न किये बिना कार्य सिद्ध नहीं होपाता । इसीलिये अगले सूत्रोंमें उपायका प्रसंग आरहा है । इस दृष्टिले अग्रिम पाठ ही प्रकरणसंगत है | यह पाठ महत्त्वहीन है । ( उपायका स्वरूप ) पाठान्तर-- यत्प्रयत्नात् कार्यसिद्धिर्भवति स उपायः । जिस प्रयत्नसे जो काम सिद्ध हो वही प्रयत्न उस कार्यका उपाय कहता है । Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपायसे कार्यमें सुकरता विवरण-- साम, दाम, दण्ड, भेद, माया, उपेक्षा तथा इन्द्रजाल नामक उपाय कार्यसिद्धि के परिस्थित्यनुपारी सात उपाय हैं। राजा लोग इनमेंसे कार्यसाधक उपायोंको ठीक ठीक पहचानें । उपायचिन्ता ही राज्यश्रीकी वृद्धि का एकमात्र कारण है । - सुवचन तथा सुन्यवहारसे दूसरोंको अनु. कूल बनाना 'साम' नामका ४पाय है । २- स्वाधिकृत द्रन्य दूसरेको देकर विनिमयमें उसकी अनुकूलता प्राप्त करना 'दाम' नामक उपाय माना जाता हैं। ३- शत्रुका धनप्राणहरण तथा ताडन 'दण्ड ' नामका उपाय है। ४शत्रुनों में परस्पर कलह पैदा करना 'भेद' नामका उपाय है। ५- जिह्म तथा अनृतले शत्रुकी प्रवंचना करना 'माया' नामका उपाय है । ६- शत्रुसे मसहयोग ' उपेक्षा ' नामका उपाय है । ७- शत्रुके विरुद्ध षड्यन्त्र 'इन्द्रजाल' नामका उपाय है। ( उपायसे कार्य में सुकरता ) उपायपूर्वं न दुष्करं स्यात् ॥ २४ ॥ कार्य उपायपूर्वक करनेसे दुष्कर नहीं रहता। विवरण- कार्य अव्यर्थ उपायका अवलम्बन कर नेपर सुगम हो जाता है। कतव्यमें दुष्करताका कोई अर्थ नहीं है। कर्तव्य सदा मानवीय साम. ८4 के अधीन होता है। जो ऐसा नहीं होता वह कर्तव्य नहीं होता। दुष्कर समझे हुए कर्तव्य का अर्थ उसे करने के लिये प्रस्तुत न होना या कर्तव्यभ्रष्टता ही होता है। किसी कर्तव्य के लिये प्रस्तुत न होना ही उसकी कठिन. नाका रूप होता है । ज्यों ही मनुष्य किसी कर्तव्य के लिये उद्यत होता है त्यों ही कर्तव्यसंपादक साधन अनिवार्य रूपसे संगृहीत हो जाते हैं । कम्यमानके विघ्नको हटाने को अनिच्छा ही कठिनता बन जाती है। कठिनताके प्रति कठोर होते ही कठिनता सु झरनामें परिणत हो जाती है । सचे लोगों का हार्दिक संबन्ध कर्तव्य के बाह्य रूप से न होकर केवल उस के निश्चः यात्मक रूपके साथ होता है । कर्तव्य के बाहः भातिक रूपका कर्तव्यको Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ चाणक्यसूत्राणि परिभाषाके साथ कोई सम्बन्ध नहीं होता । कभी कभी ऐसा भी होता है कि मनुष्य कतव्यको बाह्यरूप देने में असमर्थ रह जाता है। परन्तु कर्तव्यको मानसिक रूप प्राप्त होते ही कर्तव्य साकार हो जाता है। कर्तव्यको बाह्यरूप मिलना प्राकृतिक स्वीकृति पर निर्भर होता है । ज्ञानी तो कर्तब्यके माभ्यन्तरिक रूपको ही मुख्यता देता है। मनुष्यको निश्चयात्मिका बुद्धि हो कर्तव्य तथा कर्तव्य क्षेत्र होती है। मनुष्य के पास निश्चयात्मिका बुद्धिका न होना ही कर्तन्यकी कठिनताका यथार्थरूप होता है । मानवमें निश्चया. रिमका बुद्धिका प्रकट हो जाना ही कर्तव्यकी सुगमता है। ___ मनुष्य काँमें या तो स्वार्थ या कर्तव्यबुद्धि दो ही बातोंसे प्रवृत्त होता है। इनमेंसे मूर्ख संसारका बहुमत केवल स्वार्थ से कर्म करता है और उपा. योंके गर्हित गर्दितपनेपर कोई ध्यान नहीं देता। परन्तु विचारसम्पन्न लोग करुणा भादि उदात्त मानवीय गुणोंसे प्रेरणा पा पाकर कर्तव्यबुद्धिसे कर्म किया करते और उपायशुद्धिपर अपना संपूर्ण ध्यान केन्द्रित रखते हैं । वे कामकी सफलताको इतना महत्व नहीं देते जितना उपायोंकी साधुताको देते हैं । वे तो प्राप्त साधनोंके सदुपयोगको ही सफलता मानते हैं । पाठान्तर--- उपायपूर्व कार्य न दुष्करं स्यात् । ( अनुपायसे कार्यनाश ) अनुपायपूर्व कार्यं कृतमपि विनश्यति ॥ ९५ ।। पहिले उपाय स्थिर किये बिना प्रारंभ किये हुए कार्य नष्ट हो जाते हैं। विवरण- उपस्थित कर्तव्य में कौनसे साधन या उपाय उपयुक्त होंगे? इसका निणय तभो होसकता है, जब पहले तात्कालिक कर्तव्यके सम्बन्धमें निश्चयात्मिका बुद्धि बन चुकी हो । कर्तव्य की भ्रान्ति ही कर्तव्य कराती है । कर्तब्यके सम्बन्ध में अन्धेरे में रहकर कर्तव्य नहीं किया जा सकता। अपने कर्तव्यको ज्ञाननेत्रसे स्पष्ट देखनेवाला ही कर्तव्य कर सकता है। भकर्तव्य करना और कर्तव्य त्यागना ही स्वीकृत कर्तव्यकं नष्ट होने का Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन में उपायका महत्त्व ८3 स्वरूप है । कर्तव्यनाश यही कहाता है कि मनुष्य कर्तव्यको तो त्याग दे और अकर्तव्य करने लगे। कर्तव्यसे भ्रष्ट होकर जो भी कुछ किया जाता है वह निष्फल ही होता है। सच्चे कर्तव्यमें निष्फलता नामकी कोई स्थिति संभव नहीं है । कर्तव्यको यह कैसी महत्वपूर्ण स्थिति है कि कर्तव्य स्वयं ही सफलता है। सरचे कर्तव्यशील लोग कर्तव्यके फल से न बंधकर, इसके फलके मिलने न मिलने के सम्बन्धमें उदासीन रहकर, कर्तव्यपाल. नको ही कर्तव्यका फल मानकर और उसी में अपना जीवनसाफल्य जानकर, उसे अपना पूर्ण मनोयोग देकर करते हैं। कर्तव्यशील लोगों की अचूक सफलताका यही रूप होता है । ( जीवन में उपायका महत्त्व ) कार्यार्थिनामुपाय एव सहायः ।। ९.६ ॥ उपाय ही कार्यार्थियोंका सच्चा सहायक होता है। विवरण- उपाय कार्यार्थियोंको दसों दिशाओं में सुरक्षित रखनेवाला तथा शत्रपर विजय पानेकी योग्यता देनेवाला, सञ्चा बल या साथी है। कर्तन्यशील लोग कार्यकी आवश्यकताके अनुसार अपनी निश्चयात्मिका बुद्धिसे सामादि उपयुक्त साधनोंका निर्णय करके अपनी विजय के सम्बन्धमें निःसन्दिग्ध, विजयोत्साह से शक्तिमान तथा अनुकूल प्रतिकूल फलोंके प्रति निरपेक्ष होकर अपने भापको कर्तव्यमें झोंक देते हैं । इसलिये कार्यार्थी लोग सिद्धि तब ही पा सकते हैं जब वे कार्योपयोगी उपायोंको अभ्रान्त रीतिसे सोचकर कर्तव्यपालनके सन्तोषरूपी सिन्द्रिको पहलेसे ही अपनी मुट्ठीमें लेकर ( अर्थात् सिद्धि असिद्धि में निरपेक्ष रहनेवाली पूर्णतामयो स्थितिमें रहकर) ही कर्ममें प्रवृत्त हों। वे सिद्धि पानेका यह मावश्यक रहस्यमय सिद्धान्त कभी न भूलें कि सिद्धियां सिद्धों को ही प्राप्त हुआ करती हैं । सिद्धियां अपनेको मसिद्ध माननेवालोंके गले में जयमाला कमी नहीं डालतीं । भारवि कविने ठीक ही कहा है Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि यशोधिगन्तुं सुखलिप्सया वा मनुष्यसंख्यामतिवर्तितुं वा । निरुत्सुकानामभियोगभाजां समुत्सुके वाइकमुपैति सिद्धिः ॥ (१) सफलतायें या तो यशस्वी बनने, (२) भौतिक सुख पाने, या (३) श्रेष्टतम मनुष्य बनजाने के लिये फलसिद्धि के संबन्धमें किसी भी प्रकारकी उत्सुकता न रखकर तन्मय होकर कर्तव्यपालनमें जुट पडनेवाले लोगोंकी गोदों में उत्सुक होकर स्वयमेव माविराजती हैं। ( कर्तव्यपालन ही जीवन का लक्ष्य ) कार्य पुरुषकारेण लक्ष्यं सम्पद्यते ॥१७॥ कार्य पुरुषकारमें आजाने ( अर्थात् कर्तव्यरूपमें स्वीकृत हो चुकने ) के पश्चात् लक्ष्य बन जाता (अर्थात् फलका स्थान लेकर फलको गौणपक्षमें डाल देता या स्वयं ही मुख्य फल बन जाता ) है। विवरण- कर्तव्यको सुसंपन्न करलेना ही कर्तव्यनिष्ठ लोगों का मुख्य ध्येय बन जाता और परिणाम प्रधानपक्षमें चला जाता है। जब मनुष्य इस भावनाके साथ कर्तव्यपालनका सन्तोष उपार्जन करलेता है तब अपनेको इतनेसे ही कृतकृत्य मानलेता है । इसके अतिरिक्त कर्तव्य समाप्त होने पर भनिश्चित रूपमें कभी भाने और कभी न भानेवाले भौतिक फलकी दैन्य. जनक आकांक्षा उसके पूर्णकाम हृदयको अभावग्रस्त और प्रतीक्षक नहीं बनापाती। कर्तव्यमें उद्यम उत्साह अध्यवसाय होनेपर ही कार्य बनता है । कार्य पुरुषार्थ होके अनुसार संपन्न होता है। पुरुषार्थ के बिना किसीको कुछ पानेकी माशा करनेका कोई वैध अधिकार नहीं है। जिस काममें जितनी शक्ति व्यय करनी भावश्यक हो उतनी अवश्य करना ही पुरुषार्थ कहाता है। इस सूत्रमें वर्तमान पुरुषार्थ को ही उपादेय बताया गया है । नीतिज्ञोंने कहा है--- “ देवं निहत्य कुरु पौरुषमा मशवस्या" ओ मानव, तू दैवका हनन Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मोत्तरकाल देवका क्षेत्र ". " अर्थात उपेक्षा करके आत्मशक्ति से पुरुषार्थ कर । न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगाः | मृग सोते सिंहकी भूक मिटानेके लिये उसके मुंहमें स्वयं नहीं घुसते । यद्यपि प्राकृतिक प्रबन्धने उन्हें उसके लिये नियत कर रखा होता है तो भी उसे उन्हें भोज्यरूपमें पानेके लिये हाथपैर मारने ही पडते हैं । शिवमौपयिकं गरीयसीं फलनिष्पत्तिमदूषितायतीम् । विगणय्य नयन्ति पौरुषं विजितक्रोधरया जिगीषवः ॥ ८५ क्रोधावेशपर विजय पालेनेवाले स्थिरचित्तलोग भविष्य में निश्चित विजय दिलानेवाली नैराश्यहीन महत्वपूर्ण सफलताको अपनी मुट्ठीमें भा - चुकी हुई मानकर कल्याणकारी उपायोंको पुरुषार्थका रूप देदेते अर्थात् - उन्हें कार्यरूप में परिणत करदेते हैं । ( पुरुषार्थ की प्रबलता ) पुरुषकार मनुवर्तते देवम् ॥ ९८ ॥ है दैव पुरुषार्थके पीछे चलता 1 विवरण -- दैवके भरोसेपर कर्तव्य निर्णय नहीं होता । कर्तव्यपालनमें देवका कोई स्थान नहीं है। मनुष्यको दैवको दृष्टिसे बाहर रखकर ही पुरुषार्थ करना पडता है | पुरुषार्थ ही मुख्य है । देव गाँण है। जो करना है वह पुरुषार्थ है, जो करचुके वह देव है । मनुष्यका वर्तमान से संबन्ध है । भूतके साथ उसका निर्भरताका संबन्ध नहीं है । ( कर्मका उत्तरकाल देवका अधिकार क्षेत्र है, कर्मकाल नहीं ) देवं विनातिप्रयत्नं करोति यत्तद्विफलम् ॥९९॥ दैव अर्थात् भाग्यकी अनुकूलताके बिना उत्तम रीति से किया हुआ कर्तव्य भी भौतिक फलसे रहित होता है । विवरण - भाग्यको अनुकूलता के भरोसेपर रहा जाय तो कर्तव्य प्रारंभ ही नहीं किया जासकता । यदि भाग्यकी अनुकूलतासे भौतिक सफलता Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ चाणक्यसूत्राणि 1 तथा प्रतिकूलता से निष्फलता निश्चित होजाय तो कर्म करनेकी भावश्यकता ही न रहे। इस दृष्टिसे मनुष्यकी दैवाश्रितता पुरुषकारका विरोध करती है । पुरुषार्थ से कर्तव्य करना भवितव्यताकी उपेक्षा करके ही संभव होता है । भविष्यकालीन भौतिक सफलता, विफलता मनुष्यबुद्धि के लिये अज्ञेय होती है। भौतिक सफलता विफलता के साथ मानवजीवन के जयपराजयका कोई सम्बन्ध नहीं है । भौतिक सफलता विफलता दोनों में से कोई भी हो प्रत्येक परिस्थितिमें विजयी जीवन बिताते रहना मानवजीवनका लक्ष्य है । अनेकवार पुरुषार्थ होनेपर भी कार्य सिद्ध नहीं होते। इसी कारण गीता देवको कार्यके पांच कारणोंमेंसे एक कहा है 1 अधिष्ठानं तथा कर्ता करणं च पृथग्विधम् । विविधाश्च पृथक् चेष्टा दैवं चैवात्र पंचमम् ॥ ( १ ) आधारस्थान, ( २ ) कर्ता, (३) भिन्न भिन्न कारण, ( ४ ) नाना प्रकारके पृथक् पृथक् व्यापार, तथा ( ५ ) दैव ये पांच कारण शारीर, वाचिक तथा मानस कमोंके कारण होते हैं। चाणक्य जो कहना चाहते हैं वह यह है कि मनुष्य कर्मके प्रारम्भ में देवाश्रित न हो । यदि वह प्रारंभ में ही देवाश्रित हो जाय तो कर्म प्रारंभ ही नहीं हो सकता । यह आवश्यक है कि मनुष्य कर्मको प्रारंभ करते समय देव अर्थात् अनिवार्य भौतिक प्रतिकूलता अनुकूलताकी उपेक्षा करे । जब कर्म प्रारंभ कर देने पर तथा समस्त बुद्धिवैभव व्यय करदेनेपर भी काम न हो तब देव अर्थात् भौतिक परिस्थितिकी प्रतिकूलताको कारण माने और उसे अपनो निष्फलता समझकर दुःखी न हो । मनुष्य पुरुषार्थ करने से पहिले दैवको न माने या उसपर ध्यान न दे । पुरुषार्थ समाप्त हो चुकने के अनन्तर दैवका अधिकार होता है। कर्म प्रारंभ करनेसे पहिले दैवके विचा का कोई प्रसंग नहीं है । कर्मकी प्रारंभावस्था में दैवका विचार करनेसे मनुष्य भाग्य भरोसे, दीन और अनुत्साही होकर नष्ट होजाता है। कर्मके Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विलम्बकारित्व कार्यका दूषण प्रारंभ में पुरुषार्थका काम है। कर्म करचुकनेपर वह दैवके अंधेरे क्षेत्र में चलाजाता है । ८७ ( अव्यवस्थित चित्तताकी हानि ) असमाहितस्य वृत्तिर्न विद्यते ॥ १०० ॥ अव्यवस्थित चित्तवाले पुरुषके पास वृत्ति ( अर्थात् सद्वृत्ति अर्थात् सद्व्यवहार करानेवाली सद्भावना ) नहीं रहती । अनीह मानस्य वृत्तिर्न विद्यते । पाठान्तर देवाश्रित होकर निश्चेष्ट बैठे रहनेवाले के पास जीवनयात्रा के साधनोंका अभाव होजाता है । विवरण -- अष्टमान अनुद्योगीका जीवन व्यर्थताका क्रीडाक्षेत्र बन जाता है । वह पाठान्तर प्रकरणानुकूल है । ( कर्तव्यतानिश्चय से अनन्तर कार्यारम्भ ) पर्व निश्चित्य पश्चात् कार्यमारभेत् ॥ १०१ ॥ कार्यारम्भ करने से पहले उसकी अनिवार्यकर्तव्यता, उसके फलाफल, उसकी नीति तथा उपायके सम्बन्ध में अभ्रान्त होकर पीछसे काममें हाथ डालना चाहिये | (6 विवरण - सोचकर करना चाहिये । करके सोचनेकी स्थिति पश्चात्ताप भरी निष्फल स्थिति है । अविचारितकार्येषु प्रमादाः सम्पतन्ति हि । विना विचारे कार्यों में प्रमाद तथा प्रमादसे उत्पन्न होनेवाली विपत्तियां अनिवार्य रूप से बाखडी होती हैं । इसलिये पहले कर्मसंबद्ध समस्त सामग्रियों तथा चिन्ताओंका संकलन करके तत्र काम प्रारंभ करना चाहिये । ( विलम्बकारिता कार्यका दूषण ) कार्यान्तरे दीर्घसूचिता न कर्तव्या ॥ १०२ ॥ " कर्मके मध्य में कर्तव्यभ्रष्टतारूपी या अतिविलम्बकारितारूपी दीर्घसूत्रता न करनी चाहिये । विवरण - कर्तव्यको लम्बा करना या " अभी शीघ्रता क्या है 31 Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि इस बुद्धि से कर्तव्य के मध्य में कर्तग्यान्तर छेडना या भाल स्यके दुष्ट भोगके लिये कर्तव्यको स्थगित रखना दीर्घसूत्रता है। घण्टेभरके काममें दिनभर जितना समय न लगाना चाहिये । जब मनुष्य कर्तव्यको कर्तव्य नहीं सम. झता तब उसमें कर्तव्यभ्रष्ट रहने तथा उसे अति विलम्बसे करनेका दोष भाजाता है। नालसाः प्राप्नुवन्त्यर्थान् न शठा न च मानिनः । न च लोकरवाद् भीता न व ः श्वः प्रतीक्षकाः ।। आलसी, दीर्घसूत्री, शठ, मानी, लोकरवसे भयभीत तथा कल कलक प्रतीक्षामें कर्तव्यका समय खोनेवालोंके काम सिद्ध नहीं हुक्षा करते । (चवलचित्तताकी हानि ) न चलचित्तस्य कार्यावाप्तिः ।।१०३ ॥ चलचित्त ( अर्थात् अस्थिर, अदृद्ध मनवाले आदर्शहीन लक्ष्य भ्रष्ट) व्यक्तिके काम पूरे नहीं हुआ करते। विवरण- मनकी मस्थिरता, अदृढता, आदर्शहीनता, तथा लक्ष्यभ्रष्टतासे कार्योंका मध्य में ही व्याघात होकर कर्मफल अप्राप्त रहजाता है। समस्त कार्य मनके स्थिर होनेसे ही सुसंपन्न होते हैं। मनकी स्थिरतासे बुद्धिका विकास और उससे कार्य में दक्षता प्राप्त होती है। पधित्रता ही मनकी स्थिरता तथा अपवित्रता ही मनकी अस्थिरता है। मनको तत्वज्ञानसे परिचित रखना ही उसकी स्थिरताका एकमात्र उपाय है। गीताके शब्दों में न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते"। इस संसार में तत्वज्ञानसा पवित्र कुछ भी नहीं है। जीवन में से आरोपित वस्तुओंका बन्धन हटकर अनारोपित वस्तुका परिज्ञान होजाना ही तत्वज्ञान है । ( प्राप्त साधनोंके अनुपयोगसे हानि ) हस्तगतावमाननात कार्यव्यतिक्रमो भवति ॥ १०४ ।। हाथके साधनोंका सदुपयोग न करनेसे कार्यका नाश हो जाता है। Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्दोष कर्मोकी दुर्लभता विवरण- कार्यसिद्धि में प्राप्त माधनोंके सदुपयोगका जो महत्वपूर्ण स्थान है उसे ठीक ठीक समझना चाहिये । संसारके मूह लोग प्रायः कार्यसिद्धि के लिये अप्राप्त साधनों के पीछे तो भटकते हैं, परन्तु प्राप्त साधनोंके मूल्यको नहीं मांकते और उन्हें अनुपयुक्त पडा रहने देते हैं। कार्य कभी भी प्राप्त साधनोंके सदुपयोगके बिना सिद्ध नहीं होता। कार्य हाथ लगे साधनोंकी अवज्ञा, मनवधान, हेयबुद्धि, महत्वहीनताकी कल्पना सादि दोषों के कारण जैसा चाहिये वैसा नहीं होपाता । इसलिये मनुष्य काय हाथमें आते ही सबसे पहले मनको प्राप्त साधनोंके सदुपयोगमें अवहित करे तथा परिणाम निकलनेका समय आनेतक उसमें केन्द्रित रकम् । पाठान्तर- हस्तगतावमानात् कार्यव्यतिक्रमो भवति । (निदोष कर्मोकी दुर्लभता ) दोषवर्जितानि कार्याणि दुर्लभानि ॥ १०५॥ संसारमें निर्दोष कार्य विरल होते हैं। विवरण- संसार में निदोष ( अर्थात व्यक्तिगत क्षुद स्वार्थरहित तथा सार्वजनिक कल्याणमें अपना कल्याण देखने की भावनासे किये जानेवाले ) काँका प्रायः अभाव पाया जाता है। यदि समाजमें निदोष कर्म करनेवाली आखें खुल जाय तो उसमें सुखसंपत्तिकी मन्दाकिनी बहने लगे। प्रायः सारा ही संसार स्वार्थबुद्धिसे कलुषित होकर भचिन्ता तथा अविचारसे काम करता है । इसीलिये समाज में सुखोत्पत्ति न होकर दुःखोंकी ही उत्पत्ति हो जाती है । लोग अपनी क्षुद्र भापात दृष्टिकं कारण व्यक्तिगत स्वार्थोंके ही पीछे दौडते हैं। वे अपने अकल्याणमें प्रवृत्त होकर सच्चे कल्याणके सम्बन्धमें अंधे बने रहते हैं । संसारका बहुमत करके पछतानेवालोंका है । परन्तु सोचकर करनेवालोंका संसारमें प्रायः अभाव है। मनुष्यकी इसी टिसे संसारमें निदोष कर्म विरल होगये हैं। यदि मनुष्य सोचकर काम करे तो उसके काँका निदोष होना असंभव नहीं है । निर्दोर कर्तव्य कर. नेमें ही मनुष्य की मनुष्यताको सुरक्षा और समाजका सा कल्याण हो सकता है। Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि ( अशुभ परिणामी कर्म अकर्तव्य ) दुरनुबन्धं कार्यं नारभेत ।। १०६ ॥ मनुष्य निश्चित शुभ परिणाम न रखनेवाले कार्योंमें हाथ न डाले। विवरण- इसका अर्थ यह हुमा कि मनुष्य काम छेडनेसे पहिले उसकी सार्वजनिककल्याणकारिता, सत्यनुमोदितता, अनिवार्यकर्तब्यता, गुणागुण, श्रेष्ठता, दुष्टता, हानि. लाभ, यश अपयश आदि समस्त दृष्टिकोणोंपर माद्योपान्त पूरा विचार करले । यदि वह कार्य इस परीक्षामें दुग्नुबन्ध अर्थात् अशुभमिश्रित सिद्ध हो तो उसे निश्रित अशुभ समझ. कर ही नहीं अपनाना चाहिये । मनुष्य यह जाने कि उपके पाम आनेवाले समम्त काम करनेके ही लिये नहीं माते । उनमेंसे कुछ अस्वीकृत होनेके लिये भी भाते हैं। मनुष्यके पास कुछ काम ऐसे भी माते हैं जिन्हें त्यागने में ही उसका कल्याण होता है। अकल्याणकारी कर्तव्यों को त्यागना भी कर्तव्य ही होता है। ( कार्यसिद्धिमें अनुकूल समयका माहात्म्य ) कालवित कार्य साधयेत् ।। १०७ ।। अनुकूल समय ( अनुकूल परिस्थिति ) का पहचाननेवाला अपना काम अनायास वनालेता है। दशं कालं तथात्मानं द्रव्यं द्रव्यप्रयोजनम् । उपपत्तिमवस्थां च ज्ञात्वा कार्य समारभेत ॥ मनुष्य देश, काल, आत्मशक्ति, द्रव्य तथा उसका उपयोग, उपाय और अवस्थाको जानकर कम करे कः कालः कानि मित्राणि को देशः को व्ययागमौ। इति संचिन्त्य कर्माणि प्राज्ञः कुर्वीत वा न वा ॥ बुद्धिमान् पुरुष क्या समय है? कितने सहायक हैं ? क्या परिस्थिति है ? Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्यकाल टलनेका दुष्परिणाम आयव्यय कितना है ? ये सब बातें सोचकर अपनी शक्तिमें समझे तो करे न समझे तो न करे । कामका भी एक समय होता है । जैसे प्रत्येक मिट्टीसे पात्र नहीं बनते इसी प्रकार प्रस्यक समय प्रत्येक काम नहीं होते। कार्योपयोगी समय मा जानेपर ही कार्य होता है। वह कार्यके उचित समयको पहचाननेसे ही सिद्ध होता है। कार्यका समय बीत जानेसे करना निष्फल हो जाता है। कार्यसिद्धि में कार्य के उचित समयको पहचाननेका बहुत बड़ा महत्व है। पाठान्तर- देशकालवित् कार्य साधयति । अनुकूल काल तथा अनुकूल देश अर्थात् परिस्थितिको ... शेष अर्थ समान है। ( कार्यकाल टलनेका दुष्परिणाम ) कालातिक्रमात काल एव फलं पिबति ॥१०८॥ कर्तव्यका काल टल जानेसे काल ही उसकी सफलताको चाट जाता है। विवरण- कर्तव्य जिस समझ मूझता है, वही उसका उचित काल होता है। उससे अच्छा उसका और कोई समय संभव नहीं है। सृष्टिको व्यवस्था ही ऐसी है कि कर्तव्य उचित समयपर उसीको सूझता है, जिसका वह कर्तव्य होता और जिसे उसे अपने पूर्ण उत्तरदायित्वमें लेकर करना चाहिये । कर्तव्य के उचित समयको टालदेना उसके फलको नष्ट करडालना हो जाता है । सूझके समय ही कर्तव्यको करना चाहिये । उसे न तो फिरके लिये टालना चाहिये और न उसे कर्तव्यहीन मनुष्यके कंधोंका बोझा बनाकर उनसे उसे बिगडवाना चाहिये । कर्तव्यको फिरके लिये टाल नेसे फिर के लिये उपस्थित कर्म उस स्थगित कर्मको नहीं होने देते । आदानस्य प्रदानस्य कर्तव्यस्य च कर्मणः । क्षिप्रमक्रियमाणस्य कालः पिबति तद्रसम् ॥ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि लेना देना और कर्तव्य तुरन्त न किये जांय तो तो काल ही इनका रस पी जाता है । टके हुए कर्तव्य कर्तव्य ही नहीं रहते । कर्तव्यका देश तथा काल से अनिवार्य संबन्ध है । देश तथा काल परिवर्तित होते ही कर्तव्य भी अपना रूप बदल देता या नष्ट कर लेता है । पाठान्तर -- कालातिक्रमात् काल एवं तत्फलं पिबति । ( कर्तव्यपालन में विलम्ब अकर्तव्य ) क्षणं प्रति कालविक्षेपं न कुर्यात सर्वकृत्येषु ॥ १०९ ॥ ९२ मनुष्य किसी भी निश्चित कर्तव्य में क्षणमात्रका भी विलम्ब न करें । पाठान्तर--- क्षणं प्रति कालस्वरूपं दर्शयति कालकृतेषु ॥ ठीक समयपर किये कर्तव्योंकी सफलता, मनुष्यको दिखा देती है कि यह काम जिस क्षण में किया गया है वही इसका सर्वोत्तम काल था । कार्यके उचित समयको पहचानना ही मनुष्य के सीखनेकी सर्वोत्तम कला है । ( कार्य प्रारम्भ करनेमें ज्ञेयतत्व ) देशफलविभागों ज्ञात्वा कार्यमारभेत् ।। ११० ॥ मनुष्य परिस्थिति तथा सफलताकी संभावना दोनोंको पूर्ण रूपसे समझकर काम करे । अधिक सूत्र - देशे काले च कृतं फलवत् । कमोपयोगी परिस्थिति तथा उपयुक्त कालम किये काम ही सफल होते हैं । विवरण - कामकी उपयुक्त परिस्थिति समय तथा योग्य कर्ताको ढूंढ निकालना कार्यसिद्धिका मुख्य कारण है। सूत्र के चकार सूचित होता है कि कार्य के सम्बन्ध में पात्र ( कर्ता ) का विवेक करना भी आवश्यक है : Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विपरीत परिस्थितिमें कार्य करनेसे हानि योग्य व्यक्ति कर्मको करे तो वह सफल होता है। उसी कामको अयोग्य व्यक्ति कर तो धसका सफल होना निश्चित हो जाता है। योग्यको ही काममें लगाना तथा योग्यको ही दान करना सफल होता है । दान करने के समय तथा दानके योग्य पात्रको पहचान लेने पर ही दानको सफलता निर्भर करती है ! जो जिस वस्तुको पानेका वास्तविक अधिकारी है वही उस वस्तुको पानेका सच्चा पात्र भी है। देय वस्तु दानका सच्चा अधिकारी न मिलनेतक दाताके पास धरोहरके रूपमें रहती है। दानी उसे योग्य पात्रको देकर उसपर कोई कृपा नहीं करता, किन्तु उसकी धरोहर लौटाकर स्वयं ही ऋणमुक हो जाता है । इस तस्वको समझकर दिये हुए दानका अपूर्व महत्व है। (विपरीत परिस्थितिमें कार्य करनेसे हानि ) देवहीनं कार्य सुसाधमपि दुःसाधं भवति ॥१११ ॥ देवकी प्रतिकूलता होनेपर सुखसाध्य कर्तव्य भी दुःसाध्य दीखन लगते हैं। विवरण- परन्तु पुरुषार्थी मनुष्यको कर्मकी दुःपाध्यता अर्थात् भौतिकसाधनहीनता देखकर निराश न होकर अपने प्रबल पुरुषार्थ से उस कर्मको साध्यकोटि में लाना है। पुरुषार्थ के सामने दुःसाध्यता नाम की कोई वस्तु नहीं है । पुरुषार्थ से मनुष्योंने दुलंध्य पर्वतोंको मार्ग देने तथा दुस्तर समुद्रोंको अपने ऊपरसे जाने देने के लिये विवश किया है। लोग प्रायः प्रवाहपातित होकर चलने वाले होते हैं । स्वयं मार्गनिर्धारण करना बहुत न्यून लोग जानते हैं। लोग पसारी प्रबाहके विरुद्र चलने को ही दुःसाध्यता तथा प्रवाह के साथ चलने को सुनाध्य ना मानते हैं । परन्तु पुरुषार्थीकी स्थिति इनसे निराली है। उसके सामने सब समय यही विचार उपस्थित होता रहता है कि क्या जो हो रहा है, उसी के पीछे चलना मेरा कर्तव्य है ? या जो होना चाहिये उसीको करना मेरा कर्तव्य है ? पुरुषार्थी की दृष्टि में प्रवाहके Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि पीछे चलनेमें कोई पुरुषार्थ नहीं है । उसे तो कर्तव्याकर्तव्य विचार के द्वार जो कि एक सच्चे मनुष्यको करना चाहिये उसे करने में ही अपना कर्त्तापन तथा कर्तव्यपालनका सन्तोष दीखता है। उसे तो जिस काममें सन्तोष मिलता है वही उसके लिये सुसाध्य तथा जिसमें असन्तोष दीखता है वही उसके लिये दुःसाध्य होता है । देवाधीन रहनेसे तो कर्तव्य दुःसाध्य हो हो जाता है तथा पुरुषार्थपरायण रहनेसे कर्तव्य सुसाध्य बनजाता है । देवाधीन रहने में कर्तव्यभ्रष्टता होती है और कर्तव्यको त्यागनेमें सुसाध्यताकी भ्रान्ति होती है। इस भ्रान्तिके विरुद्ध मानवीय पुरुषार्थको जगाये रखना ही इस सूत्रका अभिप्राय है। सूत्रकार स्पष्ट भाषामें कह रहे हैं कि मनुष्य देवाधी. नतारूपी निकम्मेपनसे बचे । देवाधीनता भयंकर अभिशाप है। पाठान्तर- देशकालविहीन ......... । योग्य परिस्थिति, योग्यकाल तथा योग्यकर्तासे हीन कार्य अनायास साध्य दीखनेपर भी कष्ट साध्य तथा असाध्य होजाते हैं । ( कर्ममें देशकालकी परीक्षा कर्तव्य । नीतिज्ञो देशकालो परीक्षेत ॥ ११२॥ नीतिज्ञ अर्थात् व्यवहारकुशल मनुष्य परिस्थिति और अवसर दोनोंका पूर्ण परिचय पाकर काम करे । विवरण- वह परिस्थिति तथा उपयोगी कालको बिना पहचाने काम न करे । कर्ताके पास कर्तन्यकी संपूर्ण विवेचना ( साधन क्रम माआदिका पूर्ण परिचय ) होनी चाहिये कि यह काम अमुक समयमें, अमुक परिस्थिति में ममुक साधनोंसे, इतने श्रमसे इस विधिसे हो सकता है । भारविके शब्दोंमें " सहसा विदधीत न क्रियामविवेकः परमापदां पदम् ” मनुष्य सहसा कोई काम भारम्भ न करे। मनुष्य कार्यविषयक अविवेकसे विपत्तियोंका घर बन जाता है। Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वविधसंपत्ति संग्रह ( सुअवसरपर कर्म करनेका लाभ ) परीक्ष्यकारिणि श्रीश्चिरं तिष्ठति ।। ११३ ।। सुअवसर पहचानकर कर्म करनेवाले के पास श्री ( अर्थात् सफलता ) नियमसे रहती है। अधिक सूत्र- सर्वाश्च संपद उपतिष्ठन्ति । देश, काल पहचानकर काम करनेवालेके पास समस्त संपत्तियां स्वयमेव आविराजती हैं। ( सर्वविधसंपत्ति संग्रह राष्ट्रीय कर्तव्य ) सर्वाश्च संपदः सर्वोपायेन परिग्रहेत् ॥११४॥ राजा साम, दाम आदि समस्त बुद्धिकौशलोस अपने तथा प्रजाके पास सब प्रकारकी मानवोचित संपत्तियोंके संग्रह करने में प्रयत्नशील रहे जिनसे समय पडनेपर अपन देशकी उत्तमोत्तम सवा कर सक। विवरण- भूमि, रत्न, मान, धर्म, कीर्ति, सुशोल, स्वास्थ्य, शिष्टाचार, व्यवहारकौशल विद्या तथा देशविदेशोंकी भाषा आदि संपत्ति के अनेक भेद हैं। जब राजाको राज्यरक्षा आदि तात्कालिक महत्व रखनेवाले कामों के लिये धनकी श्रावश्यकता पडे तब वह प्रजासे न्यायपूर्वक धनसंग्रह करे । विशेष आवश्यकता पडनेपर राज्यकोषको संपन बनाने के संब. न्धमें शुक्राचार्य ने कहा है देवद्विजातिशूद्राणामुपभोगाधिकं धनम् । क्षीणकोशेन संग्राहा प्रविचिन्त्य विभागतः ॥ क्षीण कोशवाला राजा लोगोंके उपभोगसे अधिक धनको आंशिक रूपसे इस प्रकार ले कि जिससे लिया जाय उसके पास जीविकाके साधनोंका अभाव न हो जाय। Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि पौराणां राष्ट्रजातानां ग्राह्यं साम्ना न चान्यथा । दर्शयित्वा तथा दायान् ग्राह्य वित्तं ततो नृपैः ।। तथा शाश्वतलक्ष्मीकान् पुरोहितसमन्त्रिणः । श्रोत्रियांश्चैव सामन्तान् सीमापालान् तथैव च ॥ गृहं गत्वा प्रयाचेत यथा ते तुष्टिमाप्नुयुः । राजा अपने पुरवासियों का धन उन्हें सन्तुष्ट या सहमत करके ही ले । असंतुष्ट करके बलप्रयोगसे न ले । जो ले वह उन्हें दिखाकर ले। कुल परम्परासे श्रीमान चले आनेवालों, पुरोहितों, श्रोत्रियों, सामंतों तथा सीमापालोंसे धन लेने की आवश्यकता उपस्थित होनेपर राजाको इनके घर जाकर राज्यरक्षाके नामपर धनयाचना करनी चाहिये कि जिससे इन लोगोंको दानका पुण्य तथा यश दोनों प्राप्त हो जांय, ये लोग देने में सम्मान तथा गौरव भी अनुभव करें और देना अपमा कर्तव्य भी समझने लगें । ( अपरीक्ष्यकारिताकी हानि ) भाग्यवन्तमपरीक्ष्यकारिणं श्रीः परित्यजति ॥ ११५॥ श्री अर्थात् सफलता कार्यका सुअवसर न पहचाननेवाले अपरीक्ष्यकारी भाग्यवानको छोड जाती है। विवरण- इसलिये मनुष्य सदा कर्मके भले बुरे परिणाम, अपनी शक्ति, देश काल आदि सब बातोंके सम्बन्धमें आदिसे अन्ततक भले प्रकार सोचकर कर्म किया करें । पाठान्तर --- भाग्यवन्तमप्यपरीक्ष्यकारिणं श्रीः परित्यजति । । कर्तव्यपरीक्षाके साधन ) ज्ञानानुमानैश्च परीक्षा कर्तव्या ॥ ११५ ॥ अपनी ईक्षण ( अनुभव ) शक्ति तथा विचार ( ऊहना) शक्ति दोनोंक सहारसे परिणाम के कारणोंका ठीक ठीक पता चलाकर किस कारण से यह काम इस प्रकार होना है, अपना कर्तव्य स्थिर करें। Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपायज्ञताकी महिमा विवरण- अपने व्यावहारिक अनुभव तथा कल्पनाशक्तिसे कमको पूर्ण विवेचना किये बिना कामको अपनानेसे निश्चित हानि होती है। ( राज कर्मचारियोंकी नियुक्तिका आधार ) यो यस्मिन् कर्मणि कुशलः तं तस्मिन्नेव योजयेत् ॥ ११७॥ __ जो जिस कामको करनेमें कुशल हो उसे उसी प्रकारके कर्मका भार सौंपना चाहिये। विवरण- राष्ट्रके सत्यनिष्ठ बुद्धिमान् लोगोंको महत्वपूर्ण कर्तव्यों में लगानेसे राजाको यश, सुख तथा पुष्कल धन प्राप्त होता है । स्थानेष्वेव नियोज्यानि भत्याश्चाभरणानि च । न हि चूडामाणिः प्राज्ञः पादादौ प्रतिबध्यते ॥ भृत्य तथा आभरणादिका विनियोग यथोचित स्थानपर ही करना चाहिये। जैसे बुद्धिमान लोग चूडामाणको पैर आदि में न बांधकर सिरमें धारण करते हैं इसी प्रकार राष्ट्र के उत्तम कोटिके लोगोंको निम्नस्थानोंपर न रहने देकर उत्तमोत्तम पदोंपर नियुक्त करना चाहिये। पाठान्तर--- यो यस्मिन् कर्मणि कुशलस्तं तस्मिन्नेव नियोजयेत्। ( उपायज्ञताकी महिमा ) दुःसाध्यमपि सुसाध्यं करोति उपायज्ञः ॥११८॥ उपायज्ञ अर्थात् कर्मके अव्यर्थसाधनोंको पहचाननेवाला बुद्धिमान व्यक्ति कठिन समझे हुए कामों को भी सुकर वना लेता है। विवरण- योग्य लोगों को काम सौंपनेका शुभ परिणाम ही यह होता है कि कठिन काम में लगाये हुए दक्ष लोग उसे बातकी बातमें (अनायास) कर डालते हैं। पाठान्तर- दुःसाध्यमपि सुकरं करोति । कुशल व्यक्ति दुस्साध्यको भी सुकर बना लेता है। Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૮ चाणक्यसूत्राणि ( अनुपायज्ञोंके कर्मोंकी महत्वहीनता ) अज्ञानिना कृतमपि न बहु मन्तव्यम् ।। ११९ ॥ अज्ञानी कर्मकी सफलताको सफलता न मानकर उसे आक स्मिक घटना मानकर महत्व नहीं देना चाहिये । विवरण - अज्ञानियोंके कामोंमें अयश, अर्थनाश तथा दुःख होना अनिवार्य है । इसलिये राजा लोग निर्गुण लोगों के भरोसे सफलता के सपने न देखें | 1 याहच्छिकत्वात् कृमिरपि रूपान्तराणि करोति ॥ १२० ॥ जैसे घुनका कीडा भी पदार्थोंके आकार आकस्मिक रूपसे अबुद्धिपूर्वक बना देता है, जैसे उसके बनाये आकारोंसे उसकी निर्माणकुशलता प्रमाणित नहीं होती, इसी प्रकार स्वेच्छाचार अविवेक और अभिमृश्यकारितासे कभी कोई काम संयोगवश बन भी जाय तो भी उस अविमृश्यकारी कर्ताको उस कामका श्रेय नहीं दिया जासकता । विवरण - विवेकपूर्वक कर्म ही मानवकी विशेषता है। अविवेकपूर्वक किये कर्मकी सफलता काकतालीय न्यायवाली ( काकके बैठने से ताडके गिर जाने जैसी ) आकस्मिक घटना है। न तो यथेच्छ कर्म करनेमें कल्याण है और न कराने में कल्याण है । किन्तु शिक्षा तथा विवेकपूर्वक कर्म करनेमें ही मानवका कल्याण है । यथेच्छ कर्म करनेसे काम अधूरा रहजाता और निष्ट होता है । पाठान्तर -- यादृच्छिकत्वात् कृमिरपि रूपान्तराणि किं न करोति । क्या आकस्मिक रूप से रेखा बनानेवाला कृमि जैसा मूढ प्राणी भी भिन्न भिन्न आकार नहीं बना लेता ? Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्यगुप्तिकी अवधि ( कार्यगुप्तिकी मर्यादा) सिद्धस्यैव कार्यस्य प्रकाशनं कर्तव्यम् ॥१२१।। कर्मको किये जा चुकनेके अनन्तर ही उसे लोगोंको जानने देना चाहिये। विवरण- मसम्पन्न कार्यको जगविदित होने देनेसे उसका नाश, क्लेश तथा शत्रुको उसे बिगाडनेका अवसर मिलजाता है । इसलिये कार्य संपन्न होनेसे पहिले उसका ढिंढोरा पीटना नीतिहीनता है। इससे विघ्न बढ जाते और कर्ता भयोग्य कहलाने लगता है । पाठान्तर- सिद्धस्य कार्यस्य प्रकाशनं कर्तव्यम् । ज्ञानवतामपि देवमानुषदोषात् कार्याणि दुष्यन्ति ॥१२२॥ कभी कभी बहुतसे काम भवितव्यताकी प्रतिकूलतासे या किसी मानवीय त्रुटिसे दूषित हो जाने पर अधूरे रह जाते हैं। विवरण- भवितव्यताकी प्रतिकूलता होनेपर कर्म पूरा होनेसे पहले उसका ढिंढोरा पीटनेसे कर्ता निन्दित होजाता है । इसलिये काम पूरा होनेसे पहले उसे किसीको न जानने दे । वज्रपात, भूकम्प, महामारी जलप्रलय आदि देवदोष हैं । हिंसा, द्वेष, विरोधियोंके षडयन्त्र तथा अपनी भूल आदि काम बिगाडनेवाले मानुषदोष हैं। इनसे मनुष्यों के काम बहुधा बिगड जाते हैं । प्रत्येक काममें बिगडनकी संभावना रहती है। इसलिये काम पूरा होनेसे पहिले उसे बड़ी सावधानीसे गुप्त रखना चाहिये । बृहच्चाणक्यने कहा है--- विषमां हि दशां प्राप्य देवं गहयते नरः। आत्मनः कर्मदोषांश्च नैव जानात्यपंडितः॥ मनुष्य अपनी भूलके प्रभावसे कार्यविरोधी परिस्थितियोंको पाकर दैवको तो कोसता है परन्तु वह मूढ यह नहीं जानता कि मैंने अपनी किस भूलसे अपना यह काम बिगाडा है । Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० चाणक्यसूत्राणि ( दैवी विपत्तियों के सम्बन्धमें कर्तव्य ) देवं शान्तिकर्मणा प्रतिषेद्धव्यम् ॥ १२३॥ भूकम्प, वज्रपात, जलप्रलय, झंझावात, राष्ट्रविप्लव तथा आततायीके आक्रमण आदि दैवी विपत्तियोंके दिनों में वुद्धिको स्थिर और शान्त रखकर उनका निवारण करना चाहिये। विवरण- बुद्धिमान् लोग दैवी विपत्तियोंसे घबराकर अपनी प्रति. कारबुद्धिको कुंठित न होने दें किन्तु अपनी स्वस्थ प्रक्षुब्ध बुद्धि का प्रयोम करके उसे टालनेका सुदृढ प्रयत्न करें और किसी भी रूपमें विपत्ति के सामने मात्मसमर्पण न कर बैठें। देवी विपत्तिमें मरना अनिवार्य हो तो विजयी होकर मरें; कायर होकर न मरें। बत्ती, पान, तैल तथा अग्नि सब कुछ होनेपर भी दीपक प्रबल वायुसे बुझ जाता है। सुदृढ विशाल पोत झंझावातके थपेडोंसे डूब जाता है। यह विपत्ति माकस्मिक दैवीविपत्ति है। दैवीविपत्तिके समय बद्धिको स्थिर रखनको आवश्यकता होती है। दैवी विपत्तिको स्थिरबुद्धितासे ही टाला जासकता हैं । विष्णुशर्माके शब्दों में- ' याते समुद्रेऽपि हि पोतभंगे सांयात्रिको वांछति तर्तुमेव । ' जब किसी पोतवणिकका पोत समुद्र में भग्न होकर डूबने लगता है तब वह अपनी बुद्धि के अनुसार तैरकर जीवनरक्षाके समस्त उपाय एक एक करके देखता और जिस किसी प्रकार सागरको पार करना चाहता है। इसी प्रकार बुद्धिमान लोग विपत्तिको सामने खड़ा देखकर घम. रायें नहीं । वे अपनी समस्त बुद्धिका प्रयोग करके उस दैवी विपत्तिको टालनेका मत्याज्य प्रयत्न करें और किसी भी रूप में निराश न हों। विप. त्तियाँ मनुष्योंसे अपना प्रतिकार करानेके ही लिये उसके सामने भाती हैं। धीरतासे उनका प्रतिकार ही उनका सदुपयोग है। भवितव्यताकी प्रतिकूलताके कारण उत्पन्न होनेवाली मानसिक अशा. न्तिको व्यर्थ करने का एकमात्र उपाय मनुष्यका स्थिरबुद्धि से शान्तिको Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दैवी विपत्तियों का प्रतिकार १०१ अपनाये रहना तथा उसे किसी भी अवस्थामें न छोडना है । इसका अर्थ यह हुआ कि यदि देवकी प्रतिकूलताकी आशंका, पुरुषार्थको व्यर्थ करनेका दु:साहस करना चाहती हो तो उसे व्यर्थ करनेवाला एकमात्र उपाय मनुष्यका स्थिरतासे अपनी शान्तिपर स्थिर रहना ही है । अथवा- देवसे आये भूकम्प, वज्रपात, विनाशकांधी, दुर्मिक्ष महामारी, राष्ट्रविप्लव आदि दैवी विघ्न हैं। उत्पन्न विघ्नोंका प्रतिकार करना तथा भावी अनिष्टोंको उत्पन्न होनेसे रोकना शान्ति है। जैसे कवचादि धारण करलेनेसे देहकी शस्त्रोंसे रक्षा होजाती है इसी प्रकार विशिष्ट उपा. योंसे देवी विघ्न भी शान्त किये जासकते हैं । जैसे संयमपूर्वक रहने और नियमपालनसे आयुकी वृद्धि, तथा असंयम और स्वेच्छाचारसे भायुका हास होता है, इसी प्रकार मनुष्य शान्तिकारक, पुष्टिदायक लौकिक वैदिक कर्मों के अनुष्ठानसे देवी विघ्नोपर भी विजय पासकता है । अथवा- देवके विरोधी होजानेपर ईश्वरोपासना आदि विशेष अनुष्ठानों द्वारा अपने कर्तव्यको ईश्वरार्पण करके फलनिरपेक्ष होकर अपना तात्कालिक कर्तव्य उत्साहमें भरकर करना चाहिये। ऐसे समय निराश होकर कर्तव्य. हीन नहीं होजाना चाहिये । दैवी आक्रमण भी विधाताको शुभेच्छासे ही मनुष्य के पास आते हैं । दैवी आक्रमण विधाताकी मूढ इच्छामात्र नहीं है । वे इसलिये आते हैं कि मनुष्य अपनी स्थितिको ईश्वरार्पण करना सीखे और उसकी ओर प्रवृत्त हो। अपनी अनुकल, प्रतिकूल परिस्थितियोंको ईश्वरार्पण कर देने से मनुष्य की अनन्त आत्मशक्ति. उद्दीप्त होउठती है । मनुष्यपर देवी माक्रमण इसीको उद्दीप्त करने के लिये होते हैं । दैवी आक्रमणोंका यह भाव नहीं होता कि मनुष्यकी भारमशक्तिको बुझा डाला जाय । यह सृष्टि मनुष्यसे निरर्थक छेडछाड कभी नहीं करती। उसकी प्रत्येक चेष्टाका मानवजीवनमें महत्वपूर्ण उपयोग होता है । " न मानुषात् श्रेष्ठतम हि किञ्चित्” (व्यासजी) मनुष्यसे श्रेष्ठ इस संसारमें कुछ भी नहीं है । मनुष्य इस संसारकी सर्वश्रेष्ठ वस्तु होनेपर भी अज्ञानवश अपनेको क्षुद्र मानने लगता है। मनुष्यका अहंकार ही उसका अज्ञान है जो उसे क्षुद्र मनवाता है। Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ चाणक्यसूत्राणि वह जब मज्ञानवश होकर अहंकारककी अधीनता मान बैठता है तब अपनी क्षुद्रता अनुभव करके या अपनेको क्षुद्र समझकर बाह्य परिस्थितियोंसे हार मानकर कर्म छोडकर बैठ जाता है। यदि मनुष्य अपनेको ईश्वरार्पण करनेकी कला जानता हो तो वह ऐसे समय अपनी समस्त परिस्थितिको ईश्वरार्पण करके ईश्वरकी अनन्तशक्तिसे शक्तिमान होकर विकटतम परिस्थितियों में भी कर्मोत्साही हुए बिना नहीं रहता । विपत्ति ईश्वरको मनुष्य के लिये असाधारण महत्व रखनेवाली देन है। वह उसे विपद्विजयकी कला सिखाने के लिये माती है। विपद् भेजनेवाला विधाता नहीं चाहता कि विपद् भेजकर अपने मनुष्यबालकको विनष्ट कर डाला जाय । दैवकी प्रतिकुलताको अनुकूलता बनानकी भी एक कला है। विपद् मनुष्य के पास देवकी प्रतिकलताको अनुकलता बनाकर मानवजीवन में पुरुषार्थको विजय दिलाने के लिये ही माती है। ये ही सब बातें आर्यचाणक्य कहना चाहते हैं। (मानुषी विपत्तिका प्रतिकार ) मानुषी कार्यविपत्तिं कौशलेन विनिवारयेत् ॥१२४॥ कार्य बिगाडनेवाले मानवीय विघ्नोंको अपनी सतर्कता तथा बुद्धिकौशलसे परास्त करे । विवरण- इसका अर्थ यह हुआ कि मनुष्य अपने कर्मकी त्रुटिहीनताके सम्बन्धमें पूर्ण सन्तुष्ट और निश्चिन्त बने । कर्मकी त्रुटिहीनताके सम्बन्धमें संशयित, अयोग्य और अकुशल बना रहकर कर्ममें हाथ लगानेसे निष्फलता होती है। बुद्धिकी निपुणता ही कौशल है । आग देना, विष देना, धनापहार, गुप्तषड्यन्त्र, जिघांसा, आदि मानुषी विपत्ति हैं । मनुष्य अपने प्रतिभाचातुर्यसे इन सब विपत्तियोंको हटाता रहे। पाठान्तर- मानुषी कार्यविपत्तिं कौशलेन वारयेत । ( मूढ स्वभाव ) कार्यविपत्तौ दोषान् वर्णयन्ति बालिशाः ।।१२५॥ मूढ लोग कार्यमें असफल होचुकनेपर या तो अपनी उन त्रुटियोंपर पश्चात्ताप करते हैं, जिन्हें उन्हें पहले ही हटाकर Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूढ स्वभाव १०३ फिर काममें हाथ लगाना चाहिये था या आपस में एक दूसरेपर काम बिगाडनेका दोष लगाकर कर्ताको लांछित तथा स्वयं निर्दोष समीक्षक बनना चाहा करते हैं । विवरण- कार्यारम्भसे पहले उसकी अग्रचिन्ता करके समस्त संभावित विघ्नोंके निवारणका प्रबन्ध करना ही बुद्धिमत्ता है और कर्मको त्रुटिको समझजाना भी है । बिगडे कामकी हंसी उडा लेना तथा किसी दूसरे पर काम बिगाडनेका लांछन लगा देना, सुकर है परन्तु किसी बिगड़े काम की हंसी उड़ा लेना हो और किसीपर दोष थोपदेना ही कर्मकी त्रुटिको समझ - जाना नहीं है । विचारशील लोग कर्ममें विपत्ति बाजानेपर दूसरोंपर दोषारोपण करनेकी क्षुद्र प्रवृत्तिको त्यागकर बिगडे कार्यका समाधान करके उसे सर्वांगपूर्ण सुसम्पन्न बनानेवाले समस्त संभावित उपायोंको अपनाने में दत्तचित्त होजाते हैं । गच्छतः स्खलनं क्वापि भवत्येव प्रमादतः । हसन्ति दुर्जनास्तत्र समादधति सज्जनाः ॥ कर्मकी रीति में किसी प्रकारका प्रमाद होनेपर कर्ममें विघ्न अनिवार्य रूपसे आता हे । उस समय मूढ लोग तो हंसी उडाते और सज्जन उसे ठीक करने के उपाय सुझाते हैं । मूढ लोग घावको खोज निकालनेवाली मक्खियोंके समान दोष ही दोष खोजते फिरा करते हैं । परन्तु उन्हें गुणदोषविवेक करनेका अधिकार नहीं होता । वह तो केवल बुद्धिमानोंको होता है। मूढको नहीं । दण्डीने कहा है - गुणदोषानशास्त्रज्ञः कथं विभजते जनः । किमन्धस्याधिकारोस्ति रूपभेदोपलब्धिपु ॥ जैसे अन्धको रूपोंके भेद जाननेका अधिकार नहीं उसी प्रकार बुद्धिद्दीन अशास्त्रज्ञको गुणदोष पहचाननेका अधिकार नहीं है। मृढ मानव कर्मकी त्रुटि समझने में पूर्ण असमर्थ हैं। ऊपर कह चुके हैं कि बिगडे कामकी हंसी उडा लेना ही कर्मकी त्रुटि समझ जाना नहीं है । कर्मकी त्रुटि समझने की कला विचारशील लोगोंका ही एकाधिकार है । Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ चाणक्यसूत्राणि ( व्यवस्थापक भोलापन न बरतें ) कार्यार्थिना दाक्षिण्यं न कर्तव्यम् ॥१२६॥ कार्यार्थी राज्याधिकारियोंको शत्रुओंको शंकासं भरे हुए देशमें भावुकतामें बहकर उदारता, सरलता, भोलापन और मिथ्या सचाई न बरतनी चाहिये। विवरण- वे विपक्षके दोष खोजने और अपनी निर्बलता छिपाने में प्रमाद न करें, किसीका अनुचित विश्वास न करें और किसीको अपना भेद न लेने दें। ऐसा करनेसे उन और उनके राष्ट्रपर विपत्ति आजाना अनिव. नर्य होजायेगा। नात्यन्तसरलैर्भाव्यं गत्वा पश्य वने तरून् । सरलास्तत्र छिद्यन्ते कुब्जास्तिष्ठन्ति पादपाः ।। मनुष्य सुपरिचित सुविश्वस्त लोगों के अतिरिक्त अपरिचित संदिग्ध लोगों के साथ सरल व्यवहार करने की भूल न करे। वह जाकर वनमें देखे कि वह सरल वृक्ष तो सब काट डाले जाते हैं और कुब्ज ही खडे रह पाते हैं । दाक्षिण्य शब्द सरलता और उदारताका वाचक है। यहां जिस सरलत: और उदारताको दोष के रूप में उपस्थित किया है, वह तो चालाक लोगों से धोखः दिलानेवाला भोलापन है। देवी संपत्तिरूपी सरलता या उदारताका निषध नहीं किया जारहा है। देवी संपत्तिरूपी सरलता या उदारताके व्यवहारका क्षेत्र केवल श्रेष्ठ लोग होते हैं । यहाँ विचारशून्यता तथा बुद्धिहीनताको ही सरलता, उदारता या भोलापन मानकर यह सूत्र लिखा गया है। भोले लोग सदा धूतोंके कपटजाल में फंसनेके लिये उद्यत रहते हैं । वे शत्रुको हितकारी मित्र और मित्रको वंचक शत्रु समझ लेते हैं। बुद्धिहीन लोगों के विचारशून्य मन दुष्टोंकी दुष्टताको फूलने फलने देने वाले उपजाऊ क्षेत्र बन जाते हैं। दुष्टों तथा देशद्रोहियोंके साथ की हुई सरलता या उदारता किसीकी व्यक्तिगत प्रशंसाका कारण बनकर भी राष्ट्र के साथ तो द्रोह ही है। देशद्रोही चापलूस Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवस्थापक लोग भोले न बनें १०५ लोग देशपर आक्रमण करनेवाले शत्रुओंसे साधुपनका प्रमाणपत्र लेनके लिये सरलता, अहिंसा भादिके नामसे देशके साथ कपट और उसकी हिंसा कर बैठते हैं। क्षीरार्थी वत्सो मातुरूधः प्रतिहन्ति ॥ १२७॥ दुग्धपानार्थी गोवत्सको माताके स्तनोंपर आघात करना पडता है। विवरण- जैसे दुग्धार्थी वत्स अपनी आवश्यकतासे विवश होकर अपनी प्यारी गोमाताके स्तनोंपर निर्मम प्रहार करता दीखनेपर भी उसका दूध पीता रहता है तथा उसके कोमल स्तनोंको पीडित करता दीखनेपर मो पीडित न करके उसे अपने सखस्पशीसे आनन्दित भी करता है, इसी प्रकार राष्ट्रपालनार्थी राजा राष्टरक्षा नामक कठोर कतन्यसे विवश होकर बाह्यदृष्टि से अधर्म दीखने या नृशंस समझे जानवाले कापटिक तथा आभिचारिक प्रयोगोंसे राष्ट्रमाताके द्रोहियोंका पूर्ण विनाश तथा दमन करते समय अधर्माचारीमा दीखनेपर अपनी सत्यनिष्ठतासे अपनी धर्ममाताको आनन्दोद्वेल्लित करता रहता है । वह देशद्रोहियों के साथ व्यवहार के समय असरल, अनुदार, सतक उनसे पूरा बदला लेनेवाला उनके प्रति क्रोधको कभी न भूलनेवाला, उनक मायाजाल से बचे रहने के लिये सत्यको छिपाये रखनेवाला, पापकी भर्सनाके लिये कठोरभाषी, निर्दयव्यवहारी तथा पूरा कृपण बनकर रहता है । इतना किय बिना साधुपरित्राण तथा असावुदमन संभव नहीं है। पापदमनके व्यावहारिक क्षेत्रमें दूसरोंसे धोका दिलानेवाली सरलता उदारता, भोलेपन, क्षमा, मक्रोध, सत्य, प्रियभाषण, दयालुव्यवहार आदि सद्गणोंके प्रदर्शनका कोई स्थान नहीं है । प्रत्येक गुणके प्रदर्शनके अलग अलग क्षेत्र होते हैं । सरलतः सरलोंके ही साथ व्यवहारमें लानेयोग्य गुण है । सरलता, सरलोंका ही एकाधिकार है । असरल देशद्रोही लोगों को देशप्रेमी स्वधर्मनिष्ट लोगों से सरल बर्ताव पानेका कोई अधिकार नहीं है। Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि ( कार्यविनाशका कारण ) अप्रयत्नात कार्यविपत्तिर्भवति ॥१२८॥ कार्यके लिये अपेक्षित सम्पूर्ण प्रयत्न न करनेस कार्यका नाश होजाता है। पाठान्तर- नास्ति देवात् कार्यविपत्तिः । प्रबल पुरुषार्थ करनेपर उतरपडनेवालोंके काम देवसे नष्ट नहीं होपाते। विवरण- देव पुरुषार्थकी प्रबलता होते ही दुर्वल पडकर महत्वहीन होजाता है । देव प्रबल पुरुषार्थसे हार मान जाता है। प्रबल पुरुषार्थसे किये कर्तव्यका परिणाम भौतिक दृष्टि से शुभ अशुभ जो भी हो वही पुरुषार्थीके हृदय में कर्तव्यपालनका आत्मसन्तोष बनाये रखता है । यदि दैववश भौतिक परिणाम शुभ हो तो उसका यश पुरुषार्थीको ही मिलताहै। यदि वह अशुभ हो तो उसके हृदय में कर्तव्यपालनका जो सन्तोष रहता है, वह उसके हृदय में असन्तोषका दावदाह पैदा नहीं होने देता। पुरुषार्थीके सामने अनुकूल प्रतिकल, देव आदि तथा अन्त दोनों ही समय महत्वहीन माना जाकर उपेक्षित रहता है। ( असफल होनेवाले लोग ) न देवप्रमाणानां कार्यसिद्धिः ॥ १२९ ।। पहिलेसे ही असफलताका निश्चय करवठनेवालोंके काम सिद्ध नहीं होत या वे कोई नया काम प्रारंभ ही नहीं किया करत। विवरण- पुरुषार्थ देवाश्रित लोगोंमें निबल बनकर रहता है। पाठान्तर- न देवप्रमाणानां कार्यारम्भः । Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्धा मानव दैवाश्रित या भाग्य भरोसे लोग दैवके भयसे अपनी कर्मशक्तिको तृणके स्पन्दनतकसे शंकालु कछुए के समान सकोडकर बैठ जाते है और कोई भी नया काम नहीं छेडते ।। ( कर्तव्यसे भागनेका दुष्परिणाम ) । कार्यबाह्यो न पोषयत्याश्रितान् ।। १३० ।। कर्तव्यसे भागते फिरनेवाला आश्रितोंका भरणपोषण नहीं करपाता। विवरण- जो व्यक्ति स्वभावसे कर्तव्यहीन होता है वह आश्रितोंके प्रति भी अपने कर्तव्य की उपेक्षा करबैठता है। जबतक मनुष्य शिक्षा, रक्षा, शिल्प, वाणिज्य, कृषि मादि समाजोपयोगी कार्यमें अपने दिनका सर्वोत्तम समय व्यय करना अपना कठोर भत्याज्य कर्तव्य नहीं बनालेता, तबतक वह आश्रितपालन नहीं कर सकता और परिवारपर अपना प्रभुत्व भी नहीं रख सकता। ऐसा मनुष्य माधुनिक भाषामें “मावारा" कहाता है। ( अन्धा मानव ) यः कार्यं न पश्यति सोऽन्धः ॥ १३१ ।। जिसे अपनी विवेककी आंखसे अपना सामयिक कर्तव्य पहचानना नहीं आता, वह आंखोंके रहते हुए भी अन्धा है। विवरण- योग्य कार्य न पहचानना ही अंधापन है। अविश्रमो लोकतन्त्राधिकार: '- शासनसंबन्धी कर्तव्य करनेवालोंके पास प्रत्येक क्षण अनेकानेक कर्तव्यों की समस्यायें उपस्थित होती रहती हैं। इतनेपर भी यदि किसीको करने योग्य कार्य नहीं दीखता तो उसे अन्धा ही समझना चाहिये । उसका अनिष्ट होना अनिवार्य है। अथवा- जो राजा राज्यसंबन्धी कामोंके विषयमें अपना आनुभविक प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं रखता, जो स्वयं अपनी मांखोंसे अपना राजकाज नहीं Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ चाणक्यसूत्राणि देखता, उसके राजकाजका बिगडजाना अनिवार्य है । उसके राज कर्मचारि. यों में स्वेच्छाचार बढकर प्रजामें रोष और राज्यकी हानि होना अनिवार्य होजाता है। ( कर्तव्यनिश्चयके साधन ) प्रत्यक्षपरोक्षानुमानः कार्याणि परीक्षेत ॥ १३२ ॥ उपस्थित अनुपस्थित साधनों तथा अनुमानों द्वारा विचार करके कर्तव्योंका निश्चय करे। विवरण- कौनसे साधन अपेक्षित हैं, उनमें से कितने हैं और कितने संग्रह करने हैं, वे सब मिल सकते हैं या नहीं, मिल सकते हैं तो कौनसे कैसे, कहांसे मिल सकते हैं ? इत्यादि सब बातोंका पूर्ण विचार करके मनुष्यको काम प्रारंभ करना चाहिये। इनता विचार करले नेसे हानि या असफलताकी संभावनायें नष्ट होजाती हैं। (अपरीक्ष्यकारिताको हानि ) अपरीक्ष्यकारिणं श्रीः परित्यजति ॥ १३३॥ श्री अर्थात् सफलता विना विचारे काम करनेवालेको त्याग देती है। विवरण-- जो लोग बिना सोचे समझे, केवल लोभ या स्वार्य के अधीन होकर, काम प्रारम्भ कर देते और इस उद्योगसे लोगोंको केवल अपनी कार्यतत्परतामात्र दिखाना चाहते हैं, वे भनिवार्य रूप से प्रजाके वृणापात्र बनकर राज्यश्रीसे वंचित होजाते हैं। कार्यसे पहले उसके उद्देश्यकी सत्यासत्यता, अपना बलाबल, साधन सहयोगी, आयव्यय, देशकाल मादिकी परीक्षा करनी चाहिये ।। ( अधिक सूत्र ) न परीक्ष्यकारिणां कार्यविपत्तिः । ऊंचनीच सोचविचारकर कार्य करनेवालोके कार्यों में न तो विघ्न आता है और न उन्हें असफलता मिलती है। Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म प्रारंभ करनेकी अवस्था १०९ ( विपत्ति हटाने का उपाय ) परीक्ष्य तार्या विपत्तिः ॥ १३४ ॥ विपत्ति ( अर्थात् सफलता के मार्गके विघ्न ) को विचारसे हटाना चाहिये । विवरण - विचार सर्वशक्तिमान पदार्थ है । विपत्ति विचारशीलका कुछ नहीं बिगाड़ सकती । मनुष्य जहां कहीं अपनी सफलता में विघ्न पडता देखे वहीं वीरता के साथ अपनी बुद्धि तथा शक्तिको परीक्षामें झोंक दे और देखे कि वह इस विपद्वारणमें क्या कुछ नहीं कर सकता ? विपत्ति मनुष्यका असाधारण मित्र है । संसारमें आजतक जितने महापुरुष हुए हैं सब विपत्तियोंकी कृपाके शुभ परिणाम हैं। यदि उनके जीवनों में विपत्ति न माई होती तो उनके गुणग्राम संसारको विदित हो न हो पाते और वे लोग संसार के लिये अपरिचित ही रह जाते । विपत्तियोंने ही संसारको महापुरुषोंसे सम्पन्न बनाया है । ओ मानव ! तुम अपनी विपत्तियोंके विषय में इस प्रकार सोचा करो कि तुमपर जो यह विपत्ति आई है वह यों ही नहीं आगई । वह तुम्हारे विधाताकी सदिच्छा अर्थात तुम्हारी स्वरूपसंरक्षक विजयेच्छा से आई है । वह तुम्हें विपद्वारणकी कला सिखाने और सिखाकर तुम्हें भी विघ्नविजेता महापुरुषों की श्रेणीमें खडा कर देने के लिये भाई है । विपत्ति नामवाले ऐसे परमदितैषी मित्र से जी चुराना अपना ही कल्याण करना है । मानवजीवनकी सफलताका रहस्य वीरता के साथ विपत्तिका साम्मुख्य करने में ही छिपा है । ( कर्म प्रारंभ करने की अवस्था ) स्वशक्तिं ज्ञात्वा कार्यमारभेत ॥ १३५ ॥ अपनी शक्तिके विषय में पूरी तथा सच्ची जानकारी पाकर, उसके विषय में किसी प्रकारके मिथ्या विश्वास में न रहकर काम प्रारंभ करे । Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि विवरण-शक्तिबाह्य कर्म न करने में ही मानवका कल्याण है। "जितनी शक्ति उतना काम । उससे अधिक दुःखोंका धाम ।" इस लोकोक्तिके अनुसार शक्ति ही कर्तब्यकी सीमा है। तुम यह जानो कि जितनी तुममें शक्ति है उतना ही तुम्हारा कर्तव्य है। तुम्हारा कोई भी कर्तव्य तुम्हारी शक्तिसे अधिक नहीं हो सकता। तुममें जिम कामकी शक्ति नहीं है वह तम्हारा कर्तव्य भी नहीं है। यदि तुम ऐसा काम छेड बैठोगे तो निश्चित रूपमें असफल होओगे और हाथ मल मल पछताओगे । तुम भूल कर भी ऐसे काममें हाथ मत डालो, जिसे पूरा करनेकी तुम्हारे पास शक्ति न हो। तुम पहले अपने मन में शक्तिको तोल देखो। यदि तुम्हारे पास कर्मसे अधिक शक्ति हो तो तुम निःशंक होकर कामको अपना लो। राजनीतिमें प्रभाव, उत्साह तथा मन्त्र भेदसे शक्ति तीन प्रकारको मानी जाती है। कोष, दण्ड तथा बल ये तीन प्रभुशक्ति (प्रभावजनक शक्ति ) कहाती हैं । विक्रम तथा बल ये दो उत्साहशक्ति नामकी दूसरी शक्ति कही जाती हैं। पांचों अंगोंसे संपन्न मन्त्र मन्त्रनामकी तीसरी शक्ति कहाती है । गजा इन तीनों शक्तियोंसे सम्पन्न रहकर राजकाज करे । “ मन्त्रमूला: सर्वारम्भाः" इस २४ व सूत्रमें मन्नके पांचों अंगोंका सविस्तर वर्णन हो चुकनेसे, यहां ग्रन्थविस्तारभयसे पुनः वर्णन नहीं किया। ( अमृतभोजी मानव ) स्वजनं तर्पयित्वा यः शेषभोजी सोऽमतभोजी ।। १३६ ॥ अपने उपाजनमेंसे स्वजनों, बन्धुओं, अतिथियों, पोष्यों, दीनदुःखियों तथा समाजकल्याणकारी संस्थाओंको भरणपोपण कर. नेके पश्चात् शेष घनसे जीवनयात्रा करनेवाले लोग अन्नभोजी होनेपर भी अमृतास्वादी या अमृतभोजी होते हैं। विवरण- “ केवलाघो भवति केवलादी " केवल अपना पेट भरने. वाला और अपने माश्रित उपाश्रितों तथा अपने उपजीव्य समाजके भरणपोषणकी चिन्ता न रखनेवाला केवल पापका उपार्जन करता है। केवल Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कापुरुषकी कर्तव्यहीनता १११ उदरभरि होना पापी तथा हीन जीवन है । " तैर्दत्तानप्रदायेभ्यो यो भुक्ते स्तेन एव सः"। जो देवोंके दिये भोजनको उन्हें न सौंपकर स्वयं खाजाता है वह चोर है। पाठान्तर- यः स्वजनं भोजयित्वा शेषं भुक्ते सोऽमृतभोजी । (आय बढानेके उपाय ) सर्वानुष्ठानदायमुखानि वर्धन्ते ॥१३७॥ राष्ट्रमें भूमि, धन, व्यापार, शिल्प आदि समस्त प्रकारके राष्ट्र हितकारी कर्तव्योंके सुसंपन्न होते रहनेपर ही राज्यकी आयके द्वार बढते हैं। विवरण- जो राज्याधिकारी प्रजाका शोषण करके केवल अपनी जेब भरना ध्येय बनाकर मालसी बन जाते हैं और राज्यकी कर्मशक्ति बढ़वाने के लिये अपेक्षित उद्यम नहीं करते उनकी राज्यश्रीकी वृद्धि होने की कोई आशा नहीं है। उनका संचित धन तो कम होने लगा और आयके द्वार तथा संभावनायें घटने लगती हैं। पाठान्तर- सर्वकार्यानुष्ठानादायमुखानि वर्धन्ते । राष्ट्रकी कर्मशक्तिके काममें आते रहने से राष्ट्रके आय के द्वार बढ जाते हैं । (कापुरुषको कर्तव्यहीनता ) नास्ति भीरोः कार्यचिन्ता ॥ १३८॥ भीरु कापुरुष अपने मनमें वीरोचित कर्तव्यकी चिन्ताको स्थान नहीं देता। वह कर्तव्यहीन रहनेका कोई न कोई बहाना बना लेता है। विवरण- कापुरुष शत्रुदमन करके सत्यरक्षा करने में असमर्थ होता है । वह अपने मन में सत्यरक्षाकी कल्पनातकको स्थान नहीं देता। उसका शत्रओंका चरणचुम्बन करना अनिवार्य है। अथवा- भयाक्रान्त मनुष्य मनमें कर्तव्यकी मालोचना नहीं कर सकता। भयसे बुद्धि मन्द होती और कर्तव्यचिन्ता क्षीण होजाती है । पाठान्तर-नातिभीरोः कार्य चिन्ता। Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ चाणक्यसुत्राणि (खामीक स्वभाव परिचयका लाभ } स्वामिनः शीलं ज्ञात्वा कार्यार्थी कार्य साधयति ॥ १३९ ॥ कार्यों में नियुक्त लोग अपने आश्रयदाता स्वामीकी रुचिको पहचानकर तदनुसार कार्य किया या कराया करते हैं । विवरण- राजाके वीर होनेपर उसके अनुयायी लोग उसकी रुचिके मनुयायी वीर होकर उसकी नियुक्तिके अनसार कार्यको सुसंपस कर लेते हैं । इसके विपरीत राजाके कापुरुष होनेपर उसके अनुचर भी कार्यक्षेत्र में कापुरुषताका ही प्रदर्शन करते हैं । पाठान्तर--- स्वामिनः शीलं विज्ञाय कार्यार्थी कार्य साधयेत् । धेनोः शीलज्ञः क्षीरं भुक्ते ॥ १४०॥ जैसे दुग्धार्थी धेनुके स्वभावको जानकर जिप्त रीतिसे संभव होता है, उसी रीतिसे उससे दुग्ध प्राप्त करलेता है इसी प्रकार राजसेवक राजाको रुचिके अनुकुल राजसेवा करके अपना राष्ट्रसेवा नामक उद्देश्य पूरा किया करते हैं। पाठान्तर - धेनोः क्षीरं शीलज्ञो भुंक्त । ( गुह्य बताने के अनधिकारी ) क्षुद्रे गुह्यप्रकाशनं आत्मवान्न कुर्वीत (कुर्यात)॥१४१॥ मनस्वी धीमान् मनुष्य मन्दमति, अनीतिज्ञ, नीच, चंचलवुद्धि अनुचरको अपनी गुह्य बात न बता दे। विवरण-- फूटे पात्रमेंसे जलके समान क्षुद्र के पेटमें गुह्य बात नहीं खपती। गह्य बात उसके पेट में रेचक औषधका काम करती है। उससे उसे सर्वत्र घोषित किये बिना नहीं रहा जाता। क्षुद्र के पास गुह्य बात पहुंचनेसे बातका उद्देश्य तो नष्ट होजाता है और उसके स्थानपर अनर्थको सष्टि होजाती है। पाठान्तर- क्षुद्र गुह्यप्रकाशनमात्मवता न क्रियेत । Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कठोर दण्डसे हानि : ११३ ( मृदुस्वभावसे हानि ) आश्रितैरप्यवमन्यते मृदुस्वभावः ॥ १२ ॥ मृदुस्वभाव (अर्थात् अपात्रोतकको प्रसन्न करके संसारभरका प्रेमपात्र बननेका महत्वाकांक्षी पात्रापात्रविवेकहीन अदृढ) मनुष्य अपने आश्रितोंस भी अनादर पाता है। विवरण- प्रबन्धके काममें अपात्रोंको डाटने तथा सुपात्रोंका मादर करनेकी दृढता मनिवार्यरूपसे होनी चाहिये । परन्तु ये मृदुस्वभावी लोग मनिवायरूपसे अपात्रोंसे चिपटते और सुपात्रोंसे त्यक्त हो जाते हैं। ___ प्रबन्धसम्बन्धी समस्यायें हो ऐसी होती हैं कि सबको प्रसन्न नहीं किया जा सकता । अन्यायतस्पर लोगोंको डाटना और रुष्ट करना ही पड़ता है। अन्यायपक्षको अनुत्साहित भसित ताडित और अवहेलित तथा न्यायपक्षको उत्साहित और अनुमोदित रखना ही राजाओंका जप, तप, सन्ध्या, भजन, पूजन तथा श्रेष्ठ भागवत आराधन है। बुरोंके भी भला बनना चाहनेवाले मृदुलोग सफल शासक नहीं बन सकते । प्रबन्धकको जो पापदमनका महायज्ञ करना पड़ता है उसके लिये उसे अपनी दृढ़ता और सत्यनिष्ठा नहीं त्याग देनी चाहिये । उसे अन्यायी पके सामने अपनी जोचित शक्ति प्रकट करनी चाहिये । ( लघु अपराध कठोर दण्डस हानि ) तीक्ष्णदण्डः सर्वैरुद्वेजनीयो भवति ॥ १४३ ॥ लघु अपराधम कठोर दण्ड देनेवाला शासका सवकी घृणाका पात्र तथा अपने प्रभावक्षेत्रमें उपद्रव खडा होनेका करण बन जाता है। विवरण- राजाको राष्ट्र में सुव्यवस्था रखने के लिये अपराधियोंको वध, अर्थग्रहण तथा शरीरताडन तीन प्रकार के दण्ड देने पड़ते हैं। यों तो दण्ड अपराधीको नित्य साथी है । अपराधीका अपराध करना ही दण्डको Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ चाणक्यसूत्राणि अपने पास बुलाना है। परन्तु दण्डके संबन्धमें राजाका यह बड़ा सावधान कर्तव्य है कि दण्ड मौचित्यकी सीमाका उल्लंघन भी न करे और मपराधसे न्यून भी न हो। उसे यह ध्यान रखना चाहिये कि माततायी लोगोंके साथ मृदु बर्ताव न किया जाय । आततायिनमायान्तं हन्यादेवाविचारयन् । नाततायिवधे दोषो हन्तुर्भवति कश्चन ॥ मनु भाततायीको माता देखकर और इसके आततायी होनेका निश्चय हो जानेपर उसे बिना भागा पीछा देखे मार डाले। माततायीके वधसे हन्ताको कोई दोष या अपराध नहीं लगता । रक्षात्मक भाक्रमण करनेवाला भाक्रमण. जन्य वधका अपराधी नहीं होता। ( दण्डमें औचित्यकी आवश्यकता ) यथार्हदण्डकारी स्यात् ॥ १४४।। उचित यही है कि राजा यथायोग्य दण्ड देनेवाला हो । विवरण- उचितकारी ही सफल शासक बन सकता है। क्योंकि कठोर दण्ड जनतामें उद्वेग तथा राजद्रोह फैलाता है, इसलिये दण्डमें अपराधकी गुरुता लघुताका पूरा ध्यान रहना चाहिये । लघु अपराधमें गुरु दण्ड, निरप. राध भवस्थामें तीव्र या लघु दण्ड, गुरु अपराध लधु दण्ड या दण्डाभाव न होनेका पूरा ध्यान रखना चाहिये। कहा भी है अदण्ड्यान् दण्डयन् राजा दण्ड्यांश्चैवाप्यदण्डयन् अयशो महदाप्नोति नरकं चैव गच्छति । अनुबन्धं परिज्ञाय देशकालौ च तत्वतः सारापराधौ चालोक्य दण्डं दण्ड्येषु पातयेत् ॥ राजा दण्डनीयोंको दण्ड न देने और भदण्डनीयोंको दण्ड देनेसे बड़ा अपयश पाता और कष्टपरम्परामें उलझ जाता है। राजा पहले तो अपराधके कारणों तथा अपराधकी परिस्थिति और कालको देखे फिर अपराधीकी Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दण्डमें औचित्यको आवश्यकता ११५ दण्डसहनकी शक्ति और अपराधके स्वरूप तथा उसके राष्ट्रपर पडनेवाले प्रभावको समझकर दण्ड दे । स्मृतिमें कहा है - अधर्मदण्डनं लोके यशोघ्नं कीर्तिनाशनम् । अस्वयं च परत्रापि तस्मात्तत् परिवर्जयेत् ॥ क्योंकि अधर्मपूर्वक दिया हुआ दण्ड, यश, कीर्ति तथा सुख तीनोंको नष्ट कर डालता है इसलिये अधर्मपूर्वक दण्ड देनेसे बचे। कल्पतरुमें कहा है दण्डः संरक्षते धर्म तथैवार्थ विधानतः । कामं संरक्षते यस्मात् त्रिवर्गो दण्ड उच्यते ॥ क्योंकि दण्ड ही धर्म अर्थ, तथा काम तीनोंका वैधानिक संरक्षक है, इस लिये दण्डको ही त्रिवर्ग कहा जा सकता है । कल्पतरुमें यह भी कहा है'राजदण्डभयात् पापाः लोकाः पापं न कुर्वते ' - पापी लोग राजदण्डके भयसे ही पापसे रुकते हैं । यही मनुने भी कहा है। सोमदेव सरीने अति सुन्दर कहा है- 'चिकित्सागम इव दोषविशुद्धि हेतुर्दण्डः ' - जैसे आयुर्वेद दोषोंके सनिपातको नष्ट कर देता है इसी प्रकार अपराधियोंको दिया हुभा दण्ड उनके सकल दोषोंको धो डालता है । गर्गने भी कहा है अपराधिषु यो दण्डः स राष्ट्रस्य विशुद्धये । विना येन न सन्देहो मात्स्यन्यायः प्रवर्तते । शूले मत्स्यानिवाभक्ष्यन् दुबलान् बलवत्तराः ।। अपराधियों को दिये दण्डसे राष्ट्रको शुद्धि होती है। यदि उन्हें दण्ड नहीं मिल पाता तो संसारमें मात्स्यन्याय चल पड़ने में कोई सन्देह नहीं रहता । तब बलवान् दुर्बलोंको काट में मछलियोंके समान बींधकर भून शलते हैं। पाठान्तर- ततो यथाहंदण्डः स्यात् । इस कारण यथायोग्य दण्ड देनेवाला बने । Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ चाणक्यसूत्राणि ( अगम्भीरतासे हानि ) अल्पसारं श्रुतवन्तमपि न बहु मन्यते लोकः ।।१४५॥ लोक अगंभीर मनुष्यक विद्वान् होनेपर भी उसे प्रतिष्ठाकी दृष्टिसे नहीं देखता। विवरण- जिस विद्वान्की विद्वत्ता उसके हृदयको प्रभावित करनेमें सफल नहीं होपाती वह उसके स्वभावपर भी अपना प्रभाव डालने में भसमथे ही रह जाती है । विद्या यदि सच्ची हो तो उसे मनुष्य के हृदय और स्वभाव दोनों ही पर प्रभावशालिनी होकर रहना चाहिये । विद्या जब तक विद्वानों के हृदयों तथा स्वभावों में स्थान नहीं लेपाती, तब तक वे विद्याका दुरुपयोग करते चले जाते हैं । उनकी विद्या रोगोत्पादक भजीर्ण भोजन के समान उनकी अप्रतिष्ठाका कारण बनजाती है। ( बहुतोंका कर्तापन कार्यनाशक ) । ( अधिक सूत्र ) सारं माहाजन: संग्रहः पीडयति । माहाजनसंग्रह अर्थात् किसी राजकाजके विषयमें बहुत लोगोंका सम्मिलित होना ( अर्थात् कर्तापन होजाना ) उद्देश्यको नष्ट कर डालता है। विवरण- राष्ट्र के प्रबन्धसम्बन्धी कामों में मतदाताओं के हाथ यन्त्रके समान उठवाकर अथवा ढोरोंकासा जीवन बितानेवाले पशुतुल्य लोगोंसे परची डलवाकर बहुमत संग्रह करनेकी आवश्यकता राजकाजकी सारवत्ता तथा उद्दश्यको नष्ट कर डालती है । ऐसा करनेसे राजकीय निर्णयों में से औचित्य जाता रहता तथा स्वार्थरूपी अनौचित्य साघुसता है। प्रबन्धसंबन्धी निर्णय बहुतके निर्णयोंसे असार होजाते हैं। अज्ञबहुमतसे उसके अज्ञात विषयपर सम्मति लेकर कोई नियम या कर्तव्यशास्त्र बनाना संकटपूर्ण घातक अशास्त्रीय परिपाटी है। Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुतोका कर्तापन कार्यनाशक राष्ट्रका विधान बनाने या राष्ट्रप्रबन्धसंबन्धी गम्भीर प्रश्नों का समाधान करनेके संबन्धमें मतभेद रखनेवाले, भिन्न भिन्न स्वार्थी संप्रदायों, दलों या व्यक्तियों को सम्मिलित करलेना ( अर्थात् उनका कर्तापन करलेना ) तो इसका उद्देश्य ही नष्ट करलेना होजाता है । राष्ट्र शक्तिमानू तब ही रह सकता है जब कि राष्ट्र की प्रतिनिधि राज्यशक्तिको शक्तिमान् बनाकर रखा जाय । व्यवस्थानिर्माताओं तथा व्यवस्थाकर्ताओंका ऐकमत्य ही निर्दोष राजशक्ति होती है । राजशक्ति में भिन्न भिन्न राजनैतिक मन्तव्य रखनेवालोका सम्मिलित रहना तो स्पष्ट ही राजशक्तिकी निर्बलता है। राजशक्ति की निर्बलता राष्ट्रकी ही निर्बलता है । यह निर्बलता राष्ट्रके ध्वंसका कारण बन जाती है । राष्ट्रप्रबन्धकों तथा व्यवस्थाकर्ताओंका ऐकमत्य राष्ट्रकी महत्व. पूर्ण आवश्यकता है । जब राज्यसंस्थामें इस प्रकार के प्रतिनिधि सम्मिलित रहते हैं, तब राष्ट्र की हिताकांक्षा अनेक मकराकृष्ट शवदेहके समान खण्डित और विभाजित न होकर, एक व्यक्तिकी व्यक्तिगत हिताकांक्षाके समान निर्भद होकर एकाकार बनी रहती है। राष्ट्रके सच्चे हितैषी निःस्वार्थ प्रति. निधियों के व्यक्तित्वकी भिन्नता पारस्परिक विरोधका कारण न बनकर समस्त राष्ट्रसंस्थाको ऐकमत्य या एकसत्रमें बांध डालनेवाली बनजाती और राष्ट्र के प्रत्येक प्रतिनिधि के मनमें राष्ट्रहितैषिता सशरीर होकर आविराजती हैं । यदि राष्ट्रव्यवस्थाको लोककल्याणकारी बनाना हो तो उसका सच्चे राष्ट्रहितैषियों की सर्वसम्मतिसे होना अत्यावश्यक है। यदि राष्ट्रव्यवस्थाके प्रश्नमें मतभेद रह जाता है तो उसमें वह सर्वजनहितकारिता नहीं रह सकती जो कि रा. व्यवस्थाकी अनिवार्य आवश्यकता है। इस दृष्टि से अल्पमतके विरुद्ध बहुमतको मान्यता देने की परिपाटी राष्ट्र. व्यवस्थाके सर्वजनहितकारी होनेके सिद्धान्तके विरुद्ध सिद्ध होजाती है। इस प्रकारका बहुमत एकत्रित कर लेना राष्टके अल्पमतवाले भागपर माक्रमण करनेवाली मनोवृत्ति है। यह सेवक मनोवृत्ति नहीं है । राष्ट्र के सेवक ही राष्ट्रके कर्णधार होनेकी योग्यता रखते हैं। बहुमतको राष्ट्रका कर्णधार बनाने की Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ चाणक्यसूत्राणि कल्पना राष्ट्रद्रोही भारतीय कल्पना है। भारतीय एकतन्त्रवादमें यद्यपि ऊपर• से देखने में राज्यव्यवस्थाका कर्णधार राजा नामका एक व्यक्ति ही दीखता है, परन्तु वह अपने मन्त्री, पुरोहित, दूत, सेनापति, राजगुरु भादि राष्ट्रके योग्य. तम सहयोगियोंके रूपमें राष्टके हितैषियोंको अपने प्रगाढ संपर्क में रखकर स्वयं ही सम्पूर्ण राष्ट्रका मूर्तिमान कल्याण बनकर राजकार्यका सुचारुरूपसे परिचालन करता रहता है । इसके बाद्यष्टि से अकेले दीखने पर भी उसके अकेलेपनमें भी समग्र राष्ट्र सम्मिलित रहता है । उसका अकेलापन भी वास्तव में ससन राष्ट्रके ऐकमत्यमें सम्मिलित होता है । विस्तारभयसे इस प्रसंगको यहीं छोड. कर प्रकृतमें आते हैं । राष्ट्रव्यवस्थाके लिये राष्ट्रहितैषियोंकी सर्वसम्मति ही योग्यतम परिपाटी है। सच्चे व्यवस्थापकोंमें राज्यव्यवस्थासंबन्धी भालो. चनामें मतभेद होनेपर भी निर्णयावस्थामें मतैक्य या अविरोध होजाना अनिवार्य है । जिनमें अन्ततक मतभेद रहता है वे लोग वस्तुतः व्यवस्था. पक बननेके अयोग्य होते हैं। मतविरोध राष्ट्रघाती स्थिति है । अल्पमतकी उपेक्षा करके बहुमतके अनुसार राष्ट्रव्यवस्था करनेकी परिपाटी सचमुच विनाशक, अनार्य, आसुरी परिपाटी है। हमारे देशके दुर्भाग्यसे सर्वसम्म. तिसे राष्ट्रव्यवस्था करने की भारतीय परिपाटीको तो त्याग दिया गया है और योरोपको राजनीतिका गुरु मानकर उसीकी देखा देखी बहुमतसे राष्ट्रव्य. वस्था करनेकी परिपाटी हमारे देश में उधारी लाई गई है। ऐसी स्थिति में देशकी शान्ति के ईश्वर ही प्रभु हैं। यह परिपाटी राज्यप्रबन्ध तथा नियम विधान दोनों से सारवत्ता या औचित्यको निश्चित रूपमें लुप्त कर देती है। बहुमतसंग्रहसे बने विधान तथा प्रबन्धसंबन्धी निर्णयोंका निःसार होना अनिवार्य है । यदि राज्यके नियमविधानों तथा प्रबन्धोंको सारवान बनाना हो तो यह काम उस उप्त विषयके एसे विशेषज्ञोंसे करानेमें ही राष्ट्रकल्याण है जिनमें न तो स्वार्थी प्रवृत्तियें हों, और न जिनमें भ्रम प्रमाद विप्रलिप्सा तथ! मतविरोध ही हो । अल्पके विरोध में बहुमत सचमुच भयंकर स्थिति है। यह राष्ट्र, प्रान्त, जिले तथा ग्रामोंको विरोधी Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधिक भार उठानेसे हानि ११९ दलों में बांट डालनेवाली मत्यन्त दूषित परिपाटी है । भारतके ग्रामोंतकको पार्टियामें बांट डालनेवाली इस परिपाटीके कुफल प्रत्यक्ष हैं अल्पके विरोधमें बहुमतीय निर्णयकी इस परिपाटीको योरोपसे भारत में उधारी लानेवालोंकी अनात्मज्ञ बुद्धि की जितनी निन्दा की जाय थोडी है। राष्ट्रव्यवस्थामें सर्व. सम्मत निर्णय ही भारतीय परिपाटी है। बहुमतीय निर्णयोंको राष्ट्रघाती कहने का तात्पर्य यह है कि बहुमत सदा ही मज्ञानियोंका होता है । बहुमत सदा उन साधारण लोगों के हाथों में चला जाता है जो केवल पेटपूजा तथा वंशवृद्धि करनेसे भाधिक कुछ भी नहीं जानते । राष्ट्र देखे कि सामाजिक प्रश्नों तथा उन्हें सुलझाने के सिद्धान्तोंसे सर्वथा अपरिचित रहनेवाले भोजनभोगपरायण पशुओंकीसी स्थिति लेकर जीवनके दिन काटनेवाले लोगों को राष्ट्रीय समस्याओंके सम्बन्धमें सम्मति देनेका अधिकार दे देना तथा इन्हें फुसलाकर इनके मतोंका क्रय करके राष्ट्रप्रतिनिधि बने"हए उत्तरदायित्वहीन अप्रामाणिक व्यक्तियोंसे देशके कर्तव्यशास्त्र ( अर्थात् व्यवस्थायें ) बनवाना तथा राज्यप्रबन्धमें सम्मति लेना बन्दरों के हाथों में छुरा पकडा देने जैसी प्रलय मचा देनेवाली कल्पना है । ( शक्तिसे अधिक भार उठानेसे हानि ) अतिभारः पुरुषमवसादयति ॥ १४६ ।। अतिभार (शक्तिसे अधिक कर्मका भार ) मनुष्यको हतोत्साह तथा क्लान्त करके उसके कर्मको अनिवार्यरूपसे निष्फल बना डालता या नष्ट कर देता है। विवरण- इस प्रसंगमें अतिभार तथा उचित भारके स्वरूपका प्रश्न स्वभाव से उपस्थित होता है । भार कर्मका स्वाभाविक साथी है। कर्मके साथ भार स्वभावसे लगा रहता है। उत्तरदायित्व हो भार है । यह भार मूलतः भौतिक न होकर मानसिक होता है । कर्ता अपने विवेकके सम्मुख अपने कर्मका उत्तरदायी होता है । जब उत्तरदायित्व अपना सीमोल्लंघन Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० चाणक्यसूत्राणि करता है तब वह विवेक से स्थानान्तरित होकर अविवेकाश्रित होजाता तथा करनेवालेको थका डालता है । तब वह उससे कर्तव्यपालनका सन्तोष छोनकर कर्मको अतिभारका रूप दे देता है। ऐसा कर्म कर्ताके सन्तोषका कारण न बनकर दुःखका कारण बनजाता ( अर्थात् कामनाको अपूर्ण रख देता ) है । कामनाका अपूर्ण रहजाना ही दुःख है । किसी भौतिक फलकी अभिलाषा हो कामना है । यहां यह बात विशेषरूपसे ज्ञातव्य है कि कर्मके संबन्ध में मनुष्यका अधिकार कहां तक है ? मनुष्यको जानना चाहिये कि कर्तव्यका भौतिक फल कर्म करनेवालेके अधिकार में नहीं होता। यह हम इसलिये कहते हैं कि वह कभी मिलता है और कभी नहीं भी मिलता। जब वह नहीं मिलता, तब फलाकांक्षी मानवका दुःखी होना अनिवार्य हो जाता है । परन्तु यह दुःख मनुष्यका स्वाधीन दुःख है । यदि मनुष्य दुःखी होना न चाहे तो उसके पास दुःखी होने या दुःख आनेका कोई कारण नहीं है । जानबूझकर स्वाधीन दुःखका वरण करना ही मनुष्यकी मूढता है | मनुष्यको यह भूलना नहीं चाहिये कि उसका अधिकार कर्तव्यपालन तक ही है ! फल तक नहीं। जब वह अपनी इस अधिकारसीमाको भूल जाता है तब ही फलकी अनुचित इच्छा करबैठता है । यही कर्मका अतिभार है । अपनी कार्यनीति से अपने विवेकको सन्तुष्ट रखना मनुष्यका कर्तव्य है और यही उसका महान उत्तरदायित्व है। यदि मनुष्य अपने विवेकको सन्तुष्ट करने के उत्तरदायित्वको भूल न गया हो तो उसका कम उसके सामर्थ्य तथा अधिकार तक ही सीमित रहता है फिर वह उसे मर्यादासे अधिक नहीं बढाता । फिर वह अविभारका रूप धारण नहीं करता और सुखदायी बन जाता है । अपने विवेकको सन्तुष्ट रखनेवाले इस प्रकारके अफलाकांक्षी मनुष्यका कर्मोत्साह, आग्रहपूर्वक अपनाये जानेवाले, स्वयं ही अपना फल बन जानेवाले, बडे से बड़े कर्तव्यको सुखसाध्य बनाकर उसके सम्मुख उपस्थित कर दिया करता है । संसार में दो प्रकार के कर्ता पाये जाते हैं। एक तो वे जो भ्रान्त सुखके लिये कर्म करते हैं । ये ही लोग सकाम या सदोष कर्ताकी श्रेणी में आते हैं । 1 Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधिक भार उठाने से हानि | भ्रान्त सुख और अभ्रान्त सुखके भेदसे सुखकी भी दो श्रेणी हैं। उन्हींको कल्पित और अकल्पित सुख भी कहा जाता है । भ्रान्त सुखके लिये कर्म करनेवालेका कल्पित सुख, कर्म करने में नहीं होता किन्तु कर्मके परिणाम के रूपमें आनेवाली अनिश्चित अप्राप्त अधिकारबाह्य वस्तु ही उसका सुख होता है | क्योंकि उसका अभिलषित सुख उसके अधिकार में नहीं है और उसके मिलने का कोई निश्चित आश्वासन भी नहीं है, इसलिये उसकी मान सिक स्थितिको या तो दुःख या सुखाभाव इन दोनोंमेंसे किसी भी एक नामसे कहना पडता है । इनके विपरीत दूसरे वे लोग हैं जो अभ्रान्त सुख से सुखी होकर अर्थात् सुखेच्छु न रहकर प्रतिक्षण कर्म करते हैं । इन लोगों की दृष्टिमें इनका कर्म स्वयं ही सुखरूपी लक्ष्य होता है। इन लोगों के मन्तव्य में उस कर्मको न करना ही दुःख माना जाता है । सुखके लिये कर्म करने वाला सदा ही अकर्तव्यपरायण होता है। जो सुखके लिये किया जाता है वी अकर्तव्य होता है । सुखलोभीका अकर्तव्यपरायण होना अनिवार्य है अकर्तव्यपरायण होना ही अतिभाराकान्त बन जाना है । कर्तव्य पहचानना ही समस्त विद्याओं का सार है । कर्तव्य पहचानने के पश्चात् फिर कोई भी कर्म मनुष्य के लिये भार नहीं बनपाता। कर्तव्यको कर्तव्यरूप में पहचान ही वही स्वयं सुखस्वरूप ध्येय बन जाता है। फिर उसके कर्ममें अवसाद रूपी दुःख कभी भी उपस्थित नहीं होता। अवसादरूपी दुःख तो अकर्तव्यमें हो जाता है । १२१ { शक्तिले बाहर कर्मभार पुरुषकर्मत्साह तथा कर्म दोनोंको नष्ट कर देता है । शक्ति ही बोझ उठानेकी मर्यादा है । शक्तिसे बाहर कर्ममार स्वयं उठाना या किसीपर लाइना कर्तव्यसे अपरिचय तथा कर्तव्यष्टता है कर्तव्य यदि सचमुच कर्तव्य है तो उसका सामर्थ्याधीन होना अनिवार्य है । कर्तव्यनिष्टको सामर्थ्याधीन कर्तव्य में अटूट उत्साह रहता है। वह कर्तव्यपालनकी सन्तोषरूपी सफलताको हस्तगत देखता रहकर विजयोल्लास से परिपूर्ण रहता है। मनुष्यको सामर्थ्यबहिर्भूत अर्थात् फलाकांक्षी बनकर कर्तव्य नहीं अपनाना चाहिये। क्योंकि फल मनुष्यकी शक्तिके अतीत Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभामें कटाक्ष हानिकारक नम्र, उदार, सारवती, सभ्य तर्कसंगत गमीर अकाट्य मनधिशेप्य भाषाका प्रयोग होना चाहिये । यह बडी गर्हित परिपाटी है कि सभामें किसी वक्त. ब्यके समय किसीपर व्यक्तिगत कटाक्ष जैसे हल्के भरोसे प्रतिपक्षीका मुख. मुद्रण करना चाहा जाय और संसदके किसी निर्णयपर पहुंचनेके मुख्य उद्देश्यको पीछे डाल दिया जाय । ऐसा करनेसे संसद संसद न रहकर मल्लयुद्धका अखाडा बनजाती और उसका मुख्य उद्देश्य समाप्त या नष्ट हो जाता है । संसदकी बैठकें सदा नहीं होती। वे जब कभी हों तब समस्त सदस्योंकी एकाग्र चिन्ताशक्तिके पूर्ण सदुपयोगसे विचारणीय विषयका सारभाग मक्खनके समान उद्धृत होकर सबको प्राप्त हो, इस बातका सभा. संचालकोंको पूरा ध्यान रखना चाहिये और व्यक्तिगत कटाक्ष करनेवाले वक्ताको बोलनेसे रोककर किसी दूसरे योग्य वक्ताको प्रकृत पक्ष के प्रतिपादनका अवसर देना चाहिये । सभामें व्यक्तिगत दोष दिखानेपर उतर आनेवाला व्यक्ति अपने इस आचरणसे सिद्ध करता है कि उसके पास विचारणीय पक्षको अनुचित सिद्ध करने वालो युक्ति नहीं है। वह अपने इस क्षुद्र ढंगसे प्रतिपक्षीको अवसर देदेता है कि वह भी सभाके सामने उसके व्यक्तिगत दोपोंको खोलकर रखे । दूसरके व्यक्तिगत दोष दिखानेका परिणाम प्रतिपक्षीसे अपने दोषों का बखान कराना होता है। जब सभामें किसी मनुष्य के वक्तव्यको परदोष दिखानामात्र पामो तब निश्चय जानो कि यह अपने दोष हटाने में उदास है और अपने में दोषाधिक्य सिद्ध कर रहा है । जिन लोगोंका लक्ष्य निर्दोष रहना होता है, उनके वक्तव्योंमें परदोषदर्शन नहीं रहता। परदोषदर्शन लक्ष्यवालों का अपने दोषोंकी उपेक्षा करनेवाला होना अनिवार्य होजाता है । अभियुक्त कह गये हैं--- यदीच्छसि वशीकर्तुं जगदेकन कर्मणा । · परापवादसस्येभ्यो गां चरन्ती निवारय । यदि तुम संसारको एक ही कर्मसे वशमें करना चाहो तो तो अपनी याणीरूपी गौको दूसरोंके दोषच रूपी सस्यों से दूर रखो। Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ चाणक्यसूत्राणि इस सूत्र में किसी राष्ट्रशत्रु को अपराधी सिद्ध करके उसे दण्डित करने के ही लिय ही बुलाई हुई सभामें उसके विरुद्ध अनिवार्यरूपसे आवश्यक उसके व्यक्तिगत दोषोंकी आलोचनाका निषेध नहीं किया जारहा है। क्योंकि उस समय ऐसा करना वक्ताओंका अनिवार्य कर्तव्य होता है । पाठान्तर- यस्संसदि परदोषं वक्ति...... । (क्रोध करने से अपनी हानि ) आत्मानमेव नाशयति अनात्मवतां कोपः ॥ १४८ ।। असंस्कृत मनवाले अविवेकी लोगोंका क्रोध उन्हींके आत्म. कल्याणका विनाशक होता है। विवरण- हिताहितबुद्धि से शून्य लोग स्वभावसे सत्यद्रोद्दी तथा असत्यप्रेमी होते हैं । वे अपनी विपरीत बुद्धिसे जहां सचाई, स्वाभिमान , अपमानासहिष्णुता मादि उदार गुण देखते हैं, वहीं सत्यका सिर नीचा करने के लिये उसपर आक्रमण करते और असत्यमें लिप्त रहते हैं : इम प्रकार के लोगों का प्रत्येक माचरण सत्यद्रोह होता और मामघाती क्रोधका रूप धारण कर लेता है। सत्यसे सम्मिलित रहनेरूपी उदार स्थिति से वंचित रहना हो मनुष्य का भारमनाश है । यह उसका ऐसा विनाश है कि जो कभी कभी भौतिक उन्नतिका रूप धारण किये हुए भी हो सकता है। असत्य के अधीन न होना मनुष्यकी सामरक्षा है। यही विनाश तथा रक्षा अथवा महित और हितको मन्त्रान्त परिभाषा है। इस परिभाषा अनुसार विवेकहीन हृदयवाल पापी लोग अपने पीडितका कुछ न बिगाड कर सदा भएना ही माहित करते रहते हैं। ये लोग जिस सत्पुरुषपर आक्रमण करते हैं उसकी भौतिक परिस्थिति या देह के आक्रान्त हो जानेपर भी उसका साधुहृदय आक्रमणातीत तथा पतनातीत बना रहता है। उस पापीके क्रोधसे साधु पुरुषकी भौतिक हानि होती दीखनेपर भी उसकी कोई भी मानसिक हानि नहीं Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्यकी महत्ता होती | मानवताकी दृष्टिमें मानसिक हानि ही सच्ची हानि होती है। भौतिक दानिलाभों के प्राकृतिक परिस्थिति तथा प्राकृतिक कर्तापनके अधीन होनेके कारण उनका मनुष्यके मानसिक हानिलामसे कोई सम्बन्ध नहीं है । मनुष्यका मानसिक हानिकाम तो उसके अपने ही कर्तृत्व के अधीन रहता है अविवेकीका सम्पूर्ण जीवनव्यवहार ही आत्मद्रोह होजाता है । आत्मद्रोह ही परिस्थिति अनुसार कभी कभी क्रोधका रूप धारण करलेता है । इसके विपरीत विवेकसम्पन्न व्यक्तिके सत्यप्रेमी तथा असत्यद्रोही होनेके कारण उसका असत्यद्रोह कभी कभी परिस्थिति के अनुसार क्रोध के रूपमें दीखनेपर भी उस क्रोधमें चित्तकी स्थिरता भी होती है, अखण्ड शान्ति भी रहती है, तथा आत्मकल्याणकी भावना भी अलुप्त बनी रहती है । दिवेकीका सम्पूर्ण जीवनव्यवहार सत्यनिष्ठा तथा असत्यद्रोहरूपी अक्रोध स्थितिमें अटल रहकर होता है । पाठान्तर - आत्मानमेव पीडयति on ( सत्यकी महत्ता ) नास्त्यप्राप्यं सत्यवताम् || १४९ ।। १२५ सत्यधनसे सम्पन्न व्यक्तियोंके लिये कोई भी प्राप्तव्य वस्तु अप्राप्त नहीं रह जाती । हैं विवरण- सत्यको पाचुकना ही संसारकी सर्वश्रेष्ठ संपत्ति से संपन्न हो जाना | इस कारण सत्यनिष्ठोंको कुछ भी अप्राप्य नहीं रहता उनकी दृष्टिमें सत्य ही एकमात्र प्राप्तव्य वह वस्तु होती है, जिसे वे पा चुके होते हैं। उनकी बुद्धि उन्हें संसार की सर्वश्रेष्ठ वस्तु सत्यको प्राप्त करानेके उपयोग में आकर उन्हें स्वभावसे सत्य से मिलाये रखने तथा असत्यका त्याग कराने के काममें भाती रहती और अस्थायी मिथ्या वस्तुओं की कामनाके जालसे बचाती रहती है । उनकी बुद्धि उन्हें क्षुद्र अस्थायी उद्देश्योंकी ओरसे विमुख बना देती है । Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ चाणक्यसूत्राणि जब मनुष्य के पास सत्यसे तृप्तिकी अवस्था भाती है तब असत्य (असार) पदार्थ स्वभावसे उपेक्षापक्ष में चले जाते हैं। पाठान्तर- नास्त्यप्राप्यं सत्यवताम् । कर्तन्यके लिये उचित उद्योग करनेवाले पुरुषार्थी सत्यनिष्ठ मनीषी बुद्धि मान किसी भी प्राप्य वस्तु के लिए अभावग्रस्त नहीं रहते। मनका पुरुषार्थ उन्हें सब समय सत्यधनसे धनवान बनाए रखकर कर्तव्यपालनके संतोषसे पूर्णकाम बनाए रहता है। ( केवल भौतिक शक्ति कार्यका उपाय नहीं) साहसेन न कार्यसिद्धिर्भवति ॥ १५० ।। साहस ( अर्थात् केवल भौतिक शक्तिपर निर्भर हो जाने) मात्रसे काम नहीं बनता। विवरण- भौतिक शक्ति सदा अन्धी होती है । वह अपनी सफलता तथा कृतकृत्यताके लिये सुनेतृत्व चाहा करती है। सुबुद्धि ही भौतिक शक्तिका नेतृत्व तथा सदुपयोग कर सकती है। भौतिक शक्तिको सुबुद्धिका नेतृत्व न मिले तो मनुष्यका साहस दुःसाहस बनजाता है। इस सूत्र में दुःसाहसको ही अकार्यसाधक कहा जारहा है। कर्ममें साहसके भावश्यक होने पर भी केवल उसीसे काम नहीं चलता। ससके लिये अन्य भी बहुतसे साधन अपेक्षित होते हैं। ( साहसमें लक्ष्मीका वास ) ( अधिक सूत्र ) साहसे लक्ष्मी ( खलु श्री) वसति। लक्ष्मी साहसमें बसती है। विवरण- वह नियतरूपसे साहसियोंके पास रहती है। साहसके सकटमें पडनेसे बचनेवाले लोग शुभदर्शनके अधिकारी नहीं बनते। सुबुद्धि के Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यसनासक्तिसे हानि १२७ नेतृत्व में प्रयुक्त हुई भौतिक शक्तिमें ही राज्यलक्ष्मीका वास है। दुष्कर कर्ममें हाथ लगाना साहस कहाता है । जब तक मनुष्य विनोंकी उपेक्षा करके सत्कार्यसम्पादनमें सोरसाद आत्मसमर्पण नहीं करता, तब तक उसे शुभ प्राप्त नहीं होता। न संशयमनारुहा नरो भद्राणि पश्यति । संशयं पुनरारुह्य यदि जीवति पश्यति ॥ मनुष्य अपने आपको संकटग्रस्त बनाये बिना शुभ नहीं पाता । अपनेको संकटमन बना देनेपर यदि जीवित रह जाता है तो भौतिक शुभ परिणामका दर्शन करता है । मरनेका अवसर भाजाय तो “हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्ग जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम् ' गीताके शब्दों में शुभभावनाके नामपर मर मिटनेके सन्तोषको अचूक साथीके रूपमें अन्ततक साथ रखकर मरता है। . ( व्यसनासक्तिसे हानि ) व्यसना” विस्मरत्यप्रवेशेन ॥ १५१॥ व्यसनासक्त मनुष्य ध्यानाभावसे कर्तव्यविमूढ हो जाता है। विवरण-व्यसनासक्त मनुष्यका बहिर्मुख मन अपनी बहिर्मुखतासे कर्तव्यके मर्मस्थलमें प्रवेश न कर सकने के कारण उसके लिये भीतरसे उत्साह न पाकर अपना कर्तव्य भूल जाता है। ज्यसनासक्त मनुष्य व्यसनासक्तिजन्य उत्साहहीनतासे कर्तव्यके मर्म या सम्पत्ति के मार्गतक न पहुंचा होकर कर्तव्यको भूल जाता या उसे समझ ही नहीं पाता । मनुने भाखेट द्यूत ( शतरंज ताश पहेली )दिवास्वप्न परनिन्दा परचर्चा विषयलोलुपता तथा मद आदि व्यसन गिनाये हैं । राजा या प्रजा प्रत्येक व्यक्ति इन महादोषोंसे बचे । Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ चाणक्यसूत्राणि ( समयके दुरुपयोगसे हानि ) नास्त्यनन्तरायः कालविक्षेपे ॥ १५२ ।। कालके दुरुपयोगमें निर्विघ्नता नहीं है। दीर्घसूत्रता विघ्न संकुल है। विवरण- कर्तव्योंको ठीक समयपर न करके उन्हें टालते चलेजाने (अर्थात् उनका काल खोते चले जाने ) में निश्चित रूपसे विघ्न माखडे होते हैं । कर्तव्योंको टालते रहना अपना काम बिगडवानेके लिये विनों को नौतना है । विघ्नको अन्तराय कहा जाता है। विघ्नविजेता मानव ही कर्तव्य करसकता और उसका फल पासकता है। जो मनुष्य उचित समयपर काम करके अपनेको अपने पुरुषार्थ से निर्विघ्न रखता है, उसके कामोंका उचित समय कभी नहीं चूकता और उसे कभी असफलताका मुंह देखना नहीं पडता । जो काममें विघ्न न आने देना चाहे वे कर्तव्यका काल न बीतने दें। कर्तव्यका काल न बीतने देनेमें ही कर्तध्यकी सफलताका रहस्य छिपा हुमा है । विचारशील लोग जबतक अपने पास मानेवाले प्रत्येक क्षणपर सदुप. योगकी मुद्रा नहीं मार देते, तबतक जीवनके एक भी क्षणको बीतनेकी माज्ञा नहीं देते। उनके जीवनका एक भी क्षण 8नके पाससे व्यर्थ भाग जानेका दुःसाहस नहीं कर सकता । इस प्रकार प्रत्येक क्षणका सदुपयोग करनेवालेके जीवनका महान बनजाना सुनिश्चित हो जाता है। संसारके अच्छे कामोंके समस्त उदाहरण समयरूपी धनके सदुपयोगके ही परिणाम हैं। मनुष्य के जीवनको एक विशाल भवनके रूपमें कल्पना करें तो यह भवन जिन इंटोंसे बनता है वे ईटें हमारे पास एक एक करके आनेवाले क्षण हैं। इन क्षणोंके सदुपयोगसे ही विशाल स्वर्गीय दिव्यजीवन नामका दिव्यभवन बनकर खडा होजाता है। पाठान्तर--- नास्त्यनन्तरायः कालक्षेपः । कालक्षेप करनेवाला मनुष्य निर्विघ्न नहीं होता । दूसरे शब्दों में निर्विघ्न वही मनुष्य होता है जो कालक्षेप नहीं करता। Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरोंका उत्तरदायित्व स्वार्थमूलक १२९ ( सुनिश्चित विनाशसे अनिश्चित विनाशमें लाभ ) असंशयविनाशात् संशयविनाशः श्रेयान् ॥ १५३ ।। संग्रामविमुख निश्चित मौतसे सांग्रामिक अनिश्चित मौत मनु. एयके लिये श्रेयस्कर है। विवरण-माज या सौ वर्ष पश्चात् मृत्यु तो मनुष्यकी होनी ही है। इसलिये इस निश्चित मृत्युका प्रतीक्षक न रहकर धर्मरक्षा करनेके लिये उपस्थित संभावित ( अर्थात् अनिश्चित ) विनाशयुक्त संग्राम क्षेत्रमें वीरगति पानेके सुअवसरको न खोकर, अपने अन्तिम श्वासोतक शत्रके दम्भको चूर्ण करने के लिये उद्यत रहने में ही वीरजीवनकी सार्थकता है। यदि विपत्तिसे बचकर भी मरण निश्चित हो तो विपत्तिका साम्मुख्य करते हुए या तो विजय या वीर. गति पाना अच्छा है। विपद्विजयके अनन्तर मिली मौत मनुष्यका सौभाग्य है। इस मौतमें विजय पाने तथा विजित न होनेका मात्मसन्तोष तो है। __ संग्रामसे बचने से मौतसे नहीं बचा जाता । जिस भनिवार्य मौतसे बचा ही नहीं जा सकता, उस मौतका विजयी मनसे आह्वान करनेसे ही मानव. जीवन सफल होता है और यही मौतको व्यर्थ बनाडालनारूपी मृत्युंजय बनना भी कहाता है। मृत्युंजय बनना ही वीर पुरुषोंकी एकमात्र पहचान है। अवीरोचित मारमप्रतारणा करके जीवनरक्षाके नामसे धर्मयुद्धस्थलसे भाग निकलने का समर्थन करना चाणक्य जैसे हुतारमाके इस सूत्रका अभिप्राय नहीं हो सकता। __ (दूसरोंका उत्तरदायित्व स्वार्थमूलक) अपरधनानि निक्षेप्तुः केवलं स्वार्थम् ॥१५४॥ दूसरेके धनको धरोहर रूपमें रखनेवाला यदि धरोहर रखने के साथ स्वार्थभेद और दूसरों के प्रति अपना कोई उत्तरदायित्व नहीं समझता होगा तो वह निश्चित रूप में प्रत्येक समय अपना ही स्वार्थ खोजता रहेगा। Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० चाणक्यसूत्राणि विवरण- धरोहर रखनेवाले के साथ भेदबुद्धि रखकर ( अर्थात् उसे केवळ अपना स्वार्थ निकालनेका साधनमात्र समझकर और अपनेपर उसका कोई उत्तरदायित्व न लेकर ) व्यक्तिगत या राष्ट्रीय धरोहर रखनेवाले स्वार्थी लोगोंका केवल स्वार्थपूर्ण दृष्टिकोण रहता है। क्योंकि वस्तु जिसके पास धरोहर रखी जाती है, उसके साथ विश्वासका संबन्ध जुड़ा रहता है, इसलिये विश्वास ही सच्ची धरोहर है। यह सूत्र विश्वा. सरूपी अपनी धरोहरको उपयुक्तपात्रोंको समर्पित करनेकी प्रेरणा देरहा है और चाहता है कि किसी राष्ट्र के लोग अपनी विश्वासरूपी धरोहरको अपा. त्रोंको सौंपनेकी भूल न कर बैठे । पात्र अपात्रका विवेक करके विश्वासका संबन्ध सुपात्र के साथ ही जोडना चाहिये । किसीको धरोहर सौंपने के संबन्धमें इतनी सावधानी बरतनेपर कटुता और कर्तव्यहीनताका दोष लगानेकी संभावना नष्ट होजाती है। जो मनुष्य मांख बन्द करके किसीके भी साथ धरोहर रखने का संबन्ध मन्धाधुन्ध जोड लेता है उसके संबन्धमें कटुता आना और शिकायतका अवसर पैदा होना अनिवार्य है। स्वार्थभेदकी दूषित चोरबुद्धि लेकर दूसरोंकी धरोहरका उत्तरदायित्व लेना पाप है। ऐसा उत्तरदायित्व लेनेवालोंके मनमें उस धरोहरमेंसे केवल अपना स्वार्थ निकालने के अतिरिक्त और हो ही क्या सकता है ? जैसे स्तनोंपर चिपटनेवाली जोख गौके यनमेंसे दूध न पीकर रुधिर ही पीती है इसी प्रकार मनमें स्वार्थभेदको रखकर धरोहर संभालनेवाले लोग सेवा या कर्तव्यपालनका सन्तोष न लेकर सब समय उस धरोहरमेंसे कुछ न कुछ या अधिकसे अधिक चुरा लेनेके विचार रखते हैं। ऐसे लोगों को पहचानना तथा ऐसों के पास धरोहर न रखना जनताका स्वहितकारी महत्वपूर्ण कर्तव्य है। धरोहर तो ऐसे लोगों के पास रखी जानी चाहिये जो धरोहर रखनेवाले के हितमें अपना हित समझनेवाले धार्मिक (ईमानदार ) हों। धरोहरका अर्थ ही विश्वास है। विश्वासका संबन्ध उन्हीं लोगोंसे जोडना चाहिये जिनकी भोरसे विश्वासघातकी कोई संभावना न हो। सूत्रका व्यापक अभिप्राय यही है Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरोंका उत्तरदायित्व स्वार्थमूलक १३१ कि जिससे प्रेम या विश्वासका संबन्ध जोडा जाय उसे भले प्रकार पहचान कर ही जोडना चाहिये। विचारों और स्वार्थोंकी एकता ही प्रेम है । जहाँ मतभेद और स्वार्थभेद है, वहां विश्वासघात होना अनिवार्य है। राजधर्मके प्रसंगमें सूत्रार्थ इस प्रकार होगा- राष्ट्र के राज्याधिकारको धरोहर रूपमें अपने उत्तरदायित्वमें लेनेवाले राज्याधिकारी यदि अपनी परायी भेदबुद्धि रखते होंगे और राष्ट्रीय कार्योंको परायी धरोहरमात्र समझते होंगे तो यह निश्चित है कि वे उसमें से केवल अपना ही स्वार्थ खोजते रहेंगे और उस राज्याधिकारको भ्रष्टाचारका (अड्डा) भागार बना डालेंगे। राष्ट्रव्यवस्था राष्ट्रकी धरोहर है । राष्ट्रके धन, प्राण तथा शान्तिकी रक्षा करना ही राष्ट्रव्यवस्थाका रूप है। राष्ट्रने इसी राष्ट्रव्यवस्थाको राजशक्तिके पास धरोहर रूपमें रखा हुभा है । यह धरोहर जिन लोगोंके पास रहती है, उनके व्यक्तिगत स्वार्थी होनेकी प्रबल संभावना रहती है। इसी संभावनाके विरुद्ध जनताको चेतावनी देना इस चाणक्यसुत्रका निगढ भाभिप्राय है । धरोहर रखनेवालोंमें वही श्रेष्ठ माना जाता है जो धरोहरको सुरक्षित रखकर उसके वास्तविक स्वामीको लौटा देने के लिये प्रत्येक समय सन्नद्ध रहे तथा धरोहरके संरक्षणमें समर्थ बने रहनेके लिये पारिश्रमिकके रूपमें अपना समाजानुमोदित प्राप्य पाता रहे । जो मूढ राज्याधिकारी धरोहरकी सुरक्षा तथा उसे उसीके स्वामीको लौटानेमें आत्मकल्याण न समझता हो यह क्षुद्र स्वार्थी कहाता है । जो दूसरेके धन अर्थात् सुरक्षित रखनेके योग्य प्रिय वस्तुको धरोहर रूपमें स्वीकार करके भी अपने स्वार्थको धरोहर रखनेवालोंके स्वार्थसे अलग समझने की भूल करता है, वह अपने क्षुद्र स्वार्थ के वशमें होकर दूसरोंके स्वार्थका घातक बनकर विश्वासघात कर बैठता है । धरोहर रखने तथा उसे स्वीकार करनेवाले दोनोंके स्वार्थोंकी एकता ही नि:स्वार्थ प्रेमका संबंध होता है । सब सबके स्वार्थको अपना ही स्वार्थ समझें इसीमें सबका यथार्थ कल्याण है। राज्याधिकारी लोग प्रजाके कल्याणमें ही अपना कल्याण देखें, राज्यव्यवस्था में अपने स्वार्थको प्रधानता न Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि दे बैठें, यही राज्यव्यवस्थाके प्रजाकल्याणकारी होनेकी कसौटी है | जब राजकर्मचारियोंका तथा प्रजाका इस प्रकार प्रेमका आदान प्रदान होने लगे तब इसीको प्रजातन्त्र या रामराज्य कहा जासकता है । राजा प्रजामें इस प्रकारका प्रेमका आदान प्रदान होते रहनेपर विश्वासघातका अवसर नहीं रहता । १३२ राज्यतन्त्र समस्त राष्ट्रकी घन, प्राण, शान्तिकी एक पवित्र धरोहर है । राज्यतन्त्र रूपी यह धरोहर अत्यन्त धार्मिक निक्षेपियोंके पास रखनेकी वस्तु है | उत्तम निक्षेपियोंको खोजनिकालना तथा राष्ट्रमें उत्तम निक्षेपी लोगों के निर्माणका प्रबन्ध बनाये रखना, राष्ट्रका स्वहितकारी कर्तव्य है । वही राजा और वे ही अमात्य आदि राजकर्मचारी वर्ग राष्ट्रकी इस पवित्र धरोहरको स्वीकार करने के योग्य हैं जो राष्ट्रके कल्याणमें ही अपना कल्याण समझते हों। यदि राज्यके कर्णधार लोग राष्ट्रकी इस धरोहरके प्रति अधार्मिक (बेईमान ) हो रहे हों; अपने व्यक्तिगत क्षुद्र स्वार्थको महत्व दे रहे द्दों, यदि वे शासितसे अलग अपनी लोभी शासक जाति बना बैठे हों, तो देशद्रोही हैं, राष्ट्रघाती हैं, और दण्डनीय हैं। राष्ट्रकी इस पवित्र धरोहरमेंसे स्वार्थसाधन करनेवालोंको दण्डित और पदच्युत करना प्रत्येक चक्षुष्मान् राष्ट्र तथा राष्ट्रप्रेमीका महत्वपूर्ण कर्तव्य है । राष्ट्रीय धरोहर के साथ विश्वासघात करनेवाले राजकर्मचारियोंको दण्ड मिलना और उनका दण्ड पानेसे न बचपाना राष्ट्रशोधक वह लंकादाह है जिसमें पापका वध करके से फूंक दिया जाता और राष्ट्रकी पवित्रताकी रक्षा होती रहती है । जब राष्ट्र अपने इस महत्वपूर्ण कर्तव्य के पालनमें उदासीनता बरतता है, तब राष्ट्रमें शासकोंकी शासितसे अलग एक ऐसी जाति बन जाती है जिसके स्वार्थ राष्ट्रीय स्वार्थसे अलग होकर टकराने लगते हैं । यदि राष्ट्र अपने धन, प्राण तथा शान्तिकी धरोहरकी रक्षाके कामको स्वार्थी, अधार्मिक तथा अयो हाथोंमें सौंप देता है तो वह कौमोंसे दद्दीकी रक्षा करानेकी भूल कर बैठता है । राष्ट्रकी धरोहरको अयोग्य लोगोंको सौंपना उन्हें जान बूझकर अपराधी बनने का अवसर देना है । Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरोंका उत्तरदायित्व स्वार्थमूलक राजा या राजकर्मचारी जहां अपराधी हैं वहां उन्हें अपराध करने देने वाला राष्ट्र ही उस पापका उत्तरदायी है । क्योंकि जनताके सहयोगके बिना कोई भी राजा या राजकर्मचारी राष्ट्रीय धरोहरका स्वार्थमूलक उपयोग कर ही नहीं सकता। जो राज्याधिकारी इस पवित्र धरोहरका दुरुपयोग करते हैं, वे राष्ट्रको तो हानि पहुंचाते ही हैं साथ ही स्वयं भी नष्ट होनेसे नहीं बचपाते । इसलिये नहीं बचपाते कि उनके तथा राष्ट्रके कल्याणमें कोई अन्तर नहीं है । यदि उन्होंने राष्ट्रको हानि की है तो वह उनकी भी तोहानि ही है। यदि वे राष्ट्र के साथ न्याय करें तो उसमें राष्ट्र के साथ उनका भी तो कल्याण हो। क्योंकि उनका कल्याण राष्ट्र कल्याणसे पृथक कोई वस्तु नहीं है । कल्याणको व्यक्तियों में खण्डित नहीं किया जा सकता। कल्याण अखण्टु वस्तु है। कल्याण सबके साझेको वस्तु है। जिसमें एकका कल्याण है उसमें सभीका कल्याण है । इस दृष्टि से राष्ट्रके सच्चे प्रतिनिधि विज्ञ लोगोंका कर्तव्य होता है कि सबसे पहले राष्ट्रको अपना हित अहित तथा शत्रु मित्र पहचानना सिखायें, सुयोग्य हाथों में राज्यशक्तिरूपी राष्ट्रीय धरोहर सौपें और इसे अयोग्य हाथोंमें न रहसकने की सुदृढ व्यवस्था करें। इतना किये बिना राज्यशक्तिको अयोग्य हाथों में जानेसे नहीं रोका जासकता । राजसत्ताका निर्वाचन रायका ही उत्तरदायित्व है। जहां राजसत्ता दोषी है वहां राष्ट्र ही अयोग्य हाथों में सत्ता सौंपने तथा रहने देनेका उत्तरदायी है। जब कि राष्ट्रकी सम्र्मातसे राज्यशक्ति बननेकी परिपाटी है तब राष्ट्र शक्ति बननेका अधिकार सार्वजनिक कल्याणबुद्धि रखनेवाले सेवकों को ही सौंपना चाहिये । उसे अविवेकी हाथों में नहीं जाने देना चाहिये । राष्ट्रशक्तिके राष्ट्रनिर्माणके काममें ही प्रयुक्त होनेकी सुदृढ व्यवस्था होनी चाहिये । • मार्य चाणक्य इस सूत्रके द्वारा लोकमतसे कहना चाहते हैं कि राष्ट्र राष्ट्रीय धरोहर अपने पास रखनेवालोंके व्यक्तिगत स्वार्थोकी ओरसे पूरा सचेत रहे और राज्यसंस्थाको उनका व्यक्तिगत स्वार्थ पूरा होने के काममें न माने दे। Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ ( दान स्वहितकारी कर्तव्य ) दानं धर्मः ।। १५५ ॥ चाणक्यसूत्राणि दान ( अर्थात् योग्य पात्रकी सहायता करना ) धर्म ( मनुव्यका स्वहितकारी कर्तव्य ) है । विवरण - सत्यके हाथमें आत्मदान किये रहनेवाले दाता तथा प्रतिग्रहीताका सत्यार्थ व्यवहारविनिमय ही सच्चा दान है । धनार्थी सुपात्रको ही धनका सच्चा स्वामी जानकर दीयमान धनको अपने पास रखी हुई योग् पात्रकी धरोहर मानकर उसकी धरोहर उसीको सौंप देना दानकी परिभाषा या दानका आत्मा है। किसी संसारी लाभकी दृष्टिसे किसीको कुछ धन या भोजन, वस्त्रादि दे देना दानका आत्मा नहीं है । दाता के घमंडी आसन पर बैठे रहने और दानका कुछ विनिमय चाहते रहने से दानका स्वरूप प्रकट नहीं होता । दानका भरमा तब पूरा होता है जब वह दातासे आत्मदान करा लेता है । जो मनुष्य अपना दातापन भूलजाता है और कार्यार्थी होकर आनेवाले को ही स्वाधिकारान्तर्गत वस्तुका यथार्थ स्वामी जानकर अर्थात् उस पदार्थको उसीकी धरोहर मानकर ऋणमुक्त होनेकी भावनाके साथ दान करता है, उसके मनमेंसे दाता और प्रतिग्रहीताका भेद ही लुल होजाता है । यही दानका सच्चा रूप होता है । मनुष्य के साथ मनुष्य का लेने देनेका व्यवहार चलता ही रहता है । इस व्यवहारविनिमय में स्वार्थकी भावना भी रह सकती है और मानवधर्मरूपी दानधर्म भी विराजता रह सकता है । पिता के साथ पुत्रका पालनपोषण, तथा सेवा आदिका, आचार्योंके साथ अन्तेवासियोंका बाचार, शिक्षा तथा सेवाका, मित्रोंके साथ दान प्रतिदान सहयोग सहायता आदिका, समाजके साथ व्यक्तिका आदान प्रदानका संबन्ध चलता रहता तथा राष्ट्रके साथ नागरिकों का सेवाका संबन्ध बना रहता है। इस पारस्परिक व्यवहारविनिमय में कहीं तो स्वार्थकी भावना पाई जाती है, तथा कहीं मानवधर्म Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दान स्वहितकारी कर्तव्य रूपी दानधर्म पाया जाता है । सच्चा व्यवहारविनिमय ही दान है। जब ज्यवहारविनिमयमें सचाई माजाती है तब ही वह दान कहानेका अधिकारी बनता है । दाता तथा प्रतिग्रहीता दोनों से किसी के भी मनमें पारस्परिक लुण्ठनका विचार न भाकर व्यवहारविनिमय होना ही दानधर्मका सर्वोत्तम क्षेत्र है। दानकी इस परिभाषाके अनुसार सच्चा दाता वही है जो विनि. मयके लोभसे बात्मप्रतारित नहीं होता, तथा दानके नामसे किसीका लुण्ठन करमा नहीं चाहता। सम्मा प्रतिग्रहीता वही है जो भिखारी बनकर दाताको लगने या किसी दाता नामधारीकी ठगईमें मानेकी भ्रान्तिके अतीत है । यही दाता तथा प्रतिग्रहीताके पानापात्रकी सच्ची कसौटी है। जो मनुष्य इस प्रकार दान करना या उसे स्वीकार करना जान जाता है, वह भमर धनका स्वामित्व पालेता है । वह दाता और ग्रहीताकी एकताको पहचान कर समस्त धनोंके एकमात्र अक्षय स्वामीके साथ सम्मिलित होजाता है। उसके सर्वभूतात्मदर्शी विशाल मनमें से किसी भी धनपर व्यक्तिगत स्वार्थमूलक अधिकार रखनेको भावना लुप्त होजाती है। अधिक क्या, यह सारा ही संसार उसकी संपत्ति बन जाता है। " सर्व स्वं ब्राह्मण. स्वेद यत्किंचिज्जगतीगतम् ।” संसारमें जितने भी धन हैं वे सब ब्रह्मदर्शी विद्वानोंकी सम्पति हैं । जो इस प्रकार दान करना जान जाता है वह अमर धनका स्वामित्व पालेता है । यह सारा ही संसार उसकी संपत्ति हो जाता है। ऊपर कहा जाचुका है कि दूसरोंका अधिकारपहरण न करना अर्थात् सार्वजनिक कल्याणमें अपना कल्याण समझना ही दान या मानवधर्म है। भाइये राज्यतन्त्रके सम्बन्धमें दानधर्मपर विचार करें। राज्यतन्त्र में राज्या. धिकारी इस दान नामक मानवधर्मसे हीन होजाय तो वह कार्यार्थियोपर राज्यशक्तिका दबाव डालकर उनसे अनधिकारपूर्वक धनापहरण करनेकी सुविधा पाजाता है । यही अयोग्य राज्याधिकारियोंकी वह दानविरोधी अधार्मिक मनोवृत्ति होती है जो उनसे राष्ट्रका अपहरण कराती और अपने शुद्र पेटके लिये राष्ट्रके चरित्रका विनाश करती है। दूसरोंका अधिकारा Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ चाणक्यसूत्राणि पहरण न करने तथा सार्वजनिक कल्याणमें ही अपना कल्याण समझनेवाले व्यक्ति ही आदर्श राज्यतन्त्र के धारक तथा निर्माता नागरिक होसकते हैं । इनके विपरीत अपने व्यक्तिगत स्वार्थको सार्वजनिक कल्याणसे अलग समझ कर कार्यार्थी समाजपर राजशक्तिके दबाव से आक्रमण करना भदान है, अधर्म है और आसुरिकता है । राज्यव्यवस्थापकों में से कोई किसी प्रजाके साथ छीना झपटी न करे, यही दानका सामाजिक तथा राजनैतिक रूप है । दूसरे के अधिकारपर हस्तक्षेप न करनेरूपी यह दान किसीको कुछ न देनेपर भी दानकी परिभाषामें आजाता है । यह दान द्रव्यात्मक न होकर भावनात्मक है । यह सूत्र राज्यव्यवस्थामें इसी भावनामय दानको प्रयोग में लाना आवश्यक बतानेके लिये हो बना है । चाणक्यने राजनीतिमें धर्म के नाम से दानको रखकर दानके इस राजनैतिकरूपकी ओर जो संकेत किया है वह भारतीय संस्कृति के मार्मिक चाणक्यकी राजनैतिक प्रतिभाकी विशेषता है । यह बड़े आश्चर्य की बात है कि दानधर्मका यह महत्त्वपूर्ण यथार्थरूप आजतक चाणक्य मिन किसी भी आधुनिक लेखकको नहीं सूझा और किसीने भी इस दानधर्म से राज्यतन्त्र के पवित्रीकरणके द्वारा राष्ट्रशोधनका उपक्रम नहीं किया । ( दानका उचित मार्ग ) ( अधिक सूत्र ) अपरधनानपेक्षं केवलमर्थदानं श्रेयः । बदलेमें दूसरेसे कुछ पाने की अपेक्षा न रखकर निःस्वार्थ शुद्ध अर्थदान ही श्रेष्ठ (अर्थात् कल्याणकारी ) होता है । विवरण - गीतामें दानके सात्विक, राजस, तामस तीन भेद वर्णित हैं । दातव्यमिति यद्दानं दीयतेनुपकारिणे । देशे काले च पात्रे च तद्दानं सात्विकं स्मृतम् ॥ यत्तु प्रत्युपकारार्थ फलमुद्दिश्य वा पुनः :1 दीयते च परिक्लिष्टं तद्दानं राजसं स्मृतम् ॥ अदेशकाले यद्दानमपात्रेभ्यश्च दीयते । असत्कृतमवज्ञातं तत्तामसमुदाहृतम् ॥ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सच्चा धन बदले में उपकार पाने की भाशा न रखकर, केवल कर्तव्य बुद्धि से देश, काल, पात्र देखकर दिया हुभा दान शुद्ध साविक दान है । प्रत्युपकारके लिये या फल भावनासे तथा क्लेशपूर्वक दान राजप्स दान हैं। अदेश, अकाल तथा मपात्रको असत्कार और अवज्ञाके साथ दिया दान तामप्त दान होता है । ( अनार्यप्रचलित व्यर्थ आचरण अनर्थजनक ) नार्यागतोऽर्थवद्विपरीतोऽनर्थभावः ॥ १५६ ॥ अनार्य ( अज्ञानी ) समाज में प्रचलित परम्परागत व्यर्थ आच रण ही मानवजीवननाशक अनर्थ है। विवरण ---- अनायोचित व्यर्थ भाचरणोंसे बचने में ही मानवजीवनको सार्थकता है । उन्नतिकामी मनुष्य रुधिविरुद्ध नाच, गान, खेल, तमाशे तथा ताश, शतरंज, जुना आदि व्यर्थ भनाय माचरणोंसे बचे । (सचा धन ) __ ( अधिक सूत्र ) न्यायागतोऽर्थः । न्याय अर्थात् धर्म सुनीति और समुचित उपायांसे समुपार्जित धन ही धन कहलाने योग्य है। विवरण- अन्याय मनीति तथा दूसरोंको उद्विग्न करडालनेवाले अनु चित उपायों तथा उद्वेजक ढंगोंसे उपार्जित धन धन के रूपमें महान् अनर्थ है । 'परित्यजेदर्यकामो यो स्यातां धर्मवर्जिती । ' मनुष्य धर्महीन अर्थ और धर्महीन कामसे सुखी होने की आशा न बांधे । धर्माचारहीनोंका धन मल. संचय मात्र है। ( अधिक सूत्र ) तद्विपरीतोऽर्थाभासः । हीन उपायों मार्गों या प्रकारोंसे प्राप्त धनको अर्थरूपधारी अनर्थ मानना चाहिये। Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि विवरण - क्योंकि मनुष्यतासे पतित होकर ही अर्जित होनेवाला धन मूर्तिमान् अनिष्ट है, इसीलिये मनुष्यका चोरी, दस्युता, शठता, कुटिलता, माया तथा अनृतसे धनोपार्जन करना निन्दित है । हीन उपायोंसे आनेवाला 'वन नीचाशयको अच्छा लगता है । १३८ पाठान्तर- तद्विपरीतोऽनर्थसेवी । असन्मार्ग से धनोपार्जन करनेवाला मनुष्य निश्चित रूपसे अभापतित ढोकर अकथ्य हानि उठाता है । ( सपाजकल्याणकारी त्रिवर्गान्तर्गत काम ) यो धर्मार्थो न विवर्धयति स कामः ॥ १५७ ॥ जो धर्म, अर्थ दोनोंको वृद्धि न करे वह काम है । विवरण - इस पाठ में अर्थ संगतिका अभाव है । पीडयति पाठान्तर में अर्थसंगति है । इससे यह अपपाठ है । पाठान्तर-- यो धर्मार्थी न पीडयति स कामः । जो काम मानवोचित धर्म तथा मानवोचित अर्थनीति दोनों में से किसीको जी विकृत नहीं करता वही स्वीकरणीय काम है । यथार्थ काम ' वही है जो धर्म और अर्थ दोनोंमेंसे किसीको बाधा न करे या हानि न पहुंचाये। धर्म ( अर्थात् अनपहरण या दूसरों के अधिकारपर अनाक्रमण ) तथा अर्थ ( अर्थात् धर्मपूर्वक उपार्जित जीवनसाधनों ) का विरोध या अपघात न कर बैठनेवाले, समाजकी शान्तिके संरक्षक सुखोपभोग काम' कहते हैं । धर्म, अर्थ तथा काम ये नीतिज्ञोंके त्रिवर्ग या तीन पुरुषार्थ हैं । 'धर्मार्थकामाः सममेव सेव्याः ' । धर्म, अर्थ तथा काम तीनों को सन्तुलितरूप में सेवन करना चाहिये, इन तीनों में पारस्परिक सहकारिता और अवध्यघातकता रहनी चाहिये | गीता में कहा 1 है. धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोस्मि भरतर्षभ । Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कामका दासतासे हानि हे अर्जुन, मैं प्राणियों में पाया जानेवाला धर्मका अविरोधी काम हूं । मनुष्य उस अर्थ तथा उस कामको परित्याग करदे जो धर्मसे हीन हो । धर्मविरोधी कामके सेवन से भोगलौल्य बढता है, इन्द्रियें विषय के पंकमें फंस जाती हैं, और भोगीके हृदयको अशान्त करके उससे समाजकी शांतिका भंग करवाती हैं । १३९ मानवकी इन्द्रियोंका विषयलोलुप होकर विषयोंमें प्रवृत्त होजाना और उनपर मानवका प्रभावशाली नेतृत्व या नियन्त्रण न रहना कामका दूषित रूप है। उसका यह दूषित रूप धर्म तथा अर्थको तिलांजलि मिलजाना निश्चित कर देता है । कासे बढे हुए इस दूषित रूपसे मनुष्यजीवन स्वयं कलुषित होकर समाजकी शांति घातक शत्रु बन जाता है और व्यक्ति तथा समाज दोनोंकी आपत्तियें बढजाती है । इसलिये श्रेष्ठ मानव के जीवन में कामको धर्म, अर्थके अनुरूप या इनका अविरोधी बनकर रहना चाहिये । ( अधिक सूत्र ) तद्विपरीतः कामाभासः । अधर्मीका उत्पादक तथा अर्थनीतिका विनाशक काम आपाततः सुख प्रतीत होनेपर भी अतृप्तिजनक शान्तिघातक दुःख हो । विवरण- इस उच्छृंखल कामसे मानवकी भोगेच्छाओंका संबंध त है परन्तु इसके साथ मानव के कल्याण और शान्तिका कोई भी संबंध नहीं है । ऐसे अधर्मजनक अर्थनाशक तथा अशान्त्युत्पादक कामसे मानवका अनिष्ट ही होता है । अपना अनिष्ट करनेवाली वस्तुकी इच्छा काम नहीं दुष्काम है 1 इसी प्रकार दूसरेका अनिष्ट करने की इच्छा भी काम नहीं दुष्काम ही है ( काम की दासतासे हानि ) 1 तद्विपरीतोऽनर्थसेवी ॥ १५८ ॥ धर्मार्थाविरोधी कामसे विपरीत कामना करनेवाला मानव, अपने जीवनको व्यर्थ करता, समाजमै अशान्ति उत्पन्न करता तथा समाजकी शान्तिकी शृंखलाको नष्ट कर देता है । - Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० चाणक्यसूत्राणि ( समाज में निष्कपटोंकी न्यूनता ) ऋजुस्वभावो जनेषु दुर्लभः ॥ १५९ ॥ सत्पुरुष के साथ निष्कपट निर्व्याज, सभ्य, बर्ताव करनेवाला, कर्तव्यपालन मात्रपर दृष्टि रखनेवाला ऋजु व्यक्ति मनुष्यों में दुर्लभ होता है । विवरण - संसार में सचाई से ही सचाईका विनिमय देनेवाले व्यक्ति विरल होते हैं । सत्पुरुषों के साथ सचाई से बर्तावशुद्धबुद्धि मनुष्य अनिवार्य रूप से सत्यका तो पक्षपात्र तथा असत्यका विरोध करनेवाला होता है ! उसको ऋजुता उसे असत्यका विरोध करनेसे रोकनेवाली दिखावटी ऋजुता नहीं होती । वह असत्यारूढ परिचितोंको क्षणभर में अपरिचितके समान त्याग देता है । वह किसी दूसरे के लिये ऋजु नहीं है । वह तो अपने आराध्यदेव सत्यनारायणको आराधनाको अक्षुण्ण बनाये रखनेके लिये ऋजु है और केवल ऋजु है । परप्रदर्शन या पराराधन उसकी ऋजुताका स्वरूप नहीं है। वह पराराधननिरपेक्ष होकर जहां कहीं अपने आराध्य सत्यको पाता है, वही ऋजु और जहां सत्यको नहीं पाता, वहां क्रूर, कठोर, भक्षमी, असहिष्णु और प्रतिविधाता बनने से नहीं चूकता। संसार में ऋजुताके कृत्रिम प्रदर्शन बहुधा होते हैं । परन्तु सत्यारूढों से बनावटी शिष्टाचारवाली ऋजुता से संबन्ध नहीं रखाजाता । सदसद्विचार न रखनेवाले मनुष्य की दिखावटी ऋजुता वास्तवमें ऋजुता न होकर निर्बुद्धिता, विचारहीनता, कुटिलता और परवचनका दुष्ट कौशलमात्र होता है । कुछ लोग दुष्टोंके साथ भी सरल बर्ताव करनेका उपदेश देनेकी धृष्टता करते हैं और वे इस मूढताको भी ऋजुता के अर्थ में लानेका दुःसाहस करना चाहते हैं | परन्तु दुर्जनों के साथ निष्कपट बर्ताव करनेका यशोलोलुप अन्यावहारिक संसार में कोई स्थान भले ही हो, व्यावहारिक संसारमें तो उसका Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाजमें निष्कपटोंकी न्यूनता १४१ कोई भी स्थान नहीं है। जो मनुष्य दुर्जनके साथ भी निष्कपट बर्ताव करनेका दिखावा करता है वह दुर्जनकी दुर्जनताका ही समर्थक सत्यघातक विपरीतव्यवहारी होकर स्वयं भी दुर्जन श्रेणी में चला जाता है। दुर्जनोंके साथ निष्कपट बर्ताव करने का प्रदर्शन करनेवाले लोग या तो यशोलोलुपता रूपी मानसिक निर्बलतासे आक्रान्त अथवा दुर्जनों के प्रतिविधान ( बदले ) से भयभीत रहनेवाले कायर लोग होते हैं। सबके भले महात्मा बननेको भावना इन लोगोंका विवेक हरलेती है । इस प्रकारके लोग सबके भले बने रहने की यशोलिप्सासे दुर्जनोंके प्रभावमें भाकर उनके तो सहायक तथा सचाई के घातक बनकर समाजके शत्रुओंमें ही सम्मिलित होजाते हैं । किसी भी चक्षुष्मान् व्यक्तिका श्रेष्ठ दष्ट दोनों पक्षों में सम बर्ताव करनेवाला होना किसी भी प्रकार संभव नहीं है। दोनों पक्षों में समभाव अव्यावहारिक कल्पना है । अच्छे बुरेकी असंभव समता ऋजुताके अर्थ में मा ही नहीं सकती। किन्तु सत्यकी सक्रिय अनुकूलता तथा असत्य अन्याय या पापकी प्रभावशालिनी क्रियात्मक प्रतिकूलता ही ऋजुताका मर्म है। जिस विषयलोलुप स्वार्थी संसारको सत्यका पक्ष अपनानेसे अपनी भौतिक परिस्थितिको हानि पहुंचनेकी संभावना देखती है वह उससे डर. कर दुष्टोंकी दुष्टताका विरोध न करनेकी नीति अपनालेता है। वह अपने वैषयिक संसारपर चोट न माने देनेके लिये अपने इस अविरोधको माध्यात्मिकता, नि:स्पृहता, मसंगता और उदासीनताके रंगमें रंगकर महात्मा बनना चाहता है। समाज सदासे समाजसंरक्षक तथा समाजघातक दो श्रेणियों में अनिवार्यरूपसे विभक्त होता मारहा है । परन्तु इस भ्रान्त माध्यास्मिकताने धर्मका ठेका लेरखनेवाली एक और तीसरी श्रेणी पैदा करडाली है जो सदासे लाखों कपटी महात्मा पैदा करती रही है । यह श्रेणी शान्तिप्रिय. ताका ढकोसला करके दुष्टविरोध न करनेकी नीतिको अपनाये रहती है और आश्चर्य तो यह है कि यह सब भ्रान्त आध्यात्मिकताके सृष्ट असंगता अविवादरुचिता आदि उदात्त धमाँकी दुहाई देकर या ढकोसला करके करती Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि है । ये लोग अपनी इस भ्रान्त धारणा तथा भ्रान्त प्रवृत्तिके कारण स्वयं भी समाजद्रोही श्रेणी में सम्मिलित होजाते हैं। समाजके माध्यामिक कहलाने वाले वे लोग जिनका अधर्मविरोध करना मुख्य कर्तव्य है, अपनी इस प्रवृ. त्तिसे देशद्रोहियोंकी ही शक्ति बढा डालते हैं। संसारके भ्रान्त आध्यात्मिक लोग सारे मनुष्यसमाजको धर्मके नामपर कापुरु. षताके समर्थक निकम्म नपुंसक बनाने में लगे हुए हैं। मासुरी शक्तिका विरोध करनेसे बचनेवाले वास्तव में भासुरी शक्तिके ही उपासक हैं । संसारभरमें जहां कहीं मासुरी राज्य ठहरे हुए हैं,वे इन धार्मिक मिथ्याचारियों के भ्रान्तधर्मविषयक मिथ्याप्रचारसे ही ठहरे हुए हैं । ये भ्रान्त माध्यात्मिक लोग ही आसुरी राज्योंको स्थिर रख रहे हैं। इन लोगों को भ्रान्त आध्यात्मिकताके प्रचारने लोगोंको धर्मका यथार्थ रूप समझनेसे वंचित करडाला है। इन लोगोंके मिथ्या प्रचार समाजकी आध्यात्मिक दृष्टि खुलने ही नहीं देते । ये समाजकी मांखोंको खुलनेसे रोकनेवाले भोटे बने हुए हैं। यदि समाजमें भ्रान्त माध्यात्मिकता न फैली होती तो समाज मासुरी राज्योंको कभीका उखाड फेंकता : समाजमें सच्चे धार्मिक ऋजु लोगोंकी दुर्लभता ही मनुष्यसमाजके अधःपतनका कारण है। मनुष्यसमाज लाख सिर पटकनपर भी तब तक देश में मादर्श राज्यतन्त्र स्थापित नहीं करसकता; जबतक वह अपने व्यक्तियों के समाजकल्याण रूपी ज्ञाननेत्रका उन्मीलन न करले और देश में मनुष्यताके मादशकी उज्ज्वल मूर्तिको सुप्रतिष्ठित न कर दे । इस सूत्रमें वेदोंके रहस्यवेदी चाणक्यने समाजकी इसी त्रुटिपर स्पष्ट कषाघात करके उसको साव. धान करना चाहा है। जितने भी मानव धर्म हैं सबके सब परिस्थितिके भेदसे भिन्न भिन्न नाम पाजाने पर भी सत्यके ही स्वरूप हैं। सत्य ही परिस्थितिके भेदसे उन उन भिम भिन्न धर्मों या गुणों के रूपमें प्रकट होता है। क्योंकि सत्य ही मनुप्यकी एकमात्र कल्याणकारिणी स्थिति है और क्योंकि ऋजुता भी मानव कल्याणकारिणी प्रवृत्ति मानी जाती है, इसलिये यों भी कह सकते हैं कि Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाजमें निष्कपटोंकी न्यूनता १४३ सत्य ही ऋजुता है और धार्मिकता ही ऋजुता है । परन्तु भ्रान्त आध्या.. स्मिकताने अपने अनुरूप कपट माध्यात्मिकताकी, सृष्टि की है। उसने समाजको मनुष्यकी कामप्रवृत्तियोंको या यों कहें कि उसकी अमर्यादित मोगलालसाको माश्रय देनेकेलिये पाप अन्याय अत्याचार बासुरिकता मादिके विरोधोंके संकट में पडनेका निषेध करके उस दुष्ट कामको खुलकर खेलनेकी पूरी छूट देढाली है जिसे संयत रखकर समाजकी शान्तिका संरक्षक बनाकर रखना चाहिये था । इस भ्रान्त माध्यात्मिकताने संसारके निष्क्रिय नपुंसक असाहसी मप्रतीकारपरायण अशान्त्युत्पादक कापुरुषोंका समाज रच डाला है और उसमें भ्रान्त शान्तिका प्रचार किया है। उसने शान्ति अन्याय अत्याचार उत्पीडन आदि पापोंका दमन करनेके कामको शान्तिकी परिभाषामें न रहने देकर, अशान्तिदमनके कर्तव्यसे भागते रहनेको ही शान्ति या माध्यत्मिकताका नाम देकर समाज में प्रचारित किया है । इस प्रचारने समाजमें चिरकालसे रहते रहते उसका अशान्तिका विरोध करनेका स्वभाव छीन लिया है और उसे एक निर्विरोध नपुंसक समाजका रूप देहाला है। उनका यह सहस्रो वर्षों से लगातार चला आनेवाला दूषित प्रचार ही राजशक्तिके असुरोंके हाथों में जाने और रहनेका एकमात्र साधन बनता चला मारहा है। जिन्हें अपने देशका शासन असुरप्रकृति के लोगों के हाथों में रहना खटकता हो. और जो आसुरी राजशक्तिको नष्ट करना चाहे, वे आसुरी राज्यको छिन्न भिन्न करने के योग्य बननेकेलिये सबसे पहले भापको इस काम के लिये योग्य बनायें। उसके लिये यह मनिवार्य रूपसे भावश्यक है कि वे सबसे पहले अपनी भोगलालसापर उस संयमका शासन स्थापित करें जिस संय. मसे अज्ञानी समाजको छुट्टी देदेना ही भ्रान्त आध्यात्मिकता है। इस भ्रान्त आध्यात्मिकताका प्रचार करनेवाले महात्मा वेषधारी असुरोंको पहचान लेनेवाला ज्ञाननेत्र खोलकर समाजको असुरविद्रोही बनानेवाली सच्ची ऋजुताका कल्याणकारी पाठ पढाना ही इस सूत्रको यहां रखनेका गूद अभिप्राय है । ऋजुता दुर्लभ है, इस निराशवर्धक समाचारका प्रचार करना Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ चाणक्यसूत्राणि इस सूत्रका अभिप्राय नहीं है । किन्तु मनुष्यों का ध्यान सच्ची ऋजुताकी ओर आकृष्ट करके कापटिक ऋजुताके मूलोच्छेद करनेका मार्ग दिखाना ही इस सूत्रका एकमात्र अभिप्राय है । पाठान्तर-ऋजुस्वभावः परिजनो दुर्लभः। ऋजुस्वभाववाले सेवक प्रजावर्ग तथा पारिवारिक लोग दुर्लभ होते हैं। ऐसे लोग किसी भी राष्ट्र संस्था या परिवारके प्राण तथा सौभाग्य होते हैं। ये मानवसमाजके सामने अपने व्यावहारिक जीवन द्वारा उसके जीवनका भादर्श उपस्थित करदेते हैं। किसी राजाके ऐसे राजकर्मचारी हों, किसी समाजमें ऐसे लोग हों: किसी परिवारके पारिवारिकोंमें ऐसे स्वभाववाले व्यक्ति हों तो उसकी यशोवृद्धि के साथ साथ कार्यसिद्धि भी अवश्यंभाविनी होती है । जिस राज्यमें ऐसे सेवक नहीं, जिस समाज में ऐसे लोग नहीं, जिस परिवारमें ऐसे सदस्य नहीं, उसके सब काम विपत्तियों से घिरे रहते हैं। मातापिता गुरुर्भार्या प्रजा दीनाः समाश्रिताः । अभ्यागतोऽतिथिश्चाग्निः पोष्यवर्ग उदाहृतः॥ माता पिता गुरु पत्नी प्रजा दीन आश्रित अभ्यागत मतिथि तथा अग्नि ये सब परिजन कहाते हैं। यह समस्त विश्व एक विराट परिवार है । प्रत्येक मानव इस विराट परिपारका पारिवारिक है। उसे अपने इस विश्वपरिवारमें अपना अहंकारी मापा खोकर ऋजुतासे व्यवहार करना चाहिये । (साधुपुरुषोंकी अर्थनीति ) अवमानेनागतमैश्वर्यमवमन्यते साधुः ॥१६०॥ साधु अर्थात् सत्यनिष्ठ कर्तव्यपालक ऋजु व्यक्ति वह है, जो अपनी साधुतापर कलंक लगा देनेवाले उत्कोच आदि गर्हित ढंगोंसे आनेवाले ऐश्वर्यको तृणके समान अस्वीकार करदेता है। Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रधान दोष समस्तगुणनाशक विवरण - सत्यनिष्ठ लोग अपयश फैलानेवाले अपमानसे मिलनेवाले ऐश्वयको तृणके समान अस्वीकार करदेते हैं । वे उस ऐश्वर्यसे अपने चरित्रपर कलंक लगता तथा अपने सम्मानकी हानि होती देखकर उसे किसी भी रूप में स्वीकार नहीं करते। "मानो हि महतां धनम् ।" मान ही महापुरुषोंका धन है । वे अपने मानधनकी रक्षा अपने प्राणपणसे भी करते हैं। ये स्वाभिमानके साथ अपने न्यायागत धनसे सन्तुष्ट रहकर अपने मानधनकी रक्षा करके निर्धन जीवन बितानेको सौभाग्य मानते और इसीमें स्वाभिमान अनुभव करते हैं । पाठान्तर अवमानागतमैश्वर्य 1 १४५ ( एक प्रधानदोष समस्त गुणनाशक ) बहूनपि गुणानेको दोषो ग्रसते ।। १६१ ।। मनुष्यका एक भी दोष बहुत से गुणोंको दोष बनाडालता है । विवरण -- एक दोष दूसरे गुणोंको छुडवा देता है । मनुष्य में एक भी दोष होना सिद्ध कर रहा है कि दूसरे गुण गुणका दिखावा ही दिखावा हैं। वे गुण उस दोष जैसे ही अनिष्टकारी हैं। गुणदोषों का वध्यघातकभाव होने से दोनोंका एकत्रावस्थान असंभव है । यों भी कह सकते हैं कि जिसमें एक भी दोष है उसमें कोई भी गुण नहीं है। गुण, दोष दोनोंका ही यह स्वभाव है कि ये यूथभ्रष्ट होकर नहीं रहते । इसलिये दोषका संपूर्ण बहिष्कार करके रखने में ही मानवका कल्याण या निर्दोषता संभव है। किसी कविके शब्दों में 'एको हि दोषो गुणराशिनाशी ।' एक भी दोष मनुष्यकी गुणराशिको नाश करडालता है | यदि किसी शासक या राजकर्मचारीमें राजशक्तिके दबाव से व्यक्तिगत धन बटोरनेकी प्रवृत्ति है तो उसके अन्य समस्त गुण नपुंसक ★ होजाते हैं । चाणक्य इस सूत्र समाजको दीनावस्थाकी ओर संकेत करके देश में से बडे प्रयत्न से ऋजुओं को ढूंढ ढूंढकर राज्यसंस्था में रखनेकी प्रेरणा दे रहे हैं । १० Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ चाणक्यसूत्राणि ऋजुपुरुषों को ही राज्यसंस्थामें रखनेका राष्ट्रपर ऐसा मनोवैज्ञानिक दबाव पडता है कि सारा राष्ट्र भलाईकी मोर प्रवाहित होजाता है और राष्ट में सतयुग माविराजता । ऋजुस्वभाववाले अर्थात् निष्कपट फर्तग्य पालनेवाले लोग समाजके भूषण और सौभाग्य होते हैं । पाठान्तर- बहूनपि गुणानेको दोषो ग्रसते । ( महत्वपूर्ण काम अपने ही भरोसेपर ) महात्मना परेण साहसं न कर्तव्यम् ॥१६२॥ सत्यनिष्ट वर्धिष्णु महात्मा लोग दुष्कर दीखनेवाली सत्य रक्षा दूसर साथियोंके भरोसे न करके अपने ही भरोसेपर करें। विवरण-- बडे बननेके इच्छुक लोग दूसरों के भरोसेपर साहस न कर बैठा करें। परनिर्भरशील होना महत्व नहीं दिला सकता। साहस सदा अपने ही भरोसेपर करना चाहिये । सत्यनिष्ठ महात्मा लोग दुष्कर दीखनेवाली सत्यरक्षा दूसरे साथियों के भरोसेसे न करें। सत्यनिष्ठा स्वयं ही विश्वविजयीपन है। सत्यनिष्ठका सत्यः स्वयं ही उसकी पूर्णता है । उसमें ऐसो कोई न्यूनता नहीं है कि जो साथि योंके सहयोगसे पूरी होनेवाली हों । सत्यकी मिठासमें इतनी शक्ति है कि वह सत्यनिष्ठको सत्यरक्षाके संबन्धमें परनिरपेक्ष बनाकर उसे संग्रामक्षेत्रम अकेला ही लेजाकर खडा करदेती है और उसके मनमें चिन्ताको स्थान नहीं लेने देती कि मेरे साथ कोई चल रहा है या नहीं ? एकोऽहमसहायोऽहं कृशोऽहमपरिच्छदः । स्वप्नेप्येवंविधा चिन्ता मृगेन्द्रस्य न जायते॥ मृगेन्द्रको, मैं अकेला हूं, मेरा कोई साथी नहीं है मैं, कृश और सामग्रीहीन हूं इस प्रकारकी चिन्ता सपनेमें भी नहीं होती । सत्यके पीछे चलना, सत्य उद्देश्य रखना, यही सत्यनिष्ठकी अभ्रान्त अनन्तशक्तिमत्ता है। सत्यनिष्ठका न तो कोई नेता होता है और न कोई अनुयायी । जब कभी Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषम परिस्थितिमें भी कर्तव्य २४७ सत्यनिष्ठोंके समूह एकत्रित होजाते हैं तब वहां भी कोई किसीका नेता या अनुयायी नहीं होता । कहीं भी एकत्रित होनेवाले सबके सब सत्यनिष्ठ सत्यके ही नेतृत्वमें अटूट संघ बनाकर रहते हैं। पाठान्तर- महता साहसं न परेण कर्तव्यम् । अधिक शक्तिशाली शत्रुके साथ संग्रामके अवसरपर साहस (अर्थात् निर्बुद्धिता) न करे । दुष्ट शत्रु अपनी भौतिक शक्तिके घमंडमें माकर ही सत्यनिष्ठ धार्मिक पर माक्रमण करता है । सत्यनिष्ठ धार्मिकके लिये केवल भौतिक शक्तिका भरोसा करना निर्बुद्धिता है। उसे उस समय उपायान्तरोंसे काम लेकर भात्मरक्षा करनी चाहिये । उसके पास विश्वविजयिनी बुद्धिशक्ति स्वभावसे रहती है । उसे कौशलसे ही शत्रुविजय करना चाहिये । शत्रुदमनके लिये जिस समय जिस अस्त्रका प्रयोग करना उचित होता है वही उसका सत्यनिष्ठारूपी रणकौशल होजाता है । ( विषम परिस्थिति में भी चरित्ररक्षा कर्तव्य ) कदाचिदपि चरित्रं न लंघयेत् ॥ १६३ ॥ मनुष्य काम, क्रोध आदि विकारोंकी आधीनता स्वीकार करके अपने चरित्र (स्वभाव-स्वधर्म-मानवीय कर्तव्य ) के विपरीत कोई ऐसा काम न कर बैठे कि वह जीवनभर हृदय में चुभनेवाला कांटा बन जाय । विवरण- मनुष्य अपनी सुशीलता, सज्जनता और चरित्रको न त्यागे । सज्जनता, सुशीलता, सच्चारित्र्य इस अपार संसारसागरमें तैरनेवाले मानव के निष्कपट साथी माता, पिता, बन्धु, बान्धव और सर्वस्व हैं। अपने चरित्रकी रक्षा मानवका सबसे महत्वपूर्ण काम है । वृद्धोंने कहा है-'सर्वदा सर्वयत्नेन चरित्रमनुपालयेत् ' मनुष्य अपना समस्त प्रयत्न करके अपने चरित्रकी रक्षा करे । " शीलेन सर्व जगत् " शील एक ऐसा दिव्य साधन Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ चाणक्यसूत्राणि है कि इससे समस्त संसारपर वशीकार प्राप्त होजाता है। चरित्रलंघनसे संसारमेंसे मनुष्यका विश्वास उठ जाता है । संसारमें सच्चरित्रको ही मादर मिलता है। क्षुधाों न तृणं चरति सिंहः ॥ १६४॥ जैसे सिंह बुभुक्षासे व्याकुल होने पर भी अपना मांसाशी स्वभाव त्यागकर तृणभोजी नहीं बनजाता इसी प्रकार जीवनमें चरित्रकी बहुमूल्यताको समझनेवाले लोग मनुष्यको बिलो. डालनेवाली उत्तेजना और विपत्तिके अवसरोंपर भी अपने सत्यको नहीं त्यागते और सच्चरित्रता तथा तेजस्विताको तिलांजलि नहीं देबैठते। विवरण-वे मन्थनकारी होकर पथभ्रष्ट बनाडालनेवाले अवसरोंपर भी धीरजसे अपनी सत्यनिष्ठा तथा उज्ज्वल चरित्रको समुज्ज्वल रखते हैं। "सम्पत्तौ च विपत्तौ च महतामेकरूपता" बडे लोग क्या अच्छे और क्या बुरे दोनों दिनों में अपना चरित्र एकसा उदार बनाये रखते हैं। पाठान्तर--न क्षुधार्तोऽपि सिंहस्तृणं चरति । (विश्वासपात्र रहना प्राणरक्षासे अधिक मूल्यवान् ) प्राणादपि प्रत्ययो रक्षितव्यः ॥ १६५ ॥ मनुष्य अपने प्राणोंको संकटमें डालकर भी ऋजुओंके साथ ऋजुतारूपी अपनी विश्वासपात्रताकी तथा राष्ट्र के साथ अपनी नागरिकतारूपी विश्वासपात्रताकी रक्षाको अपने जीवन में मुख्य स्थान देकर रखे ! सूत्रमें अपि शब्द अवश्य अर्थमें व्यवहृत हुआ है। (पिशुनकी हानि ) पिशुनः श्रोता पुत्रदारैरपि त्यज्यते ।। १६६॥ सुनी हुई गुप्त बातोंके आधारपर लोगों में झगडे लगानेवाले विश्वासघातीको उसके पारिवारिक तक त्याग देते हैं । Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्य अश्रद्धालुसे मत कहो विवरण- यदि वे उसे न त्यागें तो उसके कारण उनपर भी विपत्तियां भाखडी होती हैं । पैशुन्य एक प्रकारका मानसिक पाप अर्थात् भोछा. पन है। ( उपयोगी बात नगण्यकी भी सुनो ) बालादप्यर्थजातं शृणुयात् ॥ १६७ ।। उपयोगी बातें नगण्य व्यक्तियोंसे भी सुन लेनी चाहिये । विवरण- बालादपि सुभाषितम्- हितकारी वाणी बालकों तकसे अवश्य सुननी चाहिये। युक्त मुक्तं तु गृह्णीयात् बालादपि विचक्षणः । रवेरविषयं वस्तु किं न दीपः प्रकाशयत् ।। बुद्धिमान् मनुष्य उचित बात बालकोंसे भी सीखे। जहां सूर्य का प्रकाश नहीं पहुंचता क्या वहां दीपकका प्रकाश लाभकारी नहीं होता ? ननु वक्तृविशेषनिःस्पृहा गुणगृह्या वचन विपश्चितः। भारवि गुणकपक्षपाती विद्वान् लोग बात के संबन्धमें वक्तांके व्यक्तित्व के विषय में निःस्पृह होते हैं। ये वक्तव्य विषय के सत्य होने मात्र से उसे श्रद्धाके साथ स्वीकार करलेते हैं। ( सत्य अश्रद्धालसे मत कहो ) सत्यमप्यश्रद्धेयं न वदेत् ॥ १६८ ॥ वात सत्य होने पर भी यदि किसी अयोग्य सत्यद्रोही श्रोताको अश्रद्धेय, कर्णकटु लगे तो उससे मत कहो और सत्यका अपमान मत करवाओ। ' विवरण- सत्यके अश्रद्धालुको सत्यसे लाभ पहुंचानेकी भ्रान्ति करना उससे झगडा मोललेना है । यदि तुम्हारा विवक्षित सत्य तुम्हारे श्रोताको श्रद्धा न पासके या उसे अनावश्यक लगे तो उससे मत कहो । मनुष्य Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० चाणक्यसूत्राणि अपात्रके समक्ष सत्यका प्रचार कभी न करे। सत्य सुपात्रों या सत्यप्रेमियोंकी दृष्टिमें ही श्रद्धा पाता है । सत्य सुपात्रकी दृष्टि में कभी अश्रद्धेय नहीं होता। श्रद्धालुसे सत्य कहनेमें ही सत्यकी उपयोगिता है । अश्रद्धालुसे सत्य कहना भैसके सामने बीन बजाना है। अनावश्यक सत्यवचन वक्ताकी विचारशून्यता होनेसे व्यर्थ भाषण होजाता है। मिथ्या अनावश्यक होना ही व्यर्थ बातकी व्यर्थताका स्वरूप है। औचित्य अनौचित्यसे वचनकी सत्यासत्यताका निर्णय किया जाता है। अदेश अकाल तथा अपात्र में प्रयुक्त सत्य वचन भी असत्य वचन जितना ही अनिष्टकारी होकर असत्य बन जाता है। सत्य या असत्य, बातों या शब्दों में सीमित न होकर उद्देश्यमें सीमित रहता है । उद्देश्यसे हो सत्यासत्यको जाना जासकता है। ( सत्यकी अश्रद्धेयता अनिवार्य ) . (अधिक सूत्र ) नाग्निमिच्छता धूमस्त्यज्यते । जैसे धूम और अग्निका नित्यसाहचर्य होनेसे अग्निसंग्रहार्थी लोगोंसे धूमसे नहीं बचा जासकता, इसी प्रकार सत्य और अश्रद्धेयताका नित्यसाथ होनेसे सत्यकी रक्षा करने के इच्छुक उसे अश्रद्धयता दोषस मुक्त नहीं करसकते। विवरण --. उन्हें सत्यकी अश्रद्धेयताका ध्यान रखकर उसे बचा बचा. कर सत्यकी प्रतिपालना करनी पड़ती है । सत्य के साथ अश्रद्धेयता तथा अमान्यता नियमसे लगी रहती है। साधारण लोग सत्यको अव्यवहार्य भादर्श कहकर उससे बच जाते हैं । सत्यका यह अनादिकालीन दूधण है कि वह सर्वसाधारणको अपने लिये हानिकारक और प्रतिकूल लगता है । सत्यके इस दूषणको हटानेका एकमात्र यही उपाय है जो ऊपरवाले सूत्र में वर्णित हुभा है कि अनधिकारीसे सच्ची बात न कही जाय । योग्यदेश, योग्यकाल तथा योग्यपानसे बात कहने में ही बात कहनेकी सार्थकता है। सत्य भी हो और श्रद्धेय अर्थात् प्रिय भी हो यह संभव नहीं है। जब तक सत्य मनके अपनाये किसी असत्य अर्थात् मोहात्मक विचारपर घातक Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणियोंका आदर करो चोट नहीं करता तब तक वह सत्य ही नहीं होता। वह सत्य क्या हुआ जो अपराधी मनपर शल्यक्रिया न करे और अपराधी श्रोताको सहसा सह्य होजाय । सत्यकी इस कर्णकटुता और अग्राह्यताको बचानेका एकमात्र उपाय यही है कि मनुष्य सत्यका बखान जिस किसीके सामने न करके उसे केवल सत्यप्रेमी श्रद्धालु से कहे । १५१ सत्य के साथ जैसे अश्रद्धेयताका दूषण लगा है इसी प्रकार उसके साथ कटुता और तेजस्विता नामके दो ऐसे कठोर स्वभाव संयुक्त हैं जो सत्यको पातित्यप्रेमी सर्वसाधारणका प्रिय नहीं बनने देते । सत्यप्रेमीको सत्यके साथ उसकी तेजस्विता और कटुता भी विवश होकर अपनानी पडती है । सत्य असत्यप्रेमियोंको अवश्य ही कटु और अग्राह्य लगता है । सत्य सत्यप्रेमीकी भूलों या भ्रान्त धारणाओंपर मर्मभेदी घातक प्रहार करने - वाला होनेसे सदा ही उसके अप्रेम और अस्वीकृतिका भाजन बना रहता है । सत्यप्रेमी कुछ थोडेसे लोग ही उसकी तेजस्विता और कटुताको सहार सकते हैं । इसी कारण कहा जाता है कि 'अप्रियस्य च पथ्यस्य वक्ता श्रोता 'च दुर्लभः ।' कटु सत्यके श्रोता और वक्ता दोनों ही दुर्लभ होते हैं। ऐसे ही लोग सभ्य सुनने और सुनानेके यथार्थ अधिकारी होते हैं । सत्यको कटुवा माननेवाले लोग सत्य के अनधिकारी हैं । ( गुणियों का आदर करना सीखो ) नात्पदोषाद बहुगुणास्त्यज्यन्ते ॥ १६९ ॥ किसीके साधरण दोष देखकर उसके महत्वपूर्ण गुणोंको अस्वीकार नहीं करना चाहिये । विवरण - किसी में कुछ साधारण दोष दीखें तो उसके अनेक महत्व'पूर्ण गुणोंकी उपेक्षा न करनी चाहिये । यदि सच्चे गुणी मनुष्यका कोई व्यवहार दूषित लगता हो या न रुचता हो तो यह निश्चय है कि यह गुणीके चरित्रको न समझने का दोष है । जब उसपर शान्त कालमें निर Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ चाणक्यसूत्राण पेक्ष विचार होगा तो स्पष्ट समझमें भाजायेगा कि वास्तव में उसकर दोष नहीं है। किन्तु वह उस गुणीकी देशकालपात्रानुसारिणी ग्यवहारकुशलता ही है। उपर कह चुके हैं कि दोष और गुण दोनों ही यूथचारी हैं। ये यूथभ्रष्ट होकर नहीं रहते । जहाँ एक गुण होता है, वहां सभी गुण मा इकट्ठे होते हैं। ( विद्वान् भी निन्दकोंके लाञ्छनोंसे नहीं बचते ) विपश्चित्स्वपि सुलभा दोषाः ॥ १७० ।। स्थूल हांप्टस ज्ञानांक व्यवहारोंमें भी दाष निकालना सहज हैं। विवरण- गणदोषका विचार मापात दृष्टिसे करने की वस्तु नहीं है। कार्याकार्यविवेक के द्वारा गहराई में जाकर विचार करनेसे ही सच्चे गुण दोषोंका परिज्ञान हो सकता है। सूत्र यह कहना चाहता है कि ज्ञानको दोषी सिद्ध करके स्वयं दोषी और अविचारशील बनने की भूल न करनी चाहिये । इस वाक्यका उद्देश्य किसीके दोषोंका समर्थन करना नहीं है। किन्तु दोषारोपण द्वारा दोषसमर्थन करनेकी प्रवृत्तिको निन्दित करना है। मधवा-विस्मृति, व्यग्रता, तात्कालिक शीघ्रता, अनभिज्ञता, तथा शारीरिक असमर्थता आदि कारणोंसे ज्ञानी के व्यवहारमें भी मापाततः दोष दिखाई देसकते हैं। इस प्रकार के दोष, दोषों (मर्थात् अक्षम्य अपराधों । की श्रेणी में नहीं आते । दोष तो वही है जो मनुष्यकी दोषी भाव नासे होता है। विद्वानोंकी निर्दोषता तो उनके मनमें रहती है। विद्वान् वही है जो मानस या मावनाश्रित दोष कभी नहीं करता । शरीर, इन्द्रिय तथा मनकी विकृति दोष कहाती है । इन तीनोंमें अयथार्थता, अनभिज्ञता तथा अनृतका समावेश होसकता है । रोग असामर्थ्य आदि शारीरिक दोष हैं। सनसे भी कुछ भूल हो सकती है । अन्धता, बधिरता आदि इन्द्रियदोषहैं । ये भी भूलका कारण बन सकते हैं । दूरता आदि विषयदोष हैं । इनके कारण भी भूलें होती हैं । अनभिज्ञता, अनवधानता, क्रोध, असूया, ईष्या, लोभ, मोह मादि मानस दोष हैं। मानस दोष दो प्रकारके होते हैं। कुछ तो Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्वानकी निन्दा निन्दकका अपराध अनभिज्ञता, व्यग्रता, अनवधानता मादिसे जन्य होते हैं, कुछ ईर्ष्या, लोभ, मोह मादिसे बुद्धि पूर्वक आचरित होते हैं । अक्षम्य अपराध करानेवाले ये ही दोष होते हैं । विद्वानों में इन बुद्धिपूर्वक आचरित अक्षम्य अपराधों के कराने. वाले दोषोंका होना मसंभव है। इस दृष्टिसे जहां कहीं ये अक्षम्य अपराध करानेवाले दोष दृष्टिगोचर हों वहीं दोषयुक्त लोगोंको अविद्वान तथा समाजके शत्रु समझना चाहिये । इस प्रसंगमें भूल विषयक विश्वव्यापी किंवदन्तीपर विचार करना अप्रा. संगिक न होगा- “ भूल मनुष्यसे हो ही जाती है " यह एक अविचारित भावना संसारभरमें प्रचार पाये हुए है। भूल दो प्रकार की होती हैं एक दैहिक दूसरी मानसिक । जहांत दैहिक या एन्द्रियिक भूलोंका संबंध है वहां तक तो यह बात स्वीकार की जासकती है। परन्तु जहां इस वाक्यक मानवकी मानस भूलोंसे संबन्ध है, वहां यह वाक्य अत्यन्त भ्रामक नया असत्यका प्रचारक है । वह मनुथ्य मनुष्य ही नहीं जो अपनी भावनाक विकृत ( बुरी) होलेने देता है । भावना कभी भी अबुद्धिपूर्वक ( भूल से , बुरी नहीं होती। इन सब दृष्टियोसे ऐसे वाक्योंका बहिष्कार होना चाहिये एसे वाक्यांसे मनुष्य अपनी भूलोंका समर्थन करते पाय जाते हैं ! मे निबल वाक्य भूलोंके समर्थन में ही काम पाते हैं । मानवके चरित्रनिमा.. में इन वाक्योंका बडा ही दूषित स्थान है । (विद्वान्की निन्दा निन्दकका अपराध ) नास्ति रत्नमखण्डितम् ॥ १७१॥ जैसे प्रत्येक रत्नमें मलिनता, वक्रता, विषमता आदि कोई न कोई त्रुटि निकाली जा सकती है, जैसे सर्वजात्युत्कृष्ट मणि भी सर्वथा निर्दोष नहीं होती इसी प्रकार विद्वानोंकी भी शारीरिक ऐन्द्रियिक भूलें पकड़ी जासकती है। विवरण-- जैसे रत्नका दोष निकालकर अर्थात् उसे उस दोपसे अलिस करके ही उसकी अकृत्रिमता प्रतिष्ठित होती है, जसे पहले रत्नमें कृत्रिमताका भारोप करके, पीछेसे उसका अपवाद करके उसे अकृत्रिम सिद्ध Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ चाणक्यसूत्राणि किया जाता है, इसी प्रकार सच्चे विद्वानोंपर किया दोषारोपण मन्तमें उन्हें निर्दोष घोषित करनेवाला बनजाता है। जैसे कोई भी रस्न अखण्डित नहीं रह पाता, जैसे उसे कोई न कोई खण्डित करनेवाला मिल ही जाता है इसी प्रकार धार्मिक श्रेष्ठ विद्वानोंको भी कोई न कोई निन्दक मिल ही जाता है । जैसे खण्डित होना रत्नापराध नहीं है इसी प्रकार धार्मिक विद्वान्का अधार्मिक भविद्वानोंसे निन्दा पाजाना विद्वान्का अपराध नहीं है किन्तु निन्दकका ही धर्मद्वेष या अज्ञान है । (विश्वासक सदा अयोग्य ) मर्यादातीतं न कदाचिदपि विश्वसेत् ।। १७२॥ सामाजिक नियमों के उल्लंघक, विवेकका शासन न माननेवाले निर्मर्यादका कभी विश्वास न करो। पाठान्तर--- मर्यादाभेदकं ......... । ( अविश्वासीको विश्वासपात्र बनाना अकर्तव्य ) अनिये कृतं प्रियमपि द्वेप्यं भवति ॥ १७३॥ शत्रुके मीठे दीखनेवाले बर्ताव ( उपकार दीखनेवाली क्रिया) का पयोमुख विपकुम्भके समान द्वष ही मानना चाहिये। विवरण- आजका शत्रु सदाके लिये शत्रु है । इसलिये शत्रुके मोठे बर्तावके धोखेमें नहीं आजाना चाहिये। शत्रका आलिंगन भी पेटमें छुरा भोंकनेवाला होता है। इस बातका ध्यान रखकर शत्रुपक्षकी ओरसे माने वाले मित्रताके प्रस्तावको भी प्रतिहिंसाको चरितार्थ करनेका अस्त्रमात्र समझकर उसका ऐसा उचित उत्तर देना चाहिये जिससे शत्रुको दुरभिसन्धि व्यर्थ होजाय । पाठान्तर- अप्रियेण कृतं ............। शत्रुका किया मिष्ट बर्ताव भी द्वेष ही माना जाता है। Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्पुरुषोंके विरुद्ध चलना अकर्तव्य ( कपटपूर्ण नम्रताका विश्वास मत करो) नमन्त्यपि तुलाकोटिः कूपोदकक्षयं करोति ॥ १७४ ।। जैसे सिर झुकाकर नम्रतापूर्वक कूपमें घुसनेवाली ढीकली उसका पानी रिता देती है, इसीप्रकार स्वार्थी लोगोंको दिखावटी शिष्टाचारयुक्त भाषण करता देखकर उन्हें लूटनेके ही लिये आनेवाले प्रच्छन्न लुटेरे मानकर उनके मायाजालसे बचना चाहिये। विवरण- जैसे चोरका ओढा रामनामी दुपट्टा भी चोरी हीका साधन होता है, इसीप्रकार दुष्टोंकी नम्रता और उनके गुण दुष्टताके ही साधन या अंग होते हैं । शत्रुओं या दुष्टों की नम्रता विश्वास करने योग्य नहीं होती। पुनसे सदा ही सावधान रहना चाहिये । पाठान्तर--- नमत्यपि तुलाकोटिः कृपस्योदकक्षयं करोति ! ( सर पुरुषों के निर्णयक विरुद्ध चलना अकर्तव्य ) सतां मतं नातिकामेत् ॥ १७५ ॥ अनुभवी सत्पुरुषोंक मिद्धान्तोक विरुद्ध आचरण न करे । विवरण ---- मनुष्य का अपना विक हो उसकी कर्तव्याकतव्यकी समस्या का अन्तिम समाधान करनेवाली वस्तु है । मनुष्य बड़े से बड़े अनुभवी विद्वानों की बातको केवल उस अवस्थामें मानता है जब वह बात उसके विवेकको स्वीकृत होजाती है । यदि उसका विवेक उसे स्वीकार न करे तो वह किसीकी भी बात माननेको प्रस्तुत नहीं होता । सबका अनुभव साक्षी है कि बात अपने मन या विवेकके अनुकूल होनेपर ही मन्तव्य कोटिमें आती है। मनुष्य दूसरे व्यक्तिका अनुसरण करता दीखनेपर भी वास्तवमें अपना ही अनुसरण करता है । विवेक ही मानव हृदयमें सच्चे मार्गदर्शक सरपुरुषका रूप लेकर रह रहा है । विवेकी होना ही इस बातका कारण है कि संसारभरके सत्पुरुषों के कर्तव्यनिर्णय एक दूसरे के अविरोधी तथा अभिन्न होते हैं। Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ चाणक्यसूत्राणि कर्तव्याकर्तन्यकी समस्या सब किसीके पास नहीं होती। वह केवल विवेकियों के सम्मुख उपस्थित होती है । अविवेकियोंके सम्मुख कर्तव्याकर्तव्य नामका कोई प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता। अविवेकीके मनमें तो केवल यह प्रश्न उपस्थित होता रहता है कि स्वार्थमूलक परस्वापहरण नामका आचरण किस रीतिसे सफल हो सकता है ? यह इस दृष्टि से कभी भी नहीं विचारता कि मुझे परस्वाप हरण करना चाहिये या नहीं ? म्पष्ट बात यह है कि उसके मन में विवेकसापेक्ष प्रश्न कभी उपस्थित ही नहीं होता । जब कोई विवेकी किसी दूसरे विवेकीसे किसी कर्तव्यनिर्णयमें सम्मति लेने जाता है तब वह किसी आचरणके विवेकानुमोदित होनेका समाधान पहले स्वयं करके पीछेसे किसी दूसरे विवेकीके समर्थनकी आवश्यकता अनुभव करता है । एसे अवसरपर उसे जो अपने जैसे सुविचार रखनेवाले अनुभवी सत्पुरुषोंका समर्थन प्राप्त होजाता है यह समर्थन उसके हृदय की ही प्रतिध्वनि होता है और इसीलिये अनिवार्यरूपसे ग्राह्य भी होजाता है। यह सूत्र अविवेकियों को सत्परुषों के मन्तव्यका अनुसरण करने की प्रेरणा देने के लिये नहीं है, किन्तु अनुभव न रखनेवाले परन्तु सद्बुद्धि-संपक लोगोंको अनुभवी विद्वानोंकी सम्मति के अनुसार आचरण करनेकी प्रेरणा देते हुए यह कहना चाहता है, कि विवेकी लोग अपनी जैसी सुरुचि रखनेवाले. विवेकियोंसे ही सम्मति लें। वे अविवेकियोंसे सम्मति लेनेकी भ्रान्ति न करें: अनुभवी सत्परुषोंके कथनकी अवहेलनामें कल्याण नहीं है। प्रमाद या मविवेकके कारण विद्या तथा प्रज्ञाके पारदर्शी संसारकी वस्तुस्थिति पहचान चुकनेवाले साक्षात् कृतधर्मा लोगोंकी सम्मतिकी अवहेलना करना विनाश तथा दुःख बुलाना है । मनुष्यको सत्पुरुषोंके व्यावहारिक अनुभवसे लाभ उठाना चाहिये और पाग्रहके साथ उनका अनुसरण करना चाहिये । ( अनुभवीके सत्संगसे लाभ ) गुणवदाश्रयान्निर्गुणोऽपि गुणी भवति ।। १७६ ॥ निर्गुण दीखनेवाला भी गुणवान्के संसर्गमें रहता रहता गुणी होजाता है। Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुभवीके सत्संगसे लाभ १०७ विवरण - विवेकी के अनुभवहीन होनेपर भी यदि वह अनुभवी लोगोंके संसर्गमें रहे, तो अनुभवी बनजाता है । विद्वत्ता, शूरता, महत्ता, चिन्ताशीलता आदि मानवोचित गुण हैं । इन गुणोंसे संपन्न गुणके संपर्क में रहनेवाला गुणप्रेमी व्यक्ति उसके वातावरणका अंग बनकर रहता रहता, उसे अपने आपको सुधारनेके लिये सौंपकर उसे अपनी भूलोंपर रोकने-टोकनेका अबाध अधिकार देकर उसी जैसा गुणी, चतुर, व्यवहारकुशल तथा विचारक बनजाता है । , राजनीति में सन्धिविग्रह, यान, आसन, संश्रय तथा द्वैधीभाव गुण कहते है । इन गुणोंसे परिचित राजनीतिज्ञों के साथ रहनेसे राजनीति से अपरिचित निर्गुण व्यक्ति भी इनका उचित प्रयोग करना जानजाता है । गुणसंग्रहार्थी व्यक्ति गुणीके संपर्क में आजानेपर निर्गुण नहीं रहसकता । पाठान्तर-- गुणवन्तमाश्रित्य 1 गुणवान्का आश्रय करके निर्गुण भी गुणी होजाता है । क्षीराश्रितं जलं क्षीरमेव भवति ।। १७७ ॥ जैसे दुग्धाश्रित जल भी दुग्ध ही होजाता है इसीप्रकार गुणीके हाथोंमें आत्मसमर्पणका सम्बन्ध जोडनेवाला गुणप्रेमी व्यक्ति स्वयं उस जैसा गुणी घनजाता है । विवरण- गुणप्रेमी ही स्वभावसे गुणीके संगका अधिकारी तथा अन्वेषी होता है । गुणी व्यक्तिके नित्यसंसर्ग में रहते रहने से मनमें उसके गुणका बार-बार आरोप होने लगता है इसलिये वह काल पाकर उसीके समान गुणी तथा प्रधानपुरुष बनजाता है । पाठान्तर क्षीराश्रितमुदकं 1 + संधि ( समझौता ) विग्रह ( लडाई ) यान ( शत्रुपर आक्रमण करने की कुशलता ) आसन ( आक्रमण के विरुद्ध आत्मरक्षाकी चतुराई ) संश्रय ( अवलम्बन ) द्वैधीभाव ( भावगोपन ) शत्रुको भेदको नीतिले सहायकहीन बनाकर निर्बल करना । Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ चाणक्यसूत्राणि मृत्पिण्डोऽपि पाटलिगन्धमुत्पादयति ॥१७८ ।। जैसे गन्ध-ग्रहणमें समर्थ निर्गन्ध भी मृत्पिड सुगन्ध पुष्पके संपर्कमें आकर उसका सुगन्ध ग्रहण करलेता है, इसीप्रकार स्वभावसे गुण-ग्रहणमें समर्थ निर्गुण अश भी मानव-हृदय सद्गुण-संपन्न विद्वान् व्याक्तिके संपर्कमें आकर उसके सद्गुणोंको ग्रहण करलेता और ज्ञान-संपन्न बनजाता है। अथवा- जैसे निर्गन्ध मिट्टी भी अवसर मिलनेपर अपने भीतरसे सुगन्ध पुष्प उत्पन्न करदेती है, इसीप्रकार गुण दिखानेका अवसर मिलनेपर गुणी लोगोंके गुण छिपे नहीं रहते । मिट्टी सुगंधित कुसुमोको अंकुरित करनेका अवसर आनेपर अपनी सुगन्धोत्पादक शक्ति प्रकट करती है। गुणियोंके गुण सच्चे गुणग्राहियों के संपर्कमें आने पर ही प्रकट होते हैं। रजतं कनकसंगात् कनकं भवति ॥ १७९॥ जैसे चांदी, सोनेके साथ मिश्रित होजानेसे ( वह मिश्रित वस्त) सोना ही बनजाती है। चांदी नहीं रहती। विवरण-जैसे सोनेके साथ मिलते ही उसके चांदीपनका अन्त हो जाता है, इसीप्रकार महत्वयुक्त मनुष्यसे संबद्ध होनेपर अनुभवहीन गुणग्राही व्यक्ति गुणानुभव-संपन्न होजाता है। पाठान्तर- रजतमपि कनकसंपर्कात् कनकमेव भवति । ( दुष्टों का नीच स्वभाव ) उपकर्तर्यपकर्तुमिच्छत्यबुधः ॥ १८०॥ मन्दमति क्रूर अज्ञानी अपने बुद्धिदोष ( अर्थात् हिताहित. विवेकहीनता ) से हितकर्ताको भी हानि पहुँचाकर अपना नीच स्वार्थ सिद्ध करनेसे विमुख नहीं होता। विवरण- अपकारस्वभाववाला मनुष्य उपकारका बदला अपकारसे ही दिया करता है। मनुष्यसे अपना स्वभाव नहीं छूटता । इसलिये अज्ञा. नियोंका हित करने की भ्रान्ति करनेवाले लोग उनके इस उपकारके बदले में Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पापियोंकी निर्लज्जता १५९: अकृतज्ञता अर्थात् शत्रुता करनेके दूषित स्वभावसे पूर्ण परिचित रहकर, सावधान रहें । वे इस भ्रममें आकर प्रमाद न करें कि “ हम तो इनका उपकार कर रहे हैं इसलिये इनकी मोरसे मानष्टकी कोई संभावना नहीं है, प्रत्युत इटकी संभावना है। हम उन्हें उपकारों के बदले में अपनाकर अपना बनालग।" (बुद्धिमानका कृतज्ञ स्वभाव ) ( अधिक सूत्र ) तद्विपरीतो बुधः ॥ ज्ञानी लोग उपकर्ताके भी अपकारक अशानियोंसे विपरीत आचरण करनेवाले होते हैं। उन्हें उपकर्ताका प्रत्युपकार किये बिना शान्ति नहीं पड़ती। विवरण- इसी प्रसंगमें लंकाविजयमें महत्वपूर्ण उपकारक श्री हनुमा. नजीके प्रति मर्यादापुरुषोत्तम श्रीरामचन्द्रका कृतज्ञतापूर्ण वक्तव्य सुवर्णा. क्षरों में अंकित करने योग्य है मययेव जाणतां यातु यत्त्वयोपकृतं हरे। नरः प्रत्युपकारार्थी विपत्तिमभिकांक्षति ॥ है हनुमान, लंकाविजय और सीताके प्रत्यावर्तनमें आपने जो मेरा उपकार किया है आपका वह उपकार मेरे सिर खडा रहे । मैं चाहता हूँ मुझ सस उपकारका बदला कभी भी न देना पडे । बदल देना चाहनेवाले लोग मित्रको विपग्रस्त देखना चाहते हैं। मित्रको बदला विपत्ति में ही दिया जा सकता है। ( पापियोंकी निर्लज्जता ) न पापकर्मणामाकोशभयम् ॥ १८१ ।। पापियोंको निन्दाका भय नहीं हुआ करता । . विवरण-- पापी लोग कुछ सीमा तक अपने को लोकनिन्दासे बचाते हैं, किन्तु जब लोकनिन्दाकी उपेक्षा करके प्रसिद्ध पापी बनजाने में अधिक लाभ देखते हैं, तब लोकनिन्दाका भय त्यागकर प्रसिद्ध पापी बनने में संकोच नहीं करते। उनकी प्रवृत्ति हीन होजाती है। पापीको निन्दाका भय तब ही होता है, जब उसे उस निन्दासे दण्डित भी होना पड जाता है। Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६० चाणक्यसूत्राणि पापी लोग दण्ड- भय न रहनेपर निन्दाकी ओरसे पूरे निर्भय होजाते और उसकी उपेक्षा करते हैं । 1 अधार्मिक राज्यों में बडे पापी तो दण्डदाता बनजाते हैं और छोटे पापी तथा कुशासन-विरोधी धर्मात्मा लोग दण्डभोक्ता बनजाते हैं। जहां संयोगवश पापी ही दण्डदाता बनजाते हैं वहां वे अपने पापको दण्डसे बचा-बचा कर पाप करते रहने का अवसर पालेते हैं । इसप्रकार के राज्याधिकारी राष्ट्रीय पापी या राष्ट्रकंटक कहे जाते हैं । इन कंटकों का संशोधन किये बिना राज्य की जनताको शान्ति नहीं मिल सकती । ये लोग राज्याधिकारकी शक्ति से शक्तिमान होकर असंगठित जनमतको दबाकर अपने प्रभावसे राजकीय पापि योंका एक कृत्रिम जनमत (गुट) प्रस्तुत कर लेते हैं। दण्डाधिकारी पापियों की चाटुकारिता करके ही जीविकाजन करनेवाले पापी लोग जनमतके ठेकेदार बनकर इन लोगोंकी पापी घटनाओंको प्रकाशमें न आने देनेवाली ढाल बन जाते हैं । ये लोग इनकी ढाल बनकर इनकी स्तुतियों, जयन्तियों और नारोंके आडंबरोंसे इन लोगोंको लोकनिन्दासे बचाये रखते हैं । पापी राज्याधिकारियोंकी यह पापलीळा ( पापचरित्र ) दूषित राज्यसंस्थाओं में ऊपर से नीचे तक महामारीकी भाँति व्याप्त रहती है । - इक्के-दुक्के, चोर-डाकू तो लोगों की दृष्टिसे छिपाकर ही अपना पाप करते हैं | परन्तु पापी राज्याधिकारी लोग अपने हाथसे प्रजाका रक्त शोषण भी करते हैं और लंबे-चौडे वेतन-भत्ते आदियोंसे अपनी थैलियाँ भी भरते रहते हैं । इन लोगोंको राष्ट्रीय पाप करनेसे रोकना जनमतका ही उत्तरदायित्व है। जब इन्हें रोकने टोकने तथा संयत रखनेवाला जनमत नहीं रहता, तब इन लोगोंका दुःसाहस बढ जाता और देश में करोंकी भरमार होती चली जाती है । नाना प्रकारकी लोकहितकारी लंबी-चौड़ी दिखावटी योजनायें बना-बनाकर अपना ढिंढोरा पीटकर गुप्त प्रकारोंसे अपनी जेब भरते रहना ही इन लोगोंका उद्देश्य होजाता है । जहाँ लोकमत सुपुप्त होता है वहाँके राज्याधिकारका निन्दासे न डरनेवाले पापियों के हाथोंमें चला जाना अवश्यम्भावी होजाता है । Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पापियोंकी निर्लजता १६१ लोकमत राजासे भी अधिक शक्तिमान होता है । लोकमत राजशक्तिका या तो निन्दक या प्रशंसक बनकर अपनी शक्तिका प्रदर्शन किया करता है। वह इसी रूपमें राजासे भी अधिक शक्तिमान होता है। राजाकी शिष्टता या दुष्टताका पूर्ण परिचय राजशक्ति हाथमें मानेपर ही मिलता है । शक्तिहीन व्यक्ति लोकमतके सामने निन्दित होनेके साथ ही राजदण्डसे दण्डित भी होजाते है। नागरिकोंमें राजदण्डके भय से पापसे बचकर दण्डसे बचे रहने की प्रवृत्ति स्वभावसे होती है । पापी नागरिक समाजकी शान्तिका हरण करने. वाले तथा लोगोंके व्यक्तिगत शत्र होते हैं। लोकमतकी प्रतिनिधि राजशक्ति ही उन्हें इस कर्मसे रोकती है । परन्तु ऐसे राज्याधिकारी समाजके सार्वज. निक शत्रु होते हैं, जो लोकमतकी उपेक्षा करके गजशक्तिको शान्ति-स्थापनाके काम में न माने देकर, उसका समाजकी शान्ति-हरणमें दुरुपयोग करते हैं । “एकां लजां परित्यज्य त्रिलोकविजयी भवेत् ” को लोकोक्ति के अनुसार लोकनिन्दाका भय न माननेवाले निर्लज राज्याधिकारी इक्केदुक्के चोर-डाकुओंसे भी अधिक भयानक चोर-डाकू होते हैं । इन लोगों के हाथों में माया राज्याधिकार लूटके ठेकेका रूप लेलेता है। ये लोग जब राजगद्दोपर बैठकर लोकमतको असावधान पाते हैं, अर्थात् जब यह देखते हैं कि हम लोग राज्याधिकारका दुरुपयोग करके भी तथा लोकमें निन्दित होकर भी न केवल दण्डातीत रहसकते हैं, प्रत्युत लाभवान बने रहने का अवसर भी पारहे हैं, तब ये समाजके शत्रु चोर-डाकुओंके रूपमें निःशंक होकर आत्मप्रकाश कर बैठते हैं। इस सूत्रका मुख्य उद्देश्य लोकनिन्दाका भय न माननेवाले पापी राज्या. धिकारियों को दण्ड देनेकी शक्ति रखनेवाले लोकमतको सावधान (सचेत ) रखने के लिये समाजको सावधान करना है। राजशक्ति पापका दमन तब ही कर सकती है जब वह लोकमतका भय मानती हो अर्थात् जब वह स्वयं पाप न करनेवाली हो। जो राजशक्ति स्वयं पापी होती है वह पाप. दमन नहीं कर सकती । उसका पापोंको प्रोत्साहन देनेवाली होना अनि. वार्य होजाता है। Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि जिस समाजमें पापियोंको खुलकर खेलनेका अवसर मिल जाता है और गह-घाटोंमें स्वच्छाचारकी छूट मिलजाती है, जिस समाजके प्रहरी (पुलिस) तथा न्यायालय पापियोंके संबंधमें ४दासीनता या उपेक्षा धारण करलेते हैं, वहाँके राज्य के मुखिया लोगोंको भी पापी न मान लेनेका कोई कारण नहीं रहता। जब तक किसी देशका लोकमत पापी राज्याधिकारियों के विरुद्ध सुतीक्ष्ण दण्ड-प्रयोग करनेवाला नहीं बनता, तब तक समाजकी शान्तिका अपहरण करनेवाले इकले-दुकले पापियोंको भी पापोंसे रोककर नहीं रक्खा जा सकता । इसमें कोई सन्देह नहीं कि जिस देशके राज्याधिकारी पापी होते हैं वहां पापियोंका ही राज्य होता है। राज्याधिकारियोंका पापी होना और उन्हें पापी रहने देना किसी देशकी ऐसी दैन्यमयी अवस्था है कि समाजके लोग अकेले-अकेले बैठकर देशकी दुर्दशापर वन्ध्य चर्चामात्र करके अपना निकम्मापन सिद्ध किया करते हैं। ऐसे देश में संगठनशक्तिको जगाना ही इस सूत्रका प्रासंगिक अभिप्राय स्वीकृत होसकता है। इकले. दुकले पापियोको दण्डित करने से भी आवश्यक तो उन पापी राज्याधिकारियोंको दण्डित करना है जिनका पाप सहस्रगुण होकर प्रजाको अभिभूत कर लेता है। व्यक्तिगत पाप करनेवाले इक्के-दुक्के पापी लोग पापी राज्या. धिकारियोंसे ही प्रोत्साहन पाते हैं। पापी राज्याधिकारियोंसे प्रोत्साहन पानेवालोंको पापसे रोकना, तब तक संभव नहीं होता, जब तब कि पहले पापी राज्याधिकारियोंको पूर्णतया दण्डित न कर दिया जाय : पाठान्तर- न पापकर्मणां संक्रोशभयम् । ( उत्साह के लाभ ) उत्साहवतां शत्रयोऽपि वशीभवन्ति ॥ १८२ ॥ दुर्दान्त शत्रु भी उत्साहवालोंके वश आजाते हैं। .. विवरण-- उत्साह भौतिक शक्ति नहीं है। मनोबल ही उत्साह है। मनोबल भौतिक शक्तिपर निर्भर न रहकर सत्यनिष्ठामें ही रहता है। सत्यकी शक्ति से शक्तिमान व्यक्ति मजेय होता है। वह Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्साह के लाभ सांसारिक भौतिक शक्तिकी उपेक्षा करता और शक्तिमान विजयी बना रहता है । उसके सम्मुख समग्र संसारकी भौतिक शक्तिको हार माननी पड जाती है। इसके विपरीत असत्यनिष्ठ व्यक्तिका दुर्बलहृदय होना अनिवार्य है । मसत्यनिष्ठ व्यक्ति बडीसे बडी भौतिक शक्ति पाकर भी अपनेसे अधिक भौतिक शक्ति के सामने सिर झुकानेके लिये विवश होता है । दृढता सत्यनिष्ठ में ही होनी संभव है । १६३ आत्मशक्ति में विश्वासी वही हो सकता है जो अकेला ही समग्र विश्वके विरोधकी उपेक्षा करके विजयी बने रहने में समर्थ होता है । सत्यनिष्ठा से अलग आत्म- पौरुष नामकी कोई वस्तु नहीं है। जिसके पास सत्यनिष्ठा है वह अपने अभिलषित उच्चतम सिंहासनपर आरूढ है 1 उसके उत्साहका सच्चा रूप यही है कि भौतिक जगत् में उसके आसनको डुलानेकी शक्ति नहीं है । सत्यनिष्ठा, सच्चरित्र, इन्द्रियसंयम, कार्याकार्य-विवेक, व्यवहारकुशलता ही राजसिंहासनकी एकमात्र योग्यता और अधिष्ठात्री देवी है । क्योंकि समाजका प्रत्येक नागरिक राज्यशक्तिको संगठित रूप देनेवाला है, इसलिये पहले तो प्रत्येक नागरिकका स्वयं ही उस सत्यनिष्ठारूपी शक्ति से शक्तिमान होना अत्यावश्यक है। इसलिये जो भी कोई व्यक्ति राजा या राज्याधिकारीका निर्वाचन करें वह राज्याधिकारकी संपूर्ण योग्यताको पहले तो अपने में मूर्तिमान करके रखें। इसलिये रखे कि गुणी ही गुणीको पहचानकर उसका निर्वाचन कर सकता है। इसलिये समाजमें राज्याधिकारियोंका निर्वाचन करनेवाली शक्तिका जाग्रत रहना अत्यावश्यक हैं 1 शत्रु लोग पराभव के भय से उत्पादके वशमें आने में ही अपना कल्याण समझने लगते हैं । दृढचित्त लोग शत्रुओं के वशमें न आकर उन्हें ही अपने वश करके छोड़ते हैं। अपनी शक्ति में महत्ता होनेपर ही दूसरोंपर वशीकरण प्राप्त होता है । इसलिये जो संसारपर वशीकार पाना चाहें वे अपने हृदय में उत्साह, अध्यवसाय तथा कार्यसाधनकी जननी सत्यनिष्ठाको सुप्रतिठित करें | सत्यनिष्ठा में ही जन-कल्याण है, जनता जन-कल्याणसे दी Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ चाणक्यसूत्राणि सुदृढ रूप से संगठित हो सकती है। जनता सुदृढ रूपसे संगठित होकर ही ही राजाको बलवान बनाने में समर्थ होसकती हैं । जो राष्ट्र उन्नति करना चाहे उसे चाहिये कि वह अपने व्यक्तियोंमें उत्साह भर देनेकी योजना बनाये | प्रभवः खलु कोशदण्डयोः कृतपंचांगविनिर्णयो नयः । स विधेयपदेषु दक्षतां नियति लोक इवानुरुध्यते ॥ अभिमानवतो मनस्विनः प्रियमुचैः पदमारुरुक्षतः । विनिपातनिवर्तनक्षमं मतमालम्बनमात्मपौरुषम् ॥ ( विक्रम ही राजधन ) विक्रमधना राजानः ॥ १८३ ॥ ज्ञानदीप्त तेजस्विता ही राजाका धन है । विवरण -- ज्ञानदीप्त तेजस्विता ही राजाके प्रजारंजनका अव्यर्थ साधनरूपी अक्षय धन है । राष्ट्र-प्रबंध संबंधी विचारोंकी प्रखरतारूपी प्रदीप्त ज्ञानसूर्य ही राजाका सच्चा तेज या विक्रम है। ज्ञानी राजा ही सच्चे ऐश्व से सम्पन्न राजा है । अज्ञानी राजा प्रजाकी घृणाका पात्र होजानेके कारण राजसिंहासनारूढ दीखनेपर भी राज्यभ्रष्ट है । जैसे पैसा साधारण मनुष्यका भौतिक साधन समझा जाता है, इसी प्रकार सत्यरूपी विक्रम ही विजिगीषु राजाका धन है। सच्चा विजिगीषु राजा प्रजाके चित्तपर अपने सत्यका प्रभाव डालकर उसके हृदयका सम्राट् बनजाता है 1 सच्चे विजिगीषुका सत्यधनसे धनवान होना अनिवार्य हैं । सत्यद्दीन राजा प्रजाकी घृणाका पात्र तथा उसके प्रेमसे वंचित होकर अंत में राज्यसे भी च्युत होजाता है । ( आलस्य से विनाश ) नास्त्यलसस्यैहिकामुष्मिकम् ॥ १८४ ॥ कार्यमें अनुत्साही अकर्मण्य मन्दमति आलसीको वर्तमान तथा भविष्यत्कालीन सफलता नहीं मिलती । Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आलस्यसे विनाश १६५ विवरण- वर्तमानकी सफलता ही अतीतको भी सफल कर डालती और भविष्यत्की सफलताको भी सुरक्षित कर देती है। जिसका वर्तमान सुरक्षित होता है उसके भूत भावी दोनोंका सफलतासे मंडित होना और रहना निश्चित है। तीनों कालों में एक-सा समुज्ज्वल रहनेवाला सत्य ही विक्रमी राजाकी राज्यधी हैं। निवसन्ति पराक्रमाश्रया न विषादन समं समृद्धयः। पराक्रमके आश्रयसे रहनेवाली समृद्धिये भीरुता या विषादके साथ नहीं रहतीं। निरुत्साहादेवं पतति ॥१८५॥ उत्साह के बिना निश्चित सफलतायें भी हाथसे बाहर खडी रहजाती हैं। विवरण- इस संसारकी स्थिति हो ऐसा है कि सत्यनिष्ठको असत्य. विरोधके संग्राम-क्षेत्र में योद्धाके रूपमें शस्त्रबद्ध होकर अविरत नियुक्त रहना पडता है । सत्यनिष्ठ व्यक्ति इस संग्रामको विपत् न समझकर उसका उत्सा. के साथ सौभाग्यवुद्धिसे स्वागत करता है । इसके विपरीत सत्यहीन व्यक्तिको असत्यसे संग्राम हो विपत्ति दोखता है । इसलिये असत्यविरोधको विपद् माननेवाला व्यक्ति अपनेको असत्यकी दासतामें ही निरापद माना करता है । उत्साहहीनता असत्यको ही दासता है । सत्यनिष्ठ उत्साहीके हृदय में विपभोति नामकी कोई स्थिति नहीं होती। सत्य ही उत्साहका असमाप्य उत्स है । सत्यके बिना कर्ममें दृढता या मात्मविश्वास होना संभव नहीं है । सत्यमें मारूढ रहनेका सन्तोष ही पुरु. पार्थ या कर्मोत्साहका जनक होता है। उत्साहहीन महढ व्यक्ति पुरुषार्थ नहीं कर सकता । पुरुषार्थके बिना सहजसाध्य काँमें भी अदृढता माजाती है और सफलताको मसाध्य बना डालती है। विपदोऽभिभवन्त्यविक्रम रहयत्यापदुपेतमायतिः । नियता लघुता निरायतेरगरीयान्न पदं नृपश्रियः ॥ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि विपत्ति विक्रमहीनको दबा लेती हैं। विपद्ग्रस्तका भावी विनष्ट होजाता है । निर्भविष्यका हल्का ( भोछा ) होजाना सुनिश्चित है | हल्का मानव राज्यश्रीके योग्य नहीं रहता | पाठान्तर -- निरुत्साहो दैवं परिशपति ॥ १६६ उत्साहद्दीन व्यक्ति समस्त असफलताओंकी जननी अपनी उत्साहद्दीनताको दोष न देकर देव या भाग्यको कोसा करता है । अपुरुषार्थ या अनुत्साह ही उसका दोष है 1 ( पुरुषार्थीका कर्तव्य ) मत्स्यार्थीव (मत्स्यार्थिवज्) जलमुपयुज्यार्थं गृहणीयात ॥ १८६ ॥ जैसे मत्स्यार्थी जलमें घसने के संकट में पडकर ही अपना मछलीरूपी स्वार्थ पाता है इसी प्रकार पुरुषार्थी मानव उठे. संकट में कुदे, सफलतारूपी अपने दैवको विघ्न बचाबचाकर सुरक्षित करता चले और अपना काम वनाले । ! विवरण- जो लोग सफलतारूपी देवको पाना चाहें, वे विघ्नको हटा - हटाकर अपना काम बनायें। विघ्नवारणके बिना देवप्राप्ति असंभव है। मत्स्यचज्जलमुपयुज्यार्थ ( विश्वासके अपात्र ) पाठान्तर ....... अविश्वस्तेषु विश्वासो न कर्तव्यः ॥ १८७ ॥ अपरीक्षित या अपात्र लोगोका विश्वास कभी न करो ! विवरण- करोगे तो निश्चित रूपसे हानि उठाभोग | कुपात्रसे सदा भय रहता है कि न जाने कब क्या कर बैठे : नीतिज्ञोंने कहा है कुसौहृदे न विश्वासो कुदेशे न प्रजीव्यते । कुराजान भयं नित्यं, कुपात्रे सर्वदा भयम् ॥ Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्यसिद्धिमें हानि १६७ मनुष्य दुष्ट मित्रका विश्वास तथा कुदेश में जीवनको सुरक्षाकी आशा न करे । कुराजा और कुपात्रसे सदा ही भय बना रहता है। असाधुयोगा हि जयान्तराया, प्रमाथिनीनां विपदा पदानि । ___ असत्संग विजयी जीवनका विघ्न तथा विनाशक विपत्तियोंका कारण होता है। पाठान्तर- अविनब्धेषु विश्वासो न कर्तव्यः। विषं विषमेव सर्वकालम् ॥ १८८॥ जैसे विष सदा विष ही रहता है, कभी अमृत नहीं होता जैस विष कभी अपना स्वभाव नहीं बदलता इसी प्रकार अवि. वासीस्वभाववाला मनुष्य कभी विश्वास योग्य नहीं बना करता। ( कार्यसिद्धि में बैरीका महयोग हानिकारक) अर्थसमादाने वैरिणा संग एव न कर्तव्यः ॥ १८९॥ कार्य-संपादनमें शत्रुओं से किसी प्रकारका संपर्क न करना चाहिय । पाठान्तर ---- अर्थसामान्य चरिणां संसगों न कर्तव्यः । सामान्य प्रयोजन वाले कामें वरियों का संपर्क बचाना चाहिये । { अधिक सूत्र ) आर्याथमेव नीचस्य संसर्गः ।। आर्य अर्थात् प्रभुक कार्यके लिये ही नीचोंके साथ संबंध किया जासकता है। विवरण- राज्यसंस्था राजा ही प्रभुका स्थान लिथे हुए है । परन्तु सजाका भी तो एक प्रभु है । समन राष्ट्र राजाका प्रभु है । राष्ट-कल्याण लिये राजा तथा राज्य अन्य सेवकोंका कभी न कभी नीचरे साथ संबंध होना अनिवार्य होता है । उस विकट संबंध के समय भी प्रजा-हितको मुख्यता देकर उसे सुसंपन्न बनाये रखना ही सच्चे सेवकका ध्येय होता है। उस समय उसका कर्तव्य होता है कि उसके किसी कामसे नीचको नीचताको भूल कर भी प्रोत्साहन न मिल जाय तथा राजकार्य में विघ्न उत्पन्न न होने Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ चाणक्यसूत्राणि पाये । साधारण नियम यही है कि नीचोंके साथ किसी भी काम में संबंध रखना उचित नहीं है । " हीयते हि मतिस्तात हीनैः सह समागमात् ।" हीन लोगों के साथ संबंध रखते रहनेसे बुद्धि उन्हीं जैसी हीन होजाती है। (वैरी विश्वासका अपात्र) अर्थसिद्धौ वैरिणं न विश्वसेत् ।। १९० ॥ उद्देश्य-पूर्तिमे वैरीका विश्वास मत करो। विवरण- शत्रुपर विजय करना ही विजिगीपुका उद्देश्य होता है । यही उद्देश्य विजिगीषकी स्थितिको सार्वदिक संग्रामकी स्थिति बना देता है। समका कर्तव्य हो जाता है कि शत्रके धोके में न आने के लिये सर्वदा सावधान रहे। उसे यह अविचलित रूपमें समझ रखना चाहिये कि शत्र कभी भी मित्र नहीं होसकता। यदि कभी शत्रकी पोरसे मित्रताका प्रस्ताव माये तो उसे सोचना चाहिये कि जो व्यकि एक दिन शत्रुताचरण करनेमें ही अपना स्वार्थ समझ रहा था, वह आज तुम्हारा मित्र क्यों बनने जा रहा है ? उसे इस प्रस्तावके आते ही तुरंत समझ जाना चाहिये कि वह माज मेरा मित्र बनने में अपना निश्चित स्वार्थ देख रहा है। वह अपने स्वार्थके दबाव से ही तो पहले शत्र था और आज उसीके दबावसे मित्रताका प्रस्ताव कर रहा है । आज अपने स्वार्थके दबावसे मित्र बनने वाला वास्तव में आज भी शत्र ही है। सच्चा मित्र तो वही होता है जो स्वार्थकी मलिनतासे अतीत रहकर हृदयके सत्यनिष्ठारूपी अमृतमय बन्धनमें माबद्ध होकर सुदृढ मित्रताके बन्धनको अपनालेता है। सच्चे ही सच्चोंके, ज्ञानी ही ज्ञानीके मित्र हो सकते हैं। मिथ्याचारी अज्ञानी. ज्ञानीसे कभी प्रेम नहीं कर सकता। सत्य, असत्य या ज्ञानाज्ञानमें परस्पर वध्य-घातक संबंध है। इन सब तथ्यों को कभी न भूलकर शत्रकी दिखावटी मित्रताको शत्रताका ही भावरणमा मानकर उसपर अविश्वास रखकर उसके षड्यंत्रको व्यर्थ करना ही विजिगी. षुका विजय-कौशल है। शत्रुका विश्वास न करनेका अभिप्राय उससे यह कह देना नहीं है कि मैं तुम्हारा विश्वास नहीं करता किन्तु यही मभिप्राय है कि उसे धोके में रखते Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्बन्धका आधार १६९ रहो । उसे मत जानने दो कि तुमने उसकी गुप्त शत्रुताको पहचान लिया। तुम उसे अंधेरेमें रखते रहकर उसपर उचित समयपर भाक्रमण करो। तुम शत्रुको परास्त करने ( अर्थात् उसके असत्यको पददलित करने ) के लिये जिस किसी उपायका अवलंबन करोगे, उसकी दृष्टि में वह कपट, छल माया आदि होनेपर भी, तुम्हारी दृष्टिमें वही असत्य-विरोधरूपी सत्यनिष्ठा होने के कारण, वह असत्यका दलन करनेवाली सत्यकी विजय ही होगी। विजिगीषुका ध्येय तो अपने भाराध्य सत्यको ही विजयी बनाना है। (संबन्धका आधार ) अर्थाधीन एव नियतसंबंधः ॥ १९१ ।। लोगोंसे संबंध उद्देश्यके अनुसार होता है। विवरण- उद्देश्यके ही अनुसार लोगों के साथ संबंधोंकी स्थापना होती है। मित्रसे मित्रता तथा शत्रुमे शत्रुताका संबंध जडजाता है। उद्देश्यकी एकतासे मित्रता तथा उद्देश्य की भिन्नतासे शत्रुताका संबंध स्थापित होजाता है। प्रजोजन ही मानवोंकी परस्पर संयोजक रज्जु है । संसार में अहेतुक संबंध असंभव है। अलब्धका लाभ, लब्धकी रक्षा तथा रक्षितका वर्धन इन तीन भौतिक प्रयोजनोंसे ही लोगोंके संबंध जुडते हैं । अज्ञानी जगत् भौतिक स्वार्थोके पीछे भटकता है । ज्ञानी मनुष्य भौतिक स्वार्थों के पीछे न भटककर परमार्थ या वास्तविकताका हो अनुगमन करता है । ज्ञानी अज्ञानीके अर्थ तथा अनयों के दृष्टिकोण एक दूसरेसे सर्वथा भिन्न प्रकारके होते हैं। ज्ञानीकी दृष्टि में तो मानसिक स्थितिको सुरक्षित रखनेवाला सत्य ही अर्थ या काम्य वस्तु होता है । उसकी उदार दृष्टिमें मानसिक दृढताको नष्ट करनेवाली भौतिक पदार्थों की लालसा अनर्थपश्नमें गिनी जाती है। इसके विपरीत अज्ञानीको दृष्टि में भौतिक सुखोंके साधन ही अर्थ समझे जाते हैं। उसकी दृष्टि में भौतिक सुखोंको त्यागने या उपेक्षापक्षमें रखने का आदर्श या मानसिक दृढता, सुख-त्याग या दुःख-वरणके नामसे अनर्थ ही माना जाता है। Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० चाणक्यसूत्राणि अज्ञानीके पास दूरगामी दृष्टि न होकर वह केवल मापातरष्टि रखता है। वह अपनी आपातदृष्टि से सुख-दुःखोंके यथार्थ रूपोंको समझने में प्रान्ति करके दुःखको ( अर्थात् सुखच्छारूपी अभावग्रस्तताको) ही सुख मानकर अनिश्चित के पीछे भटककर, मानसिक निर्बलताको अपनाकर लक्ष्यहीन अढ बनजाता है। इसके विपरीत सत्यनिष्ठ विजिगीपुके लिये यह सुनिश्चित होजाता है कि वह अपने लक्ष्यपर स्थिर रहने के लिये मानसिक दृढताको अपनाये और नित्यसुखी बने रहने के लिये संसारमें पग-पगपर विजय प्राप्त करता रहकर स्थिररूपसे विजयशील बनकर रहे। विजिगीषु मनुष्य विश्वका सम्राट तो पीछेसे बनता है। पहले तो उसे अपने ही मनोराज्यका सम्राट बनना पडता है। वह बाह्य जगत् में विश्व-सम्राट बननेसे भी पहले ससारकी भौतिक सुख-समृद्धिको अपनी सत्यनिष्ठारूपी मानसिक सुखसमृद्धि की अधीनतामें देकर अपने मनोराज्यका सम्राट बन चुकता है। अपने मनोराज्यका सम्राट बनने के अनन्तर विश्व सम्राट् बननेवाले उस विजिगीषु र जाकी राजशक्ति के सम्मुख समग्र संसारको अवनतमस्तक होकर रहना रडता है। शोरपि सुतस्सखा रक्षितव्यः ।। ११२ ।। शत्रुका भी पुत्र यदि भित्र हो तो, उसकी रक्षा करनी चाहिये । विवरण---- अर्थात उसे अपने आक्रमण का पात्र न बनाना चाहिए। उद्देश्यकी एकन से मनुष्य पपसे मित्र बनते हैं। सासुरी प्रवृत्तिवाला सत्यद्वेषी ही विजिगीपुका शत्रु होता है । सत्यसे विजयी बना ही विजि. गीपुका ध्येय होता है । सत्यका विरोध करनेवाला तो असत्यका दास होता है । वह उद्देश्य के विरोधसे ही शत्रुता करनेवाला बनता है। उसका पुत्र उस जसा सत्य- शत्रु न होकर अपत्यका तो शत्र नथा सत्यका मित्र होना असंभव नहीं है। यदि किसी शत्रुके पुत्र सत्यनिष्ठ होनेका पुष्ट प्रमाण मिल जाय तो उसे अपना मित्र समझकर उसकी रक्षा करना सत्यकी हो रक्षा करना होगा । सत्यनिष्ठाको अपनायरहना ही सत्यनिष्ठ विजिगीपुका Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शत्रुको असहाय छोडनेका समय १७१ ध्येय होता है । इस ध्येयसे विच्युत न होना सत्यनिष्ठका प्रतिक्षण सदातन स्वभाव बनजाता है। पाठान्तर- शत्रोरपि सखा सुतो रक्षितव्यः । मित्र तथा पुत्रकी शत्रुसे भी रक्षा करनी चाहिये । पाठान्तर- शत्रोरपि शत्रुसखाद्राक्षतव्यः । अपने आपको शत्रु तथा उसके मित्र दोनोंसे बचाकर रखना चाहिये । ( शत्रुको मित्रतासे ठगनेकी अवधि ) यावच्छत्राश्छिदं पश्यति तावद्धस्तेन वा स्कन्धेन वा वाह्यः ॥ १९३ ॥ शत्रुकी जिस निर्बललापर प्रहार करके उस नष्ट करना हो उसका पता न चलानेनक उसे कृत्रिम मान तथा कृत्रिम मित्रताके प्रदर्शनास धो में रखते रहो। विवरण--- शत्रका छिद्र हाथ न मारेतक उसे मत छेदो। तब तक उसके दाम्भिक मस्तक के सामने अपना मस्तक ऊँचा करके मत चलो । उसमे मन बिगाडो । उगीको बहु बना रहने तथा नभ में इबा रहने दो और युद्ध मत ठानो । उसका क्षाकमणीय कि हूँढ लेने से प्रथम उपके सामने मस्तक ऊँचा करना उसे रण-निमंत्रण देना है। इस मध्य में उसे उच्चस्थान दिय रहो और उसके विरुद्ध शक्ति-संचय करते रहो। । शत्रुको असहाय छोड देने का समय । श छिद्र परिहरेत् ।। १९४ ।। विजिगीषु राजा शत्रुकी छिद्रावस्था में उसे अपनी सहायतास वंचित करदे पाठान्तर---- शत्रु छिद्रे प्रहरेत् । विजिगीषु राजा शत्रु के निर्बल स्थानपर मारामक प्रहार करे । Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ चाणक्यसूत्राणि विवरण- विजयाभिलाषी अपने शत्रुके छिद्र ( निर्बलता, विपत्ति या किसी भयंकर विनाशक व्यसन ) में फंसे होने का निश्चय होजानेपर उसके निर्बल अंगपर आक्रमण करे । वहेदमित्रं स्कन्धेन यावत्कालस्य पर्ययः । तमेव काले संप्राप्ते भिन्द्याद घटमिवाश्मनि ।। अब तक कालकी अनुकूलताकी प्रतीक्षामें धोका देकर सिरपर चढाये हुए शत्रुके विनाशकी पर्याप्त तैयारी कर लेनेपर, उसे पत्थर पर पटककर फोड डाले जानेवाले शिरोभारस्वरूप घडेके समान नष्ट कर डाले । कौम संकोचमास्थाय प्रहारानपि मर्षयेत् । काल काले च मतिमानुत्तिष्ठत कृष्णसर्पवत् ॥ विपरीत दिनों में कछवेकी भांति सुकडकर प्रहार सहा करे और अनुकूल काल आनेपर सांपकी भांति प्रहार करने के लिये उठ खडा हुमा करे । अजन्मा पुरुषस्तावद्गतासुस्तृणमव वा । यावन्नेषुभिरादत्ते विलुप्तमरिभिर्यशः ॥ अनियेन द्विषतां यस्यामर्षः प्रशाम्यति । पुरुषोक्तिः कथं तस्मिन् ब्रूहि त्वं हि तपोधन ॥ (शत्रको बलवान दीखनेके आयोजन करो ) आत्मच्छिद्रं न प्रकाशयेत् ॥ १९५ ॥ शत्रुको अपनी निर्बलताका पता न चलने देकर उसकी दृष्टिम बलवान बनकर रह ।। विवरण- तुम अपनी किसी ऐपी निर्बलताको शवपर प्रकट मत होने दो जिसके कारण वह तुमपर आक्रमण कर सके। नास्य गुह्यं परे विद्युश्छिदं विद्यात् परस्य च । . गृहेत् कूर्म इवांगानि यत्स्याद्विवृतमात्मनः ।। अपनी निर्बलताको शवको मत पहचानने दो, प्रत्युत तुम्हीं उसकी निबलताका पता चलाकर रखो । अपने प्रसारित अंगोंको छिपा लेनेवाले कूर्मके समान अपनी निर्बलताको शत्रुके आक्रमणोंसे बचाये रहो ! Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजाका कर्तव्य १७३ (शत्रुका स्वभाव) छिद्रप्रहारिणश्शत्रवः ॥१९६॥ शत्रु प्रतिपक्षीकी निर्बलतापर ही आक्रमण किया करते हैं। विवरण- इसलिये विजिगीषु लोग शत्रुओं की दृष्टि में बलवान बने रहें । शत्रु कभी भी प्रबल पक्षपर आक्रमण या प्रहार नहीं करते । आकमण सदा निर्बल असावधान त्रुटियुक्त पक्षपर ही होता है । पाठान्तर-छिद्रप्रहारिणो हि शत्रवः । (अधीन शत्रुका विश्वास मूढता) हस्तगतमपि शत्रु न विश्वसेत् ॥ १९७ ।। विजिगीषु राजा अपने वश आनके पश्चात् अपनी शत्रुताका संगोपन तथा मित्रत्वका प्रदर्शन करनेवाले शत्रका विश्वास न करे। विवरण- शत्रुको हाथमें पाकर उसे क्षमा करके प्रेमसे अपनाना वाहनेकी भ्रान्ति कभी न करनी चाहिये । विजेताके भयसे शत्रुकी ओरसे प्रेमका प्रस्ताव आना स्वाभाविक है । परन्तु जिसके प्रेमका सम्बन्ध होनेका कभी कोई हार्दिक कारण उपस्थित नहीं होसकता, उस शत्रुकी असहाय स्थिति प्रेमका कारण कदापि नहीं बन सकती। ऐसे शत्रुको अपनाकर उसे अपना सहायक मित्र बनालेनेकी दुराशा करना विषधर भुजंगको दुग्ध. पानसे निर्विष बनानेकी-सी ही भ्रान्ति है । शत्रुको तो मिटाकर ही निश्चिन्त होना संभव है । विजिगीषु के लिये शत्रु-पोषण किसी भी प्रकार और किसी भी दृष्टिसे समर्थनीय नहीं है। पाठान्तर- स्वहस्तगतमपि ..... । - ( राजकर्मचारियों के दुराचार रोकना राजाका म्वहितकारी कर्तव्य ) स्वजनस्य दुर्वृत्तं निवारयेत् ॥ १९८ ।। विजिगीषु राजा स्वपक्षके लोगों के दुराचार या गर्हित आच. रणको प्रबल उपायोंसे दूर करे। Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ चाणक्यसूत्राणि विवरण- राज्यको संपूर्ण राज्यसंस्था तथा गज्यभरका प्रजा-वर्ग विजिगीषुका स्वजन है । राज्यभरमें कहीं भी दुराचारको प्रोत्साहन या प्रश्रय न मिलना ही राज्यको सुव्यवस्था है। राजा या राज्यसंस्थाका चरित्र ही प्रजामें प्रतिफलित होता है । राष्ट्रभरमें से दवृत्तको बहिष्कृत रखना ही राजाका धर्म, कर्म, पूजा, पाठ तथा श्रेष्ठ भगवदाराधन है। राजकीय लोगों के दराचारोंसे राज्य में पाप-वृद्धि तथा अपयश होता और राज्य संस्था सार्वजनिक समर्थनसे वंचित होकर निर्वल पट जाती है। कोई भी राज्य राजकीय लोगोंके भ्रष्टाचारके दुष्परिणामोंसे बच नहीं सकता। राज्याधिकारियों के दश्चरित्रका कुफल राज्यको भोगना ही होगा। इसलिये उन्हें दराचारसे रोकनेके कठोरतम उपाय अपनाये रहने में ही राज्यका कल्याण है। स्वजनावमानोऽपि मनस्विनां दुःखमावहति ॥ ११९ ।। दुश्चरित्रताके कारण हुआ स्वजनोंका अपमान विचारशील व्यक्तियोके दुःखका कारण होता है। विवरण- दुराचार के कारण हुए राजकीय लोगोंके अपमान विचारशील स्वाभिमानी कर्तव्यपरायण मनस्वी राजाओंके लिये असह्य दुःखदायी होते हैं । मनस्वी राजाके कर्मचारी, दुराचारी, भ्रष्टाचारी हों और राष्ट्र में मनीति तथा पापाचार बढा रहे हों तो उसे उनके दुराचारको तत्काल रोकना चाहिये । उसे उन्हें सुपथपर रखने में कोई बात उठा नहीं रखनी चाहिये । उसे अपने राज्याधिकारियोंके अपमान और अपशयको अपना ही अपमान और अपयश मानकर उन कारणोंको समूल उखाड़ फेंकना चाहिये । पाठान्तर-- स्वजनावमानो हि ... ... । ( एक कर्मचारी के पापसे संपूर्ण राजव्यवस्था दूषित ) एकांगदोषः पुरुषमवसादयति ।। २०० ॥ जैसे किसीका एक रोगी अंग उसके समस्त देहको अवसन्न तथा अनुपयोगी बनाडालता है, जैसे वह एक दूषित अंग समस्त देहके व्याधिग्रस्त होने का लक्षण होता है, इसी प्रकार Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शत्रुविजयका अमोघ साधन राज्यसंस्था या किसी दलके किसी भी व्यक्तिका दुराचार, समस्त राज्यसंस्था या सारे दलको हीनवल बना डालता है । विवरण- किसी राज्यसंस्थाका एक भी सदोष राज-कर्मचारी, संपूर्ण राज्यसत्ताका कलंक है । जैसे एक चावलसे बटलोई के समस्त चावल परखे जाते हैं, इसी प्रकार एक राज-कर्मचारीकी बुराई से उसे सह लेने. वाली समस्त राज्यसत्ताके दूषित होने का प्रमाण मिल जाता है। इसलिये राज्यसत्ताका यह महान् उत्तरदायित्व है कि वह अपने प्रत्येक राजकर्मचा. गको भ्रष्टाचार करनेसे रोके रहे और राजकीय सेवक-वृकोंको प्रजाका आखेट न करने दे । यही नियम समस्त समाजपर भी लागू होता है । जिस सम!. जका एक भी व्यक्ति दूषित होनेपर भी दण्ड नहीं पारहा है, वह उस संपूर्ण समाजका कलंक है। इसलिये अपने समाजके प्रत्येक व्यक्तिको धार्मिक बनाकर रखना समस्त समाजका सुमहान कर्तव्य है । ( सदाचार शत्रुविजयका अमोघ साधन ) शत्रु जयति सुवत्तता ॥ २०१॥ सदाचार शत्रुपर विजय प्राप्त कराने का अमोघ साधन है । पाठान्तर--- शत्रं जयति सुवृत्तः । सदाचारी शत्रुपर विजय पालेता है। विवरण- स्वपक्षका सदाचार हो स्वपक्षकी शक्तिको सुरक्षित रखकर शत्रको हरासकता है। इसके विपरीत स्वपक्षका दुराचार स्वपक्षको शक्ति. हीन बनाकर शत्रको विजयी बनादेता है। जिसका अपने आचारपर वश नहीं है, जिसका अपना ही मापा अरक्षित है वह पहले तो मनिवार्यरूपसे शत्रुके प्रलोभनों में फंसेगा और फिर अपने देशके स्वाथको बेचनेवाला देशद्रोही बन जायगा । वह शत्रुपर विजय कसे पायेगा ? संसारमें मनुष्यका सबसे पहला सहा शत्रु उसीका दुराचार है, जो मानसिक निर्बलताके रूप में उसके मन में बैठकर उसे तोड-तोडकर खाता रहता है । दुराचार मनुष्यका आभ्य - न्तरिक शत्रु है । दुराचाररूपी शत्रुपर विजय पाये बिना बाह्य शत्रुओंपर Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ '१७६ चाणक्यसूत्राणि विजय दिलानेवाले उत्साह, वीर्य, मानन्द तथा वीरोचित गुण मनुष्यको प्राप्त नहीं होसकते। एकस्यापि हि योऽशक्तो मनसः सन्निबहणे । महीं सागरपयन्तां स कथं वजेष्यति । निरुत्साहो निरानन्दो निर्वीयों निर्गुणः पुमान् । किं जेतुं शक्यते तेन तस्यात्मा चाप्यरक्षितः ॥ उत्साह, आनन्द, वीर्य तथा गुणोंसे होन वह मनुष्य जिसके माभ्यन्तरिक दोष अपने ही आपको शव-दहको नोचकर खानेवाले गृध्रोंके समान नोच नोचकर खाये जा रहे हैं, क्या कभी शत्रुओपर विजय पासकता है ? जो एक मनको नहीं रोक-थाम सकता, वह सागरपर्यन्त भूमिपर कैसे विजय पासकता है ? जो इस भीतरवाले यात्रुको जीत लेता है वही बाह्य शत्रुओं को परास्त करनेका अधिकार पाता है । आन्तरिक शत्रुभोंको जीते बिना उन सत्साह, भानन्द, वीर्य तथा गुणोंका पाना असंभव है जो विजय दिलाने वाली सर्वाधिक महत्त्व रखनेवाली भावश्यक सामग्री है। विजिगीषु राजा अपनी राजशक्तिको शक्तिसंपल बनाये रखनेके लिये, अपने राज्याधिकारियों को सदाचारी बनाकर उनके द्वारा संपूर्ण राष्ट्रमें सदा. चारका प्रभाव जमाये रक्खे । तब ही वह शक्तिमान होकर निर्विघ्न रह सकता और राष्ट्र सेवामें समर्थ होसकता है । जो राजा स्वयं सदाचारी हो उसीमें राष्ट्रको सदाचारी रखने की योग्यता होसकती है। कदाचारी राजाकी राजाक्ति भ्रष्टाचारी होकर राष्ट्रको भाचारहीन, अनैतिक तथा निर्बल बना. कर छोडती है । सदाचारहीन राष्ट्र राजशक्ति के भ्रष्टाचारी होनेका भकाट्य प्रमाण है। ( नीचोंका स्वभाव ) निकृतिप्रिया नीचाः ।। २०२ ॥ नीच व्यक्ति सत्पुरुषोंके साथ कपटाचरण करनेवाला होता है। Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नीचका विश्वास अकर्तव्य १७७ विवरण - नीच व्यक्ति विश्वासपात्र के साथ विश्वासघात करता है । दुष्कार्यप्रियता, परापमान, धूर्तता, शठता, कपट, प्रतारणा, पराधिकारका अपहरण नीचोंके प्यारे व्यापार हैं । सत्पुरुषोंका अपमान, उनका अभीष्टविध्वंसन आदि दुष्कार्य करनेकी प्रवृत्ति ही नीचोंकी पहचान है । उन्हें सदा गर्हित आचरण, दूसरेका परिहास आदि अभद्र काम ही रुचते हैं । जैसे श्वानको उच्छिष्ट भोजन या जैसे चोरोंको अँधेरा प्यारा लगता है, इसी प्रकार शठ लोगोंको समाजके साथ विश्वासघात करना बडा प्रिय लगता है । ( नीचको समझाना अकर्तव्य ) नीचस्य मतिर्न दातव्या ॥ २०३ ॥ नीच, हीन, शठ मानवको सदुपदेश देकर उसे धर्मबुद्धि बनानेका प्रयत्न मत करो । विवरण- विपथगामी बुद्धिवाले नीचको सदुपदेश देनेका परिणाम विपरीत होता है । वह एक भी अच्छी बात माननेको उद्यत नहीं होता । नीचको उपदेश देना केवल व्यर्थ ही नहीं है उसे अपना शत्रु बनालेना भी है। जिसने उपदेश मानना ही नहीं, उसे दिया हुआ सदुपदेश किसीको गोखरू खानेको कहने जैसा अमान्य हो जाता है । ( नीचका विश्वास अकर्तव्य ) तेषु विश्वासो न कर्तव्यः || २०४ || करों, शठों, पंचकों नीचोंका विश्वास न करना चाहिये । विवरण - नीचोंसे विश्वासका सम्बन्ध जोडना, साधुता या महात्मापन समझा जाता है । परन्तु न तो यह साधुता है और न यह महात्मापन है । नीचोंको किसीका भी विश्वास पानेका अधिकार नहीं है । वे तो लोगों के अविश्वास भाजन बने रहने के ही अधिकारी हैं । ऐसोंको अपनी कोई ऐसी मार्मिक बात बताना जिससे वे कोई हानि पहुँचा सकें नीतिहीनता और निष्फल व्यापार है । पाठान्तर-- नीचेपु १२ ( चाणक्य . ) 1 Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि ( नीच स्वभाव ) सुपूजितोऽपि दुर्जनः पीडयत्येव ।। २०५॥ दुर्जन उदारताका व्यवहार पाकर भी अवसर पाते ही अनिष्ट करनेसे नहीं चूकता। विवरण- उपकारीको दुःख पहुँचाये बिना दुर्जनको शान्ति नहीं पडती। दुर्जन दूध पीकर विषवमन करनेवाले साँप या त्राताके देहमें भी डंक मारनेवाले विच्छ्रके समान अपने दुरतिक्रमणीय स्वभावसे जबतक किसीका अनिष्ट नहीं करता तबतक उसे ठंडक नहीं पडती । वह अपने स्वभावसे दूसरोंका अपकार करने के लिये विवश है। इसलिये लोग धार्मिकताका सस्ता यश लूटने या दुर्जनोंसे महात्मापनका प्रमाणपत्र लेनेके लिये उनके साथ विश्वासका संबंध स्थापित करने की भूल न करें। पाठान्तर- सुपूजितोऽपि बाधत दर्जनः। चन्दनादीनपि दावोग्निदहत्येव ।। २०६॥ जैसे दावाग्नि अपने दाहकत्व स्वभावसे विवश होकर चन्द नकी शीतलता तथा सुगन्धका गुणग्रहण न करके उसे भी भस्मीभूत करडालती हैं, इसीप्रकार उपकृत भी शठ उपकार करनेवालेका कृतज्ञ न होकर उसका भी अपकार ही करता है। ( अधिक सूत्र ) शिरसि प्रस्थाप्यमानो वहिनर्दहत्येव जैसे सिरपर धारण किया हुआ भी वहिन अपने दाहक स्वभा. वसे विवश होकर अपने सम्मानदाताको भी निश्चित रूपसे जलाता है इसीप्रकार दुर्जन, सत्कृत तथा उपकृत होनेपर भी सत्कर्ता तथा उपकर्ताको निश्चित रूपसे पीडा पहुँचाता है। अपि निर्वाणमायाति, नानलो याति शीतताम् । भाग बुझ तो सकती हैं परन्तु शीतल नहीं होसकती। इसीप्रकार नीच विनष्ट तो हो सकता है परन्तु पनी नीताको त्याग नहीं सकता। Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपमान करना अकर्तव्य १७९ ( अपमान करना अकर्तव्य ) कदापि पुरुषं नावमन्येत ॥ २०७ ॥ कभी किसी पुरुषका अपमान मत करो। विवरण- मनुष्यको शीलसे समस्त जगतपर वशीकार पाकर रहना चाहिये। दूसरोंका अपमान अपने ही सद्गुणोंका मर्दन करडालना है। किसी दूसरेका अपमान करना अपना ही अपमान है। जिसे लोग दूसरेका अपमान करनेवाला समझते हैं, वह सबसे पहले अपने ही आत्माका हनन या अपमान या अपने ही सदगणोंका मर्दन करचुकता है। अवमन्ता जिसे अपना शत्र समझ लेता है उसे अपमान के द्वारा हानि पहुँचाना चाहता है। हानि शत्रको ही पहँचाई जाती है। क्योंकि मित्रों के अपमानका तो प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता इसलिये यह सूत्र शत्रुके हैं। अपमानका निषेध कर रहा है । इसपर विचारना यह है कि शत्रुको हानि पहुँचाना तो अनिवार्य कर्तव्य है। क्योंकि उसे हानि न पहुँचानेसे उसके शत्रताचरणको प्रोत्साहन मिळजाता है। शत्रुके हाथों हानि उठाना या उसके शत्रुताचरणमें सहयोग देना एक ही बात है। क्योंकि शत्रुका विरोध न करना निर्बुद्धिता है, इसलिये इस सूत्रका मभिप्राय अपमान न करनेका उपदेश देकर उसका विरोध ही छुडवा देना संभव नहीं है । भव. सर मिलनेपर शत्रको मिटा दालना ही उसके साथ उचित बर्ताव माना जाता है । इतनेपर भी उसका अपमान करनेसे विरत रहने को कहना अवश्य हो अपना कोई गंभीर अभिप्राय रखता है। निश्चय ही मार्य चाणक्य जैसे मतिमान पत्रकार किती विशेष प्रकारका अपमान करनेसे विरत रहनेको नीति के अनुकूल समझकर इसका उपदेश दे रहे हैं । ___ महामति सत्रकार अपनी भानुभविक चक्षुसे स्पष्ट देख रहे हैं किखोखले, तर्जन, गर्जन या अपशब्दात्मक अपमानकारी व्यवहारसे शवकी कोई हानि न होकर क्षत्रमन्ताका अपनी ही हानि होती हैं। इसी दृष्टिले वे अपमानका निषेध कर रहे हैं। किसी भी निषेधात्मक उपदेशको तद ही कोई Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० অনুষ स्वीकार कर सकता है, जब वह उपदेष्टाको अपना सच्चा हितवक्ता मानले और उसे उसका उपदेश अपने हितार्थ होनेका सन्तोष मिले । उदाहरणके रूपमें ' चोरी मत करो' इस उपदेशको वही मनुष्य स्वीकार करेगा, जो इस उपदेशसे विपरीत चलने में अर्थात् चोरी करने में अपना अहित समझेगा । परन्तु जो चोर होगा उसे ' चोरी मत करो' यह उपदेश किसी भी प्रकार स्वीकार न होगा । क्योंकि चोरीको प्रोत्साहन देकर अपहृत होना किसीके लिए भी लाभदायक नहीं है । इसके विपरीत यदि कोई कहने लगे कि चोरको मत रोको तो यह उपदेश किसीको भी ग्राह्य नहीं होगा। इन सब दृष्टियोंसे इस सत्रका कर्तव्याकर्तब्यकी स्पष्ट कसौटीपर कसकर यही अभिप्राय लेना उचित होगा कि अपमान करना अवमन्ताके अपने ही लिये अहितकारी तथा शत्रुके लिये हितकारी है। हिताहितके क्षेत्र परम्पर विरोधी होते हैं। हिताहितके परस्परविरोधी संबंध रखनेवाले क्षेत्र में एक के हितसे दूसरेका अहित होना अनिवार्य होता है। अपमान करनेवाले लोग शत्रुका ही अनिष्ट करना चाहते हैं अपना नहीं । परन्तु दूसरेको हानि पहुँ. चाना चाहनेवाले लोग शत्रुको हानि पहुँचानेकी सच्ची विधिको त्यागकर भ्रान्तिवश शाब्दिक, तर्जन-गर्जनात्मक, खोखले निर्वीर्य क्रोधका प्रदर्शन करके अपने आप ही अशक्त तथा बुद्धिहीनके रूपमें व्यक्त होकर शत्रुके हाथों में स्वहानिकारक अस्त्र पकडा देते और अपना पराजय अवश्यंभाव। बनालेते हैं । खोखली, कोरी अरुन्तुद बातोंसे शत्रुको हानि पहुँचानेका प्रदर्शन करना ही इस निषेध्य अपमानका स्वरूप है। शत्रका खोखला विरोध न करके उसका ठोस विरोध करना चाहिये और उसे संसारके पटरेसे हटाकर मानना चाहिये । सक्रिय अरि-विरोधमें बाह्याडं घर, वागाडंबर, तर्जनगर्जन आदि व्यापार अपने ही लिये हानिकारक होनेसे उसीको यहां निषेध्य अपमान के रूपमें उपस्थित किया गया है। शत्रको बातोंसे नहीं मिटाया जा सकता। कोरी बातें तो शत्रको मिटाने के मार्गकी बाधक बनजाती है। बातोंसे शत्रके हाथों में आत्मनाशका हथियार पकडा दिया जाता है । Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपमान करना अकर्तव्य १८१ 1 66 इस सूत्र में शत्रु के प्रति शाब्दिक क्रोधका प्रदर्शनमात्र ही निषेध्य अपमा नकी परिभाषा में आरहा है । इस अपमानसे शत्रु विजित न होकर विजेता बनजाता है । हानि पहुँचानेवालेके साथ बदला लेनेकी भावनासे जो शाब्दिक असार बर्ताव किया जाता है उसीको यहाँ अपमान कहा जारहा है । शत्रुविरोधका कार्मिक न होकर कोरा शाब्दिक होना ही यहां अपमानकी परिभाषा है। शत्रुको मिटाडालना कदापि निन्दनीय नहीं है । हानि पहुँचानेवालेको पराभूत करना और संभव हो तो मिटाडालना व्यक्तिगत तथा सामाजिक दोनों प्रकारके कल्याणका कारण होनेसे निन्दनीय न होकर प्रशंसनीय ही है । परन्तु यह शाब्दिक अवमन्ता दूसरेका अपमान करनेसे पहले अपनेको हो मनुष्योचित बर्तावकी स्थितिसे गिराकर अपना ही अपमान करचुका होता है । अपनी मनुष्यताको खोदेना ही स्वयं अपमानित होना है । किसीका भी सिर दूसरेके किये अपमानकारी बर्ताव से नीचा नहीं होता | स्वाभिमानीके सिरको कुचला तो जा सकता है परन्तु उसे कोई भी नीचा नहीं कर सकता | स्वाभिमानी व्यक्ति अपने सिरको ऊँचा रखकर ही शत्रु मित्र उदास सबके साथ बर्ताव करता है। दूसरे बर्ताव के समय ही सिर ऊँचा-नीचा रखनेका प्रश्न उपस्थित होता है। जो अपना सिर ऊँचा रखकर दूसरे से व्यवहार करता है उसका व्यवहार कभी भी अपमानजनक होनेके कलंक से कलंकित नहीं होता । दूसरेका अपमान करनेकी भावनाले बर्ताव करनेवालेका अपमानकारी बर्ताव दूसरेको निन्दित न करके अपनी ही मनुष्यताको लांछित करडालता है 1 " सच्चे विजिगीषु लोग शत्रुके साथ बर्ताव करते समय भी अपमान करनेकी भावना कभी कोई बर्ताव न करके, अपने आपको शत्रुको दृष्टिमें भी मनुष्यतासे हीन सिद्ध न होने देकर अपने मनुष्योचित गौरवको समुज्ज्वल रखकर, अपने वीरोचित ढंगले शत्रुका सिर नीचा करके छोड़ते हैं । दूसरेका अपमान करनेकी भावना ही मूलमें भूलसे भरी हुई है । मनुष्यताकी कसौटी पर परखने से प्रतीत होता है कि दूसरेका अपमान करना वास्तव में अपने Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ ही सिरको नीचा करना होता है। दूसरेका अपमान करनेकी भावनावाला मनुष्य स्वाभिमान से वंचित होजाता है । दूसरेका अपमान करनेकी भावना के मूलमें यह भ्रान्ति छिपी रहती है कि अवमन्ता अपने सिरको स्वभावसे सदा ऊँचा रखना नहीं चाहता किन्तु शत्रुके सिरको ऊँचा देखते हो उसे नीचा करना चाहता है । सत्यनिष्ठ विजिगीषुका सिर तो निरपेक्ष रूपमें स्वभावसे सदा ही ऊँचा रहता है । उसके शत्रु असत्यके दास असुरका सिर स्वभावसे सदा ही नीचा होता है । सत्यनिष्ठ विजिगीषु अपने सिस्को सत्यकी महिमासे समुन्नत रखकर ही अपने शत्रुके सिरको नीचा बिन्दू कर देता है । अपने सिरको निरपेक्षरूप से स्वभाव से ऊँचा बनाये रखनेक अतिरिक्त शत्रुके सिरको नोचा दिखानेका दूसरा कोई उपाय संभव नहीं है जिसका सिर स्वभाव से ऊँचा नहीं होता, वडी शत्रुके सिरको अपनेसे ऊँचा पाकर, उसे बलपूर्वक नीचा करनेका व्यर्थ प्रयत्न किया करता है । यों अपमान करना चाहनेवाला ही स्वयं अपमानित होजाता है 1 सत्यनिष्ठ विजिगीपुके पास मानापमानकी यह कसोटी स्वयंमेव विद्यमान रहती है । 1 पाठान्तर -- कञ्चिदपि किसी भी पुरुषका अपमान न करना चाहिये । चाणक्यसूत्राणि .. ( निरपराधोंको कष्ट मत दो ) क्षन्तव्यमिति पुरुषं न बाधेत् ॥ २०८ ॥ क्षमा करना मानव-धर्म है इस दृष्टिको लेकर क्षमायोग्य पात्रोको सन्ताप मत पहुँचाओ । विवरण - पात्रापात्र विचार न करके अपात्रको क्षमा करना तथा पात्रको क्षमासे वंचित रखदेना विचारशून्यता है। क्षमा राजधर्म है । दण्डधारी ही निरपराधोंको अदण्डित रखने तथा अपराधियोंको दण्डित करने का अधिकार रखते हैं । परिस्थितिके कारण जब जिसे अपराधियों को दण्ड देनेका अधिकार मिलता है, तब उसके अपराध या निर्दोषताका Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरपराधोंको कष्ट मत दो १८३ निर्णय करना भी यहच्छासे उसीका कर्तव्य होता है। यह कर्तव्य उसे न्यायाधीशका मासन देदेता है । जिसे जब न्यायाधीशका बासन मिलजाता है, उसे तब क्षमा करनेका भी अधिकार प्राप्त होजाता है। इस अवसरपर क्षमाशीलतारूपी मानव-धर्म-पालन में प्रमाद न करना चाहिये । राजा न्यायनिष्ठ प्रजाकी भोरसे ही न्यायाधीशके पासनपर नियुक्त होता है । प्रजाकी न्यायनिष्ठा राजचरित्र में प्रतिध्वनित होकर प्रकट रहे यही तो गजाकी योग्यता है। अपराधियों को दण्डमुक्त रखना प्रजाके लिये असन्तोषजनक होने के कारण अपराधियों की दण्डमुक्तिको क्षमामें सम्मिलित नहीं किया जासकता । अपराधीको दण्डित करके समाजकी शान्ति-रक्षा करना राजधर्म है । निरपराधको दण्ड देकर समाजमें न्यायका हनन करना समाज के लिये हानिकारक है। इस दृष्टि से क्षमा उपयुक्त क्षेत्र (पात्र) का निर्णय करना राजाका अनिवार्य कर्तव्य हो जाता है । कुछ थोडेसे मनुष्य ऐसे भी होते हैं जिनके चित्तपर क्षमासे न्यायका प्रभाव डालना संभव होता है। ऐसे लोगों को क्षमारूपी उपायसे समाज-हितेषी नागरिक बनानेका अवपर भाता है। ऐसे समय उन्हें क्षमा करदेना ही न्याय में सम्मिलित हो जाता है । गरूपापमें लबुदगद तथा लघुपापमें गरूदण्ड दोनों एक जैसा अन्याय है । इसलिये क्षाका उपयुक्त पात्र उभीको समझना चाहिये, जिलका अपराध क्षमासे क्षालित होजाना निश्चित रूपसे प्रमाणित होजाय । एसे मनु यको क्षमाके आंतरिक्त दण्ड देना उसके साथ अन्याय होगा। समाके द्वारा पापका प्रोत्साहन करना कभी क्षमाशीलता नहीं माना जा सकता । निर्विचारभावसे अपराधीको क्षमा करते रइकर क्षमाशीलताका प्रमाणपत्र लेकर अपना यशोलोभ चरितार्थ करना किसी भी रूपमें प्रशंसनीय नहीं है। ___ समाज-हित ही क्षमाका दृष्टिकोण होना चाहिये । क्षमासे किसी व्यकि. विशेषको अनुगृहीत करके, उसकी व्यक्तिगत कृतज्ञताका भाजन बन जाना तो क्षमाका एकांगी दूषित दृष्टिकोण है। यह न होना चाहिये । समाज. Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि कल्याणको मुख्य ध्येय रखकर अपराधी के साथ चाहे जो बर्ताव किया। जाय, वह ऊपर से देखने में दण्ड होनेपर भी दण्डनीयके लिये कल्याणकारी होनेके कारण अक्षमा न कहाकर क्षमा जैसा ही महत्त्वपूर्ण व्यवहार माना जायगा । इसके विपरीत अपराधीको क्षमा करके समाजमें अपराधको प्रोत्साइन देकर अपराधियोंकी संख्या बढाते चले जाना क्षमांके नामसे अनर्थको अपनाना है । समाजकी शान्तिकी रक्षा करनेवाले सदस्यको समाजसेवा से वंचित करना या यों कहें कि समाजको किसी शान्ति-रक्षक सदस्यकी सेवा से वंचित करदेना, दण्डका उद्देश्य कदापि नहीं है । अपराधीका संशोधन करनेवाले दण्ड तथा क्षमा नामके दोनों अत्र, परिस्थितिके अनुसार समान द्देश्य से प्रयोग में लाये जाने चाहिये । दण्ड तथा क्षमा दोनोंका उद्देश्य अपराधको निन्दित करना ही होना चाहिये । अपराधी तब ही क्षम्य माना जासकता है जब कि क्षमाके प्रभावसे उसके मनमें अपराध के लिये घृणा उत्पन्न की जासके । यदि क्षमासे अपराधी के मनमें अपराधके लिए वृणर उत्पन्न न की जासके तो अपराधोंको समाज में निन्दनीय बनाये रखने के लिये अपराधियोंको कठोर से कठोर दण्ड देनेमें प्रमाद करना घातक भ्रान्ति होगी। १८४ ( अपमान सहनेवालोंपर अत्याचार मत करो ) ( अधिक सूत्र ) क्षमन्त इति पुरुषान् न बाधयेत् । लोगों की सहनशीलताको देखकर उनसे ऐसा बर्ताव न करो जो वास्तव में उनपर अत्याचार वन जाय । विवरण -- राजदण्ड चिकित्सकों के अमृतफलोत्पादक विष प्रयोग-सा होना चाहिये । राजदण्डका उपयोग असाध्य रोगीकी चिकित्सा में अचूक रक्षक विष-प्रयोगके समान होनेपर ही समर्थनीय होता है । प्रजापालक राजाका कर्तव्य है कि वह दण्ड प्रयोग करते समय अपनेको अत्याचारित प्रजाकी परिस्थितिमें रखकर ही दण्डकी उपयोगिता तथा औचित्यका विचार किया करे । अपनेको अत्याचारित प्रजाकी स्थिति में रखे बिना दण्डका अभ्रान्त होना किसी भी प्रकार संभव नहीं है । Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अत्याचार मत करो १८५ प्रजा स्वभावसे राजभक्त होती है। उसका सिर राजदण्ड के सम्मुख स्वभावसे अवनत रहता है। विद्रोह तो वह विवश होकर ही करती है। राजाका कर्तव्य है कि वह अपनी दुर्नीतिसे प्रजाके इस भवनत सिरको विद्रोही न बनने देकर अवनत रखे । परन्तु यह काम राजाकी विचारशील. तापर निर्भर रहता है । जब राजा विचारशून्य होकर प्रजासे सहानुभूति रखना छोड देता और अपनेको राष्ट्रका ही एक भंग न समझकर, राष्ट्रका मालिक बननेको पृष्टता करबैठता है, तब ही उसके मन में प्रजापीडन, प्रजा. शोषण आदि दुर्गुण उद्भूत होकर उसे अत्याचारी, भ्रष्टाचारी, बनाकर उसे प्रजाकी वृणाका पात्र बनाडालते हैं । राजाका अपनेको राष्ट्रका अंग न समझकर विशेषाधिकार संपन्न मानने लगना ऐसी व्याधि है जो राज्याधि कारका दुरुपयोग कराती है। विचारशील राज्याधिकारियों का कर्तव्य है कि व राज्याधिकार का दुरुपयोग करानेवाली इस व्याधिको राज्य संस्थामें न घुसने दें। प्रजाकी अत्याचार तथा उत्पीडन सहती चली जानेवाली कातर. तामयी सहनशीलताको राजभनिमें कदापि सम्मिलित न करना चाहिए किन्तु उसे राष्ट्र दक्षको तत्काल चिकित्स्य भयकर व्याधि मानना चाहिये । उत्पीडन सहनेवाली प्रजाकी सहनशीलता, अत्याचारी राज्याधिकारियों को मासुरिकता है। ___ अत्याचारी आसुरिक राज्याधिकारी प्रजाको बार बार नाना भांतिके दैहिक या आर्थिक उत्पीडनोंसे अम्त करकरके उसका विरोध करने का स्वभाव छुडाकर निष्कण्टक बन जाना चाहा करते हैं । इस दृष्टि से प्रजाकी यह अत्या. चार सहनशीलता अत्याचारी राजाकी आसुरिकता होती है । किसी राष्ट्रको अन्याय सहनशीलता देखकर निःशंक हो कर मान लो कि यहाँकी राजशक्तिने इस राष्ट्रकी मनुष्यता तथा अन्यायके विरोध करने की शक्तिको पददलिल करके उसे मनुष्यताहीन बनालिया है । जहाँ कहीं प्रजा अन्याय सह रही हो, वहाँके राजा या राज्याधिकारी अवश्य ही अत्याचारी हैं। सुयोग्य राज्या. धिकारियों को तो प्रजाकी अन्यायका विरोध करने की प्रवृत्तिको प्रोत्साहित Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ चाणक्यसूत्राणि करना चाहिये | इसलिये करना चाहिये कि जब प्रजाकी यह असीम सहनशीलता अपनी सीमा पार कर जाती है तब इसका राजविद्रोहके रूपमें व्यक्त होना अवश्यम्भावी होजाता है । राजदण्डको प्रजाका हार्दिक समर्थन मिलता रहे, यही तो उसका औचित्य है और यही उसकी सहन योग्यता भी है । जबतक राजा लोग अपने हितको प्रजाके हितसे अभिन्न समझते रहते हैं तबतक राजदण्ड अपनी मर्यादा उल्लंघन नहीं करपाता और सह्यतासे भी बाहर नहीं निकल पाता । तब राजदण्ड सत्यतुलापर तुल-तुलकर पक्षपातहीन होकर अपने यथार्थ रूपमें रहता है । परन्तु दुर्भाग्य से प्रायः राज्याधिकारी लोग राज्याधिकार पाकर आत्मविस्मृतिके कीचडमें फँस जाते हैं और अपने स्वार्थको प्रजाति से अलग मानकर अपनेको प्रजा में सम्मिलित न रहने देकर राज्यका एकाधिकार जानेवाले उच्च सिंहासनारूढ शासक जातिके लोग बनजाते हैं । तब ये लोग अभियुक्त साथ जो बर्ताव करते हैं वह अनिवार्य रूपसे व्यक्तिगत शत्रुताका रूप धारण करलेता है। ऐसे राज्याधिकारियोंकी दृष्टिमें अपराधकी कसोटी ही बदल जाती है। ऐसे राज्याधिकारियोंके व्यक्तिगत स्वार्थका विरोध करनेवाले बर्ताव ही अपराध की श्रेणी में गिने जाने लगते हैं। ऐसे राज्याधिकारी लोग यद्यपि ऊपरसे देखने में व्यक्तियोंको ही अन्याय से दण्ड देते दीखते हैं, परन्तु वे अन्याय - दण्डित इकले- दुकले व्यक्ति ही राजाको प्रजाकी दृष्टिमें अन्यायी सिद्ध करके राज्याधिकारियोंको सम्पूर्ण राष्ट्रका शत्रु बना देते हैं । प्रजाकी दृष्टिमें आये हुए राजदण्ड के दुरुपयोग के ये इक्के-दुक्के उदाहरण ही राज्यभर में होनेवाले असंख्य उदाहरणोंके प्रतिनिधि बनकर राज्याधिकारियोंको प्रजाकी घृणाका पात्र बना देते हैं । इस प्रकार के विरल उदाहरणसे यह नहीं माना जासकता कि राष्ट्र में सर्वत्र ऐसा राजकीय पाप नहीं होरहा है। राष्ट्रमें इस प्रकार के विरल उदारहणोंसे ही समग्र राष्ट्रका अन्याय- पीडित होना सिद्ध होजाता है । क्योंकि इस प्रकारके विरल उदाहरणका प्रतिकार करनेसे ही समग्र राष्ट्रव्यापी Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अत्याचार मत करो पापोंका निवारण होसकता है, इसलिये किसी कल्याणकामी राष्ट्रको इन विरल उदाहरणोंको क्षुद्र घटना न मानकर असंशोधित नहीं छोडना चाहिये। यदि कोई राष्ट्र इस प्रकार के विरल उदाहरणों को सह रहा हो तो उसे न तो समग्र राष्ट्रकी सहनशीलता मानना चाहिये और न इस सहनशीलताका यह मर्थ मानना चाहिये कि राष्ट्र इन राजकीय अत्याचारोंका समर्थन कर रहा है। बात यह है कि अत्याचार सत्याचारितकी दृष्टि में कभी भी सह्य नहीं होता । राज्याधिकारी लोग इस सत्यको ध्यानमें रखकर अपने आपको प्रजामें सम्मिलित माने तब ही ने न्यायपूर्वक दण्डधारण कर सकते हैं। बाधा या आक्रोश अनिष्टकारियों को ही पहुंचाना चाहिये । निरपराध क्षमाशीलको नहीं । बम र प्रायः मारते के सारो और भागते के पीछे दौडने. वालोंका हो साधिक्य है। कायर लोग भागने तथा सहनेवालोंपर ही अपनी कापुरुषताको छिपाने वाली मिथ्या वीरताका प्रदर्शन किया करते हैं। परन्तु यह प्रवृत्ति प्रकटले शून्य नहीं है । इसलिये नहीं है कि सहन की भो तो सीमा होती है। जब अतिपीडित मनुष्य जीवन और सुखोंसे निराश होकर, जान पर खेलकर प्रत्याक्रमण करनेपर विवश होजाता है, तब वह अजेय और अप्रतीकार्य होता है : निर्दयतासे मारा था तो पत्यरतक आगके विकु. लिंग उगल र अपना रोष कट करता है। दूसरों के साथ मानवाचित बर्ताव करने में ही मानवकी शक्तियों को साथ कता तथा कल्याण है। श्री बल्लभदेवने कहा है.---- क्षमया आजवनैव दयया च सनीपथा। कौशलेन च लोकानां वशीकरणमुत्तमम् ॥ अमा, ऋजुता, दया, सद्भावना तथा कौशल से ही लोगोंका उत्तम वशी. कार होता है। ( अधिक सूत्र) चन्दनादपि जातो वहिनदहत्येव । जैसे सुशीतल चन्दनस उत्पन्न आंग्न भी दाह करती हैं, इसा प्रकार सहनकी सीमा पार होजानेपर सहनेवाले ठंडे लोगोंमेंसे Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ चाणक्यसूत्राणि भड़क उठी हुई विद्रोहमयी अग्नि साम्मुख्य तथा विप्लवका रूप लेकर वृथापीडक अवमन्ता या अपकर्ताको नष्ट-भ्रष्ट करनेपर उतर आती है । विवरण- राज्याधिकारी लोग राजशक्तिके मदमें आकर ऐसा मूढ पग न उठावें, जिससे पीडित निराश प्रजाको कानूनको हाथ में लेकर प्रत्याक्रामक बनने के लिये विवश होजाना पंडे । सहनकी सीमा पार होनेपर सहनेवालोंमेंसे भडकी हुई माग विप्लवका रूप धारण करके समग्र राष्ट्रको नष्ट-भ्रष्ट करडालती है । राज्याधिकारी लोग प्रजाको कुपित करने को साधारण बात और उसके कोपको साधारण हानि न समझकर उससे बचे रहे । राजा लोग जानें कि तुम्हारे राज्यको जो राजशक्ति मिली है वह प्रजाकी दी हुई धरोहर ही तो है । संसारका इतिहास कह रहा है कि जब जब राजा लोग अपने राजकीय कर्तव्य भूलकर शक्ति-मदान्त्र होकर अन्याय और अत्याचारपर उतरे हैं तब-तब प्रजाको ऐसे राजाओंसे राजशक्ति छीनने के उद्देश्य से कानून को हाथमें टठा लेने के लिये विवश होजाना पडा है ! ( मन्त्रसभा में निर्बुद्धको मत बैठाओ ) - भर्वाधिकं रहस्युक्तं वक्तुमिच्छन्त्यबुद्धयः ॥ २०९ ॥ निर्बुद्धि लोग राजाके द्वारा एकान्तमें कहे हुए गंभीर राजकीय रहस्योंको प्रकट कर देना चाहते हैं 1 विवरण -- सूत्रकार कहना चाहते हैं कि राजाकी मंत्रणा सभा में अविश्वसनीय लोगों के प्रवेशको निषिद्ध रखनेके लिये अत्यन्त सावधानता बर्तनी चाहिये | निर्बुद्ध लोग अपनी इस दुष्प्रवृत्तिके घातक परिणामको न समझकर अपनी असंयत इच्छा के आधीन होकर अपने प्रभुका रहस्यभेद करके, राष्ट्रको हानि पहुंचाकर, अपनी ही हानि करते हैं। रहस्य मे कायंघाती तथा राष्ट्रघाती व्याधि है । पाठान्तर भेरीताडितं रहस्युक्तं वक्तुमिच्छत्यबुधः ॥ · Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिणामसे हितबुद्धि पहचानो १८१ मूढ मानव अपनी बुद्धिहीनतासे रहस्यमें कही हुई बातको उकेकी चोट कहना और उसे सकलजनश्रोतव्य बनादेना चाहा करता है। मूढ के पेटमें बात नहीं पचती । उसे रहस्य की बात सुनते ही कुपच होकर बातका अतिसार होजाता है। (परिणामसे हितबुद्धि पहचानो ) अनुरागस्तु फलेन सूच्यते ॥२१०॥ अनुराग मौखिक सहानुभूतियोंसे सूचित न होकर फलोंसे सूचित होता है। विवरण-- अनुरागीके अनुरागका प्रमाण बातोंमें ढूंढना भ्रामक है । अनुराग तो आचरणों और फलोंसे जानने योग्य वस्तु है । किसीके शाब्दिक अनुरागका विश्वास करना मूढता और भोलापन है। __ समाजके प्रत्येक सदस्यका राष्ट्रानुरागी अर्थात् सार्वजनिक कल्याणमें अपना कल्याण समझनेवाला सेवक होना अत्यावश्यक है। समाजके प्रत्येक सदस्यके सार्वजनिक कल्याणमें अपना कल्याण समझनेवाला होने पर ही समाजमें शान्ति सुरक्षित रहसकती है। समाज की यह शान्ति-कामना ही गरसेविका राज्य संस्थाके रूपमें क्रियात्मक रूप लेकर रहती है। राष्टसंस्था राज्यका शाब्दिक दिखावामात्र अनुराग रखनेवाली न हो किन्तु व्यव. हारमें आनेवाला वास्तविक अनुराग रखनेवाली हो तब ही राष्ट्रका कल्याण होना संभव है। सच्चा अनुराग ही मानव-समाजको संगठित रखनेवाला सुदृढ बन्धन है। __ प्रकृतमें राज्याधिकारियोंका निर्वाचन इस उद्देश्यको सामने रखकर करना चाहिये कि राज्यसंस्थामें सच्चे राष्ट्र-हितैषी ही सम्मिलित होने पायें । जिन्हें निर्वाचित किया जाय उनकी राष्ट्र-हितैषिताके यथोचित प्रमाण पाये बिना किसीका भी निर्वाचन न होना चाहिये । किन्ही राज्याधिकार-लिप्सों के च्याख्यान, नात्मप्रचार, साम्प्रदायिक या जातिगत स्वार्थमूलक दलबद्धता राज्याधिकार संभालनेको योग्यता कदापि न माननी चाहिये किन्तु निःस्वार्थ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९० चाणक्यसूत्राणि देश-सेवा ही राज्याधिकार प्राप्तिकी योग्यताकी कसौटी होनी चाहिये। राज्याधिकारियों के निर्वाचनमें इन बातोंका ध्यान अनिवार्य रूपसे रक्खा जानेपर ही अपनी ओरसे राज्यसंस्थाके प्रतीक्षक ( उम्मेदवार ) बनने की देशमें फैली हुई महामारी राजनीतिसे बहिष्कृत होसकती है और तब ही राष्ट्र अपने योग्य व्यक्तियोंको अपनी ओरसे विश्वस्त देशानुरागी सेवकोंके रूपमें नियुक्त करके राज्यसंस्था संभालनेका गंभीर कर्तव्य पूरा कर सकता है। पाठान्तर- अनुरागस्तु हितेन सूच्यते । अनुराग हितकारी चेष्टामोसे पहचाना जाता है। (ऐश्वर्यका फल ) अज्ञाफलमैश्वर्यम् ॥ २११॥ यह पाठ अर्थहीन होने से प्रामादिक है । पाठान्तर- आशाफल मैश्वर्यम् । ऐश्वर्यका फल आशा है। विवरण- संसारमें उसीकी आज्ञा मानी जाती है जो अपने ऐश्वर्यको अपनी प्रबन्धशक्तिसे सुरक्षित रखता है। राज्यसंस्था राजाज्ञाका रूप लेकर प्रकट होती या आत्मप्रकाश किया करती है। राष्ट्र ही राजाको सिंहासनारूढ करता है । राष्ट्रको अवहेलना करके राजसिंहासनपर बलात् आधिकार कर बैठनेवाले को सिंहासन चाहे मिल जाय परन्तु वह राठ के उस हृदयमें जो राष्ट्रका सच्चा स्वामी है स्थान नहीं लेपाता। राके हृदयकी सम्मतिके बिना राज्याधिकार हथियाबैठनेवाले राजाका राष्ट्रविरोधी होना अनिवाय है। ऐसे राजाका राज्य तबतक ही रह सकता है, जबतक राष्ट्र की सम्मिलित शक्ति उसे पराभूत न करे । राष्ट्रविरोधी आज्ञा देनेवाला राजा प्रजाको पग. पगपर पीडित करता रहकर उसे विद्रोही बनाता चलाजाता है। क्योंकि मटका हृदय ही राष्ट्र का सच्चा राजा होता है, इसलिये राज्यव्वयस्थाको सहइयरूपी सच्चे सजाकी सर्वमान्य भाज्ञाक रूप से प्रकट करने के लिये यह Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐश्वर्यका फल अनिवार्य रूपसे आवश्यक है कि राज्यव्यवस्था संभालनेवाले लोग अपनी या राज्यसंस्थाकी ओरसे निर्वाचित न होकर, राष्ट्रकी ओर से निर्वाचित हों । राष्ट्र-व्यवस्था के लिये ऐसे व्यक्ति निर्वाचित हों जो राष्ट्रकी आज्ञाको विश्वस्तता के साथ राष्ट्र-कल्याणकारी सच्ची राजाज्ञाका रूप देडालें और बडी श्रद्धा से उसका पालन करें। राजाज्ञा हि सर्वेषामलंघ्यः प्राकारः । राजाज्ञा सबके लिये अलंघनीय दुर्ग है । १९१ 1 जैसे फल वृक्ष के स्वरूपको प्रकट करदेता है, इसी प्रकार पालित अपालित, अर्धपालित या अवहेलित राजाज्ञा राज्यसंस्थाके यथार्थ रूपको प्रकट कर देती है। यदि राजाज्ञा प्रजापीडक हो तो वह राज्यसंस्थाको प्रजाद्रोही सूचित करदेती है | राज्यसंस्था होनेपर किसी न किसी प्रकारकी राजाज्ञाओं का प्रचारित होना अनिवार्य होता है । यदि वे राजाज्ञायें प्रजा- पीडक हों तो व प्रजाका हार्दिक अनुमोदन न पासकनेसे उस राज्यसंस्थाको राज्यकी अनधि कारिणी सिद्ध करदेती हैं और प्रजाको राज्यसंस्थाका विद्रोही बनाती रहती हैं। प्रजाका अनुमोदन न पासकनेवाली आज्ञाको प्रचारित करनेवाली राज्यसंस्था, प्रजाकी हृदयरूपी उर्वर भूमिका अनुरागरूपी रस- ग्रहण करने तथा राष्ट्रमें शान्तिरूपी फर पैदा करने में असमर्थ होजाती है । इस प्रकार की राज्यसंस्था अशान्तिरूपी विषैला फल उत्पन्न करनेवाला विष- वृक्ष बनजाती है । इस विष-वृक्षका मूल देशद्रोही राज्याधिकारियों के स्वार्थ-मलिन हृदयों में रहता है । यदि राष्ट्रमेंसे इस प्रकारके विषवृक्षोंका मूल नष्ट करना हो तो देशद्रोही राज्याधिकारियोंको अपने हृदयका स्वार्थरूपी मल त्यागने के लिये विवश करना ही पडेगा । देशके विचारशील लोगोंको इस विष-वृक्ष के मूलको पहचानकर उसके ऊपर प्रजाशक्तिकी सामूहिक कल्याण-भावनाका कुठार चलाकर उसे ध्वस्त करडालना चाहिये । अथवा - आज्ञा देना और उसे पलवाकर छोडना ऐश्वर्यका फल # जिसकी आज्ञा शिरोधार्य तथा मान्य होती है उसीका ऐश्वयं सुरक्षित रहता है। जिसकी भाज्ञा उपेक्षित होजाती है उसका ऐश्वर्य निष्फल होता है । Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि अवन्ध्य कोपस्य विहन्तुरापदां भवन्ति वश्याः स्वयमेव देहिनः । अमर्षशून्येन जनस्य जन्तुना न जातहार्देन न विद्विषादरः ॥ संसार के लोग अपने कोपको निष्फल न जाने देने तथा आपत्तियों का सिर 'कुचल डालनेवालेके बसमें अपने बाप आजाते हैं । मित्र या शत्रु कोई भी अमर्षशून्य मानवका आदर नहीं करता । ( मूढों का दानक्लेश ) दातव्यमपि बालिशः क्लेशेन परिदास्यति ॥ २१२ ॥ मूढ मानव दातव्य वस्तुको भी बाह्य प्रभाव से देता है । विवरण- मूढ मानव देना मनमें सोचकर भी तथा वाणीसे देना स्वीकार करके भी बुरे ढंगसे, बडे कष्टसे संदिदान चित्तसे तथा स्वार्थबुद्धि से देता है । वह सरलता, नम्रता तथा कर्तव्य - बुद्धिसे देता ही नहीं । पाठान्तर- दातव्यमिति ...... 1 मूढ मानव देना कर्तव्य होनेपर भी क्लेशसे देता है । -१९२ - यह समस्त संसार दानके ही माहात्म्यसे चल रहा है । यह सृष्टि विधाताके आत्मदान से ही तो सप्राण होरही है । मातापिताके आत्मदान से मानवका भरण-पोषण होता है । वे सन्तानपालनमें आत्मदान किये रहते है । समाजके आत्मदानसे समाज कल्याणकारिणी संस्थाओं तथा विपद्ग्रस्त व्यक्तियों के भरण-पोषण होते हैं । यदि मानवको सामाजिक सहायता मिलनी बन्द होजाय तो उसकी जीवन-यात्रामें पद-पदपर विघ्न भाखडे हों । जैसा समाज होता है उसी प्रकारका सहयोग प्राप्त होता है । समाजके बुरे-भले होनेपर ही मनुष्यको भले-बुरे सहयोग मिलते हैं । समाजके साथ व्यक्तिका जीवन-मरणका अकाट्य, अभेद्य, अच्छंय सम्बन्ध है । इस दृष्टि से अपने समाज में मनुष्यता के संरक्षक सद्गुणोंकी वृद्धिके लिये अपने उपार्जनका कुछ भाग अनिवार्य रूपसे दान करना मनुष्यका परोपकार नहीं किन्तु स्वहितकारी कर्तव्य है । गीताके शब्दों में भुंजते ते स्वयं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात् । Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐश्वर्य नहीं बचा सकता १९३ जो लोग समाज-कल्याणमें अपना भाग न देकर केवल व्यक्तिगत भाव. श्यकता पूर्ण करने में ही अपनी समस्त उपार्जन-शक्ति व्यय करडालते हैं वे * पापोजी' हैं । तात्पर्य यह है कि मनुष्यको सामाजिक सहयोगके महस्वको जानकर प्रसन्नता और गर्वानुभूतिके साथ समाज-कल्याणमें दान करते रहना चाहिये। समाजके कल्याणमें अपना कल्याण समझनेवाला राष्ट्रसेवक बनना मानवमात्रका कर्तव्य है । इस कर्तव्यको समझनेवाला तो इसे प्रेम (अर्थात् स्वेच्छा ) से करता है. परन्तु स्वार्थी मनुष्यको तो दबावमें लाकर ही कर्तव्य करनेके लिये विवश किया जा सकता है। इस प्रकारके मूर्ख लोग समाजकी शान्तिमें सहयोग देनेका कर्तव्य स्वेच्छासे नहीं करते । इन लोगोंपर राज्य संस्थाके द्वारा समाजकी शान्ति में सहयोग देनेका दबाव डाला जा सकता है। राज्यसंस्था भी प्रजापर समाजकी शान्तिमें सहयोग देनेका दबाव तब ही डालती है, जब राष्ट्र सजग हो और अपनी राज्यसंस्थापर ऐसा करने का दबाव डालने के लिये सन्नद्ध हो । राज्यसंस्था तब ही शक्तिमती तथा कर्तव्य-परायण होती है, जब उसका निर्माता राष्ट शक्तिमान हो। राष्ट्रका शक्तिमान होना तो राज्य संस्थाके शक्तिमान होनेका कारण और राज्यसंस्थाका शक्तिमती होना समाजको शक्तिमान बनाये रखनेवाला कारण होता है । राष्ट्र नो राज्यसंस्थाले बल पाता है और राज्य संस्था राष्ट्र से अनु. प्राणित होती रहती है । राष्ट्र और राज्य संस्था दोनों परस्पर भवित होकर राष्ट्रको साकार स्वर्ग बना देते हैं । राष्ट्र तथा राज्यसंस्था दोनों एक दूसरेपर आश्रित और दोनों एक दूसरे के सहायक हो तब ही पारस्परिक दवावसे सन्मार्गरम रह सकते हैं । इस दृष्टि से राज्य संस्था समाज के सच्चे हितैषी सेवकों को ही स्थान मिल सकने की सुदृढ व्यवस्था रहनी चाहिये । ___ . ( बडस वड! ऐश्वर्य असंयमीको नहीं बचा सकता ) महदै वर्ष प्राप्याप्यधृतिमान् विनश्यति ॥ २१३ ॥ अविवेकी लोग राज्यैश्वय पाकर भी नष्ट हो जाते हैं। १३ (चाणक्य.) Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ चाणक्यसूत्राणि विवरण- अधीर, मस्थिर, असंयमी मनुष्यको मिला बडेसे बडा राज्यैश्वयं भी उसके विनाशके ही काम माता है । उसके पास उसके ऐश्व. यका सदुपयोग करनेवाली ( अर्थात् समाज-कल्याणके द्वारा अपना सच्चा कल्याण करनेवाली) धीरता, स्थिरता, संयम तथा दानशीलता नहीं होती। इन गुणों के अभावमें उसके पास भाई संपत्ति दुरुपयुक्त होकर उसीके विनाशका कारण बनजाती है। यहॉपर ति शब्द मानवोचित समस्त गुणोंका उपलक्षण है। चरित्र, सुशिक्षा, दाक्षिण्य तथा वैदुष्य न होनेपर मनुष्यकी यही दुर्दशा होती है। वह मनुष्यतासे गिरकर देशद्रोही बन जाता है । देशकी दृष्टि में अवांछनीय बनजाना ही उसका विनाश है । धीरता, विवेक और संयमवाले पुरुषके पास बाई संपत्ति उसकी दृढताके कारण सदुपयोगमें भाती रहकर उसकी मनुष्यताको सुरक्षित रखनेके काम माती रहती है। संपत्तिका स्वभाव ही ऐसा है कि यह जिस घरमें घुसती है यदि उस घरमें विवेक न हो तो उसके गुणोंका सर्वनाश किये बिना, उस घरसे नहीं टलती। संपत्तिविषयक मामिल लाषाओंपरसे नियंत्रण उठ जाने से ही संसारमेंसे मनुष्यताका ह्रास होता जारहा है। अधीर मानवकी संपत्ति उसके विनाशके ही काम माती है । अधीर मानव संपत्ति के सदुपयोगकी कला जानता ही नहीं । संपत्ति, धैर्य और विवेकसे हो सुरक्षित और सदुपयुक्त होसकती है। विरोधी अवस्थाको पराभूत करके विजयी बने रहना धीरज है। अपने लक्ष्यपर स्थिर रहनेरूपी आत्मविश्वासकी अवस्थाका नाम धीरज है । सत्यपर सुप्र. तिष्ठित रहकर उसके बलसे असत्यकी उपेक्षा करते रहना धीरज है। विपदन्ता ह्यविनीतसंपदः।। अविनीत अर्थात् सत्यका नेतृत्व स्वीकार न करनेवाले मानवका ऐश्वर्य ससे अन्तमें विपद्यस्त कर देता है । पाठान्तर- महदैश्वर्यमवाप्याप्यधृतिमान् विनश्यति । Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षुद्र सदा त्याज्य १९५ ( अधिक सूत्र) धृत्या जयति रोगान् । धृतिसे ( अर्थात् मन, प्राण तथा इन्द्रियोंको वशमें रखनेसे) रोगोंपर विजय पाया जासकता हैं। विवरण- मनुष्य तिसे रोगोंको जीतलेता है। काम-क्रोधादि कुप्रवृत्ति मनुष्यके मानसिक रोग हैं । त्रिदोषोंकी विकृति शारीरिक रोग हैं। मनको सदा कामादि रिपुषों के माक्रमणसे अप्रभावित रखनेवाला सत्यनिष्ठ कर्मवीर स्वभावसे ही अपने देहको रोगाक्रमणके कारणोंसे मुक्त रखकर सर्वावस्थामें उत्साही कर्तव्यशील बना रहता है । ___ नास्त्यधृतेहिकामुष्मिकम् ॥ २१४ ॥ अधीरका वर्तमान और भावी दोनों सुखहीन ( दुःखमय )हो जाते हैं। धीरज न होनेसे कर्मका सामर्थ्य नष्ट होजाता और फल अप्राप्त रहजाता है। सफलता पानेके लिये धीरताकी परमावश्यकता है। विवरण- अपने मनपर कामादि रिपुओं का आक्रमण होने देनेवाला असत्यका दास मानव वर्तमान क्षणमें कुकर्मासक्त दुःखी रहकर, अपने भूतको भी सुखविहीन सिद्ध करदेता और भावीको भी सुखसे वंचित बनाडालता है। वह अपने भूतको तो पश्चात्तापका कारण और भावीको नैराश्यमय बनाये रखता है। (क्षुद्र सदा त्याज्य ) ( अधिक सूत्र ) गुणवानपि क्षुद्रपक्षस्त्यज्यते । असत्यके प्रेमी नीच लोग गुणवान दीखनेपर भी त्याज्य होते हैं। विवरण- शिक्षा, शिष्टता, सौजन्य तथा संपत्तिसे युक्त भी नीचपक्ष इसलिये त्याग दिया जाता है कि उस पक्षमें मिलना वास्तव में सत्यका ही Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ चाणक्यसूत्राणि द्रोही होना है । वध्य - घातक संबंध रखनेवाले सत्यासत्योंका सहवास असंभव है । नीचोंकी शिष्टता सौजन्य संपत्ति आदि गुण पर-वंचनके दुष्ट उपाय. मात्र होते हैं । नीचोंके गुण चोरके भोठे रामनामी दुपट्टोंके समान नीच कार्मो में ही उपयुक्त होते हैं । इसलिये राज्यव्यवस्थाको धोके में आकर कपटशिष्टाचारी पापाचारियोंको अपनी महत्त्वपूर्ण राष्ट्रसेवामें सम्मिलित करके लक्ष्यभ्रष्ट न होना चाहिये । ( संसर्ग के अयोग्य ) दुर्जनैः सह संसर्गः कर्तव्यः ॥ २१५ ॥ बुद्धिमान लोगोंको दुष्ट ( हीन, नीच तथा क्रूर ) लोगों से घनिष्ठता नहीं रखनी चाहिये । अधमांस्तु न सेवेत य इच्छेद् भूतिमात्मनः । ( विदुर ) कल्याणार्थी लोग अधम कोटिके लोगोंके साथ न रहें । ( दुष्टों के गुण भी दोष ) शौण्डहस्तगतं पयोऽप्यवमन्येत ।। २१६ ॥ मद्यपके हाथके दूधको भी मद्यके समान ही त्याज्य मानना चाहिये । विवरण - मदान्धोंकी कृपा भी भयंकर और त्याज्य मानी जानी चाहिये । दुष्टोंके दिखावटी गुण भी दोष ही होते हैं। ऐसोंके साथ घनिष्ठता अनर्थोत्पादक होती है । उनके गुणोंसे कृपान्वित होनेकी भूल कभी न करनी चाहिये । दुष्टोंकी कृपामें भी विनाशके विषैले बीज छिपे रहते हैं । अव्यवस्थितचित्त प्रसादोऽपि भयंकरः । अव्यवस्थित मनवालोंकी तो कृपा भी विनाशक होती है । ( सची बुद्धि ) कार्यसंकटेष्वर्थव्यवसायिनी बुद्धिः || २१७ ॥ कार्य-संकटमें अर्थात् ( कर्तव्य में विघ्न उपस्थित होनेपर ) Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मत भोजनका परिणाम निश्चित सफलता देनेवाला कर्तव्यका मार्ग सुझा देना बुद्धिका ही काम है । विवरण- कार्य-संकट के समय कर्तव्याकर्तव्यका निर्णय करादेनेवाली असन्देहात्मिका बुद्धि हो बुद्धि कहाने योग्य है । संकटमें मनुष्यका बुद्धिभ्रंश न होजाना चाहिये । बुद्धिका विशेष उपयोग संकट- कालमें ही होता है । संकट ही बुद्धिको उपयोगके अवसर देते हैं । इस दृष्टिसे संकटोंका मानव-जीवन के उत्थान में महत्वपूर्ण स्थान है । इतिहास के समस्त बडे मानव संकटोंहीकी कृपा के फल थे । यदि उनके जीवन में संकट न आये होते, यदि वे यहाँ से संकट-दीन जीवन बिताकर चले गये होते, तो संसार उनके गुप्त गुणों से परिचित न होपाता और उनकी बुद्धिकी प्रखरता तथा तेजस्विता से कोई शिक्षा भी न लेपाता । संसारको महापुरुष देने तथा उनसे परिचित करानेवाले संकटोंको लाख वार धन्यवाद । संकट इस विश्वकी सबसे ऊँची देन है | संकट मानव-जीवनको उच्च बनानेवाली रामबाण महौषध है । १९७ राज्याधिकारियोंको कार्य-संकटोंके समय, संकट- कालमें भी यथार्थ बात सुझानेवाली बुद्धि रखनेवाले राष्ट्रके बुद्धिमान लोगों को निमंत्रित करके उनसे संवाद द्वारा तात्कालिक राष्ट्रीय कर्तव्य निर्धारण करना चाहिये | (मित भोजनका परिणाम ) मितभोजनं स्वास्थ्यम् ॥ २९८ ॥ परिमित भोजन स्वास्थ्यदायक होता है । विवरण - भोजन करनेवाले जानें कि वे भोजन करनेवाले नहीं हैं, किन्तु उदरकी भाग ही भोजन करनेवाली है । यह मानव-देहरूपी यंत्र भन्न जलरूप ईन्धन से चलता है। भोजन ही इस यंत्र को चलानेवाला ईन्धन है । गले से नीचे उतरते ही उस स्वादसे, जिसके लिये मनुष्य अस्वास्थ्यकर कुपथ्य भोजन करता है, मनुष्यका कोई संबंध नहीं रहजाता। इसलिये भोजन केवल स्वास्थ्य की दृष्टिसे करना चाहिये, केवल स्वादकी दृष्टिसे नहीं । Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ चाणक्यसूत्राणि उतना ही लेना चाहिये जितना शरीर-रक्षाके लिये मावश्यक हो अधिक नहीं। मनुष्यको शरीर-रक्षाके लिये मावश्यक हित, मित, मेध्य भोजन ही ग्रहण करना चाहिये । निरामिष भोजन आयुष्कर तथा रोगहारक है । यथे. च्छाहारी भोगलोलुप मनुष्य रोगी होते हैं। ऐसे भोक्ताओंको लाख वार धिक्कार है जो जिह्वालोल्यसे अहित अपरिमित तथा अपवित्र भोजन करते हैं। "अजीर्णे भोजनं विषम्" प्रथम गृहीत भोजनका परिपाक न होचुकनेपर पुनः भोजन ग्याधिके उत्पादनके द्वारा विषके समान प्राणहारक होता है। भोजन सामिष, निरामिष भेदसे दो प्रकारका होता है । निरामिष भोजन मायुष्कर तथा रोगनाशक होता है । सामिष भोजन बलवर्धक होनेपर भी मामिषवाले प्राणीके रोगोंसे दूषित होनेके कारण रोगजनक होता है। स्वास्थ्य ही भोजनकी अनुकूलता प्रतिकूलताकी कसौटी है। भोजन पाकस्थलोके सामर्थ्य के अनुसार होने पर ही शरीरके लिये पौष्टिक होसकता है। शरीरकी आवश्यकता पूरा करना पाकस्थलीका काम है । भोजन करनेवाला मनुष्य चक्षु, नासिका तथा जिह्वाके अनुमोदनसे भोजन ग्रहण करता है । अपरिमित भोजनपर नियंत्रण तब ही रह सकता है, जब चक्षु, नासिका तथा जिह्वाके अनुमोदनपर स्वास्थ्यविज्ञानका शासन रहे । स्वास्थ्यविज्ञानका शासन न रहे तो अपरिमित भोजन शरीरका घातक तथा कोरसाहका नाशक होजाता है। आवश्यकता हो भोजनका परिमाण है। परिमित भोजन ही अमृत होता है । अपरिमित भोजन विष के समान मनिष्टकारी होता है। मनुष्य भोजन ग्रहणमें स्वादेन्द्रियका दास न बने, किन्तु स्वादेन्द्रियको ही स्वास्थ्यकी अनुकूलता तथा पथ्यापथ्य निर्णय करनेवाली विचारशक्तिका दास बनाकर रक्खे । मनुष्य के संपूर्ण जीवनपर विचारशक्तिका प्रभुत्व होने. पर ही उसके शरीर और मन दोनोंको कर्तव्याभिमुख रक्खा जासकता और उन्हें अकर्तव्योंसे रोका जासकता। विचारशक्ति मनुष्यको कर्तव्याभिमुख रखकर उसे जीवनसंग्राममें विजयी बनाये रखती है । जो असंयतभोजी भोजन ग्रहण करने में कर्तव्यभ्रष्ट होता है उसका अपने संपूर्ण जीवनमें Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "नीरोग रहनेका उपाय १९९ प्रत्येक कर्तव्य में कर्तव्यभ्रष्ट होना अवश्यंभावी होता है । अपनी शरीर-रक्षा तथा बाह्य भौतिक परिस्थिति दोनोंमें कर्तव्यशील बने रहना कर्तव्यनिश्चायिका बुद्धि के ही अन्तर्गत है । हितं मितं मेध्यं चाश्नीयात् । भोजन हित, मित तथा मेध्य होनेपर ही स्वास्थ्य के लिये लाभप्रद होता है । पाठान्तर - मितभोजनः स्यादस्वस्थः । यदि मनुष्य अस्वस्थ हो तो वह स्वास्थ्यके पुनरुद्धार के अनुकूल भोजन करे | मित भोजन या अभोजन ही पशुओंको प्रकृतिमाताका सिखाया हुआ आयुर्वेद है। रोगी की पाकस्थली स्वस्थ के समान पचाने में असमर्थ होजाती है । उस दश में स्वस्थ व्यक्तिका भोजन भी रोगी के लिये अपरिमित होने से रोगवर्धक बनकर विषवत् त्याज्य होता है । पथ्यमप्यपथ्याजीर्णे नाश्नीयात् ।। २१९ ।। अपथ्य के कारण अजीर्ण होगया हो तो पथ्यको भी त्याग देना चाहिये । विवरण- रुग्ण पाकस्थलीको, भोजन पचानेके सामर्थ्यका पुनरुद्धार करने का अवसर देनेके लिये पथ्यको भी त्यागकर ( अर्थात् उपवास करके ) विश्राम देना लाभदायक होता है । ( अधिक सूत्र ) भक्ष्यमप्यपश्यं नाश्नीयात् । रुग्णावस्था में स्वाभाविक खाद्यके भी अपथ्य होजानेपर उसे न खाना चाहिये । ( नीरोग रहनेका उपाय ) जीर्णभोजिनं व्याधिर्नोपसर्पति ।। २२० ॥ व्याधि जीर्णभोजके पास नहीं फटकती । Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० चाणक्यसूत्राणि मनुष्य विवरण - क्षुधा के उद्दीप्त होनेपर ही भोजन करनेवाला जीर्णभोजी कहता है। भोजन पेटकी आगकी माँग होनेपर ही करना चाहिये, जिह्वाकी माँग से नहीं । भोजनके नियतकालसे पहले भोजन न करना चाहिये । यह स्वभाव रोगजनक है । आयुर्वेद में कहा है --- जीर्णे तु भोजनं कुर्यान्नाजीर्णे तु कथंचन । अपक्कभोजिनं व्याधिः समाकामति निश्चितम् ॥ स्वस्थ रहनेका इच्छुक पूर्व भोजन के जीर्ण होचुकने पर ही भोजन करे अपक्व भोजीपर व्याधियों का आक्रमण निश्चित रूपमें होता है । आयुर्वेदोक्त पद्धति से भोजन में ऋतुके अनुसार परिवर्तन करते रहकर जीर्णभोजी बने रहना चाहिये । अकालमें भोजन भी त्यागना चाहिये अप्राप्तकाले भुंजानोऽप्यसमर्थतनुर्नरः तांस्तान् व्याधीनवाप्नोति मरणं चाधिगच्छति ॥ 11 भोजनका नियतकाल भानेसे पहले भोजन करनेवाला मनुष्य निर्बल होजाता है । उसे शिरोरोग आदि व्याधि आघेरती हैं और वे बढ़तीबढ़ती मौतका कारण बनजाती हैं । उद्गारशुद्धिरुत्साहो वेगोत्सर्गो यथोचितः । लघुता क्षुत्पिपासा च यदा कालः स भोजने ॥ PO क्षुत्संभवति पक्वेषु रसदोपमलेषु च । काले वा यदि वाऽकाले सोऽन्नकाल उदाहृतः ॥ रसदोषमलोंका परिपाक होचुकनेपर समय या असमय जब कभी भूख लगे वही अन्न- भोजनका योग्य काल है । उद्गार ( डकार ) ठीक आने लगी हो, उत्साह हो, मलमूत्रका यथोचित रिस्सरण होचुका हो, शरीर में लघुता ( हलकापन ) हो, भूख-प्यास हो ये सब भोजनकाल अर्थात् रसादिके परिपाकके लक्षण आयुर्वेद में वर्णित हैं । Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजीर्ण में भोजनकी हानि २०१ (वार्धक्यमें व्याधिको उपेक्षा अकर्तव्य ) जीर्णशरीरे वर्धमान व्याधि नोपेक्ष्येत ।। २२१॥ रुग्ण, वृद्ध, रोगजीर्ण, निबल देहमें बढती व्याधिकी उपेक्षा न करे। विवरण- देहमें व्याधि उत्पन्न होजाना ही शरीरको जीर्णता है। मनुष्य व्याधिकी उपेक्षा करके कुपथ्य अर्थात् विपरीत आहार-विहारसे व्याधिको बढनेका अवसर न दे । रोगको निर्मूल करडालना ही रुग्ण मनु. ज्यका तात्कालिक कर्तव्य है । बालस्य में भाकर व्याधिको तुच्छ मानकर उपेक्षा करना हितावह नहीं है। धातुवैषम्यसे उत्पन्न हुई अवस्था 'व्याधि' कहाती है। यह देह सत्यदर्शन, ज्ञानलाभ तथा सच्चा आनन्द पानेका साधन है। यह देह संसार-सागर पार करनेकी छोटोसी भिद्यमान क्षणिक नौका है। इसके द्वारा मनुष्य को असत्य, अज्ञान और आध्यात्मिक, आधि. दैविक आधिभौतिक दुःखसागर पार करना है। इतने महत्वयुक्त साधन देहको कर्मक्षम बनाकर रखना मानवका पवित्र कर्तव्य है। धमथिकाममोक्षाणामारोग्यं मूलमुत्तमम् । रोगास्तस्यापहर्तारः श्रेयसो जीवितस्य च ॥ आरोग्य ही धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्षरूपी चारों पुरुषार्थोका मूल है। रोग, मनुष्य के भारोग्य, कल्याण तथा जीवन तीनोंका अपहरण करता है। इसलिये पथ्यसेवन तथा औषधोपचारसे रोगों का शमन करके देहको कर्मक्षम बनाये रखने में उपेक्षा न करनी चाहिये । पाठान्तर-शरीरे वर्धमानो व्याधिोंपेक्ष्यत । जीवनार्थी लोग शरीरमें वृद्धि पाती हुई व्याधिकी उपेक्षा न करें। ( अजीर्णमें भोजनकी हानि ) अजीर्णे भोजनं दुःखम् ॥ २२२ ।। अजीर्णमें भोजन ग्रहण करना पाकस्थलीको अनिवार्य रूपसे रागाकान्त और दुःखी बनाडालना है। Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ चाणक्यसूत्राणि विवरण - अजीर्णभोजन प्राणोंतकको लेबैठता है 1 आहारः प्रीणनः सद्यो बलकृद्देहधारणः । स्मृत्यायुः शक्तिवर्णैजः सत्वशोभाविवर्धनः ॥ जीर्णभोजन प्रसन्नताजनक, बलवर्धक, देहधारक, स्मृति, आयु, शक्ति, वर्ण, ओज, सत्व तथा कान्तिको बढानेवाला है । पाठान्तर- अजीर्णे भोजनं विषम् । अजीर्ण में भोजन करना विषतुल्य मारक होजाता है । ( व्याधिकी हानिकारकता ) शत्रोरपि विशिष्यते व्याधिः ।। २२३ ॥ व्याधि शत्रु से भी अधिक हानिकारक होती है । विवरण - व्याधि शरीरपर आठों पहर आक्रमण करनेवाली होने से महाशत्रु है । शत्रु तो बाहर से आकर जीवन तथा जीवन-साधनों पर आक्र मण करता है । परन्तु व्याधि देहस्थ होकर प्राण, धन, देव आदि सबका संहार करडालती है । " मृत्कल्पा हि रोगिणः " रोगी लोग मृततुल्य होते हैं। वृद्ध चाणक्य ने कहा है- " न च व्याधिसमो रिपुः " व्याधि - जैसा शत्रु नहीं है । हित, परिमित, मेध्य ( अभिपर डालनेसे दुर्गन्धि उत्पन्न न करनेवाला ) तथा यथाकाल भोजन, स्नान, जलपान, इन्द्रियसंयम, सदाचार आदि स्वास्थ्य के कारण हैं । ( दानकी मात्राका आधार ) दानं निधानमनुगामि ॥ २२४ ॥ दान अपनी घनशक्ति के अनुसार होना चाहिये । विवरण - मनुष्य पार्थिव धन पास होनेमात्र से दाता नहीं बनजाता | दयालु हृदय ही मनुष्यको दाता बनानेवाला देवी धन है । दानपात्र सामने जानेपर दाताको अपना संपूर्ण हृदय अर्थात् पूरा सहयोग देनेके लिये विवश Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .दानकी मात्राका आधार २०३ होकर दानपात्रके प्रति मात्मसमर्पण करदेना पड़ता है। उस समय दाताको अपनी धनशक्तिका दान में उपयोग करना ही पड़ता है। उस समय उसे अपनी सीमित धनशक्तिमें सीमित रहकर दान करना पड़ता है । उस समय वह अपनी सीमित धनशक्तिका दानमें जो उपयोग करता है वह हार्दिक होता है। सहानुभूतिसम्पलता या सहृदयता ही मनुष्य की दानप्रेरकनिधि है। सूत्र कहना चाहता है कि दान भय, दबाव या स्वार्थसे न होकर हार्दिकताके साथ हो इसीमें मानवका कल्याण है । ___ दान मनुष्य की भावनात्मक निधिके मनपार होना चाहिये। उससे न्यून नहीं । मनुष्यकी भावनानिधि धनके योग्य अधिकारीको देखते ही पसीज जाती और देनेका संकल्प करलेती है । मनुष्यको उस दान संकल्पके अनुसार योग्य पात्रको दान करना चाहिये । अपने उपजीव्य समाजके अभ्युस्थानमें सहयोग करना मनुष्यका स्वहितकारी कर्तव्य है । मनुष्य दानके योग्य पात्रोंको अपने उपजीव्य समाजके अभावग्रस्त अंगके रूपमें देखे भोर स्वयं उसकी अभावग्रस्ततामें सम्मिलित होकर उनका दुःख बांटे । वह उस दुःखके दूर करने में अपने संपूर्ण भौतिक सामथ्र्यको सौंपकर सत्यकी सेवाका मानन्द ले । यही दानका यथाथ रूप है। समस्त संसारके ईश्वर सत्य के हाथों में आत्मसमर्पण करदेना ही दान है। यह दान कोई दुर्लभ दान नहीं है। कोई भी विवेकी इस दानमें अशक्त नहीं होसकता । जो अपनेको ऐसे दानमें असमर्थ देखता है निश्चय है कि वह असत्यका दास है । ऐसा मनुष्य दान करता दीखने पर भी दानी नहीं होता । वह अपात्रको धन देकर असत्यकी ही दासता करता है। सत्यके हाथों में मास्मदान करनेवाल। दानवीर आदर्श मानव अपने को कभी भी दाननामक मानवधर्म पालने में असमर्थ नहीं पाता। उसकी दान-प्रवृत्ति सत्यकी सेवा कदापि संकुचित नहीं होती। वह दानके योग्य पात्रके साथ मुक्तहस्त होकर सहानुभूति दिखानेमें पीछे नहीं रहता और सत्यके साथ सम्मिलित होने में अमृतास्वाद लेकर कृतार्थ होजाता है । Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ चाणक्यसूत्राणि अपने समाज के अभ्युत्थान में दान करना मनुष्य का अत्यावश्यक कर्तव्य है। दान वर्धिष्णु व्यक्ति या समाजकी अनिवार्य मावश्यकता है। दान ही दाताका संचित समर धन है । वह सब समय दाताका साथी बना रहकर उसे धनवान बनाये रखता है। दाताके लिये दरिद्रता नामकी कोई स्थिति नहीं है। मनुके शब्दों में-- "अवन्ध्यं दिवसं कुर्यादानाध्ययनकर्मसु" मनुष्य अपने जीवन के किसी भी दिन को (१) दान, (२अध्ययन तथा (३) मानवोचित कर्तव्य-पालन के बिना न बीतने दे। (अनुचित घनिष्ठता बढानबालोंसे सावधान रहो) पटुतरे तृष्णापरे सुलभमतिरून्धानम् ॥ २२५॥ अनुचित चतुर लोभपरायण व्यक्ति में अनुचित घनिष्ठता बढाने की प्रवृत्ति रहती है। विवरण-तिक चतुर लोभपरायण मनुष्य में ही किमीमे अति घनिष्ठता बढाने की प्रवृत्ति संभव है। ऐसे लोगोंकि धोके में पाकर विश्वास न करना चाहिय । शठता, धूर्तता, माया, कौटिल्क, अन्न और छल से ही किसी नये मनुष्यसे प्रतारणामयी धनिष्ठता बढाई जाती है। अति चालाक लोमपण. यण लोग प्रतारक होते हैं। किसीकी अतिघनिष्टता बढानेकी प्रवृत्तिको शंकाकी दृष्टि से देखना चाहिये ।। (लोनसे हानि) तृष्णया मतिश्छाद्यते ।। २.६।। लोभ मनुष्यकी बुद्धिको ढकदेता है। विवरण- लोभसे मनुष्यका बुद्धिभ्रंश होजाता है और वह उस संबंधमें मौचित्य हिताहित या कर्तव्याकर्तव्य समझनेकी योग्यता रखो बैठता है। लोभेन बुद्धिश्चलति, लोभो जनयते तृणम् । तृषार्तो दुःखमाप्नोति परह च मानवः ॥ Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्तव्य छांटने का आधार लोभसे मनुष्यकी बुद्धि विचलित होकर अपने विवेक-स्थान से बाहर निकलकर भटकने लगती है । लोभ तृषा ( अर्थात् अपने उचित अधिकार से अधिक पानेकी प्यास ) लगादेता है । तृषार्तको वर्तमान और भावी दोनों कालों में दुःख ही दुःख मिलता है । लोभी मनुष्य यथार्थता से अलग होकर आँधीसे उड़ाये पत्ते के समान उड़ा फिरा करता हैं। I २०५ ( अनेक कर्तव्यों में से एक छांटने का आधार ) कार्यबहुत्वे बहुफलमायतिकं कुर्यात् ॥ २२७ ॥ मनुष्य एक साथ अनेक कार्य उपस्थित होनेपर सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण स्थायी परिणामवाला कर्म कर्तव्यरूपमें स्वीकार करे । उसे करचुकनेके पश्चात् लघु तथा अस्थायी महत्त्व रखनेवाले काम करे। विवरण -- "सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण परिणाम " यह शब्द उलझनवाला शब्द है। इसके अर्थ में अनेक मतभेद है । परन्तु वास्तव में सबसे अधिक महत्वपूर्ण परिणाम वही होता है, जिसका अधिक संख्यावाले लोगोंसे नहीं किन्तु संपूर्ण मनुष्य-समाज के साथ संबंध हो । जिस बात का संबंध समस्त मनुष्य-समाज कल्याणके साथ होता है उसका स्थायी होना भी अनिवार्य होता है | पथभ्रष्ट मानव अधिक से अधिक संख्यावाले लोगोंक भौतिक कल्याणको ख्यक भौतिक कल्याणकी अपेक्षा अधिक महत्त्व दिया करता और मनुष्य समाजके सार्वजनिक स्थायी कल्याणके स्वरूपसे अपरिचित रहकर उसकी उपेक्षा ही किया करता है | अधिकसे af संख्यावाले लोगोंक भौतिक कल्याणको महत्व देनेवाला यह सिद्धान्त जल्पसके विरुद्ध बहुमतको प्राधान्य देनेवाला होनेसे " जिसकी लाठी उसकी भैंस " के सिद्धान्तका ही लोगोंको भ्रममें डालनेवाला भाषास्तर है। क्योंकि समाज में सत्यका सुप्रतिष्ठित रहना ही समाजका सच्चा कल्याण है तथा एकमात्र सत्य ही स्थायी नित्य वस्तु इस संसार में है, इन Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ चाणक्यसूत्राणि रष्टियोंसे कर्तव्यशील व्यक्ति सदा ही यह समझता रहता है कि समग्र मानव-समाजके कल्याणमें मेरा भी कल्याण निःसंदिग्ध रूपसे विद्यमान है। मार्य चाणक्य इस सूत्र में कर्तव्याकर्तव्यकी यह कसौटी दे रहे हैं कि मनुष्य अपने क्षुद्र व्यक्तिगत कल्याणको समस्त मनुष्य-समाजके कल्याणसे पृथक् न करे, अपने क्षुद्र महंकारको समाज में विलीन करदे और समाजके कल्याणमें ही अपना कल्याण समझकर कर्तव्य-निर्णय किया करे । आर्य चाणक्यकी दृष्टिमें प्रत्येक क्षण इस महत्वपूर्ण कर्तव्यको करते रहना ही कर्तव्यशील लोगोंके कर्तव्यमय जीवनका स्वरूप होता है। जीवन के प्रत्येक क्षण कर्तव्य पालनका सन्तोष लेते रहना ही मनुष्यका शान्तिपूर्ण विजयी जीवन है । मनुष्य अपनी इस शक्तिको काममें लाये या न लाये, परन्तु इसमें कोई सन्देह नहीं कि वह अपने मनको प्रत्येक क्षण शान्त रखने में अनन्त शक्तिमान है। मनुष्यको अपनी शान्तिको ही अपने कर्तव्यकी कसोटी बनाना चाहिये । अपनी शान्तिको ही कर्तव्यकी कसौटी रखकर कर्तव्य-निर्णय करनेवाले लोग साधारण लोग नहीं होते, ये लोग विश्व. विजयी होते हैं । इस प्रकारके विश्वविजयी वीरका मानव-समाजका सच्चा हितकारी सेवक होना अनिवार्य है। समाज-सेवा ही मानव-धर्म है। जो समाजमें मनुष्यत्वको जाग्रत रखना चाहें उनके लिये यह अनिवार्य रूपसे आवश्यक है कि वे अपनी व्यक्तिगत मनुष्यताको स्वयं अपने ही में जाग्रत रखें । इसलिये रखें कि मनुष्य स्वयं ही समाज-निर्मात्री प्राथमिक इकाई है। मनुष्य अपने विवे. कके सम्मुख समाजकी शान्तिको सुरक्षित रखने के लिये उत्तरदायी है। कर्तव्य किसी दबावसे नहीं किया जाता किन्तु भात्मसंतोषके लिये किया जाता है। अपनी कर्तव्यनिष्ठाका प्रमाणपत्र अपने ही अन्तरात्मासे लिया जाता है, बाहर किसीसे नहीं। जो लोग अपने विचारकी हीनतासे बाह्य जगतसे कर्तव्यनिष्ठाका प्रमाणपत्र लेना चाहते हैं, वे अपनी सच्ची शक्तियोंको खोदेते हैं और कर्तव्यभ्रष्ट होजाते हैं। बाह्य जगत्से प्रमाणपत्र पानेके Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "अनेक कर्तव्योंमेंसे आधार I इच्छुक यशोलोभी लोग अपनी इन्द्रियोंके दास होते हैं । अज्ञानी जगत् भौतिक सुखेच्छाओंका दास होता है। भौतिक सुखेच्छाओंके दास अज्ञानी जगत्का भौतिक सुख देनेकी भावना से कर्तव्यको अपनाना, समाजके बहुसंख्यकोंकी दृष्टिसे अधिक महत्वपूर्ण होनेपर भी सार्वजनिक रूपसे कभी भी महत्वपूर्ण नहीं होसकता । इस दृष्टिले समाजके अधिक से अधिक लोगोंको अधिक भौतिक लाभ पहुँचानेकी भावना ही भ्रमसे भरी हुई है । उसके मूल में ही भूल है । मनुष्यको तो, सबसे अधिक संख्यावाले अज्ञानियों की चिकी दासता करने की दुर्भावना त्याग देनी चाहिये और संपूर्ण मनुष्यसमाजका अक्षय कल्याण करनेकी कसौटी अपनानी चाहिये । मनुष्य को चाहिये कि वह संपूर्ण मानव समाजका अक्षय कल्याण करनेकी कसौटीको अपनी स्थायी व्यक्तिगत जितेन्द्रियतारूपी अक्षय शान्तिमें केन्द्रीभूत करके कर्तव्य - निर्णय किया करे, तब ही उसका कर्तव्य निर्णय अभ्रान्त हो सकता है । जितेन्द्रियता या निःस्वार्थता के आधार से किये निर्णयोंका बहुफल तथा आयतिक होना अनिवार्य है, जब कि भोगमूलक, स्वार्थमूलक या अजितेन्द्रियतामूलक निर्णयका अल्पफलक तथा आयतिनाशक होना अनिवार्य है । २०७ मनुष्य भौतिक लाभके पीछे किसी उपदेश से नहीं चलता । मानवका लोभ ही मानवको भौतिक लाभके पीछे भटकाता है। भौतिक लाभोंके पीछे पीछे मारे फिरनेके लिये उपदेशकी कोई आवश्यकता नहीं है । इस दृष्टिसे अधिक लाभके पीछे चलनेका उपदेश देना कौटल्य जैसे स्थितप्रज्ञ मुनिके इस सूत्र का अभिप्राय संभव नहीं है । इस सूत्र में तो समाजकी शान्तिको ही बहुफल कहकर उसको कर्तव्य निर्णय के लक्षणके रूप में रक्खा गया है । इसमें तो मीमांसा शास्त्रवाली परिसंख्याविधिका आश्रय करके मनुष्य के बहुमुख दृष्टिकोणों में से समाजका सच्चा कल्याण करनेवाले दृष्टिकोणको अपनाकर शेष दृष्टिकोणोंको छोड़नेके लिये कहा गया है। 66 "" - पाठान्तर - कार्यबहुत्वे बहुफलमायतिकं वा कुर्यात् । एक साथ अनेक कार्य उपस्थित होनेपर या तो तत्काल अधिक भौतिक फळवाले या भात्री में निश्चित फल देनेवाले कर्मको कर्तव्य रूप में स्वीकार करे । Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ चाणक्यसूत्राणि यह पाठ निम्न कारणोंसे असंगत है-दो भिन्न कर्तव्य एक क्षणमें एक जैसा महत्व नहीं रखसकते । कर्तव्यशास्त्रका यह एक महत्वपूर्ण सिद्धान्त है कि प्रत्येक वर्तमान क्षणमें एक ही कर्तव्य यहच्छासे मभ्रान्त रीतिसे मनुष्य के सम्मुख उपस्थित होता है । कर्तव्यशास्त्र के इस महत्वपूर्ण सिद्धान्तको ध्यानमें रखनेसे वर्तमानके लिये सबसे अधिक महत्त्वपर्ण एक ही कर्तव्य पूर्ण स्वीकृतिका अधिकारी बनकर आता है। वह अपने क्षेत्रमें दूसरे किसी कर्तव्यका समानाधिकार कभी स्वीकार नहीं करसकता। कर्तव्यका दृष्टिकोण सन्देहयुक्त न होकर अभ्रान्त होना चाहिये । कर्तव्यके इस सभ्रान्त दृष्टिकोणके सम्मुख सन्दिग्ध कर्तव्य स्वयं ही अकर्तव्य रूपमें निर्णीत होजाता और परित्यक्त होने योग्य बनजाता है। केवल मसंदिग्ध कर्तव्य ही कर्तव्यरूपमें स्वीकृत होने योग्य होता है । इस दृष्टि में "वा" वाला पाठ अग्राह्य है। __(बिगडे कर्मका स्वयं निरीक्षण ) स्वयमेवावस्कन्न कार्य निरीक्षेत ॥ २२८॥ स्वयं विगडे या दूसरों के विगाडे कामको (दूसरोंकी आँखोंसे न देखकर ) अपनी ही आँखोंसे देखे और उसे सुधारे। विवरण- जो काम किसी विघ्न के कारण पम्पन्न न हो रहा हो, या विफल हो रहा हो, उसे अपनी ही आँखोसे देखना चाहिये । दूसरों के निरीक्षण में उपेक्षाका अंश होना अत्यधिक संभव है । कतव्य कर्ताका हार्दिक प्रेम पाये बिना पूर्ण होता ही नहीं । कर्मके पूणांग होने के लिये उसे कांके हार्दिक प्रेमके स्पर्श की अनिवार्थ पावश्यकता होती है। दूसरे लोग दूसरों के फर्तव्यको अपना हत्प्रेम देने में प्रमाद भूल या अपावधानी बरते यह नितान्त स्वाभाविक है। इनके प्रमादसे काम बिगड़ जाता है जो बिगड हो जाना चाहिये। पराये हाथोंसे काम बिगडनेका यही कारण होता है कि उसे कर्ताका हार्दिक प्रेम प्राप्त नहीं होता। इसलिये ज्यों ही तुम्हारे सामने कोई यम उपस्थित हो त्यों ही उसके पूर्णांग होने की स्वयं व्यवस्था करो। राजा लोग उपस्थित कौंको स्वयं देखें । Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूखोंसे वाग्युद्ध अकर्तव्य २०९ पाठान्तर- स्वयमेवासन्न ...... । अदूरवर्ती कामों की देखभाल तथा उनके पूर्णाङ्ग होनेकी व्यवस्था स्वयं करनी चाहिये। ___ अधिक महत्ववाले या अधिक फलवाले समीपवर्ती कामोंके व्यक्तिगत निरीक्षणसे कर्तव्यों का व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त करके दूरस्थ कर्मचारियोंके कर्मकी त्रुटिको अपने प्रज्ञानेत्रसे पहचानना तथा अपराधी अधिकारियोंपर अपने गंभीर परिचयका शासन स्थापित करना सीखना चाहिये । स्वयं कामका व्यावहारिक ज्ञान न रखनेवाले लोग किसीके कमकी त्रुटि नहीं पकड सकते और लोगोंसे यथार्थ काम नहीं करा सकते। कर्मकी सुसम्पन्नताका संतोष प्राप्त करने के लिये विघ्न-संकुल कामका स्वयं निरीक्षण करे । सहज-साध्य कर्म तो नियत कर्मचारियों के द्वारा हो ही जाते हैं । परन्तु राजालोग दुःसाध्य कर्मोंके संबंधों परनिर्भर न रहकर स्वयं निरीक्षण करके उसकी सुसम्पन्नताके संबंध निश्चिन्त बनें । राजाको किसी भी परिस्थितिमें राजकार्योंकी सुसम्पन्नताके संबंधमें अंधेरेमें या संदिग्ध नहीं रहना चाहिये ।। (दुःसाहस मूखेका स्वभाव ) मूर्खेषु साहसं नियतम् ॥ २२९॥ नृशंस आक्रमण, अभद्र व्यवहार, अबुद्धिपूर्वकारिता या दुःसाहस मूढेका स्वभाव होता है। विवरण- मूर्ख सदा अबुद्धिपूर्वकारी अपरिणामदर्शी तथा दुःसाहसी होते हैं। (मूोंसे वाग्युद्ध अकर्तव्य) मूर्खेषु विवादो न कर्तव्यः ॥२३०॥ हिताहितउचितानुचितविचारशून्य विवेकहीन मुखौके साथ वाग्युद्ध न ( करके उनके दुःसाहसको उचित व्यवहारसे तत्क्षण दमन ) करना चाहिये। १४ (चाणक्य.) Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० चाणक्यसूत्राणि विवरण- मूर्ख लोग सद्वचन सुभाषित तथा द्वितभाषणको प्रतिकूल माना करते हैं। बातोंसे उनका दुःसाहस बढ जाता है। इनसे विवाद करके इन्हें किसी सत्य सिद्धान्तपर मारूढ नहीं किया जासकता। ये सदुपदेटाकी अवहेलना किया करते हैं। बातोंसे इनका दुःसाहस नहीं बढाना चाहिये। (दुष्टोंको बलसे समझाना संभव ) मूर्खेषु मूर्खवत् कथयेत् ॥२३१॥ मूोसे सजनताका व्यवहार न (करके उनके साथ उनकी समझमें आनेवाली दण्डकी भाषामें व्यवहार ) करना चाहिये। विवरण- जिसे जो बात या जो ढंग बोधगम्य या अभ्यस्त हो, उससे उसी ढंगमें बात करनी चाहिये । जैसे भैंस केवल डंडेकी भाषा पहचानती है, इसी प्रकार मूर्ख लोग सज्जनताकी किसी बातको नहीं समझते । वे केवल दण्डकी भाषा पहचानते हैं। उनसे उनकी प्रहणशक्तिकी योग्यताके विपरीत उदार भाषामें व्यवहार नहीं करना चाहिये । अथवा- मूर्खको मूर्खता रोकनेका उपदेश न देकर उससे ऐसा बर्ताव करो जिससे वह स्वयं अपनी मूढताका दुष्परिणाम भोग सके (दण्ड पा सके ) और भागेके लिये अनुभव प्राप्त कर सके। कोई श्रोता हृदयका पूर्ण विकास हो जानेकी स्थितिमें जिस बातको समझ सकता है, वही बात हृदयकी मषिकसित स्थितिमें दूसरे श्रोताके लिये अयोध्य होनेके कारण त्याज्य होजाती है। हृदयका विकास यथोचित कालकी प्रतीक्षा किया करता है। उस काल में जिन मभिज्ञताओंकी अत्यावश्यकता होती है उन्हें वाक्यमात्रसे किसीकी बुद्धिका गोचर नहीं किया जासकता। इस दृष्टि से भरसिकके सामने रस-निवेदनके समान अविकसित हृदयवालोंको विकसितहृदयग्राह्य बातें बताना अपात्र मूढको सुपात्र समझनेकी भ्रान्ति है । वचनका शक्तिशाली वीर्यवान होना तब ही संभव है जब कि वक्ता वचनप्रयोगमें किसी प्रकारकी भूल न कर रहा हो । यदि वक्ता वचन-प्रयोगमें मभ्रान्त न होगा तो वचनका व्यर्थभ्रलाप होजाना भनिवार्य है । Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुष्टोंको बलसे समझाना संभव २११ अथवा- अविकसित हृदयवालों तथा पातित्यप्रेमियों के साथ उनकी भविकसित तथा निकृष्ट बुद्धिको ध्यानमें रखकर बातें करनी चाहिये । मूर्ख शब्द अविकसितहदय तथा पतितहृदय दोनोंका ही वाचक है। वे हितकारी और सूक्ष्म बात नहीं समझते । पतितहृदय लोगोंसे हितकारी बात कहना व्यर्थ होता है। अविकसित हृदयवालोंसे सूक्ष्म बातें कहना व्यर्थ हो जाता है । उनके साथ गहन विषयों की चर्चा न करके खानेपीने भादि साधारण व्यवहारकी बातें करके उपस्थित शिष्टाचारके कर्तव्यको समाप्त कर देना चाहिये। आयसैरायसं छेद्यम् ॥ २३२॥ जैसे लोहेको लोहोंसे ही काटा जाता है, इसी प्रकार पतित हृदयवाले हठीले नीच मूर्खको हितोपदेश देकर अनुकूल बना. नेकी भ्रान्ति न करके उसे उसका जी तोड सकनेवाले कठोर शारीरिक दण्डोंसे पराभूत करना चाहिये। विवरण- प्रतिपक्षीके दम्भको चूर्ण करनेवाली अधिक दाम्भिकता तथा कठोरताको काममें लाकर ही उससे व्यवहार करना चाहिये । उसके साथ नम्रता और उदारता दोनों ही हानिकारक होती है । मूखों के साथ नम्र होजाना तो दुष्परिणामी है और उनके प्रति उदारता दिखाना व्यर्थ प्रयत्न है। पाठान्सर- आयसैरायसः छेद्यः । पाठान्तर- आयासैरायसं छेद्यम् । जैसे स्वभाव से कठिन लोहेका छेदन कठिन श्रमोसे ही संभव है, इसी प्रकार जितना ही कठिन कार्य हो उतने ही कठोर उपायोंसे काम लेना चाहिये। श्रमसाध्य कार्य श्रमसे ही संभव होते हैं। उपाय कार्योंकी स्थितिपर निर्भर होते हैं । लघु कार्य लघु उपायोंसे तथा बृहत् कार्य बृहत् उपार्योसे संभव होते हैं। Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ चाणक्यसत्राणि ( मूल्के सच्चे मित्र नहीं होते ) नास्त्यर्धामतः सखा ।। २३३॥ मूर्खको बन्धु मिलना संभव नहीं है । विवरण-बन्धुस्वका बन्धन तो सत्यनिष्ठामें ही रहता है । मूखीका संबंध स्वार्थमलक (अर्थात् पारस्परिक माखेटमूलक ) होता है। मौके पारस्परिक सहयोगोंके भीतर शत्रुता ही छिपी-छिपी काम करती रहती है । वे एक दूसरेके साथ सहयोगका जो संबंध रखते दिखाई देते हैं, वह संबंध उनकी पारस्परिक लुण्ठनप्रवृत्तिमूलक शत्रुता ही होता है। वे एक दूसरेके शत्रु होते हुए भी अपनी भ्रान्त बुद्धिसे एक दूसरेको मित्र कहा करते हैं। बुद्धिमानोंके पारस्परिक संबंध स्वार्थमूलक नहीं होते । यही उनकी वह व्यवहार-कुशलता है जिससे उनके साथ लोगों की सुदृढ मित्रता स्थापित हो जाती है । निःस्वार्थता ही समाज-संगठनमें एकमात्र अपेक्षित गुण है । स्वार्थी बनकर समाजका शत्रु बनजाना बुद्धिहीनता है । ( कर्तव्य ही मानवका अनुपम मित्र ) ( अधिक सूत्र ) नास्ति धर्मसमः सखा । संसारमें मनुष्यका धर्म या अपने मानवोचित कर्तव्यपालनके समान कोई सुहृद् नहीं है। विवरण- मानवोचित कर्तव्य-पालन ही मनुष्यका सच्चा मित्र है। कर्तव्य-पालन करनेवाले लोग कर्तव्यको ही अपना मित्र बनालेते हैं। कर्तव्य. पालनसे संसारमें मनुष्यके हृदयमें साफल्यमयी अखंड शान्ति रहने लगती भौर जीवन-यात्रा पग-पगमें विजयी होनेका संतोष देती रहती है। एक एव सुहृद्धर्मो निधनेऽप्यनुयाति यः । शरीरेण समं नाशं सर्वमन्यत्त गच्छति ॥ मनुष्य के मर जानेपर भी धर्म नहीं मरता। शेष सब पदार्थ शरीरके साथ नष्ट होजाते हैं। Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मका महत्व २१३ धारणाद्धर्म इत्याहुन लोकचरितं चरेत् । ( महाभारत ) जगत्को मर्यादामें रखनेका हेतु धर्म है । मनुष्य धर्मानुकूल आचरण करे । वह क्षुद्र मनुष्य के समान मर्यादाका भंग न करे। (धर्मका महत्व ) धर्मेण धार्यते लोकः ॥ २३४ ॥ लोक-विधारक सत्य रूपी मानव-धर्म ही मानव-समाजका संरक्षक है। विवरण- श्रेष्ठ कर्म करना तथा भश्रेष्ठसे बचना ये दो धर्मके बडे भेद हैं। धार्मिक मनुष्यको कर्तव्य करने पड़ते हैं और अकर्तव्य त्यागना उसका स्वभाव होजाता है। धर्मो विश्वस्य जगतः प्रतिष्ठा ( वेद ) प्रवृत्ति-निवृत्ति रूपी धर्म ही संपूर्ण मानव-समाजका धारक माधार है । प्रेतमपि धर्माधर्मावनुगच्छतः ॥ २३५॥ देहीके धर्माधर्म देहका अन्त हो जानेपर भी उसके साथ लगे रहते हैं। विवरण- मानव-जीवनका अन्त हो जानेपर भी उसके धर्माधर्म नष्ट नहीं होजाते । मानव-देहके विनाशी होनेपर भी उसका देही तो अविनाशी ही है । देह मनुष्य का विनाशी रूप है और देही उसका भवि. नाशी अमर रूप है। उसका यह अविनाशी रूप ज्ञानी अज्ञानी दो रूपों में मनुष्य-समाजमें सदा जीवित रहता है। वह देहके मर जानेपर भी मानव-समाजको धारण किये रहता है । एक चला जाता है दूसरा भाजावा है । परन्तु मानव-समाजका धारक मानव धर्म-संसारमें धर्माधर्मका संग्राम करता रहता है। वह अधर्मसे संग्राम करके विजयी बना रहता है । यों धार्मिक लोग मानव-समाजके शाश्वत संरक्षक होते हैं। धर्मका स्याग Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि करदेना अपने अविनाशी सत्यरूपसे व्युत होकर अज्ञानरूपी मृत्युको ही अपनाना होता है । इसी प्रकार धर्मत्यागी मानवका पाप उसके देहके नष्ट होजानेपर भी दिन-रात आठों पहर समाजको अध:पतित करने में लगा रहता है । २१४ यतोऽभ्युदयनिःश्रेयससिद्धिः स धर्मः । जिससे मानवका ऐहिक अभ्युदय भी हो और साथ ही उसका मानस उत्कर्ष भी हो वह " धर्म " है । धर्मके दो महत्वपूर्ण उत्तरदायित्व हैं । वह मनुष्यको श्रीसम्पन्न भी बनाये और उसकी मानवताको भी निर्मल करता चला जाय । जिस धर्मसे ये दोनों प्रतिबन्ध ( शर्त ) पूरे नहीं होते वह धर्माभास है । धृतिः क्षमा दमोsस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः । धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम् ॥ धीरज, क्षमा, अनुत्तेजना भोगेच्छापर नियन्त्रण, अनधिकार - संग्रहका त्याग, शौच, इन्द्रियनिग्रह, आत्मबोध, सत्य तथा अक्रोध ये दस धर्मके लक्षण मनु कह गये हैं । इन्हीं से संसार में शांति रहनी संभव है । ( धर्मकी माता ) दया धर्मस्य जन्मभूमिः ॥ २३६ ॥ ( परदुःख - कातरता या सहानुभूति रूपी ) दया से धर्मनिष्ठा पैदा होती है । विवरण- दया ही ऐहिक अभ्युदय और मानस उत्कर्ष पैदा करनेवाले धर्मकी जन्मभूमि है । दया रूपी जन्मभूमि न हो तो धर्मोत्पत्ति असंभव है। मैत्री, करुणा, मुदिता, उपेक्षा अर्थात् पुण्यात्माओंसे मैत्री, दुखियोंपर करुणा, सुखियोंको देखकर मुदिता, पापियोंके प्रति घृणा से चित्त-नैर्मल्यकी अभिव्यक्ति होती है । निर्मल चित्तमें ही दया उत्पन्न होती है । दयालु चित्तमें ही कर्तव्य पालनकी भावना होती है। सत्य-रक्षा ही मनुष्यका - Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्य तथा दानकी कसौटी २१५ स्वधर्म है । सत्य ही मनुष्यका स्वरूप है । सत्यसे प्रेम ही दया है । सत्यका प्रेमी हृदय स्वभावसे सस्यका रक्षक होता है । यत्नादपि परक्लेशं हर्तु या हदि जायते। इच्छा भूमि सुरश्रेष्ठ सा दया परिकीर्तिता ॥ कृपा दयानुकम्पा च करुणानुग्रहस्तथा । हितेच्छा दुःखहानेच्छा सा दया कथ्यते बुधैः ।। अपहृत्यार्तिमार्तानां सुखं यदुपजायते। तस्य स्वर्गोऽपवर्गो वा कलां नार्हन्ति षोडशीम् ॥ हे ब्राह्मणश्रेष्ठ ! मानव-हृदयमें यत्न करके भी पर-क्लेश-हरणकी जो इच्छा पैदा होती है वही दया कहलाती है । कृपा, दया, मनुकम्पा, करुणा, अनुग्रह, हितेच्छा तथा दुःखहानेच्छाको बुद्धिमान् लोग दया नामसे कहते हैं । दुखियोंका दुःख हटाकर मनुष्यको जो सर्वभूतात्मताका अनुपम सुख प्राप्त होता है स्वर्ग या अपवर्गके सुख उस सुखके सोलहवें भागकी भी समता नहीं कर सकते। धर्मादपेतं यत्कर्म यद्यपि स्यान्महाफलम् । न तत्सेवेत मेधावी न हि तद्धितमुच्यते ॥ मेधावी मनुष्य महाफलदायी भी धर्मरहित कार्य न करे। उसमें मनुव्यको लंबी-चौडी आय होती दीखनेपर भी उसमें उसका निश्चित भकल्याण होता है ( मनुष्यताकी रक्षा ही सत्य और दानके ठीक होने की कसौटी ) धर्ममूले सत्यदाने ॥ २३७ ।। धर्म ही सत्य तथा दान दोनोंका मूल (जनक ) है। विवरण- समाजमें मनुष्यताको सुरक्षित रखना ही सर्वोत्कृष्ट मानवधर्म है । सस्य इसी धर्मके पालनसे सुरक्षित रहता तथा दान इसी धर्मके पालनसे सार्थक होता है । किसी भी कर्मको कर्तव्यरूपमें स्वीकार करने में Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ चाणक्यसूत्राणि उस कर्मके संबंध सत्यकी सेवारूपी कर्तव्य पालनका सन्तोष तब ही रद्द सकता है जब कि वह कर्म समाज के लिये कल्याणकारी होनेका प्रतिबन्ध ( शर्त ) पूरा करता हो । यदि वह कर्म समाज कल्याण नहीं करेगा तो वह सत्य न कहाकर असत्य कहा जायगा । इसीप्रकार मनुष्य दानके नामसे जो भी कुछ त्याग करेगा वह सत्यके हाथमें आत्मदानरूपी सच्चे दानके नामसे तब ही सम्मानित होसकेगा, जब कि वह समाजमें मनुष्यताको सुरक्षित रखने के उद्देश्य से समर्पित किया गया होगा । यदि वह समाज में मनुष्यताकी रक्षाकी दृष्टिसे समर्पित किया हुआ न होगा, तो वह दान न कहलाकर कुदान कहा जायगा । यही सत्य तथा दानकी धर्ममूलकताका रहस्य है । - सत्यरक्षा मानवका स्वधर्म स्वीकृत होजानेपर सत्य स्वयमेव स्वीकृत होजाता है । सत्यरक्षा के मानव धर्म स्वीकृत होजानेपर मनुष्यकी संपूर्ण भौतिक संपत्ति सत्यकी सेवामें नियुक्त होकर अनिवार्य रूप से लोक-कल्याणरूपी दानका रूप धारण करलेती है । इज्याध्ययनदानानि धृतिः सत्यं तपः क्षमा । अलोभ इति मार्गोऽयं धर्मस्याप्रविधः स्मृतः ॥ यज्ञ, अध्ययन, दान, धृति, सत्य, तप, क्षमा तथा निर्दोभिता यह धर्मका अष्टविध मार्ग बताया जाता है। समाज में मनुष्यताकी रक्षारूपी धर्मके मुख्य उद्देश्य के उपेक्षित होनेपर धर्मके नामसे जो भी कुछ किया जाता है वह असत्यकी ही सेवा होती है । ( मनुष्यताको रक्षारूपी कर्तव्यपालन विश्वविजयका साधन ) धर्मेण जयति लोकान् ॥ २३८ ॥ धर्म-रक्षा (सत्य-रक्षा) मानवको विश्वविजेता बना देती हैं। विवरण- समाजमें मनुष्यता के संरक्षक धार्मिकोंकी जो निष्ठा और कीर्ति है वही तो उन लोगों का विश्वविजय है । असत्यका दमन या असत्यका Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाप बढनेपर धर्मका अपमान २२७ सिर अवनत करने का सामर्थ्य ही धार्मिकोंका विश्वविजय है । सब लोग विश्व. भरकी मनुष्यताके प्रतिनिधि ज्ञानियोंका विश्वास और भादर करते हैं। यही तो उनका विश्व विजय है। वे सैन्यसामन्तोंसे विश्वविजय न करके इन्द्रिय. विजय या असत्यदमनके द्वारा ही विश्वविजेता बनते हैं। धर्मेण गमनमूर्ध्व गमनमधस्ताद् भवत्यधर्मेण । धर्म ( अर्थात् मानवोचित कर्तव्य-पालन ) से मनुष्य की ऊर्ध्वगति ( अर्थात् विश्वविजय ) और अधर्मसे अधोगति ( अर्थात् असत्यकी दासता या मनुष्यता-हीनता ) होती है । ( कर्तव्यनिष्ठ मौतसे भी नहीं मरता ) मृत्युपि धर्मिष्ठं रक्षति ॥ २३९ ।। सर्वसंहारी मृत्यु भी धार्मिकको इस संसारसे मिटा ( भुला) नहीं पाती। विवरण-- धर्मिष्ठके नश्वर देहका अन्त हो जानेपर भी उसका स्वरूप अविनाशी सत्य, उसके जीवन-कालमें तथा उसके पश्चात् उसके समाजमें या समाजरूपी जीवित ज्ञान-ग्रन्थ में एक जैसा समुज्ज्वल रहकर उसे अमर बनाये रहता और अनन्त कालतक पथभ्रान्त क्लान्त मानव-समाजके मार्गदीपकका काम करता चला जाता है। पाठान्तर- मृत्युरपि धार्मिकं रक्षति । ( मनमें पाप बढनेपर धर्मका अपमान ) धर्माद्विपरीतं पापं यत्र प्रसज्यते तत्र धर्मावमतिमहती प्रसज्येत ।। २४०॥ धर्मद्वेषी पाप जहाँ कहीं प्रबल होजाता या सिर उठा लेता वहाँ धर्मका महा अपमान होने लगता है। विवरण- धर्मद्वेपी असुर अधर्मके द्वारा अपने ही हार्दिक अधिष्ठातृ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ चाणक्यसूत्राणि देवता सत्यस्वरूपका अपमान करके मास्महत्या नामके अपराधका अप. राधी बन जाया करता है । धर्म-द्वेष धर्मका कुछ नहीं बिगारता । वह तो मनुष्यकी अपनी ही पास्महत्या है। जब तक मनुष्य अपने अन्तरास्माका नृशंस वध नहीं करता, तब तक धर्म-द्वेष कर ही नहीं सकता। उसे धर्मद्वेष करनेसे पहले आत्महत्या करनी पड़ती है। धर्मद्वेषी लोगोंकी जो मारमहत्याएँ हैं वही तो उनका धर्मापमान है और यह उनका अपनेसे ही अपनी शत्रुता है। पाठान्तर- धर्माद्विपरीतः पापः । धर्म अर्थात् मानवोचित कर्तव्य-पालनसे विपरीत कर्तव्य-हीनताकी जो स्थिति है वही तो पाप है। समाजमें मनुष्यताके संरक्षक मानव-धर्मको न अपनाकर उससे विपरीत आचरण करने लगना ही पाप है। अथवा- धर्म से विपरीत भाचरण करनेवाला मनुष्य पाप अर्थात् पापी होता है। ऐसा मानव नियमसे धर्मविरोधी भाचरण करता है । इस अर्थ में पाप करनेवाला पाप कहा गया है । इसी अर्थमें पापः यह पुलिंग प्रयोग शुद्ध होता है। पाप शब्द नपुंसकलिंगका होने से यह अर्थ व्याकरणसंगत है। पाठान्तर- यत्र यत्र प्रसज्यते तत्र तत्र ध्रुवा स्मृतिः।। (ध्रुवा रतिः ) मनुष्य जिस किसी भले-बुरे काममें लग जाता है उसे उसी कर्मकी चिरस्थायी स्मृति रहने लगती, उसके मनमें उसकी अटल छाप पड जाती या उसे उसी कार्यके सम्पादनका नैपुण्य प्राप्त होजाता है । शुभ कर्मकी पुण्यस्मृति तथा अशुभ कर्मकी पापस्मृति ठहर जाती है। पुण्यस्मृति हो तो उसे साधुवाद तथा आगेको शुभ कर्मकी प्रेरणा देती रहती है। पापस्मृति हो तो उसे मन ही मन धिक्कारती, नोच-नोचकर खाती और भागेको भी पापकों में ही प्रवृत्त रखती है। एक वार किया हुमा Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ › निन्दित काम मत करो २१९ पुण्य, जीवनका उद्धारक तथा एक वार किया पाप, जीवनका विनाशक अभिशाप बनजाता है । यह पाठ अप्रासंगिक है । पाठान्तर --- महती प्रसज्येत । ये तीनों पाठान्तर प्रसंगबाह्य होनेसे अपपाठ हैं । प्रतीत होता है २४० सूत्र के ये तीन सूत्र बन गये हैं । ( व्यवहारकुशलताही बुद्धिमत्ता है ) ( अधिक सूत्र ) लोके प्रशस्तः स मतिमान् ॥ व्यवहारमें कुशल ही वास्तव में बुद्धिमान् है । विवरण - अव्यवहारिक कोरे सिद्धान्तवादी बुद्धिमान् नहीं कहे जा सकते । अव्यवहारिक कोरे सिद्धान्तवादी अधार्मिक लोग उधारा रामनाम रनेवाले तथा बिल्ली के आपकडनेपर ट्याऊं व्याऊं करने लगनेवाले तोतों के समान बुद्धिहीन होते हैं । ( निन्दित काम मत करो ) ( अधिक सूत्र ) सज्जनगर्हिते न प्रसज्येत ॥ कल्याणार्थी मानव साधुजन-गर्हित कामों में प्रवृत्त न हो । तब ही पतनसे बच सकता है । विवरण - गर्हित आचरणसे समाज में दुर्दृष्टान्त उपस्थित होकर दुर्नीति बढती और उपद्रव खडे हो जाते हैं। उपस्थितविनाशानां प्रकृत्याकारेण लक्ष्यते ।। २४१ ॥ यह पाठ अपपाठ है । पाठान्तर- उपस्थितविनाशानां प्रकृतिराकारेण लक्ष्यते । विनाशोन्मुख असुरोंका सत्यद्वेषी आकार ( आचरण) उनके विनाश की सूचना दिया करता है । विनाशोन्मुख लोगों के आकारों या आचरणों में विनाशके चिन्ह और बीज छिपे रहते हैं । उनकी आसुरिकता, उनके सत्यहीन विनश्वर म्रियमाण रूपको Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० चाणक्यसूत्राणि अनिवार्य रूपसे प्रकट करदेती है । इसलिये मनुष्य अपने कर्ममेंसे सत्य तथा धर्मकी हानि न होनेका पूरा ध्यान रखे । पाठान्तर- उपस्थितविनाशः प्रकृत्याकारण कार्यण लक्ष्यते। उपस्थित पदार्थोका भावी या वर्तमान विनाश पदार्थों के व्यापारों, आकारों तथा परिणामोंको देखकर समझमें जाता है। ( विनाशके चिन्ह ) आत्मविनाशं सूचयत्यधर्मबुद्धिः ॥ २४२ ।। विनाशोन्मुख मानवकी सत्यद्वेषिणी अधर्मवुद्धि ( अधार्मिक कार्योमें प्रवृत्ति ) उसके आत्मघातकी सूचना देती है। विवरण- अपने सत्यस्वरूपको त्याग देना ही उनका मारमविनाश या आत्मघात है । साधर्मबुद्धिवाले मानवका भाचरण कह देता है कि देखलो लोगो में नष्ट होने जारहा हूँ। अधर्मेणैधते राजन् ततो भद्राणि पश्यति । ततः सपत्नान् जयति समूलं च विनश्यति ॥ ( पिशुनको गुप्त बात न बताओ) । पिशुनवादिनो रहस्यम् ॥ २४३ ।। इस सूत्रमें प्रमादसे ' न ' छूट गया है । इसका अर्थ इसके पाठान्तरमें देखना चाहिये। पाठान्तर- नास्ति पिशुनवादिनो रहस्यम् । पिशुनवादीको बतायी गुप्त बात गुप्त नहीं रह सकती। अथवा- परनिन्दक के पास रहस्य नामकी कोई वस्तु नहीं होती। परदोषाविष्कारमें लगे रहना परनिन्दकका स्वभाव होता है । वह अपने इस स्वभावसे रहस्य-रक्षाकी कला भूलजाता है । वह सूंघ-सूधकर माखेट हूँढनेवाले कुत्तोंके समान परदोष ढूंढता रहता है। उसके पास गोपनीयता नामकी कोई बात नहीं रहती । ऐसोंसे गोपनीय बात न कहनी चाहिये। Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पररहस्य सुनना अकर्तव्य खळ व्यक्ति स्वभावसे दूसरोंको हानि पहुँचानेका अवसर ढूँढता रहता । वह कानों में दूसरोंकी गोपनीय बात आते ही उसके सहारेसे दूसरोंमें भेद डालकर उसे दूसरोंमें झगडे पुरनेका साधन बनालेता है। किसी भी प्रकारकी मंत्रणा में ऐसे मनुष्यका विश्वास करके उसे अपना सहयोगी नहीं बनाना चाहिये | ०२१ ( पररहस्य सुनना अकर्तव्य ) पररहस्यं नैव श्रोतव्यम् ॥ २४४ ॥ दूसरोंकी गुप्त बात सुननेका अकारण आग्रह न होना चाहिये । विवरण - जैसे पराये धनका लोभ करना अपहरण ( चोरी ) प्रवृत्ति है, इसीप्रकार दूसरोंकी गुप्त बात ( अर्थात् जिस बात से केवल उन्हींके हानि-लाभका संबंध हो और अपना कर्तव्यका कुछ भी संबंध न हो ) सुनने का आग्रह होना व्यक्तिगत दृष्टिसे अशान्तचित्तता तथा सामाजिक दृष्टिसे चंचलता के रूप में निन्दित है । इस आग्रहको मनमें स्थान न देना इन्द्रियसंयम में सम्मिलित है । असंयत श्रोता तथा वक्ता दोनों ही समाज में हेय बनजाते हैं। ऐसी प्रवृत्ति शिष्टाचार विरोधी आचरण होनेसे सभ्यसमाजमें निन्दित होती है । वैरनिर्यातन से संबंध रखनेवाली शत्रुकी गुप्त बातोंका परिचय प्राप्त करना, प्रत्येक मनुष्यका कर्तव्य है । यदि कोई इस कर्तव्यको त्याग देगा। तो उसे शत्रुको अपनी हत्या करनेसे रोकनेकी सावधानता भी त्याग देनी पडेगी । मनुष्य को ऐसा असावधान बनाना चाणक्य जैसे सतर्क मुनिके इस सूत्र का अभिप्राय नहीं होसकता। इसका एकमात्र अभिप्राय यही हो सकता है कि अपने लिये अनावश्यक होनेपर भी दूसरोंकी गुप्त बात केवल • अपना कौतुहल हटानेके लिये सुननेकी इच्छा करना तथा अपने इस स्वभावके कारण फैले अपयश से समाजमें अपने विरुद्ध उत्तेजना फैलाकर लोगों की में अपने ऊपर परच्छिद्रान्वेषी पैशुन्यवादी आदि घृणायोग्य कलंक ले लेना केवल अपनेको नीचा करना ही नहीं है प्रत्युत संकटमें डालना भी है । अपने से संबंध न रखनेवाली पर-निन्दा सुननेका कौतूइल निर्बुद्धिता Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ चाणक्यसूत्राणि मूलक होता है । इस निर्बुद्धितामूलक कौतूहलको संयत रखकर शिष्टाचार तथा सुरक्षाके प्रतिकूल आचरण करनेसे रोकना ही इस सूत्रका अभिप्राय है । सूत्र कहना चाहता है कि मनुष्य अपने निर्बुद्धि तामूलक कौतूहलको रोके। वह कुतूहलाधीन होकर शिष्टाचार तथा मारमस्थितिकी सुरक्षाके प्रतिकूल भाचरण न करे। (राज्यसंस्थाका नौकरशाही बनजाना पापमूलक तथा पापजनक ) वल्लभस्य कारकत्वमधर्मयुक्तम् ॥ २४५ ॥ स्वामीके ऊपर मुंहलगे अनुचरोंका आधिपत्य अधर्मयुक्त ( अधर्मप्रसारक ) होता है। विवरण- स्वामीके ऊपर अनुचरोंका आधिपत्य राष्ट्रमें अधर्मयुक्त मर्थात् अधर्मप्रसारक होता है । इस प्रकारकी घटना स्वामीकी धर्मपालनकी अयोग्यताके कारण होती है। राजाके अधर्माभिभूत होजानेपर जब उसका कोई चरित्र नहीं रहता, तब उसके ऊपर अनुचरोंका शासन स्थापित होजाता है । या तो राजाकी अप्रतिभा या उसकी विषय-लोलुपता, दो कारणोंसे प्रभुतालोभी भृत्योंको अधर्मसे राज्य लूटने का अवसर मिल जाता है। इस सूत्र में बल्लभकी कारकताका अर्थ अपने स्वामीको अपनी माज्ञामें रखना है । यह राजाकी ऐसी हीन स्थिति है जैसी कि अध्यापक विद्यार्थीको अपनी इच्छानुसार न चलाकर विद्यार्थीके अनुसार चल पडा हो । कारकत्वका अर्थ कारयितृत्वसे है । राजाका धार्मिक होना अनिवार्य रूपसे मावश्यक है। धार्मिक राजा राष्ट्रकी सबसे बडी मावश्यकता है। राजापर धर्मका ही बाधिपत्य रहे इसीमें राजा प्रजा दोनोंका कल्याण है । उसके ऊपर धर्मातिरिक्त और किसीका भी प्रभाव होना कल्याणकारक नहीं है। प्रजाका कल्याण ही तो राजधर्म है । राज्यभरमें सत्यके प्रभावका तपते रहना ही तो प्रजाका कल्याण है । जो राजा अपने ऊपर धर्मके अतिरिक्त किसी भी व्यक्तिका माधिपत्य स्वीकार किये होगा वह निश्रितरूपसे धर्मभ्रष्ट होचुका होगा। उसके राज्य में अधर्मका नग्न नृत्य होने लगेगा और अधर्म अपना प्रबल भाधिपत्य जमा बैठेगा। राजा अपने ऊपर सत्यकी भट ल Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नौकरशाही बनजाना पापमूलक २२३ प्रभुता बनाये रखकर ही मसत्य-दलनका व्रती रहसकता तथा अपने राज्य में सत्य या मनुष्यताके संरक्षक धर्मको जीवित बनाये रख सकता है। अपने ऊपर अधर्मको प्रमुख स्थापित करलेनेदेना राजाकी निस्तेज स्थिति है। धर्म ही तो राजाका राज्यैश्वर्य है । इससे भ्रष्ट होजाना तो राज्य से ही भ्रष्ट होनेके बराबर है । धर्मभ्रष्ट राजा पापीहायोंकी कठपुतली बनजाता है और वास्तवमें राज्यच्युत होचुका होता है। धर्मभ्रष्ट राजाका प्रजापर कोई प्रभाव नहीं रहता। प्रजापर राजाका प्रभाव न रहना ही राजाकी राज्यभ्रष्टता है। ऐसा राजा हाथमें शासनदण्ड धारण किये रहनेपर भी राज्यभ्रष्ट होता है। पाठान्तर- वल्लभस्य कातरत्वमधर्मयुक्तम् । राजाकी दोनता अधर्मयुक्त होती है। राष्ट्ररक्षा नामका धीर, वीर, गंभीर कर्तव्य रखनेवाले स्वामीका दीन कातर होना अधर्मयुक्त, भयोग्यतासूचक, पापान्वित और दुष्परिणामी होता है। राजाका राज्यैश्वर्यशाली तेजस्वी होना अनिवार्य रूपसे आवश्यक है। राजा तो हो परन्तु उसके पास ऐश्वर्य न हो, यह कभी संभव नहीं है। राजा भी हो और अपनेको निर्बल भी समझे, यह उसकी दण्ड-धारणकी भयोग्यता है। उसकी यह हीनता उसे दण्ड-धारणमें असमर्थ बनाकर दण्डनीय पापियोंका दुःसाहस बढानेवाली बनजाती है। राजाकी इस हीनताका परिणाम राज्यमें अधर्मका अभ्युत्थान तथा धर्मकी ग्लानि करनेवाला बनजाता है। निस्तेज राजा अनिवार्य रूपसे पापोंको प्रोत्साहित करनेवाला होता है । तेजस्विता ही राजधर्म है। जिसमें सत्य-रक्षाके लिये अदम्य उत्साह होता है उसका उत्साह प्रतिक्षण असत्य-दमनका रूप लेकर क्रिया. शील रहता है । सत्य-रक्षा तथा असत्य-दमन ही राजाकी तेजस्विता है। इसके विपरीत सत्य-रक्षामें शिथिलता अनिवार्य रूपसे असत्यका दुःसाइस बढानेवाली दीनता है जो राजाके लिये भयंकर अपशकुन है। राज्य जैसे धीर वीर राष्ट्रीय उत्तरदायित्ववाले कर्मों में दीनता या कातरत। Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि अत्यन्त निन्दित मनोवृत्ति है । राजा या रायपुरुषमें अपने भुजबलसे अपने स्वामित्वकी रक्षाकी पूर्ण योग्यता और अदम्य उत्साह होना परमावश्यक है । शासन की मुव्यवस्था और सच्ची शान्ति दोनों गंभीर उत्तरदायित्व है और महती वीरताके काम हैं । ये कोई नानीजीके घर नहीं है । धाद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते । (गीता ) राष्ट्ररक्षाका वीरतापूर्ण कर्तव्य रखनेवाले क्षत्रिय के लिये, धर्म-रक्षार्थ, असत्य, अधर्म या पापसे संग्राम करते रहने के अतिरिक्त दूसरी किसी भी बातमें कल्याण नहीं है । पाप, अन्याय, अत्याचार के विरुद्ध निरन्तर संग्राम ही राज्याधिकारियोंकी सन्ध्या, जप, तप, पूजा, पाठ आदि सब कुछ है । संन्यासीको ज्ञान--समाधि अर्थात् कर्मयोगसे जो पद प्राप्त होता है, राज्याधिकारीको वही पद राष्ट्रव्यापी पापसे युद्ध छेडकर, उसे राष्ट्रमेंसे बहिष्कृत करनेसे प्राप्त होता है । तात्पर्य यह है कि राष्ट्रोनायक महत्वपूर्ण साहसिक कर्तयों में दीनता माजाना गर्हित है। स्वामी बननेवालोंमें सत्साहसिक कामों में कूदने की अदम्य शक्ति होनी चाहिये । यदि राज्यकी रश्मि पकडने. वाले लोग अयोग्य अशक्त होंगे तो राष्ट्रमें निश्चितरूपसे पापवृद्धि और कर्तव्योंकी हानि होगी। (हितषियोंकी उपेक्षा अकर्तव्य ) स्वजनेप्वतिक्रमो न कर्तव्यः ॥ २४६ ॥ अपने हितैषियोंकी उपेक्षा न करनी चाहिये किन्तु उनके साथ यथोचित वर्ताव करना चाहिये। विवरण- जीवनमें सत्य सुरक्षित रहे इसीसें मानवमात्रका कल्याण है। सत्य ही नाना भांतिसे मानवका कल्याण करनेके लिये स्वजनोंका तथा उनके हार्दिक प्रेम और श्रद्धाका रूप लेकर प्रकट होता है । इस दृष्टि से सत्य ही मानवमात्रका स्वजन है । सत्यनिष्ठ धार्मिक लोग समग्र मनुष्य-समाजके स्वजन होते हैं । समग्र राष्टके कल्याणमें अपना कल्याण देखना सत्यनिष्ठ धार्मिक व्यक्तियों के लिये स्वाभाविक होता है । Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वार्थलोलुप व्यवहार हानिकारक राजा राष्ट्रका सेवक है। यदि राजा राष्ट्र-सिंहासनारूढ होकर राष्ट्र के सत्यनिष्ठ धार्मिक व्यक्तियों की उपेक्षा तथा मधार्मिकों का सहयोग करके स्वेच्छाचारी बन जाय तो इसे अपनेपरसे सत्यका प्रभुत्व अस्वीकार करके असत्य का दास बनजाना कहा जायगा । राजा राष्ट्र-सेवामें तब बीसमर्थ हो सकता है जब वह सत्यरूपी सच्चे स्वजनकी उपेक्षा न करके उसे ही अपना नायक बनाकर रक्खे । यदि राजा सत्यरूपी स्वजनकी उपेक्षा करता है तो वह अपने सत्यद्रोहसे ही राष्ट्रद्रोही बन जाता है। वह राष्ट्रद्रोही होकर अपने राज्याधिकारका दुरुपयोग करता और उसे असत्यरूपी समाजके वैरि. योंके हाथों में सौंप देता है। राज्यसंस्थाको सत्यरूपी स्वजनों के हाथों में रखना राजाका सबसे मुख्य कर्तव्य है । जिस समाजके लोग सत्यरूपी स्वजनोंकी उपेक्षा करदेते हैं वहाँकी राज्यव्यवस्था देशद्रोही पापियोंके पंजे में फंस जाती, गुणी धार्मिक पुरुषों की उपेक्षा करती और मासुरिकताकोही प्राधान्य देदेती है। ( स्वजनों से स्वार्थलोलुप व्यवहार हानिकारक ) ( अधिक सूत्र ) स्वजनेप्वतिकामो न कर्तव्यः । अपने हितैषियों के साथ स्वार्थलालुप बर्ताव मत करो। उनसे पारस्परिक कल्याणका संबंध रक्खो। विवरण- सत्यनिष्ठ धार्मिक लोग ही सम्पूर्ण मानव-समाज के स्वजन हैं । स्वार्थान्ध लोग भौतिक लाभ देखते ही सत्यको त्यागकर असत्यका आश्रय लेकर अपना काम बनाने में संकोच नहीं करते। ऐसे स्वार्थान्ध लोग समाजके धार्मिक सदस्योंके साथ शत्रुता किया करते हैं। इसलिये करते हैं कि धार्मिककी सत्यनिष्ठा स्वाथलोभीकी स्वार्थीसिद्धि का विघ्न बन जाती है । सत्यनिष्ठ धार्मिक व्यक्तिको अपने स्वार्थ का साधन बनाने का दुःसाहस करनेवाले लोग अनिवार्य रूपसे समाज में अशान्ति उत्पन्न करनेवाले देशद्रोही हो जाते हैं । देश के राज्याधिकारको ऐसे देशद्रोहियों के हाथों में १५ (चाणक्य.) Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ चाणक्यसूत्राणि जानेसे रोकना सावधान जाग्रत राष्ट्रका काम है । यह तब ही होसकता है जब कि राष्ट्रका प्रत्येक सदस्य एकमात्र राष्ट्रको ही अपना स्वजन मानकर एक दूसरेके साथ स्वार्थगन्धहीन बर्ताव करना सीखे। ऐसा करनेपर ही राष्ट्रमें धर्मराज्यकी स्थापना होना संभव है। __ मनुष्य इस विश्वपरिवारका एक पारिवारिक है। मनुष्य विश्वपरिवारका पारिवारिक बनने की कला सीखने के लिये ही पारिवारिक सम्बन्धोंमें भव. तीर्ण हुभा है। पारिवारिक स्वजन विश्वपारिवारिकता सीखने के क्षेत्रमात्र हैं। मनुष्यको स्वजनोंको परमार्थदर्शनका क्षेत्र बनाकर रखना चाहिये। न कि उन्हें अपने स्वार्थ-साधनकी माखेट-भूमि बनालेना चाहिये। स्वजनोंसे ऐसा दिव्य व्यवहार होना चाहिये कि उनकी भी तत्वज्ञान की आँखें खुल जायें और अपने में भी किसी प्रकारका भ्रम या आसक्ति शेष न रहे । स्वजनोंसे कामना या स्वार्थका सम्बन्ध रखनेपर उनकी घृणाका पात्र बनजाना अनिवार्य है, जिसका अवश्यंभावी परिणाम उभयपक्षका कपटी बनजाना होता है। स्वार्थपरताके विवाद तथा सम्बन्ध-विच्छेद दो अनिवार्य परिणाम हैं। ( दुष्टोंसे सम्बन्ध हानिकारक ) मातापि दुष्टा त्याज्या ॥ २४७ ।। दुष्ट होनपर माता भी त्याज्य होती है। शत्रुता करनेवाली मातासे भी दूर रहना चाहिये, औरोंका तो कहना ही क्या ? विवरण- पुत्र के साथ शत्रुता करनेवाली माता मातृत्व के अधिकारसे वंचित होकर पुत्रादिनी सर्पिणी जैसी दंडनीया बन जाती है । अपि शब्दका अभिप्राय यह है कि दूसरे अपकारियोंके त्यागमें तो किसी प्रकारकी शंकाको भवसर ही नहीं है। गुरोरप्यवलिप्तस्य कार्याकार्यमजानतः । उत्पथप्रतिपन्नस्य परित्यागो विधीयते ॥ Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हितैषिता ही बन्धुता कार्याकार्यविवेक न रखनेवाले उन्मार्गगामी माता-पिता मादि गुरुओंका भी परित्याग अर्थात् निर्वासन कर दिया जाता है । स्वहस्तोऽपि विषदिग्धश्छेद्यः॥ २४८ ॥ जैसे आत्मरक्षाके नामपर विषाक्त स्वहस्त भी छेद्य होजाता है इसीप्रकार विनाश करनेपर उतर आये हुए प्रियसे प्रिय सम्बन्धीका भी त्याग करके आत्मरक्षा करनी चाहिये । (हितैषिता ही बन्धुता ) परोऽपि च हितो बन्धुः ।। २४९ ॥ संसारी संबंध न रखनेवाला भी यदि कोई हितकारी अर्थात् अनुकूल व्यवहार करनेवाला व्यक्ति सत्यनिष्ठ धार्मिक हो ता उसे बन्धु समझकर अपनाना चाहिये। विवरण-धार्मिक मनुष्यका संपूर्ण जीवन समाज-हितमें समर्पित होने के कारणका व्यक्तिमात्रके लिये हितकारी है । धार्मिक व्यक्ति यदि किसीसे शत्रता भी करता है तो वह अधर्मका ही विरोध करता है । वह अधर्मका विरोध करके संसारको धर्मका ही मार्ग दिखाना चाहता है। उसकी इस मधर्म-विरोधरूपी समाज-सेवासे समाजका प्रत्येक सदस्य आततायीके माक्रमणसे सुरक्षा पाता है। इसलिए वह समाजके प्रत्येक सदस्यका परममित्र होता है । कहा जाता है कि विवेकी शत्रु भी हितकारी तथा मूढ मित्र भी महितकारी होता है । अर्थात् विवेकी व्यक्तिका परिस्थिति के अनुसार शता जैसा दीखनेवाला बर्ताव भी वास्तवमें मित्रता ही होता है और मूढ भित्र सदा शत्रु जैसा त्याज्य होता है। . परोऽपि हितवान् बन्धः बन्धुरप्यहितः परः। अहितो देहजो व्याधिः हितमारण्यमौषधम् ॥ देखने में शत्रु जैसा बर्ताव करनेवाला भी यदि हितकारी हो तो वह बन्धु है, बन्धु समझकर अपनाया हुमा व्यनि. भी यदि अहितकारी हो तो Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि वह शत्रु है । व्याधि स्वदेहज होनेपर भी अपना शत्रु होती है तथा औषध सुदूर अरण्य या पर्वतपर उत्पन्न होनेपर भी हितकारी मानी जाती है। २२८ कक्षादप्यौषधं गृह्यते ॥ २५० ॥ जैसे व्याधिनाशक औषध अरण्य जैसे असम्बद्ध स्थान से लेनी पडती है इसीप्रकार उपकारी व्यक्ति संसारी दृष्टिसे हीन होनेपर भी उपेक्षित तथा अवहेलित नहीं होना चाहिये । पाठान्तर-- अक्षादप्यौषधं गृह्यते 1 जैसे गुंजा से भी भौषध तोलने का काम किया जाता है इसीप्रकार असम्बद्ध उपकारी व्यक्तिको भी हितैषी मानलेना पडता है । ( विश्वासके अयोग्य ) नास्ति चौरेषु विश्वासः ।। २५१ ।। चोरोंका विश्वास कभी न करना चाहिये । विवरण - अन्यायपूर्वक संग्रह करनेके इच्छुक सबके सब चोर हैं । अनुचित लाभ लेनेवाले व्यापारी, उत्कोच लेनेवाले तथा स्वेच्छाचारी, शासक, राजकर्मचारी, अन्यायी अदालत के चाटुकार व्यवहार-जीवी (वकील) कर्तव्य पालन न करनेवाले कर्ता, सच्चा धर्मप्रचार न करनेवाले धर्मप्रचारक, सच्ची शिक्षा न देनेवाले अध्यापक, राजनीतिले पृथक् रहकर धर्मका प्रचार करनेवाले तथा कु-शासनका विरोध करने से बचते रहनेवाले पत्रकार, व्यवस्था- -परिषदोंके सदस्य, नेता, धर्मप्रचारक तथा धार्मिक संस्थायें आदि सब चोर श्रेणी में आते हैं । ये सब राष्ट्रके चोर हैं । जिसका जो अधिकार नहीं उसका उसे चाइना ही चोरीका मूल हैं । वस्तुओंपर मनुप्योंका अधिकार उचित श्रमरूपो उचित विनिमय से ही प्रतिष्ठित होता है । समाज-सेवक होने के नाते देशके प्रत्येक नागरिकको अत्याज्य समाज : - सेवा Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शत्रुको नष्ट करो २२९ करके ही अन्नग्रहण करने का अधिकार प्राप्त होता है। इस सेवासे बचकर लोगोंको समाजकी सेवाके नामसे ठगना राष्ट्रीय चोरी है । पाठान्तर- नास्ति चौरेषु विश्वासः। ( इस समय शत्रुता न करनेवाले भी शत्रुको नष्ट करने में प्रमाद मत करो ) अप्रतीकारेवनादरो न कर्तव्यः ॥ २५२ ॥ शत्रुको प्रतिकारमें उदासीन देखकर उसकी उपेक्षा न करनी चाहिये। विवरण- अपनी किसी परिस्थिति से विवश होकर इस समय प्रतीकारहीन बनकर रहनेवाले राष्ट्रद्रोही परराष्ट्रप्रेमी शत्रुओंकी ओरसे असावधानी मत बरतो। उन्हें कुछ न करता देखकर उनी ओरसे असावधान मत होजाओ । उनसे शत्रुता मत स्यागो और उन्हें मित्र मत बनायो । वे अप्रतीकारी होने की अवस्थाके परिवर्तन होते ही प्रतीकार-परायण होने में देर नहीं करेंगे । शत्रु की भोली मूरतों तथा चाटुकारिताभरी मीठी बातोंके धोखे में आकर यह कभी मत भूलो कि शत्रु दा शत्रु ही रहता है । चाणक्य राजनीतिशास्त्र में कहा हैशत्रोरपत्यानि वशंगतानि नोपेक्षणीयानि बुधैर्मनुष्यैः । तान्येव कालेन विपत्कराणि वतासिपत्रादपि दारुणानि ॥ बुद्धिमान् राजनीतिज्ञ लोग घटनाचक्रवश अपने वश में आये शत्रुके वंशजोंकी उपेक्षा न करें । समय मानेपर आजके चुपचाप दीखनेवाले वे शत्रवंशज लोग तलवारकी धार से भी अधिक विपत्ति बुलानेवाले बनने में देर नहीं करेंगे। • ( अधिक सुत्र ) अप्रतीकारेषु व्यसनेष्वनादरोन कर्तव्यः। असाध्य विपत्तियोंकी भी उपेक्षा न करो। विवरण- प्रतीकार्य विपत्तियों को अप्रतीकार्य समझकर निराश नहीं Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० चाणक्यसूत्राणि होजाना चाहिये । मनुष्यको अप्रतीकार्य समझी हुई विपत्तियोंके मानेपर उन्हीं जैसा कठोर बनकर उनका साम्मुख्य करना चाहिये । वीर मनुष्यको ऐसी विपत्तियों को देखकर अपने प्रयत्नों में अपेक्षित तीव्रता लानी चाहिये और उन्हें अपने कर्मक्षेत्रसे मारभगानेका प्रबलतम मायोजन करना चाहिये___ याते समुद्रेऽपि हि पोतभंगे सांयात्रिको वांछति तर्तुमेव। जैसे पोतव्यापारी मध्यसागरमें पोतभंग होजानेपर भी निराश न होकर समुद्र-संतरणके समस्त संभव उपाय किये बिना नहीं मानते। इसीप्रकार उत्साहसंपन्न लोग विपत्तियोंसे न घबराकर विपद्वारण के उपाय ढूंड ने में व्यस्त होजाते हैं। संपत्सु महतां चेतो भवत्युत्पलकोमलम् । विपत्सु च महाशलशिला संघातककशम् ।। महापुरुषों का चित्त संपत्तियों ( सुखों ) के दिनों में तो विपन्न सत्पुरुषकी सहायताके लिए कमलकी पंखडियों के समान कोमल होजाता तथा विपत्तियों के दिन आनेपर तो पर्वतकी शिलाओं के समान भयंकर विपत्तियों के सहने के लिये कठोर बन जाता है। ( विपत्ति या दुर्व्यसन को छोटा मान वर उपेक्षा न करे। ) व्यसनं मनागपि बाधते ॥ २५३ ॥ छोटासा भी व्यसन ( निर्बलता) मनुष्य के सर्वनाशका कारण बनजाता है। विवरण- जैसे थोडासा भी विष मारक हो जाता है इसीप्रकार जीवनका थोडासा भी बुरा स्वभाव मनुष्य के संपूर्ण जीवनका सर्वनाश करडालता है। जिसमें बहुतसे व्यसन हैं उसके सर्वनाश की तो बात ही मत पूछो । मानव-जीवनरूपी महाहदका समस्त जीवन-रस दुर्व्यसनरूपी नालीके द्वारा बह-बहकर मानव जीवन-हदको गुणों और सुखोंसे रीता कर देता है। Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धन उपार्जनीय है ( अधिक सूत्र ) व्यसनमना बाध्यते । २३१ व्यसनासक्त व्यक्ति विनष्ट होजाता है। 1 विवरण - अर्थ, सामर्थ्य तथा समयका दुरुपयोग करनेवाले निन्दित आचरण व्यसन कहते हैं । व्यसनकी अधीनता स्वीकार कर लेनेवाले दीन-हीन मानवपर उसीके अपनाये व्यसन आपत्तियाँ बुलाकर खडी करदेते हैं । व्यसन आपात - मधुर प्रतीत होनेपर भी अन्तमें मानव जीवनका सबसे कठोर शत्रु सिद्ध होता है । व्यसनको थोडासा नगण्य या मिष्ट समझना मनुष्यकी भयंकर भूल है । छोटासा थोडासा नगण्य भी व्यसन महाभयंकर विनाशकारी विस्फुल्लिंग होता है । ( धन उपार्जनीय है ) अमरवदर्थजातमार्जयेत् ॥ २५४ ॥ मनुष्य अपनेको अमर मानकर जीवनपर्यन्त जीवन सामग्रि योंका अर्जन करता रहे || - विवरण- मनुष्य अर्थोपार्जन के संबंध में अपनेको जरामरण-वर्जित पुरुष मानकर व्यवहार करे। सूत्र कहना चाहता है कि मनुष्य आलस्य, असामर्थ्य या उधारे वैराग्यको अपने ऊपर कभी अधिकार न करने दे । वह यह जाने कि उसका शरीर सेवा अर्थात् अपनेसें उत्तमोत्तम गुणका विकास करके उनका दिव्यानन्द लेनेका एक पवित्र साधन है । सत्यरूपी प्रभु ही इस संसार में मानवका एकमात्र सेव्य है। शरीरको सत्यकी सेवा में लगाये रखकर जीवन साधनोंका अर्जन करना मनुष्यका कभी भी त्याज्य नहीं है । धनकी आसक्ति, उसका लोभ ही त्याज्य है । कर्तव्य है ! धन या उसका मोह मृत्यु तो किसी भी क्षण आखडी होसकती है। जब तक मौतका स्पष्ट निमंत्रण न मिले तब तक मानव के जीवनका एक भी क्षण कर्तव्यहीन न Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसत्राणि धीतना चाहिए । अपने जीवन के एक भी क्षणको व्यर्थ खोना सम्पूर्ण जीवनको व्यर्थ करदेना है। अजरामरवत् प्राज्ञो विद्यामर्थं च चिन्तयेत् ।। गृहीत एव केशेषु मृत्युना धर्ममाचरेत् ॥ (विष्णुशर्मा ) मनुष्य विद्या तथा जीवन-सामग्रीका उपार्जन तो अजर-अमरकी भाँति करे। परन्तु अपने मानवोचित कर्तव्य-पालनमें यह मानकर अत्यन्त शीघ्रता करे कि “ मौतने सिरके बाल पकड लिये है और अब यह मार ही देना चाहती है जो करना हो इसी क्षण कर लिया जाय।" पाठान्तर- अजरामरवदर्थजातमर्जयत् । मनुष्य अपनेको अजर-अमर मानकर उचित उपायोंसे साधनसंग्रह करता चला जाय । ( धनार्जनके प्रयत्न स्थगित मत करो ) अर्थवान् सर्वलोकस्य बहुमतः ।। २५५ ॥ ऐश्वर्य-संपन्न मानव अपनी अर्थशक्तिसे सार्वजनिक सम्मा नका भाजन होजाता है। विवरण-- व्यावहारिक जीवनमें धन ही लोक-स्थितिका निदान है। यदि मनुष्य धनी होकर व्यसनालक्त न हो तो उसका धन गोदुग्धके समान अमृतस्वरूप होजाता है। यदि मनुष्य व्यसनासक्त हो तो वही धन नव. ज्वरमें पिये दूध के समान विषवत् मारक होजाता है। राज्यसंस्थाके पास राज्यैश्वर्य रहना अनिवार्य रूपसे आवश्यक है । राजा ऐश्चर्यशाली होकर ही प्रजापालनमें समर्थ होता है । राजाको राज्यैश्वर्यसंपर बनने में अपना कोई भी सत्यानुमोदित प्रयत्न स्थगित नहीं रखना चाहिये । धनेन बलवान् लोको धनाद् भवति पण्डितः। मनुष्य धनवान् होनेसे बलवान् तथा बुद्धिमान् माना जाने लगता है। Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दरिद्रताके दोष महेन्द्रमप्यर्थ हीनं न बहु मन्यते लोकः ॥ २५६ ॥ संसार अर्थहीन महेन्द्र ( स्वर्ग के सम्राट् ) का भी सम्मान नहीं २३३ करता । विवरण -- ऐश्वर्यहीन राजा सर्वमान्य न होसकनेसे राजा नाम पाने के भी योग्य होजाता है। लोग ऐसे राजाको देय समझने लगते और बादर नहीं करते। उसका पराभव होने लगता है । लोग संसारी व्यवहारों में भी धनहीनकी अवज्ञा किया करते हैं । अथवा संसारके लोग शरीरशक्तिमें इन्द्रतुल्य बली होनेपर भी अर्थ - शक्ति से हीनकी अवज्ञा करते हैं । पाठान्तर --- महेन्द्रमप्यर्थहीनमवमन्यते लोकः । संसार अर्थहीन महेन्द्रका भी अवमान करता है । ( दरिद्रता के दोष ) दारिद्र्यं खलु पुरुषस्य जीवितं मरणम् ॥ २५७ ॥ दरिद्रता जीवित मनुष्यको भी मृतवत् अर्थात् जीवनको मरणके समान व्यर्थ बनादेती है । विवरण - भौतिक देह या राज्यकी रक्षा भौतिक साधगोंसे ही होती है । देह-रक्षा या राज्य- रक्षा के साधनोंका न रहना देह और राज्य के विनाशका कारण बनजाता है । निर्धनताके प्रसंग में यह भी जानना चाहिये कि जहां साधनहीनता दता है वहां एक अन्य प्रकारकी भी घातक दरिद्रता है, जिस दरिद्रता से प्रभावित आढ्यतम लोग भी दूसरोंके जीवनसाधनको अन्याय तथा छल-कपटसे छीन लेने पर उतर आते हैं। धनका बाहुल्य होनेपर भी मनमें समाजद्रोही कुत्सित घनतृष्णाका बने रहना दरिद्रतासे भी बड़ी दरिद्रता है। यह वह दरिद्रता है जिसे हटाना सर्वथा मनुष्यके वशमेंहै । यह दरिद्रता मनुष्यकी स्वाधीन व्याधि है । घनतुष्णा मानवमनको चा Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ चाणक्यसूत्राणि जितना धन होनेपर भी सदा अभावग्रस्त रखती, भप्रामाणिक गर्हित उपायोंसे भी अपनेको बुझवाना चाहती तथा मनुष्यको सदा दुःखी बनाये रहती है । धनतृष्णाके चक्करमें पडकर दुःखी जीवन व्यतीत करना जीव. नके सच्चे मानन्दसे वंचित रहकर जीवित रहते हुए भी मृतवत् होजाना है। जिन धनी लोगोंमें मानवता अर्थात् समाजके प्रति कर्तव्यशीलताने विकास नहीं पाया उनका धन उन्हें मिला हुमा एक अभिशाप है । समा. जके सहयोगसे धनोपार्जन करके उसमें से समाजके अभ्युत्थानमें अर्पण न करनेवाले स्वार्थी लोग प्रभुको लूटनेवाले अकृतज्ञ तस्कर ( नमकहराम ) भृत्यों के समान समाजके व्याधिग्रस्त भाग हैं । पाठान्तर --- दारिद्रयं खलु पुरुषस्य जीवितमरणम् । दरिद्रता जीवनको ही मरण जैसा भकार्यकारी बनाडालनेवाली अवस्था ( अर्थ का महत्व ) विरूपोऽर्थवान् सुरूपः ।। २५८ ॥ अर्थश्रीसे शोभित दानी पुरुष सौन्दर्यहीन होनेपर भी रुचि. कर माना जाने लगता ह ।। विवरण- धन का सदुपयोग करनेवाला ही सच्चा धनवान् या अर्थवान् है । धनका सदुपयोग करनेवाले का दैहिक सौन्दर्य उपेक्षित होकर उसका हार्दिक सौन्दर्य ही ज्ञानीसमाज में आहत होने लगता है । धनवान् दानीका कुरूप भी याचकोंके मनोंको मोहित करनेवाला होजाता है । रूपलावण्य. होन देहवाले दानी धनवानों की कुरूपता उनके धनके सदुपयोगसे इस दृष्टि से दूर होजाती और उन्हें सुरूप बनादती है कि उनके धनसे उपकृत होनेवाले याचकलोग उनके दर्शनोंसे कृतार्थ होते और सदा उनके दर्शन के प्यासे बने रहते हैं। इनकी दानप्रवृत्ति ही उन्हें सुरूप बना देती है । उनके पांचभौतिक देहकी कुरूपता उनकी दानशीलतामें छिपकर दूर होजाती है । Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थका महत्व उनकी अपने धनका सदुपयोग करने की प्रवृत्ति ही उनकी सुरूपता होजाती है । परन्तु ध्यान रहे कि यह सुरूपता दानी धनियों को ही प्राप्त होती है। कृपण विरूपोंको ऐसी गुणार्जित सुरूपता प्राप्त नहीं होती। पाठान्तर-विरूपोऽप्यर्थवान सुरूपः (सुपुरुषः)। भसुन्दर भी अर्थवान् धनार्थियोंके मुखसे सुरूप ( या सुपुरुष ) कहाने लगता है। अदातारमप्यर्थवन्तमर्थिनो न त्यजन्ति ।। २५९ ।। धनार्थी लोग कृपण धनवानको भी अपनी याचनाका पात्र या धनतृष्णाका आखेट बनानेसे नहीं चूकते। विवरण---- याचक लोग उसकी दानशक्तिको उत्तेजित करने के लिये उसके सामने प्रार्थी बने ही रहते हैं। वे धनी होनेसे दानकी संभावना देखकर उससे याचना करते ही चले जाते हैं। धनकी दान, भोग तथा नाश तीन अवस्था हैं । सत्पात्रको दान देना धनको सुरक्षित करने की सर्वोत्तम विधि है। उपार्जितानां वित्तानां त्याग एव हि रक्षणम् । उपार्जित धनों का समाजसेवामें दान ही उनकी रक्षाका पूर्ण प्रवन्ध है । दान दाताका नित्यसाथी बन जाता है। यदि हमारे धन का उपयोग हमारे समाजको सद्गुणी सम्पन्न और सुखी बनाने में हो जायगा तो यह हमारे धनका सर्वोत्तम रक्षाविधान होगा। धनका इससे उत्तम कोई उपयोग संभव नहीं है कि वह अपने प्रतिपालक समाजको आदर्शसमाज बनाने के काम आये । धन्य हैं वे लोग जिनकी उपार्जित धनशक्ति अपने समाज के कल्याणमें नियुक्त होती है।। सत्पात्रमें दान करनेवाला दाता बनना ही धनवान्की बुद्धिमत्ता है । सत्पात्र में दान करनेवाला धनके सदुपयोगसे आत्मप्रसाद लाभ करता है। कृपणका धन अपात्रके हाथों में बलात् पहुंचकर समाजके अकल्याण में लगकर Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ चाणक्यसूत्राण, उस कृपणको समाजका अहित करनेवाला अपराधी तथा दातापनके भाम. प्रसादसे वंचित करके पश्चात्तापग्रस्त दुखी बनाडालता है। विपन्न सरपुरुषकी सहायता. पाठशाला, धर्मशाला, पुल, घाट, प्याऊ, औषधालय मादिके निर्माण तथा संचालन, भूचाल, जलप्रलय, महामारीसे त्राण आदि समाजोपयोगी कार्यों में अपनी सद्पार्जित धनशक्ति व्यय करना " दान" है। दस्यु, चोर, व्यसन, विपत्ति, राष्ट्रविप्लव मादिमें धनका विच्छिन्न होजाना " नाश' है । कुटुम्ब, अतिथि, स्वजन, माश्रित. तथा अपनी जीवनयात्रामें धनका व्यय होना " भोग" कहता है। जिस कृपण मानव में भोग और दानकी बद्धि नहीं होती उसके धनका नाश अनिवार्य है और उसका धन उसके लिये अनर्थ या शिरःपीडा मात्र होता है । अकुलीनोऽपि कुलीनाद्विशिष्टः ।। २६० ।। अपनी धनशक्तिको समाजसेवामें नियुक्त करनेवाला धनी व्यक्ति अकुलीन होने पर भी समाजसेवासे विमुख रहनेवाले कुलीनसे श्रेष्ठ होजाता अर्थात् अधिक सम्मान पाने लगता है। विवरण- बात यह है कि समाजसेवक धनवानोंके पास चाहे वे कुलीन हों या अकुलीन समाजको अपनी धनशक्तिके सदुपयोगसे शक्तिमान् बनाये रखनेवाला भौतिक सामर्थ्य संगृहीत होजाने के कारण समाजमें उनकी प्रतिष्ठा होने लगती और वे समाजकी आशाओं के केन्द्र बनजाते हैं। उनके पास समाजोद्वारक साधनों का संग्रह होजाना ही उनकी प्रतिष्ठाका कारण होता है। किन्तु कुलीन लोग धनी होनेपर भी समाजसेवा न करें तो वे कुलीनतासे पतित तथा समाजकी भौतिक सेवासे मिलनेवाली प्रतिष्ठासे, घंचित होकर समाजद्रोहके कलंकभागी होते हैं । आचारो विनयो विद्या प्रतिष्ठा तार्थदर्शनम् । निष्ठा वृत्तिस्तपो दानं नवधा कुललक्षणम् ॥ Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सफल जीवनकी निर्भयता २३७ सदाचार, विनय, विद्वत्ता, प्रतिष्ठा, सत्संग, भाक्त, जीवनयात्राकी सुकरता, तपस्या तथा दान ये नौ गुण मनुष्य के सरकुल में उत्पन्न होनेके लक्षण हैं। पाठान्तर- अकुलीनोऽप्यर्थवान् कुलीनाद्विशिष्टः । (नीच अपमानसे नहीं डरता) नास्त्यमानभयमनार्यस्य ॥२६१॥ नीचको समाज में अपने अपमान या तिरस्कारका कोई भय नहीं होता। विवरण- जैसे मलिन वस्त्रवाळेको वस्त्र मलिन होजानेका भय नहीं रहता, इसीप्रकार अनार्यतारूपी मलिनताको अपनानेवाले को अपमानका डर नहीं रहता। ( व्यवहारकुशलकी निर्भयता ) न चेतनवतां वृत्तिभयम् ॥ २६२ ॥ व्यवहारकुशल चतुर लोगोंको जीविका न मिलनेका कभी भय नहीं होता। विवरण- उनको व्यवहारकुशलता, प्रत्युस्ससमतिता, अनागतविधानृत्य आदि गुण ही उनकी जीविकाके प्रबल आश्वासन होते हैं। ( जितेन्द्रियको निर्भयता ) न जितेन्द्रियाणां विषयभयम् ।। २६३ ।। जितेन्द्रिय व्यक्तियोको विषयके सान्निध्यम पतित होने की कभी शंका नहीं होती। विवरण- विषयोंके सान्निध्यमें पतनकी शंका उन्हीं लोगों को होती है नो अजितेन्द्रिय होते हैं। ( सफल जीवन की निर्भयता ) न कृताथानां मरणभयम् ॥ २६४॥ संसारका रहस्य समझकर कर्तव्यपालन करने के द्वारा अपना जीवन सार्थक करलेनेवालोंको मृत्युभय नहीं होता। Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्य सूत्राणि विवरण - मृत्युका भय उन्हीं लोगोंको होता है जो अपने मानवोचित कर्तव्यपालन से अपना जीवन सफल नहीं करपाते । अपने मानवोचित कर्तव्यका पालन करनेवाले लोग प्रत्येक क्षण कर्तव्यपालनकी सफलता के कारण विजयी जीवन बितानेवाले मृत्युञ्जयी बनजाते हैं । यही उनका अपने जीवनको सार्थक करना कहाता है । अपने जीवनको सार्थक करना ही अमर बनजाना है । जीवनकी जो व्यर्थता है वही तो मृत्युभीति है । सत्य में सम्मिलित जीवन ही सत्यस्वरूप होता है। इसके विपरीत असत्यको दासता करना जीवित रहते हुए भी अमानवोचित जीवन बिताना रूपी मृतावस्था है । असत्यविरोधरूपी अत्याज्य, अनिवार्य कर्तव्यपालन करते हुए कर्तव्यशील व्यक्तिकी सङ्घर्ष वरण की हुई मृत्यु भी उसे कर्तव्यपालनका आनन्द देनेवाली होती है। उसके विपरीत देहका भोगार्थ दुरुपयोग करनेवाले व्यक्तिकी मृत्यु उसे भोगसुख से वंचित करनेवाली विभीषिका होती है । ( साधुकी उदार दृष्टि ) कस्यचिदर्थं स्वमिव मन्यते साधुः || २६५ ॥ २३८ महामांत साधु लांग पराय धनाका उनके पास रक्खी हुई अपने धन जैसी सत्यकी धरोहर मानते हैं । अर्थात् वे पराये धनोंको भी अपने धनोंके समान ही सदुपयोग में आता देखना चाहते हैं 1 विवरण - व्यक्तिगत धनाध्यक्ष बननेकी भावना समाजमें स्वार्थबुद्विका प्रचार करनेवाली समाजद्रोही भावना है । व्यक्तिगत धनाध्यक्ष तारूपी दूषित भावनाको त्यागकर समाज के प्रत्येक सदस्यकी भौतिक सम्पत्तिका सत्यके अधिकारों में आजाना ही, सार्वजनिक कल्याणको अपना कल्याण समझनेवाली सहानुभूति, समाजबन्धन या शान्तिदायक सामाजिक आदर्श है । यही साधुओंके जीवनका आदर्श हैं। साधुलोगोंके इस आदर्श को समाज संगठन में सुप्रतिष्ठित करदेना ही राजधर्म है । इसीको 'महाजनो येन गतः स पन्थाः' कहा जाता है । यही राजचरित्र आदर्शसमाजकी रचना करनेवाला समाजबन्धन है । साधुलोग किसीके धनको पराया मानकर उसका Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परधनके संबंध श्रेष्ठ नीति २३९ कभी लोम नहीं करते । वे संसारके धनोंको दूसरों के पास रक्खी हुई सत्यकी धरोहर मानकर उसकी भोरसे निश्चिन्त तथा निरीह बनेरहते हैं । असाधु लोग पराये दुग्योको सत्यका न मानकर अपना भोग्य माननेकी भूलसे भटक जाते तथा उनके अपहरणमें प्रवृत्त होजाते हैं। अथवा- साधुलोग परकीय धनों को अपनासाही समझते और उन्हें भी अपने ही धनके समान विनाश, अपहरण मादिसे बचाते हैं। साधु लोगों में अपने परायेका भेद नहीं होता। अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम् । उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् ॥ मेरे तेरेकी भावना लघुचेताओंका काम है । उदारचरितोंकी दृष्टि में तो यह सारी ही वसुन्धरा उनका कुटुम्ब है । "आत्मवत् सर्वभूतेषु यः पश्यति स पण्डितः" जो सब भूतोंको अपनेपनकी भावनासे देखकर उनमें ऐकात्म्यका दर्शन करता है वही पण्डित है। अथवा- साधुपुरुष दूसरोंके धनोंकी भी सरक्षा अपने धनके समान सत्यार्पणमें ही समझते हैं। ( परधनके सम्बन्धमें श्रेष्ठ नीति ) परविभवग्वादरो न कर्तव्यः ॥२६६ ॥ दूसरेके धनोंको लोभनीय नहीं मानना चाहिये। विवरण- व्यक्तिगतधनतृष्णा ही दूसरेके धनमें लोभ उत्पन्न करने वाली सामाजिक न्याधि है । यदि परधनोंको लोभनीय माना जायगा तो एनके अपहरणकी इच्छा होना अनिवार्य होजायगा और तब मनुष्यका मनुष्यस्व ही जाता रहेगा । जो मनुष्य अपने न्यायार्जित धनमें अलंबुद्धि रखता है वह परधनोंको आदर अर्थात् महत्व या लोभनीय दृष्टि से कभी नहीं दखता। दूसरेके धनका लोभ न करना ही उसका निरादर या उपेक्षा है। लोभीका चोर होना अनिवार्य है । लोभी तो हो और चोर न हो यह असम्भव है। पाठान्तर- परविभवेष्वादरो नैव कर्तव्यः । Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -२४० चाणक्यसूत्राणि __ (परधनलोलुपतासे हानि ) परविभवेष्वादरोपि विनाशमूलम् ।। २६७ ॥ दूसरोंके धनोंको लोभनीय दृष्टि से देखना भी मानवके सामा. जिक वन्धनका घातक तथा सर्वनाशका कारण होता है । विवरण- मनुष्य धनलोभसे भ्रमिष्ठ होकर अपनी समाजकल्याणकारी कर्तव्यबुद्धि या कार्याकार्यविवेकको खोबैठता है । परविभवोंका लोभ समाजमें अशान्ति, पाप तथा विवाद पैदा करता है। पाठान्तर- परविभवेष्वादरो विनाशमूलम् । (परधनकी अग्राह्यता) पलालमपि परद्रव्यं न हर्तव्यम् ॥ २६८।। किसीका एक तिनका जितना क्षुद्रतम धनतक नहीं चुराना चाहिये। विधरण- अनधिकारपूर्वक किसीकी क्षुद्रतम वस्तु लेना भी अपहरण या चोरी है। चोरीके अपराधकी गुरुता या लघुताका अपहृत वस्तुकी गुरुता लघुता के साथ कोई संबन्ध नहीं है । चोरी किसी कर्मका नाम नहीं है । चोरी तो भावनाका नाम है । चोरीकी भावना ही चोरी है । चोर क्षुद्रतम वस्तुको चोरी करके अपनी इस मनोवृत्तिका परिचय देता है कि उसका मन किसी बडो वस्तुको चोरीके अवसर ढूंढ रहा है। समाज में चोरी की भावनाको मिटा डालना ही समाजकल्याणकारिणी सच्ची समाजसेवा है। राजा या राज्याधिकारी लोग स्वयं इस आदर्शको अपनाकर ही अपने राजचरिअके आदर्शको समाज में सुप्रतिष्ठित कर सकते हैं। परद्रव्यापहरणमात्मद्रव्यनाशहेतुः ॥ २६९ ॥ पराये द्रव्यका अपहरण अपने द्रव्यके विनाशका कारण बन जाता है। Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधनों के उपयोग पहचानो विवरण- स्वयं चोरी करना समाज में चोरीका दुर्दष्टान्त उपस्थित करके चौर्यवृत्तिको प्रोत्साहित करना होता है । चोर लोग अपनी इस कुप्रवृत्तिसे स्वयं भी चोरी के आखेट बननेका द्वार खोल देते हैं। चोरी करना अपने प्राण को भी विपद्मस्त करनेका कारण बनजाता है । २४१ पाठान्तर- परद्रव्यापहरणमात्मद्रव्यविनाशहेतुः । ( चोरी मनुष्यका सर्वाधिक विनाश ) न चौर्यात् परं मृत्युपाशः ॥ २७० ॥ मृत्युका पाश चोरीके पाशसे अधिक दुःखदायी नहीं होता । विवरण - चोरी करना अपने मनुष्यतारूपी स्वरूपकी हत्या करके नैतिक मौत से मरते रहना है । चोरीसे मनुष्यकी मनुष्यता, धन, यश तथा शरीर सभी संकटापन्न होजाते हैं । ( समाजमें नैतिकता के आदर्शको रक्षाके लिये अल्पसाधनों से जीवन बिताने का व्रत को ) -- यवागूरपि प्राणधारणं करोति लोके ।। २७९ ।। संसार में शरीररक्षा के लिये तो यवागू भी पर्याप्त है । विवरण - चोरी, उत्कोच, अपहरण, लुण्ठन, प्रतारणा, द्यूत ( जुआ ) आदि लोभज अमानवोचित उपायोंसे अनधिकार पड्स भोजन तथा नानाविश्व ऐश्वर्य पाकर नैतिक मृत्युको अपना लेनेसे तो यही अच्छा है कि राज्या धिकारी लोग सत्योपार्जित लप्सीसे जीवन धारण करके अमरत्व पाकर आत्मकल्याण करें और समाज के सामने नैतिकताका आदर्श सुप्रतिष्ठित करें । ( साधनों के उपयोगका उचित समय पहचानो ) न मृतस्यौषधं प्रयोजनम् ।। २७२ ।। मरचुकने के पश्चात् औषधप्रयोगका कर्तव्य समाप्त हो जाता है । १६ ( चाणक्य . ) Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि विवरण- मनुष्यकी कर्तव्यबुद्धि हो अपने समाजको जीवित रखनेवाली महौषध है | मनुष्यजीवनका एक भी क्षण समाजकी सच्ची सेवा करने के कर्तव्य से हीन नहीं रहना चाहिये | मनुष्यका संपूर्ण जीवन कर्तव्यमय है । इस जीवनव्यापी कर्तव्यको छोडकर मानवजीवन में नैष्कर्म्य स्थितिको अपनानेका कोई अवकाश नहीं है । जीवनकालमें मनमें ऐसी भावनाको स्थान देना कि " हमारा कर्तव्य समाप्त होचुका अकालमृत्यु नामक अमानवीय स्थितिको अपनाना है । अपने जीवितकालको कर्तव्यद्दीन स्थितिमें बिताना अज्ञानकी मौत मरजाना है । जब तक जीवन है तब तक समाज सेवारूपी ज्ञानमयी स्थितिको अपनायें रहना ही जीवन कहलानेवाली सच्ची स्थिति है । इस स्थितिको त्यागना ही मृत्यु है । अथवा- मृतके लिये औषधको आवश्यकता नहीं है । २४२ " औषध तो जीवनकालको आवश्यकता है । किसी भी साधनको काममैं लाने में प्रमाद न करना चाहिये । साधनके उपयोगके उचित समयको बीतने नहीं देना चाहिये । ' का वर्षा जिमि कृषी सुखाने ' पदार्थके ठीक उपयोगके समय ही उससे काम लेलेना चाहिये । इस उपयोगकालको टालना या टलने देना नहीं चाहिये । औषध रोगके लिये है मृत्युके लिये नहीं । जब औषधसे रोग न जानेपर भी औषध की जाती है तब उसका उद्देश्य कर्तव्य - पालनका सन्तोष होता है । पाठान्तर - न कालेन मृतस्योपधं प्रयोजनम् । ( कालका अर्थ भी मृत्यु ही है ) पूर्णायु भोगकर प्राकृतिक मृत्यु पाने.. वालेके लिये चिकित्साका प्रयोजन नहीं है । प्राप्तकालो न जीवति ' । " जब तक श्वास है तब तक मृत्युसे संग्राम करना कर्तव्य है । मरनेका समय आगया है ऐसी मनमानी कल्पना करके निश्चेष्ट बैठे रहना कर्तव्य हीनता है । Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्तव्य में समयका महत्व ( प्रभुत्वरक्षा राज्यसंस्थाका सार्वदिक कर्तव्य ) समकाले स्वयमपि प्रभुत्वस्य प्रयोजनं भवति ॥ २७३ ॥ साधारणकालमें अपना प्रभुत्व बनाये रखना ही स्वयं कर्त व्यका रूप लेकर उपस्थित रहा करता है । २४३ विवरण - संधि, विग्रह आदि जटिल प्रश्नोंके उपस्थित न होनेपर साधारणकाल में संसार में अपनी प्रभुताको जीवित रखते रहना भी एक महत्वपूर्ण राष्ट्रीय प्रयोजन होता है । राजालोग विषमकालका अभाव देखकर राज्यश्री के प्रदर्शन तथा वृद्धि में प्रमाद न करें । राजाके प्रभुत्व पर चोट न मानेका काळ साधारणकाल कहाता है। घोट ही आक्रान्त मनुष्यको चोट बचाकर भात्मरक्षा करनेका कर्तव्य सौंप देती है । परन्तु राजशक्तिसंपन्न लोग अपने पर बाह्य माक्रमण न होने की अवस्था में अपने आपको शक्तिसंग्रहकी आवश्यकतासे दीन समझनेकी भ्रान्ति न करें | अपने प्रभुत्वको दृढ बनाये रखने में प्रमाद करना ही आक्रमक शत्रुओंको पैदा करनेवाला होता है । ( कर्तव्यमें समयका महत्व ) ( अधिक सूत्र ) स्वकाले स्वल्पमपि प्रभूतत्वस्य प्रयोजनं भवति । जैसे व्याधि उपस्थित होनेसे पहले स्वास्थ्यरक्षाका साधारण नियम भी व्याधिनिरोधक होता है । परन्तु व्याधि होजानेपर स्वास्थ्यरक्षा के साधारण निमयका उल्लंघन होते ही व्याधि की समस्या जटिल होजाती है । इसी प्रकार साधारण समयका प्रभुत्वरक्षाका साधारण कर्तव्य उपेक्षित होजाय तो उसका परिणाम राज्यसंस्था के लिये प्रभूत ( विराट् ) संकट बुलानेवाला बनजाता है । विवरण- उचित समयपर उपयोग में लाई हुई घोडी वस्तु भी प्रचुर वस्तुकी रक्षा या उत्पत्तिकी साधक बन जाती है । कर्तव्यका उचित काल बीत जानेपर तो प्रचुरकी प्रचुरता भी निष्फल होजाती है । कर्तव्य के संबंध में 23 Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ चाणक्यसूत्राणि योग्य कालको पहचानने का बहुत बड़ा महत्व है । कर्तव्यका काल कर्तव्यका महत्वपूर्ण अंग है। कर्तव्यका योग्य काल बीत जानेपर कर्तव्य लूला, लंगडा भंगहीन होकर निष्फल होजाता है । भूखेके लिए थोडा भोजन भी हितकारी होता है क्षुधाहीनको मिली भोजनसामग्री भी वृथा होजाती है । अथवा- व्याधि सुचिकित्स्य हो तो औषधको बूंद भी काम करजाती है और मचिकित्स्य होचुकनेपर दिव्य औषधसे भी कुछ लाभ नहीं होता। (नीचके ज्ञान का नीच उपयोग) नीचस्य विद्याः पापकर्मणि योजयन्ति ।। २७४।। नीचोंकी (चतुराइयां) या पदार्थविज्ञान आदि कौशल उनके समस्त बुद्धिवैभव ( उन्हें विनीत, सुजन, उपकारक तथा धार्मिक न बनाकर ) उन्हें चोरी, कपट, माया, जिम्ह, अनृत, परवंचन, लुण्ठन, अनधिकारभोग आदि पापकर्मों में लगा देता है। विवरण-नीच लोगों में सुविधाजनित फल नहीं पाया जाता । मनुध्यको पापसे न रोककर पाप करनेकी कला सिखादेनेवाली विद्या विद्या न होकर अविद्या कहाती है। मनुष्य शुकविद्याके अध्ययनसे पापसे नहीं बच पाता । किन्तु शिष्टों के वातावरणका अंग बनकर उनसे शिष्टाचार, सौजन्य, विनय तथा कर्तव्याकर्तव्य विचार सीखकर ही पापसे बचकर गौरव पा सकता है । भागवतमें कहा है सरस्वती ज्ञानखले यथाऽसती। विद्वान् खलमें उसका ज्ञान उसकी सरस्वतीको दुष्टा बना लेता है। पाठान्तर---- नीचस्य विद्या पापकर्मणा योजयति । नीचकी विद्या उसे छल, कपट, चोरी आदि पापकोंमें सान देती है। पयःपानमपि विषवर्धनं भुजंगस्य नामृतं स्यात् ।।२७५॥ जैसे सांपको दूध पिलाना उसका विष बढाना होता है अमृ. Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवनमें अन्नका स्थान २४५ तोत्पादक नहीं, इसी प्रकार नीचोंका विद्यालाभ उनकी नीच प्रवृत्तियों को ही अनेकगुणा कर देनेवाला होजाता है। विवरण- नीच लोग विद्यालाभसे सुधरते नहीं, प्रत्युत उससे उनकी नीचताको बढावा, सहकार तथा प्रोत्साहन मिल जाता है। मनुष्यमें मान वोचित कर्तव्यनिष्ठा पैदा करना रूपी विद्यालाभका जो महत्वपूर्ण उद्देश्य है वह नीचोंको उनकी नीचतारूपी अयोग्यताके कारण अप्राप्त रहता है । नीचोंके पास विद्या पहुंचाना उनके हाथ में छुरा पकडादेना होता है । (चरित्र का जीवनव्यापी प्रभाव ) ( अधिक सूत्र ) ऐहिकामुत्रिकं वृत्तम् । मानवका चरित्र उसके वर्तमान और भावी दोनों कालोपर अपना अमिट प्रभाव रखता है। विवरण- मानवका दुष्ट चरित्र नमक और अपयश दिलाता है। उसका सुचरित उसे दोनों कालों में स्वर्ग और कीर्ति देता है । इस दृष्टि से मुच. रित्र का संग्रह और रक्षा मनुष्यका परम कर्तव्य है । मानवजीवनके माख. दुःख उसके चरित्र के भले-बुरे होनेपर निर्भर करते हैं । पाठान्तर --- ऐहिकामुष्मिक वित्तम् । सद्भावोपार्जित तथा सद्भावोपार्जित धन वर्तमान तथा भावी दोनों में सुखदुःखदायी होता है। (जीवन में अन्नका महत्वपूर्ण स्थान ) नहि धान्यसमो ह्यर्थः ॥२७६।। संसारमें अन्न जैसा जीवनोपयोगी काई पदार्थ नहीं है । विवरण- जीवनधारक पदार्थों में मन्नका सबसे मुख्य स्थान है। भन्न स्वयं ही अर्थोपार्जनका लक्ष्य है । इसीसे अन्न संसारका सर्वश्रेष्ठ पदार्थ है। " अन्नं वै प्राणिनां प्राणाः" मन ही प्राणियों के प्राण हैं । समस्त भूमण्डल के एकत्रित रत्नादि पदार्थ एक भी मनुष्यकी भूख नहीं मिटासकते । Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि I क्षुधाकी निवृत्ति केवल अन्नसे होती है । इसलिये राजालोग अपने राष्ट्रको धान्यसंपञ्च बनाये रखनेमें कोई बात उठा न रक्खें । कूप, पोखर, कुल्या, नाल, बांध आदि रूपों में सिंचनका प्रबन्ध करके राष्ट्रमें अन्नोत्पादन पर पूरा बल लगायें । २४६ ( राज्यसंस्थाका सबसे बडा शत्रु ) न क्षुधासमः शत्रुः ॥ २७७ ॥ राज्यका अन्नाभावजनित दुर्भिक्ष या अपरितृप्त सुधाके समान कोई शत्रु नहीं है 1 भुक्षितः किं न करोति पापम् । भूखा क्या पाप नहीं करता के अनुसार अन्न न पासकनेवाली जनता पारस्परिक लुंठन आदि अशान्ति उत्पन्न होना अवश्यम्भावी होजाता है। इसलिए राजालोग राज्य में क्षुधाका हाहाकार न होने देनेके लिये सह उपायोंका अबलम्बन करें। शत्रु तो धनादिका ही अपहरण करता है, क्षुधा तो शरीर, इन्द्रिय तथा प्राणतक हरण कर लेती है । इसलिए राजाको क्षुन्निवृत्ति के लिए अन्नोत्पनिसें प्रजाकी भरपूर सहायता करनी चाहिये । महाभारत में कहा है वासुदेव जरा कष्टं कष्टं धनविपर्ययः । पुत्रशोकस्ततः कष्टं कष्टात् कष्टतरं क्षुधा ॥ वृद्धावस्था भी कष्ट है, धननाश भी कष्ट है, पुत्रशोक भी कए है परन्तु क्षुधा सब कष्टोंसे बड़ा कष्ट है । ( निकम्मोंका भूखों मरना निश्चित ) अकृतेर्नियता क्षुत् ॥ २७८ ॥ अकर्मण्य निकम्मे आलसी मानवका भूखों मरना अवश्यंभावी होता है । Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्द्रिय दुरुपयोग के दुष्परिणाम विवरण - कर्मप्रवण लोग अपने पुरुषार्थसे धनधान्यादि पाकर अपनी और दूसरोंकी क्षुधा मिटा देते हैं। किसी राष्ट्रमें लोगोंका भूर्खो मरना उसके लिये महा अभिशाप है । इसलिए राजा लोग भूख से मरनेका प्रसंग न माने देनेके लिये बेकारीकी उत्पत्ति और वृद्धि न होने दें तथा उसे बल. पूर्वक रोकें । धनी या निर्धन किसीको भी कर्मद्दीन (खाली) रहना वैधानिक 1 अपराध माना जाना चाहिये और समस्त प्रजाको जीविकासे संपन्न बनाकर रखना चाहिये । श्रम सबके ही लिये अपरिहार्य होना चाहिये । जब तक मनुष्य आलस्य त्यागकर सत्यानुमोदित जीवनधारण के लिये आवश्यक उद्योग नहीं करेगा तब तक क्षुबाधा नहीं हटेगी । पाठान्तर--- अकृतेर्नियता क्षुद्वाधा । अकर्मण्यको शुधाकी बाधा अनिवार्य है । ( क्षुधाकी विकरालता ) नास्त्यभयं क्षुधितस्य ।। २७९ ।। पीडितके लिये अभक्ष्य कुछ नहीं रहता । विवरण- बुभुक्षित लोग घास, पात, वृक्षोंकी छाल, मिट्टी, नरमांस आदि अमानवोचित आहार करनेपर उतर आते हैं । 4 अधा भूख संसारका सबसे बड़ा कष्ट है । राजा लोग करता इस डरसे अपने देशको अन्नसम्पन्न बनाये रखें । 1 २४७ कष्टात् कष्टतरं भूखा क्या नहीं 6 ( इन्द्रियोंके दुरुपयोगका दुष्परिणाम इन्द्रियाणि जरावशे कुर्वन्ति ॥ २८० ॥ इन्द्रियोंका मर्यादाहीन उपयोग मनुष्यको समय से पहले वार्धक्य के अधीन करदेता है । विवरण - इन्द्रियाधीनता ही वार्धक्य है । इन्द्रियोंपर प्रभुता मनुव्यका अक्षय यौवन है | ज्ञानी मानवों के जीवनों में वार्धक्य नामसे दूषित Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि अनुरसाइ, नपुंसकता या असत्यको दासता जैसी जीवन्मृत अवस्था नहीं रहा करती । ज्ञानीका यौवन उसके धर्मकी विशेषता न होकर उसके मनका धर्म होता है | ज्ञानोत्लाहरूपिणी कर्मवीरता ही ज्ञानीका अटल रूपयौवन होता है । इन्द्रियां जीवनानुकूल तत्वका संग्रह करने तथा जीवनविरोधी तत्वों से अलग रहने के लिये बनी हैं। मनुष्य की जीवनेच्छा इन्द्रियोंके रूपमें व्यक्त हुई है । जीवनधारणमें ही इन्द्रियों का सदुपयोग होता है । अवैध भोग इन्द्रियोंका दुरुपयोग है। अवैध भोग ही मनुष्यको अकालवार्धक्य के अधीन कर देता है। मनुष्य को अपनी इन्द्रियों पर पूर्ण संयम रखकर जीवनपर विजय पाकर रहना चाहिए | इस विराट् प्रकृतिमेंसे जो थोडीसी प्रकृति मनुष्यको प्रकृतिका योग्य भबन्धक और विजेता बनकर आत्मप्रसाद लाभ करने के लिये मिली है इन्द्रियां भी उसी प्रकृतिका एक भाग हैं। दो प्रकार के मनुष्य होते हैं एक वे जो अपनी प्रकृतिपर अपना वश रखते हैं । दूसरे के जो अपनी प्रकृतिकी अधीनता में उसके दास बनकर रहते हैं । या तो 'मनुष्य अपनी शक्तियों का स्वामी बनकर रहे या कंपनी शक्तियोंकी दासता स्वीकार करके रहे । संसार में जितने महापुरुष आते हैं ये सब अपनी प्रकृतिपर अप पूर्णाधिपत्य रखते हैं । वे जैसा चाहते हैं उनकी प्रकृतिको उन्हींकी इच्छाकी अनुचारिणी बनकर रहना पडता है । संसारमें जितने महत्वहीन लोग होत हैं वे सब अपनी शक्तियोंके दास बनकर रहते हैं । इन्द्रियो भी मनुष्यकी शक्ति हैं । वे यदि उच्छृंखल होकर रहें तो उनका दाम मानव अपनेको वार्धक्यको सौंपकर दुःख भोगता है । २४८ जीवेम शरदः शतम् । अदीनाः स्याम शरदः शतम् ॥ हम सौ वर्ष जिये और सौ वर्ष हमें अपने जीवन में दूसरोंसे व्यक्तिगत सेवा लेनी न पडेका महाघोष इन्द्रियोंपर पूर्ण विजय पाये रहने से ही पूर्ण होना संभव है । इसलिए जो लोग स्वस्थ कर्मक्षम जीवन पाना चाहें, के इन्द्रियविजयी होकर रहें । Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोभीको प्रभु बनाने से हानि ( प्रभु बनाने योग्य ) सानुक्रोशं भर्तारमाजीवेत् ॥ २८१ ॥ जो प्रभु अपने सेवककी मनुष्यताका सम्मान अपनी मनुष्य. ताके समान ही करता हो वही सेव्य बनाने योग्य होता है । २४९ विवरण - निर्दय प्रभुके आश्रय से जीविका संदिग्ध होती तथा भवनतिकी संभावना बनी रहती है। यदि किसी कारण सदय प्रभुसे धन न भी मिलसके तो भी दया तो सुलभ रहती है । पंच त्वानुगमिष्यन्ति यत्र यत्र गमिष्यसि । मित्राण्यमित्रा मध्यस्था उपजीव्योपजीविन: । ( विदुर ) मनुष्य के साथ मित्र, अमित्र, मध्यस्थ, उपजीव्य तथा उपजीवक ये पांच अवश्य लगे रहते हैं । उसे अपने जीवननिर्वाह के लिये कुछ लोगों का सहयोग लेना ही पड़ता है । सेवितव्यो महावृक्षः कलच्छायासमन्वितः । यदि दैवात् फलं नास्ति छाया केन निवार्यते ॥ फळ तथा छाया दोनोंसे सम्पन्न महानुक्षकी सेवा करनी चाहिये । दैववश फल न भी मिल तो भी छाया तो कहीं नहीं चली जाती । ( लोभीको प्रभु बनाने से हानि ) लुब्धसेवी पावकेच्छया खद्योतं धमति ॥ २८२ ॥ सहानुभूतिहीन प्रभुका सेवक अग्निकी इच्छा से खद्यतमे फूँक मारकर उससे आग जलाना ( अर्थात् बैलसे दूध दुहना ) चाहता है । विवरण- जैसे खद्योत सेवी मानव वह्निलाभ से वंचित रहकर अपने ही भ्रम से विफलमनोरथ होता है, इसी प्रकार लुब्धसेवी मानव अपने पुरुषपररीक्षादोपसे अपने ही भ्रमसे विफलमनोरथ होता है। Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि नीचाश्रयो न कर्तव्यः कर्तव्यो महदाश्रयः । हीनका आश्रय न करके शक्तिसम्पन्न दयालुका माश्रय करना चाहिये। उपासना चन्महतामुपासना। यदि किसीका आश्रय लेना ही पडे तो विशाल हृदयनालेका ही लेने में कल्याण है। (आश्रयणीय प्रभुके गुण ) विशेषज्ञं स्वामिनमाश्रयेत् ।। २८३ ॥ गुणों का आदर करनेवाले, गुणीको पहचाननेवाल स्वानीकी ही सेवा करना स्वीकार करे । विवरण- गुणो सदा गुणादरी न्यनिको ढुंढा करता है । गुणादरी स्वामीका माश्रय चाहनेवाले का स्वयं गुमी होना अनिवार्य होता है । गुणादरी स्वामीको सेवामें गुणीके मनोरथका पूर्ण होना निश्चित होता है । पुरुषस्य मैथुनं जरा ॥ २८४॥ स्त्रीणाममैथुनं जरा ॥२८५॥ ( असमान विवाहसे गाहर यजीवन की दुखदता । न नीचोत्तमयोविवाहः ।। २८६ ।। नीच और उत्तम वैवाहिक सम्बन्ध नहीं होने चाहिये । विवरण ---- विवाहप्रथाका उद्देश्य समाजमें शान्तिकी शृंखल! बनाए खना है। विवाहप्रथा न रहे तो समाज निर्बाध व्यभिचारका क्षेत्र बन लाता है । मनुष्यकी वैवाहिक प्रवृत्तिमें संयमका सनिवेश करके समाज. कल्याण करना ही मनुष्याताका आदर्श है। इस मादर्शको नष्ट न होने देने तथा समाजको असंयमके मार्गपर न चलने देने के लिये ही विवाहप्रथाके रूप में सामाजिक शासन प्रचलित हुआ है । प्रत्येक सामाजिक व्यवहारमें पात्रापात्र योग्यायोग्यका विचार करना मनुष्य का कर्तव्य है । वैवाहिक संबन्धके Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असमान विवाहकी दुखदता २५१ लिये उच्च कुल छांटना भावश्यक है। आदर्शप्रेमी, संयमी, जितेन्द्रिय लोग ही समाज में उच्च मानने योग्य हैं । मादर्शप्रियता संयम तथा जिते. न्द्रियता ही उच्चकुलका लक्षण है । भादर्शच्युत स्वेच्छाचारी लोग नीचकुल समझे जाने चाहिये । भादर्शच्युति तथा स्वेच्छाचारिता ही कुलोंकी निम्नगामिता है । उच्चता मनुष्यका स्वभाव तथा पतन उसकी अस्वाभाविक स्थिति है। इसलिए गार्हस्थ्य जीवन में प्रवेश करते समय वैवाहिक संबन्धके इस कल्याणकारी संबंधको ध्यानमें रखकर ही गाईस्थ्य जीवन में प्रवेश करना चाहिये। ___ यदि गाईस्थ्य धर्मको कलंकित करनेवाले पतित थानों के साथ संबंध स्थापित न करने की सावधानी नहीं बरती जायगी तो समाजका पतित होजाना अनिवार्य होजायगा । समाजमें मनुष्यतारूपी उच्च कुलको प्राधान्य तथा पूज्य स्थान दिय रहना ही विवाहका भादर्श है । इस भादर्शको समा. जक ऊपर शासन के रूपमें सुप्रतिष्ठित रखकर इसे नीचतापंशोधक दगड के रूप में क्रियाशील बनाये रखना हो समाजपति विज्ञ लोगों का ध्येय होना साहिये । अपरिणत बुद्धि विवादार्थी लोगों के निर्णयों का रूपज या धनज मोहसे विपथगामी हो जाना अपरिहार्य है । इस दृष्टि से पारिवारिक जीवनको विशुद्ध रखने के लिये वैवाहिक संबंध में उच्चताको रक्षाका सुप्रबन्ध रखना विज अभिभावकों का उत्तरदायित्व है । 'गृहस्थः सदृशी भार्यां विन्देत' गृहस्थ होने का इच्छुक आयु, रूप, गण, जाति, धर्म तथा शील में समान पत्नीको प्राक्ष करे । विवाहका अर्थ विशेष प्रकारका सयमी गाईस्थ्यधर्म स्वीकार करना है । समाजानुमोदित वैध पति तथा वैध पत्नी होना तथा देवल समाजको अपना योग्य प्रतिनिधि देनेकी भावनासे इस धर्मको अपनाना हो गाईस्थ्य जीवन की विशेषता है। , शिष्टाचार तथा शास्त्रकी अनुसारिता ही पति-पत्नियोंकी वैधता मानी जाती है । जो आयु यश तथा पुण्य सुरक्षित रखना और समाजको सदगुणी सन्तान देना चाहें वे समाजानुमोदित दाम्पत्य संबंधमें सीमित रहें, अपने गृहस्थ जीवनको त्याग तथा संयमके अभ्यासकी तपोभूमि बनाकर उसे Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ चाणक्यसूत्राणि भोगका कुअवसर न रहने देकर परमार्थलाभका समवसर बना डाले। मनुष्य गृहस्थधर्मको केवल सृष्टिपरम्परा चलाने मात्र के लिये स्वीकार करें। "प्रजायै गृहमधिनाम् " के अनुसार मनुष्य केवल समाजको श्रेष्ठ सदस्य देने के लिये गार्हस्थ्य धर्म स्वीकार करे । ऐसा करनेसे जहां मनुष्यको स्वास्थ्य, बुद्धिलाभ तथा मायुरक्षा होती है वहा समाजको स्वस्थ बलवान् संयमी सन्तान देनेका सन्तोष भी प्राप्त होता है। गृही लोग संयमी जीवन यापन करें, घरोंको तपोवन तथा सन्तानको सुचरित्रकी शिक्षा देनेवाला विश्वविद्यालय बनाकर रक्खें तो वे स्वयं भी वीर्यवान् मेधावी शक्तिमान तथा भायुम्मान हों और उनकी सन्तति भी ऐसी ही हो। अगम्यागमनादायर्यशःपुण्यानि क्षीयन्ते ।। २८७ ।। ( मनुष्यका सबसे बड़ा वरी) नास्त्यहंकारसमः शत्रुः ।। २८८ ॥ अहंकारसे बड़ा कोई शत्रु नहीं है । विवरण -- यहां जिस अहंकार को शत्रु कहा गया है वह भौतिक साम. यंका दंभ है । उसे ही यहां अहंकार के नामसे निन्दित करके उसे शत्रु कहा गया है । यों तो यह सारा ही संसार अहम्य है । दाम्भिकलोग भौतिक सामय के उपासक होते हैं। भौतिक सामथ्य की दासता ही धनबल, जनबल, देहबल रूपी आसुरिकता है। अपने से अधिक बलशालीका तो दास बन जाना तथा अपनेसे निबलपर आक्रमण करना ही अहंकार या असुर . स्वभाव है। देहात्मबुद्धि ( अर्थात् भरने पांचभौतिक देह ) को ही अपन। स्वरूप समझना अहंकारको परिभाषा है। मनुष्यकी इन्द्रियलाल साका ही नामान्तर देहात्मबुद्धि है। यह भावना ही मनुष्यकी भूल या अज्ञान है कि " हम भोगनेवाले हैं तथा रूप, रस आदि विषय हमारे योग्य हैं, हम इस संसारमें इन्हें भोगने के लिये आये हैं। इन्हें भोगनेके अतिरिक्त हमारे पास और कोई काम नहीं है।' इन्द्रियोंमें भोगप्रवृत्ति स्वाभाविक है । इन्द्रियोंकी Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनुष्यका सबसे बडा वैरी २५३ भोगप्रवृत्तिको अपना स्वभाव मानलेना अज्ञानरूपी अहंकार है । अज्ञानी मनुष्य के पास आत्मतृप्ति नामकी कोई अवस्था नहीं होती। वह संपूर्ण जगत्को अपने भोग्य रूपमें देखना चाहता है। जगत्को अपने भोग्य रूपमें देखना और जगत्के पदार्थोंको देख-देखकर अपने मनमें कामाग्नि सुलगा लेना ही बन्धन है। यही कामना है। यही दुःख है। कामाग्नि रूपरमादि विषयों की माहुतियोंसे नहीं बुझती । कामाग्निका बुझते रहना ही मनुष्य. जीवनकी अखण्ड शान्तिका भादर्श है। अपनी इन्द्रियों को ही अपना स्वरूप समझकर, उन्हींको भोक्ता मानकर भोगबन्धनमें फंसजाना अज्ञान है । देहको कर्ता भोक्ता न मानकर देहके स्वामी देहीको अपना स्वरूप समझ जाना ही ज्ञान है । देही स्वभावसे नित्य मुक्त रहनेवाली सत्ता है । जब मनुष्य अपने इस रूपसे परिचित हो जाता है तब भोगोंकी कीचड. मेंसे निकल जाता तथा उसका बन्धनरहित स्वभाव विजयी होजाता है। मज्ञानरूपी भोगबन्धन मनुष्यका परम शत्र है । भोगबन्धन ही राज्याधि. कारियोंको कर्तव्यभ्रष्ट करनेवाला उनका परम शत्रु है । भोगनिरपेक्षतारूपी ज्ञान ही राज्याधिकारियोंकी प्रतिष्ठा बढानेवाला परम मित्र है । स्वयं ज्ञानी बनकर रहना ही अपने समाजको भी ज्ञानी बनाने वाला मनुष्योचित कर्तव्य. पालन है । समाजका शत्र बनना समाजका ही द्रोह नहीं किन्तु आत्मद्रोह भी है । यह विश्व अपने विधाताका एक विराट परिवार है। प्रत्येक प्राणी इस विश्वपरिवारका पारिवारिक है। सब ही जीवनाधिकार लेकर संसारमें माये हैं। सबके जीवनाधिकारको उदारतासे स्वीकार करनेसे ही संसारमें सुखका स्वर्ग उतर सकता है । परन्तु अहंकारका जो एक दषित रूप है वहीं दूसरों के अधिकारको उदारतापूर्वक स्वीकार करनेसे रोकता है। अहंकार मनुष्यको मनुष्यका शत्रु बनादेता है । मनुष्यों में जो भेद पडता है वह उनके मिथ्या अहंकारसे ही पडता है । देहात्मवाद ही भेद और विवादका मूल है । मनुष्य को जानना चाहिये कि हम लोग देहों से अलग-अलग होने. पर भी देही रूपमें सब एक हैं । हम सबके समान लक्ष्य हैं। अपने में मानवताका पूर्ण विकास ही मानवमात्रका लक्ष्य है । इस लक्ष्यको पाले नेपर Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि पारस्परिक शत्रुताका अन्त होजाता है । अहंकार न रहनेपर यह समस्त संसार मनुष्य को अपना सहायक मित्र दीखने लगता है । अहंकारामिभूत मनुष्य विवेकहीन होकर अपने अवैध आचरणोंसे अपना पराया अनिष्ट करके संसारमें दुःखोंकी वृद्धि कर देते हैं । संसार में अशान्ति पैदा होना अहंका स्का ही दुष्परिणाम है । कर्ण, दुर्योधन, रावण आदिके जीवन अहंकारकृत अशांतिउत्पादनके उदाहरण हैं । 1 २५४ मदमानसमुद्धतं नृपं न वियुक्त नियमेन मूढता । अतिमूढ उदस्यते नयान्नयहीनादपज्यते जनः ॥ ( भारवि ) अविवेक कभी भी दर्प तथा अहंकार से समुद्धत राजासे अलग नहीं रहता । अतिमूढ ( अविवेकी ) मानव नीतिमार्ग से बाहर दूर फेंक दिया जाता अर्थात् नीतिहीन होजाता है । लोकमत नीतिद्दीन से विरक्त तथा रुष्ट होजाता और उससे असहयोग करलेता है । ( सभामें शत्रुसे वाग्व्यवहारकी नीति ) संसदि शत्रु न परिक्रोशेत् ॥ २८९ ॥ सभा में शत्रु के क्रोधको उत्तेजित करनेवाली कटुवाणी या अपभाषण करके विचारसभाको छेडछाडकी सभा मत बनाओ । विवरण - सभा में शत्रुपक्ष या उसके वक्ताकी व्यक्तिगत निन्दा करके मुख्य विचारणीय विषयको खटाईमें मत डालो । सौजन्य तथा शिष्टाचार की मर्यादा रहते हुए अपने पक्षका मण्डन तथा शत्रुपक्षका खण्डन करो सभा में बोलने की एक मार्यादा होती है । उसका उल्लंघन न करते हुए ही विवाद्य विषयपर आक्षेप या परिहार किये जाने चाहिये । 1 सूत्रका यह अभिप्राय नहीं कि समासे बाहर शत्रुसे अपभाषण या वाग्युद्ध छेडा जाय । इसका यह भी अर्थ नहीं कि शत्रुकी अनुचित बातका खण्डन भी न किया जाय । सूत्रकारका तात्पर्य यह है कि सभा के ही शत्रु के साथ वाग्युद्धका स्वाभाविक क्षेत्र होनेके कारण वहां शत्रुकी जोर से सत्तेजनाका कारण पाकर भी अपना वक्तव्य संयत सुसभ्य भाषामें रखना Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभामं शत्रु से नीति चाहिये । शत्रुके मनमें रोष पैदा करनेवाली उसकी व्यक्तिगत निन्दा करना हानिकारक है । इस प्रकार असंयत छेडछाडका परिणाम यह होगा कि वह रुष्ट होकर तुम्हें अपमानित करनेवाली मर्मभेदी बातें कहनेपर उतर आयेगा और तत्र सभाके वार्तालापका उद्देश्य ही धूल में मिल जायगा । २५५ किन्हीं निश्चित आलोच्य विषयोंपर सभाकी सम्मति पानेके लिये ही सभाका अधिवेशन नियत किया जाता है । सभाके अधिवेशन के समय किसीको भी सभा आलोच्य प्रसंगसे बाहर कोई बात करने का अधिकार नहीं होता । यदि कोई वक्ता सभाके आलोच्य विषयसे बाहर बातें करने लगे तो वह सभाके साथ धृष्टता करनेका अपराधी बनजाता है । वह अपनी इस प्रवृत्ति से समासे बहिष्कृत होने योग्य बनकर अपनी ही हानि करलेता है | सभा अधिवेशन में परस्पर शत्रुता रखनेवाले दोनों पक्ष किसी विशेष कारणसे ही उपस्थित होते हैं। शिष्टाचार चाहता है कि दोनों शत्रुपक्षों को समा उपस्थित कर देनेवाले उस विशेष कारणका ध्यान रखकर अपने से शत्रुता रखनेवाले पश्च के साथ भी समामें अन्य सदस्योंके समान ही व्यवहार करे । शिष्टाचार तो यहां तक चाहता है कि यदि वह सभा शत्रुके अपराध पर विचार करनेही के लिये एकत्रित हुई हो तब भी उस विचारको निष्पक्ष विचारकोंके ही अधीन रखना चाहिये | उस विचारमें अभियुक्त (अपराधी ) के विपक्षको निर्णय देनेका अधिकार नहीं देना चाहिये | अभियोक्तापक्ष अभियुक्तपक्ष के साथ किसी प्रकारका अशिष्ट बर्ताव करने या उसके साथ सीधा कोई व्यवहार करनेका कोई अधिकार नहीं रखता । शत्रुपक्षके साथ व्यक्तिगत यथोचित व्यवहारका क्षेत्र सभाले बाहर होता है सभा नहीं । सभामें शत्रुके साथ सत्यरक्षा के नाम पर जो मो कोई बरताव किया जाता है वह असत्यविरोधरूपी सत्यनिष्ठा ही होता है । सभा अधिकार पर हस्तक्षेप न करके समाकं निष्पक्ष निर्णयको सुगमता से प्रभावशाली रहने देना ही सभा के प्रसंगके अनुकूल सत्यनिष्ठाका रूप होता है । सभाकी उपेक्षा करके सभास्थल में शत्रुके प्रति व्यक्तिगत विद्वेषका 1 Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ चाणक्यसूत्राणि प्रदर्शन करना सभाका अधिकार बलात् अपहरण करनेवाली असत्यकी दासता है। ( शत्रुका सर्वनाश करना मानवीय कर्तव्य ) शत्रुव्यसनं श्रवणसुखम् ।। २८० ॥ शत्रुकी विपत्ति थुतिमधुर होती है । विवरण- अपने शत्रुको विपन्न करडालना ही सत्यनिष्ठ विजिगीषुके सफल कर्तव्यका एकमात्र ध्येय रहता है । कोई विजिगीषु असत्यदलनका अहंकार भी करे और असत्य मार्गपर चलनेवाला उसका शत्र विपन्न न होकर सम्पन्न अर्थात् अपने भौतिक शक्तिके घमण्डमें निश्चिन्त बना रह जाय तो समझना चाहिये कि उसका शत्रुदमनका कर्तव्य पालित रह रहा है । विजिगीषुको तो शत्र के साथ प्रतिक्षण वह बर्ताव करके हर्षित रहना चाहिये जिससे उसके शत्रका जीवन पग-पगपर कण्टकाकीर्ण होता रहे । सत्यनिष्ठ व्यक्तिकी दृष्टि में शत्रके व्यसनके श्रवणसुख होनेका यही रूप है। परस्पर शत्रुता रखनेवाले दोनों पक्ष एक-दूसरेको मिटानेका ही उद्देश्य रखते हैं। यही उनकी शत्रताका अभिप्राय होता है। सत्य और मिथ्यामें वध्यघातक संबंध सदासे चला मारहा है। दो विवादमानों में एक सच्चा और दूसरा अन्यायी होना अनिवार्य है । सत्यनिष्ठ व्यक्ति असत्य को मिटाकर अपने जीवनव्यवहारमें सत्यको ही विजयी बनाये रखने का विचार रखता है। उसके इस लक्ष्य में विघ्न डालनेवाला ही उसका शत्रु होता है जिसे वह मूर्तिमान् असत्य माना करता है । सत्यनिष्ठ व्यक्ति अपने शत्रको मिटाना चाहता है। इसमें कोई संदेह नहीं कि शत्रुकी विपनस्थिति उसके असत्य दमन रूपी उद्देश्य के अनुकूल होनेसे उसके लिये सुखप्रद होती है। परन्तु असत्यनिष्ठ व्यक्तिपर काकतालीयन्यायसे आपत्ति आई देखकर प्रसन्न हो जानामात्र सत्यका विजयोल्लास नहीं कहा जासकता। सत्यके बल से असत्यका दमन करचुकना ही सच्चा विजयोल्लास या विजयोल्लासकी योग्यता है । सत्यनिष्ठके हृदयमें इस विजयोल्लासका प्रत्येक Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धनहीनतासे बुद्धिनाश क्षण विद्यमान् रहना ही उसे असत्यविरोध प्रेरित करते रहनेवाला विश्व. विजयी अस्त्र है । सत्यनिष्ठ विजिगीषु इस विजयोल्लासको बाह्य प्रदर्शनका विषय कभी नहीं बनाता । वह तो प्रतिक्षण अपने हृदय में सत्यकी महिमा तथा असत्यनिष्ठकी भवनति ( दुःखमयी स्थिति ) दोनोंको एक ही नेत्रसे देखता रहकर प्रसन्नता मनाता रहता है। उसका शत्रु असत्यकी दासता करके प्रतिक्षण मनुष्यताको तिलांजलि देता रहकर विनष्ट होचुका होता है। उसकी दृष्टिमें उस शत्रके पांचभौतिक देहका विनाश उपेक्षाका विषय रहता है । यदि उसके पांच भौतिक देइके विनाशको ही सत्यका विजयोल्लास माना जाय तो उसके पांचभौतिक देहका विनष्ट न होना विजिगीषु के लिये दुःख. दायी मानना पडेगा। तब तो जबतक शत्र जीवित है या सत्यनिष्ठसे अधिक भौतिक बलवाला है तबतक सत्यनिष्टके हृदय में सत्यका विजयो. लास मनपस्थित स्वीकार करना पडेगा तथा तबतक स्वयं सत्यमें सुखाभावरूपी दुःख स्वीकार करना पड जायगा । परन्तु सत्यकी अनुपम मधुरता में दुःखको स्थान नहीं है । शत्रु चाहे जीता रहे, भर जाय, विपद्ग्रस्त होजाय या निर्विघ्न रहे, सत्यनिष्ठ व्यक्ति तो अपने सत्यकी महिमासे प्रत्येक क्षण सखप्लागर में निमग्न रहता है। उसके सुखदुःख शत्रुके भौतिक विनाश अविनाश पर निर्भर नहीं होते । सत्यनिष्ठकी सुखमयी स्थिति में दुःख की अत्यन्त निवृत्ति होचुकी होती है। (धनहीनतामे बुद्धिनाश) अधनस्य बुद्धि न विद्यते ॥ २९१ ।। धनहीन व्यक्तिकी बुद्धि नष्ट होजाती या प्रसृत होनेके अवस. रोसे वंचित होजाती है। विवरण-- अर्थाभावसे जीवनयात्राकी चिन्तासे व्याकुलता बने रहनेसे बुद्धि मन्द पढ जाती तथा प्रतिभा सो जाती है । निर्धनताकी स्थिति में बुद्धिको नाश निराश न होने देकर स्थिर रखना धनहीन मनुष्य का कर्तव्य १७ : चाणक्य.) Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५: चाणक्यसूत्राणि होता है । बुद्धिमान व्यक्ति समाज की शक्ति होते हैं। राज्यसंस्थाका निर्माण करना इन्हीं लोगों का उत्तरदायित्व होता है । राजा अपनी राज्यसंस्थामें मष्टके बुद्धिमान् व्यक्तियोंको मुख्य स्थान देकर सच्ची राष्ट्र सेवा करने में सब ही समर्थ होसकता है जब कि वह समाजके बुद्धिमान् लोगों को निर्धनताका आखेट बनने से सुरक्षित रखनेका उचित प्रबन्ध करे। धन स्वभावसे ही धनोपासकों के पास रहता है। धन ही धनोपासकों के जीवनका ध्येय होता है । धनोपासक धन के लिये अपने मन की मूल्यवान पवित्रताको बलिदान करचुका होता है । इसके विपरीत मनकी पवित्रता या सचाई लक्ष्यवालेको मनकी पवित्रताको सुरक्षित रखने के लिये धनका बलि. दान देदेना पडता है । सच्चे बुद्धिमान् वे ही लोग हैं जो अपनी सचाईको सुरक्षित रखकर मनुप्यतानामके सच्चे धन के धनवान् रहना ही अपना लक्ष्य बनालेते हैं तथा इपीसे वे समाज में श्रद्धाकी दृष्टि से देखे जाते हैं ! ऐसे लोग राष्टके भूषणस्वरूप होते हैं। ये लोग समाजमें मनुष्यताको जीवित रखने के नामपर मनुष्यताका संरक्षण करनेवाली राज्यसंस्था बनाने को अपने जीवनका सर्वश्रेष्ठ, सर्वमहान् कर्तव्य बनालेते हैं । परन्तु ध्यान रहे कि ऐसे समाजसेवक बुद्धिमान व्यक्तियों का निर्धन होना अनिवार्य है। इन महामना लोगोंके धनाभावको दूर करके इन्हें अपनी राज्यसंस्थाके मुख्य स्तम्भ बनाये रखने के लिये उचित प्रबन्ध करना राजाका राष्टहितकारी तथा स्वहितकारी कर्तव्य है । यदि राज्यको निर्विघ्नतासे चलाना हो तथा उसे प्रजाकल्याणकारी मार्गपर सु-प्रतिष्ठित रखना हो तो राजाको राष्ट्र के निधन परन्तु बुद्धिमान व्यक्तियोंकी जीवनयात्रामें यथोचित सहयोग देकर राष्ट्र के लिय उनका बौद्धिक धार्मिक सहयोग प्राप्त करना ही चाहिये । बुद्धिमान् व्यक्तियोंके धनहीन होने पर भी उनकी बुद्धि समाज या राष्ट्रका अक्षय धन है। इन बुद्धिमान व्यक्तियों की धनहीनताका भी राष्ट्रीय दृष्टि से असाधारण मूल्य है । इन लोगोंकी धनहीनता समाज में बुद्धि की संरक्षिका है। ये लोग समाजमें बुद्धि के संरक्षक हैं। क्योंकि ये Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धनहीनताकी हानि धनोपासक न होकर बुद्ध युपासक हैं इसीलिये तो ये लोग निर्धन हैं । यह समाजका सौभाग्य है कि ये लोग धनोपासक न होकर निर्धन हैं। यदि ये लोग भी धनोपासक होजाते तो समाजमें सबद्धिको कहां भाश्रय मिलता? सद्बुद्धि सिद्धान्तसेवी होने के कारण अपने सेवकोंको सदा धनोपासनासे निवृत्त अतएव निर्धन बनाये रखती है। परंतु इस प्रकारके लोग राष्ट के अमूल्य धन हैं। जिस समाजका लक्ष्य धनोपासना होजाता है उस समाजमें से मनुष्यतारूपी अक्षय संपत्ति लुप्त होजाती तथा उसमें मासुरी प्रवृत्तिका प्रबल होना अनिवार्य होजाता है । (धनहीनताकी हानि ) हितमप्यधनस्य वाक्यं न शृणोति ।। २९२॥ निर्धनके हितवचनोंपर भी कोई कान नहीं देता। विवरण- किसी समाजका धनोपासक होजाना, इस बातका प्रमाण है कि यह समाज अपनी हिताहित बुद्धि खोबठा है। इस दृष्टि से धनसंपनिको जीवन का लक्ष्य बनालेना स्वविनाशक तथा समाजद्रोही कल्पना है। इसलिये है कि धनोपासक लोगोंको समाजके हिताहितको कोई अपेक्षा नहीं रहती । समाजहितकारी लोगोंका धनोपासक होना असंभव है ।सार समाज में समाजका हित करनेकी बुद्धि को जाग्रत रखना बाजाका कर्तव्य है। यही तो मुख्य राजधर्म है । जिस समाजमेंसे समाजहित करने की भावना लुप्त होजाती है उस पतित समाजकी बनायी हुई राज्यसंस्था, समाजद्रोही मासुरीराज्य बनजाता है । राजाका उत्तरदायित्व है कि समाज के लोगोंको समाजको हिताहित बुद्धि की चेतना प्रदान करता रहे। उसका यह भी उत्तर दायित्व है कि वह समाजके हितकी बात कहने की योग्यता रखनेवाले निर्धन व्यनियोंको समाजमें शीपस्थानीय मान्य तथा पूज्य बनाकर रक्खं । इस. लिए रखे कि समाजके ये निधन बुद्धिमान लोरा राजशकिसे प्रोत्सा Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि दन पाकर समृद्ध होकर भोजनाच्छादन चिन्तासे मुक्त रहें तथा उनकी निश्चिन्त बुद्धि समाजका कल्याण करने के उपयोग में आती रइसके । २६० अधनः स्वभार्ययाऽप्यवमन्यते ॥ २९३ ॥ परिवार के लिये जीवनसाघन न जुटा सकनेवाला निर्धन अपनी भार्यासे भी अपमानित होता है । विवरण - पत्नी आदि परिवारकी जीवनयात्रामें धनको आवश्यकता होती है । पारिवारिकों की जीवनयात्रा के लिये गृहपतियोंका धनपति होना परमावश्यक है । जैसे वृक्षवासी पक्षी फलपुष्पपत्रहीन सूखे वृक्षोंको या जैसे जलवासी पक्षी शुष्क सरको त्याग देते हैं, इसीप्रकार धनद्दीन मानव अपने स्वजनोंकी श्रद्धा तथा स्नेहके आकर्षणसे वंचित होजाते हैं । इसलिये यह राजाका ही उत्तरदायित्व है कि वह राष्ट्रके बुद्धिमान् लोगोंको धनाभाव के कारण पारिवारिक अशान्तिजनक व्यग्रता से राष्ट्रके लिये अनुपयोगी तथा बेकार न होने दें, किन्तु उन्हें राष्ट्रसेवा के लिये कर्मशील बनाये रखें। इम सूत्रका यह भाव भी है कि जो लोग पारिवारिक सुख चाहें वे परिवारकी जीवनयात्रा के लिये वैध उपायोंसे धनसंग्रह करें। धनहीनः पाठान्तर ...... 1 पुष्पहीनं सहकारमपि नोपासते भ्रमराः || २९४ ॥ जैसे और पुष्पकाल बीत जानेपर पुप्पहीन प्रिय आम्रवृक्षको भी त्याग देते हैं इसीप्रकार यह धनजीची संसार निर्धन व्यक्तिके पास अपनी घनाकांक्षाकी पूर्ति की संभावना न देखकर उसे त्याग देता है । विवरण- बुद्धिमानोंकी धनहीनताको दूर करके उन्हें समाज में उपेक्षित होने से बचाना राष्ट्रसेवक राजाका हो उत्तरदायित्व है। इसलिए है कि राष्ट्र सुबुद्धिपरिचालित तथा सन्मार्गगामी बना रद्दसके । Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्याधनकी श्रेष्ठता (निर्धनोंका सम्मानित धन ) विद्या धनमधनानाम् ॥ २९५ ॥ विद्या निर्धनोंका धन है। विवरण- विद्यामें यह सामर्थ्य है कि वह गुणग्राही ज्ञानियोंसे निर्धन विद्वानों का आदर करना देती है। निर्धन विद्वान् लोग अपने विद्याधनको धनियोंके धनोंसे श्रेष्ठ धन मानकर उससे परितृप्त रहते तथा उसका साविक अहंकार भी रखते हैं। वे धनोपासक समाजकी भोरसे उपेक्षित होनेपर भी अपनी विद्याका आदर स्वयं करके तृति अनुभव करते हैं । वे धनमत्त धनि. योंके किये निरादर या उपेक्षाका पात्र बनना ही अपनी विद्वत्ताका प्राप्य गौरव समझते हैं। धनलोलुप संसारका यश धनमत्तोंके चाटुकारोंको ही प्राप्य होता है । विद्या मोतिक धनसे श्रेष्ठ होती है । धन अनेक प्रकार के होते हैं । सब व्यक्ति एक ही प्रकार के धनके धनी नहीं होते। यह सब संसार एक ही प्रकारके कामके लिये नहीं बना । भौतिक धनका धनी बनना सबके लिये प्रयोजनीय नहीं है। विद्या, कला, तपस्या, उदारता, सेवा आदि अनेक ऐसे देवदुईभ धन हैं जिन्हें देवी धन कहते हैं. संसारी धन जिनके घर पानी भरते हैं, जिनसे निर्धनलोग भी संसारके पूज्य बनजाते तथा उनकी जीवनयात्रा भी सुकर होजाती है। वित्तं बन्धुर्वयश्चैव तपो विद्या यथोत्तरम् । पूजनीयानि सर्वेषां विद्या तेषां गरीयसी ।। धन, बन्धु, आयु, तप तथा विद्यामें पिछले पहलोंसे पूजनीय है । विद्या (मात्मज्ञान-तत्वज्ञान ) सबमें श्रेष्ठ है। (विद्याधनकी श्रेष्ठता ) विद्या चोरैरपि न ग्राद्या ।। २९६ ।। विद्या मनुप्यका आन्तर गुप्त धन होनेसे चोरोंसे भी नहीं चुराई जासकती। Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ चाणक्य सूत्राणि विवरण- विद्या विद्वानों का लक्षय, भचौर्य, अविभाज्य, मनपहरगीय तथा व्ययसे वर्धिष्णु धन है । अपने विद्याधनसे सन्तुष्ट विद्वान्को सन्तोषधन स्वतः प्राप्त रहता है । विद्वान् होते हुए भी संतोषसे वंचित रहना मूढता है। विद्या नाम नरस्य रूपमधिकं प्रच्छन्नगुप्तं धनम् । विद्या राजसु पूजिता न हि धनं विद्याविहीनः पशुः ।। न चौरहार्य न च राजहार्य न भ्रातृभाज्यं न च भारकारि। व्यय कृते वर्धत एव नित्यं विद्याधनं सर्वधनप्रधानम् ॥ विद्या मनुष्य का असाधारण सौन्दर्य तथा गुप्त धन है। राजामामें विद्या पुजती है, धन नहीं। विद्याविहीन मनुष्य पशु है। विद्या चोरोंसे चुराई नहीं जाती, भाइयों से बांटो नहीं जाती, भार ( बोझ ) नहीं करती तथा जितना व्यय करो उतनी ही बढती है । सचमुच विद्याधन समस्त धनों में शिरोमणि है। "जीवनसाफल्य करी" तथा "अर्थकरी भेदसे विद्याके दो रूप हैं : समा. जको अर्थकरी विद्यापार्जन का प्रतीक्षक बनाना राष्ट्रको न्याधिग्रस्त बनाडालना है। भाज संसार में सर्वत्र धनोपासनाका विकृत भादर्श मनुव्यसमाजकी बुद्धि को भ्रष्ट कर रहा है। समाज के बुद्धिमान् लोगोंको अपने राष्ट्रको इस च्याधिसे मुक्त रखने के लिये उसे ( उसकी राज्यसंस्थाको ) धनोपासक समाजद्रोही भोगेश्वयं-परायण प्रतारकोंके हाथोंसे बचाकर रखना चाहिये । । पाठान्तर--- विद्या चारैरपि न हार्या । (विद्या यशःकरी) विद्यया ख्यापिता ख्यातिः ॥ २९७ ।। विद्यासे यशका विस्तार होता है। विवरण- जिस राज्यमें सच्ची विद्याका भादर होता है उस राज्यको प्रजा में राजाका सुयश अनिवार्य रूपसे फैलता है । राजा विद्याका मादर करके ही प्रजाके हृदय में अपना अटल सिंहासन स्थापित कर सकता है। Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यश मानवका अमर देह प्रजामें ज्ञानालोकका प्रचार होते ही राज्यव्यवस्थामें गुणी लोग सुगमतासे प्रवेश पाजाते हैं। राज्यसंस्थाका उत्कृष्ट निर्माण प्रजाकी सुमतिपूर्ण सम्म. किसे ही संभव है। राज्यसंस्थाके सनिर्मि होनेपर प्रजाकी शुभकामना राजाका नित्यसाथी बनजाती है। राजा तथा प्रजाके स्वार्थों की भिवता भयंकर राष्ट्रीय विपत्ति है। प्रजाको शुभकामना पाले ना ही राजाके पानेयोग्य सुयश है । राजाका विद्यानुरागी होना ही उसके सुयशकी योग्यता है । पाठान्तर-- विद्यया ख्यातिः । । यश मानव का अमर देह ) यशःशरीरं न विनश्यति ।। २९८॥ मनष्यका भौतिक देह ही मरता है, उसका यशारीर तो अमर महता है। विवरण-- ज्ञानी समाजकी प्रतिष्ठा लाभ करना ही यशस्वी होना है। अज्ञानी समाजकी करताली पिट वाले ना यश की कसौटी नहीं है। यशस्वीका यश हो उसका समर देह है। यशस्वीके नाशवान पांचभौतिक देहका मन्त हो जाने पर भी उसका यश अनंतकालतक समाजमें चिरस्थायी रहता है। यशस्वी मानव पार्थिव देह की मृत्युसे न मरकर संसारकी समर स्मृति में अपना स्थान बनाकर सामर होजाता है। “कीर्तिर्यस्य स जीवति' जिसको कोर्ति सत्कर्मजनित है वही जीता है । वह मरकर भी नहीं भरता। जयन्ति ते सुकृतिनो रसस्निग्धक श्वराः । नास्ति येषां यशःकाये जरामरणजं भयम् ॥ यषां वैदुष्यविभवो धर्मश्च जगतीतले । ते नरा निधनं प्राप्य विद्यन्ते नरमानस ॥ राज्यसंस्थाका यशस्वी विद्वानोंसे सुप्रभावित रहना ही राजाका यश: शरीर है । ऐसे यशःशरीरका शरीरी विद्याप्रेमी प्रजावत्सल राजा अपने नवर दहका मन्त दोजानेपर भी अपने राज्य की राजभक्त प्रजाके हृदय Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ चाणक्यसूत्राणि सिंहासनपर आरूढ रहकर अमर बनारहता है । रस ( अर्थात् कर्तव्यपालनके मानन्द ) से स्निग्ध वे सुकर्मा कवीश्वर लोग विश्वविजय पाचुके हैं, जिनके यशःशररिको वृद्ध तथा मृत होनेका कोई भय नहीं है। संसारमें अपनी विद्वत्तारूपी लक्ष्मी तथा धर्मकी धाक बैठानेवाले हैं, वे महामानव देह से मरजानेपर भी समाजके कृतज्ञ श्रद्धालु मानसमें अनंतकाल तक जीविता रहते हैं। ( सबके स्वार्थको अपना समझना सत्पुरुषता है ) यः परार्थमुपसर्पति स सत्पुरुषः ॥ २९९ ।। जो दूसरोक कल्याण करने में आगे बढता है वही सत्पुरुष है। विवरण- सचाई में ही सबका कल्याण है। सबके सामूहिक स्वार्थ ( भलाई ) में अपना स्वार्थ । भलाई-कल्याण ) देखनेवाला जो मानव दूसरों के कल्याण के लिये आगे बढता या दूसरोंकी सत्यार्थ विपत्तियों में हाथ बंटाता है, वही सत्पुरुष या महापुरुष है। स्वार्थ में जीवों को प्रवृत्ति स्वभावले होती है। परन्तु यह मनुष्यकी मज्ञानमयी स्थिति है । संसारमें अज्ञानियों का ही बहुमत होता है । परार्थ में सहयोग करना ज्ञानमयो स्थिति है । परन्तु यह दुर्लभ स्थिति है । विचारशील. ताका संसार में प्रायः अभाव रहता है। मनुष्यको जो बुरा या भला करनेकी स्वतंत्रता मिली है मनुष्य उस स्वतंत्रताका मूल्य न समझकर उसका दुरुप. योग करनेसे अविचारशील बनता है। विचारशीलतासे प्रत्यक्ष भौतिक हानि तथा अविचारशीलतासे प्रत्यक्ष भौतिक लाभकी संभावना देखकर संसार में अविचारशीलोंका ही बहुमत होता है । इस मेषमनोवत्तिसे निवृत्त रहने के लिये मनुष्य को सत्य तथा मिथ्यालाभका भेद जानना चाहिये । मनुष्य यह जाने कि जिसमें समाजका कल्याण है उसमें व्यक्तिका भी कल्याण है । जब किसी सत्यनिष्ठ व्यक्तिका कल्याण संकटमें माता तथा वह समाजसे सहायता पानेका अधिकारी बनता है, तब समाजके सत्पुरुष लोग कर्तव्य से प्रेरित होकर उसकी विपत्तिको अपनी ही विपत्ति तथा उसके Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्रकी उपकारिता २६५ अभ्युत्थान (विपदद्धार )को अपना ही अभ्युत्थान मानकर उसकी सेवामें मात्मसमर्पण करदेते तथा इसी समर्पणमें अपने जीवनकी परम कृतकृत्यता अनुभव करते हैं । ऐसे लोग सत्यार्थी विपन्न के विपद्वारणमें प्राप्त होनेवाले अपने कष्टोंको नगण्य बनाकर पर-हित-साधनमें सत्यकी सेवाका आनन्द लेते हैं । ऐसे लोग सत्य को ही अपने स्वजन के रूप में पाकर सत्यनिष्ठ व्यक्तिमात्रमें भास्मानुभूति करके उसके सुखदुःख में स्वभावसे साझी हो जाते हैं। एक सत्पुरुषाः परार्थवटकाः स्वार्थ परित्यज्य ये, मध्यस्थाः परकीय कार्यकुशलाः स्वार्थाविरोधन य। तेऽ मी मानुपराक्षसाः परहितं यहन्यते स्वार्थतः, ये तु नन्त निरर्थक परहितं ते के न जानीमह ॥ भतृहरिः संसार में चार प्रकार मनुष्य होते है --- एक व सरपुरुष हैं जो अपने स्वार्थकी उपेक्षा करके दूसरे सत्पुरुषों के काम आते हैं। दूसरे माध्यम पुरुष हैं जो अपने स्वार्थीको हानि न पहुंचाकर यथासंभव दूसरे सत्पुरुषक भी काम माने हैं । तीसरे व ऋर राक्षस हैं जो अपने स्वार्थ के लिए दूर गोंके स्वार्थका गला घोंट देते हैं। चाथ ये लोग हैं जो विना किसी कारण परहितको हानि पहुंचाते हैं । इन चौथ लोगोंको क्या नाम दिया जाय यह समझने में हम असमर्थ हैं। ( शास्त्रकी उपकारिता) हान्द्रयाणां प्रशमं शास्त्रम् ॥ ३०० ॥ इन्द्रियोंको शान्त रखनवाली शक्ति ही 'शास्त्र' है। विवरण- मनुष्य के मन में विषयभोगोंके प्रति लम्पटताको रोकने तथा टोकनेवाली जो भान्तरिक सनातन प्रवृत्ति है, वही मनुष्यका ईशरचित शाम्न मर्थात् हितानुशासनकारी देवी ग्रन्थ है। मानवजीवन से इन्द्रियोंका विजित होकर रहना ही मानवमनकी सची शान्तिका स्वरूप है। मानव तो विजेता हो तथा इन्द्रियां विजित हो इसी में मानवजीवनकी शान्ति Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि है। स्पष्ट शब्दों में जितेन्द्रियता ही मानवधर्म मानवशास्त्र या धर्मशास्त्र है । अध्यात्मकी जो सर्वोत्कृष्ट साधना है वही जितेन्द्रियता है । मनुष्य में जो मनुष्यता है वही तो उसकी बात्मशासनकी शक्ति है। मनुष्य के मनमें स्वभावसे ही सदसद्विचारबुद्धि रहती है । या तो इन्द्रियों को अपने शास. नमें रखकर जितेन्द्रिय बने रहने या इन्द्रियों से शासित होकर इन्द्रियाधीन हो बैठने की स्वतंत्रता ही मनुष्य के मनका स्वरूप है । अपना जिते. न्द्रिय मन ही मनुष्य के लिये प्रत्येक क्षण स्वाध्याय करने योग्य सच्चा ज्ञानअन्य या शास्त्र है। वेदशास्त्रों का प्रादुर्भाव उत्कृष्ट मानवम्नमें से ही हुमा है । मानव से ऊंचा संसार में कुछ नहीं है । यस्तु विज्ञानवान् भवति युक्तेन मनसा सदा । तम्यन्द्रियाणि वश्यानि सदश्वा इव सारथः ॥ उपनिषद् जो इन्द्रियों को शान्त रखने वाले शास्त्रका ज्ञाता तथा तदनुकूल व्यवहार अ.नेवासा होता है उसके योगयुक्त मनसे उपकी इन्द्रियां सारथीके वश में रहनेवाले सुशिक्षित अश्वोवे. समान उपके वश में रहती है । शुचि भूपयति श्रुतं वपुः प्रशमस्तस्य भवत्यलंकिया। प्रशमाभरण पराकमः स नयापादितसिद्धिभूषणः । भारवि सदाचारी अनुभवी विद्वानों के सत्संगमें रहकर सोखा हुआ शुचिशास्त्र मानवदेहका भूषण है । ( नहीं तो विद्वान् पुरुष शोचनीय होता है । ) अपने कामक्रोधादि विकारों पर विजय पाकर शान्त रहना शास्त्रज्ञताकी मलंकिया है । ( नहीं तो शास्त्रज्ञता बन्ध्या है।) अवसर मानेपर अन्याय तथा अत्या. चारके विमोध शूरता दिखाना ही इन्द्रियविजयसे मिलनेवाली शान्ति का भूषण है । ( नहीं तो निस्तेज कायर शान्ति मनुष्य का परिभव कराने लगती है।) नीति अर्थात् विवेकसे प्राप्त होनेवाली सिद्धि हो उस पराकमका भूषण है। अविवेकी साहसी मनुष्यको काकतालीयन्यायसे कभी कभी दिखावटी सिद्धि मिल तो जाती है परन्तु जब नहीं मिलती तब उसके Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नीचसे विद्याग्रहण हानिकारक मिथ्या पराक्रम की व्यर्थता प्रकट हो जाती है। विवेकपूर्वकारीको सिद्धिका कोई डर नहीं होता। पाठान्तर- इन्द्रियाणा प्रशमनकार शास्त्रम् । इन्द्रियोंकी लम्पटताके निवारकको शास्त्र कहते हैं । अशास्त्रकार्यवृत्ती शास्त्रांकुशं निवारयति ।। ३०१॥ अवैध कार्य करनकी भावना आनेपर शास्त्रांकुश ( जितेन्द्रियमनका अंकुश ) उस रोक लेता है। विवरण- इन्द्रियों के साथ विषयों का संपर्क होकर मनमें अकार्य करनेकी उत्तेजना थाजानेपर जितेन्द्रियतारूपी हृदयस्थ जीवितमात्र उत्ते. जित इन्द्रियों को अपने ज्ञानाङ्कुशसे वशीभूत करके उन्हें कुमागसे निवत करता है। पाठान्तर- अकार्य प्रवृत्ती शास्त्राङ्कुशं निवारयति । अवैध कार्य करने की अभिलाषा उत्पन्न होते ही विवेकी मन में उस दुर. भिलापाके प्रति भयंकर विद्रोह खडा होजाता है जो उसे कार्य रूपमें परि. गत नहीं होने देता। ___ अपनी दुराभिलाषाको रोकनेसे मनमें एक ऐसी अदम्य शक्ति पैदा होतो है जो मनुष्यको महापुरुष बनादेती है। अपनी शक्तिको दुरूपयोगसे रो के रहन! हो मानवका महात्मापन या महापुरुषता है। नीचसे विद्याग्रहण हानिकारक नीचस्य विद्या नोपेतव्या ॥३०२॥ नीचकी विद्या ( शास्त्रज्ञान ) नहीं लेनी अर्थात् अग्राहा होनी चाहिये। विवरण- नीचकी विद्या नीचताका ही साधन हुई रहने के कारण अविद्याके नामसे निन्दित होने योग्य तथा घृण्य होती है । नीची विद्या Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ चाणक्यसूत्राणि नीचताको चरितार्थ करनेकी चतुराई बन जाती है। नीचके शास्त्रज्ञानको देखकर उसके धोके में नहीं माजाना चाहिये । श्रेष्ठाचारी उच्च लोगोंकी विद्या समाजकल्याणका साधन होती है । नीचका शास्त्रज्ञान दुष्टके हाथ लगे घातक शस्त्र जैसा मानवसमाजकी शान्ति के घातक रूपमें काममें माया करता है। शास्त्रज्ञ दस्यु लोग अशास्त्रज्ञ दस्युभोंसे दस्युतामें अधिक प्रावीण्य प्राप्त किये रहते हैं । नीचके आक्रमणोंसे बचने के लिये उसकी विद्याको प्रयोगमें न लानेपर भी उसे जानना चाहिये। कुटिलता, माया, छल, कपट, अनृत, अपहरण, वंचन, स्वार्थकौशल ये ही नीचोंकी गुप्त विद्या हैं । इन्हें जानना तो चाहिये परन्तु अपनाना नहीं चाहिये । नीचता ही नीचका स्वभाव है तथा यही उसकी वह विद्या है जिससे वह श्रेष्ठ समाजको दुःख पहुंचाया करता है। नीच. ताको भी एक कला है जिसे सर्वसाधारण नहीं रहचान सकता परन्तु उप पर नीचों को गर्व होता है। राज्यसंस्थाके निर्माता विज्ञ लोगों में प्रजाको नीचोंके अत्याचारों से बचाने के लिये नीचताकी चतुराईको पहचाननेवाली तीक्ष्ण बुद्धि रहनी चाहिये । जो चतुराई नीचवृत्तिवाले असुरोंके पास रह कर समाजका ध्वंस करनेके लिये उद्यत रहती है, उसे व्यर्थ करनेकी चतुराई समाज के विज्ञ सेवकोंके पास पूर्ण प्रखरताके साथ जाग्रत रहनी चाहिये। जो शस्त्र दुष्टों के पास पहुंचकर दुष्टताके उपयोगमें आते हैं वे ही शस्त्र शिष्टों के पास दुष्टनाशके लिये रहने अत्यावश्यक हैं । नीचोंकी नीच. ताका आखेट बनने से बचे रहने तथा उसका उचित प्रतिकार करने के लिये उसे जानना आवश्यक है। वजन्ति ते मूढधियः पराभवं भवन्ति मायाविपु य न मायिनः। प्रविश्य हिघ्नन्ति शठास्तथाविधानसंवृतांगाग्निशिता इवेषवः ।। वे असावधान लोग पराभूत हो जाते हैं जो मायावियों के साथ मायापूर्ण व्यवहार न करके सरल तथा उदार बर्ताव कर बैठते हैं । परकार्यनाशक धृत लोग नंगे देह में घुसकर उसे मारडालनेवाले तीक्ष्ण बाणों के समान Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अश्लील भाषण अग्राह्य अपनी मधुरभाषितासे लोगोंके मारमीय बनकर उन्हें नष्ट करडालते हैं"आर्जवं हि कुटिलेषु न नीतिः।” धूतों के साथ सरलता नीति नहीं है किन्तु नीतिहीन विनाशक व्यवहार है। ( अश्लील भाषण अग्राह्य ) म्लेच्छभाषणं न शिक्षेत् ।। ३०३ ॥ म्लेच्छकी भाषा न सीखे। विवरण- म्लेच्छोंमें प्रचलित असभ्यभाषण, गन्दी गाली, अपमानकारी अरुन्तुद (मर्मभेदक) वाणी भइलील लोकोक्ति, कामोत्तेजक उपन्यास, गल्प कथा आदि सब म्लेच्छभाषणकी श्रेणी में भाते हैं। लोगों की कुरुचि पुरा करने तथा सुरुचिको नष्ट करने वाला समस्त कविता कहानी आदि साहित्य म्लेच्छभाषणमें सम्मिलित हैं। विद्वताकी चादर मोढे हुए इन कुविद्या प्रचारक म्लेच्छों के मुंह पर किसी प्रकारकी लगाम नहीं होती । ये समाज अधःपतित म्लेच्छलोग, माताओं, बहनों तथा पुत्रपुत्रियों नि:शंकमावसे पढाने समझानेयोग्य साहित्यसर्जन करना ही नहीं जानते । जैसे गन्दा भोजन करनेवाल के मुखसे गन्दी डकारें आती हैं इसीप्रकार इन कुरसभोजियों के साहित्य में से असह्य दुर्गन्ध आती है । ये लोग सब समय सभ्य-समाजको परिपाटीके विरुद्ध अपनी जिद्वारूपी छरी चलाते हैं। समाज के शिक्षाविभाग शिक्षकपदोंपर ऐसे लोगों का प्रवेशाधिकार रोकने के लिय दुर्ग. रक्षक हथियार बन्द प्रहरीके समान समाज के सर्वतोमुखी ज्ञान खडगको सदा सन्नद्ध रखना चाहिये। यदि शिक्षा के नामपर समाज फेकनेवाले इस म्लेच्छपन को नहीं रोका जायगा तो समाज मनुष्यत्वहीन होकर आसुरिक. ताका क्रीडाक्षेत्र बनजायगा । गोमांसवादका यस्तु विरुद्धं बहु भाषत। सर्वाचारपरिभ्रष्टो म्लेच्छ इत्यभिधीयते ॥ जो गोमांस खाता, मयपूर्ण प्रत्यक चार व्यवहार पर कटाक्ष करता, उपदंश, कण्डति आदि रोगबालोंके उच्छिष्ट पात्रों में खान-पान करता तथा किसी भी भाचारधर्मका पालन नहीं करता वह ' म्लेच्छ ' कढ़ाता है। Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० चाणक्यसूत्राणि शिक्षाका मुख्य ध्येय मनुष्यताविरोधी म्लेच्छ रुचि रीति रहनसहनको समाजमें प्रवेशाधिकार न लेनेदेना है। म्लेच्छपन किसी भौगोलिक सीमामें सीमित नहीं है। नीचलोगोंकी नीच प्रवृत्ति ही म्लेच्छ मनोवृत्ति के रूप में मात्मप्रकाश करने का अवसर ढूंढा करती है। 'यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति ।' जब कभी मनुष्यसमाजमें धार्मिक लोगों का प्रभाव मन्द पड जाता है तब ही संसारमें म्लेच्छवृत्ति बल पकड़ लेती है। पाठान्तर--- न म्लेच्छभाषणं शिक्षेत् । ( संघटन म्लेच्छोंसे शिक्षणीय ) म्लेच्छानामपि सुवृत्तं ग्राह्यम् ॥ ३०४ ॥ म्लेच्छोंसे भी सुवृत्त सीख लेना चाहिये । विवरण- म्लेच्छ भो हो तथा वह कोह सुवृत्त भी रखता हो यह परस्पर विरोधी पात है । इसलिये भाइये ढूंढें कि यह सूत्र कौनसे म्लेच्छसुवृत्तको सिखाना चाहता है ? म्लेच्छों में केवल एक ही सवृत्त पाया जाता है कि वे अपने म्लेच्छ स्वभाव में सुदृढ रहने का हठ नहीं त्यागते । अपने स्वभावमें दृढ रहने का हठ ही उनसे सीखने की अनुकरणीय वस्तु है । उनकी दृढता ही उनका सुवृत्त है । म्लेच्छदमन करने के लिये हमारे म्लेच्छ द्वेष में भी म्लेच्छों जैसी दृढता तथा संगठन होना चाहिये ।। शठ शाठ्यं समाचरत् । आयसैरायसं छेद्यम् ॥ शठके साथ शठताभरा व्यवहार करना चाहिये । लोहोंको लोहोंसे ही काटना चाहिये। गणे न मत्सरः कतेव्यः ॥ ३० ॥ असहिष्णु बनकर गुणी के गुणों को उपेक्षित न करो। विवरणा --- गुणद्वेषी न होकर गुणप्राही होना चाहिये । गुणीके गुणसे द्वेष या घृणा करनेवाले को दोष प्यारे लगते हैं । दोषों से प्यार करना दुष्टता है । गणोंसे मत्सर करना दुष्ट स्वभाव है। गुणमामय से समाज में ज्ञानका निरादर होता तथा हिंसा द्वेष भात्मक लहक। वातावरण बन जाता है। गुग. द्वेषिता मसुर स्वभाव है । गुणको देखकर तो हर्प होना चाहिये । Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्रुओंका रणकौशल शिक्षणीय गुण हितकारी होने से पूजनीय होता है । 'गुणैरुत्तमतां याति ' मनुष्य गुणों से ही उत्तमता, श्रेष्ठताका लाभ करता है । गुण समाजके हित के लिये अत्यावश्यक हैं। गुणी लोग समाज के भूषण, समाजकी शक्ति तथा संपत्ति होते हैं। समाज में सुखसमृद्धि रखनेके लिये समाजमें सद्गुणका माइत होना अत्यावश्यक है। स्वयं गुणी लोग ही गुणग्राही होसकते हैं। इन सब दृष्टियोंसे राज्यसंस्थाका निर्माण करनेवाले मनुष्यसमाजको सद्गुणों से विभू पित रखने के लिये अपने शिक्षाविभाग में सद्गुणी सदाचारी गुणी लोगोंको आदर के साथ रखना चाहिये । ( शत्रुओं का रणकौशल शिक्षणीय ) शत्रोरपि सुगुणो ग्राह्यः ॥ ३०६ ॥ शत्रुका भी सद्गुण ग्रहण करने योग्य होता है । २७१ विवरण - शत्रुके शत्रुताचरणका ही विरोध करना कर्तव्य होता है। यदि कभी शत्रुके गुणका भादर करनेका अवसर मिले तो अपनी गुणग्राहिताका परिचय देते हुए उससे उचित बर्ताव करना चाहिये | कुछ लोग शत्रुताचरण करने के अभ्यासी होते हैं । इसमें कोई सन्देह नहीं कि ये लोग असत्यके दास तथा सत्यके द्वेषी होते हैं । इन लोगों की असत्यकी दासता तथा इनके सत्यद्वेषको कभी भी इनका गुण नहीं माना जासकता । हाँ, इन लोगों के पास रणकौशल नामकी जो वस्तु होती है वही इनसे सीखने योग्य गुण होता है । अपने प्रतिपक्षीको पराजित करनेके लिये इनके पास जो रणकौशल होता है असत्यविद्रोही सदाचारीको भी शत्रुदमनके लिये उस रणकौशलकी आवश्यकता होती है । इसलिये धर्मसंस्थापक वीरकी दृष्टि में विपक्षदमनकी चतुराई ही शत्रुके गुणके रूपमें आदरणीय वस्तु होसकती है । जब कभी शव के पास ऐसी कोई चतुराई दोखे तब ही उसे सत्यका ही साधन आदरणीय गुण समझकर अपनाना चाहिये तथा उस गुणसे उस शत्रुका विनाश करके सत्यकी रक्षा करलेनी चाहिये । शत्रुका जो आचरण असत्यकी दासता में प्रयुक्त होनेके कारण सत्यद्रोही रणक्षेत्र में Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ चाणक्यसूत्राणि उसे रणोत्साह रहा था वही हमारे हाथोंमें आजानेपर हमारे शत्रुदमनका साधन बनकर सत्यका संरक्षक होनेसे सत्य ही बनजायगा । शत्रोरपि सद्गुणो ग्राह्यः । पाठान्तर विषादप्यमृतं ग्राह्यम् ॥ ३०७ ॥ विषसे भो अमृत ग्रहण करलेना चाहिये । विवरण- जब विष अमृतका काम देने लगे तब उसे विष न मानकर अमृतरूपमें स्वीकार करना चाहिये । विष अपने प्रयोक्ता के कौशल से विष न रहकर अमरत्वदान करनेवाला अमृत बन जाता है। शत्रुताचरण करनेवाले लोग हमारे लिये विषके समान भयजनक होते हैं इसमें कोई सन्देह नहीं । परन्तु शत्रुताचरणको भी अपने लिये हितकारी बनालेनेका एक विज्ञजनप्रसिद्ध निराला दृष्टिकोण है । शत्रुताचरणोंसे मनुष्यकी हानि हो हानि नहीं होती उनसे कुछ अकल्पित लाभ भी होते हैं । शत्रुताचरण करनेवालोंके शत्रुताचरणका भी अपने अभ्युत्थान, गौरव, दृढता, सतर्कता, व्यवहारकुशलता, लोकपरिचय, सत्यनिष्ठा आदिमें सदुपयोग किया जा सकता है । हमें आत्मरक्षा के लिये उनके साथ जिस समय जो बर्ताव करना उचित हो उसे इसी ढंग से किया जाना चाहिये, जिससे उनकी शत्रुता हमारे लिये नाशक न रहकर रक्षक बनजाय । जैसे वैद्यके हाथों रोगीको औषध रूपमें दिया हुआ विष मारक न होकर रोगके विषाक्त बीजका नाशक होजाता है, इसीप्रकार यदि हम शत्रुके शत्रुतापूर्ण आक्रमणको हमें आक्रणसका लक्ष्य बनवानेवाली निर्बलताको हटाकर हमें शक्तिमान् विरोद्धा बना देनेवाली उत्साहवर्धक उत्तेजक महौषच मानकर दुगने उत्साहसे शत्रुदमनकारिणी मृतसंजीवनी के रूपमें प्रयोग में लायें तो हम विपको भी अमृत बनानेकी कला के पारंगत होजांय । विजिगीषु मनुष्यको शत्रुके शत्रुताचरणसे भयभीत न होकर, उसे पीठ न दिखाकर, उसका सहर्ष स्वागत करके उसे पराभूत करने के लिये अपने ही हृदय में सुवर्मावृत शक्तिकी खानको जगा लेना चाहिये । वीरोंका अनुभव है कि शत्रुकी शत्रुता हमें वीरतारूपी अमृतास्वादन करानेवाली होती हैं । शत्रुका शत्रुताचरण ही प्रयोगकौशल से वीरके लिये वीरतारूपी अमृत बनसकता है । Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिस्थिति निर्माताका सम्मान २७३ ( कल्याणकारिणी परिस्थिति बनादेनेवालेका सम्मान ) अवस्थया पुरुषः सम्मान्यते ॥ ३०८॥ मनुष्य अनुकूल परिस्थितिमें ही सम्मान पाता है। विवरण- राजाके सम्मान पानेकी एक अवस्था है। राजा अपनी शासनव्यवस्थामें प्रजासे सम्मानित होने योग्य परिस्थिति पैदा करके ही प्रजासे राजभक्ति या सम्मान पानेकी भाशा करसकता है। जब तक राज्यसंस्था अपनेको प्रजाहित के अनुकूल नहीं बनालेती, तब तक उसे सम्मान प्राप्त नहीं होता। राज्य राजाका प्रभावक्षेत्र होता है। वह अपना राज्य सुप्रतिष्ठित होने की माशा तब ही करसकता है, जब वह अपने प्रभावक्षेत्र राज्यको अपने सम्मानके अनुकूल बनाले । राजाकी राजोचित यही अवस्था है कि प्रजामें उसकी प्रतिष्ठा हो। इसके विपरीत परिस्थितिमें राजाका दुर्दशाग्रस्त होकर राज्य - च्युत हो जाना अनिवार्य है। राजाका सम्मान राज्यसंस्थाके प्रजाहितकारी होनेपर ही सुरक्षित रहसकता है। समाजको गुणग्राही बनाकर अपनी राज्यसंस्थाको गुणवती बनाये रखना ही राजाके यात्मसम्मानकी आधारशिला है। राजाका सम्मान तब ही सुरक्षित रहता है जब राज्यसंस्था भी गुणियोंका आदर करनेवाली हो तथा गुणी लोग भी उसका आदर करते हों। जैसे राजा छत्र, चामर, मंत्री, सामन्त, दुर्ग, पोत, सेना मादिसे सम्मान पाता है ऐसे ही जब मनुष्यके पास धन, विद्या, मान, परिजन, अनुभव, समाजसेवा आदि समस्त अपेक्षित गुणोंके एकत्रित होनेकी अवस्था आती है तब उसे उसकी चिरकालोन तपस्या तथा सद्गुणों के प्रति प्रगाढ निष्ठासे ही सम्मान प्राप्त होता है। अथवा- जीवन के लम्बे अनुभवोंसे संपन्न बडी अवस्थावाले लोग समाजमें सम्मानकी दृष्टि से देखे जाते हैं । शूद्रोऽपि दशर्मा गतः। अवस्थावृद्ध शूद्र भी अनुभवसमृद्ध होकर पूज्य हो जाता है । १८ (चाणक्य.) Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ चाणक्यसूत्राणि ( अपने प्रभावक्षेत्र में ही मनुष्यकी पूजा ) स्थान एव नराः पूज्यन्ते ॥ ३०९ ॥ मनुष्य अपने प्रभावक्षेत्रमें ही पूजे जाते हैं । विवरण - स्थानका विवक्षित अर्थ मनुष्योंका अपना प्रभावक्षेत्र ही है । प्रभावका ही माहात्म्य है स्थानका नहीं । प्रभावहीन मनुष्य सब ही स्थानों में निष्प्रभ रहता है । सत्यका प्रभाव ही प्रभाव है 1 भौतिक बलका प्रभाव प्रभाव नहीं है, वह तो भीति है । सत्यद्दीन व्यक्ति प्रत्येक स्थानमें असत्यका दास रहता है । सत्यनिष्ठ प्रभावशाली मनुष्य अपने आत्मब्रह से सब स्थानोंको अनुकूल बनाकर समुज्वल तथा आदरणीय रहता है । प्रतिष्ठित परिस्थिति में वही प्रभावशाली होता है जिसने वह परिस्थिति स्वयं बनाई होती है । कोई भी परिस्थिति किसी पुरुषार्थहीन प्रभावहीन व्यक्तिको प्रभावशाली नहीं बनासकती । असत्यका दास तो सत्यनिष्ठ परिस्थिति में नट होजाता है। इसके विपरीत सत्यनिष्ठ व्यक्ति असत्यकी परिस्थिति में पेक्षित रहता है । असत्य परिस्थितिमें तो असत्यकी दासता करनेवाला ही बादर पाता है । उसकी बनाई परिस्थिति सदा उसकी अनुकूलता करती रहती है । स्थानस्थितस्य कमलस्य सहायौ वारिभास्करौ । स्थानच्युतस्य तस्यैव क्लेदशोषकरावुभौ ॥ कमलके स्वस्थानमें लगे रहनेपर जल तथा सूर्य दोनों उसके सहायक होते हैं । परन्तु जब वह स्थानभ्रष्ट होजाता है तब जल तो उसके लिये क्केदकारक तथा सूर्य उसके लिये शोषक बनजाता है । कमलकी सजीव अवस्था ही उसके मृणालको सरल बनाये रखने में नियुक्त रहती है। वही डण्ठल निर्जीव कमलके लिये जलसंचार करनेमें असमर्थ होजाता है । मनुष्यको अपना प्रभावक्षेत्र, अपनी तपस्या तथा सत्यनिष्ठा से स्वयं बनाना पडता है | मानवहृदय में अपनी मनुष्यताको प्रकट रखनेकी अनुकूलता या प्रवृत्ति स्वभाव से रहती है। सत्यनिष्ठा तथा असत्यद्रोह ही मनुष्यका मानव Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपने प्रभावक्षेत्रमें ही मनुष्यकी पूजा धर्म है । जो मानव अपने हृदय में सत्यको अपने हृसिंहासनपर अभिषिक्त करदेता है, उसका स्वभाव अपनी बाह्य परिस्थितिको भी सत्यका रक्षक तथा असत्यका दलन करनेवाली बनाकर छोडता है। संसारका लोकमत इस बाा परिस्थितिपर उसीका अधिकार स्वीकार करता है जो सत्यकी मनुकूलता करता तथा असत्यके विरुद्ध अपने ज्ञानखड्गको तेजस्वी बनाये रखता है । राज्यसंस्थाके संचालक लोग सिंहासनारूढ रहने के योग्य तब ही रह सकते हैं जब वे अपने हृदय में असत्यको पराजित करके सत्यका संरक्षण करनेवाले विश्वसम्राट् बनचुके हों। सत्य ही समाजकी मनुष्यताका संरक्षक है । समाजके हृदयमें समाजकी मनुष्यताके संरक्षक सत्यरूपी सम्राटका राजसिंहासन स्वभावसे विद्यमान है । यह बाह्य राजसिंहासन समाज के हृदयस्थ सत्यसम्राटके राजसिंहासनका ही बाह्य प्रतीक है। दैवयोगसे इस बाह्य राज्यसिंहासनके शून्य हो जानेपर इसे पूर्ण करनेकी योग्यता उसी ग्यक्ति में होती है जो अपने हृदयसिंहासन पर सत्यको अभिषिक्त करचुका होता है । सुसंगठित मनुष्यताका संरक्षक मानवसमाज ही सत्यानुरागी राजाका अनुकूल क्षेत्र है। जब कभी ऐसा राजा उस समाजपर अपने राज्याधिकारके सदुपयोग करनेका सामर्थ्य लेकर इस बाह्य सिंहासनपर आरूढ होता है तब से राजसम्मान स्वभावसे मिल जाता है। सुसंगठित मानवसमाज ही राष्ट्रसेवक राजाका उपयुक्त स्थान है । मनुष्य. ताहीन असंगठित मानवसमाजका राजसिंहासन मनुष्यताहीन असुरोंको पापी लीलाओंसे कलंकित रहता है । वह कभी श्रेष्ठ लोगोंके हाथों में नहीं जा सकता । उस सिंहासनपर असुरोंके भनुमोदनसे ही कोई बैठपाता तथा जो कोई बैठता है वह भी असुरोंके हाथोंकी कठपुतली असुर ही होता है। वह बासुरीलीलाको ही पूरा करनेवाला नरपशु असुरों के हाथोंकी कठपुतली बनकर राजसिंहासनारूढ होकर अपनी राज्यलिप्साके सुखस्वप्नको भंग न होने देने के लिये अपनी कर्तव्यहीनतासे समाजलुण्ठन, नारीहरण, नरहस्या, Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ चाणक्यसूत्राणि शिशुषध, अग्निकाण्ड आदि पैशाचिक लीलाओंका नपुंसक तटस्थ दृष्टा मात्र बना रहता है । समाजद्रोहियोंका साथी बनकर धरित्रीको असुरभोग्य शक्तिहीन खंडों में विभक्त करके रुधिराप्लावित बनाकर दशों दिशाओंको चीरकारों, हाहाकारों, करुण क्रन्दनोंसे संत्रस्त तथा त्राहि-त्राहिके करुणध्वनिसे माकाश पाताल एक करवादेनेवाली आसुरी राजशक्तिका दृष्टान्त भारत में प्रत्यक्ष है। वह अपने स्वरूपको विचारशील लोगोंके सामने पापसमर्थक छद्मवेशी असुरके रूप में रखदेता है । भारत ब्रिटिशशासन की सबसे पिठली आसुरिकलीलाके दिनों में अपने हृदयपर पत्थर रखकर अपने गगों से अपना प्रभावस्थान न बनामकनेवाले अपने अयोग्य राजाओं की करतूने देखचुका है। चाणक्यने ढाई सहस्र वर्ष पूर्व भारत के लोगों के लिये अपनी आत्मशक्ति से ही भारतको अपना प्रभावक्षेत्र बनाये रखने के सम्बन्ध जो सावधान बागी कही थी, उसकी उपेक्षा करने का दुष्परिणाम बाज के भारतके वक्षःस्थल पर रुधिररंजित भाषामें लिखा हुआ है । बात यह है कि राज्यसंस्था निर्माण करनेवाला क्षेत्र निद्रि. तावस्थामें अचेत पडा हो तो राजसिंहासन अनिवार्य रूपमें असुरोंके ही हाथों में जाता है। उस सिंहासन पर चाहे जो बैठे वही या तो मनुष्यता. घाती असुर या मसुरों के हाथोंसदका जानेवाला नराकार पशु ही होता है। यदि किसी देशको स्वराज्यके मीठे फल चखने हों, तो उसे सत्यनिष्ठ राजा के प्रभावक्षेत्र तथा मानवताका संरक्षण करनेवाले समाजको ही स्वराज्यका उपयुक्त स्थान बनाना पड़ेगा । सत्यनिष्ठाका कर्मक्षेत्र सत्यरक्षक समाज ही स्वराज्यका उपयुक्त स्थान है । असत्यनिष्ठ समाजमें स्वराज्यका कोई स्थान नहीं है। असत्यनिष्ट समाजका राज्य तो एक प्रकारका लटका ठेका है। असत्यनिष्ठ समाजमें स्वराज्य होना संभव नहीं है। असत्यनिष्ठ समाजमें शासनव्यवस्थाका अति चालाक बड़े चोरोंके हाथों में चले जाना अनिवार्य होता है । स्वराज्य के फल नेफूलनेका योग्य स्थान सत्यनिष्ठ समाजमें ही है । भसत्यनिष्ठ समाजमें बडे चोरों के हाथों में दण्डव्यवस्था होती है और छोटे चोर दण्डके भागी बनाये जाते हैं । Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आर्य सदाचार पालनीय २७७ स्थानमुत्सृज्य गच्छन्ति सिंहाः सत्पुरुषा द्विजाः। तत्रैव निधनं यान्ति काकाः कापुरुषा मृगाः ॥ सिंह सत्पुरुष तथा ब्राह्मण लोग अपनी जन्मभूमिके माधारण स्थानको त्यागकर उत्कृष्ट योग्यता तथा स्थान ढूंढने के लिये विदेश चले जाते हैं । काक कापुरुष तथा मृग उत्पत्तिस्थानके मोहमें रहकर जहां पैदा होते हैं वहीं मरते हैं। द्वाविमौ ग्रसते भूमिः सपों बिलशयानिव । अरक्षितारं राजानं, ब्राह्मणं चाप्रवासिनम् ॥ भूमि बिलशयी जीवोंको खा डालनेवाले सर्प के समान प्रजाकी रक्षा न करने वाले राजा तथा ज्ञानार्जन के लिये प्रवास न करनेवाले ब्राह्मणको निगल ( आर्य सदाचार पालनीय आर्यवृत्तमनुतिछेत् ।। ३१० ॥ मनुष्य आयस्वभावको सदा सुरक्षित रक्ख । विवरण-- विद्या, विनय, नोति, धर्म तथा ज्ञान से सम्पन्न कोग आर्य सभ्य, सजन या साधु कहाते हैं । वशिष्ठने कहा है कर्तव्यमाचरन् काममकर्तव्यमनाचरन् । तिष्ठति प्रकृताचारे यः स आर्य इति स्मृतः ॥ वशिष्ठ मानवोचित कतव्यपालन करनेवाला तथा यथेच्छाचारी अमानवोचित कर्म करने से बचकर विचारशीलों की प्राचारपरम्पराको अक्षुण्ण रखने वाला कार्य कहाता है। मार्य चाणक्यको भारतको वैदेशिक आक्रमणोंसे बचानेकी जैसी धुन थी आज देशके क्षुब्ध वातावरणको, देश में मानवताके नामपर काम करनेवाली शक्तियों को झकझोर कर खडा कर देनेवाली तथा अनार्यताको कुचल डालनेवाली धुन रखनेवाले मार्य पुरुषों की आवश्यकता है। मार्य चाणक्य Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ নানুষ पूछना चाहते हैं कि " कृण्वन्तो विश्वमार्यम् ” नारेवाले कहां मुंह छिपाये बैठे हैं ? ( मर्यादोहंघन अकर्तव्य) कदापि मर्यादा नातिकामेत् ॥ ३११ ।। कभी भी शिष्टाचारकी सीमाका उल्लंघन न करो। विवरण- मनुष्य किसी भी उत्तेजना तथा कैसे भी संकटकाल में शिष्टोंकी मर्यादाओं नीतिनियमों तथा सदाचारसीमाओं का उल्लंघन न करे। शिष्ट व्यक्ति में शिष्टाचार न त्यागनेका सुदृढ स्वभाव होता है । उसके मनमें प्रतिक्षण यह सावधानवाणी गूंजती रहती है कि कहीं मेरा शिष्टाचार मेरी किसी असावधानतासे भंग न हो जाय । यदि कोई क्षणिक उत्तेजनासे माकर शिष्टाचारका सीमातिक्रमण करता है तो वह उसकी मशिष्ट मनोवृत्तिकी अभिव्यक्ति माना जाता है। सच्चा शिष्टाचारी अपने आपको कभी भी अशिष्ट की स्थिति में अध:पतित नहीं करसकता। उसका मन शिष्टा. चार की सीमामें रहने के लिये प्रतिक्षण सजग रहता है। यथा हि मलिनैर्वस्त्रैर्यत्रतत्रोपविश्यते । एवं चलितवृत्तस्तु वृत्तशेषं न रक्षति ।। जैसे मनुष्य मलिनवस्त्र होजानेपर ( उनके मैला होनेका डर न रहनेपर) उन्हें पहनकर जहाँ कहीं बैठ जाता है, इसीप्रकार चलितवृत्त मानव अपने शेष वृत्तको बचाने में असमर्थ होकर दुराचार के हाथोंमें आत्मसमर्पण करके अपना स्वतंत्र अस्तित्व समाप्त करलेता है । मानव जाने कि मर्यादाका उल्लंघन या नीतिनियमोंका भंग करते समय मनुष्यको जो क्षुद्र भौतिक सुख या लाभ होता दीखता है वह उसके सर्वनाशका श्रीगणेश होता है । पाठान्तर-- न कदापि मर्यादामतिक्रमेत् ।। (गुणी पुरुष राष्ट्र के अमूल्य धन ) नास्त्यर्घः पुरुषरत्नस्य ॥ ३१२ ॥ अपनी जीवनव्यापी तपस्यासे राष्ट्रके ललामभूत उत्तम बने हुए पुरुषरत्न की कोई उपमा या भौतिक मूल्य नहीं है। Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तपस्विनी स्त्रियां अनुपमरत्न ૨૭૨ विवरण- गुणीके गुणका कोई मूल्य नहीं होता। उसका गुण संसारी बाटोंसे नहीं तोला जासकता। विपुलतम भौतिक संपत्ति भी गणों की यथोचित पूजा नहीं कर सकती । यद्यपि रत्नों के व्यापारी रनों का मूल्य क लेते हैं परन्तु अपार वैदुष्य, अगाध गाम्भीर्य, उच्च चारित्र्य, अनुपम धैर्य, अप्रतिहत वीरता, सभापाण्डित्य, यशमें रुचि, साहस, संयम, सहन मादि गुणों से सम्पन्न पुरुषोंका मूल्य निर्धारित नहीं किया जासकता । गुणी लोगोंके गुण उनके मात्मसंतोषसे स्वयं पूजित रहते हैं। वे बाह्य जगत्के प्रमाणपत्रों के प्रतीक्षक नहीं होते। गुरून् कुर्वन्ति ते वंश्यानन्वर्था तैर्वसुन्धरा । येषां यशांसि शुभ्राणि हृपयन्तीन्दुमण्डलम् ॥ वे लोग अपनी महिमासे अपने कुल में उत्पन्न होने वाले सबको ही बड़ा बनादेते हैं, उन लोगों के संपारकी महत्वपूर्ण विभूति होनेसे वसुन्धरा उनके कारण सच्चे अर्थों में वसन्धरा कहाने लगती है, जिनके निष्कलंक शुभ्रयश अपने सौन्दर्यसे चन्द्रमण्डलको भी नीचा दिखा देते हैं । धन्य हैं वे देश जहां ऐसे पुरुषरत्न उत्पन्न होते तथा जहां के लोग अपनी शिक्षाशालाओं को ऐसे पुरुष उत्पन्न करनेवाली बनाकर रखते हैं। ( सच्चरित्र तपस्विनी स्त्रियाँ राष्ट्र के अनुपमरत्न ) न स्त्रीरत्नसमं रत्नम् ॥ ३१३ ॥ कुलभूषण सहधर्मिणीके समान संसारमें कोई रत्न नहीं है। विवरण- जाति कुलधों को संरक्षिका, सच्चरित्रा, तपस्विनी, सहधर्मिणियों जैसा संसारमें कोई रत्न नहीं है । स्त्रीरत्न महापुरुषों को कोखमें धारण करनेवाली माता है। वह अपने पवित्र, उदार, तेजस्वी, तपस्वी विचागेसे महापुरुषोंका निर्माण करती है। जिस देश में पुरुषसिंह उत्पन्न करने. वाली जगद्धात्री जगन्माताका प्रत्यक्ष प्रतीक मादर्शसन्तानपालिनी स्त्री रूप. धारी रत्न उत्पन्न होते हैं वह धन्य है । Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० चाणक्यसूत्राणि ( गुणी स्त्रीपुरुषों की दुर्लभता समाजका महादुर्भाग्य ) सुदुर्लभं रत्नम् ॥ ३१४ ॥ गुणी लोग संसारमें सुदुर्लभ होते हैं । विवरण - जिसका सौन्दर्य तथा तेजस्विता चित्ताकर्षक होती है वही बरन कहाता है । समाजको अलंकृत करनेवाले स्त्रीपुरुष रत्न कहाते हैं । किसी देश में समाज के ललामभूत स्त्रीपुरुषोंका उत्पन्न होते रहना उस देशका सौभाग्य है । राज्यव्यवस्थापकोंका कर्तव्य है कि वे अपने देश में रत्नको उत्पन्न करनेयोग्य पवित्र वातावरण बनाकर रक्खें । राजाका कर्तव्य है कि वह स्वयं अपने समाजके ऐसे दुर्लभ नरनारियोंको पहचाननेवाला रत्न बनकर उन्हें अपने राष्ट्र के शिरोभूषण के रूप में पूज्य वरेण्य स्थान देकर समाजकी श्रीवृद्धि करे । रत्न शब्द स्वजाति में श्रेष्ठ तथा सूर्यकान्त, चन्द्रकान्त, पद्मराग, नीलकान्त आदि विविधरनोंका वाचक है । रत्न धारण करना धन्य यशस्य मायुष्य, श्रीवर्धक व्यसननाशक हर्षण, काम्य तथा औजस्य मानाजाता है : समाज में मनुष्यत्व के संरक्षक लोग राष्ट्रके वरेण्य रत्न हैं । मनुष्यताका संर क्षण रत्नपरिचय करनेकी कसौटी है । भारतकी वैदेशिक विश्वविद्यालयों तथा वैदेशिक वक्तृतामंचों ( प्लेटफार्मों) से विजातीय रहन-सहन के उपासक मनुष्यताघाती वैदेशिक जडवादी सभ्यता के उच्छिष्टभोजी भासुरी सभ्यताकी चापलूसीकर के प्रमाणपत्रसंग्रह करनेवाले आत्मसम्मानद्दीन अनुकरणपरायण पवित्र सनातन आर्यसंस्कृति पर कुठाराघात करनेवाले श्वेतवस्त्रावृत ( सफेदपोश ) नकली रत्नोंको झाडबुहार कर फेंकनेवाली आंखें खुरुजानी चाहिये ! पाठान्तर- दुर्लभं रत्नम् । ( निन्दित आचरण जीवनकी भीषण अवस्था ) अयशो भयं भयेषु || ३१५ ॥ अपयश अर्थात् निन्दाई आचरण मनुष्यको मनुष्यतासे हीन बनाडालनेवाली भीषणतम अवस्था है । Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अलस विद्याका अनधिकारी विवरण - जब राज्यसंस्था लोकनिन्दाका पात्र नहीं बनती, तब ही राष्ट्रमें गुणों का प्रसार होता है। इसके विपरीत राज्यव्यवस्थामें भ्रष्टाचारी लोकनिन्दित देशद्रोही अयोग्य लोगोंको प्रवेशाधिकार मिलजाना राष्ट्रका कलंक है । यह स्थिति राष्ट्र की पतितावस्थाको द्योतक है । धार्मिक दृष्टि से उन्नत राष्ट्र ही नररत्नोंको उत्पन्न करनेवाली रत्नखान होता है । अयश शब्द गुणहीनता अपकीर्ति तथा निन्दाका वाचक है। गीताके शब्दोंमें " संभावितस्य चाकीर्तिमरणादतिरिच्यते '' प्रतिष्ठित मनु. ब्यकी अकीर्ति मरणसे अधिक कष्टप्रद है। अपमानं तथा लजा वन्धनं भयमेव च । रोगशोको स्मृतभगो मृत्युश्चाष्टविधः स्मृतः॥ अपमान, अकर्तध्यानुष्ठानसे प्राप्त लजा, अन्धन, भय, रोग, शोक, स्मृतिभ्रंश इन सात भेदोंके कारण मृत्यु माठ प्रकारकी मानी जाती है । समाजसे अननुमोदित अवैध कर्म करने से अयश होता है। इललिय मनुष्य अपने जीवन में अपवादका अवसर न आने देने के लिये पूर्ण सावधान रहे । किंवदन्ती है- " परीवादस्तथ्यो हरति महिमानं जनरवः '' सच्ची निन्दा करनेवाला निष्पक्ष न्याय दण्डधारी लोकमत मनुष्य की महिमाको नष्ट करडालता है। ( अलन्द विद्या का अनधिकारी) नास्त्यलसस्य शास्त्राधिगमः ॥ ३१६ ॥ पुरुषार्थहीन अजितेन्द्रिय व्यक्तिको शास्त्र पर अधिकार प्राप्त नहीं होता। विवरण- शास्त्रपर पूर्ण अधिकार पाने के लिये सुदीर्घ कालतक निर. न्तर श्रद्धा, उत्साह तथा गहरी लगनसे सतत जाग्रत रहकर उसका विलो. उन तथा हृदयका मंथन करके ज्ञानामृत निकालना पडता है । यद्यपि मनु Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ चाणक्यसूत्राणि यके मनमें ज्ञानका सागर है, परन्तु वह ज्ञानरूपी मन्थन दण्डसे हृदयका मन्धन करने पर ही प्राप्त होकर मानवको शास्त्रज्ञ बनाता है । प्राप्तव्य वस्तुके प्रति उदासीनता ही आलस्य है । जितेन्द्रियता ही मनुष्यका एकमात्र अध्येतव्य तथा प्राप्तव्य अनुपम शास्त्र है । ऊपर कह आये हैं ' इन्द्रियाणां प्रशमं शास्त्रम् ' । जितेन्द्रियताको अपनानेके लिये सात्विक पुरुषार्थ न करनेवाले लोग ही आलसी कद्राते हैं । अलसी मन्दबुद्धिश्व सुखी वा व्याधिपीडितः । निद्रालुः कामुकश्चैव पडेते शास्त्रवर्जिताः ॥ आलसी, मन्दबुद्धि, सुखलोलुप, रोगी, निद्रालु तथा कामी ये शास्त्रवर्जित लोग हैं । आलस्याद् बुद्धिमान्यंच आलस्यात्कार्यवैक्लवम् । आलस्यादवनतिश्चैव गौरवं तेन नश्यति ॥ आलस्य से बुद्धिकी मन्दता, कार्यकी हानि तथा भवनति होती है। उससे गौरव नष्ट होजाता है । इसलिये उन्नतिकामी लोग सदा निरलस रहें । पाठान्तर --- नास्त्यालस्यस्य शास्त्राधिगमः । ( स्त्रैण कर्तव्यहीन तथा दुःखी ) न स्त्रैणस्य स्वर्गाप्तिर्धर्मकृत्यञ्च ॥ ३१७ ॥ • रमणीरत स्त्रैण न तो धर्मकृत्य करसकता तथा न सुखी रह सकता है । विवरण - इन्द्रियाधीन, भोगेक सर्वस्व, कामकिंकर, विषयलम्पट मर्या दाहीन कामी पुरुष न तो अपना मानवोचित कर्तव्य पालसकता और न शारीरिक मानसिक किसी भी प्रकारका सुख पासकता है । तपस्वी, संयमी, उद्यमी, इन्द्रियनिग्रही जीवन बिताने से मनुष्य में तेज, ओज, वर्चस, प्रभाव आदि वे गुण पैदा होते हैं जो मनुष्यको प्रभावबाली बनाते हैं । भोगलोलुपतासे मनुष्यका मोज क्षीण होकर उसका मन, Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्त्रैण स्त्रियोंसे भी अपमानित २८३ इन्द्रिय तथा देह किसी भी शुभकर्म करने के योग्य नहीं रहते । ऐसे मान. बको शारीरिक मानसिक किसी भी प्रकार का सुख प्राप्त नहीं होता। समाजसेवा, यज्ञ, सत्संग आदि आत्मोद्धारक कर्म धर्मकृत्य कहाते हैं । कामुक, लम्पट, स्यासक्त, स्टैण, रमणीरत आदि पर्यायवाची शब्द हैं। (स्त्रैण स्त्रियोंसे भी अपमानित ) स्त्रियोऽपि स्त्रैणमवमन्यन्ते ।। ३१८॥ सहधर्मिणी भी स्त्रैण पुरुषोंको अवज्ञाकी दृष्टिसे देखती हैं। विवरण- विषयलोलुप कामासक्त लोग अपनी विषयलोलुपता, कामा. मकि, निरयगामी नीच स्वभाव तथा अमनुष्योचित भोगप्रवृत्तियों से अपनी धर्मपरायण स्त्रियोंकी दृष्टि में भी अवज्ञाके पात्र बनजाते हैं। विचारशील पत्नियां अपने सहधर्मी पुरुषोंको धीर, गंभीर, संयमी, अलोलुप, स्वावलम्बी और हृष्ट पुष्ट देखना चाहती है। लोलुप, कामी लोग समाजमें तो निन्दित होते ही हैं, अपने घरमें भी अपनी प्रतिष्ठा खोलेते तथा घरोंको नीति तथा दुराचारका अड़ा बनालेते हैं। लोलुप, कामी लोग मानसिक रूपमें दुर्बल होने के कारण अकर्मण्य, अविश्वासी, अनुरसाहो, अश्रद्धेय, अधीर, अगंभीर, असंयमी, अयशस्वी तथा निर्बल होजाते हैं। स्वैग लोग सञ्चारित्र्य तथा सच्छक्तिके अभाव के कारण सुधी समाज में अव. हलित रहते हैं। पुरुषका यही गुण माना जाता है कि वह पुरुषार्थसे सम्पन्न हो तथा अपने गुणों तथा परिश्रमोसे अपने समाजको अलंकृत करे। जो लोग इन गुणोंसे भ्रष्ट होते हैं, जो समाजके कलंकस्वरूप होते हैं, उनकी सहधर्मिणियां भी उन्हें घृणाकी दृष्टि से देखती हैं । सहधर्मिणी अपने भर्ताको समाजमें तो यशस्वी पुरुषसिंह के रूप में तथा घरमें घरको गौरवान्वित करने. चाले रूपमें देखने की इच्छा लेकर ही उसे पतिरूपमें वरण करती हैं। वे अपने चरको कलंकसागरमें डूबोदेने के लिये भर्ताका वरण नहीं करती। न पुष्पार्थी सिंचति शष्कतरुम् ॥ ३१॥ जैसे पुष्पार्थी शुष्क तरुको न सींचकर जीवितको सींचता है Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि इसी प्रकार समाजकी शोभा बढानेवाले पुत्ररत्न उत्पन्न करनेवाली पत्नियों में स्वाभाविक आग्रह होता है कि उन्हें ऐसे पति मिले जो समाजको सुशोभित करनेवाले हों । २८४ विवरण- पुत्ररत्नोंकी उत्पादक पत्नियां आदर्शच्युत स्त्रैण पतिके आदर्शसे अपने घरों के वातावरणको कलंकित देखना नहीं चाहतीं । जितेन्द्रियता ( अर्थात् धर्मविरोधी कामभोग न चाइना ) ही संसारका सच्चा सुख तथा मानवजीवनकी आकांक्षणीय सार वस्तु है । सारग्राही लोग आलस्य तथा अवैध भोगको कभी नहीं अपना सकते तथा विषयलोलुप निकम्मे होकर कभी नहीं पड़े रहसकते । जिसकी जिसमें प्रयोजनसिद्धि हो वह उसीके लिये प्रयत्न करे। उदाहरण के रूपमें दुग्धार्थी धेनुसेवासे दुग्ध प्राप्त कर सकता है वृषभ दोहनसे नहीं । अथवा - जैसे पुष्पार्थी शुष्कतरुसिंचन नहीं करते, इसीप्रकार मनुष्योचिन जीवन बिताने तथा अपनी सन्तानोंके लिये सुशिक्षाका वातावरण बनाकर अपनेको समाजका भूषणस्वरूप बनाकर रखने की इच्छुक परिनय अमनुष्योचित लोलुपता तथा लम्पटतावाले अवीर पतियोंसे प्रसन्न नहीं gian पाठान्तर -- पुष्पार्थिनः सिंचन्ति अद्भिः पुष्पतरुम् । जैसे पुत्रपार्थी लोग जलोंसे पुष्पवृक्षको ही सींचते हैं, इसी प्रकार सुखार्थी लोग अपने जीवनको सुखके प्रस्रवण संयमस्रोतस्विनी से ही सिंचित करें । ( भ्रान्त उपायों से सुखान्वेषण निष्फल ) अद्रव्यप्रयत्नो बालुकाक्काथनादनन्यः ॥ ३२० ॥ जैसे भूख मिटानेके लिये बालुकाको उबालना निरर्थक होता है इसी प्रकार भ्रान्त उपायोंसे सुखान्वेषण भी व्यर्थ होता है । विवरण - इन्द्रियासक्ति ऊपर से सुखद दीखनेपर भी सुखकी ऊपपर Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिहास अकर्तव्य भूमि है । इन्द्रियासक्ति में सुख पानेकी उच्छा मनुष्यका उतना ही यथ प्रयत्न है जितना कि बालुका उबालकर सरस भोजन पानेकी अभिलाषा । विषयतृष्णाको चरितार्थ करके सुखान्वेषण करना अपने को अनन्त दुःखजाल में फंसालेना होता है । समाजमें मनुष्यता के संरक्षक संयमका आदर्श रखने पर ही उसमें सुख शान्ति सुरक्षित रह सकती है । इसके विपरीत समाजको भोगमात्रलक्ष्यवाले जडवाद के पीछे चलाना उसे दुःख तथा नैराश्य के मार्गपर लेचलना है । समाजको मानवताके संरक्षक संयम के आदर्श पर रखना राज्यसंस्थाका सामाजिक उत्तरदायित्व है । अपनी राज्य संस्थाको सामाजिक उत्तरदायित्वको पूरा करनेवाले कर्तव्यमार्गपर रखना ही समाअपति विज्ञपुरुषों का ध्येय होना चाहिये । २८५ पाठान्तर बालुकापीडनादनन्यः । अनुचित स्थानमें प्रयत्न तेलके किये बालू निचोड़ने जैसा निष्फल अयत्न है । (सीधे-सादे सत्यनिष्ठोंका परिहास अकर्तव्य ) न महाजनहासः कर्तव्यः ॥ ३२१ ॥ विज्ञ समाजसेवकका उपहास नहीं करना चाहिये । विवरण - मनुष्य में विद्या, प्रताप, उदारता, अनुभव, धन तथा धर्मके कारण महानता आती है । इन गुणोंसे संपन्न वर्तमान या भूत लोगोंको उपहास या उपेक्षाका पात्र नहीं बनाना चाहिये। इस प्रवृत्तिसे अपने मनमें भी हीनवृत्ति पैदा होती तथा उपहासकर्ताको भी लोगोंकी दृष्टि में हीन बना देती है । ऐसे लोग साधुताद्रोही होकर महापुरुषोंसे मिलनेवाले लाभोंसे वंचित होजाते हैं । लोकोक्ति है- " प्रतिबघ्नाति हि श्रेयः पूज्यपूज्याव्यतिक्रमः " पूज्योंकी पूजा न करनेसे मनुष्यका कल्याण नष्ट होजाता है । असत्यनिष्ठ भोगपरायण जडवादके पीछे भटकनेवाली सभ्यता नामवाली बर्बरता जहां कहीं विद्वत्ता, सत्यनिष्ठा, मनुष्यता, तेजस्विता, Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ चाणक्यसूत्राणि वीरता, साधुता, सादगी आदि सद्गुण देखती है, वहीं उसकी भोर उपेक्षा तथा उपहासपरायण घृणाभरी दृष्टि डाले बिना नहीं मानती । भासुरी समाजका साहित्य, सभा-समिति, शिक्षा-दीक्षा, वेश-भूषा आदि सब कुछ मनुष्यता के आदर्शको नीचा दिखाने तथा उसकी हंसी उड़ाने में ही अपनी बुद्धिमत्ता तथा सार्थकता समझते हैं । ( अश्लील परिहास न करो ) ( अधिक सूत्र ) न नर्मपरीहासः कर्तव्यः । अश्लील परिहास न करे । विवरण - अश्लील गंवार परिहास, लघुता, असारता, अगंभीरता, अप्रतिष्ठा, अपमान तथा नीतिभ्रष्टताका परिचायक है । सभ्य समाजको अपने राष्ट्रकी पवित्रताकी रक्षा करनेके लिये अपनी शिक्षाव्यवस्था में मनुष्यतः संरक्षक सत्यानुमोदित शासन करनेवाले शिष्टाचारको महत्व देना चाहिये । शिष्टाचार में चपलता, लघुता, मिथ्यादिखावा, असंयम, मदान्ध भोगियों की अनुकरणप्रियताको प्रवेशाधिकार नहीं मिलता । समाजके सच्चे सेवक ही शिष्ट नाम से सम्मानित होने योग्य हैं । उनका आचार ही शिष्टाचाररूप में सम्मान पानेका अधिकारी है । ( कारण संग्रह से कार्य सफलता ) कार्यसम्पदं निमित्तानि सूचयन्ति ।। ३२२ ।। कारणसंग्रह ही कार्यकी सफलताकी सूचना देते हैं। विवरण -- असत्यका विरोध करना ही सत्यरक्षारूपी कार्य है । असत्य विरोधरूपी सत्यरक्षा दी मनुष्यसमाज में सर्वमान्य कर्तव्य है । इस कर्तव्यको स्वीकार करनेकी प्रेरणा देनेवाली प्रेरक भावना ही इस सत्यरक्षारूपी महत्वपूर्ण कार्यका कारण या निमित्त है । भावनाकी जो शुद्धता होती है वही तो कर्तव्यकी सफलताकी सूचना होती है । कर्तव्य में पश्चाताप के अवसरका न रहना ही कर्तव्यकी सफलता है । जो किसी कामको अपने अत्याज्य कर्तव्य के Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शैयार्थी मुहूर्त नहीं देखता २८१ रूपमें स्वीकार करलेता है वह अपनी भावनाकी शुद्धताको स्वयं अपने मानसनेत्रोंसे देखकर उसके शुभाशुभ भौतिक परिणामोंके विषय में समष्टि रखकर पश्चातापके अतीत होजाता है। कर्तव्यनिष्ठ व्यक्ति गीताके शब्दों में "आत्मन्येवात्मना तुष्टः'' की स्थिति में पहुंचकर असत्यविरोधरूपी धर्मयुद्ध का विजयी योद्धा बनचुका होता है। उसे अपने विजयशील योद्धा बनचुकनेकी सूचना अपने अभ्रान्त कर्तव्यनिर्णय से स्वयं ही मिल जाती है। (कारणसंग्रहका महत्व ) नक्षत्रादपि निमित्तानि विशेषयन्ति ।। ३२३॥ निमित्त नक्षत्रोंसे भी अधिक महत्व रखते हैं। विवरण मनुष्यसमाजमें किसी शुभ कार्यका प्रारंभ करने के लिये नक्षत्रगतियोंके आधार पर शुभ मुहूर्त देखना प्रचलित है । परन्तु वास्तवि. कताकी दृष्टि में कार्यकी निश्चित सफलताकी सूचना तो यही होती है कि शुभ कार्य में उस कार्य के निमित्तकारण अभ्रान्त हो। निमित्तोंके अभ्रान्त होनेका अभिप्राय यह है कि उस कर्तग्यकी प्रेरणा देनेवाली भावना शुद्ध अटल तथा बलवती हो। जब वर्तमान क्षणके कर्तव्यको इस रीतिसे निश्चित कर लिया जाय फिर उसमें विलम्ब न करके उसे तत्क्षण पाललेना चाहिये। कर्तव्यपालनमें विलम्ब करना ही शुभ मुहूर्तको खोदेना तथा उसे तत्क्षण करडालना ही शुभ मुहूर्तको मुष्टि में निगृहीत करलेना होता है । पाठान्तर- नक्षत्रादिनिमित्तानि विशेषयन्ति । नक्षत्र आदि निमित्त भावी घटनाओं की विशेष सूचना देदेते हैं । (शैन्यार्थी मुहूर्त नहीं देखता ) न त्वरितस्य नक्षत्रपरीक्षा ॥ ३२४ ।। जिसे किसी कार्यको शीघ्र करना हो वह नक्षत्रपरीक्षाक झगडमें न पडे। Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ चाणक्यसूत्राणि विवरण- वह तो उत्साह तथा अपनी दृढताको ही शुभ मुहूर्त मानकर काम प्रारंभ करे | कर्तव्यको तत्काल पालन करनेवाले कर्तव्यशील के लिये नक्षत्रकी अनुकूलता देखनेका अवसर नहीं है । कर्तव्यशील के लिए नक्षत्रकी अनुकूलता कोई महत्व नहीं रखती । उसके लिए कर्तव्यकी अनिवार्यता ही अनुकूलता है । ( दोषज्ञानकी स्थिति ) परिचये दोषा न छाद्यन्ते ॥ ३२५ ॥ परिचित होजाने पर किसीके दोष अज्ञात नहीं रहते। विवरण - परिचितके दोषगुणके संबंध में अभ्रान्त तथा निःसंदिग्ध होजाना ही सच्चा परिचय है। किसीका विश्वास करनेसे पहले उससे सुपरिचित होजाना अत्यावश्यक है । पर्याप्त परिचयके बिना किसीका विश्वास करलेनेसे प्रतारित होने की पूरी आशंका रहती है। परिचय होनेपर गुणदोष दोनों प्रकाश में आजाते हैं । पूरा परिचय हुए बिना लोकचरित्रको समझना असंभव है। परिचय के बिना मनुष्य के विषय में पर्याप्त भ्रम रहता है । ज्ञानी अपने जैसे ज्ञानीका ही विश्वास करसकता है । मनुष्य स्वयं कसौटी बनकर ही दूसरे ज्ञानी के साथ सहयोगका संबन्ध जोड़ने की योग्यता पाता है 1 ( बुरोंके लिये संसार में कोई भला नहीं ) स्वयमशुद्धः परानाशंकते ।। ३२६ ।। स्वयं पापी व्यक्ति अपनी कसौटी पर कसकर दूसरे भद्र लोगों को भी पापी समझलेता है । विवरण- स्वयं पतित व्यक्ति दूसरों को भी अपनी ही कसौटी पर कसकर सबको अपने ही समान अशुद्ध समझकर अपना सहयोगी बनाना चाहता है । अशुद्ध के लिये संसार में भले लोग नामकी कोई वस्तु नहीं होती 1 Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वभाव नहीं छूट सकता ( स्वभाव नहीं छूट सकता ) स्वभावो दुरतिक्रमः ।। ३२७ ॥ ૨૮૩ स्वभाव त्यागना कष्टसाध्य होता है । विवरण - मनुष्यका मन ज्ञानी या अज्ञानी दोनोमेंसे किसी एक स्थितिको अपनाकर स्वभाव के प्रवाह में बहकर या तो ज्ञानानुकूल या अज्ञानोचित आचरणों में आनन्द मानाकरता है । एक दिन किया हुआ कर्म अगले दिन स्वभाव बनजाता है । स्वभावानुयायी काम करना किसी एक दिनमें सीमित न रहकर सदातन स्वभावका रूप ग्रहण करलेता है । यह असंभव बात है कि एक दिन शुभकर्म में आनंद लेनेवाला मनुष्य अगले दिन अशुभकर्म करनेवाला अज्ञानी बनजाय। यह भी असंभव है कि पहले दिन अशुभ कर्म करनेवाला अशुभकर्ममें सुखबुद्धि रखता हुआ अज्ञानी अगले दिन शुभकर्म करनेवाला ज्ञानी बनजाय । जबतक अज्ञानीको अज्ञानमें मिठास आता रहता है तबतक शुभकर्म उसके लिये कष्टसाध्य या कष्टप्रद ही बना रहता है। शुद्ध भावनाकी मधुरता हो शुभकर्म कराती तथा करासकती है । शुद्ध भावना ही ज्ञान है । जब मनुष्य ज्ञानी बनचुकता है तब ही उसका मन शुभकर्मका मिष्टास्वादन करनेमें समर्थ होता है । यों ज्ञानकी आंखें बन्द करके रहनेवाले अज्ञानी का कोई भी आचरण उन्मीलितचक्षु ज्ञानीके आचरणके समान नहीं हो सकता । इस दृष्टिसे ज्ञानीसमाजका कर्तव्य है कि वह राष्ट्रसेवार्थी के ज्ञानका पूर्ण परिचय पाये बिना, उसे समाजकल्याणसे संबन्ध रखनेवाली राष्ट्रसेवा के क्षेत्र में सम्मिलित वा नियुक्त न करे । यही यहां इस सूत्रका अभिप्राय है । पहले तो मनुष्य अपनी स्वतंत्रताका दुरुपयोग करके अज्ञानी स्वभाव बनाता है फिर उसीके अधीन होकर बैठजाता है । फिर अपना ही बनाया हुआ स्वभाव उसे अत्याज्य दीखने लगता है । यह मनुष्यकी अज्ञानमयी स्थिति है । परन्तु जब मनुष्य ज्ञानकी अभ्रान्त दृष्टि लेकर कोई दृढनिश्चय करता है तब उसके पुरुषार्थके सामने कोई भी शुभकर्म दुःसाध्य नहीं रद्द१९ (चाणक्य) Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९० चाणक्यसूत्राणि पाता । जब एक क्षुद्र नदी चलपडनेका दृढनिश्चय करके अपने उद्गम स्थानसे निकल पडती है, तब विशालकाय पर्वतोंकी भीमकाय चट्टानोंको भी, उस दृढनिश्चयी नदीको मार्ग देनेके लिये अपने आपको द्वितटभूमि बना. लेना पड़ता है। यह सब दृढनिश्चयकी अपार महिमा है । दृढनिश्चय ज्ञानीका ही एकाधिकार है । ज्ञानमें ही दृढता स्थिरता तथा अक्षय सुख है अज्ञानमें महढता भस्थिरता तथा दुःख है । दृढनिश्चयके अभावमें अज्ञानीका मोहग्रस्त स्वभाव दुरतिक्रम या दुस्त्याज्य बनारहता है । ज्ञानी अज्ञानी दोनों सूर्यकी तेजस्विता तथा अंगारकी कालिमाकी भांति सर्वथा अपरित्याज्य भिन्नभिन्न स्वभाव रखते हैं । परन्तु जैसे मंगारके जलकर राख होजानेपर उसमें शुभ्रता आजाती है, इसीप्रकार अज्ञानके परित्यक्त होजानेपर मानवमन में शुभ्रता माना स्वाभाविक होजाता है । मनुष्यका मन स्वभावसे सुखानुरागी है। वह दुःखसेवी बनना कभी नहीं चाहता । अज्ञानी अज्ञानमें सुख मानता तथा ज्ञानी ज्ञानमें सुस्का मानता है । अज्ञानी ज्ञानीके तथा ज्ञानी अज्ञानीके आचरणोंको नहीं अपना. सकता। इसलिये नहीं अपनासकता कि उसे उसीमें सुख प्राप्त होता है। ज्ञानी के लिये ज्ञानयुक्त तथा मज्ञानीके लिये अज्ञानयुक्त आचरण ही सुखसाध्य होता है । प्रायः लोग समझते हैं कि ज्ञानी अज्ञानियोंके साथ मिल. कर उपयोगी कार्य करसकता है। परन्तु यह उनका भ्रम है। ज्ञानी मज्ञानियोंके साथ मिलकर कोई भी महान् उद्देश्य सिद्ध नहीं करसकता। ज्ञानीका भाचरण ही राष्ट्र में सार्वजनिक कल्याणकारी आचरणके रूपमें अपनाने योग्य होता है । ज्ञानी ही राष्ट्र कल्याणमें अपना जीवन समर्पित करसकता है। राष्ट्रसंस्थामें ज्ञानियों को ही प्रवेशाधिकार मिलना चाहिये । राज्यसंस्थाके सुखलोभ पैदा करसकनेवाला होनेसे उसका निर्माण करनेवाला मनुष्यसमाज राज्यसंस्थानिर्माणके कामको मनुष्यताके संरक्षक ज्ञानी लोगोंके हाथों में सौंपकर ही निश्चित होसकता है । इस दृष्टि से सुखलोभ पैदा करसकनेवाली राजसेवामें अज्ञानियोंको सम्मिलित करने की भ्रान्ति नहीं करनी तथा नहीं होने देनी चाहिये । इसलिये नहीं करनी चाहिये कि अज्ञानी मानव अपने भाचरणोंमेंसे अमनुष्योचित सुखेच्छाका त्याग नहीं करसकता। वह हाथमें Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दण्डका परिमाण २९१ राज्याधिकार पाकर राष्टको अपनी आसुरिकताका ताण्डवक्षेत्र बनाये बिना नहीं मानता । इस दृष्टिसे ज्ञानीसमाजका कर्तव्य है कि वह राष्ट्रसेवार्थीके ज्ञान अर्थात् हृदयशुद्धिका पूरा परिचय पाये बिना उसे समाजकल्याणसे संबन्ध रखनेवाले राष्ट्र सेवाक्षेत्रमें सम्मिलित न करे या न होने दे। यह बात भी ज्ञानीके स्वभावके विरुद्ध है कि वह मज्ञानियों के साथ समझौता करके मिली-जुली राष्ट्रसेवामें उनका सहयोग करे या उनसे सहयोग प्राप्त करे। बात यह है कि सेवा मात्मसन्तोष दिलानेवाली है । पद-पद पर विरोध पस्थित करते रहनेवाले अज्ञानीके साथ सम्मिलित होना ज्ञानीके स्वभावके विरुद्ध है। विचारोंकी एकता दी मिलनकी कुंजी है। ज्ञानी अज्ञानीके स्वभाव पूर्व-पश्चिमके समान सर्वथा भिन्न होते हैं । विचार मनष्यके स्वभावका ही प्रतिनिधित्व करता है । विचारों का पूर्ण परिचय पाये बिना किसीके स्वभावका परिचय होना असंभव है। ( दण्डका परिमाण) अपराधानुरूपो दण्डः ।। ३२८॥ दण्ड अपराधके अनुरूप होना चाहिये। विवरण- गुरु अपराधमें लघुदण्ड, लघुमपराधमें गुरुदण्ड, निरपराधको दण्ड, तथा सापराधको मदण्ड होनेसे समाजमें क्षोभ तथा अनीति फैलती है । दण्डन्यवस्था न होनेसे लोकमें मात्स्यन्याय ( बड़ी मछलीका छोटियोंको खालेना-शक्तिमानोंका निर्बलोंको उत्पीडित करने लगना ) चल पडता है तथा राष्ट्र अराजक होजाता है। दण्ड प्रजाकी रक्षा तथा सुशासन बनाये रखने में अत्यावश्यक साधन है । दण्डः शास्ति प्रजाः सर्वाः दण्ड एवाभिरक्षात । दण्डः सुप्तेषु जागर्ति दण्डं धर्म विदुर्बुधाः ॥ (मनु) दण्ड ही प्रजा पर शासन तथा उसकी रक्षा करने वाला है। वह सोते. हुओं में भी जागता है। इसलिय विद्वान् लोग (धर्मको धर्म न कहकर धर्मका संरक्षक होनेसे ) दण्डको ही धर्म कहते हैं । Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि अदण्ड्यान् दण्डयन राजा दण्ड्यांश्चैवाप्यदण्डयन् । अयशो महदाप्नोति नरकञ्चाधिगच्छति ॥ मण्डनीयोंको दण्द देता तथा दण्डनीयोंको दण्ड न देताहुमा राजा अपयश पाता तथा अदण्डित होनेसे उदण्ड बने हुए अपराधियोंकी बुलाई विपत्ति में फंसजाता है । दण्ड अपराधीका अनिवार्य प्राप्य है। अपराधी अपराध करके अपने माप दण्डका आह्वान करता है। पापीके दंडित होनेके मूलमें दण्डदाताका कर्तापन न होकर अपराधीका ही कर्तापन रहता है। पापी ही स्वयं दण्डदाताको दण्ड देने के लिये विवश करता है। जैसे अनुचित कठोरदण्ड प्रजामें अशुभ प्रतिक्रियाका उत्पादक होनेसे उत्तेजना फैलानेवाला होता है, इसीप्रकार मृदुदण्ड भी पापोत्तेजक होनेसे हानिकारक होता है। वधोऽर्थग्रहणं चैव परिक्लेशस्तथैव च। इति दण्डविधानदण्डोऽपि त्रिविधः स्मृतः ॥ दण्डविधिके ज्ञाता वध, अर्थग्रहण तथा शरीरके बन्धन, ताडन, मसना, निन्दा मादि भेदसे दण्डको तीन प्रकारका कहते हैं। दण्डके संबन्धमें विशेष जाननेके लिये अर्थशास्त्र, युक्तिकल्पतरु, भार्गवनीति, महाभारत, राजधर्म आदि देखने चाहिये। ( उत्तर कैसा हो ?) कथानुरूपं प्रतिवचनम् ।। ३२९॥ प्रत्युत्तर प्रश्नके अनुरूप होना चाहिये। विवरण- अविश्वासपात्र लोगोंके प्रश्नों का उत्तर देते समय निम्नप्रकारसे सोचना चाहिये । प्रश्नसे अधिक उत्तर देनेसे मनके वे गुप्त तत्व, जिन्हें अनधिकारीको नहीं बताना चाहिये, मुंइसे निकलपडते हैं तथा हानि करते हैं । प्रश्नका उत्तर संयत भाषामें अपने तथा प्रश्नकर्ताके अधिकारको पूरा विचारकर देना चाहिये कि प्रश्नकर्ताको मुझसे इस बातका उत्तर लेने Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेशभूषा कैसी हो? २९३ तथा मुझे उसे इसका यथार्थ उत्तर देनेका अधिकार भी है या नहीं ? यदि प्रश्नकर्ताको अधिकार न हो, या हमारा उसे उसके प्रश्नका यथार्थ उत्तरदेना कर्तव्य न हो, तो दोनों भवस्थानों में बातको किसी भी प्रकार टालदेना चाहिये या अयथार्य उत्तर देकर उसकी अनधिकारचेष्टापर आघात करना चाहिये । सत्यवादी या यथार्थवादीपनके भ्रममें आकर चाहे जिसे चाहे जो बात बताकर समाजका भकल्याण करबैठना नीविहीनता है। समाजका कल्याण ही प्रश्नोत्तरोंके औचित्यकी कसौटी है। प्रश्नकर्ताकी समाजहितैषिता तथा उत्तरका समाजहित के लिये औचित्य स्पष्ट देख लेनेपर ही प्रश्न करना तथा उसका उत्तर देना उचित होता है। अन्यथा प्रश्नो. त्तरोंके व्यर्थ तथा अहितकारी होनेसे उन्हें त्यागदेना ही कर्तव्य होता है। मनुष्य यह जाने कि कुछ उत्तर न देना भी उत्तर देने का ही एक निराला ढंग है। मौनसे भी तो अपना मनोभाव या कर्तव्य व्यक्त किया जासकता है । व्यर्थभाषण रोकने के लिये मौन ही उसका प्रासंगिक उत्तर है। व्यर्थवचन वचनसे ही वृद्धि पाता है । व्यर्थवचनकी बढबारको रोकना ही स्पष्ट कथन के रूप में परिस्थित्यनुसार अपनानेयोग्य है। इसके विपरीत जब विश्वासपात्र लोगों को उत्तर देनेका प्रसंग माव तब न तो प्रश्नका कुछ भाग अनुत्तरित छोडना चाहिये तथा न अपृष्ट बातें कहकर वक्तव्यको लम्बा करना चाहिये । मितभाषी रहकर उत्तर देना चाहिये। जब कोई प्रश्न विवादका विषय बनरहा हो तब प्रसंगको न समझकर उत्तर देनेसे विवाद तथा वितण्डा पैदा होजाती है । अनुचित भाषण करने वाला मनुष्य निन्दित होता तथा न्यायालयोंमें दण्डाई मानाजाता है । ( वेशभूषा कैसी हो ?) विभवानुरूपमाभरणम् ॥ ३३०॥ मनुष्य अपने देहकी सजावटको अपनी आर्थिक स्थितिम सीमित रक्खे । विवरण- देहको सुसजित रखना समाजमें प्रचलित है । मानवका Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि यह स्वभाव अति न कर जाय इसलिये इसपर नियन्त्रणकी परम मावश्य. कता है। वही नियन्त्रण इस सत्रका अभिप्राय है। पशुभोंमें देहको सुसज्जित रखनेकी प्रवृत्ति नहीं होती । पशुके पास मन नहीं है। मनुष्यका विवेकी मन जहां उसे आध्यात्मिक संपत्तिसे सुसज्जित देखना चाहता है वहां वह उसे लोकविद्विष्ट अमन्दर वेषमें भी रहने देना नहीं चाहता। देहको सौम्यदशन बनाकर रखना मनव्यकी ही विशेषता है। उसकी यह विशेषता मानवोचित शिष्टाचारों में सम्मिलित होगई है । शिष्टाचार मनुष्य समाजका अलंकार है। शिष्टाचार ही मनप्यसमाजकी संपत्ति है । जो समाज. भरका अलंकार है वही व्यक्तिके व्यक्तिगत आचरणका भी अलंकार है। परन्तु ध्यान रहे कि देहको सुसज्जित रखना समाजको शिष्टाचाररूपी सम्पत्तिमें ही सीमित रहना चाहिये । किसीका भी सपने देहको सामाजिक शिष्टाचारके विरुद्व सज्जित करनेका अधिकार नहीं है। मनुष्य अपने देहको सजाने की प्रवृत्तिवाले मानवधर्मसे तब ही अलंकृत. करसकता है जब वह इस सम्बन्धी शिष्टाचारका पालन करे। मानवधर्म या मनुष्यता ही समाज तथा व्यक्तिकी साम्पत्तिा या मार्थिक स्थिति या वैभव है। पार्थिव धनकी बहुलता या न्यूनताको मानवधर्म नामवाली उस वैभव. मयी स्थिति में वैषम्य उत्पन्न करनेवाली नहीं बनने देना चाहिये । यह विधमता समाजमें अशान्ति उत्पन्न करनेवाली सामाजिक न्याधि है। अपने देहको अलंकृत करने के इस स्वाभाविक स्वभावको कदापि किसी भी प्रकार अपना सीमोल्लंघन नहीं करने देना चाहिये। अपने देहालं करणी स्वभावको व्यक्ति के हृदयको व्याधिग्रस्त करके समाजके भी हृदयको म्याधिग्रस्त करने. वाला नहीं बनने देना चाहिये। मनुष्यता समाजभरका समानाधिकार है। समाजमें मनुष्यतारूपी समानाधिकारको उपेक्षित नहीं होने देना चाहिये । समाजमें मनुष्यतारूपी समानाधिकारकी उपेक्षा होनेपर धनसंपत्ति के साथ नियमसे लगी रहनेवाली भेदोत्पादक ईा द्वेष, लोभ, अतृप्त कामना मादि व्याधियां उत्पन्न होजाती तथा समाजके सामाजिक अधिकारमें विघ्न माखडे होते हैं। इससे समाज अलंकृत होने के स्थानमें बीभत्स विषमरूप धारण Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेषभूषा कैसी हो ? कर लेता है । समाजके विज्ञ लोगोंको उसे ऐसा बनने देनेसे रोकना चाहिये । देशको अलंकृत करना व्यक्तिका स्वेच्छाचार नहीं होना चाहिये । २९५ देहको अलंकृत करने के अधिकारको व्यक्तिके स्वेच्छाचार में सम्मिलित न हो देकर उसे सामाजिक शिष्टाचार, सुरूचि तथा नैतिक कल्याण में सम्मि लित रखना चाहिये। क्योंकि सामाजिक कल्याणमें ही मानवका कल्याण है इसलिये सामाजिक शिष्टाचार, सुरुचि तथा मानवका नैतिक अभ्युस्थान ही मनुष्यका सच्चा वैभव या आर्थिक सामर्थ्य है । परमार्थ ही मनुव्यका सच्चा वैभव है। अपनी उपार्जित सुवर्णमुद्राओं पर यथेच्छ उपयोगका व्यक्तिगत अधिकार जमालेना व्यक्ति तथा समाज दोनों ही के लिये अनर्थकारी है । सत्य ही मनुष्यकी सार्वजनिक संपत्ति है । सत्यरूपी सार्वजनिक संपत्तिके अधिकार में समर्पित होजानेवाले व्यक्तिका धन उसका व्यक्तिगत धन न रहकर समाज के सार्वजनिक कल्याणके उपयोग में आसकनेवाला सार्वजनिक धन बनाता है । जब मनुष्य इस समाजधर्मको भूलकर भ्रान्तिसे धन पर मनुष्यका अधिकार मानता है तब ही वह अपने धन पर अपना अधिकार मानता है । यह उसकी भ्रान्ति होती है । इस भ्रान्तिका परिणाम यह होता है कि वह अपने धनका दुरुपयोग करके समाजका अकल्याण करनेमें प्रवृत्त होजाता है। सूत्र कहना चाहता है कि देव सजाने की स्वाभा विक प्रवृत्तिको साम्पत्तिक दुरुपयोगसे बचाकर रखना चाहिये | अपने देrपर वस्त्रालंकार धारण करनेसे पहले सावधान होकर सोच लेना चाहिये कि हमारी उस चेष्टाका हमारे समाजपर क्या प्रभाव होगा ? वह प्रभाव समाजमें ईर्ष्याकामना या किसीके किसी प्रकार के अधःपतनका कारण तो नहीं बन जायगा ? समाजवासी प्रत्येक व्यक्तिका कर्तव्य है कि वह अपनी वेश-भूषाके संबन्ध में इस सार्वजनिक कल्याणकी दृष्टिसे विचार किया करे और उत्सव सम्मेलन तथा स्वाभाविक, सामाजिक अनुष्ठानोंके अवसरों पर बाडम्बर Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९६ चाणक्यसूत्राणि रहित शिष्टाचार की सीमासे शासित रहकर उसमें सम्मिलित हुआ करे । विज्ञ मनुष्योंका कर्तव्य है कि वे अपने परिवार के सदस्योंसे भी वेशभूषा के सम्बन्धमें सामाजिक सुरुचिको सुरक्षित रखवानेका ध्यान रक्खें । देहको अलंकृत करनेके अधिकार को अपना सीमोल्लंघन करने देना कदापि अभीष्ट नहीं है । ( आचरण कैसा हो ? ) कुलानुरूपं वृत्तम् || ३३१ ॥ आचरण अपने अभ्यर्हित कुलके अनुरूप होना चाहिये । 7 विवरण -- अपने आचरणोंसे अपने यशस्वी कुलको मर्यादाकी रक्षा करनी चाहिये | ज्ञानीसमाज ही मनुष्यका कुल हे । ज्ञानीसमाज ही राष्ट्रकी राजशक्तिका निर्माता है । वही प्रभु या स्वामी बनकर राजशक्तिको सर्वहितकारी ज्ञानमार्ग पर चलाता है । इसलिये प्रत्येक मनुष्यका, ज्ञानी समाजका सदस्य बने रहना ही अपना स्वाभिमान है। इस बातको कभी न भूलकर अपने स्वभावको सामाजिक सुख-समृद्धि में सीमित रखना चाहिये । ज्ञानी ही मनुष्यसमाजका यशस्वी विशाल कुल है । ज्ञानियोंके कुल में जन्म लेनेवालोंसे यह आशा की जाती है कि उनका सदाचार उनकी नीतिपरायणता आदि ऊंची श्रेणीकी हो । उनका आचार निर्मल तथा हृदयप्राही हो । निकृष्ट आचरण बताते हैं कि यह मनुष्य किसी हीन कुलकी प्रसूति है । पाठान्तर-- कुलानुरूपं वित्तम् । वित्त मनुष्य के पास अपनी कुळपरम्पराकी उपार्जन योग्यता के अनुसार होता है । ( प्रयत्न कितना हो ? ) कार्यानुरूपः प्रयत्नः ॥ ३३२ ॥ प्रयत्न कर्मके अनुसार होना चाहिये । विवरण- कार्यकी लघुता या गुरुता के अनुरूप ही प्रयत्न भी लघु या Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दान कितना दें? २९७ गुरु होना चाहिये । कार्यको लघुता या गुरुताके अनुसार सामग्री एकत्रित करके कार्यका उपक्रम करना चाहिये । जैसे साधन जुटाये जायगे, जैसा प्रयत्न किया जायगा, वैसा ही फल प्राप्त होगा। कर्तव्य छेडनेसे पहले उसका उचित समय, उसके सहायक, उसके अनुरूप देश, अपनी धनशक्ति, उत्साहशक्ति, उससे होनेवाले लाभ तथा अपनी कर्मशक्तिकी इयत्तासे पूरा परिचित होना चाहिये । कर्तव्य प्रारंभ करनेसे पहले सोचना चाहिये यह काम मेरे स्वयं करनका है या दूसरोंसे करानेका है ? अपने व्यक्तिगत स्वार्थ के लिये है ? या समाजकी उचित सेवाके लिये है ? अभी करने का है ? या भवि. ष्यमें हितकारी है ? या मनिष्ट संभावनामोंसे भरपूर है ? कः कालः कानि मित्राणि को देशः को व्ययागमौं । को वाहं का च मे शक्तिरिति चिन्त्यं मुहुर्महुः ॥ कार्योपयोगी काल सहायक भित्र कार्योपयोगी देश है या नहीं ? मेरे आयव्यय इस कार्यको करने की आज्ञा देते हैं या नहीं ? मेरी स्थिति क्या है ? मुझे यह काम करना चाहिये या नहीं ? यह मेरी शक्ति में है या शक्तिसे बाहर है ? ये सब बात प्रत्येक काममें सदा सोचनी चाहिये । इन प्रश्नों का उचित समाधान होने पर ही काम करना चाहिये। (दान कितना दें ?) पात्रानुरूपं दानम् ।। ३३३ ।। दान तथा उसकी मात्रा, दानपात्रकी उत्तमता, मध्यमता तथा अधमता अर्थात् उसकी विद्या, गुण, अवस्था तथा आवश्यकता रूपी योग्यताके अनुसार होना चाहिये ! विवरण-- दीन, रोगी, निराश्रय, अनाथ, पंगु, अंधे, विपन, निर्धन, विद्यार्थी, देव, द्विज, गुरु, विद्वान् की जीवनयात्रा तथा समाजोत्थानके कामों में विभवानुसार दान देकर अपने समाजको सुखी, सम्पन्न, सद्गुणी बनाये रखना Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९८ चाणक्यसूत्राणि चाहिये । यों भी कह सकते हैं कि समाज तथा अपनेमें अभेद सम्बन्धका दर्शन करते रहकर समाजके अभ्युत्थानको सपना ही अभ्युत्थान मानना चाहिये । हमारे पास रक्खे हुए धनका जो यथार्थस्वामी था वह याचकका मिष लेकर हमारे सामने भा खडा हुमा, इसकी धरोहर इसे सौंपकर उऋण होजाना ही दानका यथार्थ स्वरूप है। पाठान्तर--- अर्थानुरूपं दानम् । दान अपनी अर्थशक्तिके अनुरूप होना चाहिये। (वेश कैसा हो ? ) वयोऽनुरूपो वेशः ।। ३३४ ।। वेश अवस्थाके अनुरूप होना चाहिये। विवरण- परिणतवयस्क ( बालिग ) लोगोंके ऊपर यह सामाजिक उत्तरदायित्व स्वभावसे समर्पित है कि वे पूरे ज्ञानी अनुभवसे समृद्ध मितव्ययी तथा शिष्टाचारी हों तथा वे जो वेश धारण करें वह परिष्कृत रुचिको सुरक्षित रखनेवाला तथा समाजहितकारी मानवधमके अनुरूप हो। उनका यह कर्तव्य है कि सामाजिक कल्याणकारी रुचिविहित वेश न पहने तथा समाजको विपथगामी परानुकरणप्रिय तथा दुर्बल हृदय न बनने दें। सत्यकी उपेक्षा करके व्यक्तित्दका अनुकरण करना मनुप्यका विवेकहीन हृदौर्बल्य है। विवेक सत्य का ही अभ्रान्त अनुकरण कराता है, ग्यक्ति. स्वका नहीं। वयस्क लोगोंको पूर्ण ज्ञानी तथा समाजके स्तम्भ बनानेका उद्देश रखनेवाले विवकी सदस्यों का यह गंभीर उत्तरदायित्व है कि वे भाजके भारतीय राष्ट्र में फैली हुई विदेशी वेषानुकरणकी दूषित मनोवृत्तिको दृढतासे रोकें तथा अपने व्यवहारके द्वारा उनमें समाजकी कुरुचिके विरुद्ध खडे होनेका सरसाइस पैदा करके समाजको दृढचरित्रवाला बनायें । (भृत्य कैसा हो ? स्वाम्यनुकूलो मृत्यः ।। ३३५॥ भृत्यको स्वामीक अनुकूल आचरण करनेवाला होना चाहिये। Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भार्या कैसी हो ? विवरण - सत्य ही स्वामी तथा नृत्य दोनोंका प्रभु है । भृत्यका सत्यानुकूल बनाना ही आदर्श, सत्यनिष्ठ, सफल स्वामीके अनुकूल बनना है । २९९ नृत्यको सुयोग्य स्वामीकी ही नीति अपनानी चाहिये तथा उसीके दिनमें अपना हित मानना चाहिये । भृत्यकी नीति के सत्यनिष्ठ स्वामी के अनुकूल न होने पर भूत्यका का अपना भी अनिष्ट तथा स्वामीके कार्यकी भी हानि होती है । भृत्यको स्वामीकी आज्ञा पालनी चाहिये तथा उसीके अनुकूल आचरण करना चाहिये । राष्ट्रसेवक स्वामीको राष्ट्रसेवापरायण भृत्योंसे ही काम लेना चाहिये । राष्ट्रसेवापरायणता ही राजकीय नृत्योंकी योग्यता है । योग्यताकी इस कसौटी पर कस कर ही नवीन भृत्योंकी सेवा 1 स्वीकार करनी चाहिये । ( भार्या कैसी हो ? भर्तृवशवर्तिनी भार्या ।। ३३६ ।। भार्याके भर्ताके अनुकूल रहने में ही गृहस्थजीवन का कल्याण है । विवरण- गृहस्थजीवन नामक रथ पतिपत्नी नामके दो चक्रोंसे चलता है । इन दोनोंकी पारस्परिक अनुकूलता ही दोनोंकी स्वतंत्रता है तथा प्रतिकूलता दोनोंकी ही पराधीनता है । भर्ता भार्या दोनोंका आदर्शसमाजसेवक होना अत्यावश्यक है । परन्तु इन दोनोंमें पारस्परिक एकता तब ही संभव है जब कि दोनों के जीवनका लक्ष्य एक हो । पारस्परिक प्रतिकूलताका एकमात्र कारण आदर्शकी भिन्नता तथा विचारका विरोध ही होता है । भर्ताका ध्येय तो अपने श्रेष्ठ आचरणोंसे अपनी भार्याको अनुकूल बनाये रखना होना चाहिये, तथा भार्याका ध्येय अपनेको भर्ताकी अनुकूल सहधर्मिणी बनाना होना चाहिये । पारस्परिक अनुकूलता दोनों होका उत्तरदायित्व है । समाज के सच्चे सेवक मनुष्यता के संरक्षक सुयोग्य सन्ताजौका मातापिता होना ही भर्ता तथा भार्या दोनोंके जीवनका एकमात्र I Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० चाणक्यसूत्राणि लक्ष्य रहना चाहिये। यही वह लक्ष्य है जो दोनोंकी पारस्परिक तथा सामाजिक शान्तिको सुदृढ बनाये रखनेवाली भाधारशिला है । पाठान्तर- भर्तृवशानुवर्तिनी भार्या । (शिष्य कैसा हो ?) गुरुवशानुवर्ती शिष्यः ॥ ३३७ ।। शिष्यको गुरुको इच्छाका अनुवती होना चाहिय । विवरण- यहां वश शब्द इच्छाके अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। मानव. समाजमें मनुष्यताका संरक्षण तथा सुखसमृद्धिका उत्पादन करनेवाली माध्यात्मिक तथा सर्वप्रकारको भौतिक विद्या गुरुपरम्परासे ही सुरक्षित रहती हैं । गुरुका कर्तव्य है कि वह समाजसेवाके द्वारा अपनी विद्याका सदुपयोग करके ऋपिऋणसे उरण होजाय । उसका कर्तव्य है कि वह योग्य पात्रको शिष्य के रूप में अपनाकर उसकी यथोचित ज्ञानसेवा करके समा. जके प्रति अपनी कृतज्ञताका प्रदर्शन करे। शिष्य विद्यार्जन तब ही करसकता है जब वह गरुमें मास्मसमर्पण करके रहे। अर्थात् अपने आपको गुरुके वातावरणका पाज्ञाकारी अंग बनाकर रक्खे । गुरुकी विद्याका ग्रहण तब ही संभव है जब शिष्य गुरुकी इच्छाका अनुवर्तन करके उसके प्रेमको अपनी ओर आकृष्ट करले । शिष्यका यह सामाजिक कर्तव्य है कि वह अपने विद्याधनको अपने स्वार्थसाधनके उपयोगमें भानेवाला न माने किन्तु उसे समाजको सेवाके साधन के रूप में स्वीकार करे । सच्छिष्यकी यही योग्यता मानी जाती है कि वह भादर्शसमाजसेवक गुरुकी सदिच्छाका अनुवर्तन करनेवाला हो। गुरुका समाजसेवी होना अत्यावश्यक है। गुरुका समाजद्रोही होना कदापि अभीष्ट नहीं है तथा यह कोई शुभलक्षण नहीं है। समाजसेवा ही विद्वान् गुरुओंके गुरुपदको शोभित करनेकी योग्यता है । शिष्योंको इस योग्यताको अपने हृदय में सुप्रतिष्ठित करनेवाले गुरुषों के हाथों में पूर्ण भास्मसमर्पण करके Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुत्र कैसा हो ? रहना चाहिये । यदि शिष्य लोग गुरुलोगों से उनकी पूरी ज्ञाननिधि लेलेना चाहें तो अपने ऊपर उनका मन द्रवित करनेके लिये उनके वशमें रहें तथा उन्हींका अनुसरण करें । शिष्यको ज्ञान तथा चरित्रकी दीक्षा देनेवाले गुरुका अनुसर्ता होना चाहिये । जैसे गोवत्स अपने बालोचित आत्मसमर्पण या प्रेमदानसे अपनी गोमाताको पचासकर उसे दूध पिलानेके लिये विवश कर लेता है, या जैसे जलार्थी मनुष्य खनित्र से खोदता - खोदता अन्तमें भूमिको जल देनेके लिये विवश करदेता है, इसीप्रकार शिष्य लोग अपनी शुश्रूषा, आराधना, अनुसारिता, समर्पण तथा समाजसेवा के उच्चादर्शसे गुरुको प्रभावित करके उसे विद्यामृत पिलानेके लिये विवश कर डालनेवाले बनें तब ही वे किसी विषय के पारंगत विद्वान् बनसकते हैं | यथा खनन् खनित्रेण नरो वार्यधिगच्छति । तथा गुरुगतां विद्यां शुश्रूषुरधिगच्छति ॥ ३०१ दुर्विनीत दुःशील अशुश्रूषु असेवक समर्पणद्दीन लोग शिष्य होने या किसी विद्याका रहस्य पानेके योग्य नहीं होते । गुरु भी शान्त, शास्त्रज्ञ, धार्मिक, दयालु, शीलवान्, समाजसेवक विचक्षण, लोक-चरित्रज्ञ तथा प्रविभासे सम्पन्न होना चाहिये । शिष्यलोग गुरुके अगाध पांडित्य तथा उच्च चरित्र से ही प्रभावित होते हैं। ऐसे शिष्य लोग गुरुओं के वशवर्ती होकर विद्या, शील, नीति, नैपुण्य तथा ज्ञानको अनायास पाजाते हैं । ( पुत्र कैसा हो ! ) पितृवशानुवर्ती पुत्र: ।। ३३८ ।। पुत्रको पिताकी इच्छाका अनुवर्ती होना चाहिये । विवरण - पिता के समस्त अनुभव तथा उसकी सम्पत्ति चाहनेवाले पुत्रको उसकी शुभ इच्छाओंका अनुवर्ती होकर रहना चाहिये । Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ चाणक्यसूत्राणि पुत्रको अपने पिताको शरीरधारी या साकार ईश्वर मानकर उसके साथ पूर्ण वात्मसमर्पणका सम्बन्ध जोडकर रहना चाहिये । पिता बननेकी अभिलाषा रखनेवालोंका समाजकी मनुष्यताका संरक्षक समाजसेवक होना भनिवार्यरूपसे आवश्यक है । उनका यह भी कर्तव्य है कि वे अपनी सन्ततिके सम्मुख इसी मादर्शको रखकर पारिवारिक नेतृत्व ग्रहण करें। जो पिता बननेवाले लोग अपनी सन्तान के सम्मुख इस उच्च आदर्शको नहीं रखते, उनकी सन्तानोंका लक्ष्यहीन उच्छंखल निर्गुण होना अनिवार्य है । पिता ही सन्ता. नोंके स्वभाविक संरक्षक तथा मदिर्श होते हैं। सन्तति अपने स्वभाविक संरक्षक मातापिताकी इच्छाके अनुयायी जीवनलक्ष्य निर्णय करने में ही अपने जीवनकी सफलता समझती हैं। सन्तानकी इस अनुकरणप्रवृत्तिका दुरुपयोग न करके इसका सदुपयोग करना योग्य मातापिताका गंभीर कर्तव्य है । सन्तानका उच्छृखक होना सिद्ध करता है कि पिता लक्ष्यहीन है तथा इसीलिये कर्तव्यहीन है। ( अनुचित आदर तथा भेट मत सहो) अत्युपचारः शङ्कितव्यः ॥ ३३९॥ किसीका अधिक लोभनीय सामग्री प्रस्तुत करना संदेहकी दृष्टिसे देखना चाहिये कि ऐसा क्यों किया जा रहा है ? ( कुपित स्वामीपर प्रतिकोप न करके अपनी भूल सुधारों ) स्वामिनि कुपिते स्वामिनमेवानुवर्तत ॥३४० ॥ प्रभुके कुपित होनेपर उसीको प्रसन्न करना चाहिये। विवरण- जैसे भूमिपर गिरपडनेवाला मनुष्य उसीपर हाथ टेककर उपर उठता है, इसीप्रकार आश्रित भृत्यलोग अपनी किसी भूलसे या भ्रमवश स्वामीके कुपित होजानेपर अपने यथार्थ उपकारक नायक पालक स्वामीको ही प्रसन्न करनेका प्रयत्न करें। Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपनी भूल सुधारो ३०३ प्रभुपदपर अभिषिक्त व्यक्ति भाश्रितका कल्याणकारी होता है। जब कोई किसीका माश्रय स्वीकार करता है तब उसमें भाश्रितपालनकी शक्ति देखकर ही उसका माश्रित बनता है। मनुष्य स्वभावसे उसीका आश्रित बनता है जहांसे उसे अभाव दूर करनेका आश्वासन मिल जाता है। समाज अपने योग्य सेवकोंको ही राज्याभिषिक्त करके उन्हें प्रजापालकका मापन देता है। राजा समाजका ही प्रतिनिधि होता है। राजाका प्रभुत्व स्वीकार करने. वाली प्रजा राजाको समाजका ही प्रतिनिधि मानती है । इस अर्थमें प्रजा ऊपरसे देखने में तो राजाका परन्तु वास्तव में समाजका ही प्रभुत्व स्वीकार करती है । इसका अर्थ यह हुआ कि किसी व्यक्तिका राजाका कोपभाजन बनना समाजका ही कोपभाजन होना है। राजाका द्रोह करना समाजक ही द्रोह करना है । इसलिये राजभक्त प्रजाको राजरोष देखते ही अपना अपराध पहचानकर आत्मसुधार करना चाहिये । इसी प्रकार राजाका भी कर्तव्य है कि यह समाजको ही अपने प्रभुके रूपमें पहचानकर अपनेको राष्ट्रसेवककी स्थिति में रखकर अपने समाज या लोकमतको प्रकुपित करनेवाले आचरणका संशोधन करके अपने सच्चे प्रभु राष्ट्रके प्रतिनिधि लोकमतको प्रसन्न रखे । मातृताडितो वत्सो मातरमेवानुरोदिति ॥ ३४१ ।। जैसे मातासे ताडित बालक ताडनजन्य रुदन करता हुआ भी माता हीके पास जाता तथा उसीके आंचलमें मुंह छिपाकर उसीसे अपना रोना रोता है, इसीप्रकार मनुष्य अपने हितैषियों, खजनों, गुरुओं तथा प्रभुओंके उचित कारणसे कुपित होजानेपर उन्हें ही अपनाये रहे तथा आत्मसुधार करके अपनी ओरसे उन्हें प्रसन्न करने का प्रयत्न करता रहे ! विवरण-- अपने अपराधका पालन करके उन्हें प्रसन्न करना ही उन्हें Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ चाणक्यसूत्राणि अपनाये रहने का एकमात्र उपाय है। अपराधी बने रहकर तो हितैषी प्रभुके देषका पात्र ही बने रहना अनिवार्य होता है। पाठान्तर-मातृताडितो बालो ......... । (हितैषियोंके रोषमें अनिष्ट भावना नहीं होती) स्नेहवतः स्वल्पो हि रोषः ।। ३४२ ।। स्नेही गुरुलोगोंका रोष अनिष्टभावसे रहित होता है । विवरण-- स्नेहवानोंका रोष अनिष्टकारी न होकर सुधारक भावना या हितबुद्धि से प्रेरित होता है । ऊपर इसी भावनासे उनके कुपित होजाने पर भी उन्हींका अनुसरण करने के लिये कहा गया है। पाठान्तर- स्नेहवतः स्वल्पोऽपि रोषः । अपि शब्द हीका स्थानापन्न होनेसे अर्थसमान है । (मूढका स्वभाव ) आत्मच्छिद्रं न पश्यति परच्छिद्रमेव पश्यति बालिशः ॥ ३४३॥ मूर्ख अपना अपराध न देखकर दूसरोहीका अपराध देखा करता है। विवरण- मूर्ख अपना दोष या अपराध न देखकर दूसरोंका अहिता. चरण करनेकी अपनी दुष्प्रवृत्तिसे प्रेरित होकर दूसरों दीके अपराध ढूंढता फिरा करता है । वह मात्मसुधार न करके अपनी मूढतासे ही चिपटा रहनेवाला चिरमूर्ख बनारहता है। वह दूसरोंका छिद्रान्वेषण करके उन्हें भी अपनी जैसी मूर्ख श्रेणी में घसीटनेका मूढ प्रयत्न करके मिथ्या आत्मसन्तोष कमाया करता है। वह हिताहितविवेकशक्तिहीन होनेसे निजदोषोंकी मोरसे बंधा होकर दूसरों के दोषोंका आविष्कार करने में अपने अमूल्य दुर्लम मानवजीवनका दुरुपयोग किया करता है । Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूढका स्वभाव ३०५ नीचः सर्षपमात्राणि परच्छिद्राणि पश्यति । आत्मनो बिल्वमात्राणि पश्यन्नपि न पश्यति ॥ नीच मनुष्य दूसरोंके तो सर्षपतुल्य छोटे नगण्य दोष भी देखता फिरा करता है । परन्तु अपने तो बिल्व जैसे महादोष भी उसे दिखाई नहीं देते। गुणदोषानशास्त्रज्ञः कथं विभजते जनः । किमन्धस्याधिकारोऽस्ति रूपभेदोपलब्धिषु ॥ ( दण्डी ) अशास्त्रज्ञ अर्थात् संयमसे अनभिज्ञ मनुष्य बुराई भलाईको नहीं पहचान सकता, क्या कहीं कभी अंधोको भी रूपों के भेद जाननेका अधिकार हुआ है ? ___ मूर्ख जब कोई मूर्खता करबैठता है, तब उसकी मूर्खताका यही रूप होता है कि हममें अपनी मूर्खताको पकडने तथा उसे निन्दित करनेवाली बुद्धि नहीं होती । यदि किनी में मूर्खता पहचानने तथा उसे निन्दित करने. बाली बुद्धि हो तब तो उसे बुद्धिमान् ही कहना होगा। मम बुद्धि का न होना ही तो मुर्खता है । आत्मसुधारकी जो भावना है वहीं तो बुद्धिमत्ता है । जिस हृदयमें आत्मसधारकी प्रवृत्ति प्रहरीका काम करती रहती है उस हृदयमें मूर्खताको स्थान नहीं मिलता। उस हृदय में भ्रान्ति कभी होती ही नहीं। मनुष्यताके संरक्षक समाजसेवकों को चाहिये कि वे अपने सेव्य प्रभ मानवसमाजको प्रत्येक क्षण मात्मसधार के लिये सतर्क रखें तथा समाजमें भापरिकताको न घुमने देने के लिये समाजके प्रहरी बनकर रहें। आत्मसुधारकी जो भावना है वही तो मूर्खताविध्वंसक पाण्डित्य या विद्वत्ता है। अपने मन में भलिनताको प्रवेश न लेने देना हो मात्मसुधारकको भावनाका अर्थ है । पवित्र हृदय ही आत्ममुधारका क्रियाशील क्षेत्र है। मलिन हृदयमें तो मलिनता ही बदमूल होकर रहती है। उसमें आत्मसुधारकी भावनाको उत्पन्न होने का अवसर ही नहीं मिलता। मूर्ख लोग मलि. नताको चिपटे रह का स्वापराव जनित क्षातको भी परापराधजनित माननेको भ्रान्ति करके भात्मसुधारसे वंचित रहते तथा सदा मूर्ख बने रहते हैं । २० (चाणक्य.) Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ ( धूर्तोका वशीकरण मन्त्र ) सोपचारः कैतवः ॥ ३४४ ॥ धूर्तलोग दूसरोंके कपटसेवक बनाकरते हैं । विवरण - धूर्तलोग मीठी बार्तो, रमणीय उपहारों, परितोषक उपकरणोंसे अपना उल्लू सीधा करना चाहाकरते हैं । सेवा तथा परितोषके उपकरण उपचार ' कहाते हैं । उपचार शब्द उत्कोच अर्थ में भी व्यवहृत होता है । · पाठान्तर---- नोपचारः कैतवः यह पाठ अर्थहीन है । चाणक्यसूत्राणि । ( धूर्ततावाली सेवा उपचार है ) काम्यैर्विशेषैरुप चरणमुपचारः ।। ३४५ ।। विशिष्ट काम्य पदार्थोंकी भेटोंसे दूसरोंको अपनी असत्यकी दासतामें सहायक बनानेका प्रयत्न करना धूर्तीकी सेवाका स्वरूप होता और यही ' उपचार ' कहाता है । विवरण - धूर्तलोग अपने सेव्य मनुष्यकी नीचप्रवृत्तियोंकी तृप्ति के लिये इंधन जुटाकर उसकी गिरावटसे लाभ उठाने की दुरभिसंधि रखते हैं । भूतों की सेवा भी प्रच्छन्न लूट ही होती है । ( शंकनीय सेवा ) चिरपरिचितानाम् अत्युपचारः शंकितव्यः ॥ ३४६ ॥ चिरपरिचित व्यक्तिकी अनुचित सेवा शंकनीय होनी चाहिये । विवरण - किसीकी भी अनुचित सेवाको शंकाकी दृष्टिसे देखना चाहिये । विशेष रूप से चिरपरिचितकी अनुचित सेवा चाटुकारिता है । अत्युपचार चाटुकारिताका ही दूसरा नाम है । चाटुकार के फंदे में फंसजाना Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्बल से सदोष नहीं छोडे मनुष्यताविरोधी मूर्खता है । जब तुम्हारे पास चिरपरिचित लोग तुम्हारे सामने बढ बढकर लोभनीय सामग्री रखकर भक्ति प्रदर्शित कर रहे हों तब तुम्हारे मनमें उनकी गुप्त स्वार्थी मानसिक स्थितिके संबन्धमें शंका होजानी चाहिये कि आज ये अपने किसी विशेष स्वार्थसे मेरी इस प्रकारकी दिखावटी अतिसेवा कर रहे हैं । चिरपरिचितोंकी समुचित स्वाभाविक सेवा कभी संदेहका कारण नहीं होती । परन्तु जब कोई सेवा सेव्य सेवक दोनोंकी दृष्टि से मौचित्यका अतिक्रमण करजाती है तब उस सेवाको संदेद्दकी दृष्टिसे देखना और अस्वीकार करदेना चाहिये । I ३०७ ( निर्बल से सदोष परिचित नहीं छोडे जाते ) ( अधिक सूत्र ) चिरपरिचितानां त्यागो दुष्करः । जब चिरपरिचित लोग लोभोपादानोंसे वशीकरण मंत्र चलाने लगे तब उनका या उनके उपचारोंका त्याग निर्बल मनवालेके लिये दुष्कर होजाता अर्थात् तन, त्याग और ग्रहणकी विकट समस्या खडी होजाती है । विवरण- ऐसे समय उन आत्मीय कहलानेवाले ठगकी ठगाईसे बचे रहनेका सूक्ष्म, गंभीर, जटिल कर्तव्यरूपी परीक्षावसर उपस्थित होजाता है । उस समय दो परस्परविरोधी ग्राह्य वस्तुओंमेंसे एकको स्वीकार तथा दूसरों को अस्वीकार कर देनेका प्रश्न उपस्थित होजाता है । तब उन परिचित ठगों से आत्मरक्षा करनी चाहिये । ऐसे समय उन परिचित ठगकी बात तथा अपने धर्मरक्षा नामक कर्तव्यका पालन इन दो विरोधी प्रसंगको धर्मतुरु या कर्तव्यतुला के दो पलडोंपर रखकर तोकना चाहिये । उस समय अपने धर्मरक्षक कर्तव्यको महत्व देनेसे ही उन धूतांके त्यागकी दुष्करताको हटाया जासकता है। दुष्कर या कठिन संसार में कुछ नहीं है। जिसके लिये जो प्रस्तुत नहीं है वही उसके लिये दुष्कर या कठिन है | कठिनताके प्रति कठोर होते ही कठिनता या दुष्करता, मृदुता तथा सुकरतायें परिणत हो Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ चाणक्यसूत्राणि जाती है । वही काम एकके लिये दुष्कर तथा दूसरेके लिये सुकर होता है। धीरके लिये सत्यार्थ मरना सुकर है कायरके लिये सत्यार्थ मरना दुष्कर है। जो जिसके लिये प्रस्तुत है वह उसके लिये सुकर है। जो जिसके लिये प्रस्तुत नहीं है वही उसके लिये दुष्कर है। सुकरता दुष्करता मनकी कल्पना है । ये कर्मके धर्म न होकर मन के धर्म हैं। अब सोचिये कि ऐसे चिरपरिचित ठगोंका त्याग दुष्कर कैसे है ? सूत्र निर्बल मनवालोंकी स्थितिको कह रहा है और सबल मनवालोंकी स्थितिके सम्बन्धमें चुप रहकर इसका निर्णय पाठकोंके ऊपर छोडरहा है। गौकरा श्वसहस्रादेकाकिनी श्रेयसी ॥ ३४७ ॥ जैसे विग्गड भी अकेली गौ सहन कुत्तोंसे अधिक उपकारी होती है इसीप्रकार उपचारहीन रूखा भी उपकारी व्यक्ति अनु. पकारी सहस्रों ठग परिचितोंसे श्रेष्ठ होता है। विवरण- उपकारस्वभाववाला चाह एक ही हो उसे अपनाओ अनुप. कार स्वभाववाले सहस्रोंको त्याग दो। संख्याधिक्यका भरोसा न करके गुणका भरोसा करो । गुण ही ग्राह्य है संख्याधिक्य नहीं। ( अधिक सूत्र ) श्वः सहस्रादयकाकिनी श्रेयसी। जैसे भविष्यमें मिलनेवाले सहस्र धनसे वर्तमानमें मिलनेवाली दमडी ( छदाम ) श्रेष्ठ होती है, इसीप्रकार भविष्यके कल्पित महालाभकी अपेक्षा प्रत्यक्षका अल्पलाभ श्रेष्ठ है। वराटकानां दशकद्वयं यन् सा काकिनी ताश्च पणश्चतस्रः। बीस कौडीको एक काकिनी चार काकिनीका एक पण । ( वर्तमान छोटी स्थिति आशाके बडे मेघोंसे अच्छी ) श्वो मयूरादद्य कपोतो वरः ॥ ३४८ ॥ भविष्यमें मिलनेवाले बडे मोरसे अब मिलनेवाला छोटासा कबूतर अच्छा है। Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्वविजयी मानव विवरण - हस्तगत साधनको ही साधन मानना चाहिये । अनागत साधनों को अपनी श्रद्धा नहीं देनी चाहिये । अनिश्चित साधनका भरोसा करके हस्तगत साधनका उपयोग न करना कर्तव्यभ्रष्टता है । मनिश्चित अप्राप्त साधनों का भरोसा करना वृथा है । कल कुछ मिल सकेगा या नहीं यह अनागत होने से अनिश्चित है । हाथकी वस्तु समक्ष उपस्थित है । उपस्थित स्वल्प भी श्रेष्ठ है । अनुपस्थित बहुतका भी कोई व्यवहारिक मूल्य नहीं है | ( अनैतिकता कर्तव्यभ्रष्टताकी उत्पादक ) अतिप्रसंगो दोषमुत्पादयति ॥ ३४९ ॥ ३०९ किसी भी कार्य में अनैतिकताका आघुसना उस कार्यके उद्देइयको विनष्ट करनेवाली कर्तव्यभ्रष्टता है । विवरण - विषय में अतिप्रसक्ति अर्थात् उनका अवैध सेवन अनिष्ट त्पन्न करता है । इससे शारीरिक ऐन्द्रियक तथा भौतिक अनिष्ट होते हैं । इससे मनुष्यका तेजम्बी भाग नष्ट होजाता तथा वह निस्तेज होकर उपेक्षित पददलित होकर परनिर्भर जीवन काटनेके लिये विवश होजाता है । अथवा किसीके साथ अनुचित घनिष्ठता बढाना अनिष्ट उत्पन्न करनेवाला होता है। ( विश्वविजयी मानव ) सर्व जयत्यक्रोधः || ३५० ॥ क्रोधहीन ( रागहीन विनीत सुशील ) व्यक्ति विश्वविजयी बन जाता है । विवरण - चित्तचांचल्य ही क्रोध है । बुद्धिको स्थिर रखना विजेता के लिये अनिवार्य रूप से आवश्यक है । स्पष्ट शब्दोंमें क्रोधपर विजय पालना ही विश्वविजय है । बुद्धिकी जो स्थिरता है वही तो विजय है । बुद्धिकी ज अस्थिरता है वही तो पराजय है । संग्राम में जिसकी बुद्धि, अन्ततक स्थिर Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० चाणक्यसूत्राणि रहती है वहीं वीर कहाता और संग्राम में विजयी बनता है । अपने लक्ष्यपर स्थिर रहना ही अक्रोधकी स्थिति है । क्रोध स्वयं लक्ष्य भ्रष्टता 1 निज शान्तिकी सुरक्षा ही विश्वके संपूर्ण संग्रामोंमें सुरक्षित रक्खे जाने योग्य विजयी स्थिति है । भौतिक शक्तिकी अनुचित इच्छा ही पराजित स्थिति है । यह इच्छा अपनी रुकावटको देखते ही भडक उठती है और क्रोध बनजाती है यही बात गीता के शब्दों में 'कामात् क्रोधोऽभिजायते' कामसे क्रोधका जन्म होता है। भौतिक शक्तिके प्रयोगसे अनुचित ढंगसे लाभान्वित होजानेकी इच्छा ही क्रोध है । यह भौतिक शक्तिकी अभावग्रस्तता से पीडित अवस्था होनेके कारण निर्बल स्थिति है । अजेय मानसिक स्थितिमें क्रोधको कहीं स्थान नहीं है । अजेय मानसिक स्थिति निश्चित विजयवाली, शक्ति तथा उल्लास से परिपूर्ण स्थिति है । अपनी कामनाके मार्गको हटानेका आग्रह ही क्रोधका रूप लेलेता है । जो लोग अपनी अनुचित इच्छाओं के विजेता होते हैं, अक्रोध उन्हीं की मानसिक स्थितिका नाम हैं । अक्रोधशील लोग भौतिक शक्तिकी अल्पतासे अप. नेको निर्बल अनुभव नहीं करते । वे शस्त्रास्त्रोंसे विश्वविजयी न होकर मनोबलसे विश्वविजयी होते हैं । ( बुद्धिविजय उदीयमान मानवका सबसे पहला काम ) ( अधिक सूत्र ) मतिमुत्तिष्ठन् जयति । उन्नतिशील मनुष्य, अपने अक्रोधके कारण, अपनी बुद्धिको अपनी गंभीर विचारशक्ति से अभिभूत कर के समुन्नत रखता है । विवरण -- उन्नतिशील मनुष्य अपनी बुद्धिको नीचाभिगमन नहीं करने देता । वह उसे क्रोधादि दोषोंसे अभिभूत नहीं होने देता । ( क्रोधपर कोप करना कर्तव्य ) ययपकारिणि कोपः कोपे कोप एव कर्तव्यः ॥ ३५१ ॥ उन्नतिशील मनुष्य, अपने अक्रोधके कारण, अपनी बुद्धिको अपनी गंभीर विचारशक्ति से अभिभूत करके समुन्नत रखता है । Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रोधपर कोप करना कर्तव्य विवरण- अपकारकपर क्रोध आनेवालेको अपने माभ्यन्तरिक रिपु क्रोधको ही सच्चे अपकारकके रूपमें पहचानना चाहिये । बाहरी अपकारक लोग तो मनुष्य के सामने क्रोधके कारण उत्पन्न या उपस्थित करके मानवको क्रोधाधीन न होकर संग्रामविजयी बननेका अवसर देते हैं । ऐसे महत्वपूर्ण अवसरपर क्रोधी बनते ही मनुष्यको विजयगौरवसे वंचित करदेनेवाला क्रोध उसका सच्चा शत्र सिद्ध होता है। ऐसे समय उस क्रोधको व्यर्थ करदेना ही उसकी विजय बनजाता है । मनुष्यको चाहिये कि वह शत्रुपर विजय पानेसे भी पहले अपने क्रोधी स्वभावपर क्रोध करके अक्रोध बनकर काममें हाथ लगाये । ___ कार्यका प्रसंग आते ही क्रोधमें मापसे बाहर होजाना कार्यविनाशक मानसिक स्थिति है । क्रोधसे बढकर कोई अपकारी नहीं है। अपकारीको पराजित करनेकी कला क्रोधाधीन न होने में ही है। क्योंकि अक्रोध स्वयं विश्वविजयी स्थिति है, इसलिये कोई भी अपकर्ता क्रोधविजयी मनुष्यसे उसकी विश्वविजयी स्थिति नहीं छीन सकता। अपकर्ता लोग अक्रोधके सामने पराजित होकर रहते हैं। क्रोधाविष्ट न होजाना ही अपकारीको परा. जित करना है। अपनेयमुदेतुमिच्छता तिमिरं रोषमयं धिया पुरः । आविभिद्य निशाकृतं तमः प्रभया नांशुमताप्युदीयते ॥ ( भारवि) उदयाभिलाषी लोग अपनी विवेकबुद्धिसे रोष या क्रोधसे पैदा होनेवाले अंधेरको हटायें । ये देखें कि सूर्य भी अपने तेजसे रात्रिके ध्धान्तका भेदन किये बिना उदित नहीं होता। बलवानपि कोपजन्मनस्तमसो नाभिभवं रुणद्धि यः । क्षयपक्ष इवैन्दवीः कलाः सकला हन्ति स शक्तिसंपदः॥ ( भारवि) जो बलवान् होनेपर भी क्रोधसे उत्पन्न होनेवाले मोहके आक्रमणको हटा Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ चाणक्यसूत्राणि नहीं देता वह कृष्णपक्ष में घटती चली जानेवाली इन्दुकलाभोंके समान अपनी प्रभुशक्ति, मंत्रशक्ति तथा उत्साहशक्ति तीनों शक्तियों को नष्ट कर डालता है। क्रोधान्धका लोकोत्तर सामर्थ्य भी अंधेके जंघाबल के समान व्यर्थ होजाता है। समवृत्तिरुपैति मार्दवं समये यश्च तनोति तिग्मताम् । अधितिष्टति लोकमोजसा स विवस्वानिव मेदिनीपतिः ।। ( भारवि ) जो राजा अपनी बुद्धिवनिको साम्यावस्थामें रखकर जब जैसा अवसर हो तब कभी मृदु तथा कभी तीक्ष्ण बनाना जानता है यह ऋतुभेदसे मृदु तथा तीक्ष्ण होते रहनेवाले सूर्य के समान अपने भोज, तेज, धैर्य, मृदुता, तीक्ष्णता आदि लोकरक्षार्थ अपेक्षित आवश्यक गुणोंसे समस्त लोकपर माधिपत्य स्थापित करता है। ( विवाद किन से न किया जाय ? ) । मतिमत्सु मूर्ख-मित्र-गुरु-वल्लभेषु विवादो न कर्तव्यः ॥३५२।। बुद्धिमानों, मूखों, मित्रों, गुरुओं तथा प्रभुओंके मुंह चढ लोगोंसे कलह न करना चाहिये। विवरण-- बुद्धिमान से कलह करना मूर्खता है । मूर्ख से अपनी ओर से कलह छेडना मूर्खता है । मित्रसे कलह करना अपने ही हितसे द्वेष करना है । गुरुमोंसे कलह करना ज्ञानीलोकसे वंचित रहना है । अपने पालक या रक्षक प्रभुसे कलह करना अपना सर्वनाश करना है। बुद्धिमान् के जीवन में मूर्खको छोडकर अन्य किसीसे भी कलह करनेका अवसर नहीं आसकता। मूखोंकी मूर्खताके कारण उनके साथ संग्राम करने के अवसर बुद्धिमानोंके पास भी जाते हैं। परन्तु उनसे जहांतक संभव हो बचना ही बुद्धिमत्ता है । फिर भी इस संग्रामसे सदा बचे रहना संभव नहीं होता । सत्पुरुषों के जीवन में मूल्की ओरसे शतशः विनोंका उपस्थित होना स्वाभाविक है : Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐश्वर्यमें पैशाचिकता अनिवार्य ३१३ यदि सत्पुरुष लोग संग्राम छेदनेवाले मूखोंकी आक्रामक वृत्तिको निवृत्ति करने में सफलता पालिया करते तो संसारमें मूखोंका रहना असंमव हो जाता। सत्पुरुषों से विवाद छेडना ही मूखौंका स्वभाव होता है । यह सूत्र मूखोंके संबंध बुद्धिमानका यह कर्तव्य बताना चाहता है कि बुद्धिमान् मनुष्य मूर्खसे वाग्विवाद करके उसकी आक्रामक मनोवृत्तिको रोकनेकी दुराशा न करे । बुद्धिमानका कर्तव्य तो मूर्खकी समझमें मासकनेवाले दाण्डिक उपायों के द्वारा उससे मूखोचित बर्ताव करके आत्मरक्षा करना है। इसीमें बुद्धिमत्ता है। खलानां कण्टकानां च द्विधवास्ति प्रतिक्रिया। उपानन्मुखमर्दो वा दूरतो वापि वर्जनम् ॥ दुष्र्टो तथा कण्टकों के दो ही प्रतिकार हैं। या तो इनका जने से मुखमर्दन कर दिया जाय या इनसे दूर रहा जाय । (ऐश्वर्यमें पैशाचिकता अनिवार्य ) नास्त्यपिशाचमैश्वर्यम् ॥ ३५३ ।। एश्वर्य पैशाचिकतासे रहित होता ही नहीं। विवरण- कोई भी मनुष्य पैशाचिकता (परस्वापहरण परानिष्टकरण ) धारण किये बिना भौतिक ऐश्वयंका उपासक अतुलसम्पत्तिमान नहीं बन. सकता । भौतिक ऐश्वर्यका जो दंभ या अहंकार है वह पैशाचिकताका ही तो दूसरा नाम है । जहां कहीं भौतिक ऐश्वर्य के दंभरूपी भसुरको पाओ वहीं निम्न तीन बात समझ जामो कि उसका धन पैशाचिक ढंगोंसे संग्रहित हुआ है उसीसे सुरक्षित रक्खा जा रहा है और उसके पिशाचोचित दुरु. पयोगसे समाजकी शान्तिको नष्ट किया जा रहा है । मनुष्य सत्यको त्याग बिना धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष चारोंमेसे तीनको त्यागकर केवल एक धनका उपासक नहीं हो सकता । सच्चे लोग धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष चारोंको समान महत्व देकर चारोंकी साथ-साथ उपासना करते हैं । सत्यद्रोह (या Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ चाणक्यसूत्राणि दूसरोंके जीवनाधिकारको उदारतासे स्वीकार न करना और केवल वैयक्तिक दृष्टि रख कर अंधा होकर धन बटोरते चलेजाना) ही पैशाचिकता है । यही कारण है कि मानवताके प्रेमी लोग धनोपासक नहीं होते । वे धनोपासनासे बचते हैं । धर्म केवल उन लोगोंकी वस्तु है जो धनके पीछे पडकर पिशाच नहीं बनजाते । मनुष्य के शब्दों में “अर्थकामेष्वसक्तानां धर्मशानं विधीयते" धर्मज्ञान उन लोगों के लिये है जो अर्थ और कामको संसारका सर्व. श्रेष्ठ प्राप्य न मानकर अपने जीवनमें चारों पुरुषार्थोंका समविभाजन या सन्तुलन करके रखते हैं। जहां धनका बाहुल्य या केवल धनमात्रकी सेवा होती देखोगे, वहीं भर्जन तथा उसके व्ययकी नीतिनिर्धारणके समय काम, क्रोध, ग्ल, कपट, अनृत, माया, जिह्म भादि दोषों का व्यवहारमें आना अनिवार्य पाओगे। ऐश्वर्य अधिक संग्रहित होनेसे लोभ, क्रोध, मद, अभिमान और मोहका उत्पन्न होना अनिवार्य है। विभवके धर्मनिरपेक्ष होनेपर परिवार के प्रत्येक प्राणीमें इन दोषोंकी उत्पत्ति अनिवार्य है। "श्रिया ह्यभीक्षणं संवालो दर्पयन्मोहयेदापि " धनका निरन्तर सहवास मनुष्यमें दर्प और मोह पैदा किये बिना नहीं मानता । अनुभवी वृद्ध कह गये हैं अनाढ्या मानुषे वित्त आढ्या वेदपु य द्विजाः । नाहत्वा परमर्माणि नाकृत्वा कर्म दारुणम् । नानपेक्ष्य सतां मार्ग प्राप्नोति महतीं श्रियम् ॥ मनुष्य दूसरोंके उचित अधिकारों पर ममघाती प्रहार किये बिना, समनुष्योचित धोर कर्म किये बिना, तथा भद्र पुरुषों के मार्गकी उपेक्षा किये बिना अधिक सम्पत्तिमान नहीं बन सकता । समाजहीनता धनियोंका अनि. पार्य स्वभाव होता है । वे समाज के सहयोगसे होनेवाले कामों को धन बल से करके समाजहीन होकर रहते हैं। समाजकल्याणके प्रति समाजसेवक लोग अपनी शक्तियों को समाजसेवामें सौपे रहनेके कारण अनिवार्य रूपसे मधन या अल्पधन होते हैं। उनके व्यक्तिगत धनभंडारके रिक्त रहनेपर भी उनका Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धनोपासक सुकर्मसे अनधिकारी ३१५ उदार हृदय धनवान् ही रहता है । अल्पधनी या धन लोग समाजके साथ रहने में अपना कल्याण समझते हैं । बिना सिद्धान्त उपार्जित धनसे मनुष्य में समाजहीनता माना अनिवार्य है। समाजकी उपेक्षा ही मनुष्यकी पैशाचिकता है। तुम जिस समाजके सहयोगसे धनी बने हो उसके अभ्युस्थानमें सहयोग देना तुम्हारा अनिवार्य कर्तव्य है । चाणक्य चाहते हैं कि धनी लोग धनपिशाच न बनने के लिये धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष चारों पुरुषा. थोंका समसेवन करें। इनमें से किसी भी एकको दूसरेका बाधक न बनने दें। पाठान्तर- नास्त्यविशालमैश्वर्यम् । ऐश्वर्य विशालतासे हीन नहीं होता। विशालता ही ऐश्वर्य है। ( धनोपासक सुकर्मसे मानवोचित प्रसन्नता पाने के अनधिकारी ) नास्ति धनवतां सुकर्मसु श्रमः ।। ३५४॥ धनोपासक सुकर्मों में श्रम नहीं करते। विवरण- उनकी दृष्टि में सुकर्म कष्टकारक तथा धननाशक होता है । वे सत्कर्म करने का कष्ट नहीं उठाते । उनका किसी सत्कम में प्रेरित होना दुराशा है । धनोपासकोंमें दातापन असंभव है । पदार्थके योग्य अधिकासीको पाया जानकर उसकी धरोहर उसे सौंपकर उण होजाना तथा दानके बदले में घमंड न भोगना ही दानका यथार्थस्वरूप है। स्वार्थमूलक दान दान न होकर एक प्रकारका कुसीद जीवन ( सूदपर रूपया लगाना) है। धनलोलुप लोग जब दानका नाटक खेलते हैं, तब वह दान न होकर उनकी यशोलिपला या किसी प्रकारको फलाभिलाषा होती है । दान सौदा नहीं है । समाजका उचित अधिकार समाजको लौटाना ही सच्चे दानका रूप है । उसका उसे सौंप देना तथा भूलकर भी दातापनका अभिमान न भोगना ही सच्चा दान है । सत्पात्रको श्रद्धाके साश धरोहर लौटा देनेकी बुदिसे दिया दान ही सच्चा दान है । धनी लोग सत्पात्रोंके स्वभावसे वैरी, Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि द्रोही तथा उपेक्षक होते हैं। इन धनियों के चाटुकार लोग ही सांपको खिलानेवाले सपेरोंके समान इन्हें खिलाना, बुलाना घुमाना तथा द्रवित करना जानते हैं। ये लोग योग्य अधिकारी के लिये सदा ही दुर्ग बने रहते हैं । नास्ति गतिश्रमो यानवताम् ॥३५५॥ यान (वाहन ) पर निर्भर रहनेवाले लोग गतिश्रम नहीं उठाते। विवरण- जैसे यात्राके लिये यानोंपर निर्भर होजानेवाले लोग पैर होते और चलने में समर्थ होते हुए भी पंगु बने रहते हैं, इसीप्रकार धनक सर्वस्व, धनोपासक, धनपिशाच लोग सुकर्म करके मानवोचित प्रसन्नता पानेके अधिकारी होते हुए भी अपनी मनुष्यताको तिलांजलि देदेते हैं। धनको ही अपने जीवन की सारवस्तु समझते हैं तथा धनसे समाजसेवा करके उससे मिलनेवाली मात्मप्रसाद रूपी सारवस्तुसे वंचित होजाते हैं । धनोपासक लोग अपने व्यक्तिगत कर्तव्यों को भी धनशक्तिसे मोल ली हुई दूसरोंकी कर्मशक्ति से करा कर अपने शरीरको मालस्यभोग करने के लिये सुरक्षित कर लेते हैं । वे गर्हित उपायोंसे धनोपार्जन करते-करते सत्कर्म करनेके योग्य ही नहीं रहते । उनका आत्मा उनकी धनलोलुपताके कारण मनुष्यतासे हीन आसुरी बन जाता है। उनकी धनासक्तिसे उनका सुकममें धन दान करनेके आत्मप्रसाद पानेका द्वार अवरुद्ध होजाता है । धनासक्ति न त्यागने तक मनुष्यको सत्कर्मका सुखाम्बाद मिलना संभव नहीं होता। धनासक्ति न छोड़ने पर सत्कर्म करना इतना ही कष्टप्रद दीखने लगता है जितना कि यानवाहनका सुख छोडकर पथश्रमको अपनाना । जैसे यानपर निर्भरशील धनियों का श्रमविमुखता रूपी मालस्य उनके ऊपर एक बोझ बन जाता है, वैसे ही धनोपासककी धनासक्ति मनुष्योचित समाजसेवासे मिलने. वाले आत्मप्रसाद रूप सारवस्तुको उसकी दृष्टि से बहिष्कृत रखनेवाला विघ्न बनजाती है। जैसे यानोपर निर्भर रहनेवाले लोग अपने पैरोंका उपयोग करनेसे बचते तथा अपने शरीरको निकम्मे बोझ के रूप में दोये फिरते हैं Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विवाहप्रथा अपराधरोधक धर्मबन्धन ३१७ इसीप्रकार धनी लोग अपनेको सत्कर्मके आनन्दसे वंचित करके धनचिंताके भारसे आक्रान्त रहते हैं। पाठान्तर- नास्ति यानवतां गतिश्रमः । (विवाहप्रथा स्वकृत अपराध-रोधक स्वेच्छा-धर्मबन्धन ) अलाहमयं निगडं कलत्रम् ॥ ३५६ ॥ भार्या भर्ताके लिये बिना लोहेकी (अर्थात् अपनी सम्मतिले स्वीकार की हुई ) बेडी है। विवरण-जैसे अपराधीको बलपूर्वक लोहेकी बेडी पहनाकर उसे अपराध करने से रोका जाता है इसीप्रकार वैवाहिक प्रथा भी एक प्रकार की स्वेच्छास्वोकृत अपराधरोधक बेटा है। एकनिष्टदाम्पत्यकी प्रथा विवाहित व्यक्तिको अपने ही हार्दिक अनुमोदनसे सामाजिक शृंखलामें बांध रहती है । जो दम्पति इस प्रथाको स्वीकार करके वैवाहिक संबन्ध जोडते हैं वे अपनी ही इच्छासे सामाजिक शृखलाकी अधीनता स्वीकार करते हैं। यह बन्धन धर्मका बन्धन है । समाजमें शान्तिकी स्थापना करना धर्मबन्धनसे ही संभव है । मानवधर्म स्वयं ही एक सुदृढ बन्धन है। वहीं इस दाम्पत्य संबन्धको समाजकल्याणकारी शासनके अधीन रखता है। इस बन्धन में रहनेवाले दम्पति ही अपने जीवनको समाजकल्याणमें सम. र्पित कर सकते तथा अपने राष्ट्रको धर्मरक्षा करनेवाली शक्तिमती राज्यव्यवस्थाका संगठन करनेवाली प्रभुशक्ति के रूपमें सुप्रतिष्ठित करसकते हैं । चाहे स्त्री हो या पुरुष जो कोई इस धर्मबन्धनको तोडता है वह अधार्मिक तथा राष्ट्रधाती होकर समाजको पतित करदता है तथा अपनी उच्छखल प्रवृत्तियोंसे राज्यव्यवस्था भी मनैतिकताको प्रवेशाधिकार देबैठता है। विवाहबन्धनकी पवित्रताकी अवहेलना करनेवाले अनैतिक समाजके द्वारा निर्मित अनैतिक राज्यव्यवस्था अपने कुप्रभावसे राष्ट्रको छिन्न-भिन्न कर डालती तथा धर्मबन्धनहीन लुटेरोंके उच्छृखक झुंडके रूपमें परिणत होजाती है। Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८ चाणक्यसूत्राणि (नियुक्तिकी योग्यता ) यो यस्मिन् कुशलः स तस्मिन् योक्तव्यः ॥३५७॥ जो जिस काममें कुशल हो उसे उसी काममें लगाना चाहिये। विवरण- जो मनुष्य अध्यक्षता, मन्त्रिता, विचार, निरीक्षण, न्याय, श्रम, कोष, वाणिज्य, दौत्य भादि जिस कर्ममें कुशल हो उसे उसी काममें लगाना चाहिये । किप्लीको किसी काम या पदपर नियुक्त करते समय उस कर्मकी कुशलता ही योग्यताके रूपमें स्वीकृत होना चाहिये, सिफारिश या उत्कोच आदि नहीं। कर्मकुशलतासे विरोध करनेवाली दूसरी सब योग्यतायें अस्वीकृत होनी चाहिये। सिफारिशों या उस्कोचोंके बलसे अयोग्य लोगों की नियुक्तियोंसे कर्मकी हानि तथा देशमें अविचारकी परम्पर: चल निकलती है। कर्मकुशलता ही राज्य-व्यवस्था-संचालनकी योग्यताके रूपमें स्वीकार की जानी चाहिये । व्यक्तिगत स्वार्थ मनुष्यकी कमकुशल. ताका सबसे बडा बाधक है । जब भकुशल लोगोंको राज्याधिकार सौंप दिया जाता है तब वे राजकाज करते समय अपने व्यक्तिगत स्वार्थको महत्व देते हैं तथा परिणामस्वरूप राज्यव्यवस्थाको ससम्पन करनेकी ओरसे उदासीन होजाते हैं । उस अवस्थामें राष्ट्रकल्याण उपेक्षित होजाता है तथा स्वार्थी राज्यधिकारियोंकी दुष्प्रवृत्तिको छूट मिल जाती है। यदि नये राजकर्मचारि. योको नियुक्त करनेवाले लोग उत्कोचजीवी चाटुकारिताप्रिय तथा देशद्रोही हो तो वे राज्यसंस्थामें दुष्प्रवृत्तियोंसे लाभ उठाना चाहनेवाले उस्कोचजीवी चाटुकार देशद्रोहियों को ही भरलेते हैं तथा अपने दोषसे उस राज्यसंस्थाको राष्ट्रद्रोही संस्था बनादेते हैं । पाठान्तर- यस्मिन् कर्मणि यः कुशलः स तस्मिन्नियोक्तव्यः । ___ ( दुष्कलत्रकी दुखदायिता ) दुष्कलनं मनस्विनां शरीरकर्शनम् ।। ३५८॥ मनस्वी लोग दुष्ट भार्याको क्लेश तथा उद्वेग करनेवालीके रूपमें देखते हैं। Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्नीको सुमार्गपर रखें विवरण- भार्या गृहस्थरूपी शरीरका आधा भाग है। जिसका माधा शरीर दुष्ट होता है उसका दुःखी रहना अनिवार्य होजाता है । मनस्वी लोग गार्हस्थ्य जीवन का लक्ष्य इसीको मानते हैं कि अपनी भार्या के साथ संबन्ध रखनेवाले मानव-धर्मके लोहबन्धनको अपने ऊपर सत्यके शासनके रूपमें स्वीकार करें और अपने मापको समाजसेवामें लगाये रहें। यह धर्म स्त्री पुरुष दोनोंको ही पालना चाहिये । इम धर्मबन्धनको तोडफंकनेवाली दुष्का लन अपने धार्मिक पतिके मानवधर्मपालनकी विघ्न बनजाती है तथा उसके सम्मुख दो कर्तव्य उपस्थित करदेती है कि या तो अपनी भार्याको योग्य सहधर्मिणी बनाकर उसे अपने जीवनका सुयोग्य साथी बनाकर रक्खे, या (उसके किसीप्रकार योग्य बननेकी संभावना शेष न रह जानेपर ) उसे ( दुष्टा भार्याको ) त्याग दे । अर्थात् स्त्रीसम्बद्ध मानवधर्मका परित्याग करके स्त्रीनिरपेक्ष मानवधर्मको अपनाकर शुद्ध समाजसेवामें दीक्षित होजाय । पाठान्तर- ..... शरीरकर्षणम् । ( अप्रमत्तपति पत्नीको सुमार्गपर रखने का अधिकारी ) अप्रमत्तो दारान् निरीक्षेत् ॥ ३५९ ॥ मनुष्य प्रमादरहित होकर सहधर्मिणीका निरीक्षण करे । विवरण- अपनी भार्याको प्रमादसे बचाना और उसे भादर्शगाईस्थ्यधर्म में दीक्षित करके उसे समाजसेवाका व्रत देकर रखना स्वयं प्रमाद. रहित मनस्वी व्यक्तिका ही काम है । भर्ताका अपनी सहधर्मिणीके निरीक्षणका अधिकार तब ही स्वीकार किया जाप्तकता है तथा भार्याका पतिको भर्ताके रूप में स्वीकार करना तब ही कुछ अर्थ रखसकता है, जब दोनों समाजसेवाको अपना लक्ष्य रखते हो। अर्थात् जब दोनों अपने समाजके सामने अपना उपचादर्श रखना पवित्र कर्तव्य मानते हों। जहां पति-पत्नी दोनोंका प्रमादरहित होना आवश्यक है, वहां दोनों में एक दूसरेका निरीक्षण करने की योग्यताका रहना भी अनिवार्य रूपसे आवश्यक है । अथवा- जब मनुष्य स्त्रियोंकी ओर देखे तब अप्रमत्त अर्थात् निष्काम अप्रमादी स्थिरतत्वदर्शी, आत्मसम्मानी तथा जितेन्द्रियमनवाला होकर देखे। Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि मनुष्य अपने बाह्य दर्शनों में इन्द्रियोंकी स्वाभाविक विषयासक्तिके ऊपर विजय पाकर रहे । राज्यव्यवस्थाके संबंधसे राजकर्मचारियों का स्त्री अपराधि. योंके साथ संबन्ध होना अनिवार्य होता है । राज्याधिकारी लोग प्रबन्धवश अधिकारमें भाजानेवाली अपराधी, पीडित या अत्याचारी स्त्रियों को राष्ट्रकी धरोहर मानकर उनके साथ सुसंयन व्यवहार करे । (स्त्रीजातिकी अविश्वास्यता ) स्त्रीषु किंचिदपि न विश्वसेत् ।। ३६०॥ स्त्रीजाति पर थोडासा भी विश्वास न करें। विवरण- ऊपरसे देखने में यह माक्षेप स्त्रीजातिपर प्रतीत होता है। परन्तु आर्य चाणक्यका यह आक्षेप वास्तव में स्त्री जातिको ज्ञानालोकसे वचित करके उसे दलित स्थितिमें रखनेवाले पुरुष समाजपर ही है। हम इम सूत्रका यह अभिप्राय कदापि स्वीकार नहीं कर सकते कि मनस्वी व्यक्ति अपनी धर्मपरायणा सुयोग्या तपस्विनी विदुषी सहधर्मिणीका भी विश्वास न करे । मनस्वी व्यक्तिका तो यह उत्तरदायित्व है कि वह गाह. यधर्मका पालन सपत्नीक करे । इस दृष्टि से अपनी सहधर्मचारिणीको विश्वासपात्र बनाये रखने के लिये उसे ज्ञानालोक देना भी उसीका उत्तरदायित्व है। सूत्रकार कहना केवल यह चाहते हैं कि इस उत्तरदायित्वको पूरा न करनेवाला व्यक्ति अपने उस उत्तरदायित्वको पूरा करें अन्यथा उसके गाहस्थ्य जीवन में अविश्वास मूलक अशान्तिका होना अनिवार्य है । इसके अतिरिक्त राष्ट्र कल्याणसे संबंध रखनेवाले राज्यव्यवस्था संबंधी गुष्ठ विषयों को सुगुप्त तथा सुरक्षित रखने के कठोर कर्तव्यको दृढतासे पालनेकी दृष्टि से यह अत्यन्त भावश्यक है कि राज्य के वे परिचालक लोग जो राष्ट्रके गुप्त विषयों को समग्र बाह्य संसारसे सरक्षित रखने के उत्तरदायी हों अपनी विश्वासपरायणा सहधर्मिणी तकसे भी गष्त रक्खें । जैसे राष्ट्र का मंत्र अन्य पुरुषों को नहीं बताना है इसी प्रकार राष्ट्र का रहस्य अपनी सहधार्मिणी तकको नहीं बताना है। Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अज्ञान और चांचल्य स्त्रीस्वभाव ३२१ (अज्ञान और चांचल्य स्त्रीखभाव ) न समाधिः स्त्रीषु लोकज्ञता च ॥ ३६१॥ स्त्रीजातिमें स्थिरता तथा लोकचरित्रका ज्ञान नहीं होता। विवरण- समाज में पुरुषके प्रबल होनेसे स्त्रीजातिको कूपमण्डूक बनाये रखनेका उत्तरदायित्व पुरुष समाजका ही है । इसलिये यह माक्षेप मी वास्तव में पुरुषसमाजका ही कलंक है । म्यवहारकुशलता सामाजिक व्यवहार करते रहनेसे प्राप्त होती है । क्योंकि स्त्रीजातिको सामाजिक व्यव. हार करनेका अवसर नहीं दिया जा रहा है इस कारण व्यवहारकुशलतामें जिस स्थिरबुद्धिता तथा जिस लोकचरित्रके परिचयकी मावश्यकता होती है स्त्रीजातिको उसे प्राप्त करनेका समवसर नहीं मिलता । यह सूत्र समाजका ध्यान इसी वास्तविकताकी ओर खींचना चाहता है। यह माक्षेप वास्तव में स्त्रीमात्रके चरित्रपर नहीं है किन्तु अविकसित स्त्रीस्वभावपर ही है। विकासका अवसर मिलनेपर स्त्रीजाति पुरुषसे कमी न्यून नहीं रह सकती । इस न्यूनताको दूर करना समाजका कर्तव्य है। समाजकी इस न्यूनताने समाजको अर्धाङ्गी पक्षाघात रोगका रोगी बना रखा है। राटको इस रोगसे मुक्त करनेका कर्तव्य सुझादेना ही इस सूत्रका स्वीकारणीय अर्थ होसकता है । स्त्रीजातिके अविकसित मास्तिक बने रहने से सन्ततिका अप्रौढ अज्ञ भन्याव. हारिक होना अनिवार्य है। चलितवृत्त, धुमक्कड या साधारण स्त्रियों में न तो अपनी चरित्ररक्षाके सम्बन्धमें स्थिरबुद्धिता, अचांचल्य या कर्तव्यनिष्ठारूपी समाधि होती है और न वे सामाजिक कतव्यों तथा उत्तरदायियोंसे परिचित होती हैं। इसलिये राष्ट्रको किन्हीं भी गोपनीय बातों के सम्बन्ध में इमी स्त्रियोपर विश्वास करना उनकी गोपनीयताको ही नष्ट कर डालना है। राज्यसंस्थाका सफल संचालन करना चाहने वाले राज्याधिकारी इस प्रकारकी उच्छृखल स्त्रियों के सम्बन्धमें पूरी सावधानी करते और किसी प्रकार की गुप्तचर स्त्री के २१ ( चाणक्य.) Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ चाणक्यसूत्राणि वाग्जाल या मोहजालमें न फंसकर अपने राष्ट्रको बचायें। यदि वे ऐसी भूल करेंगे तो उनका उनके मोह में फंस जाना तथा राज्यसंस्थाके भेद दे बैठना अनिवार्य होजायगा तथा राष्ट्रका मंत्रभेद होकर उनकी यह स्च्यासक्ति राष्ट्रके सर्वनाशका कारण उपस्थित करडालेगी। पाठक फिर देखें यह स्त्रीनिन्दाका प्रसंग नहीं है किन्तु राज्यमें काम करनेवालोंके लिये सावधान वाणी है । " यो यस्मिन् कर्मणि कुशलः स तस्मिन् योक्तव्यः " इस पहले छठे सूत्रमें राज्याधिकारियोंकी जिस कुशलताका वर्णन है उसी में एक कुशलता स्त्रीविषयकी उपेक्षा भी है। मार्य चाणक्य चाहते हैं कि जो राज्याधिकारी परे जितेन्द्रिय सिद्ध हो चुके हो, जिनमें स्त्रियों के सम्पर्कसे न डोलने की स्थिरबुद्धिता हो वे ही राजद्रौटः मादि उत्तरदायित्वपूर्ण पदोंपर नियुक्त किये जाने चाहिये। पाठातर- न समाधिः स्त्रीषु लोलता च । नियों में सौम्यता, शान्ति और निरपेक्षता नहीं होती वे चंचल तथा मस्थिरमति होती हैं। विचारशील लोग इनके मायापाशसे बचें तथा राष्ट्रको बचावें । ( जीवन में माताका सर्वोपरिस्थान ) गुरूणां माता गरीयसी ॥ ३६२ ।। सब गुरुओंमें माताका सर्वोच्च स्थान है। विवरण- पहले सूत्र में स्त्रीजातिकी त्रुटि दिखाकर इस सूत्र में माताको सर्वोच्च स्थान देनेका यही स्पष्ट अभिप्राय है कि जो समाज मातजातिको मज्ञानान्धकारमें रखता है उससे वह स्वयं ही रोगग्रस्त होजाता है। पुरुष. जातिपर यह उत्तरदायित्व है कि वह मातृजातिको उसका उचित प्राप्या गौरवमय स्थान देकर स्वयं उन्नत हो।। उपाध्यायान् दशाचार्य आचार्याणां शतं पिता। सहस्रं तु पितृन् माता गौरवेणातिरिच्यते ॥ ( मनु) Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मातृसेवा अत्याज्य कर्तव्य ३२३ माचार्यका पद उपाध्यायसे दसगुना ऊंचा है। पिताका पद भाचार्यसे सौगुना ऊंचा है। परन्तु माताका पद तो गौरवकी दृष्टिसे पितासे सहस्र. गुण ऊंचा है। सूत्रकार कहना चाहते हैं कि स्त्रियों का कलत्ररूप भादरणीय न होकर मातृरूप ही भादरणीय है । पति-पत्नीका दाम्पत्य सम्बन्ध स्वार्यमूलक होता है जब कि मातापुत्रका सम्बन्ध हैतुक होता है। उस संबन्धकी अहैतुकता ही उसकी श्रेष्ठता है। मनुष्यकी माता उसके सामने स्नेह, करुणा, क्लेशसहन, कर्तव्यपालन तथा वात्मत्यागका जो अपूर्व मादर्श उपस्थित करती है उससे मानव सन्तानको मानवताके आदर्शका जीवित पाठ मिलता है। माता ही मनुष्यका प्राथमिक विश्वविद्यालय है। (मातृसेवा अत्याज्य कर्तव्य ) सर्वावस्थासु माता भर्तव्या ॥ ३६३ ॥ सर्वावस्थामें माताका भरणपोषण करना सन्तानका कर्तव्य है। विवरण- सन्तानके लिये ऐसी कोई भी अवस्था स्वीकार नहीं की जा सकती जिसमें उसे मातृसेवा त्यागनेका अधिकार प्राप्त होसके । यद्यपि पिताकी सेवा भी सन्तानका कर्तव्य है तो भी इस सूत्रमें मातृसेवाको महत्व देनेका कारण यह है कि कभी-कभी पिता सन्तानसे सेवा पाने के अधिकारसे वंचित होनेवाले काम कर सकते हैं, परन्तु माताका ऐसा होना म्वभावविरुद्ध मानाजाता है । जो माता सन्तानको अपने प्राणोंसे भी प्रिय जानकर अपनी छातीका दूध पिलाती है, उसकी इस महती सेवाका प्रति. दान देना सन्तानका अपरिहार्य कर्तव्य है। उसका किसी भी अवस्थामें मातृत्याग करना विवेकानुमोदित नहीं है । मातृसेवा त्यागनेकी कोई परि. स्थिति नहीं होनी चाहिये । प्रतीत होता है कि सूत्रकारने " कृतदाराश्च मातरम्' समाज में मातृनिरादरके बहुल दृष्टान्त देखकर समाजपर यह धार्मिक बोझ ( दबाव ) डालना चाहा है कि मनध्य किसी भी प्रकारक प्रलोभन या दुष्टा भार्याकी कुमन्त्रणासे प्रभावित न हो तथा मातृसेवाके Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ चाणक्यसूत्राणि कम्यको न त्यागे । यदि मनुष्य किसी भी अवस्थामें मातृसेवाका कर्तग्य न त्यागे तो उसके शेष सब कर्तव्य स्वयमेव पालित होजाते हैं। यह मनो. वैज्ञानिक सिद्धान्त है कि यदि मनुष्य कर्तव्यबुद्धि को किसी भी एक क्षेत्र में सुरक्षित करले तो फिर उसकी कर्तव्य बुद्धि सब ही क्षेत्रों में प्रभावशालिनी होकर रहनेलगती है। यह सूत्र इसी मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तको ध्यानमें रखकर लिखा गया है । सर्वत्र देखा जाता है कि जो व्यक्ति माताके प्रति उपेक्षा रखता है वह किसीके भी प्रति कर्तव्यपरायण नहीं होसकता। जो व्यक्ति दुष्टा भार्याके वशीभूत होकर माताकी अवहेलना करता है वह अपने पत्नीसंबद्ध उत्तरदायित्वकी भी उपेक्षा करचुका होता है। वह अपनी दुष्टा भार्या के विपथगमनका प्रोत्साहक बन जाता है। मातृसेवा ही घरमें शान्ति बनाये रखने. वाला प्रहरी है। यदि हृदयों मेंसे इस प्रहरीको हटा दिया जाता है तो घरकी शान्तिका बन्धन भी लिस-भिन्न होकर संसारका विनष्ट होजाना अवश्यंभावी होजाता है। निष्कर्ष यही है कि यदि राष्ट्रमें शान्ति चाहो तो घरमें शान्ति रक्खो । यदि धरमें शान्ति चाहो तो तुमपर किसी प्रकारका भौतिक दबाव न डालसकनेवाली माताका सम्मान तथा सेवा करो। जो मनुष्य धरमें शान्ति रक्खेगा वही राष्ट्रमें शान्ति रखसकेगा। माता स्वभावसे प्रेरित होकर सन्तान का पालन करती है। वह सन्तान. पालनके प्रतिदान में सन्तानसे मिलनेवालो सेवाका लोभ नहीं रखती। ससकी सन्तान मातृभक्त है या नहीं इस बातकी कल्पना माताले मनमें स्वभावसे अनुपस्थित रहती है। जैसे वृक्ष अपने मूलके सहारेसे वृद्धि पाकर ही पत्र, पुष्प, फलोंसे सुशोमित होता है इसी प्रकार सन्तान मातृमूलके सहारेसे ही जीवनीशक्ति पाकर वृद्धि पाता है। जैसे मूलसे पृथक वृक्षका जीवन संभव नहीं है इसी प्रकार माताकी गोदसे अलग सन्तानका जीवन भी संभव नहीं है । सन्तान माताके इस ऋणको किसी भी प्रकारकी सेवासे नहीं उतार सकता। उसके प्रति स्वाभाविक रूपसे अत्यन्त कृतज्ञ Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मातृसेवा अत्याज्य कर्तव्य बने रहना ही इस ऋणको उतारनेका एकमात्र उपाय है। पिताके हाथों में भौतिक दबाव रहने के कारण पिताकेप्रति अकृतज्ञ लोग उसकी सेवा तो कुछ सीमातक करते हैं । परन्तु माताके हाथोंमें भौतिक दबाव न होने के कारण यदि सन्तान अकृतज्ञ हो तो माता उसके ऊपर अपनी सेवाके लिये कोई भी भौतिक दबाव नहीं डालसकती। जिस योग्य सन्तानमें मातृभक्ति होती है वह अहेतुकी कर्तव्यबुद्धि से ही होती है। इस कर्तन्यबुद्धिको स्वीकार करना ही सन्तानकी मातृभक्ति है। जो सन्तान किसी प्रकार के भौतिक या पार्थिव दवावके बिना केवल पवित्र कर्तव्यबुद्धि से प्रेरित होकर मातृभक्ति करता है उसकी यह कर्तव्यबुद्धि उसके जीवनके प्रत्येक कर्मक्षेत्र में प्रकट रहती है। जो पवित्रकर्तव्यबुद्धिसे अपनी माताकी सेवा करता है वही समाजकी सच्ची सेवा करसकता है। यदि समाजको सच्चे देशसेवक ढूंढने हों तो उनके विषय में यह देखना चाहिये कि वे अपनी माताकी निष्कामसेवा करते हैं या नहीं? मातृसेवारूपी कर्तव्यबुद्धिका समाजसेवाके रूपमें प्रति फलित रहना ही मनुप्यकी मनुष्यता है। समाज. संवा भी तो वास्तव में मातृसेवा ही है । जन्मभूमि भी तो मनुष्य की माता ही है । दूध पिलानेवाली माता तथा अन्नदायिनी जन्मभूमि दोनोंका एक ही जैसा पूज्य स्थान है। ‘माता भूमिः पुत्रोहं पृथिव्याः ' जो एक माताको पहचानेगा वह दोनों माताओं को पहचानकर रहेगा। जो एककी उपेक्षा करेगा वह दूसरीकी भी अवहेलना किये बिना नहीं मानेगा। समाजसेवा देशभकिके रूप में जन्मभूमिरूपी माताकी ही मानवोचित सेवा है। जननी तथा जन्मभूमि दोनों की सेवा मातृभक्तिके ही दो बाह्य रूप हैं। पारिवारिक शान्तिको सुरक्षित रखनेकी कला मातृभक्तिमें ही सन्निहित है । जो मातृभक्ति के द्वारा अपनी पारिवारिक शान्तिको सुरक्षित रखनेकी कला सीख लेता है वहीं समाजसेवाके द्वारा अपनी माताके मात. स्वको सार्थक करते हुए अपनी जन्मभूमिको शान्तिको सुरक्षित रखनेकाला नि:स्वार्थ कर्मवीर निकलता है। मातृभक्तिके भीतर निःस्वार्थ समाजसेवाका Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि अंकुर विद्यमान है । आजका मनुष्यसमाज निःस्वार्थ सेवाके उसी अंकुरको सखाडकर मातृभूमिको शोषण करके उदरपूर्ति करनेवाला स्वार्थलोलुप समाजद्रोही बन गया है । जिस मातभक्तिके भीतर समाजको सुदृढ करके राष्ट्र. संघटन करनेका मूलमंत्र या मूलशक्ति विद्यमान है, समाजमें उस मातृभक्तिको संजीवित करना हो समाजकी सर्वमान्य राष्ट्रीय पाठविधि है । मनुज्यके स्वाभाविक शिक्षक राष्ट्रसेवकों का यही स्वधर्म है कि वे इस राष्ट्रीय विधिसे मनुष्यमात्रको परिचित करादें। समाजके स्वाभाविक शिक्षक सच्चे राष्ट्रसेवक लोग इस मातृसेवा धर्मको स्वयं पालकर हो राज्यव्यवस्थामें प्रविष्ट हों तथा समाजको सन्मार्गपर चलायें । (विद्वत्ताविरोधी आचरण ) वैदुष्यमलंकारेणाच्छाद्यते ॥३६४॥ मनुष्यकी विद्वत्ता देहसज्जासे आच्छादित होजाती है। विवरण- वेषभूषाकी अलंकृतिसे सम्मान पाना चाहनेवाले नामधारी विद्वान अपनी विद्याको अपमानित करके उसे अपनी वेषभूषामें छिपा लेते हैं। देह सजानेवाले लोग विद्वत्ताके मर्मसे अपरिचित रहते हैं । देहको शोभित करने या बनठनकर रहनेकी भावना अज्ञानी मनोवृत्ति है। मनुष्य जाने कि दैहिक शृंगारके साथ ज्ञानका वध्यधातक संबंध है । मनुष्य शृंगार प्रिय भी हो तथा वह पण्डित भी हो यह परस्परविरुद्ध बात है। जिसमें पाण्डित्य होता है उसकी चित्तवृत्ति ज्ञानज्योतिसे सुशोभित रहती है । ज्ञान ही विद्वानके हृदयको समुज्ज्वल रखनेवाला स्वाभाविक भाभरण है। यदि कोई विद्वान् नामधारी पुरुष या स्त्री इस सत्य सिद्धान्तकी उपेक्षा करके अपने देहको सजाने के लिये कृत्रिम भाभरणोंका उपयोग करता है तो समझ जाना चाहिये उसकी विद्वत्ता ज्ञानसे रहित शुकविद्या (तोतारटन ) है। उसकी विद्वत्ता अज्ञानान्धकारसे ढका हुमा बोझा है। अपने दैहिक रूपको अलंकारोंसे सुशोभित करनेकी भावना मानसिक कुरूपताका ही द्योतक है । "नाकामी मण्डनप्रियः " मकामी व्यक्ति कभी भी मण्डनप्रिय नहीं Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्वत्ताविरोधी आचरण होता । मण्डनप्रियका कामी होना अनिवार्य है। ज्ञानीलोक मनुष्यकी हार्दिक सम्पत्ति या शोभा है । देह सजानेके लिए आभरणों की अपेक्षासे मनुष्यकी देहात्मबुद्धि प्रकट होती है । आभरणोंसे सजावट देहात्मबुद्धिको प्रकट करनेवाली चंचल स्थिति है। सच्चा वैदुष्य मनकी स्थिरता में ही प्रकट होता है। जहां मनकी स्थिरता होती है वहां बाह्य चपलता या लघुताको स्थान नहीं मिला करता । ३२७ अथवा पिछले नौवें सूत्र में वर्णित राज्याधिकारियों की दूसरी कुशलता वैदुष्य है । उनका वह वैदुष्य उनकी अनुद्धत सोम्य वेषभूशासे स्पष्ट होना चाहिये । वह मण्डनप्रिय वैदुष्य न होना चाहिये | कामासक्त निम्न श्रेणीके लोग ही मण्डनप्रिय होते हैं । मण्डनप्रियता मनुष्यको अन्तःसार हीनताकी सूचना है। जिसका मन सुशोभित नहीं है जिसके मनमें अभिमान करने योग्य मनुष्योचित सद्गुण नहीं है, वही बाहरके कृत्रिम भौतिक सौन्दर्य से सजना चाहता है | वेशभूषाको अलंकृति से सम्मान पाना चाहनेवाला अपनी विद्याको अपमानित करके उसे अपनी वेशभूषा में छिपा लेता है । अपनी विद्याको वेशभूषा में छिपानेका अर्थ छिपानेवालेकी विद्याका मूल्यहीन होना है । उसकी दृष्टि में विद्याका उतना मूल्य नहीं है जितना अलंकारोंका है। कृत्रिम उपायोंसे सम्मानित होनेकी इच्छा मनुष्यकी मूढता है । विद्वत्ता स्वयं ही संसारका सर्वश्रेष्ठ अलंकार है । सच्चा विद्वान् अपनी विद्याके गौरव से गौरवान्वित रहता है अलंकृति से नहीं । जो अपनेको वेशभूषासे सजाता है उसकी विद्या में भोज, तेज तथा ब्रह्मवर्चस नहीं है । वह अनार्यविद्या है। सुयोग्य राज्यकर्मचारियोंका वैदुष्य सुन्दर सिले, सुन्दर धुळे वस्त्र, सुगंधित प्रसाधनों, दैनिक क्षुरकृत्योंसे उत्पन्न होनेवाले सौन्दर्यपर निर्भर न होकर उनका वैदुष्य चारित्रिक श्रेष्ठता से प्रभावशाली रहनेवाला वैदुष्य होना चाहिये । पाठान्तर-- वैरूप्य मलंका ......... 1 विरूपता अलंकारोंसे तिरोहित होजाती है । यह पाठ महत्वहीन होनेसे अपपाठ है । Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ चाणक्यसूत्राणि (देहाङ्गाकी नग्नताकी असह्यता स्त्रियोंका अलंकार ) __ स्त्रीणां भूषणं लज्जा ॥ ३६५।। लजा स्त्रियोंका भूषण है । विवरण-जैसे पौरुष अर्थात् पराक्रम या विपत्सम्मुखीनता पुरुषोंकी विशेषता है इसी प्रकार लजा अर्थात् अपनी मान-मर्यादाकी रक्षा स्त्रियोंका' विशेष भूषण है। निर्लज स्त्री निराभरण है। अपने देहांगों का प्रदर्शन करनेकी भावना हो निलं जता है। अपने भगिनीरूप तथा मातरूपकी रक्षा करना ही स्त्रियों का कर्तव्य है । निर्लज स्त्रियां समाजको पतित करनेकी भावनासे कलंकित होती है । समाजको पवित्र रखना स्त्रीपुरुष दोनों ही का सम्मिलित कर्तव्य है। इसके लिये स्त्रीपुरुष दोनों समानरूपसे उत्तरदायी हैं। समाजकी पवित्रता - ही समाजका भषण है । समाजको अपनी निलं जतासे पतित करनेवाली स्त्री समाजसे तो शत्रुता करती तथा स्वयं अपने लज्जारूपी स्वाभाविक भूषणको त्यागकर अध:पतित होजाती है। चारित्रिक अधःपतन अपने स्वाभाविक सौन्दर्यको नष्टभ्रष्ट करडालनेवाली भयावनी स्थिति है। इस प्रकार के अधःपतन से मात्मरक्षा करनेकी भावना ही नारीका स्वाभाविक धर्म है। समाजमें इस नारीधर्मको महत्वपूर्ण स्थान मिलने या देने से समाजका पतन अनिवार्य रूपसे अवरुद्ध होजाता है । मुखको छोड़कर शेष अंगोंकी नग्नताकी असह्यता, दैहिक आकर्षकताका यथाशक्ति आवरण तथा दुःसाहसिकताका त्याग स्त्रीदेहधारियों का विशेष स्वभाव होता है । उनकी इस लज्जासे ही कुटुम्बोंमें कुलधर्म तथा परम्पराप्राप्त सनातन जातिधर्म सुरक्षित रहते हैं । जब स्त्रियां निर्लज्ज होकर अपने रूपयौवनको जानबूझ. कर सर्वसाधारणके सामने लानेका प्रयन्त करने लगती हैं तब परम्पराप्राप्त शालीनता आदि कुलधर्म तथा जातिधर्म नष्ट होकर समाजमें विशृंखलता पैदा होजाती है तथा देश अधार्मिक बनजाता है। Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्मशान ब्राह्मणोंका अलंकार ३२१ दोष, पाप, अन्याय तथा अकर्तभ्यसे आत्मसंकोच ही लज्जा है। समा जमें पापी होनेके अपयशकी शंका या विभीषिका लज्जा कही जाती है। मानवका अभ्युत्थान करनेवाली दैवी संपत्तिरूपी लज्जाका स्वरूप अकर्तव्यसे संकोच है। यह लज्जा स्त्रीपुरुष उभयसाधारण लज्जा है। पाप आसुरी प्रवृत्ति है । पापको गुप्त रखने की भावना अर्थात् गुप्त पाप करनेका स्वभाव लज्जा नहीं है। यह पापप्रवृत्ति है । यह स्वभाव मनुष्यकी पाप करनेसे रोकती नहीं किन्तु उसे छिपवाती है । (ब्रह्मज्ञान ब्राह्मणों का अलंकार ) विप्राणां भूषणं वेदः ।।३६६॥ वेद अर्थात् ब्रह्मज्ञान अर्थात् ब्रह्मवित् होना ब्राह्मणोंक! भूषण है। विवरण- जातिमात्रोपजीवी अज्ञानी ब्राह्मण ब्राह्मणत्वसे पतित हैं । वह काठके हाथी या चामके कृत्रिम मृगके समान दिखावटी है। योऽनधीत्य द्विजो वेदमन्यत्र कुरुते श्रमम् । स जीवन्नेव शुद्रत्वमाशु गच्छति सान्वयः ॥ जो ब्राह्मण वेदज्ञान प्राप्त करके अन्य विद्यामों में श्रम करता है वह परि वारसहित शुद्र होजाता है । वेदमेव सदाभ्यस्येत् तपस्तप्स्यन् द्विजोत्तमः । वेदाभ्यासो हि विप्रस्य तपः परमिहोच्यते । यथा काष्ठमयो हस्ती यथा चर्ममयो मृगः । तथा विप्रोऽनधीयानस्त्रयस्ते नाम विभ्रति ॥ (मनु) द्विजोत्तम बनने के इच्छुक सदा वेदाभ्यासमें रत रहे। वेदाभ्यास ही ब्राह्मणका सर्वोतम तप कहाता है । मनध्ययनशील ब्राह्मण, काठके हाथी या चर्मनिर्मित कृत्रिम मृग जैसा है । ये तीनों नाम ही नामके होते हैं । इनमें यथार्थता कुछ नहीं होती। महाभाष्यकर पतंजलिने कहा है-- "ब्राह्मणन Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि निष्कारणे धर्मः षडंगो वेदोऽध्येयो शेयश्चेति" षडंगवेदका अध्ययन तथा ज्ञान प्राप्त करना ब्राह्मणका महैतुक कर्तव्य है। वेदज्ञानके बिना मनुष्य मनुष्य नहीं बन सकता। मानव बननेका जो रहस्य है वही वेदज्ञान है। ( कर्तव्यपालन मानवमात्रका अहंकार ) सर्वेषां भूषणं धर्मः ॥३६७॥ सत्यनिष्ठा या स्वकर्तव्यपालन ही मनुष्यमात्रका भूषण है। सत्य या कर्तव्यस होन मनुष्य मनुष्यताहीन श्रीहीन असुर है । अहिंसा सत्यमस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः । एतत्सामासिक धर्म चातुर्वर्ण्य ऽब्रवीन्मनुः ॥ ( मनु) मनुने अहिंसा, सत्य, अचौर्य, बाह्याभ्यन्तर शुद्धि तथा इन्द्रियनिग्रहको चातुवणका सम्मिलित धर्म बताया है। यतोऽभ्युदयनिःश्रेयससिद्धिः स धर्मः ॥ (वैशषिक दर्शन ) जिस मानवोचित कर्तव्यपालनसे ऐहिक मभ्युस्थान तथा मानसिक कल्याण दोनों हो वही धर्म है। मनुष्यों के भोजन, माहार, निद्रादि पशुओंके ही समान है। मनुष्य में धर्म ही पशुमोंसे विशिष्ट वस्तु है । धर्मसे हीन मनुष्य और पशुमें कोई अन्तर नहीं है। महाभारतमें कहा है- “धारणाद्धर्ममित्याहुन लोकचरितं चरेत्" मनुष्यसमाजको सुव्यस्थित रखनेवाली नीति या कार्यप्रणाली ही धर्म कहा जाता है। मनुष्य लोकचरित्रका अनुसरण न करे। लोकचरित्रके कामादि दोषोंसे भरपूर होनेसे मनुष्य उसका अनुसरण न करें। लोकचरित्रका अनुसरण करनेसे धर्मका नाश निश्चित है । गतानुगतिको लोको न लोकः पारमार्थिकः। लोक सारसोंकी पंक्तिके समान एक दूसरेका अनुकरण करता है। वह सोचकर काम नहीं करता। Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अलंकारोंका भी अलंकार ३३१ ( अलंकारोंका भी अलंकार ) भूषणानां भूषणं सविनया विद्या ॥३६८॥ विनयसहित विद्या सब भूषणों में श्रेष्ठ भूषण है। विवरण- मनुष्यको विनीत नम्र, सुजन, सुग्यवहारी बनादेनेवाली विद्या संसार के समस्त भूषणोंसे श्रेष्ठ भूषण है। पाठान्तर- भूषणानामतिभूषणं विनयो विद्या च । विनय तथा विद्या दोनोंका सहवास सब भूषणों में श्रेष्ठ भूषण है । सत्यनिष्ठा ही विनय है । सत्यके शासन में रहना ही विनय है। संपूर्ण विद्याओं के साथ सत्यनिष्ठाका सम्मिलित रहना ही सच्ची विद्वता है । मनुध्यमें सत्यनिष्ठा न हो तो उसकी सब विद्या भविद्या होजाती है और वह केवल लोकविनाशके काम आती है। सत्यनिष्ठाके बिना बडे-बडे विद्वान् नामधारी भयंकर हिंस्रजन्तुओसे भी भयानक ब्रासदाता बनजाते हैं। सत्य. निष्ठ विद्वानका मन संसारके सर्वश्रेष्ठ भषणसे विभषित रहता है। मनुष्य का सत्यनिष्ठारूपी भूषणसे वंचित रहना मूर्खता है । मूर्ख व्यक्तिके शरीरको भूषित करनेवाले संपूर्ण कृत्रिम भषण उसकी मखंताको ही व्यक्त करनेवाले होते हैं। वह जितना ही अपने देहको कृत्रिम पाभरणोंसे सजाता है संसारमें उतनी ही उसकी मूढता प्रगट होती है। मनुष्यकी मूर्खता मिटा डालनेवाली विद्या ही उसे विभषित करनेवाला सच्चा भूषण है । जो विद्या मनुष्यकी मुर्खता नहीं मिटापाती वह विद्या नहीं है। केवल देहको विभूषित करने की भावना मानवहृदयको विभ्रम करा देनेवाला भज्ञानान्धकार है । सत्यके प्रभावसे नम्र रहना ही विनय है। सत्यहीन विद्या भविद्या है। सत्यहीन विनय सुषुप्त भयंकर ज्वालामुखी है तथा कपटपूर्ण निकृष्ट प्रकारका वंचक औद्धत्य है। राजकाजमें नियुक्त लोगोंमें उक्त प्रकारकी सरलतासे पूर्ण, निर्दोष, नम्र वैदुष्य तथा कार्यकुशलता होनी चाहिये । राजपुरुष कार्यार्थियों के साथ ऐंठसे व्यवहार न करें तथा प्रजापर अपना मिथ्या सम्मान या प्रभाव आरोपित करने (रोब गांठने ) का दुष्प्रयत्न न करें। Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि विद्या ददाति विनयं विनयाद्याति पात्रताम् ।। पात्रत्वाद्धनमाप्नोति धनाद्धर्म ततः सुखम् ॥ ( विष्णुशर्मा ) विद्यासे विनय, विनयसे पात्रता, उससे धन, उससे धर्म तथा उससे सुख प्राप्त होता है ! सन्मार्गसे- आई हुई विद्या- मनुष्यको विनय सिखा ही देती है । विद्यासे विनीत, सुजन, निदोषवैदुष्यसम्पन्न कार्यकुशल लोग ही राजकाजमें नियुक्त होने चाहिये । नहीं तो राज्यसंस्थाका लूटका ठेका ( इजारा ) होजाना अनिवार्य है। (भुजबलसे निरुपद्रव बनाये देशमें रहो ) अनुपद्रवं देशमावसेत् ।। ३६९।। उपद्रवहीन देशमें निवास करे। विवरण- सपद्रव शान्तिप्रिय मनुष्य के तो स्वभावके विरुद्ध तथा अशान्तिप्रियले स्वभावके अनकूल है। किसी देशमें उपद्रवकारी लोग न रहें यह कभी संभव नहीं है । प्रकृतिमाता सदा ही दो प्रकारके मनुष्य उत्पन्न करती रहती है । ऐसी अवस्थामें शान्तिप्रिय मनप्यों के सम्मुख यह कर्तव्य अनिवार्य रूपसे सदा ही विद्यमान रहता है और रहता रहेगा कि वे अपने देशको उपद्रव करनेवाले लोगोंके अधिकार में न रहने देकर अपने अधि. कारमें रक्खें । निरुपद्रव लोगोंका यह स्वभाविक कर्तव्य है कि वे उपद्वी लोगों के ऊपर अपना शासनदण्ड स्थापित किये रहें । यदि उनकी निरुपद्रवतामें उपद्रवदमनका सामथ्र्य नहीं है तो ऐसी कायर निरुपद्रवता समाजघाती तत्व होनेसे अपना कोई मूल्य नहीं रखती। सच्चे निरुपद्रव वे ही लोग हैं जो उपद्रवियों के सिरपर अपना शासनदण्ड स्थापित रखते हैं। इस दृष्टि से उपद्रवदमन न करसकनेवाले निरुपद्रवी लोग अपनेको निरुपद्रव नामसे सम्मानित करने का अधिकार नहीं रखते। उपद्रवियोंसे संग्राम किये विना निरुपद्रव जीवन बिताना किसी भी प्रकार संभव नहीं है। मानवधर्म यही है कि समाज के निरुपद्रव लोग Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुपद्रव देशमें रहो ३३३ उपद्रवियों के विरोधके लिये आगे भायें, उनपर अपमा शासन स्थापित करें तथा यो जीवनको शान्तिमय बनाये रखने का मानवीय कर्तव्य पूरा करके दिखायें । शान्तिका दर्शन करना तब ही संभव है जब मनुष्य अशान्तिके विरुद्ध खड्ग उठाये तथा प्रत्येक क्षण उसे परास्त करने के लिये निरन्तर संग्रामशील रहे। उपद्रवदमन प्रत्येक शान्त नागरिकका सबसे पहला कर्तव्य है । उपद्रवदमन ही राजमत्ता है। उपद्रवदमन न करसकनेवालेको नागरिकताका अधिकार प्राप्त नहीं होता। असावधान घरों में लूटनेवालों को प्रवेशाधिकार रहता है । अपनी मोरसे ऐसा कोई काम न करना कि लूटनेवालेको प्रवेशाधिकार मिलसके यही 'सावधानता' है। मसावधान घरों में संयोगवश लूटनेवालोंका न माना निरुपद्रव स्थिति नहीं है। निरुपद्रव देशमें रहने का सच्चा अभिप्राय तो यही है कि मनुष्य अपने बुद्धि कौशल तथा भुजबल से अपने देशसे उप. द्रवोंकी संभावनाओं तक को नष्ट करडाले । मानवधर्म तो यही है मनुव्यको यदृच्छासे जब जहां जितने समय रहना पडे इतने समयके लिये उस देशको ( अर्थात् अपने निवासस्थानको ) निरुपद्रव रखने के सम्बन्ध में पूरी सावधानता बरतें तथा कतन्य करे । उपद्वहीनता नैष्कावलम्बियोंका धर्म नहीं है । उपद्रवी के साथ संग्राम छेडे रहने का ही दूसरा नाम उपद्रवहीनता है । उपद्रवोंका सक्रिय सफल विरोध ही निरुपद्रव स्थिति है। उपद्रवोंकी तात्कालिक अनुपस्थितिको उपद्रवहीनता समझनेकी भ्रान्ति करके असावधान होकर रहना तो उपद्रवीका आखेट बने रहना होता है । देशको अपने बुद्धि कौशल तथा भुजबलसे क्षोभोत्पादक उत्पात, क्लेश, पीडा, अनुत्पत्ति तथा ग्याधियोंसे रहित बनाकर उसमें गौरवके साथ वास करना मनुष्यका कम्य है । मानसिक शांति तथा जीविकाकी सुगमता ही निरुपद्रवता है। विद्या, वित्त, शिल्प, वाणिज्य, कृषि, शिक्षा, शान्ति मादिक सुप्रबन्धवाला देश ही निवासयोग्य होता है । निरुपद्रव स्थानमें बसने से स्वास्थ्य, Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ चाणक्यसूत्राणि चित्तम्फूर्ति, आयु, कलाकौशल तथा धनधान्यकी वृद्धि होती है। कूपों नदियों तथा वृष्टियों के जलोंसे उर्वर व्रीहिसम्पन्न निरुपद्रव देश ही निवास के लिये स्वीकृत होने चाहिये । देश नदीमातृक, देवमातृक तथा कूपमातृक मेदसे तीन प्रकारके होते हैं। इसीप्रकार जांगल, अनूप तथा साधारण भेदसे फिर तीन प्रकारके माने जाते हैं । जीविकारहित देश में रहना निरर्थक है। धनिकः श्रोत्रियो राजा नदी वैद्यस्तु पंचमः । पंच यत्र न विद्यन्ते न कुर्यात्तत्र संस्थितिम् ॥ समयपर लोककल्याणार्थ धनका सदुपयोग करनेवाला धनी, कर्तव्यनिर्देशक वेदवेदांगतत्वज्ञ विद्वान् , उपद्रव रोकनेवाला राजा, प्रकृतिमाताका अकृत्रिम सौंदर्य दिखाकर विधाताका ध्यान दिलानेवाली नदी तथा रोंगोसे त्राण करनेवाला वैद्य ये पांच जहां न हों वहां न ठहरे। ( सच्चा देश ) साधुजनबहुलो देशः ॥ ३७० ॥ बहुसंख्यक सत्यनिष्ठ साधुओंका वासस्थान ही देश कहाता है। विवरण--- जिप्स सौभाग्यशाली देशमें असाधुलोग साधुओं के प्रभावसे शासित रहते हैं वही सच्चा देश है । साधुलोगोंका सामूहिक देशप्रेम ही देशके निवासियोंको एकराष्ट्रका रूप देदेता है । यद्यपि मनुष्यसमाजमें साधुओंकी संख्या अधिक है, यद्यपि निरुपद्रव शान्तिप्रिय रहना मनुष्यका स्वभाव है । यद्यपि आक्रामकोका भाखेट बन जाना मनुष्य के स्वभावके विरुद्ध है यद्यपि प्रत्येक मनुष्य के हृदयमें माक्रामकका आखेट बननेसे बचने की भावना स्वभावसे विद्यमान है परन्तु यह भावना जब कभी बालस्य या मनवधानताका रूप लेलेती है तब ही समाजकी शान्तिपर आक्रमण करनेवाले कुछ इनेगिने उपद्रवी लोग उस जडताका अनुचित लाभ उठाकर समा. जकी शान्तिपर माक्रमण करबैठते हैं : समाजपर उपद्रवियोंके भाक्रमणका Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजनियम श्रद्धासे पालो उत्तरदायित्व देशके निर्विरोध शान्त लोगोंपर है । मनुष्यसमाजको दुःखी करनेवाले उपद्वी लोग संख्यामें मल्प होनेपर भी भद्र समाज ( बहुमत ) की जडताके कारण समाजको असंगठित पाकर उसे तिरस्कृत करडालते हैं। इन सब दृष्टियोंसे स्वयं भला रहने के साथ ही साथ मनुष्यसमाजमें समा. जकी स्वभाविक साधुताको जगाकर रखना भी तो समाज हितैषियों का ही कर्तव्य है । सच्चे समाज में साधुवृत्तिका जाग्रत रहना ही मनुष्यसमाजमें साधुनोंकी बहुलता होजाना है। समाज में साधुवृत्ति के जागे रहते हुए उसमें साधुओं की बाढ आजाना इतना हो सुगम होजाता है जैसा कि मेघमुक्त माकाशमें प्रभातसूर्य के उदयसे पृथिवीका मालोकीत होना सुगम तथा सुनिश्चित होता है। राजनियम श्रद्धासे पालो ) राज्ञो भेतव्यं सार्वकालम् ।। ३७१ ॥ राजरोषका पात्र नहीं बनना चाहिये। विवरण- मादर्श राजा वही है जो समय राष्ट्रके हित तथा अपने व्यक्तिगत हितको अभिन्न समझता है तथा राष्ट्रको स्पष्ट या अस्पष्ट सम्मतिसे सिंहासनारूढ होता है । अज्ञानमें डूबा हुमा राष्ट्रका महत्वहीन भाग राष्ट्र नहीं, राष्ट्रके प्रधान बुद्धिमान है, किन्तु सेवापरायण लोग ही राष्ट्र हैं । इन लोगोंकी सम्मति या इनका सहयोग ही राष्ट्र की सम्मति है। (इस दृष्टि से राष्ट्र के इन बुद्धिमान लोगों के सहयोगके कारण भारतके एकतंत्र दीखने वाले प्राचीन राज्य सदाले प्रजातन्त्र रहते चले आरहे हैं।) इस प्रकार के मादर्श राजाके रोषका पात्र बनना राष्ट्रद्रोह है । राष्ट्रद्रोही न बनना ही राजभक्ति है। राप्रद्रोह आत्मद्रोह है। राजसिंहासनारूढ राजा सारे राष्ट्रका प्रतीक या उसका मूर्तिमान प्रतिनिधि है। जैसे झण्डा राष्ट्रको पूज्यताका प्रतीक है इसी प्रकार राजा भी उसकी पूज्य बुद्धि का प्रतीक होनेसे मादरणीय है। राजाको ऐसा ही होना चाहिये तथा उसे ऐसा ही मानना भी चाहिये । जब समाजमें राजाको इस दृष्टि से देखने की भावना Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि जाग्रत रहेगी तथा जब राजा ऐसा बनकर रहना अपना कर्तव्य मानेंगे तब हो समाज अपने हितचिन्तक राष्ट्रसेवकको राज्यभार सौंपकर उसीके शासन में रहनेको अपना धर्म स्वीकार करनेके लिये उद्यत होसकेगा । भारतकी परम्परागत राजभक्ति राजसिंहासनारूढ व्यक्तिकी भक्ति नहीं है । भारतकी राजभक्ति तो अपनी मातृभूमिकी ही भक्ति है । राजा प्रजाहितका उत्तरदायी है । वह प्रजाके कल्याणके लिये कुपथगायिका पथरोध करके समाजमें शान्तिरक्षाका उत्तरदायी है। राजशक्ति प्रजाकी सदिच्छा से प्रजाशक्ति से ही बनती है। राजा प्रजाहितका सामूहिक प्रतीक होनेसे दण्डनीतिका प्रधानपुरुष है । इस अर्थ में राजद्रोह तो प्रजाद्रोह तथा प्रजाद्रोह राजद्रोह होजाता है । राजद्रोहसे बचने में ही प्रजाका हित है । प्रजाहितकारी कर्तव्य करना ही राजासे अद्रोह या राजभक्ति है राज्यशासन न रहने पर प्रजार्मे मात्स्यन्याय चल पड़ता है। हां, यदि राजा अपना कर्तव्य छोड़कर अकर्तव्य करनेपर उतर आये तो राष्ट्रकल्याणकी दृष्टिसे निडर होकर राजाका विरोध करना प्रजाका व्यक्तिगत नहीं किन्तु सामूहिक पवित्र कर्तव्य हो जाता है 1 1 पाठान्तर राज्ञो भेतव्यं सर्वकालम | ३३ ( राजा राष्ट्रभर से धर्मपालन करानेवाला जीवित देवता ) न राज्ञः परं दैवतम् || ३७२ ।। राजासे श्रेष्ठ देव कोई नहीं है । L 3" विवरण - प्रजारंजक कर्तव्यपरायण राजासे श्रेष्ठ पूजनीय देव कोई नहीं है । अन्य दव न दीखनेवाले देव हैं। राजा प्रत्यक्ष दीखनेवाला देवता है । त्वमेव प्रत्यक्षं ब्रह्मासि राजा समस्त प्रजाहितका मूर्तिमान प्रतिनिधि तथा उत्तरदायी है । प्रजा पाप करे तो उसे दण्डका भय दिखाकर पापसे रोककर प्रजामें सदाचारको परम्परा प्रदाह्नित करना अन्य सब देवोंसे अधिक राजाका ही उत्तरदायित्व है । राजाके इस उत्तरदायित्व में सहायक बननेके लिये अपने उपार्जनमें से राजभाग देते रहकर उसे सुपुष्ट Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजशक्तिका व्यापक कर्मक्षेत्र "" बनाये रखना प्रजाका स्वहितकारी कर्तव्य है । राजा ईश्वरकी भांति अपनी समस्त प्रजा में महंभाव रखकर उसके सुखदुःखका अभिन्न साथी बनजाता है। ऐसे प्रत्यक्ष हितैषी राजाकी कर आदिसे पूजा, प्रजा के लिये श्रेष्ठ भगवत्है। मार्कण्डेय पुराण के अनुसार पूजा प्रजाः पुत्रानिवौरसान् " राजा प्रजाको अपने औरस पुत्रोंके समान पाले । अपनी समस्त प्रजा में सत्यनिष्ठा बनाये रखना और असत्यनिष्ठाको निरुत्साहित करते रहना ही राजाका देवस्व है तथा यह उसका प्रत्यक्ष देवत्व है। इसी अर्थमें भार्य राजनीति में राजाको समस्त देवोंका अंशावतार माना गया है । राजसिंहासनको सुशोभित करनेवाले ऐसे सुयोग्य राजाको राज्याधिकार देना प्रजाके ही अधिकाउसे हैं । जो राजा प्रजाकी सम्मति से सिंहासनारूढ हुआ है उसे सर्वोच्च पूज्य स्थान देना प्रजाका स्वहितकारिणी सम्मतिको ही पूजना है । पाठान्तर -- न राज्ञः परा देवता । ३३७ ( राजशक्तिका व्यापक कर्मक्षेत्र ) सुदूरमपि दहति राजवन्हिः || ३७३ || राजाकी क्रोधाग्नि राज्यके सदूर कौने कौने में पहुंचकर राजद्राहियोंको दग्ध करनेमें समर्थ होती है । विवरण -- राजा अपनी दूरदृष्टिसे राजद्रोहियोंको दूर-दस्तक देखता रहता है । राजाके पास छिपाकर अशान्ति उत्पन्न करनेवाले देशद्रोहियों को उचित दण्ड देनेवाली दूरगामिनी शक्ति रहती है। इसलिये रहती है कि राष्ट्रका प्रत्येक सच्चा नागरिक राजा राजदण्डको धारण करनेवाले प्रति. निधिके रूपमें देशभर में सर्वत्र, सब समय प्रहरीका रूप लेकर नियुक्त रहता है । पापियोंका उन्मूलन करने में राज्यसंस्थाकी सहायता करना नागरिकोंका स्वहितकारी कर्तव्य है । राजाको इन राष्ट्रसेवक नागरिकों के द्वारा राजनियम भंग करनेवालका समाचार मिल जाता है। राष्ट्रसेवक सच्चे नागरिक लोग ही राजाके बुद्धिसम्पन्न सुदीर्घ बाहुचल हैं । २२ ( चाणक्य. ) Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८ चाणक्यसूत्राणि - दीघौं बुद्धिमतो बाहुः । राजद्रोहको दमन करने में समर्थ होना ही राजसिंहामन धारण करने की योग्यता है। पाठान्तर-- सुदूरमपि दहति राजाग्निः । पाठान्तर-- सुतमपि दहति राजाग्निः। राजा अपराधी पुत्रतकको दण्ड देता है। अन्यों का तो कहना ही क्या ? ( राजदर्शनका आचार ) रिक्तहस्तो न राजानमभिगच्छेत् ।। ३७४ ॥ राजाके पास रीते हाथ जाना चाहिये । विवरण--- समग्र देशका हितसाधन करनेमें रत राजा समस्त राज्यकी सबसे मूल्यवान् माननीय, अभिनंदनीय तथा प्रोत्साहनीय सम्पत्ति है। प्रजाहितकारी राजाके राजकाज में समर्थन, प्रोत्साहन तथा सहयोग देकर कृतार्थ होना प्रजामात्रका स्वहितकारी कर्तव्य है । इस दृष्टि से अपनी भौतिक पाक्तिको राष्ट्र के सदुपयोगके लिये सुयोग्य राजाको सौंप देना उसपर कोई कृपा नहीं, किन्तु अपने ही हितमें सहयोग देना है । इसलिये राजदर्शन राजभक्तिसूचक उपहारके साथ होना चाहिये और यह उपहार औपचारिक न होकर राष्ट्र की आवश्यकता पडनेपर अपनी भौतिक शक्ति राज्यको सहर्ष सौंप देने की अपनी प्रस्तुतताका सूचक होना चाहिये । वृद्ध चाणक्यने __ “ रिक्तपाणिर्न सवत राजानं श्रोत्रियं गुरुम्।" भक्तिसूचक उपहारके बिना राजा, वेदज्ञ बाह्मण, तथा पूज्य पुरुषों के पास न जाना चाहिये । राजाका राष्ट्रव्यापी राजकार्यों में न्यन रहना अनिवार्य है। राजाके पास इतना समय नहीं होता कि लोग बिना कर्तव्यके संबन्धके भी उसके पास जाते आते रहें । राजदर्शनार्थी लोग कर्तव्य के संबन्धसे ही भसके सम्मुख उपस्थित होने के अधिकारी होसकते हैं । केवल दर्शन करना Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ বাসমলিঙ্কা আলা ३३९ कर्तग्यमें सम्मिलित नहीं होसकता । सूत्रकारका मभिप्राय कर्तब्यके अवसर पर राजदर्शनार्थीको राजाके प्रति सम्मान प्रदर्शनकी प्रेरणा देना है। समाजने राजाको आत्मकल्याणकी दृष्टि से उच्चासन देरक्खा है । इस दृष्टि से उसके सम्मुख राजदर्शनके शिष्टाचारका पालन करना दर्शनार्थीका अत्यावश्यक कर्तव्य हो जाता है। ऐसे अवसरपर किसी भी प्रकारका शिष्टाचार प्रदर्शन न करना दर्शनार्थीकी ओर से राजाकी अवज्ञा करना बनजाता है। इसलिये उचित यही है कि दर्शनार्थी लोग राजाके हृदयपर अपनी यथोचित ( मर्यादित ) राजभक्तिका प्रभाव उत्पन्न करके ही अपना वक्तन्य उपस्थित करें। इस प्रकारका सम्मानसूचक उपहार न लेजाना यह संदेह उत्पन्न करसकता है कि यह व्यक्ति समाजभरके सामूहिक प्रतीक राजाके प्रति अवज्ञाका प्रदर्शन करना चाहता है। सर्वसाधारणके मनोंमें उपहारोंसे शिष्टों तथा राजाओं को भक्तिका प्रदशन करनेकी जो स्वाभाविक प्रेरणा रहती है और परिपाटी चली भारही है, उसके विरुद्ध माचरण करनेसे राजाके मनमें दर्शनार्थीके सम्बन्धमें संदेहो. त्पादन होनेकी पूरी संभावना रहती है । इस प्रकार के व्यवहारसे दर्शनार्थीके कर्तव्य के राजाका समर्थन पानेसे वंचित रह जानेकी शंका पैदा होजाती है। इस सूत्रमें इसी शंकासे अति रहकर राजदर्शन करनेका परामर्श दिया जारहा है । राजभक्ति के प्रदर्शनके द्वारा राजाके मनको अनुचित प्रभाषसे मुक्त रखना भी राजदर्शनार्थी प्रजाका कर्तव्य है। जिस प्रकार राजाके मनपर अनुचित प्रभाव डालना अपराध है, इसी प्रकार राजाके साथ प्रजाका पिता-पुत्रका-सा घनिष्ट सम्बन्ध रहना ही सच्चा राष्ट्रीय सम्बन्ध है। राष्ट्र भी तो एक विराट् परिवार ही है । इस राष्ट्ररूपी परिवार में प्रजाका राजाके साथ स्नेहपूर्ण निकटतम सम्बन्ध जुडा रहना ही पादर्श राष्ट्र नीति है। इन बातों को ध्यानमें रखते हुए राजदर्शन के समय प्रजाका व्यवहार स्वाभाविक स्नेह और प्रत्यक्ष हार्दिकताको साक्षी उपस्थित करनेवाला होना चाहिये । राजदर्शन के समय प्रजाको किसी प्रकारका कोई उपहार लेकर जाना चाहिये। Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० चाणक्यसूत्राणि प्रजाका उपहार मार्थिक मूल्यसे निर्णीत न होकर प्रजाके हार्दिक प्रेमसे पूत होकर ऐसी मंत्रशक्ति धारण करनेवाला होना चाहिये कि राजाका हृदय प्रजाके प्रति माकृष्ट होसके । राज्याधिकारका दुरुपयोग करनेवाले सत्ता. धारियोंको घूस देनेकी प्रवृत्तिमें प्रोत्साहन देना इस सूत्रका उद्देश्य कदापि नहीं है। ( गुरुदर्शन तथा देवदर्शनका आचार ) गुरुं च दैवं च ॥३७५॥ ज्ञानदाता गुरू. देवस्थान या धर्मोपदेष्टा शीलसम्पन्न महा. स्माके पास भी श्रद्धाभक्तिसूचक उपहार लेकर ही जाना चाहिय । विवरण--- इन लोगोंसे ज्ञानका हार्दिक मादानप्रदान होते रहने तथा इनका हार्दिक अनुमोदन पाते रहने के लिये इस प्रकार विनम्र शुश्रुपु बर्ताव स्वहितकारी कर्तव्य है। वित्तं वन्धु वयः कर्म विद्या भवति पंचमी । एतानि मान्यस्थानानि गरीयो ह्युत्तरोत्तरम् ॥ धन, बन्धुता, आयु, आचरण तथा विद्या ये पांच मान्यताके कारण हैं। इनमें पिछले पिछलोंका महत्व बडा है । गुरुजनों तथा देवताओं को उपहार देनेमें इनका नहीं किन्तु इनके गुणों का ही मादर किया जाता है। मनुष्य अपने मनको गुणग्राही बनाकर ही गुणीका प्रेमपात्र बनसकता है। ऐसे गुणग्राही लोगों के लिये उपहारोंके द्वारा गणों की पूजा करना स्वाभाविक शिष्टाचार है । इस शिष्टाचार को न पालना गणोंकी उपेक्षा करना तथा उद्धत स्वभावका परिचय देना होता है। गुणवाहिता ही गुणी समाजमें सम्मान पाने की योग्यता है। गुणो के दर्शनाभिलाषी लोग गुणी के व्यक्तित्वको ही उसके गुणोंका प्रतीक मानकर उसको पूजा करते हैं । गुणीसमाजका यह पारस्परिक शिष्टाचार सर्वमान्य शिष्टाचार है । Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजाके पारिवारिकोंका सत्कार ३४१ ( राजाके पारिवारिकों का सत्कार ) कुटुम्बिनो भेतव्यम् ॥ ३७६ ॥ राजाले कौटुम्बिक संबन्ध रखनेवालोंका द्वेष्य नहीं बनना चाहिये । विवरण - राजपरिवार के सदस्योंकी अवज्ञा करना वास्तव में राजाकी ही अवज्ञा है । राजाके कुटुम्बियों को भी राजतुल्य शिष्टाचार पानेका अधिकार होता है। उन्हें शिष्टाचार से वंचित करना राजरोपका कारण बनसकता है । प्रजाका राजाके साथ जो संबन्ध है, वही संबन्ध राजाके कुटुम्बियों के साथ भी कुछ अंशोंतक वांछनीय है। प्रजाके मनमें राजा या उसके कुटुम्बियोंके असंतोष या संदेहका पात्र बनने की ओरसे सतर्कता सदा ही रहनी चाहिये | मन में प्रेमपात्र के प्रेमसे वंचित न होनेकी सतर्कता रहना ही प्रेमको परिभाषा है। यहां पर भीतिका अर्थ शत्रुभाव न होकर सब समय सतर्क रहना ही है । अथवा -- कुटुम्बी अपने पारिवारिकों में से किसी पर रोबोत्पादक अन्याय न होने देनेके लिये निरन्तर सावधान रहे । पाठान्तर-- कुटुम्बिना भेतव्यम् । कुटुम्बियों को पालन करनेवाला व्यक्ति अपने उत्तरदायित्व पालन करने के मार्ग निको भयावह मानकर उनसे भात्मरक्षा करता रहे और समाजका सौमनस्य पानेमें प्रयत्नशील रहे । जिस मनुष्यकी कर्तव्यनिष्ठापर परिवार के अनेक व्यक्तियोंका भरणपोषण निर्भर होता है, उसके कर्तव्य मार्ग में पगपगपर विघ्नोंकी संभावना रहती है । यदि कुटुम्बियोंका नेता अपनी असतर्कता के कारण उन विघ्नोंको दूर करने में असमर्थ होजाता है तो कुटुम्बके सब व्यक्तियोंमें अनिवार्यरूपसे अशान्ति आदर्शहीनता, अनैतिकता आदि मानसिक व्याधियें उत्पन्न होजाती हैं। अपने विपुल परिवारको नैतिक बन्धनमें बांधकर सन्मार्गपर रखने के लिये असामान्य सावधानता की आवश्यकता है । Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२ चाणक्यसूत्राणि अथवा-- कुटुम्बियोंको विश्वासघाती तथा गृह-शत्रु न बनने देने के लिए सदा सतर्क रहना चाहिए । गृह-कलहका कारण निर्मूल करके कुटुंबि. योंके बाहरी शत्रु के प्रभाव में जाने की संभावनाको दूर रखना चाहिए । कुटुंबियोंके शत्रुपक्षावलंबनके भीतिजनक परिणामको ध्यानमें रखकर उन्हें हार्दिकतासे अपनाए रहने के सर्वप्रकारके संभव प्रयत्न निष्फल होजानेपर उन्हें कौटुंबिक अधिकारसे दृढतासे वंचित कर देना ही इस सूत्रका सैद्धान्तिक अभिप्राय है। (राजपरिषतकी गतिविधिसे परिचित रहो ) गन्तव्यं च सदा राजकुलम् ।।३७७॥ राजकुल में सदा जाना चाहिये । प्रजाके हिताहितस संबन्ध रखनेवाले राजकीय मन्तव्यों तथा निर्णयोंके परिचयोंसे लाभान्वित होते रहने के लिये सदा राजकुल (राजपरिषत् ) में जाते रहना चाहिये। विवरण- राजकुल अर्थात् राजसभामें नियमित रूपसे उपस्थित होकर राजकाजमें सहयोग देना चाहिये । राज्य संस्था हमारी ही प्रतिनिधि संस्था है । उसका सुधार हमारा अपना ही सुधार है । वह क्या कर रही है ? यह जानते रहना तथा अपनी राज्यसंस्थाको अकर्तव्य न करने देने के लिये उसके संपर्क में रहना प्रजाका स्वहितकारी कर्तव्य है । राज्यसंस्थाके प्रति उदासीनता आजके भारतका भयंकर मात्मद्रोह है। जनतामें उद्घोप्यमान राज्यसंस्थाके प्रति उपेक्षापरक " कोड नप होऊ हमें का हानि " वाक्य नागरिकों के मारम. द्रोहका रूप है। राजपुरुषैः सम्बन्धं कुर्यात् ॥ ३७८॥ राजकाजसे सम्बद्ध मंत्री आदि राजपुरुषोंके साथ मैत्री या परिचयका संबंध बनाये रखना व्यवहारसहायक स्वहितकारी कर्तव्य है। Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिताका स्वर्ग ३४३ चक्रः सेव्यो नृपः सेव्यो न सेव्यः केवलो नृपः । पश्य चक्रस्य माहात्म्यं मृत्पिण्डः पात्रतां गतः ॥ राजाके चक्र (कार्यकर्ता = अमले ) और राजा दोनों को प्रसन्न रखना चाहिये । चक्रका माहात्म्य देखो कि मपिण्ड भी उसकी कृपासे पात्र बन गया । तात्पर्य यह है कि राजाकी कृपाके पात्र बननेके इच्छुकों को राज्यके कार्यकर्ताओं तथा राज्य में प्रभावशाली हाथ रखनेवालों को भी रुष्ट करने. वाला कोई काम न करना चाहिये। पाठान्तर- राजपुरुषैः सह संबन्धं कुर्यात् ।। राजदासी न सेवितव्या ।।३७९।। राजपरिचारिकाओंके व्यक्तिगत संपर्क में नहीं आना चाहिये। न चक्षुषापि राजानं निरीक्षेत् ॥ ३८०॥ आंखसे राजाको न देखे । यह पाठ युक्तिहीन होनेसे अपपाठ है। (राजधन अग्राह्य ) ( अधिक सूत्र ) न चक्षुषापि राजधनं निरीक्षेत् । राजधनके हरण तथा ग्रहणकी तो बात ही क्या ? इस भाव. नासे राजकोशकी ओर आंखोसे भी न देखे, उसकी ओर सतृष्ण दृष्टि तक न डाले, और ऐसा करके राजपुरुषोंको अपने संबन्ध शंकालु न बना ले । राजधनपर लोभ न करे । (पिताका स्वर्ग ) पुत्रे गुणवति कुटुम्बिनः स्वर्गः ॥ ३८१ ॥ पुत्रके सदाचारी तथा गुणवान् होनेपर पिताको अनुपम सुख होता है। विवरण-पिताको अपनी सन्तानकी पवित्रतासे जितनी ठंडक पडती है उससे अधिक मन्य किसी बातसे नहीं। किसीके भाग्योदय होने पर ही Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि उसे गुणी पुत्र प्राप्त होते हैं । पुत्रोंके पास विद्या, धन तथा सुचरित्र होनेपर पिता ही नहीं समस्त संबन्धियोंको दिव्य सुख और दिव्य दर्ष प्राप्त होता है। इससे यह किंवदन्ती प्रचलित हो गई है कि- " पुत्रेणैवायं लोको जय्यः यह लोक योग्य सन्तानोंसे ही जीता जाता है । ३४४ ܙ ܙ एकेनापि सुवृक्षेण पुष्पितेन सुगन्धिना । वासितं तद्वनं सर्व सपुत्रेण कुलं तथा ॥ जैसे एक भी सुगन्धवाले पुष्पित सुवृक्षसे समस्त वन सुगन्धस्नात हो जाता है, इसी प्रकार एक भी सुपुत्र से समस्त कुल गौरव पा जाता है । ( सन्तान के प्रति पिताका कर्तव्य ) विद्यानां पारं गमयितव्याः || ३८२ ।। पुत्रा पुत्रोंको विद्याओंका पारंगत बनाना चाहिये । विवरण - अपने देशके बालकोंको मानवताकी संरक्षक तथा जीवनोपयोगी दोनों ही प्रकारकी विद्याओंका पारंगत बनाना चाहिये | अपने देश के बालकों को लौकिक, अभ्युदय तथा मानसिक शान्ति दोनों ही कला सिखानी चाहिये । उनका अभ्युदय उनकी मानसिक शान्तिके नेतृत्व और प्राधान्य में ही फूलना फलना चाहिये । उन्हें धर्मशास्त्र, अर्थशास्त्र, वार्ताशास्त्र अध्यात्मशास्त्र, शिल्प, राजनीति, युद्धविद्या आदि समस्त विद्यानोंका पारंगत बनाना चाहिये । देश के जिन बालकों में समस्त विद्याओंके प्रहण, धारण तथा उपयोगका सामर्थ्य होता है वे देशकी विभूति बन जाते हैं । सत्कुले योजयेत् कन्यां मित्रं धर्मेण योजयेत् । व्यसने योजयेच्छत्रन् पुत्रान् विद्यासु योजयेत् ॥ कन्याको सत्कुल में, मित्रको धर्मसे, शत्रुको विपत्तिसे, तथा पुत्रोंको विद्याओंसे युक्त कर देने में ही कल्याण है । सत्यनिष्ठा ही संपूर्ण विद्याओंका सार है । अपने पुत्रोंको सत्यनिष्ठ बनाना ही पिताका सन्तानपालन धर्म है। पिता स्वयं सत्यनिष्ठ बनकर । पुत्रको सत्य के मार्गपर चला सकता है । Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रामीण स्वार्थके बलिदानकी स्थिति ३४५ यदि देशके माता-पिता लोग सत्यनिष्ठ न हों तो पुत्रों के सत्यनिरूपमें सच्चे विद्वान् बनने की कोई संभावना नहीं है । यदि अपने समग्र राष्ट्रमें मात्मरक्षाके बीज बोने हों तो सन्तानपालनके इस सिद्धान्तको राष्ट्र के प्रत्येक परिवारमें पलवाना होगा । मातापि का सत्यनिष्ठ होना हो सुसभ्य सन्तति. पालनका एकमात्र सिद्धान्त और आश्वासन है। व्यक्ति ही तो राष्ट्रका मूल है। परिवार ही तो व्यक्ति के जीवनतरुको हरा भरा रखने वाला उर्वर क्षेत्र है । परिवार ही मनुष्योंको चरित्र लिखानेवाले विश्वविद्यालय हैं । राष्ट्र के परिवार जिप परिमाणमें कर्तव्यशील होंगे राष्ट्र उसी परिमाणसे योग्य गुणी पुत्रों को उत्पन्न करसकेगा।। पाठान्तर-- पुत्रा विद्यादानार्थ प्रारम्भयितव्याः । यह पाठ महत्वहीन है। ( ग्रामीण स्वार्थ के बलिदान की स्थिति ) जनपदार्थं ग्रामं त्यजेत ॥३८६ ।। अपने ग्रामके देशद्रोही होजानेपर उस छोडकर देशका साथ द। विवरण- न्याय तथा शान्तिको सुरक्षामें ही देशका कल्याण है। जिप प्रामका मनुष्यसमाज न्यायनिष्ठ तथा शानिमिय हो वह ग्रामसमाज त्याज्य होजाता है अर्थात् उसकी देशद्रोहिताका विरोध करना कर्तव्य होजाता है। सूत्र कहना चाहता है कि राष्ट्र के सार्वजनिक हितको सुरक्षित रखने के लिये ग्रामके क्षुद्र स्वार्थका बलिदान करदे। ग्राम भरने सीमित अस्तित्वको राष्ट्रसे पृथक न समझकर, राष्ट्र के प्रति मारमसमपण करके अपना क्षुद्रत्व मिटा डाले। पाठान्तर-- जनपदार्थ ग्रामस्त्यज्यते। राष्ट्रहित के लिये प्रामका क्षुद्रहित त्याग दिया जाता है । Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि (कौटुम्बिक स्वार्थके बलिदानकी स्थिति) ग्रामार्थं कुटुम्बस्त्यज्यते ॥ ३८४॥ जब किसीका कुटुम्ब ग्रामकी शान्तिका विघ्न बन रहा हो तब वह कुटुम्बको त्यागकर ग्रामको अपनाये रहे या उसका साथ दे। विवरण- मनुष्य ग्रामके सार्वजनिक कल्याणकी सुरक्षाके लिये पारि. वारिक क्षुद्र स्वार्थको त्याग दे । दूसरे शब्दों में अपने पारिवारिक स्वार्थको ग्रामके सार्वजनिक स्वार्थसे अलग न समझे । संसारमें जितने विवाद, कलह और युद्ध खडे होते हैं सब अपने स्वार्थको सार्वजनिक स्वार्थसे अलग मान रखनेसे ही होते हैं । यदि समाजमें सार्वजनिक कल्याणकी रक्षाकी प्रवृत्ति जाग उठे या जगा दी जाय तो देशमें सतयुग या रामराज्य भाजाय । (पुत्रत्यागकी स्थिति ) ( अधिक सूत्र ) कुटुम्बार्थं पुत्रस्त्यज्यते । पुत्रके कुटुम्बकी शान्ति में विघ्न बनजाने पर उसे त्याग दे और कुटुम्बको अपनाये रहे। विवरण- जिस पुत्रसे कुलकी रक्षाकी भाशा बांधी जाती है, उसीसे यदि कुलोच्छेदकी संभावना प्रबल होजाय तो उस पुत्रको त्याग देना कर्तव्य होजाता है और त्याग देना पड़ता है। इसलिये मनुष्य अपने समस्त परि. वारकी स्वार्थरक्षाके लिये अपने आत्मज पुत्र से संबंध रखनेवाली क्षुद्र स्वार्थ. बुद्धि को त्याग दे। कुटुम्बके नेताका कर्तव्य है कि वह परिवार के प्रत्येक सदस्य के साथ औरस पुत्रके समान बर्ताव करे । ऐसा न करनेपर कुटुम्बका नेतृत्व सुरक्षित नहीं रह सकता। ( सर्वत्यागकी स्थिति ) ( अधिक सूत्र) आत्मार्थं सर्वं त्यजति । अपने आत्मकल्याणके लिये (दूसरे शब्दों में अपनी आत्म. Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वत्यागकी स्थिति ३४७ स्थितिरूपी सत्यको सुरक्षित रखने के लिये ) अपने संपूर्ण पार्थिव स्वार्थीको त्याग दे। विवरण- यहांतक त्याग दे कि संपूर्ण राष्ट्रके असत्यका दास होजाने पर सत्यरक्षा या भात्मरक्षाके नाम पर निःसंकोच होकर संपूर्ण संसारका विरोध करनेको खडा होजाय । एकमात्र सत्यरक्षा ही मनुष्यकी मात्मरक्षा है । मनुष्यजीवनका लक्ष्य यही है कि मनुष्य सत्यस्वरूपको अपनाये, विश्व. विजयी बने, सम्पूर्ण जगत्के असत्य मिथ्याचार भनधिकार अन्यायके विरोधमें खडा होजाय और सत्यस्वरूप आत्मस्थितिकी रक्षा करे। यही मनुष्य के जीवनका व्यक्तिगत मादर्श भी है। मनुष्य इस अपने व्यक्तिगत मादर्शको कभी न भूले । आत्म विस्मतिमें न पडना ही मनुष्य जीवनका लक्ष्य है। अपने राष्ट्र की सेवा करना ज्ञानीका ही भस्याज्य धर्म है। ज्ञानी ही राष्ट्रका संरक्षक होता है। अज्ञानी तो राष्टके घातक होते हैं। इनका तो राष्ट्र के साथ केवल स्वार्थका संबंध होता है । अज्ञानी लोग तो राष्ट्र के बहे. लिये ( शिकारी) होते हैं। इनकी दृष्टि में समाज स्वार्थसाधनरूपी लूटक। क्षेत्र होता है । ज्ञानी राष्ट्रके साथ परमार्थ या सेवाका संबंध रखता है। मनुष्य यह जाने कि अपने व्यक्तिगत कल्याणमें ही राष्ट्रका तथा राष्ट के कल्याणमें व्यक्तिका कल्याण है। मनुष्य ज्ञानी बना रहे यही उसका व्यक्तिगत कल्याण है। मनुष्यका इससे बड़ा और क्या कल्याण हो सकता है कि वह ज्ञानी हो । यदि संयोगवश ज्ञानीका संपूर्ण राष्ट्र अज्ञानी बन जाय, उस समय ज्ञानीका पवित्र कर्तव्य हो जाता है कि वह संपूर्ण राष्ट्रक कल्याणको अपने में केन्द्रीभूत करले और अकेला ही असत्यका विरोध करके सत्यके रक्षक बनने के स्वाभाविक मानवोचित अधिकारका भोग करे और अपनेको इसी में गौरवान्वित माने । ज्ञानी अकेला होनेपर भी संपूर्ण राष्ट्र का कर्णधार होता है। एकोऽहमसहायोऽहं कृशोऽहमपरिच्छदः । स्वप्नेऽप्येवं विधा चिन्ता मृगेन्द्रस्य न जायते॥ Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि जैसे मृगराज के मनमें यह चिन्ता कभी नहीं आती कि मैं अकेला असहाय, कृश या सामग्रीहीन हूं। इसी प्रकार ज्ञानी भी कभी अकेला नहीं है । उसके साथ उसका आराध्यदेव वह सत्यनारायण सदा ही लगा रहता है जो सदा उसकी पीठपर अनुमोदनका हाथ रक्खे रहता है। यदि समस्त देश आत्मद्रोही, सत्यद्रोही सिद्धान्तविरुद्धगामी हो जाय तो ज्ञानी मानव जनपदको त्यागकर सत्य के पथपर अवेला चलकर असत्यविरोधी संग्रामशील जीवनयात्रा करे | ३४८ ये चारों सूत्र यह कहना चाहते हैं कि मनुष्य या समाजके साथ अपने त्याज्य ग्राह्यकी कसौटी, शान्ति और न्याय ही होनी चाहिये । मनुष्य सर्वावस्था में न्याय तथा शान्तिको अपनाये रहे । भले ही ऐसा करने से उसे पुत्र, कुटुम्ब, ग्राम, देश यहांतक सारे संसारको त्याग देना पडे और अवेला रद्दकर अन्यायी संसार के साथ लडकर सत्यार्थ बलि होजाना पडे । मनुष्यता ही शान्ति तथा न्यायकी संरक्षक है | मनुष्यको किसी भी भवस्था में मनुष्यताको न त्यागनेकी प्रबल प्रेरणा देना ही इन सूत्रोंका अभिप्राय है । मनीषी सूत्रकारने जनपद, ग्राम, कुटुम्ब और पुत्र सबको त्याज्य कोटि में रखकर मनुष्यकी मनुष्यताको ही अस्याज्य समझाया है । ( गुणवान् पुत्रके लाभकी प्रशंसा ) अतिलाभः J पुत्रलाभः || ३८५ ॥ पुत्रलाभ सर्वश्रेष्ठ लाभ है । विवरण- गुणी पुत्रका पिता होना ही सन्तानवान् होना है। निर्गुण पुत्रका पिता होना पिताकी अयोग्यता भी हैं और साथ ही उसकी पुत्रहीनता भी है । निर्गुण अयोग्य पुत्र तो परिवारका ही नहीं राष्ट्रका भी शत्रु है । राष्ट्र - शत्रु, समाज - शत्रु, परिवार शत्रु पुत्रका पालनपोषण करना, राष्ट्रद्रोह, समाजद्रोह, परिवारद्रोह तथा आत्मद्रोह है। सत्पुत्र पाजाना पिताका असाधारण लाभ या सौभाग्य है । सत्पुत्र या गुणी पुत्र पाजाना ही Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणवान् पुत्रके लाभकी प्रशंसा ३४९ पुत्रलाभ है । जातिधर्मों, कुलधर्मों तथा संस्कृतियों की रक्षा सत्पुत्रोंसे ही होती है। ऐसे उदारपुत्र पाना संसारका सर्वोच्च लाभ है। मनुष्य के सिर जो पितृऋण नामक ऋण है वह समाजको योग्य, गुणी, ज्ञानी, महात्मा पुत्र देनेसे ही उतरता है और पिता ऋण-मुक्त होजाता है । वंश तथा वंशानुगत सदाचारों की परम्पराका संरक्षण और उस परम्पराका संशोधन परिवर्धन तथा संस्करण सुपुत्रोंसे ही होता है। ( अधिक सुत्र ) प्रायेण हि पुत्राः पितरमनुवर्तन्ते। साधारण नियम तो यही है कि पुत्र पिताके ही जीवनाचारके अनुकूल बनजाते हैं। विवरण-- पुत्र पाय: पिताके ही चरि बसे चरित्र सीखते हैं। इसी. लिये पुत्र के सामने मनुष्यताका आदर्श रखना पिताका ही उत्तरदायित्व है। मुपुत्रका पिता बनना ही पितृत्वकी सार्थकता है। यादृशेः सन्निविशते याद्दशांश्चोपसेवत । याद्दगिच्छेच्च भवितुं तादृग्भवति पूरुषः ॥ (विदूर ) मनुष्य जनों के संपर्क में उठता बैठता, जिनकी श्रद्धासे उपालना करता और स्वयं जैसा बनना चाहता है वैसा बन जाता है । कुछ पुत्र पिताके विपरीत लच्छे बुरे भाचरण समाज में से सीखते हैं । अच्छे पिताकी बुरी सन्तति तथा बुरे पिताकी अच्छी सन्तति यद एक कादाचित्क घटना है। गुणी पिताके अविनीत अज्ञानी पुत्र पिताकी जीवननीतिले विपरील चलकर अपयश तथा दुःख भोगते हैं। विद्या, विनय तथा धर्मसे सम्पन्न पुत्र अपने धार्मिक पिताके आदेश तथा आदर्शका अनुसरण करते हैं। येनास्य पितरो याता येन याताः पितामहाः । येन यायात् सतां मार्ग तेन गच्छन्न रिप्यत ।। मनुष्य पिता-पितामह जिस भद्रमार्गसे यात्रा कर के यश और सुख Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० चाणक्यसूत्राणि पाकर गये हैं मनुष्य मानवताके विकासक उसी सन्मार्गसे चले। उसपर चलनेसे कभी दुःख नहीं भोगता। मजास्थिस्नायवः शुक्काद्रक्तान्त्वंड्यांसशोणिताः । सन्तानके शरीर में मजा, अस्थि तथा स्नायु पिताके देवसे आते हैं। त्वचा, मांस तथा रक्त माताके शरीरसे आते हैं। (सच्चा पुत्र) दुर्गतेः पितरौ रक्षति स पुत्रः ॥३८६॥ पुत्र दुर्गतिसे मातापिताकी रक्षा करते हैं । विवरण-पुत्र का जन्म होते ही पिता-माताके सम्मुख सन्तानपालन धर्मका उत्तरदायिस्व मा खडा होता है। यों भी कह सकते हैं कि पुत्रका जन्म होना ही धार्मिक पिता-माताके जीवनका पवित्र धर्मबन्धन में बंध होजाता है । पुत्रजन्म होते ही पिता-माताके सम्मुख पुत्रके सामने मनुष्य. ताके आदर्शको मूर्तिमान् करके रखनेका कर्तव्य उनके जीवन के लक्ष्यका रूप ले लेता है। पुत्रजन्म होते ही अभिभावके उच्छंखल जीवन बितानेका मार्ग रोक देनेवाला मानवीय मादर्श शक्तिमान् बनकर माता-पिताको सत्यरक्षा नामक लोहशृंखलामें बांधकर खडा कर देता है और परिवारको आदर्श तपोवनका रूप दे डालता है । आर्य विचारों के अनुसार अज्ञानरूपी नरकसे त्राण करनेके अर्थ में ही सन्तानको पुत्र कहा जाता है । सत्यस्वरूप ज्ञान. ज्योति ही मनुष्यको अज्ञानरूपी नरकसे बचाती है। अज्ञानरूपी नरकसे माता-पिताका त्राण करनेवाली सत्यस्वरूप ज्ञानज्योति स्वयं ही सन्तानपालन धर्मका रूप लेकर माता-पिताकी गोदको ज्योतिर्मय बना डालती है। जीवनके उञ्च सादर्शको अपने परिवारके बालमुनिमण्डल में व्यावहारिक रूप देकर धन्य होना माता-पिता बनने के अभिलाषियों के लिये बड़े ही सौभाग्यकी बात है। यही सौभाग्य माता-पिताके पास सन्तानका रूप लेकर आता है। सन्तानके रूप में उपस्थित हुआ यह सौभाग्य माता-पिताको कुगृहस्थीका Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सच्चा पुत्र ३५१ भारवाही मात्र न रहने देकर उन्हें मादर्श राष्ट्रसेवामे दीक्षित कर देता है । पिता-माता बननेवालोंका धर्म है कि वे राष्टमें मनुष्यताकी परम्पराको जीवित रक्खे । पुत्रकी सार्थकता इसी में है कि भूमिष्ठ होकर माता-पिताको दुराचार, उच्छंखल निमर्याद जीवन बिताने रूपी दुर्गतिसे रोक ले तथा उनके शारीरिक दृष्टिसे असमर्थ दिनोंमें उनकी उचित सेवा करके उन्हें क्लेश, संताप तथा शोकरूपी नरकसे उबार ले । योग्य गुणी सत्पुत्रों को सेवासे वंचित रहना ही माता-पिताकी दुर्गति है। उन्हें तब ही ठंडक पडती है जब उनका पुत्र पवित्र होता है। मातापिता सुसन्तानकी कामनासे ही संतानपालन धर्मका आचरण करें इसीमें उनका तथा उन्हें पालनेवाले राष्ट्रका कल्याण है। माता-पिताका सन्तानपालन धर्म सार्थक होजाय और उनका पुत्र गुणी बन जाय यही उनका स्वर्ग है। माता-पिताका सन्तानपालन धर्म सार्थक न हो और उन्हें कुपुत्रों के मुख देखने पढे यही उनकी दुर्गति है । " सहेव दशभिः पुत्र और वहति गर्दभी" गधी दस बेटोंकी माँ होती हुई भी उन्हीं के रहते उन्हींके साथ बोझ ढोती ढोती मर जाती है। जैसे उसे उन दसों पुत्रों के होनेका कोई गुण नहीं लगता, इसी प्रकार अयोग्य सन्तानोंसे मातापिताका कोई लाभ नहीं है। अपने जैसे प्राणी तो कीडे मकौडे भी उत्पन कर लेते हैं। मयशस्वी पुत्रोंका माता-पिता बनजाने में कोई महत्व नहीं है। अब भाप देखिये माता-पिता बनने की इच्छा करना कितना बड़ा उत्तरदायित्व है। जबतक माता-पिता लोग अपने घरोंको ऋषियोंकी तपोभूमि और वैदिक विश्वविद्यालय नहीं बना लेंगे तबतक उनका दुर्गतिनिवारक संतान पाना असंभव है । देशको सुसन्तान मिलना बन्द होजाना ही माजका रोना है । जबतक देश की जनता और राज्यव्यवस्था सुसन्तानों के निर्माणका सुनिश्चित प्रबन्ध नहीं करेगी तबतक देशका दुर्गत रहना भनि. वार्थ है। Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि कुलं प्रख्यापयति पुत्रः ॥ ३८७ ॥ सुसन्तान अपनी विद्या, दान, मान, यश तथा धर्मसे अपने चंशका मुख उज्ज्वल कर दता है। एको हि गुणवान पुत्रो निर्गुणेन शतेन किम् ? चन्द्रो हंति तमांस्यको न च ज्योतिः सहस्रशः ॥ एक गुणी पुत्र ही पर्याप्त है । सौ निर्गण पुत्रोंसे कल्याण नहीं है । चन्द्रमा एक ही उन अंधकारोंको मिटा डालता है जो सहस्रो तारोसे नहीं मिट पाते। उत्तमश्चिन्तितं कुर्यात् प्रोक्तकारी च मध्यमः । अधमोऽश्रद्धया कुर्यादकतॊच्चरितं पितुः ॥ उत्तम पुत्र वह है जो योग्य पिताके चिंतितमात्रको समझ जाय और करले, मध्यम वह है जो उसके कहे हुएको करले, अधम वह है जो अश्र. द्वासे करें । जो करे ही नहीं वह पुत्र नहीं । ( सच्चा पुरुष) ( अधिक सूत्र ) येन तत्कुलं प्रख्यातं सः पुरुषः । कुल में उत्पन्न होनेवाले जिस मानवसे उसका कुल, विद्या, गुण, धर्म तथा गौरवसे जगमगा उठे वही सच्चा पुरुष है। विवरण- जिसके उत्पन्न होने से कुलको अगौरव मिले, वह पुरुष पुरुषगणनामें आने के योग्य नहीं है । पात्रे त्यागी, गुणे रागी, भोगी परिजनैः सह । शास्त्रे बोद्धा, रणे योद्धा, पुरुषः पंचलक्षणः ।। पात्रको दान देंगेवाला, गुणोंका प्रेमी, परिजनों को खिलाकर खानेवाला, विद्याका पारंगत, पापके विरुद्ध संग्राम करने में प्रवीण ये पांच बातें जिसमें हैं वही सच्चा मानव है। Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भार्यात्वकी सफलता ३५३ ( सुपुत्रविना सुख की असंभवता) नाऽनपत्यस्य स्वर्गः ॥३८८ ॥ जिसका पुत्र सुपुत्र नहीं होता उसे सुख प्राप्त नहीं होता। विवरण-सुसन्ततिहीन पुरुषको शुद्ध वंशपरम्परा चलाने या सृष्टि. रक्षामें सहयोग देनेका हर्ष प्राप्त नहीं होता। अपने जैसे दो चार, दस पांच प्राणी उत्पन्न होने का कारण बन जाना यह साधारण पुरुषको मानसिक स्थिति है। उच्च श्रेणीके उधरता दान्त लोग अपने शरीरसे, अपने जैसे पैदा करनेका प्रयत्न न करके लोगोंको विचारों में अपने जैसे शुद्ध, सदार, सदाचारी बनाने का प्रयत्न करते हैं और आजन्म उर्वरता रहकर समाजको सदगुणी बनानेकी तपस्या किया करते हैं । य लोग नेष्ठिक ब्रह्मचारी कहाते है । नैष्ठिक ब्रह्मचारी लोग अपना विद्यावंश चलाकर भार्ष सम्प्रदायको जीवित रखते हैं । सारे विद्वान् इन्हीके अपत्य हैं । ( भार्यात्वकी सफलता ) या प्रसते ( सा) भार्या ।। ३८९ ।। सुप्सन्तानकी जननी ही पतिकी सच्ची भार्या है । सुसन्तानोस्पत्ति में ही भायात्वकी सफलता है। विवरण- भार्यामें सुपुत्र-जनकतासे ही विशेषता तथा मान्यता आती है। वह इस सृष्टि व्यवस्थाका ही अंग है । सृष्टिव्यवस्था समस्त प्राणियोंकी परम्परा चलाने के लिये जैसे पशुपक्षियों को दाम्पत्य धर्म में दीक्षित करती है वैसे ही मानवोंको भी करती है। शारीरिक दृष्टि से अपने जसे प्राणी उत्पन्न करना पशुओं का स्वभाव तथा मानसिक दृष्टिले उदार मानवोंको सष्टिमें आने का अवसर देना मानवका कतव्य है । समाजको योग्य सदस्य देना गृहस्थाश्रमका उत्तरदायित्व है। अयोग्य, पापी, दुराचारी मनुष्य उत्पन्न करना गृहस्थाश्रमका कलंक है। ऐसे नराधम पैदा करने से तो भाका वन्ध्या रहना ही अच्छा है । २३ (चाणक्य.) Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ चाणक्यसूत्राणि गुणिगणगणनारम्भे न पतति कठिनी ससंभ्रमाद्यस्य । तेनाम्बा यदि सुतिनी वद वन्ध्या कीदृशी भवति । (विष्णुशर्मा ) गुणियों की गणना भारम्भ होनेपर जिस पुत्रके लिये ज्ञानि-समाजकी सापर्य, सगौरव अंगुली नहीं उठती, उस पुत्रसे भी यदि माता पुत्रवाली कहलाती हों तो बताओ वन्ध्या कैसी होती है ? सृष्टिपरम्पराकी मानवको दी हुई दाम्पत्यदीक्षा सुयोग्य सन्तानोत्पादनके लिये सुसंयत गृहस्थाश्रम बितानेसे ही सफल होती है। गर्भधारणी बन जाना मात मातत्व नहीं है। किन्तु भूलोंको अवतीर्ण सन्तानका उचित लालनपालन करके उसे वंशका मख उज्ज्वल करनेवाला बनाना ही माता नामको सार्थक करनेवाला मातृत्व धर्म है । भयोग्य गर्भको धारण करना मातृत्वका कलंक है । तीर्थसमवाये पुत्रवतीमनुगच्छेत् ।। ३९०॥ पाठान्तर- तीर्थसमवाये जीवत्पुत्रां गच्छेत् । पाठान्तर- तीर्थसमवाये पुत्रसुतामधिगच्छेत् । (ब्रह्मचर्यविनाशकी स्थिति) सतीर्थाऽभिगमनाद् ब्रह्मचर्य नश्यति ।।३९१॥ एक गुरूसे पढनेवाले विद्यार्थी विद्यार्थिनीका निकट संपर्क ब्रह्मचर्यका विनाशक है। विवरण- 'सतीर्थ्यास्त्वेकगुरवः' एक गुरूसे विद्याध्ययन करनेवाले परस्परमें सतीर्थ्य कहाते हैं । सतीर्थ्य लोग एक गुरूकी सन्तान है । 'वंशो द्विधा विद्यया जन्मना च' वंश या कुल विद्यावंश तथा जन्मवंशके भेदसे दो प्रकारका होता है। एक गुरूले विद्याध्ययन करने वाले बालक बालिका. भोंका परस्पर भ्राता-भगिनीका संबंध होता है । सतीर्य लोग गुरुवंशकी सहोदर सन्तति होते हैं । इनका संबन्ध जन्मज सहोदर सहोदराके संबन्ध से न्यून पवित्र नहीं होता। ये परस्पर गुरुभाई या गुरुभगिनी कहाते हैं । Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्मचर्य विनाशकी स्थिति ३५५ विद्यावंशके भाई बहनोंके इस पवित्र संबंधको सुरक्षित रखना ही स्वाभाविक तथा सुरक्ष्य मानना चाहिये, जितना कि सहोदर सहोदराका संबन्ध स्वभावसे सुरक्षित रहता और माना जाता है। यदि किन्हीं सतीर्थ्य विद्यार्थी विद्यार्थिनियों के इस संबंधके कलुषित होने की संभावना हो तो इस प्रवृत्तिका पूर्ण दमन करनेकी आवश्यकता है। यह सूत्र सतीयौँको कालुष्यशंकासे भतीत रखनेवाली सावधानवाणीके ही रूपमें कहा जा रहा है । यह सूत्र कहना चाहता है कि शिक्षाग्रहणके नामपर सतीथ्य विद्यार्थी विद्यार्थिः नियों का निकट निवास विपत्से रहित नहीं है। घृतकुम्भसमा नारी तप्ताङ्गारसमः पुमान् । तस्मादग्निश्च कुम्भश्च नैकत्र स्थापयेद् बुधः ।। नारी घृतकुम्भके तथा पुरुष तप्ताङ्गारके समान होता है। इसलिये खुद्धिमान् शिक्षाप्रबन्धक स्त्रीपुरुष विद्यार्थियोंका एकत्रावस्थान न होने दें। विद्यार्थी विद्यार्थिनियों की सहशिक्षा तब ही समर्थनीय हो सकती है जब उनकी विद्या उनके मनोंमें भ्राताभगिनोके पवित्र संबंधको सबढ बनाये रखने के लिये नैतिक उच्चादर्शको समुज्ज्वल रख सके । विद्यार्थी विद्यार्थिनियों दोनोंपर गुरुओंका यह शासन रहना चाहिये कि वे विद्याग्रहणके अतिरिक्त अन्य किसी (उच्छखल) भावनाको मनमें स्थान न दें और उन्हें अनिष्ट. कारी संबंधसे बचाये रखने में शिथिलता या प्रमाद न करें। विद्यास्थान विद्याका ही प्रभावक्षेत्र रहना चाहिये । विद्यास्थानों में विद्याबहिर्भूत उच्छं. खल कल्पनाओंको प्रवेशाधिकार नहीं मिलना चाहिये । राष्ट्रको अपनी शिक्षा. शालाओंको अनैतिकतासे कलुषित नहीं होने देना चाहिये। __ इस सूत्र में अभिगमन शब्द द्वारा पुरुष विद्यार्थियों के निकट सम्बन्ध होजानेके माशंकाजनक परिणामपर प्रतिबन्ध लगाया जा रहा है। इस सत्र में अभिगमनके परिणामको ही ब्रह्मचर्य विनाशक बताया जा रहा है। जो निकट संपर्क या जिस निकट संपर्कका परिणाम अनिष्टकारक है उस निकट संपर्कले मात्मरक्षा करने रूपी उपदेश के अभिप्रायको ध्यान में रखकर Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ चाणक्यसूत्राणि अभिगमनका वह भर्थ लगाना भ्रान्तिमूलक होगा जो कि अनिष्ट परिणामका ही नामान्तर है । इसपर प्रश्न होता है कि जिस माशंकाके निकट संबन्ध अनिष्ट कर बताया जा रहा है उस निकट संपर्कका स्वरूप क्या है ? पतन. संभावनासे बचाये रखनेवाला शारीरिक, प्रार्थक्य या दूरता किस सीमातक संरक्षणीय है इस बातका निर्णय कौन करे ? उत्तर यही है कि जो विद्यार्थी विद्यार्थिनी पवित्रताको सुरक्षित रखने के आदर्शको पालना अपना कर्तव्य समझें वे ही स्वयं इसके निर्णायक होनेके योग्य हैं। उन्हींको इसका निर्णय करना चाहिये। जब गुरुलोग उन्हें सावधानताके उपदेश दें तब वे उनके सामने केवल पवित्रताकी महिमाका बखान करें। उनके समक्ष पवित्रताकी महिमाके कीर्तनके अतिरिक्त उनके सहावस्थानकी सीमायें न बतायें। इसलिये न बताये कि सीमा बतान! या न बताना कोई अर्थ नहीं रखता। वह सब बेकार जाता है । बात यह है कि पतनकी सम्भावना शारीरिक पार्थक्यपर निर्भर नहीं है। इसलिये नहीं है कि पतनका स्थान तो मन ही है । इस सूक्ष्म विवेचनके भाधारपर इस सूत्रने सतीर्थ्य नरनारियों के सम्बन्ध में जो शंका प्रकट की है इसका वास्तव प्रतिकार सहशिक्षाको रोक देना ही है । सूत्रकार प्रकारान्तरले कहना चाहते हैं कि सहशिक्षा नहीं होनी चाहिये। जो क्षेत्र शंकासे व्याप्त है, मनुश्य उसमें प्रवेश ही क्यों करें ? शंकाक्षेत्रमें प्रवेश करना अनिवार्य कर्तव्य नहीं हुमा करता । शंकाके क्षेत्रका वर्जन ही मात्मरक्षाका एकमात्र उपाय होता है। जिस क्षेत्रमें पतनकी सम्भावना होती है, भामरक्षार्थी के लिये उस क्षेत्रका वरण करना कदापि वांछनीय नहीं होता । ऐसे क्षेत्रका तो परित्याग ही आदर्श के अनुकूल होता है। इस सूत्रमें आपाल दृष्टिसे कुछ सीमातक सहशिक्षाका समर्थन किया गया प्रतीत होता है परन्तु उसके भयावह परिणामों की ओर संकेत करके सहशिक्षाका खण्डन कर डाला गया है। विद्यार्जन ही विद्यार्थी-विद्यार्थिनियोंका ध्येय है, पारस्परिक सानिध्य नहीं । जब कि विद्यार्जनके लिए Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्नीत्वका सदुपयोग ३५७ सहशिक्षा अनिवार्य रूपमें कदापि स्वीकरणीय नहीं है तब सहशिक्षा स्वयमेव परित्याज्य सिद्ध होजाती है। सूत्र में इसी सिद्धान्तका स्पष्ट समर्थन है। पाठान्तर-- न सतीर्थाभिगमनाद् ब्रह्मचर्य नश्यति । न परक्षेत्रे बीजं निक्षिपेत् ॥ ३९२ ॥ यह पाठ अपपाठ है। (पत्नीत्वका सदुपयोग) पुत्रार्था हि स्त्रियः ॥ ३९३ ॥ पत्निये भोगार्थ न होकर सत्पुत्रोत्पादनार्थ हैं। विवरण-- स्त्रिय धर्मपूर्वक सत्पुत्र उत्पन्न करके समाजको गुणी, स्वस्थ, विद्वान, सदाचारी और बलवान् सदस्य देकर पितऋण उतारने या कर्तव्य. बुद्धिसे सृष्टि परम्पराकी ३क्षा धार्मिक सहयोग देने के लिये हैं । पत्नीसंग्रहका एकमात्र लक्ष्य समाजको धार्मिक प्रवृत्ति की सन्तान देना है। समाजने योग्य सदस्य पाने के लिये एकनिष्ठ दाम्पत्यकी व्यवस्था की है । समा. जको धार्मिक प्रवृत्ति की सन्तान देने के लिये पति-पत्नीका भोगाकर्षणसे संबद्ध न होकर यज्ञक्रिया अर्थात् विवाहको धार्मिक कतव्य समझ कर परस्पर संबद्ध होना आवश्यक है। समाज सद्गणी सदस्य पाने के लिये चाहता है कि पति-पत्नीका सम्मिलन " प्रजाय गृहमेधिनाम् : केवल योग्य सन्तानोत्पत्ति रूपी लक्ष्य को पूरा करने के लिये हो और वह भोगार्थ न होकर अपने उपर धार्मिक कर्तव्यका रूप लेकर रई। स्वदासीप्ररिग्रहा हि स्वदासभावः ॥ ३९४ ॥ अपनी दासीको भोग्या बनाकर ग्रहण करना उसीका दास बनकर पतित होजाना है। विवरण-जी धिकार्जनके लिये अपने सम्पर्क में मानेवाली दासीपर कुदृष्टि डालना और उसे भोगपात्र बनाना स्वयं भी उसीका दास बन जाना है। Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८ चाणक्यसूत्राणि ( विनाशका पूर्वचिन्छ ) उपस्थितविनाशः पथ्यवाक्यं न शृणोति ॥ ३९५ ॥ अवश्यंभावी विनाशवाला हितैषियों के पथ्य वाक्य नहीं सुना करता । दीपनिर्वाणगन्धं च सुहृद्वाक्यमरुन्धतीम् । न जिघ्रन्ति न शृण्वन्ति न पश्यन्ति गतायुषः ॥ नष्ट होनेको प्रस्तुत लोगोंको दीपक बुझनेकी गंध नहीं आती, हितैषियोंके उपदेश सुनाई नहीं देते और अरुन्धती नहीं दीखती । " विनाशकाले विपरीतबुद्धिः । " बुरे दिन जानेपर मनुष्यकी बुद्धि, विपरीतग्राहिणी होजाती है । विपत्ति के दिनों बर्डों बडोंकी बुद्धियां भ्रष्ट होजाती हैं । बुद्धिमान् वही है जो सर्वावस्था में ज्ञानवृद्ध, वयोवृद्ध हितैषियोंके साथ सम्मिलित रहकर उन्हीं की सुबुद्धिसे परिचालित होकर उन्हींकी अभिज्ञता और उन्हीं के ज्ञानालोकसे अपना कर्तव्यमार्ग देखता रहता है । कर्तव्य भ्रष्ट न रहने की यही कुंजी है कि मनुष्य कर्तव्याकर्तव्य निर्णय के संकटपर बुद्धिमानू लोगों से परामर्श लेकर अभ्रान्त बना रहे । ( सुखदुःख जीवनकी अनिवार्य स्थिति ) नास्ति देहिनां सुखदुःखाभावः ॥ ३९६ ॥ देहधारियोंको भौतिक सुखदुःख मिलना कभी बंद नहीं हो सकता । विवरण -- मनुष्यको उचित है कि वह संसारी सुखदुःख दोनों को संसारकी अनिवार्य घटना मानकर इनसे विचलित न होकर ( अर्थात् कभी सुखी कभी दुःखी न होकर ) अप्रभावित रहे और इनके विषय में अपना दृष्टिकोण बदलकर अपनी बुद्धिको स्थिर रक्खे । वह सुखमें उल्लसित होना तथा दुःखसे पराभूत या अवसन्न होना त्याग दे । वह जाने कि यह तो होना ही है | बुद्धिमान् मनुष्य ऐसा दृष्टिकोण बनाकर संसार में विजेताकी Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुखदुःख स्वोत्पादित ३५९ स्थिति लेकर रहने लगता है। वह सुखदुःख किसीका भी दीनदास नहीं रहता । सुखदुःखातीत साम्यावस्थामें रहना ही सच्चे सुखी बननेका एकमात्र मार्ग है। भौतिक सुख न भी मिल सके तब भी सुखी रहने लगना तथा भौतिक दुःख मिलने लगे तब भी अपने सामाधीन कर्तग्यमें बटल रहकर दुःख न मानना सखा सुख पाना है। जिस विचारशील मानवके पास सुखेच्छा और दुःखभीति न रही हो, वही सच्चा सुखी है । सुखदुःखातीत समताकी भावना ही शक्तिकी जननी है। अचिन्तितानि दुःखानि यथैवायान्ति देहिनाम् । सुखान्यपि तथा मन्ये दैवमत्रातिरिच्यते ॥ मनुष्य यह जाने कि जैसे अतर्कित दुःख देहधारियोंके पास जंगलमें अकस्मात आखडे होनेवाले भेडियोंके समान मनुष्य के पास भाखडे होते हैं इसी प्रकार सुख भी मनुष्य के पास जंगल में अकस्मात मिल जानेवाले कुछ कालके यात्री सुन्दर मृगोंके समान भाखडे होते हैं। इस घटनाचक्रमें देवकी वह मचितन्य गुप्ठ उदार इच्छा काम करती रहती है जिसकी ओर मूढ मानवका ध्यान ही नहीं जाता। सुखदुःख दोनों मनुष्यके सामने क्रम क्रमसे लाये और हटाये जाकर उसे यह सुझाव देना चाहते हैं कि “ यदि तुम्हें सच्चा सख पाना हो तो अपनी संसारयात्रामें हम कुछ कालके यात्रि. योंके बंधनमें मत आओ तभी सुखी रह सकोगे।" (सुखदुःख स्वोत्पादित ) मातरमिव वत्साः सुखदुःखानि कतारमेवानुगच्छन्ति ॥३९७॥ __सखदुःख माताके पीछे पीछे घूमनेवाले वत्सोंके समान कर्मरत व्यक्तिका अनुसरण किया करते हैं। विवरण- जैसे माता वत्सकी जननी है, इसी प्रकार मनुष्यों के कर्म भी सुखदुःख कहलानेवाले भौतिक सुफल कुफलोंके उत्पादक होते हैं। जहां कहीं कम होता है वहीं भौतिक सुफल कुफलोंके बन्धनमें फंसानेवाली Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० चाणक्यसूत्राणि अज्ञानता तथा फंसनेकी सम्भावना भी रहती है। यही कर्मबन्धन है । इस कर्मबन्धन से अतीत नित्य सुखी बने रहना ही सच्चा ज्ञान है । कर्ममात्रका भौतिक, अनुकूल या प्रतिकूल फल अवश्यंभावी होता है । मनुष्य भौतिक अनुकूल, प्रतिकूल, फलों को ही सुखदुःख नाम देनेकी भ्रान्ति कर बैठता है । कर्मफलों को सुखदुःख कहने लगना या मानने लगना तो प्रतारित होना है । कर्मफलसे मनपर पडनेवाले अनिवार्य प्रभाव ही वास्त वमें सुखदुःख हैं । सुखदुःख समझे हुये कर्मफलोंकी प्रतारणा फंस जाना अज्ञान है । कर्मफल अवश्यम्भावी परिवर्तनशील अस्थिर अवस्थायें हैं । इन अवश्यंभावी परिवर्तनशील अस्थिर अवस्थाओं को ज्ञानसे पराभूत करके स्थिर बनकर रहना ही दुःखद्दीन अखण्ड विजयोल्लास या नित्य सुग्व है । सुख या दुःख माताके पीछे नियमसे लगे फिरनेवाले बालकोंके समान स्वभाव से कर्ता के पीछे नियलसे लगे फिरते हैं । सुखदुःख पुण्यपाप के परिणाम के प्रतीक्षककी श्रान्ति ही उत्पन्न होते हैं। अध्यात्मरामायण के अनुसार सुखस्य दुःखस्य न कोऽपि दाता परो ददातीति कुबुद्धिरेपा । सुखदुःख कोई दुसरा देता है यह मनुष्यकी कुबुद्धि है। मनुष्यकी बुरी भली कल्पना ही उसे सुखदुःख देनेवाली है । जो बुरी भावना करता है, वह पापजन्य अशान्तिरूपा मानसदुःख पानसे अपने को बचा ही नहीं सकता । जो सुभावनारूपी पुण्यकारी होता है वह पुण्यजन्य शान्तिनामक मानससुखसे कभी चित रह ही नहीं सकता । जो करता है वही भोगता है। बुरी भावना ही बुरा कर्म और शुभ भावना ही शुभ कर्म है । कर्म स्वयं न तो बुरा होता है और न भला । कर्ममें दीखनेवाली बुराई भलाई भावनाकी ही बुराई भलाई होती है । कर्ममें बुराई कर्मप्रेरक भावनाओं का उधार होता है। भावना शुद्ध होनेपर अपराध समझे हुए कर्म भी निर्दोष माने जाते हैं । भावना अशुद्ध होनेपर किये हुए भले काम भी पापपक्ष में ही गिने जाते हैं। जैसे चोरी करने या दूसरों को ठगनेके लिये ओढा हुआ 1 Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधुका उपकारकके प्रति आत्मविक्रय " रामनामी दुपट्टा भी चोरी और उगका ही साधन माना जाता है इसीप्रकार भावना शुद्ध न होनेपर शुभकर्म भी बुरी भावनाका ही अंग बन जाता है । यह संसारचक्र, रागद्वेष पुण्यपाप तथा सुखदुःख नामके ६ भरोंसे चलता है । मानवजीवन में इनमें से किसी न किसी पक्षका निर्बल, सबल होते रहना अनिवार्य है । जो दुःखसे बचना चाहें वे मानसपाप करना त्याग दें । जो सुखी होना चाहें वे मानस पुण्यानुष्ठान करें अर्थात् सद्भावनासे जीवनयापन करें । मनुष्य स्वाधीन मानस सुखदुःखको न समझ कर उन्हें छटानेका प्रयत्न न करके सादी श्रायु उन पराधीन भौतिक सुखदुःखोंसे झगड़ने में ही व्यर्थ खोदेते हैं जिनपर उनका कोई वश नहीं चलता । मानव के भौतिक अस्तित्वपर अंतिम विजय भौतिक दुःखों की ही होती । रोग, शोक, चोट और मृत्यु ही शरीर के अन्तिम स्वामी सिद्ध होते हैं । जिन मानस सुखदुःखोंपर मनुष्यका वश चल सकता है, जहाँ वह पूरा दुःखविजयी बन सकता है, वहां अपने उस मानक्षेत्रपर अपना वशीकार न करके मनुष्य अपनी ही भूलसे दुःखका पात्र बना रहता है | मनुष्य भौतिक जगत्पर अधिकारहीन है, जबकि वह अपने मानस संसारका एकच्छत्र समाद् है । यह कितने बड़े दुःखकी बात है जहां उसे सम्राट्की स्थिति लेकर रहना चाहिये वहां तो वह अपने अज्ञानसे भिख मंगेकी दोन हीन स्थिति लेकर रहता है और जहां ( प्राकृतिक क्षेत्र में ) वह स्वभावसे अधिकारहीन है वहां वह अपना अधिकार स्थापित करने की धुन में अपनी आयुष्यका अमूल्य थोडासा समय व्यर्थ खोकर यहां रीते हाथ चला जाता है । ओ मानव ! तू सुखदुःखके स्वाधनिक्षेत्रपर ही सुखदुःख पर विजय पानेका प्रयत्न कर, अनधिकार क्षेत्रपर ठोकर मत मार और उसे उपेक्षापक्ष में डालकर सुखी बन । ( साधुका उपकारक के प्रति आत्मविक्रय ) तिलमात्रमप्युपकारं शैलमात्रं मन्यते साधुः ॥ ३९८ ॥ साधुवृत्तिके लोग छोटेसे उपकारको भी महोपकार मानकर चिरकृतज्ञ बने रहते हैं । ३६१ Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि विवरण- वे साधुलोग तिळमात्र उपकारके बदले में उपकारकके हाथ में आत्मविक्रय कर देते हैं । इसके विपरीत असाधुलोग हिमालय के बराबर उपकारको सरसोंके बराबर भी माननेको उद्यत नहीं होते । मर्यादापुरुषोत्तम रामचन्द्र ने लंका विजयके पश्चात् अयोध्या आकर लंका विजय के प्रमुख सहायक परमउपकारक श्री हनुमान के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करते हुए कैसा सुन्दर कहा है मध्येव जीर्णतां यातु यत्वयोपकृतं हरे । नरः प्रत्युपकारार्थी विपत्तिमभिकांक्षति || 1 प्रिय मारुति, तुमने इस विजय में मेरा जो उपकार किया है, मैं तुम्हें उसका कोई बदला देना नहीं चाहता। मैं चाहता हूं कि तुम्हारा उपकार मुझमें ही जीर्ण होजाय और जीवनभर कृतज्ञताके भारके रूपमें मेरे सिरपर खड़ा रहे । मैं तुम्हें तुम्हारे उपकारका बदला इसलिये देना नहीं चाहता कि प्रत्युपकार विपत्तियोंमें ही संभव होता है । उपकारकका प्रत्युपकार करना चाहनेवाले लोग चाहते हैं कि मित्रपर विपत्ति आये तो हम भी बदले में उसका उपकार करके दिखायें | मैं तुमपर ऐसी कोई विपत्ति आनेकी प्रतीक्षा नहीं करना चाहता कि जिसमें मुझे तुम्हारे विपद्दारणका सहायक बनना पडे । ईश्वर न करे कि तुमपर कोई विपत्ति आये । प्रश्न होता है कि साधु तिलमात्र उपकारको शैल समान क्यों देखता है ? बात यह है कि साधुकी दृष्टिमें उपकारका भौतिक आकार या परिमाण विवेच्य नहीं होता । किन्तु उपकारकका विशाल हृदय ही उसे आत्मसम पेणके लिये विवश करडालता है । साधु पुरुष उपकारीके साथ अपने उपकृत हृदयकी एकताका माधुर्य चखकर कृतकृत्य होजाता है । इसके विपरीत साधुका कुटिल संकीर्ण हृदय अपनी परस्वापहारिणी लोलुप बुभुक्षाको परितृप्त करनेके लिये दूसरेके हिमालय तुल्य उपकारको भी अपनी लोभाग्निमें भस्मीभूत करके भूखाका भूखा ही रहजाता है । वह अपनी दुष्पूर कामाग्निसे प्रतारित होकर दूसरोंके उपकारोंको क्षणमात्रमें भूलकर अकृतज्ञ बुभुक्षु बना रहजाता है । पाठान्तर मन्यन्ते साधवः । ३६२ (6 ... ܕܪ Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपात्रका उपकार अकर्तव्य ( अपात्रका उपकार अकर्तव्य ) उपकारोsनार्येध्वकर्तव्यः ॥ ३९९ ॥ ३६३ उपकार अकृतज्ञ अपात्र के साथ करनेकी वस्तु नहीं है । विवरण - परसुखलोभी ही अनार्य कहाते हैं। अनार्य लोग उपकर्ताको भी डंक मारनेवाले बिच्छू के समान स्वभावसे सबके ही द्वेषी होते हैं । इनसे परिचय बढाना इनके दुष्ट स्वभावका आखेट बनना तथा उन्हें बढावा देना होता है । किससे कैसा व्यवहार करना ? यह मनुष्य के सीखनेकी एक महत्त्वपूर्ण नित्य - व्यवहार्य कला है। कौन मनुष्य किस योग्यता और अधिकारका है ? यह बिना जाने किया व्यवहार अपने ही लिये घातक होजाता है | मनुष्यको पुरुषपरीक्षा होनी चाहिये। नहीं तो संसार में वह पदे पदे ठगा जायगा । अनार्य लोगोंके साथ तो उपेक्षाका बर्ताव करना चाहिये और इनसे उपेक्षाका ही संबन्ध भी रखना चाहिये। सज्जनोंसे मैत्री, उन्हींका उपकार, सुपात्र दोनोंपर दया, सुपात्र सुखियको देखकर मुदिता तथा पापियोंका विरोध ही श्रेष्ठ नीति है । इसी नीतिसे आर्यताकी रक्षा होती है । अनायोंके साथ उपकारकर्ताका संबन्ध स्थापित करनेका परिणाम दुःख ही होता है । राज्यसंस्था में बनायको न जाने देनेके लिये राष्ट्रको आर्यभावापन्न होना चाहिये । यदि राज्यसंस्थाका निर्माण करनेका अधिकार रखनेवाला राष्ट्र असावधान होगा तो राष्ट्रको लूटकर अपना व्यक्तिगत धनभंडार बढाने के इच्छुक अनार्य लोग, राज्यसंस्थामें घुसकर अपनी भोगेश्वर्येच्छाकी पूर्तिके लिये राष्ट्रके साथ अवश्य ही विश्वासघात करेंगे। राष्ट्रका हिताहित समझनेवाले राष्ट्रके सत्पुरुषोंको विश्वास्य, अविश्वास्य, कृतघ्न, कृतज्ञको पूरी पहचान होनी चाहिये । वे इस काम के लिये पहले परीक्षणके रूपमें दूसरोंका गर्हित हानिकी संभावना रहित विश्वास तथा उपकार करके ही कृतज्ञ तथा विश्वासपात्रों को पहचान कर अपना सकते तथा विश्वासघातियों और कृतघ्नों से बच सकते हैं । भार्य तथा अनार्यकी पहचान व्यवहारविनिमय में ही Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि होनी संभव है । भार्य या अनायकी कोई शारीरिक टकसाल नहीं है जैसा कि कुछ आधुनिक भ्रान्त लेखकोंका मन्तव्य है । पाठान्तर - उपकारो नास्तिकानादरेषु कर्तव्यः । यह पाठ मद्दत्वद्दीन है । ३६४ { अनार्यकी अकृतज्ञताका कारण ) प्रत्युपकारभयादनार्यः शत्रुर्भवति ।। ४०० ।। कलुषित हृदय अकृतज्ञ व्यक्ति किसीसे उपकृत होनेपर उसका प्रत्युपकार न करने की दुरभिसंधिसे उसका शत्रु होजाता है । विवरण- अकृतज्ञ अनार्य पुरुष दूसरे भद्र पुरुषोंसे टपकृत होनेपर, प्रत्युपकार करना पड़नेके डर से वैसा प्रसंग थानेसे पहले ही उनका शत्रु बनकर कृतज्ञता के मानवोचित बन्धनको तोड फेंकने में ही अपनी चतुराई समझा करता है। उपकर्ताको विपत्तिको दूर करना या उसके किसी काम में सहायक बनना प्रत्युपकार कहता है । अनार्यकी स्थिति दूध पिलानेवालोंको भी काटनेवाले सांपोंकी-सी होती है। वह अपने स्वभावसे किसीका प्रत्युपकार न करनेके लिये विवश होता है । संसारका यह प्रायः अनुभव है कि सत्पुरुषोंके शत्रु साधारणतया वे ही होते हैं जो कभी न कभी उनकी उदारता से उपकृत होचुके होते हैं । कुछ लोगों का यह भी कटु अनुभव है कि उपकार करना शत्रु उत्पन्न करलेना होजाता है । इस अनुभव के आधारपर यह धारणा बनचुकी है कि उपकारक लोगोंको उपकार के बदले में शत्रुता ही मिला करती है। फिर भी सत्पुरुष शत्रुभयसे अपना स्वभाव नहीं त्याग देते । वे अपने स्वाभावानुसार सबसे सज्जनताका बर्ताव करके ही मनुष्यको अमुक मित्र है और अमुक शत्रु इस रूप में पहचानकर मित्रको भवना और शत्रुको त्याग देते हैं । Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवापमान अकर्तव्य ३६५ अकृतज्ञ अनार्यो के हाथ हानि उठानेके पश्चात् ही अकृतज्ञ लोगों से सावधान रहनेका अवसर आता है । पात्र अपात्र के तात्कालिक विचारके द्वारा योग्य पात्रका उपकार करके ही मित्रलाभ होना सम्भव है । सर्वा • ङ्गीण परीक्षा किये बिना किसीको मित्र रूपमें अपनाना या शत्रुबुद्धि ले त्यागना सम्भव नहीं है । आर्यत्व या अनार्यव किन्हीं व्यक्तियोंके भवयवों, कुलों या वंशों मे सीमित नहीं है। मनुष्यको मानसिक स्थितिमें दो आर्य या अनार्य की पहचान है । व्यवहारसे ही आर्य अनार्य पहचाने जासकते हैं, लम्बी नासिका, विशाल ललाट, गौर वर्ण या हड्डियों की बनावटसे नहीं । इस सूत्र का यह अभिप्राय नहीं है कि किसी मनुष्यको जन्मके कारण अनार्य तथा अकृतज्ञ समझकर त्याग दिया जाय । किन्तु अनुभव के आधार पर ही आर्य अनार्यकी पहचान करके त्याज्य ग्राह्यका निर्णय किया जाय । ( उपकारक के प्रति साधुकी कर्तव्यशीलता ) स्वल्पमप्युपकारकृते प्रत्युपकारं कर्तुमार्यो न स्वपिति ॥ ४०१ || सत्पुरुष जवतक उपकारीका प्रत्युपकार करनेका अपना मानवोचित कर्तव्य पूरा नहीं कर लेता तबतक क्षणमात्र भी निश्चिन्त नहीं बैठता 1 विवरण - आर्थिक, शारीरिक, वाचिक तथा मानसभेदसे उपकार चार प्रकारका होता है। मनुष्य धन देकर, किसी विपदग्रस्त के लिये किसी प्रकारका परिश्रम करके, हितकारी मंत्रणा या हितकारी वाचिक सहायता देकर, अथवा उपकार्यकी हितकामना से किसीके कल्याणसें सहायक हो सकता है। ( देवापमान अकलव्य ) न कदापि देवताऽवमन्तका ॥ ४०२ ॥ देवबुद्धिसे पूजे जानेवाले स्थान, प्रतिमा, चित्रादि वस्तु या Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि देवचरित्रवाले श्रेष्ठ व्यक्तियोंका प्रमाद या आलस्यसे कभी भी अपमान न करना चाहिये। विवरण-प्रमाद या मालस्यसे देव, द्विज, गुरु, प्राज्ञ आदि उच्च श्रेणीकी विभूतियोंका अपमान नहीं करना चाहिये । इससे उनके श्रद्धालु. ओंका शत्रु बनना पडता है और अपनी विचारशीलता, शिष्टाचार तथा मनु. व्यताका अपमान होता है। पाठान्तर-न कदाचिदेवकृतान्यवमन्तव्यानि । देव, गुरु या राजाके कार्योंकी अवहेलना न करनी चाहिये । (घटनास्थलके प्रत्यक्ष दर्शनका महत्व ) न चक्षुषः समं ज्योतिरस्ति ॥४०३॥ चक्षु संसारकी सबसे महत्वपूर्ण ज्योति है। विवरण- चक्षुके बिना यह जगत् ज्योतिहीन होजाता है । चक्षुके समान कोई ज्योति नहीं है । वस्तुदर्शनमें चक्षु जैसी महत्वयुक्त दूसरी कोई ज्योति नहीं है। चक्षु ही समस्त ज्योतियों का उपयोग करनेवाली ज्योति है। उसके बिना समस्त ज्योति अनुपयोगी होजाती हैं । चक्षुके बिना अनन्तकोटि सर्य भी मनुष्यको एक तिनका तक नहीं दिखा सकते। उसके बिना उनका मूल्य खद्योतके बराबर भी नहीं रहता । इसलिये मनुष्य चक्षुरक्षामें विशेष ध्यान रक्खें। चक्षुका विषयों के साथ अतियोग, अयोग या मिथ्यायोग होनेसे उसमें रोग उत्पन्न होकर उसके नष्ट होनेका प्रसंग होजाता है । इसलिये मनुष्य चक्षुके सदाचार के साथ साथ समस्त सदाचारोंका पालन करें तो उससे भारोग्य तथा इन्द्रियविजय दोनों ही प्राप्त होते हैं। मातापिताके शारीरिक दोष, उदररोग तथा अन्य संक्रामक रोगादि दोषोंसे अन्धता पैदा होती है। कर्ताब्याकर्तव्यका निर्णय करनेमें परिस्थि Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घटनास्थलके दर्शनका महत्व ३६७. तिका प्रत्यक्ष ज्ञान होना अनिवार्य रूपसे आवश्यक है । मनुष्य चक्षुसे मार्ग देखकर ही स्थूल देहको गन्तव्यस्थानमें ले जाता और भगन्तव्यस्थानसे बचालाता है। मनुष्य चक्षुसे देखकर ही ग्राह्यको ग्रहण करतां तथा त्याज्यको त्यागता है। प्रत्यक्ष अनुभूति ही मानवजीवनको सुमार्गपर चलानेकी भव्यर्थ कला है । चक्षु, कर्ण, नासिका, जिह्वा तथा स्वगिन्द्रियों की स्वस्थ क्षेत्रकी अनुभूति ही उनकी जीवितावस्था या उनकी चक्षुष्मती स्थिति है। मनुष्य किसी भी कन्यको देश, काल, पात्रका प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त किये बिना अभ्रान्त रीतिसे सुसम्पन्न नहीं कर सकता । सूत्र चक्षुको मिष बनाकर यह कहना चाहता है कि किसी भी व्यक्ति के साथ ग्यवहार या किसी भी कर्त. न्यमें हस्तक्षेप तबतक न किया जाय जबतक मनुष्य अपने ज्ञाननेत्रसे उस व्यक्ति या उस कर्तव्यकी सभ्रान्तताके संबंध निःसन्दिग्ध न होजाय । क्योंकि दर्शनशक्ति संपूर्ण इन्द्रियों में सूक्ष्म रूपमें विद्यमान रहती है इसी. लिये इस सूत्र में चक्षुको ही निमित्त बनाकर यह निर्देश किया है कि प्रत्यक्ष प्रमाणके बिना सत्यासत्यका निर्णय नहीं होसकता। मनुष्य यह जाने कि मानवका जीवन एक विशाल संग्रामभूमि है। मनुष्य अपने जीवनसंग्राममें अपने ज्ञाननेत्रको मार्गदर्शकके रूपमें आगे करके जीवनसंग्राममें पदार्पण करे । चक्षुर्हि शरीरिणां नेता ॥ ४०४॥ ज्ञाननेत्र ही मनुष्यको विपथसे निवृत्त करनेवाला एकमात्र ज्योतिर्मय पथदर्शक है। विवरण--- चक्षु ही देहधारियोंका नेता है । इसीसे उसका नाम नेत्र है। सूक्ष्म स्नायुओंसे प्रवाहित, मक्षिगोलकके भीतर कृष्णतारेके अग्रभागमें रूपग्रहण करनेवाले तेजवाली इन्द्रिय चक्षु है। अपचक्षुयः किं शरीरेण ॥४०५॥ नेत्रहीन शरीरसे संसारयात्रा क्लेशप्रद होजाती है। विवरण- जैसे अंधेका देह निरुपयोगी हो जाता है इसी प्रकार अज्ञा. नान्धका जीवन लक्ष्यभ्रष्टतारूपी विनाश पाजाता है । नेत्रहीन मानव सारथिहीन रथके तुल्य कार्यकारी होजाता है । Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि (सार्वजनिक जलोंके प्रति कर्तव्य ) नाप्सु मूत्रं कुर्यात् ॥ ४०६॥ जलमें मूत्र न करें। विवरण- जलमें मूत्रत्यागसे वह दुष्ट, विषाक्त और अग्राह्य होजाता है। उसे पीनेसे रोगोत्पत्ति तथा स्वास्थ्य नाश होता है। जल सार्वजनिक संपत्ति है । कब किसे उसे पीना पडेगा इसका कोई नियम नहीं है। प्रत्येक मनुष्यपर सार्वजनिक स्वास्थ्यका जो उत्तरदायित्व है उसकी दृष्टिसे उसे जलमें मूत्रत्याग न करना चाहिये। न मूवं पथि कुर्वीत, न भस्मनि, न गोबजे, न फालकृष्टे, न जले, न चित्यां, न च पर्वते । न जीर्णदेवायतने, न वल्माके कदाचन ।। (मनु) मार्ग, भस्म, गोष्ठ, जुतीभूमि, जल, चिता, पर्वत, जीर्ण देवस्थान तथा वल्मीकमें कभी मूत्र न करे। इसीप्रकार देवालय, परिषद्, वासगृह, तीर्थस्थान, विचारसभा, विद्याशाला आदि स्थानों में भी मूत्रत्याग न करे। मूत्र के लिये नियत या अपेक्षित स्थानमें मूत्रत्याग करे। परन्तु ध्यान रहे कि मूत्रके वेगको धारण करना भी रोगकारक है। खडा होकर जल पीने या मुत्रत्याग करनेले भण्डवृद्धिका रोग उत्पन्न होता है । पेय तथा स्नातव्य जलको दूषित करने की प्रवृत्ति अपने जीवनकी निर्मलता त्यागकर उसे मलिन बना लेनेकी कुप्रवत्तिका द्योतक है। बाह्य स्वच्छताका अमाव मानसिक मलिनताका द्योतक होता है। मानसिक मलिनता दूर करनेपर बाह्य स्वच्छताकी रक्षा करना स्वभाव बनजाता है । बाह्य अस्वच्छता साक्षी देती है कि इस अस्वच्छ व्याककी मलिनता इसके मन में समा चुकी है। बाह्य सदाचारीकी लोक दृष्टि से बचकर पाप करनेकी प्रवृति भी मनकी मलिनता ही है । मनकी शद्धताका प्रचार ही सूत्रका उद्देश्य है । समाजके जोबनाधार जला. शयको मलमूत्र, टीवन, गण्डूष आदिसे कलुषित करने की विवेकहीनता अवसर मिलनेपर समाजको भी कलुषित किये बिना नहीं मानती। Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शान देहोत्पादक समाजके अनुसार (नमता असामाजिक स्थिति) न ननो जलं प्रविशेत् ।।४०७।। नग्न होकर जलमें न घुसे। विवरण- नग्नता दृष्टि कालुष्यकारी प्रवृत्ति है। नग्न होकर जलमें घुसने तथा जल से निकल कर वस्त्र धारण करनेतक रहनेवाली नग्नता शिष्टाचार विरुद्व है। नग्न होकर जलप्रवेशसे सुकोमल मूत्रस्थान पर जल जीवों के दंशनकी सम्भावना भी रहती है तथा इस प्रकारका व्यवहार, निर्लजता तथा शिष्टाचारका परित्याग भी है। यह प्रवृत्ति सामाजिक सद्. गुणोंकी विनाशक होने से त्याज्य है । जलप्रवेश ही नहीं, मनुष्यको मार्गगमन, भोजन, शयन, आदि किसी भी अवस्थामें नग्न नहीं रहना चाहिये। नग्नता सामाजिक सुरुचिपर पाशविक अत्याचार है । नग्न विचरणका केवल पशुको प्रकृतिदत्त अधिकार है । मनुष्यकी ल जारूपी देवीसंपत ने नग्न रहना मनुष्यके लिये निषिद्ध बना डाला है। इस सूत्र में उसी निषेधको पुष्ट करने के लिये नग्नताके विरोधमें यह सावधानवाणी घोषित की है कि समाजकी दृष्टि में नग्न होनेकी बात तो अलग रही लोकचक्षुके बाहर जल में भी नग्न होना निन्दनीय है । नग्नता समाजद्वेषी पशुसुलभ बर्बरता है। पाठान्तर-न नग्नः प्रविशेजलम् । ( ज्ञान देहोत्पादक समाजके अनुसार ) यथा शरीरं तथा ज्ञानम् ॥४०८॥ जैसा शरीर वैसा ही ज्ञान होता है। विवरण- मनुष्य का ज्ञान उसके शरीरको जन्म देनेवाले समाज जैसा ही होता है । भाइये, ज्ञानके शरीरके अनुरूप होनेके अर्थपर विचार करें। मानवदेह तो मनुष्यमात्रने धारण कर रखा है परन्तु इस मानवदेहमें मनुष्यताको प्रस्फुटित करनेवाला ज्ञानोदय हो यही इसकी स्वाभाविक स्थिति है । परन्तु दुर्भाग्यसे प्रत्येक मानवदेहधारी ज्ञानी नहीं होता। यह २४ (चाणक्य.) Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७० चाणक्यसूत्राणि एक गंभीर प्रश्न है कि मनुष्य मानवताके समान अधिकारी मानवदेहको धारण करके भी परस्पर वध्यघातक मानसिक स्थितियों को क्यों अपनालेता है ? इस सूत्रमेंसे इसी प्रश्नके उत्तरका उद्धार करनेकी आवश्यकता है। यदि इस सूत्रसे इस प्रश्नक सदुत्तरका उद्धार नहीं किया जायगा तो यह सूत्र निरर्थक हो जायगा। __ मानवदेह इस मर्त्य भूमिपर उतरकर पालापोसा जाता है । उस पालन. पोषणके ढंगमें ही उसके शरीरकी भिन्नताकी कल्पना की गई है । बात यह है कि शरीर शब्दके भीतर देह और बुद्धि दोनों ही सम्मिलित हैं । इसलिये सम्मिलित हैं कि देहका परिचालन करनेवाली बुद्धि भी मनुष्यका देह जैसा हो साथी होता है । मनुष्यदेह जिस वातावरणमै, जिस समाजमें, जिन उपकरणोंके साथ भूमिष्ठ होकर शैशव, बाल्य, यौवन आदि अवस्थायें पाकर पूरा देहधारी बनता है, उसमें उन उपकरणों, न वातावरणों तथा उन समाजों का पूर्ण प्रतिबिम्ब विद्यमान रहता है। इस दृष्टि से मनुष्य का देह अपने जन्मदाता माता-पिताके तथा संपूर्ण समाजके प्रभावसे प्रभावित रहकर जिस रीतिसे निर्मित और पालित होता है उसका ज्ञान अनिवार्य रूपसे उसीके अनुरूप या तो मनुष्योचित या मनुष्यताधाती होता है। __ अथवा-शरीर स्वस्थ, शुद्ध-वंशज हो तो ज्ञान विषद, प्रखर तथा कार्यकारी होगा। शरीर रोगो, क्षीण या अशुद्ध-वंशज होगा तो ज्ञान निष्प्रभ, अस्पष्ट अकार्यकारी होगा।शरीरकी निरोगता तथा शरीरको जन्म देनेवाले समाजकी शुद्धतारूपी तपस्यासे ज्ञानका विकास होता है। ज्ञान माध्यात्मिक तथा भौतिक भेदसे स्थूलतः द्विविध है परन्तु समाजविज्ञान, शरीर-विज्ञान, पदार्थ-विज्ञान, शिल्पकला-विज्ञानादि भौतिक ज्ञान अनेक प्रकारका है। जिस समाजमें ज्ञानके संग्रहको जैसी प्रवृत्ति होती है उस समाजमें आनेवाले बालक उसी प्रकारका ज्ञान सीख जाते हैं । गवाशनानां स शृणोति वाक्यमहं हि राजंश्चरितं मुनीनाम् । न तस्य दोषो न च मद्गुणों वा संसर्गजा दाषगुणा भवन्ति ।। Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैभव बुद्धिपर निर्भर ३७१ मुनिपालित शुक कहता है- वह गोभक्षकों की अश्लील गालियां सुन कर गाली देता और मैं मुनिचरित्र सुन सुनकर सुवाक्य बोलता हूं । राजन् ! इसमें न उस गाली देनेवाले तोतेका कुछ दोष है और न मेरा कोई गुण है। दोषगुण संसर्गसे होते हैं। जो लोग सन्तानको सुसभ्य, सदाचारी, विद्वान् , कार्यकुशल बनाना चाहे वे उनके लिये सदाचारी विद्वानों के वातावरणका प्रवन्ध करें। (वैभवकी भलाई बुराई बुद्धिपर निर्भर ) यथा बुद्धिस्तथा विभवः ॥४०९॥ जिसकी जैसी बुद्धि होती है उसका वैसा वैभव होता है। विवरण- जिसकी जैसी पापपुण्यप्रिया बुद्धि होती है उसका उपार्जित या प्राप्त विभव भी उसे वैसा ही पतित या पुण्यात्मा बनाये रखने. वाला होजाता है । सुबुद्धिसे उपार्जित धन पुण्यार्जित होता और पुण्य कर्ममें ही नियुक्त होता है। जैसे मनुष्यका उपार्जित धन उसका वैभव माना जाता है इसी प्रकार उसके सदुपयोग, दुरुपयोगके सन्तोष और पश्चाताप भी तो उसके वैभवमें ही सम्मिलित हैं । गर्हित उपायोंसे उपार्जित धन दुरुप. योगका पश्चाताप उत्पन्न करनेवाला होता है। सदुपायसे उपार्जित धन अनिवार्यरूपसे सदुपयुक्त होकर उसे अक्षय सन्तोषरूपी वैभवसे सम्पन्न बनाये रखता है । जिस मनुष्यका धन समाज कल्याणमें सदुपयुक्त होकर मनष्य. समाजको मनुष्यतारूपी अक्षय देवी सम्पत्तिसे सम्पन्न बनाये रखने के काम आता है संपूर्ण राष्ट्र ही उस उदार मानवका वैभव बन जाता है । ऐसा मनुष्य अपने सदुपार्जित धनको समाजसेवामें समर्पित करके जल बरसाकर रीते लघु मेघों के समान रिक्तहस्त बनकर समस्त राष्ट्रकी मनुष्यताके गौरवसे परिपूर्ण होजाता है । इस प्रकारको गौरवपूर्ण स्थिति ही मनुष्यको उसकी सुबुद्धिसे प्रास होनेवाला वैभव है। कुबुद्धिसे उपार्जित धन पापार्जित होता है और उसका पापकोंमें नियुक्त होना अनिवार्य होजाता है । ऐसी अव. स्थामें पापबुद्धिसे धनोपार्जन करनेवाले लोगों के धन किसी भी अच्छे काममें Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि नहीं आते | यह मनुष्यका कितना अधःपतन है कि उसका धन किसी भी अच्छे काममें न आये और वह निकृष्टतम उपायोंसे उपार्जन करता चला जाय। अनुभवी वृद्ध ठीक ही कह गये हैं-- " धर्माचारविहीनानां द्रविणं मलसंचयः " धर्माचारविद्दीन लोगोंका द्रव्यसंचय मलका घृण्य देर है । ३७२ अथवा- मन्द या प्रखर जैसी भी बुद्धि होती है संपत्ति भी उसी परिमाणसे अल्प या अधिक प्राप्त होजाती है । - बुद्धिमान् लोग अपने बुद्धिबलसे अधिक धन उपार्जन कर लेते हैं । मतिहीन लोग अपने पितृपैतामद्दीन संचित धनको भी खोदेते हैं या थोडासा उपार्जन कर पाते हैं । जोहरी दिनमें लाखों उपार्जन कर लेता है जब कि काष्ठविक्रेता पेट भरने योग्य धन भी कठिनतासे पाता है । शिक्षा, सौशील्य तथा विशेषज्ञोंके सत्संगसे बुद्धि प्रखर होती है । बुद्धि की प्रखरतासे धन, मानं आदि अपेक्षित वैभव पाना सुकर होजाता है। बुद्धिद्दीन लोग इस लाभ से वंचित रहते हैं । बुद्धिरेव जयत्येका पुंसः सर्वार्थसाधनी । यद्वलादेव किं किं न चक्रे चाणक्यभूसुरः ॥ मनुष्य के समस्त प्रयोजन सिद्ध कर देनेवाली बुद्धि ही संसारका सर्वश्रेष्ठ वह साधन है जिसके बलसे विप्र चाणक्यने क्या क्या नहीं कर दिखाया ? उसने बुद्धिबल से भारतको अखण्ड राष्ट्रका रूप दिया, राष्ट्रको चरित्रवान् बनाया तथा उसे चन्द्रगुप्त जैसा शक्तिशाली सम्राट् दिया । ये याताः किमपि प्रधार्य मनसि पूर्व गता एव ते । ये तिष्ठन्ति भवन्तु तेऽपि गमने कामं प्रकामोद्यमाः ॥ एका केवलमर्थसाधनविद्यौ सेनाशतेभ्योऽधिका । नन्दोन्मूलनदृष्ट्रवीर्यमहिमा बुद्धिस्तु मा गान्मम ॥ चाणक्यका निज सुबुद्धि विषयक आत्मविश्वास सतत स्मरणीय है कि " जो लोग मनमें कुछ सोचकर गये हैं वे तो चले ही गये । जो लोग हैं Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाजके मूल्यवान धन ३७३ उनके मनमें आये तो वे भी भले ही चले जाने के संभार कर लें । नन्दोंके उन्मूलनमें अपनी शक्तिमहिमा दिखा चुकनेवाली कामसिद्ध करने में सैकड़ों सेनाओंसे अधिक काम कर दिखानेवाली मेरी केवल एक बुद्धि मेरे पाससे न चली जाय।" (क्रोध के उत्तर में क्रोध मत करो ) अनावनिं न निक्षिपेत् ॥ ४१० ॥ आगमें आग न डाले, क्रोधके उत्तरमें क्रोध न करे। विवरण- मनुष्य क्रोधाविष्ट के क्रोधको अत्यन्त उत्तेजित करनेवाली ऐसी कोई बात या काम न करे कि स्वयं अशान्त होजाय और दूसरा प्राण तक लेने को उद्यत होजाय। कोधीकी क्रोधाग्निमें कोई धन नहीं देना चाहिए। इसीसे कहा है- “अक्रोधेन जेयत क्रोधम "किसीके क्रोध. पर विजय पाना हो अर्थात् व्यर्थ करना हो तो अपनी शान्तिको सुर. क्षित रखकर उत्तर दो। कोधका उत्तर कोधसे न देनेका अर्थ यह है कि क्रोध के प्रत्युत्तरमें क्रोध न कर के उपायान्तरले प्रतिकार करे । क्रोध करना स्वयं अशान्त होना और शत्रु कोधको अत्यन्त भडकनेका अवसर देना है। इसलिये जब कभी क्रोधी को प्रत्युत्तर देने का अवसर आये तब स्वयं संयत, अक्रोधी बने रहकर ही विजयी बने रहना संभव है। यदि मनुष्य इस समय क्रोधोको स्थिति लेलेगा तो उसका पराभूत होना अनिवार्य होजायगा। आगमें आग न डालकर उसपर तो उसे बुझानेवाला पानी डालना चाहिये। उत्तेजनाके अवसर पर उत्तेजक बातें न कहकर या उत्तेजक काम न करके अमृतवर्षी शीतल बात कहने या विवेकपूर्व के बर्ताव करनेसे ही शान्ति. रक्षा संभव है। ( जितेन्द्रिय समाजके मूल्यवान् धन ) तपस्विनः पूजनीयाः ॥ ४११ ॥ समाजके मार्गदर्शक जितेन्द्रिय लोग समस्त समाजके पूजनीय होते हैं। Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ चाणक्यसूत्राणि विवरण- वे संसार में अपने संयत चरित्रसे समाजको कल्याण तथा शान्तिका मार्ग दिखानेवाले मार्गदीप के रूप में अवतीर्ण होते हैं। देश में जितेन्द्रिय लोगोंके उदाहरणोंका बाहुल्य होनेसे देश क्षोभ, उत्तेजना और दुचिन्तासे हीन होकर शान्तिपूर्ण बन जाता है । समाजका यथार्थ हित इसी में है कि तपस्वी लोगोंक उदाहरण उसके बालनारायणको अधिक. तासे दीखें, जिससे उनकी बुद्धियें जितेन्द्रियता की ओर प्रवृत्त होजाये तथा बुरे उदाहरण उनके सामने आयें भी तो वे अपमानित, अनुत्साहित और तिरस्कृत रूप लेकर आयें । ( परदाराभिगामी समाजकी शान्तिका शत्रु ) परदारान् न गच्छेत् ॥ ४१२ ॥ पर पत्नियोंसे संपर्क स्थापित करने की बात मनसे भी न सोचे । विवरण - ऐसा करना अग्निमें अनिक्षेप जैसा भयंकर उत्तेजना पैदा करनेवाला महाअनिष्ट व्यापार है । इस प्रकारकी दुष्ट प्रवृत्तियोंपर कठोर संयम रखने में ही मानवकी तथा उसके सामाजिक जीवनकी शान्ति संभव है । जीवन में इस प्रकार के प्रज्ञापराधोंको कार्यकारी बन जाने देनेसे इन्द्रियचांचल्य, मानसिक शक्तिका हास होकर मानवोचित समस्त गुणका निश्चित विनाश होजाता है और मानव अपनी आराध्य शान्तिके मद्दान् आदर्शसे च्युत होकर अपने जीवनको नरक बना लेता और अपना सामाजिक मूल्य फूटी कौडीका भी नहीं छोड़ता । पाठान्तर - परदारान् मनसापि न गच्छेत् । परपत्नियों से संपर्क स्थापित करनेकी बात मनसे भी न सोचे । ( अन्नदानका माहात्म्य ) अन्नदानं भ्रूणहत्यामपि प्रमार्ष्टि ॥ ४१३ ॥ अन्नदान भ्रूण हत्याका भी परिमार्जन कर देता है । Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्नदानका माहात्म्य विवरण- अपने पास रक्खे हुए अलका देव, द्विज, ब्रह्मचारी, विद्यार्थी, दीन, अंध, आतुर, पंगु रोगी, निःसहाय लोगोंको ही, जिन्हें पालना समाजका पवित्र कर्तव्य है, यथार्थ स्वामी मानकर प्रेमपूर्वक कर्तव्यबुद्धि से दिया अन्नदान भयंकर पापका भी परिमार्जन कर देता है अर्थात् दाताको पुण्यात्मा बन चुकने का आत्मप्रसाद देता है । ३७५ सच्चे दानसे मनुष्य की पाप करनेकी प्रवृत्तिये ही मर जाती हैं। अनहंकृत दान ही दान है । अहंकारपूर्वक दिया दान दान न होकर एक प्रकारका व्यापार या कुसीदपर धन लगाना है । जिस मनुष्यके हृदय में समाजकी दुर्भिक्ष पीडाके समय समाजका अनकष्ट दूर करनेकी उदार भावना समाजनारायणकी अनन्यभक्तिका रूप लेकर उदित होजाती है, उस मनुष्य के हृदयकी पापप्रवृत्ति नष्ट होचुकी होती है। चाहे वह अपने अतीत में भ्रूणहत्या जैसे पाप ही क्यों न करचुका हो। ऐसा मनुष्य भूतकालमें पापी रहा होनेपर भी गीता" क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्ति निगच्छति' शब्दों में शीघ्र धर्मात्मा हो जाता तथा निरन्तर शान्ति पाजाता है । जब कोई दाता अपने हृदय की दानप्रवृत्तिको समाजसेवा में नियुक्त कर देता है तब उसके हृदय में प्रेमकी अमर गंगा की धारा प्रवाहित होने लगती है। ऐसे मनुष्य के हृदय में से पापप्रवृत्ति सदाके लिये लुप्त होजाती है । पाठक ध्यान दें कि इस सूत्र में भ्रूणहत्या के अपराधको हल्का करने के लिये दान देने को नहीं कहा गया हैं । इसमें तो दानकी महिमा गाकर हृदयसे पापप्रवृत्तिको सदा के लिये निर्वासित करनेका अव्यर्थ उपाय बताया गया है । इस सूत्र में समाजसेवा के लिये अपनी धनसंपत्तिपरसे अपना व्यक्तिगत अधिकार हटाकर उसपर अपने उपजीव्य समाजका अधिकार स्वीकार कर लेने को ही अपने हृदयको पुण्यकी पवित्रतासे अमृतमय बना डालनेका रहस्य बताया गया है । पाठान्तर यथाचरितमन्नदानं 1 विधिविद्दितीत किया अन्नदान शेष अर्थ समान है । Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६ चाणक्यसूत्राणि (धर्मका मूलाधार ) न बेदबाह्यो धर्मः ॥४१४॥ धर्म वेदसे बाहर नहीं होता। यः कश्चित् कस्यचिद्धर्मो मनुना संप्रकीर्तितः । स सर्वोऽभिहितो वेदे सर्वज्ञानमयो हिसः ॥ मनुने जिसका जो धर्म बताया है वह सब वेदमें वर्णित है । वेद समस्त ज्ञानका भागर है। वेदविरुद्ध चलनेसे धर्म नहीं होता। वेदशासनके अधीन रहना ही मानवधर्म है । आत्मज्ञान मानव हृदय में स्वभावसे विद्यमान है। मानवहृदय में स्वभावसे विद्यमान् आत्मज्ञान ही ऋषिप्रचारित वेद है। भ्रम, प्रमाद, विप्रलिप्सासे हीन ऋगादिग्रन्थ वेद कहाते हैं। मात्माका अद्वैत अस्तित्व स्वीकार न करनेवाले धर्म वेदबाह्य धर्म कहाते हैं। वेदवाह्य धर्मों अर्थात् भ्रम, प्रमाद, विप्रलिपलासे अभिभूत लोगोंके रचे हुए ग्रन्थों या उपदेशोंसे प्रति. पादित धोका आचरण करने से मनुष्य का अकल्याण होता है। मैं कौन हूं? संसार क्या है ? मेरे दूसरों के तथा इस संसारके परस्पर क्या संबन्ध हैं ? इन अतीन्द्रिय तत्वोंपर अनुभवपूर्ण प्रकाश डालने वाले ग्रन्थ वेद कहाते हैं। अपनी इन्द्रियशनियारर विजय पाकर शकिके यथार्थ स्वामांकी विजयमयी स्थिति लेकर रहना मनुप्यका जीवित वेद है। मनुष्यको कल्या. णका मार्ग दिखानेवाली उसकी सदसद्विचारबुद्वि या उसका इन्द्रियविजय ही वेद है। " सकलं हि शास्त्रमिन्द्रियजयः ।" इन्द्रियविजय ही वेदवेदान्तोंका सार सर्वस्व है । तत्वज्ञानकी जो अन्तिम साधना है वही तो इन्द्रियविजय है। ससस्यको तो त्याग देना और सत्यको अपनाये रहना ही धर्म है । धर्म मनुष्य की वह भावना है जो लोककी मर्यादा बनाये रखती अर्थात् उसके ऐहिक तथा मानसिक दोनों प्रकार के उत्थानका कारण बनती है। hebtw Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मद्रोह अकर्तव्य कदाचिदपि ( कथंचिदपि ) धर्म निषवेत् ॥ ४१५॥ मनुष्य कभी (किसी प्रकार ) तो धर्मानुष्ठान करे । विवरण- धर्मानुष्टान ही मनुष्य-जीवनका ध्येय है । क्षणभर के लिए भी धर्मच्युत न होने का सिद्धान्त प्रचार ही करने योग्य है । यह पाठ उचित प्रतीत नहीं होता। (धर्मद्रोह अकर्तव्य) ( अधिक सूत्र ) न कदाचिदपि धर्म निषेधयेत् । धर्मका विरोध कभी न करे और न कराये । विवरण- आत्मकल्याणमें मनष्यमात्रका कल्याण तथा मनुष्यमात्रके कल्याणमें आत्मकल्याण देखने वाली बद्धि हो वेद प्रतिपादित मानवधर्म है । क्रोध, लोभ या द्वेषसे धमके प्रति अनादरको मन्थनकारी उत्तेजना आजाने पर भी मन, वाणी तथा काया तीनों में धीरज किये तथा धर्मविरुद्ध माच. रणको न तो स्वयं पराये और न दसगको धर्मनिषेधकी प्रेरणा दे। __ मनुष्य धर्मविरोधी माचरण को अपनाने तथा दूसरों को धर्मच्युत होने की प्रेरणा देने से नीच अविश्वास्य तथा अपयशका भागी हो जाता है। धार्मिक लोग आत्मसन्तुष्ट, परहित-निरत, माननीय तथा प्रशंपित रहते हैं। न जातु कामान भयान्न लोभाद धर्म त्यजेजीवितस्यापि हेतोः । कल्याणकामी मानव अपने धर्म को काम, भय या लोभका प्रबलतम प्रभाव पडनेपर भी जीवित तकके लिये भी न त्यागे। मनुष्य धर्मरक्षाके लिये मृत्यु तकसे न डरे । मनुष्यको बारबार नहीं मरना है । उसे एक वार तो मरना ही पडेगा। सत्यरक्षाके नामपर मरना तो सौभाग्यशाली मृत्यु है। धर्महीन लोग स्वार्थान्धतासे पशुओं के समान काम, लोभ, क्रोधपरायण होकर दूसरोंपर निर्दय आक्रमण करते भौर कराते हैं। धर्महीन लोग जीवन में अनन्त वार ज्ञानकी मौत मरते रहते हैं। ऐसे लोग संसारमें ऊंचेसे ऊंचा ऐश्वर्य पाकर भी सदा ही नीच कोटि के अविश्वास्य मानव माने जाते हैं । Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि ( स्वर्गका साधन ) स्वर्ग नयति सूनतम् ।। ४१६ ॥ सत्य मनुष्यको स्वर्गस्थ बनाता अर्थात् उसे अखण्ड सुखमयी स्थितिम आरूढ कर देता है । विवरण.- मनुष्यमात्रके कल्याणमें आत्मकल्याणबद्धि ही सत्य है। मनुष्यका यथार्थज्ञान तथा तदनुकूल प्रामाणिक माचरण उसके जीवनको तथा उसके समाजको प्रत्यक्ष स्वर्ग बना देता है । दुःखातीत स्थिति ही स्वर्ग है। कामनातीत स्थिति ही सत्य है। सत्यको अपनाना निकामतारूपी अक्षय स्वर्ग पा लेना है। सत्य का अर्थ प्रत्यक्ष ( नकद ) भौतिक हानि उठाना और उठाकर भी आत्मप्रसाद देनेवाले सिद्धान्तको न छोडना है। असत्यका अर्थ प्रत्यक्ष ( नकद ) भौतिक लाभ उठानेके लोभमें आकर सिद्धान्तका सिर कुचलना है । सत्य से मनका उत्कर्ष परन्तु भौतिक हानि अनिवार्य रूपसे होती है । क्योंकि सिद्धांतहीन लाभोंको घृण्य जानकर त्यागना ही सत्य है । सस. स्यसे मनका तो निश्चित रूप में पतन होता, परन्त भौतिक लाभ होता है । संसारका भोगवादी बहुमत सत्यसे भौतिक हानि तथा असत्य ( सिद्धान्त. हीनता ) से भौतिक लाभ देखकर स्वर्गको टकराकर नरकनिवासको सपना लेता है । सत्यको अपनानेवाले को संसारमें धक्के, भुक्के, अपमान, विनाश और उपेक्षा नियमसे भोगनी पडती है। उसका मानसिक स्वर्ग ही उसके अत्याचारित पीडित हृदयको थामे रखनेवाला अकेला पृष्ठपोषक जीवनसंगो होता है। वही उनसे संसारकी बृहत्तम विपत्तियोंमें ढाढस बंधानेके लिये ससकी पीठ पर अनुमोदनका हाथ लगाता रहता है। सत्य मनुष्यको और कुछ तो चाहे दे या न दे वह उसे स्वर्ग तो निश्चितरूपमें देता है। वह उसे दुःखातीत साम्राज्यका अनिभिषिक्त भूपति तो बना ही देता है। सत्य मनुष्यको मर्त्यलोकका कीडामकौडा न रहने देकर उसे स्वर्गकी दिग्य विभूति बना देता है । भो सच्चे मानव ! बता तू सत्यसे इससे अधिक और क्या चाहता है ? Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वश्रेष्ठ तपस्या ३७९ सत्यमेव जयते नानृतं सत्येन पन्था विततो देवयानः । येनाकमन्त्यषयो ह्याप्तकामा यत्र तत् सत्यस्य परमं निधानम् ॥ ( संसारमें सर्वत्र सत्य को धक्के लगनेपर भी सच्चोंके हृदयों में ) सत्यकी ही विजय होती है । अनृतको ( सच्चे लोगोंके हृदयोंमें ) कभी भी विजय प्राप्त नहीं होती । ( अनृत चाहे सारे संसारपर राज्य करने लगे परन्तु उसे सच्चोंके हृदयमें नियमसे पराजित, अपमानित, धिकृत और अस्वीकृत होकर रहना पड़ता है। ) देवतामोंका मार्ग सत्य से पुरा पड़ा है। माप्त काम अषिलोग उसी सत्य के मार्गसे दैवत्वको प्राप्त हुए हैं । आप्तकाम लोग जिप्स पवित्र मानसिक स्थिति में रहते हैं या रह रहे हैं वही सत्यका सनातन निवासस्थान है। (सर्वश्रेष्ठ तपस्या ) नास्ति सत्यात्परं तपः ॥ ४१७ ॥ संसारका कोई भी तप सत्यस श्रेष्ठ नहीं है। विवरण- मनुष्यसमाज सार्वजनिक कल्याण में सामकल्याणबुद्धि दी सत्य है । कामनातीत स्थिति ई पत्य है। कामामता मनुष्यको मापात. मधुर हानिकारक, मनुष्यताविनाशक, पतनकारिणी आमुरी प्रवृत्ति है । परन्तु कामनाक विना मनुष्योचित जीवनयापार भी नहीं चलता। मनु. ज्यको कामनाओं के सदस्योगकी कला सीखनी चाहिये । मनुष्य कामनातोत बनने में ही कामनाओं का सदुपयोग कर सकता है। कामनाओं का सदुप. योग ही कामनातीत स्थिति पा लेना बन जाता है । मनुष्य निकामस्थिति पाना अपना लक्ष्य बना लेने पर जो कुछ करता है सब फलाकांक्षारहित समाजकल्याणरूपी कर्तव्यपालन का रूप धारण कर लेता है। वास्तविकता यह है कि मनुष्य इस संसारमें कुछ लेने या कुछ पदार्थों का अस्थाई स्वामित्व पाने नहीं आया। वह तो इस सीनिर्माण का रहस्य समझने अपने तथा सृष्टिविषयक मिथ्या कल्पनाओं का विनाश करके ज्ञानमय लोकका निष्ठा. वान् सदस्य, अथवा अपने हृदयसिंहासनका सत्यरूपसम्राट बनने के लिये Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि संसार में आया है । निष्काम सत्यनिष्ठ व्यक्तिका सत्यनिष्ठ जीवन कर्तव्यमय तपोनिष्ठा में परिणत होजाता है । सत्य के परिस्थिति भेदसे समता, दम, अमात्सर्य, क्षमा, लज्जा, तितिक्षा, अनसूया, त्याग, ध्यान, आर्यता, धृति, दया तथा अहिंसा ये तेरह रूप हैं । ३८० सत्यं च समता चैव दमश्चैव न संशयः अमात्सर्य क्षमा चैव हीस्तितिक्षाऽनसूयता । त्यागो ध्यानमथार्यत्वं धृतिश्च सततं दया अहिंसा चैव राजेन्द्र सत्याकारास्त्रयोदश ॥ ( स्वर्गका साधन ) सत्यं स्वर्गस्य साधनम् ॥ ४१८ ॥ सत्यनिष्ठारूपी स्वर्गका साधन भी तो स्वयं सत्य ही है। विवरण- मानवहृदयवासी सत्वका एकमात्र काम यह है कि वह स्वार्थी प्रवृत्तियका परिमार्जन करके व्यवहारको परमार्थ बना डाले | सत्य स्वार्थ भरी प्रवृत्तियों का परिमार्जन करके मनुष्यको स्वर्गस्थ देवता बना देता है । मनुष्य यह जाने कि सत्य स्वयं ही अपना साधन है और स्वयं ही अपना साध्य है | सत्यनिष्ठ मनुष्य मयसे दूसरे किसी भी साधनको नहीं अपनाता । सत्य स्वातिरिक्त अवलम्बन नहीं चाहता । सत्यको अपनाने के लिये सत्यातिरिक्त साधनोंको अपनाना सत्यको त्यागकर असत्यको अपनाना होता है | मनुष्य सावधान रहे और सत्यके साधनों के धोखे में सत्यको दी तिलांजलि न दे बैठे। जैसे पुण्यपापकारियों के अन्तरात्माका आधा भाग न्यायाधीश तथा बाधा दण्डनीय अपराधी या साधुवादका अधिकारी बन जाता है, इसी प्रकार प्रत्येक मनुष्यका आधा भाग तो उसीके प्राप्य सत्यनारायणके सिंहासनपर जा बैठता है, तथा उसीका आधा भाग उसका आराधक बन जाता है | हम सब सृष्टिमें स्पष्ट अनुभव कर रहे हैं कि प्रत्येक मानव के भीतर सत्य ही Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवोंकी कृपा बरसानेवाला तत्व ३८१ अज्ञातकाल से सत्यको पानेका अखण्ड उद्योग करता चला मारहा है । यही इस अनादि, अनन्त संसारक्रीडाका परम रहस्य है । यही सत्यनारायणकी अद्वैतलीला कहाती है। ( समाजव्यवस्था रखनेवाला तत्व ) सत्येन धार्यते लोकः ॥ ४१९॥ मानवसमाज सत्यसे ही सुव्यवस्थित रहता है । विवरण- समाजके सार्वजनिक कल्याणमें भात्मकल्याणबुद्धि ही सत्य है । सत्य ही मानवसमाजको धारण करनेवाला आश्रय या समाजबन्धन है। सत्यहीन समाज समाजबन्धनहीन छिन्न भिन्न स्वेच्छाचारियों का उच्छंखल झुंड है । असत्याचरणसे इस संसारमें अव्यवस्था फैलती है जो इसका सर्वनाश कर डालती है। ( देवों की कृपा बरसानेवाला तत्व ) सत्याद् देवो वर्षति ॥ ४२० ।। सत्यसे मानवसमाजके ऊपर देवोंकी कृपा बरसने लगती है। सत्याधीन समाजमें दैवीशक्ति सत्यकी वर्षा करती है। सत्यहीन समाजम आसुरीशक्ति प्रबल बन जाती है। विवरण- समाजमें सत्याचरणके वृद्धिंगत होनेपर मानवसमाजका मधिछातृ देवता अपनी कृपावृष्टि करने लगता है। आत्मकल्याणको समाजकल्याणमें विलीन कर डालनेवाली मानवीय बद्धि ही सत्य है। यह बद्धि वह सत्य है जो देवोंको कृपा बरसानेके लिये विवश कर डालता है । इस सत्यके मूर्तिमान् अवतार, ज्ञानवृद्ध, समाजसंरक्षक, मुनि, ऋषि लोग ही कृपा बरसानेवाले देवता हैं। जैसे आकाशचारी मेघ मातपक्लान्त वसुन्धराको अमृतमय जलोंसे सींचकर हराभरा बनाये रहते हैं इसी प्रकार ये ज्ञानवृद्ध, समाजसंरक्षक, ऋषिमुनि लोग प्रागैतिहासिक काल से सत्यसुखेच्छु मानव हृदयके ऊपर शान्तिधाराकी अमर वर्षा करते चले आरहे हैं। Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८२ चाणक्यसूत्राणि इसके विपरीत प्राकृतिक विधानसे अतिवृष्टि, अनावृष्टि, उल्कापात, शलभ, दुर्मिक्ष, महामारी आदि संकट काल मा खडा होनेपर भी यदि समाज में समाजकल्याणबद्धि जाग रही हो और उससे समाजबन्धन सुदृढ रहरहा हो तो इन सार्वजनिक बाकस्मिक विपत्तियों को व्यर्य करनेकी शक्ति समाजके सहोद्योगसे उत्पन्न होसकती है। समाजमें आकस्मिक विपत्तियों को सामाजिक सहोद्योगसे व्यर्थ करने की शक्तिके उत्पन्न होजानेपर वह शक्ति सार्वजनिक कल्याणमें उपयुक्त होने लगती और समग्र समाजपर सुखशांति बरसाने लगती है । समाजमें सस्यका अभाव होजाने अर्थात् सम्पूर्ण समाजके सत्यहीन होजानेपर समाजमें अन्नकष्ट, महामारी, राष्ट्रविप्लव, बाह्य भाक्रमण आदिका प्रकोप संहारकी मूर्ति धारण कर लेता है । समाजके सत्य हीन होजानेपर इन ऊपरवाले प्रकोपोंके न होनेपर भी जब समाज में समाजघाती आसुरी शक्तिका प्रकोप होजाता है तब वह प्रकृतिको समिक्ष करनेवाली अमतवर्षाको भी व्यर्थ बनाकर अपने विषाक्त मनसे समाजको विनष्ट कर डालता है। सत्य ही समाजको धारण करनेवाला एकमात्र आधार है । सत्यहीनता मापाततः चाहे जितनी मधुर फलवर्षिणी लगनेपर भी भासुरिकताकी ही संहारलीला है। अथवा- मानवसमाजमें सत्यकी प्रतिष्ठा रहनेपर ही देश में अपेक्षित उचित वृष्टि होती है । देशमें सुव्यवस्थिति शान्तिवृष्टि चाहनेवाले लोग देशवासियोंके चरित्र में सत्यकी रक्षा होते रहनेका पूर्ण प्रवन्ध करें । देशके चरित्रमें सत्यका द्रोह भी होता रहे और वहां सब प्रकारकी शान्ति भी बनी रहे यह संभव नहीं है। इसका कारण यह है कि मनुष्य इस बातको जाने या न जाने और माने या न माने वह स्वयं ही इस सृष्टिका विधाता है । इसलिये उसके चरित्रका सष्टिप्रबन्धपर प्रभाव पड़ना अनिवार्य है। जैसे गृहव्यवस्थापर कौटम्बिक लोगोंके पारस्परिक मनोमालिन्य और मसहयोगका दुष्प्रभाव पडे विना नहीं रहता, इसी प्रकार संसारके लोगों के दुश्चरित्रका सांसारिक Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवोंकी कृपा बरसानेवाला तत्व समस्त व्यवस्थापर प्रभाव पडना अनिवार्य है । मनुष्यों में से सार्वजनिक कल्याणबुद्धि के अन्तर्द्दित होजानेपर मनुष्यों की दुर्भावनायें ध्वनिक्षेपक यन्त्रों से प्रसारित ध्वनियोंके समान इस समस्त विश्व तथा इसकी समस्त शक्तियों पर अपना दुष्प्रभाव डाले बिना नहीं मानतीं और वसुन्धराके प्राकृतिक वर्षा सुसिंचित होनेपर भी उनका फल जनताकी रक्षाके उपयोग में न आकर समाजकी शान्तिके शत्रु आसुरी शक्तिके अधिकार में पहुंचकर मनुष्यसमाजमें ऐसा ही हाहाकार मचवा देता है जैसा कि अतिवृष्टि आदिले होता है । यही इस सूत्रका महत्वपूर्ण अभिप्राय है । ३८३ अथवा- कुछ लोग इस सूत्र का सत्यानुष्ठानसे जलवृष्टि होती है यह अर्थ करते हैं । यही विचार चरकाचार्यने निम्न शब्दोंमें प्रकट किया है । विमानस्थान ३, अध्याय २०, २१ वाक्यसमूह अथ खलु भगवन् कुतो मूलमेषां वाय्वादीनां वैगुण्यमुत्पद्यते ? येनोपपन्ना जनपदमुद्धवंसयन्तीति ॥ २० ॥ Mon तमुवाच भगवानात्रेयः 1 सर्वेषामप्यग्निवेश ! वाय्वादीनां यद्वैगुण्यमुत्पद्यते तस्य मूलमधर्मः तन्मूलं वाऽसत्कर्म पूर्वकृतम् । तयोर्योनिः प्रज्ञापराध एव । तद्यथायदा देशनगरनिगम - जनपदप्रधाना धर्ममुत्क्रम्याधर्मेण प्रजां वर्तयन्ति तदाश्रितोपाश्रिताः पौरजनपदा व्यवहारोपजीविनश्च तमधर्ममभिवर्धयन्ति । ततः सोऽधर्मः प्रसमं धर्ममन्तर्धसे । तेषां तथान्तर्हितधर्मणामधर्मप्रधानानामपक्रान्तदेवतानामृतवो व्यापद्यन्ते । 3 तेन नापो यथाकालं देवो वर्षति, नवा वर्षति, विकृतं वा वर्षति, वाता न सम्यगभिवान्ति, क्षिति व्यपद्यते सलिलान्युपशुष्यन्ति, भोषधयः स्वभावं प्ररिहायापद्यन्ते विकृतिम् । तत उद्ध्वंसन्ते जनपदाः स्पश्र्याभ्यवहार्यदोषात् ॥ २१ ॥ भगवन्, कृपया बताइये कि वायु, वृष्टि आदि क्यों ऐसे विगुण होजाते हैं कि देशका ध्वंस कर डालते है ? Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि भगवान् मायने उत्तर दिया- अग्निवेश ! मनुष्यसमाज ही हतध्वंसका अपराधी है। वायु आदिमें जो वैगुण्य पैदा होता है उसका मूल अधर्म है। मधर्मका मूल लोगोंकी मसद् भावनायें हैं । दोनोंका मूल प्रज्ञापराध या राष्ट्रमें नीतिहीनताका प्रसार होजाना है। कैसे सो सुनिये- जब देश, नगर, ग्राम तथा प्रान्तोंके प्रधानपुरुष अर्थात् राज्याधिकारी लोग धर्मका मार्ग त्यागकर प्रजाके साथ अधर्मयुक्त व्यवहार करते हैं तब उनके आश्रित, सपाश्रित लोग तथा किसान, शिल्पी, व्यापारी आदि व्यवहारोपजीवी लोग पापोंको और अधिक बढावा दे देते हैं। तब व अधर्म धर्मको ढक लेता है। तब वे धर्मको ढककर अधर्मप्रधान बनकर देवताओंका अपमान करने लगते हैं। उन अधार्मिकोंके अधर्म के प्रभावसे ऋतुएं विकृत होजाती है। उससे देव यथाकाल जल नहीं बरसाता या सर्वथा नहीं बरसाता अथवा अनियमित वृष्टि करता है । वायु ठीक नहीं बहते । पृथिवी वन्ध्या होजाती है। जल सूख जाते हैं। ओषधि भएना गुण छोडकर विकृत होजाती हैं। तब देशोंका ध्वंस होनेकी स्थिति भाखडी होती हैं । (सबसे बड़ा पाप) नानृतात्पातकं परम् ॥ ४२१॥ अनृत व्यवहारसे बढकर कोई पाप नहीं है। विवरण- सत्यको तो त्याग देना और मिथ्याचारी सत्यद्रोही बन जाना अपनी मनुष्यता त्यागकर मसुर बन जाना है जो कि संसारका सबसे बड़ा पाप है। मनुष्यका शरीर मनुष्य नहीं है। उसका मन ही मनुष्य ताका निवासस्थान है। जीवन में मनुष्यताकी रक्षा न होने से मनुष्य मनुष्य. माताके पेटसे उत्पन्न होकर भी असुर बन जाता है । आसुरिकता मूर्तिमान् पाप है । आसुरिकताकी नस नस पापसे ठसाठस भरी हुई है । विश्वासपात्र लोगोंके साथ अनृत व्यवहार कर सकनेवाला किससे कौनप्ता पाप नहीं कर सकता ? Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सबसे बडा पाप योऽन्यथासन्तमात्मानमन्यथा सत्सु भाषते । स पापकृत्तमो लोके स्तन आत्मापहारकः ॥ वाच्यर्था नियताः सर्वे वाङ्मूला वाग्विनिःसृताः । तां तु यः स्तनयेद् वाचं स सर्वस्तेयकृन्नरः ॥ जो पुरुष विश्वासपात्र भद्र पुरुके साथ अविश्शनका व्यवहार करता है, वह पापी और चोर है । वह अपनी गर्भधारिणी माता, अन्नदाता पिता, स्नेह परायण महोदर, महोदरा तथा संपूर्ण कुटुम्बवालोंके साथ विश्वासघात कर चुका है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि वह जीवनभर सबको ठग ही लग रहा है ! उसमे संसारमें किसीके साथ विश्वास ओर प्रेमका संबन्ध स्थापित नहीं किया है। उसने सत्यका अमृतास्वादन नहीं किया है । सत्यकी मधुरता उसकी कल्पना में भी नहीं है । वह तो पशुसे मी अधम मनुष्यताविध्वंसी असुर है । य संसार के समस्त व्यवहार वाणी में से उत्पन्न होते, वाणीमेंसे निकलते और उपीपर आधारित रहते हैं। मानव जीवनकी रचना में वाणीका महत्वपूर्ण स्थान है । समस्त व्यवहारोंकी आधारशिला वाणी जैसी वह मनसे निकल कर भाई थी, वैसा उसे विश्वासपात्रोंसे न कहकर उसे अपने स्वार्थसे बदलकर चुराकर दूसरी बनावटी वाणी कहनेवाला समस्त चोरियोंका अपराधी है । ३८५ ध्यान रहे कि विश्वास के संबन्ध से होन पापियोंसे प्राणरक्षा, धनरक्षा, सत्यरक्षा या सज्जनरक्षा के लिये बातको विकृत करके कहना कर्तव्य होता है । आततायीको जिस किसी उपायसे धोखा देकर आत्मरक्षा करना असत्यविरोधरूपी अनाविल सत्य ही माना जाता है। पापीको हमसे विश्वास पानेका अधिकार न होनेसे उसे उसके पापके संबन्धर्मे धोखा देकर उसकी पापप्रवृत्तिको व्यर्थ करना न केवल अपाप है, प्रत्युत वह पापको व्यर्थ करनेवाला आवश्यक धर्म है । पाठान्तर नानृतात् २५ ( चाणक्य . ) परं पापम् । 1 Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि ( गुरुओंकी भावना समझनेका प्रयत्न करो) न मीमांस्या गुरवः ॥ ४२२॥ गुरुजनाका छिद्रान्वेषण न करना चाहिये । विवरण- मनुष्य हिताकांक्षी ज्ञानवृद्धोंके सूक्ष्मबुद्धि से किये गये कार्यों की प्रतिकूल समालोचना न करके उनका हृद्गत अभिप्राय समझनेका प्रयन्त करे । वह उनकी अवस्थाजनित अभिज्ञतासे अपरिचित होने के कारण उनकी अनधिकृत मीमांसा करके कार्यमें व्याघात न करे, अपने भशिष्टाचरणसे उनकी हिताकांक्षा के प्रवाहको न रोके और अपने को उनके नेतृत्वके कल्याणकारी प्रभावसे वंचित न करे । ऐसा करनेसे समालोचककी सत्यदर्शनकी अयोग्यता तथा अन्धा दुराग्रह भी प्रकट होगा और हानि भी होगी। ( दुर्जनतासे बचो) खलत्वं नोपेयात् ।। ४२३ ।। मनुष्य खलताका आश्रय न करे। विवरण- उन्नतिकामी मानव मासुरिकतासे बचकर रहे। साधु. जनोंसे प्रवंचनापूर्ण व्यवहार करना ही खलता है । सूत्र कहना चाहता है कि मनुष्य कलह, दुर्जनता या पिशुनताको न अपनावे। दुर्जनका जीवन मानवमातासे उत्पन्न होने पर भी मानवजीवन नहीं गिना जा सकता। दुर्जन होना मानवजीवनका लक्ष्य नहीं है। दुर्जन होना तो मानवजीवन की व्यर्थता है। जिसके हृदयस्थ मानवीय गुणोंको जीवन में, व्यवहारमें आनेका अवसर ही नहीं मिलता वही दुर्जन है । दुर्जन अपने जीवनको मशान्तिकी अनल में दग्ध करता रहता है । दुर्जन अपने जीवनको नष्ट करके ही दूसरों के साथ दुर्जनता कर सकता है। पठान्तर- कलहं नोपेयात् ।। मनुष्य किसीसे अकारण कलह न करे । Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दरिद्रताके कष्ट ३८७ ( धूोंकी मित्रहीनता ) नास्ति खलस्य मित्रम् ।। ४२४ ।। धूर्तका कोई मित्र नहीं होता। विवरण- सजनसे दुर्व्यवहार करनेवाला खल बन्धहीन होता है। मित्रताका गुण सजनों में ही रहता है। दुर्जन सज्जनोंसे वैर करके अनिवार्य रूपसे बन्धुहीन होकर मित्रद्वेषी बन जाता है । सत्य ही मित्रताका बन्धन है जो धूर्त में नहीं होता । धूर्त सत्यहीन होता है । सत्यहीनं धूते किसी एकका ही नहीं मनुष्यमात्रका जन्म-वैरी है। धूर्त लोग परस्पर सहायक वीखनेपर भी पारस्परिक अध:पतनमें हो एक दूसरे के सहायक साथी बना करते हैं । ये लोग अभ्युत्थानमें कभी किसीके मित्र नहीं होते । ये लोग पारस्परिक उपकारके मिष से एक दूसरेका सर्वनाश दी किया करते हैं। इस कारण इन लोगोंको एक दूसरेका मित्र न कहकर शत्र ही कहना चाहिये । धूतोंके हृदय मित्रताकी उदारस्थितिके लिये जसरभूमि होते हैं । न तो धूर्त किसीका मित्र होता है और न उसका ही कोई मित्र होता है। न दुर्जनः सहायः स्यात् भुजंगप्रकृतिर्यतः । उपकारच्छलेनव पश्चाद दुःखं प्रदास्यति॥ दुर्जन दूध पिलानेवाले को भी डंक मारनेवाले सांपकी प्रकृतिका होनेसे कभी किपाका सहायक नहीं बनता । वह उपकारके मिषसे अपने मित्र कहलानेवालोंकी भी हानि ही करता है। पाठान्तर- नास्ति कल हस्य मित्रम् ।। शान्तिपिय लोग कलहप्रिय लोगों के मित्र नहीं हुआ करते । यह पाठ महत्वहीन होनेसे अपपाठ है। दरिद्रता के कष्ट ) लोकयात्रा दरिद्रं बाधते ॥ ४२५ ॥ जीवनयात्राकी समस्या दरिद्रको चिन्तित रखती हैं। Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि विवरण - अपने प्रत्येक सदस्यको सम्पन्न बनाये रखना तथा विलास, व्यसन, दुराचार से मुक्त रखना समाजका उत्तरदायित्व है | समाजव्यवस्था ऐसी होनी चाहिये कि समाजका प्रत्येक सदस्य जीवनकी निर्दोष सुखसुविधा पाता रहे। समाजकी विचारधारा ऐसी होनी चाहिये कि समाजका प्रत्येक सदस्य समाजके सार्वजनिक कल्याणको अपना कल्याण समझकर समाजहितको अविरोधी प्रवृत्ति रखनेवाला हो । परन्तु यह कितनी दुःखद स्थिति है कि व्यक्तिगत धनाध्यक्ष अर्थात् अमीर बननेकी संकीर्ण दृष्टि समा. जसे सामाजिक विचारधाराको छीन लेती है । ' अमोरी ' नामक रोग हो समाजकी दरिद्रताका उत्पादक है । उसके परिणामस्वरूप समाजमै भनेतिकता, स्वार्थान्धता, विलासिता, व्यसनासक्ति, दुराचार के कारण दरिद्रता नामको व्याधि उत्पन्न होजाती है । ३८८ जिस समाज के सत्यनिष्ठ सीधे साधे अनुत्कोचजीवी, अनपहारक अमायावी, निष्कपट लोग दरिद्वता के कारण जीवनयात्राकी समस्या के समा धान में असमर्थ हो रहे हों समझलो कि वह समाज अपने उन भद्र पुरुषोंसे शत्रुता करके अनैतिक, स्वार्थी, विलासी, व्यसनासक्त, दुराचारी बनकर उनसे धन ऐंठकर या उन्हें सदुपायोंसे धनसंग्रह न करने देकर उन्हें दरि द्वतासे पीडित कर रहा है । राष्ट्रकी सच्ची सेवा करनेवाली राज्यसंस्थाका निर्माण करनेवाले आदर्श राष्ट्रका यह उत्तरदायित्व है कि वह जनताको दरिद्रतारूपी व्याधि से मुक्त, परिवारपालनकी भोजनाच्छादनादि सामग्रियों की ओरसे निश्चिन्त बनाकर रखता हुआ समाजसेवाकी प्रवृत्ति रखनेवाले विद्वान् विवेकी लोगों के कर्मोत्ल्लाहसे अपने समाजको शक्तिमान् बनाये रखें। जहांकी राज्यव्यवस्था में उदरम्भरि आत्मम्भरि संकीर्णचेता लोगोंकी भरमार होती है वहांकी राज्यशक्ति जनता के धन तथा प्राणोंके निर्मम हत्यारे दस्युओं, लुटेरों के हाथों में फंसे बिना नहीं रह सकती । दरिद्रता मिटानेका एकमात्र उपाय क्षुद्रव्यक्तिगत स्वार्थभावनाहीन, अन्यसनासक्त, अनलस, उत्साहसम्पन्न रहकर कर्तव्यनिष्ठाको अपनाये रहना है । मनुष्य जीवनयात्रा के लिये वैध Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीरद्रताके कष्ट ३८९ उपाय करे और उन सत्प्रयत्नों के परिणामस्वरूप यथाप्राप्त जीवनसाधनको पर्याप्त मानकर उन्हींसे सहर्ष जीवनयात्रा करे, यही दरिद्रता मिटानेका मानवाधीन एकमात्र संभव उपाय है। समाजकल्याणमें मास्मकल्याणबुद्धि रूपी सत्यको अपनाये रहकर धना. भावमें भी सत्याभाव न होजाने देना मानवकी दुःखातीत स्थिति या दुःख में भी सुखी रह सकनेका निराला मार्ग है । फलाकांक्षाको मुख्यता न देकर कर्तव्यपालनको मुख्यता देनेका आत्मसन्तोष लेते रहना ही दारिद्रय भीतिको परास्त करनेकी रामबाण चिकित्सा है। यदि दरिद्र लोग धना. भावसे सत्याभाव न होने देने की दृढता रखें तो वे अपने दरिद्र माकिंचन जीवनमें भी देवदुर्लभ स्वाभिमान भोग सकते हैं। धनगर्वित धनोपासक लोग चाहे जितने धनी होने पर भी धनाभावका रोना रोया ही करते हैं। ऐसे लोगोंके पास धनकी न्यूनता न रहनेपर भी इनकी कोटिपति बनने की इच्छा ही इनकी दरिद्रता है। इस प्रकार के कृपण लोग भी दरिद्र कोटिमें गिने जाते हैं । कौडीका कंगाल जितना कंगाल है करोडोंका कंगाल भी उतना ही कंगाल है । कंगलापन या दरिद्रता पर स्वापहरण करनेवाली उस मानसिक स्थिति का ही दूसरा नाम है जो सदा अपने को अमावग्रस्त सम. झती और विषयक्षुधाकी ज्वालासे सदा ही झुलसती रहती है। अधोधः पश्यतः कस्य महिमा नोपजायते । उपर्युपरि पश्यन्तः सर्व एव दरिद्रति ॥ प्रत्येक मनुष्य अपने से नीची आर्थिक स्थितिवालोंकी तुलनासे श्रीमान् कहा जाता है । इसीके साथ यदि मनुष्य अपने से अधिक श्रीमानोंपर दृष्टि डाले तो प्रत्येक मनुष्य निर्धन कहा जा सकता है। धनी और निर्धनका कोई भी ऐसा मापदण्ड नहीं है जो निश्चितरूपमें किसीपर लागू होसके। यह मनुष्य की मानसिक स्थितिपर निर्भर करता है कि वह अपने धर्मानुकूल उपार्जनसे सन्तुष्ट होता या नहीं ? जो सन्तुष्ट है वह धनी है, जो सन्तुष्ट Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९० चाणक्यसूत्राणि नहीं है वह निर्धन है। यही बात "मनसि च परितुष्टे कोऽर्थवान् को दरिद्रः " में कही है। पाठान्तर- लोकयात्रा दरिद्रान् वाधते । (सच्चा वीर ) अतिशूरो दानशूरः ॥ ४२६ ॥ दानमें शूरता दिखानेवाला सच्चा शूर है। विवरण -- अपने पास धरोहर रूप में रक्खी वस्तु को उसका सत्यरूपी वास्तविक अधिकारी पाते ही उसको उसे मोपकर उर्ऋण होने की स्थिति ही दान है । सत्यके हाथों में आत्मदान कर चुर ! व्यक्ति अपनी सम्पूर्ण भौतिक शक्ति तथा सामर्थ्य को सत्यके हाथों में सौपकर सत्यको ही अपना कोषाध्यक्ष बनाकर निर्विघ्न बन जाता है। उसकी मानसिक शान्ति के सम्मुख समग्र विश्वकी प्रतिकूलता पराभूत रहती है । ___ अप्सत्य-विरोध तथा अज्ञान-संहार आदि राष्ट्रीय महत्व रखने वाले काम दानशूरों के कर्तव्यपालनकी भावनासे ही चलते हैं । (मानवचरित्रका आभरा ) गुरुदेवब्राह्मणेषु भक्तिभूपणम् ॥ ४२७ ।। गुरुदेव तथा ब्राह्मणों ( भूदेवों) की भक्ति ही मनुष्यको सुशोभित करनेवाला भूषण है । विवरण- विद्या, कौटुम्पिक संबन्ध तथा आयुमें ज्येष्ठ सदुपदेशदाता गुरु, देवीसंपत्तिरूपी भागवतसत्ता तथा तप:श्रुतिसम्पन्न ब्रह्मदर्शी ब्राह्म. णों की परमानुरक्तिरूपी भक्ति अर्थात् मारमसुधार के लिये उनके वाता. वरणमें आत्मसमर्पण करके रहना, मानवचरित्रका माभरण है। मनुष्य गुरु, ईश्वर तथा ब्रह्मवेत्ता लोगोंके साथ अहेतुक अनुराग रखने से शिष्ट, शिक्षित, सदाचारी, विश्वसनीय तथा भादरपात्र बनते हैं। पाठान्तर- भूषणं गुरुदेवव्राह्मणेषु भक्तिः । Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार पालनके लाभ ३९१ ( मनुष्यमात्रका भूषण ) सर्वस्य भूषणं विनयः ॥ ४२८ ॥ विनय ( अर्थात् सत्यनारायणकी सेवामें आत्मसमर्पण करके सत्यस्वरूप सुशील, नम्र, विनीत, कर्तव्यशील बन जाना ) मनुष्यमात्रका भूषण है। अकुलिनोऽपि विनीतः कुलीनाद्विशिष्टः ॥ ४२९ ।। कुलीनताक अहंकार में डूबे हुए सत्याहीन, अविनीत व्यक्तिकी अपेक्षा अप्रतिष्टित घरमें उत्पन्न होनपर भी सत्यको शिरोधार्य करके जीवनयापन करनेवाला विनीत व्यक्ति श्रेष्ठ होता है । ( आर्यत्वकी पहचान ) ( अधिक सूत्र ) आचारवान् विनीतोऽकुलीनोऽपि आर्यः । विनय तथा आचारसे सम्पन्न अनुष्य उच्च कहलानेवाले कुलमें उत्पन्न न होने पर भी आय ही है। विवरण---- सदाचार तथा विनयसे हीन आर्य नामधारी भी मनायं ही कहाता है । भाचार तथा विनय ही मार्यत्वके हेतु हैं। अमर में आर्य, सभ्य, सजन, साधु इन सबको प्रकार्थक कहा है " महाकुलकुलीनार्यसभ्यसज्जनसाधवः । ' नीति में कहा है___ " अकुलीनोऽपि शास्त्रज्ञो देवतेरपि पूज्यते । " देवं भी शास्त्रमर्यादामें रहनेवाले अकुलीनकी पूजा करते हैं : - ( आचार पालनके लाभ ) आचारादायुर्वर्धते कीर्तिश्च ।। ४३० ॥ सदाचार पालनेसे आयु तथा यशकी वृद्धि होती है। विवरण- सदाचारसे इन्द्रियविजय, उससे स्वास्थ्य, उप्सले इन्द्रिय Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९२ चाणक्यसूत्राणि नैर्मल्य, उससे बुद्धिकी प्रखरता, नरोग्य तथा आयुकी वृद्धि होती है । }- गुरुपरम्परासे प्राप्त, २ग्रन्थोंमें अलिखित परन्तु विशिष्ट कुलोंमें प्रच चित, तथा ३- शास्त्रों में उल्लिखित भेदसे सदाचार तीन प्रकारका होता है । ( अवक्तव्य ) प्रियमप्यहितं न वक्तव्यम् ॥ ४३१ || अहितकारी प्रियवचन कभी न कहना चाहिये । विवरण - हितकारी कटु बात तो कह दे, परन्तु किसीको अनुचित उपायों से प्रसन्न करने या ठगनेके लिये अहितकारी प्रिय वचन, न बोले । अहितकारी प्रिय वचन समाजहित के लुटेरे आततायियों को ही प्रिय लगा करता है । जिसे अहितकारी प्रिय वचन अच्छे लगते देखो उसे निःशंक होकर आततायी मान लो । यदि किसी राष्ट्रके प्रमादसे उसकी राज्यशक्ति उजले वस्त्र पहननेवाले प्रभुतालोभी धूर्तोंके हाथोंमें जा फंसी हो तो समझना होगा कि इस राष्ट्रने अपने हितोंको तिलांजलि देकर समाजके शत्रु धूर्तोंको ही राष्ट्रपर प्रभुता करनेका अधिकार दे रक्खा है । तब समझना होगा कि वह राष्ट्र उन प्रभुताकोभी आततायियोंके कानको प्यारे लगनेवाले, उनकी आसुरिश्ता की ही चाटुकारिता करनेवाले वचनों, देखों, व्याख्यानों, नारों तथा प्रचारोंसे लुटेरे, धूर्त मसुरों को प्रसन्न करने में लगा हुआ है और समाज अहितकारी असुरराजका ही समर्थक बन गया है J यह स्थिति किसी भी राष्ट्रके लिये महान् संकटकी स्थिति है। ऐसे राष्ट्रीय संकटोंके अवसरपर समाजका सच्चा हित चाहनेका अभिमान करनेवाले लोगोंको आगे जाना चाहिये । प्रभुतालोभियोंके मिथ्या प्रचार में सम्मिलित होने से न केवल बचना चाहिये प्रत्युत उसका विरोध करना चाहिये । समाजहितैषी लोगों को प्रभुतालोभियोंकी आसुरिकतापर चोट पहुंचानेवाले, उन (सामाजिक लुटेरों) की दुरभिसंधियोंका भण्डाफोड करके उनके सन्तापक समाजका सच्चा हित करनेवाले असुरविध्वंसी सत्यका प्रचार करके राष्ट्र के Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्यक पोछ चलो ३९३ जननारायणको झकझोर कर जगा डालना चाहिये और उसे असुरराजके विरोध खडा कर देना चाहिये। प्रसन्न करनेके अभिप्रायसे बोला अहितकारी वचन मनिवार्य रूपसे मिथ्या होता है। इस प्रकारका वचन न कहने में मनुष्य का अपना कल्याण है। सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात् न ब्रूयात् सत्यमप्रियम् । प्रियं च नानतं बयादेष धर्मः सनातनः ॥ मनुष्य सत्यवचन कहे परन्तु उसीसे कहे जिसे यह जान ले कि इसे सत्यवचन प्रिय भी लगेगा और ग्राह्य भी लगेगा। (दूसरे शब्दों में ऊपर भूमिमें अपने सत्यका वपन न करे । जिसे सत्य अप्रिय लगता हो उससे सत्य कहकर उपसे वाक्कलह मोल न ले ) जिस श्रोताको मिथ्या सिद्धान्त. हान अमानवोचित वचन प्रिय लगता हो उसे प्रसन्न करने की निबल भावनाके वशीभूत होकर उससे मिथ्या वचन न कहे। यह सतर्कता ही सत्यभाषणके संबन्धका सनातन धर्म या सत्यभाषणसंवन्धी सतर्कता है। ( व्यक्तित्व के पोछे न चलकर सत्यके पीछे चलो ) बहुजनविरुद्धमेकं नानुवर्तेत ।। ४३२ ।। बहुजनहितके विरुद्ध एकका अथात् किसीके व्यक्तित्वका अनु. गमन न करे। विवरण--- मनुष्य अनेक (समाज ) मार एक व्यक्तित्व ) मेसे त्याज्य ग्राह्य की समस्या उपस्थित होनेपर एक अर्थात् व्यक्तित्व के पोछ अंधा होकर चलने की प्रवृत्तिको तो त्याग दे और अपनी स्वतंत्र विचारबुद्धिको काममें लाकर उसीसे अपना तात्कालिक कर्तव्य निश्चय करे । अर्थात् दलमिश्रित न हो क्योंकि दल व्यक्तिस्वानुगामी होता है। यदि मनुष्य ऐसे समय अपने स्वतंत्र विचाराधिकारको तिलांजलि देकर बहुजन अर्थात् समाजविरोधी एक व्यक्तिके व्यक्तित्वका अन्धानुगमन करता है तो उसका मात्मकल्याण नहीं होता। सर्वावस्थामें समाज-हितको ही ध्येय रखना चाहिए। Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि संसार में नेता या गुरुनामधारी लोग अनुयायियों को अपने व्यक्तित्व के पीछे चलते आ रहे हैं । सूत्रकारको समाजकी यह स्थिति सह्य नहीं है । वे इस सूत्र में बहुमत के विरुद्ध एकके पीछे न चलने के सम्बन्ध में सावधान वाणी कहकर स्पष्ट कह रहे हैं कि समग्र मनुष्यसमाज के कल्याणका विरोध करनेवाले किसी भी मतवादी नेता या गुरुके पीछे मत चलो; किन्तु जिस सत्य के पीछे चलने से समग्र मानवसमाजका कल्याण होता हो, होता भारहा हो या होनेकी पूर्ण संभावना हो उस सत्यका स्वयं दर्शन करें और उसीके पीछे चले | इस रीति सत्यके पीछे चलते हुए तुम्हें कोई एक मनुष्य साथीके रूपमें मिल जाय या तुम्हें किसी एकके साथ चलना पडे तो तुम्हारे मनमें इस अतिका सन्तोष अटल रहना चाहिये कि मैंने किसी व्यक्तिके पीछे न चलकर सत्य के पीछे चलकर सत्यकी सेवा की है। यह सूत्र मनुव्यकी व्यक्त्यनुगामिता छुड़ाकर उसे सत्यानुगामी बनाना चाहता है । मनुष्यको बहुमतानुगामी बनाना तो इस सूत्रका उद्देश्य कदापि नहीं है 1 ३९४ C इस सत्र में बहुमत के अंधानुगमनका उपदेश नहीं दिया है। किन्त एकके अन्धानुगमनका निषेध करके किसी के व्यक्तित्व के पीछे चलनेका ही निषेध किया है | मनुष्यको सत्यको अपनाने और उसीक पीछे चलने का संतोष पाना चाहिये किसीके अनुगमनका नहीं । बात यह है कि एक या बहुत दोनोंसे अप्रभावित रहकर केवल सत्यका अनुगमन करने से हो कर्तव्यपालनका संतोष होता है, अन्यथा नहीं । यदि सूत्रका यह अभिप्राय होता तो इसे स्पष्ट शब्दों में यों कहना चाहिये था - " बहुमतविरुद्धमेकं त्यक्त्वा बहुमतमनुवर्तेत । " अर्थात् बहुमतविरोधी एकको त्यागकर बहुमतका हो अनुसरण करना चाहिये । कुछ टीकाकार इस सूत्रका बहुजनविरोधी एकका साथ छोडकर बहुमत के साथ देना अर्थ करना चाहते हैं । वे चाहे ऐसा समझें परन्तु सूत्र अपने मुखसे यह बात कहना नहीं चाहता । उसने तो सम्पूर्ण समाजको Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्यके पीछे चलो ही मनुष्य के सम्मुख उपस्थित करके स्वतन्त्र ... ... रीति से सोचकर समाजकल्याणकारी कर्तव्य करने का उपदेश दिया है। सूत्रकी वचन परि. पाटीको गम्भीरता समाजके साथ अंधा बनकर चलनेको मना कर रही है और समाजकल्याणको अपनाने का उपदेश दे रही है। सूत्रकार स्वयं अपने मुखसे 'सारं माहाजनः संग्रहः पीडयति ।' इस सूत्रमें बहुमतीय निर्णयों का विरोध कर चुके हैं। ___ गतानुगतिका लोको न लोकः पारमार्थिकः । ' यह किंवदन्ती भी बहुमतको अविश्वास्य घोषित कर रही है । साधारण लोग विचार कर काम करनेवाले या सन्मार्ग छांटकर फिर उसपर चलने. वाले न होकर भेडा-चाल होते हैं। बहुमत कभी भी विचारशी लोंका नहीं होता । बहुमत चाहे सारा समाज ही क्यों न हो, उनका भी अन्धानुगमन न करके चक्षुष्मान होकर सत्यका अनुगमन करने से ही सम्पूर्ण समाजका कल्याण होता है। जिसमें समग्र मानवसमाजका कल्याण है वहीं चाणक्य जैसे विचारकको कहना चाहिय और वही उसके सूत्रका अर्थ भी होना चाहिये। कभी कभी बहुमतका विरोध करना देश के विशारशील लोगोंका स्पष्ट कर्तव्य होता है। ऐसे प्रसंग बहुधा माते है जब समाजके अनुभवी विद्वानों को अपने देशके मूढ बहुमत का विरोध करना पडता है । जब बहुजन विरोधमें एकका मत सकल जनहितकारी होता है उस समय विज्ञ लोगों को अज्ञानियोंके बहुमतका अनादर करना ही पड़ता है। इसलिये इस सूत्रका यह यथाश्रत अर्थ अनुभव विपरीत होनेसे उपादेय नहीं हो सकता कि बहजनविरोध हो तो एक किसीका अनुसरण न करके बहुमतका अनुसरण करन। चाहिये । यह अर्थ मानवकी सत्यनिष्ठा ( या स्वतन्त्रता ) पर चोट करनेवाला होने से मान्य नहीं है। Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि (दुर्जनोंका साझा हानिकारक ) न दुर्जनेषु भागधेयः कर्तव्यः ॥ ४३३ ।। मनुष्य हीनस्वभाववाले दुष्ट, क्रूर दुर्जनोंके साझेमें कोई काम न करे। विवरण- दुर्जनों को किसी भी काम में साझी न बनाये । दुर्जन लोग स्वयं तो नष्ट हो ही चुके होते हैं और दूसरों को भी नष्ट कर डालते हैं। ये बडे कृतघ्न होते हैं । जैसे दुष्ट वायुमें रहनेसे अस्वास्थ्य और रोग होता है इसी प्रकार दुर्जनसंयोगसे मनुष्य का दुःखी होना अनिवार्य होता है । ' दुर्जनः परिहर्तव्यः सद्भावै मण्डितोऽपि सन् ।' सद्भावोंसे मण्डित दीखनेपर भी दुर्जनसे दूर रहना चाहिये। ये लोग "विषकुम्भं पयोमुखम्" मुखमात्रमें ऊपर ही ऊपर दूध भरे विषसे भरपूर घडेके समान जिह्वा मात्रमें मीठे और हृदयमें अत्यन्त कडके होते हैं। पाठान्तर- न दुर्जनेषु भागधेयं कर्तव्यम् । (सौभाग्यशाली नीचोंसे संबन्ध अकर्तव्य ) न कृतार्थेषु नीचेषु सम्बन्धः ।।४३४॥ सौभाग्यवान् नीचेंसेि सम्बन्ध मत करो। विवरण ----- सौभाग्यशाली नीचोंके सौभाग्यसे लाभान्वित होने के लोभमें उनसे घनिष्ठ सम्बन्ध मत स्थापित करो। नीचोंकी कृतार्थता, उनका सौभाग्य, उनकी मानप्रतिष्ठा, सबकी सब नीचताकी ही सफलतायें हैं। नीचका सौभाग्य अकाल जलदोदयके समान न जाने कब, कहां, किसका प्रलय बुला डाले । नीचोंकी सफलताओं और सौभाग्यलक्ष्मियों में सम्मिलित होजाना नीचताको ही अपनाना होता है । मनुष्यकी नीचताको अपनाने से बडी और कोई दुर्गति नहीं हो सकती। यह सब समझकर मनुष्यको नीच Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पन्न जीवनका माहात्म्य लोगोंके भौतिक कुप्रभावोंसे मामरक्षा करनी चाहिये । नीचोंकी सुखसमद्वि, मान प्रतिष्ठा, सौभाग्य मादि प्रत्येक गुण समाजको पथभ्रष्ट करने तथा पतित बनाने के काम आते हैं। सूत्रकार भौतिक, सम्पत्तिशाली, यशस्वी नीचोंके सम्पर्क से होनेवाले समाजके अधःपतनके विरुद्ध उन सुधारक नाम. धारी लोगों को सावधान कर रहे हैं जो नीचोंको भौतिक सफलताओं की चकाचौंधमें अंधे होकर उनसे सम्बन्ध बढानेको उदारता, उन्नति, समाजसंशोधन मोर रामोन्नयन समझने की भ्रान्ति करके देशमाताके वक्षःस्थल पर आततायियोंसे छरी लगवाकर समस्त रामको अशान्तिकी भागमें झोंक ( ऋण, शत्रु तथा व्याधि, संबन्धों गंभीर कर्तव्य ) ऋणशत्रुव्याधिवशेषः कर्तव्यः ।। ४३५ ।। ऋण, शत्रु तथा व्याधिको निःशेष करना चाहिये। विवरण- जबतक ऋण, अग्नि, शत्रु तथा व्याधि को पूरा नि:शेष न कर डॉलो तबतक शान्तिसे मत बैठो। यदि ये शेष रह जायेंगे तो इनके बढ जानेपर इनसे अपना सम्पूर्ण विनाश हो जाने का पूरा डर है। इन्हें शेष रख लिया जायगा तो यथाक्रम दिनाश, दाह, हानि तथा मत्यु अवश्यं. भावी हो जायगी। शत्रु मान्तरवाह्य भेदसे दो प्रकार के होते हैं । पाप मनु. व्यका अंतरशत्र है। उसे पहचानकर क्षणभरमें भस्मीभूत कर डालना चाहिये । पाप मानव जीवन के सौंदर्य, सौख्य तथा यश का घातक शत्रु है। पाठान्तर--- ऋणाग्निशत्रव्याधिष्वशेषः कर्तव्यः । ऋण, अग्नि, शत्रु तथा व्याधिको निःशेष कर देना चाहिये । पाठान्तर- ऋणाग्निव्याधितवशेषः कर्तव्यः । यह पाठ अपपाठ है। ( सम्पन्न जीवनका माहात्म्य ) भूत्यनुवर्तनं पुरुषस्य रसायनम् ।। ४३६ ।। सम्पत्तियुक्त जीवन विताना दीर्घायु तथा स्वास्थ्यका जनक है। Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि विवरण--- जीवनमें धनैश्वर्य संग्रह के प्रयत्नका निरन्तर चलते रहना पुरुषके लिये रसायन है । जैसे रसायनसे वीर्यादिकी वृद्धि होती है, इसी प्रकार धनसंग्रह सुखजनक होकर जरा, व्याधिविनाशक तथा दैहिक सुख देनेवाला होता है । जरा तथा न्याधिके विनाशक द्रव्योंको “ रसायन " कहा जाता है। दीर्घमायुः स्मृतिमधामारोग्यं तरुणं वयः। देहीन्द्रियवलं कान्ति नरो विदद् रसायनात् ॥ मनुष्य रसायनसे दीर्घ आयु, स्मृति, मेधा, मारोग्य, यौवन, देहबल, इन्द्रियशक्ति तथा कान्ति प्राप्त करे । ये ही सब काम धनसंग्रहसे भी होते हैं। इसलिये वह भी रसायन है और उस (धनसंग्रह) का काम जीवन. पर्यन्त चलना चाहिये । ( याचकों का अपमान अकर्तव्य ) नार्थिववज्ञा कार्या ॥ ४३७ ।। याचकोंका अपमान न करना चाहिये । विवरण --- अधिकारी भर्थियोंकी की जा सके तो उनकी देश, काल, पात्रके अनुसार यथोचित सहायता कर देनी चाहिये । न की जा सके तो उनके समक्ष विनय तथा सहानुभूति के साथ मधुरवाणीसे अपनी असमर्थता प्रकट कर देनी चाहिये । तृणानि भूमिरुदकं वाक्चतुर्थी च सूनृता । एतान्याप सतां गेहे नाच्छिद्यन्ते कदाचन ॥ मासन, भूमि, जल, मीठी वाणी ये तो सत्पुरुषों के घरोंसे कभी नष्ट नहीं होती। सत्यकी सेवा करने के लिये धनका सदुपयोग करना ही धनवानका दानधर्म है। जब कोई सत्यसेवक सत्यार्थदान करनेकी दृष्टिसे पात्र अपात्र विचारकर किपी सत्यनिष्ठको अपने द्वारपर पानेका सौभाग्य प्राप्त करे, तब उसे उसकी उचित सेवाके द्वारा सत्यकी सेवा करके कृतार्थ होजाना चाहिये । सत्य ही पात्रापात्र विचारकी कसौटी है । Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नीत्र प्रभुका स्वभाव ३९९ धनीसम्पन्न लोग सत्यकी सेवा करने की दृष्टि से निर्धनोंका उपकार करें यह मानवसमाजका सामाजिक नियम है और यह गुणी निर्धन लोगोंकी एक सदाशा भी है । कारण यह है कि मनुष्यको समाजके सहयोगसे ही धनोपार्जनका अवसर और साधन प्राप्त होते हैं । धनियोंको समाजकी मूक स्वीकृति और सहयोगसे ही धनी बनने के सुअवसर मिलते हैं। धनियोंको थपने समाजके इस मूक सहयोगका उचित मूल्य मांकना चाहिये। समाजका यह ऋण जब जिस रूपमें शीघ्रसे शीघ्र चुकाया जा सके चुकाने के लिये सहर्ष प्रस्तत रहना चाहिय और इसमें ऋणमोक्ष अपनेको सौभाग्यशाली भी मानना चाहिये। धनियों के पास जो अर्थी लोग आते हैं वे वेही लोग होते हैं जिन्होंने अपने मुक सहयोगसे उन्हें धनी बनने के अवसर दिये थे । आज परिस्थिति और आवश्यकताने विवश करके उन्हें अर्थी बनाकर भेजा है। ऐसे अर्थियोंकी अवज्ञा करना अपनी ही और अपने ही सौभाग्यकी, अपने ही सद्गुणोंकी अवज्ञा है । यह अवज्ञा आत्मविनाशका ही पूर्वाभास है। इसके अतिरिक्त अर्थी बनकर आनेवालों में अधिकारी अनधिकारी सब ही प्रकारके लोग आते हैं । गृहस्थ मनुष्यपर अपने बच्चोंका ही नहीं इस समस्त संसारके सत्याथ पालनका भार है जिसे उसे सामानुसार पूरा करना है । यदि ऐसे प्रसंगपर अवज्ञा करने के स्वभावसे भूलसे किसी मधिकारीकी अवज्ञा होगी तो अवज्ञाकर्ताका सत्यच्युतिरूपी अधःपतन प्रमाणित हो जायगा। ( नीच प्रभुका स्वभाव ) सुदुष्करं कर्म कारयित्वा कर्तारमवमन्यते नीचः ॥४३८॥ नीच व्यक्ति सुकटोर कर्म कराकर उसके न होने या अधूरा रह जानेपर या होजानेपर भी कर्ताको सफलताका यश न देनेकी भावनासे अपमानित किया करता है। विवरण-- नीच व्यक्ति काम भी कटोर करा लेता है और कर्ताको उसके कर्तृत्वका यश न पाने देने के लिये उसका अपमान भी करता है। Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि यदि वह कर्मकर्ताकी किसी दष्टि से न हो पाया हो तब तो उसकी उचित मात्रामें गर्हणा ठीक है । यदि वह कर्म ही दुष्कर था और इसीलिये सफल नहीं हो सका तो उसमें उसका दोष नहीं है । अज्ञानी लोग दुष्कर कर्मकी दुष्करतापर ध्यान न देकर उसका संपूर्ण दोष कर्ताक पिर डाल देते हैं। ऐसे समय पोचना तो यह चाहिये कि हमारा काम कारणदोषसे बिगडा है कि कर्तृदोषसे ? यदि वह काम किसी त्रटिवश पूरा न हुआ हो या पूरा होकर भी निष्फल रह गया हो तो उसे दुबारा करना चाहिये और यदि पूरा हो गया हो तो उसे उसका यश न देनेकी दुरभिसंधि त्यागकर उसका पष्टरूपसे कृतज होना चाहिये । पाठान्तर-- सुदुष्करं कर्म कारयित्वा कर्तारं नावमन्येत । मनुष्य किसीसे दुष्कर कर्म कराकर न तो कारणवश विफल होजानेपर उसका अपमान करें और न कर्ताको कर्तत्वका यश न पाने देने की दुर्भावनासे उसे अपमानित करे। ऐसा व्यवहार करनेसे कर्ता मिलने दुष्कर हो जाते हैं और यह स्वभाव अपना ही हानि करने वाला होता है। ( अकृतज्ञ सर्वदा दुःखी) नाकृतज्ञस्य नरकान्निवतेनम् ॥ ४३९ ॥ कर्ताका उपकार न माननेवाले अकृतज्ञ मनष्यका नरक (अध:. पतनकी अवस्था से की उत्थान नहीं होता। विवरण-- अकृतज्ञ मनुष्य अपने इस दुष्ट स्वभावसे अपने सहायकोंको निरुत्साहित करके सहायक ही न कर सके ला रह जाता और अपने को अपने ही हाथोंसे दुःखद अवस्था में फेंक देना है। अपनी कृतघ्नतासे सहायक खोदेना ही ना कनिवास है।। __'कृतघ्ने नास्ति निष्कृतिः।' कृतघ्नका कोई प्रायश्चित्त नहीं है । पाठान्तर-न कृतघ्नस्य ... ... । Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विष तथा अमृतका भंडार ४०१ ( वृद्धि या विनाश सुवाणी कुवाणी पर निर्भर ) जिह्वायत्तौ वृद्धिविनाशौ ॥ ४४०॥ मनुष्यके वृद्धिविनाश उसकी सुवाणी तथा कुवाणीपर निर्भर होते हैं। विवरण- यदि मनुष्य अपने सहकर्मियोंका सम्मान तथा उनके प्रति कृतज्ञता प्रकट करता रहे तो उसकी वृद्धि और यदि वह उनका अपमान करे तो उसका विनाश होता है । मनुष्यके वृद्धि विनाश वाणीके सदुपयोग दुरुपयोगपर ही निर्भर होते हैं। मनुष्य दुर्वाणीसे कार्यहानि तथा मधुर. वाणीसे कार्य में सुकरता होती देखकर अपनी सुचिन्तासे अपनी वाणीको संयत रक्खे। वाङ्माधुर्यात् सर्वलोकप्रियत्वम् । धाक्पारुष्यात् सर्वलोकाप्रियत्वम् ।। मधुरभाषी सबका प्रेम प्राप्त करनेमें सफल होजाता है। वाणीकी कठो. रता गर्दभके हेषारव २ कुत्ते के भौंकने के समान मनुष्यको सवकी घृणाका पात्र बना देती है। इस सूत्रमें जिह्वा दूपरी इन्द्रियों का भी उपलक्षण है । जिह्वाके समान अन्य इन्द्रियों के संयम तथा चंचलतायें भी मनष्यकी वृद्धि या हानि करने. बाली होती हैं। (विष तथा अमृतका भंडार ) विषामृतयो राकरो जिह्वा ॥ ४४१ ॥ जिह्वा विष तथा अमृत चाहे जिसकी आकर बनाई जा सकती विवरण--- मनुष्य अपने मन की स्थिति के अनुसार ही वाक्योचारण करता है । शान्त मनसे शान्तवचन और अशान्तमनसे अशान्तवचन निक. लता है । अशान्त होकर वचन बोलना अशान्ति पैदा करनेवाला होता है । २६ (चाणक्य.) Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०२ चाणक्यसूत्राणि बाणका घाव तो भर सकता है, परन्तु दुरुक्त वाणीका घाव जीवनभर नहीं भरता । इस दृष्टिसे वचनको शान्त रखनेका उपाय मनको शान्त रखना है। शान्तवचन बाह्य संसार में भी शान्ति रोकनेवाला तथा वक्ताकी भी मानसिक शान्तिको सुरक्षित रखनेवाला होता है । शान्तिसे झगडे मिटते अशान्ति से वातावरणमें आग लग जाती है। रोहते सायकैर्विद्धं वनं परशुना हतम् । वाचा दुरुक्तया विद्धं न संरोहति वावक्षतम् ॥ बाणोंके घाव तो भर जाते हैं, परशुसे काटे वन भी पुनः फूट जाते हैं परन्तु दुरु ( पयु) क्त वाणीका बींधा धाव कभी नहीं भरता। (प्रिय वाणीका महात्म्य ) प्रियवादिनो न शत्रुः ॥ ४४२ ॥ हितवादीका कोई शत्रु नहीं होता। हितवाक्यप्रयोक्तुश्च दातुश्चैवोपकारिणः । साधो लस्य जगति रिपुर्नव प्रदृश्यते ॥ हितवचन बोलनेवाले, दाता, उपकारी, साधु तथा बालकका संसारमें (दष्टोंको छोडकर ) कोई शत्र नहीं होता । मनको पतित करनेवाले कामक्रोधादि मनोविकार ही मनुष्यके मूल शत्रु हैं। अपने मनको अपनी ओर से निर बना चुकनेवालेको जिह्वासे सत्यको प्रकट करनेवाला हित वचन संपूर्ण मनुष्यसमाजका मित्र होता है। उसके वचन मनुष्यप्तमाजको कल्याणमार्ग दिखानेवाले होते हैं। मनुष्य की दूसरोंसे जो व्यक्तिगत शत्रुता उनती है, वह भी वास्तवमें मनुष्यसमाजकी शान्तिपर भाक्रमण करनेवाले दुष्टोंके भहित, कटु, अयथार्थ, उत्तेजक वचनोंसे ही उनती है। अपने समा. जका अपनी भोरसे शत्रु न बनना ही मनुष्य की निर्वैर स्थिति है। यों तो संसारमें ज्ञानीके शत्रु अज्ञानी ही हैं । परन्तु ज्ञानी अपनी ओरसे किसीके साथ शत्रुताचरणका अपराध नहीं करता। वह अपना इस महामहिम मानसिक स्थिति से निर रहता है । Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रिय वाणीका महात्म्य ४०३ मुनेरपि वनस्थस्य स्वानि कर्माणि कुर्वतः । उत्पद्यन्ते त्रयः पक्षा मित्रोदासीनशत्रवः ॥ पञ्च त्वानुगमिष्यन्ति यत्र यत्र गमिष्यसि । मित्राण्यमित्रा मध्यस्था उपजीव्योपजीविनः ॥ ( विदुर ) अपनी मुनिवृत्ति में लगे हुए एकान्तवासी मुनिके भी मित्र, उदासीन, शत्रु नामक तीन पक्ष उत्पन्न हो ही जाते हैं । तू जहां कहीं जायगा वहीं मित्र, शत्रु, मध्यस्थ, उपजीव्य तथा उपजीवी तेरे साथ साथ चलेंगे । ज्ञानी पुरुष अपनी हितोक्तियोंसे सम्पूर्ण समाजका मित्र बना रहकर समाजके शत्रुओं को पराभूत करता रहता है । स्तुता अपि देवता स्तुष्यन्ति ॥ ४४३ ॥ मधुरवचन के समर्थन में संसार में यह लोकप्रिय लोकोक्ति प्रचलित है कि स्तुति से तो अदृश्य देवतातक प्रसन्न होकर प्रार्थी की मनोकामना पूरी कर देते हैं मनुष्यका तो कहना ही क्या ? विवरण - सूत्र कहना चाहता है कि शक्तिशाली सत्पुरुषके कानों में पडा हुआ उसका गुणकीर्तन व्यर्थ नहीं जाता । वह उसे गुणग्राही सत्यवादी स्तावक के प्रति आकृष्ट करनेवाला अमोघ साधन बन जाता है । सत्य ही मनुष्यहृदयका स्वाभाविक स्वामी है । मानवहृदयका स्वाभाविक स्वामी सत्य ही सम्पूर्ण मनुष्यसमाजका शक्तिशाली प्रभु है । वाणीके द्वारा सत्यका प्रचार करने से समाजका कल्याण सुनिश्चित होजाता है । सत्यका प्रचार कभी भी समाजका हित करनेमें व्यर्थ नहीं जाता । मनुष्यको इस ध्रुव सत्यको ध्यान में रखकर किसीके आसुरी प्रभाव में आकर सत्यकी शक्तिके संबन्ध में संदिद्दान नहीं हो जाना चाहिये । गीता के शब्दोंमें "6 by " अश्वश्चाश्रद्धधानश्च संशयात्मा विनश्यति । $ अपने स्वरूप सत्यका ज्ञान न रखनेवाला, अपने स्वरूप सत्यपर श्रद्धा न Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०४ चाणक्यसूत्राणि रखनेवाला तथा सत्यके सम्बन्धमें संदिहान रहनेवाला व्यक्ति विनष्ट होचुका होता है । ' इस दृष्टिसे निःसंकोच होकर समाजके श्रेष्ठतम व्यक्तियों के सत्यका गुणगान करना सच्ची लोककल्याणकारिणी सेवा या वाक्चातुरी है। दोष या अपमानकी बातें सुनकर श्रोताके मनमें वक्ताके प्रति अप्रीति और उद्वेग पैदा होजाता है । इसलिये पराराधन-पण्डित लोग अपने प्रिय मधुर सत्य भाषणोंसे ज्ञानी श्रोताओं को अपने अनुकूल बनाया करें। पाठान्तर- स्तुता देवा अपि चिरं तुष्यन्ति । स्तुतिसे भावर्जित देवतातक स्तावकपर कृपालु होजाते हैं। (दुर्वचन द्वेपोत्पादक ) अनतमपि दुर्वचनं चिरं तिष्ठति ॥ ४४४॥ दुसरोंको संताप पहुंचाने या अवज्ञा करनेकी भावनासे कहा दुर्वचन अनृत (निराधार) हो तो भी श्रोताकी स्मृतिपर चिरकाल तक अपना द्वेषमूलक हानिकारक दुष्प्रभाव बनाये रहता है । विवरण- सन्ताप पहुंचाने की भावनासे किसीको साधार दुर्वचन कहना भी अनुचित है । निराधार दुर्वचन तो कभी किसीको कहना ही नहीं चाहिये । साधार दुर्वचन कहना पडे तो भी उसकी मर्यादाओंका पालन तो करना ही चाहिये। यदि दुर्वचन किसी अपराधको भत्सना रूप हो और उचित मर्यादामें हो तो वह कल्याणकारी होता है। कर्तव्यवश किसीकी वास्तविक भूलपर कहे गए अवज्ञा या सन्तापकारी वचनसे अपराधी श्रोताको भात्मसुधारका अवप्तर दिया जाता है । सत्याधारित दुर्वचन इस विचारके प्रभावसे भसित श्रोताकी बुद्धिको विद्रोही नहीं बनाता। वह उसे मारमसंशोधनका अवसर देकर सार्थक होजाता है । मसल्याधारित या सहनको सीमासे बाहरवाला दुर्वचन श्रोताको वक्तासे बदला लेनेके लिये उत्तेजित करता है। दुर्वचन स्वयं एक महापराध है । दुर्वचनका उद्देश्य या परिणाम कलह Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुर्वचन द्वेषोत्पादक है / वक्ताका उद्देश्य ही उसके वचनके सत्यासत्यकी कसौटी होता है / शुभ उद्देश्यसे कर्तव्यवश कहा सभी वचन सत्यकी ही परिभाषामें आजाता है। कलह के उद्देश्यसे उच्चारित प्रत्येक वाक्य मिथ्या होता है। अपने हदयको क्रोधसे कलुषित करके उच्चारित वचन असत्यकी दासता होता है। शरीर, मन या वचन किसीसे भी असत्यकी दासता न करना मनुष्यकी सत्यनिष्ठा है। अपने मन, वचन, कर्म तीनोंको कर्तन्यकी सीमासे बाहर न निकलने देना ही व्यर्थतारहित सफल जीवन है। मन, वचन, कर्मको कर्तव्यकी सीमासे बाहर निकाल जाने देना जीवन की व्यर्थता या निष्फल जीवन है। मनमें उत्पन्न होनेवाले क्रोध आदि रिपुभोंपर विजय पाकर रहना ही ज्ञानीकी विजय कुशलता है / __ वचन अपने मन तथा समाजकी शान्ति के लिये ही बोला जाना चाहिये। दूसरेको सन्ताप पहुंचाने की दृष्टि से तो कोई वचन बोलना ही नहीं चाहिये / दूसरोंको सन्ताप पहुंचाने की दृष्टि से उच्चारित वचन दूसरेके मनपर आघात पहुंचानेसे भी पहले वताके ही हृदयको सन्तप्त तथा अशान्त कर चुका होता है। जो मनुष्य दूसरेके प्रति दुर्वचन कह कर उसपर अपना क्रोध प्रकट करना चाहता है वह पहले स्वयं ही क्रोधका आखेट बन चुकता है और अपना जीवन न्यर्थ कर चुकता है / दुर्वचन वास्तविकताके आधारपर हो या न हो वह दोनों ही परिस्थितियों में वक्ताके उद्देश्यकी कटुताके कारण श्रोताको दुःखी करनेवाला होजाता है / उदाहरणके रूप में मंधेको अन्धा कहना उसकी विकलांगतापर कटाक्ष करनेवाला होनेसे अन्धेको दुःख पहुंचाता है। इसी प्रकार समाजको निन्दित करने के लिये उसे अन्धा कहना भी उप्तको दुःख पहुंचानेवाला होता है। ऐसे शाब्दिक सत्याधारित भी दुर्वचनोंसे वक्ता, श्रोता किसीका भी उपकार नहीं होता। ऐसे दुर्वचन सदा ही असत्य और परिहार्य होते हैं। वचन अपने ( वक्ता तथा श्रोता दोनोंके ) हितार्थ ही बोला जाना चाहिये / जो वचन अपना ही माहित कर डाले वह श्रोताको भी पीडित करेगा ही। उसे बोलना बुद्धिहीनता है। Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 406 चाणक्यसूत्राणि मनुष्यको जानना चाहिये कि उसके हितका केवल अपनेसे ही सम्बन्ध नहीं है, किन्तु उसका हित दुसरोके हितोंके साथ अविभाज्यरूपसे पूर्णतया सम्मिलित है। प्रत्येक वक्ताको अपने परसम्बद्ध हितको या अपने हितकी परसम्बद्धताको ध्यान में रखकर ही वाक्य बोलना चाहिये / तब वक्ताका वचन समाजहितकी सीमाका भंग करनेवाला नहीं बनेगा। क्रुद्ध होकर बोला हुमा वचन पहले तो वक्ताके हृदयपर आघात करता है। उसके पश्चात् क्रोधपात्रके हृदयपर चोट पहुंचाता है। ऐसा वचन अपने वक्ताका अनिष्ट कर चुकने के पश्चात् अपने श्रोताको क्रुद्ध तथा उत्तेजित कर डालत! है / दुर्वचन वक्ता श्रोता दोनों ही पक्षों के लिये मनावश्यक तथा मनिष्टकारी होता है। दुर्वचन साधार, निराधार किसी भी अवस्था में समर्थनीय नहीं है। यह तो मानना ही पडेगा कि वक्ता श्रोताके पारस्परिक संबन्ध मधर होने चाहिये / जब वक्ता श्रोताके पारस्परिक संबन्ध कडवे होजाते हैं तब वक्ताके वचनोंमें कड़वापन भाना स्वाभाविक होजाता है इसलिए उस समय मौन ही सत्य भाषण है। पारस्परिक संबन्धोंकी मधुरता ही मधुर वचनोंकी जननी है। इस सूत्र में सत्पुरुषों को ही अनिष्टकारी वचनोंसे रोका जा रहा है / अस. पुरुषों को नहीं / असत्पुरुषों के लिये कोई शास्त्र या विधिविधान नहीं होता / दण्ड ही मसरूषों का एकमात्र शास्त्र होता है / वक्ता उत्तेजनाके अवसरपर श्रोताका मर्मच्छेद करने के लिये कडवी बात कहता है / उस समय उसके निराधार या साधार प्रत्येक वाक्य का परिणाम स्थायी शत्रता होजाता है। चाहे मनुष्य अनिष्टकारीके आचरणपर उचित कटाक्ष ही क्यों न करे वह भी उसे उत्तेजित करनेवाला होजाता है। भद्र लोग अपनी भूलपर उचित भर्सना तो सुन सकते हैं परन्तु दुष्ट कदापि कटाक्ष या दुर्व चन सुननेको उद्यत नहीं होता / इसलिये जब कभी भनिष्टकारीको वचनके द्वारा अनिष्ट करनेसे रोकने का कर्तव्य आये, तब यह ध्यान रखकर ही उससे कुछ कहना चाहिये कि उच्चार्यमाण वचनसे उसकी प्रतिहिंसाकी प्रवृत्तियों को उत्तेजित होनेका अवसर न मिलने पाये, प्रत्युत तुम्हारे वह वचन उसकी Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजाका द्वेष्य बनना अकर्तव्य 407 कुप्रवृत्तियोंको रोक देनेवाले श्रुतिमधुर, युक्तिसंगत तथा सह्य हों। यही वचनका एकमात्र उद्देश्य है। श्रुति कटुवाक्यसे यह उद्देश्य पूरा नहीं होता, प्रत्युत कटुवाक्य कलहकी सृष्टि करनेवाले कलहके चिरस्थायी बीज बन जाते हैं। जब समाजकल्याणकी दृष्टि से किसी सत्यको प्रकट करके अपराधीको अपराधी सिद्ध करना ठद्देश्य हो, तब उसके प्रति विरुद्ध मारोपको व्यक्त करना समाजसेवाके रूपमें न केवल समर्थनीय प्रत्युत प्रशंसनीय भी होता है / तब भी कटाक्ष नहीं करना चाहिए। सूत्र कहना चाहता है कि संताप पहुचाने की भावनासे तो नीचको नीच भी मत कहो / कर्तव्यके वश होकर तो नीचको उचित मर्यादामें नीच कहना कर्तव्य होता है। समाजकल्याणकी दृष्टि से नीचों की पर्याप्त भर्सना की जा सकती है / इस दृष्टि से विचारशील लोग किसी की निराधार भत्र्सना न करे। साधार भत्र्सना भी अपराधको सीमा तक ही करनी चाहिये उससे मागे साधार भर्सना मी असा हो जाती है / पाठान्तर- अनृतादपि दुर्वचश्चिरं तिष्ठति / दुर्वाक्य असत्य से भी अधिक चिरस्थायो होता है / ( राजाका द्वेध्य बनना अकर्तव्य ) राजद्विष्टं न च वक्तव्यं // 445 // राजाके व्यक्तित्वपर अप्रिय आरोप नहीं करना चाहिये / राजा या उसके प्रतिनिधिको अप्रिय वचन नहीं कहना चाहिये / विवरण- राजा या उसके प्रतिनिधिको व्यक्तिगत रूपमें न देखकर उसे प्रजाकी सामूहिक शक्तिके केन्द्र के रूपमें देखना और उसके साथ अनुत्तेजक नम्र वाग्व्यवहार करना चाहिये / क्योंकि राजाके पास प्रजाकी सामूहिक शक्ति केन्द्रित रहती है इस कारण राजरोष मानवरोषसे सहस्रों गुणा भधिक होता है / राजाके प्रति बोले गये अप्रिय वचनोंसे उसके मन में Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 408 चाणक्यसूत्राणि वक्ताके लिये महा अनिष्टकारी रोष पैदा होकर निश्चित हानिकारक हो सकता है / इसलिये राजशक्तिवालों के साथ सुविचारित सुसभ्य वाम्यवहार होना चाहिये / परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि मनुष्य औरोंके साथ अप्रिय भाषण करे / यहां केवल राजाके साथ वाम्यवहारकी परिपाटी बताई जा रही है / राजाके ही समान देव, विष, गुरु, साधु, नारी, महापुरुष तथा अपरिचित लोगोंके साथ भी संयत भाषण होना चाहिये। इस सूत्रसे राजकार्योंके विरुद्ध असभ्य समालोचना उसके भावी कार्यों पर निराधार दोषारोपण या राजनियमोंका उलंघन आदिका भी निषेध समझना चाहिये / इन कार्योंसे राजा प्रजा दोनों की हानि होती है। इसमें कोई संदेह नहीं कि राज्यव्यवस्थामें दुनिति निन्दनीय होती है। परन्तु ध्यान रहे कि उस दुनितिका उत्तरदायी अकेला राजा नहीं होता। राजचक्र (राजाके भृत्यवर्ग) तथा वह राष्ट्र जिसमें अत्याचारित रहता है दोनों ही राजकीय दुनितिके उत्तरदायी होते हैं। राजा स्वयं अपनी इच्छामात्रसे राष्ट्रका राजा नहीं बना करता / वह राष्ट्र की ही प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष सम्म. तिसे राज्यपरिचालन का भार ग्रहण किया करता है / यदि कोई राष्ट्र अपनी सम्मतिका दुरुपयोग करके किसी अयोग्य व्यक्तिको राज्यसिंहासनपर बैठा दे तो उस राजकीय अयोग्यताका अपराधी स्वयं राष्ट्र होता है। योग्य राजाका चुनाव करना और उसे योग्य बने रहने के लिये विवश रखना राष्ट्रका ही कर्तव्य है। राष्ट्र तो राजाको ठीक रखनेका उत्तरदायी है और राजाका कर्तव्य राष्ट्रको ठीक रखना है / यह उभयपक्षीय राष्ट्रीय कर्तव्य है / यदि राजा अयोग्य है तो समझना होगा कि राष्ट्र अयोग्य है / अयोग्य राजा अयोग्य राष्ट्रका प्रतिनिधि होता है / इस दृष्टि से राष्ट्रका संशोधन न करके, राजाके व्यक्तित्वपर दोषारोपण करना उसे असंशोधित रहने देकर ऋद्ध तथा प्रतिहिमापरायण कर देना मात्र होजाता है। जबतक राष्ट मसंशोधित रहेगा तबतक राजसिंहासनपर अयोग्य लोग ही राज्य करते रहेंगे। Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मधुर भाषणका प्रभाव 409 औषधप्रयोगको आवश्यकता रोगी स्थानपर ही होती है / रोगके मूलको नष्ट न करके रोगके उपद्रवों के साथ झगडने से रोग नहीं हटता। इस दृष्टिसे अयोग्य राजाके व्यक्तित्व पर क्लीबोचित क्रोध दिखाना राष्ट्रसेवा न होकर राष्ट्रद्रोह है / जबतक राजा राष्ट्रकी सम्मतिसे राजसिंहासनपर बैठा हुआ है, जबतक उसके व्यक्तित्वपर किसी भी प्रकारका माक्रमण करना राष्ट्र में अशान्ति उत्पन्न करनेवाला होजाता है। ऐसी परिस्थितिमें राष्ट. सेवाका मर्म समझनेवालोंका यही कर्तव्य होजाता है कि कुशासक राजाके व्यक्तित्वपर माक्रमण न करके धैर्य के साथ राष्टको उस मानसिक व्याधिको चिकित्सा करें जिसने अयोग्य व्यक्तिको राजसिंहासनपर बैठा रक्खा हो / पाठान्तर- राजद्विष्टं न वक्तव्यम् / (मधुर भाषणका प्रभाव ) श्रुतिसुखाकोकिलालापात्तुष्यन्ति // 446 // जैसे मनुष्य श्रवणसुख कोकिलालापोंसे तृप्ति अनुभव करते हैं इसी प्रकार विज्ञ लोग राजाओं या राज्याधिकारी बड़े बने हुए लोगोंको श्रुतिमधुर सत्यानुमोदित वाक्यपरिपाटीसे सन्तुष्ट रक्खें। और अपने कामाम व्याघात उत्पन्न न होने दें। विवरण- अयोग्य राजाके साथ वार्तालाप करने की आवश्यकता पड़ने पर उसकी अयोग्यतापर कटाक्ष करने के लिये उसके कानोंमें चुभनेवाली बात कहकर उसे क्रुद्ध कर देना हानिकारक है। इस सूत्रमें कोकिलके कण्ठका उदाहरण इसलिये दिया है कि जब कि मनुष्य के कण्ठमें श्रोताके कानोंको पीडा न पहुंचाने का सामर्थ्य है, तब उसका दुरुपयोग क्यों किया जाय ? कान सदा ही अनुकूलताके प्यासे होते हैं इसलिये वचनको कट हो जाने देना वचनकलाकी अनभिज्ञता है। ज्ञानीके कान सदा सत्यसे प्यार करते हैं / अज्ञानीके कान सदा सत्यके शत्रु होते हैं। योग्य राजाको सत्यवचन सुनाकर तृप्त किया जाता है परन्तु अयोग्य राजा सत्य से रुष्ट होजाता है। Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 410 चाणक्यसूत्राणि सूत्र कहना चाहता है कि अयोग्य राजाको अकारण रुष्ट न करके ससे अपनी तात्कालिक वाक्चातुरीसे तृप्त करना ही बुद्धिमत्ता है। सारांश यह है कि जब कि राजाका हमसे स्वतंत्र कोई अस्तित्व ही नहीं है जब कि वह राष्ट्र के हाथोंका यन्त्रमात्र है, तब राजाको सत्य सुनाने के संकटमें न पडकर उसे अपने राष्ट्रसेवक कर्तव्यक्षेत्र में ही सुनाने के लिये स्थगित रखना चाहिये / पाठान्तर- श्रुतिसुखाः कोकिलालापाः / जब कि कोकिलके आलापतक सुखकर होते हैं तब मानवके मधुरा. लापों के सम्बद होने की तो बात ही क्या ? ( कुकी का पश्चात्ताप ( अधिक सूत्र ) तप्यते दुष्करकारी यत्नवान् नाम / कुकर्ममें यत्न करनेवाला व्यक्ति सन्ताप पाया करता है। विवरण- दुराचारी, क्रूरकर्मा, कठोर स्वभाववाला कापुरूष अति उद्योगी परमनिपुण होनेपर भी अपने किये गर्हित कर्मके निकृष्ट फलसे स्वयमेव भीतर ही भीतर पश्चात्तापाग्निमें दग्ध होकर अनुतह मोर विषादी होता रहता है। जैसे बालकपनमें विद्याध्ययनसे मन चुगनेवाले यौवनमें अपनी भूल पर पछताते हैं इसी प्रकार दुष्कर्माका अन्तरात्मा उसके गहित माचरणके लिये उसे सदा कोसता मोर नोचनोचकर खाया करता है / इसके विपरीत साधुकारी स्वयं भी मुखी रहता और दूसरों को भी सुख पहुंचाता रहता है। ( सापुरुषका स्वभाव ) स्वधर्महेतुः सत्पुरुषः // 447 // सत्पुरुषत्वका हेतु स्वधर्म होता है / स्वधर्मपालनसे ही सत्पु. रुष बनते हैं। स्वधर्मपालन ( स्वकर्तव्यपालन सत्पुरुषोंको ढालनेवाला सांचा है।। पाठान्तर-स्वधर्महेतुभूतः सत्पुरुषविशेषः / सत्पुरुष ही स्वधर्मपालन कर सकता है / Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्त्रियोंका भूषण 411 ( गौरवहीन लोग) नास्त्यर्थिनो गौरवम् // 448 // समाजमें याचकका तथा कृपणधनीका सम्मानपूर्ण स्थान नहीं है। विवरण--- अर्थी शब्द याचक तथा धनी दोनोंका वाचक है। समाजमें न तो याचकका सम्मान पूर्ण स्थान है क्योंकि वह प्रार्थी बन जाने से दीन है और न समाजमें उस अर्थपिशाच धनीका कोई सम्मानित पद है जो समाजको लूटकर धन कमाता है और अनिवार्य रूप से सामाजिक अभ्यु. स्थान में अपना मार्थिक सहयोग न देनेवाला कृपण होता है / (त्रियोंका भूषण ) स्त्रीणां भूषणं सौभाग्बन // 449 // पतिव्रता तथा पतिपुत्रादिसे सौभाग्यशालिनी रहना स्त्रियों का भूषण है। सौभाग्यलक्षणं स्त्रीणां पालिवयं प्रकीर्तितम् / पतिव्रता होना ही स्त्री के लिये गौरव की बात है। विनय, क्षमा, गृह. कार्य-दक्षता, शिल्प, वैदुष्य, धीरता, ईश्वरभक्ति तथा पातिव्रत्य स्त्रियों के सौभाग्य हैं। * पतिपत्न्योर्विवाहमान्त्रिकसंस्कारणकात्म्यात् पतिमत्वं पातिव्रत्यं च परं सौभाग्यम् / ' विवाहकालके मान्त्रिक संस्कारों से पतिपत्नीक! ऐकात्म्य होजाता है। इसलिये पातिव्रत्य तथा सुयोग्य पतिवाली होना स्त्रियों का सौभाग्य है / मम व्रते ते हृदयं दधामि / मम चित्तमनु चित्तं तऽस्तु / / विवाहकालमें पति पत्नीसे वेदकी भाषामें कहता है कि मैं तुम्हारे चित्त को अपने स्वीकृत व्रतमें संयुक्त करता हूं। तुम्हारा बिन मेरे उद्दे. ३यकी अनुकूलता करता रहे। Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१२ चाणक्यसूत्राणि __ असौभाग्यं ज्वरः स्त्रीणाम् । (वृ. चाणक्य ) पतिघ्रता न होना, पतिपुत्रादिसे वंचित होना तथा विनयादि उपर्युक्त गुणों से हीन होना स्त्रियों के लिये ज्वरके समान दुःखदायी स्थिति है। ( अधिक सूत्र ) सौभाग्यं कतुराचारता । पतिके सदाचारके सदृश आचार बनाकर रखना ही पत्नीका सौभाग्य है। (वैध जीविका शत्रुकी भी अनाश्य) शत्रोरपि न पतनीया वत्तिः ॥ ४५० ॥ शत्रुकी भी वैध ) जीविका नष्ट नहीं करनी चाहिये। विवरण- समाजका शत्रु मनुष्यमात्रका शत्रु होता है। समाज में भशान्ति फैलानेवाला ही मनुष्यका शत्रु होता है । शान्तिरक्षाके लिये शत्रुदमन करना भी मनुष्य का कर्तव्य है । परन्तु ध्यान रहे कि शत्रुकी अशान्तिकारक प्रवृत्तियां ही दमनीय होती हैं। शत्रुके आहारके साथ मनुष्य. समाजकी कोई शत्रुता नहीं है । शत्रुको यदि वह वैध आहार कर रहा है तो उससे वंचित कर देना उसे माहार संग्रह के लिये समाजपर और अधिक माक्रमणके लिये विवश करना होजाता है । शत्रु को उसके वैध माहारसे वंचित कर देना समाजकी शान्तिपर अधिक भाक्रमण करवाना होजाता है । अपनी वैध जीविकाका अधिकार तो आततायीको भी है । जब वह समाजपर आक्रमण करता है तब उसकी आक्रामक प्रवृत्तिको न रोककर उसकी वैध जीविकामात्र रोक देनेसे उसकी आक्रमण प्रवृत्ति दुगनी प्रोत्साहित होजाती है। यह समझ लेना चाहिये कि आततायीको मिटाना तथा उसकी वैध जीविका नष्ट करना या दो अलग अलग परिणाम रखनेवाली दो अलग बातें हैं। माततायीका बाल बांका न करसक कर उसकी वैध जीविकापर माक्रमण करनेसे उसका आततायीपन नष्ट नहीं होजाता। Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैधजीविका शत्रुकी भी अनाश्य ४१३ यहांपर मनुष्यकी सामूहिक शक्तिको आततायीके विनाश में प्रयुक्त करनेसे रोकनी अभिष्ट नहीं है किन्तु वह तो कर्तन्यरूप में स्वीकृत ही है। इस महत्वपूर्ण विधेचनाको ध्यानमें रखकर माततायीकी वैध जीविकामात्रमें विघ्न डालना उसके माततायीपनको प्रोत्साहित करना तथा समाज में अशान्ति बढाना होजाता है । भाततायी जीविकार्जन करके अपना तथा अपनेपर निर्भर. परिवारका भरण पोषण करता है। आततायीकी जीविका के साथ पारिवारिकों की भी जीविकाको नष्ट करना माततायियोंकी संख्या बढाना है । राष्ट्र में बेकारी उत्पन्न न होने देना राजा तथा नागरिकों का सबका कर्तव्य है । चोरों, लटेरों, डाकुओं, आततायियोंको उचित दण्डके द्वारा ही शासनाधीन रक्खा जा सकता है । ये लोग समाजके दूषित अंग हैं । राजकीय कर्तव्य राजकल्याणकी दृष्टि से निर्धारित होते हैं । राष्ट्रकल्याणकी दष्टिसे राष्ट्रकंटक बन जानेवाले दो चार, दश पांच माततायियों का वृत्ति. सहित समुच्छेद करना राज्यव्यवस्थापकोंका अत्याज्य धर्म होजाता है । आततायी लोगोंकी जीविका परस्त्रापहरण हत्या आदि नृशंस उपायोसे ही संपन्न होती है । जब इन समाजशत्रुओंके जीविका नष्ट करने का प्रश्न अनि. वार्य रूप लेकर उपस्थित होता है तब इनके इन गर्हित उपायों को राष्ट्र की भोरसे सुरक्षित रखना या रहने देना असंभव कल्पना है। इस दृष्टिसे इस सूत्रका यही एकमात्र अर्थ होना संभव है कि शत्रकी वैध उपायोंसे होने. वाली जीविकाको नष्ट न किया जाय । जबतक शत्रुका अवैध जीविकार्जन प्रमाणित न होजाय तबतक उसका अर्जित धन राज्यव्यवस्थाकी ओरसे अर्थदण्डके रूप नहीं छीना जा सकता। यदि अपराध प्रमाणित न हो तो मभियुक्त व्यक्तिका निर्दोष स्वीकृत होना उसका वैध अधिकार है । किसीको संदिग्धावस्थामें दण्डित करना अवैध कार्यवाही है । जिस प्रकार डाकूके घर डाका डालना या चोरके घर चोरी करना उस जैसा अपराधी बन जाना होता है, इसी प्रकार इस सूत्र में प्रति. हिंसाकी भावनासे शत्रुताचरण करनेको निन्दित निषिद्ध ठहराया गया है। Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१४ चाणक्यसूत्राणि सूत्रका रष्टिकोण यह है कि मनुष्यसमाजके शत्रुको दण्डित करने में भी न्यायसंगत समाजकल्याणकी दृष्टि रहनी चाहिये । क्योंकि अपराधियोंको रोककर समाजकल्याणको सुरक्षित रखना ही राष्ट्र तथा नागरिकों का कर्तव्य है। अपराधी लोगोंको दण्ड देने के लिये उन्हें अपराधी सिद्ध करना भी राष्ट्र और समाजका कर्तव्य है। शंकामात्र से किसीको दण्ड नहीं दिया जा सकता । अपराधी व्यक्तिको जीविकार्जनके अवैध उपायोंसे बलात् रोककर वैध जीविकाका अर्जनके लिये विवश करके रखना राष्ट्र तथा नागरिककोका कर्तव्य है । आततायी प्रवृत्ति रखने वाले मनुष्यको दण्डभयसे ताडित भीत और त्रस्त करके उन्हें समाजका अकल्याण न करने देना राष्ट्रका कर्तव्य है। ( जीवनोद्योगोंकी शत्रुसे रक्षा ) ( अधिक सूत्र ) शत्रुभिरनभिपतनीया वृत्तिः ।। बुद्धिमानकी प्रवृत्तितक शत्रुका आक्रमण नहीं पहुंचना चाहिये। मनुष्यको अपने जीवनसाधनोंको शत्रुओंके आक्रमणोंसे सुरक्षित रखना चाहिये। अप्रयत्नादेकं क्षेत्रम् ॥ ४२१ ॥ जहां जल सुलभ हो वही कृषियोग्य भूमि होती है। विवरण- जिस स्थानमें कृषिके लिये अनायास जल मिल सके वही स्थान कृषिके योग्य होता है । कृषिके ही नहीं निवासके योग्य भी वही स्थान माना जाता है जहां जल अनायास मिलता है । मरुभूमि कृषि तथा निवास दोनोंहीके अयोग्य मानी जाती है। नदी, समुद्र या सरोवरोंके पासवाली सिकताहीन समतल उर्वरभूमि ही कृषि तथा निवासके योग्य और स्वास्थ्यकर होती है। 'क्षीयते धान्यादिभिरिति क्षेत्रम्' जो भूमि धान्यादि उत्पन्न करके क्षीण शक्ति होती रहती तथा वारंवार खाद मांगती रहती है वह भूमि क्षेत्र या कृषिभूमि कहाती है। पाठान्तर- अप्रयत्नादेक क्षेत्रम् । साधारण प्रयत्नसे एक ही क्षेत्र अन्नकी उपज दे सकता है । Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देहकी विशालता जयका साधन नहीं ४१५ (क्षुद्र के भरोसे बलवान्से मत बिगाडो) एरण्डमवलम्ब्य कुंजरं न कोपयेत् ॥ ४५२ ।। सारशून्य अदृढ एरण्डका आश्रय लेकर महाकाय हाथीको कुपित न करे। विवरण- क्षुद्र सहारेके भरोसे बलवान से न लडे । क्षुद्र साधनसे बलवान्का ताडन निवर्तन, निग्रह या अवरोध संभव नहीं है किन्तु इससे अपना ही महाअनिष्ट हो सकता है। मनुष्य जैसा कार्य करना सोचे उप्सी प्रकारकी सामग्री भी तो संचित करे । लघु उपायसे गुरुकार्य न छेड बैठे। जैसे नखनिकृन्तनसे वृक्षच्छेद असंभव है इसी प्रकार लधु उपायसे गुरु. कार्यकी सिद्वि भसंभव है । वृक्षच्छेद कुठारसे ही संभव है । ' आ इरति वायुमिति एरण्डः ' जो वायुका विनाशक वृक्ष है वह एरण्ड कहाला है । एरण्ड तेल तथा मूलकी त्वचा अत्यन्त वायुनाशक होती है। (देहकी विशालता जयका साधन नहीं) अतिप्रवृद्धा शाल्मली वारणस्तम्बो न भवति ॥४५३॥ अत्यन्त पुराना या अति विशाल भी शाल्मली हाथीका बन्धन नहीं बनाया जाता। विवरण- जैसे पुराना विशाल शाल्मलि मकठिन तथा मसार होनेसे हाथी बांधने योग्य नहीं माना जाता इसी प्रकार निर्बल मनवाले लोग चाहे जितने समृद्ध और हृष्टपुष्ट हो जानेपर भी बलवानसे टक्कर लेने योग्य नहीं होते । मनुष्य में बलवद्विरोधके लिये अन्तःसार ( अर्थात् मनो. बल ) होना चाहिये । हार्दिक बल ही संग्रामकी विशेष योग्यता है, भुजबल नहीं । मेदस्वी स्थूल काय लोग कृशकाय निरोग लोगोंके साथ युद्ध छेडकर विजय नहीं पा सकते । शाल्मलीके विषयमें किंवदन्ती है 'पष्ठिवर्षसहस्राणि वने Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१६ चाणक्यसूत्राणि जीवति शाल्मली' शाल्मलीका वृक्ष साठ हजार वर्षतक जीवित रहता है। इसीसे शाल्मलीका दूसरा नाम 'स्थिरायु ' भी है । पाठान्तर- अतिप्रवृद्धा शाल्मलिन वारणस्तम्बः । अतिदीर्घोऽपि कर्णिकारो न मुसली ॥ ४२४ ॥ जैसे कनकचम्पा ( या कनेर ) चाहे जितना लम्बा और मोटा होजानपर भी मूसल बनाने के काम नहीं आता, इसी प्रकार निर्बल मनवालेके पास चाहे जितने भौतिक साधन होजानेपर भी वह वलके काम नहीं कर सकते । पाठान्तर- न दीर्घोऽपि कर्णिकारः मूसलो भवति । विशालकाय भी कनेर मूसल नहीं बन सकता। (निर्बल मनसे बलके काम नहीं किये जाते ) अतिदीप्तोऽपि खद्योतो न पावकः ॥ ४५५ ॥ जैसे खद्योत चाहे जितना दीप्तिमान होने पर भी अपने शक्तिवैकल्यके कारण आगका काम नहीं दे सकता, इसी प्रकार निर्वल मनवालासे बलका काम नहीं हुआ करता। पाठान्तर- अतिज्वलितोऽपि खद्योतो न पावके नियुज्यते । जैसे अति प्रज्वलित भी खद्योत मागके स्थानमें उपयुक्त नहीं होता, इसी प्रकार निर्बलोंसे बल के काम नहीं होते। ( बडोंका गुणी होना अनिवार्य नहीं ) न प्रवृद्धत्वं गुणहेतुः ॥ ४५६ ॥ किसीका किसी बातमें वृद्धि पा जाना उसके गुणी भी होने का प्रमाण या साधक नहीं है । विवरण- किसोका अवस्था धन, विद्या, यश आदिसे वृद्धि पा जाना अतिमान्य, यशस्वी या महावृद्धिसम्पन्न होजाना उसके धीरता, उदरता, Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्तान मातापिताके समान ४१७ संयम, क्षमा आदि मानवोचित गुणोंसे गुणी होनेका प्रमाण नहीं है। कई लोग अवस्थावृद्ध, विधावृद्ध, धनवृद्ध, यशोवृद्ध, भाग्यवृद्ध या संयोगवृद्ध होनेपर भी अत्यन्त निर्गुण होते हैं । कईवार तो देखा गया है कि जहां यश होता है वहां धूर्तताकी ज. पाताल तक गहरी चली गई होती हैं। यश और धूर्तताका प्रायः साथ पाया जाता है । बडप्पन्नोंके पीछ धूर्तताके विराट अड्ड पाये गये हैं । अपाधारण दहिक प्रदर्शन, असाधारण भोजनाडंबर, आत्मभरिता, दिखावटी, त्याग, तपस्या और मुनिवेश धोखकी टट्टियां पाई जातो हैं । इसलिय मनुष्य को इन यशोव्यवसायी बड़े समझे हुए लोगोंसे सावधान रहना चाहिये। किसीका बड़प्पन या यश देखकर मविचारित रूपसे उससे प्रभावित नहीं होजाना चाहिय । घनिष्ट निरीक्षण के पश्चात् ही किसीका विश्वास करना चाहिये । __ ( दुष्प्रकृतिवाले मारवान नहीं बनते ) सुजीर्णोऽपि पिचुमन्दो न शकुलायते ॥ ४५७ ।। जैसे अति पुराना भी नीमका काठ, लचित्र ( चाकृ ) बनाने के काम नहीं आता. इसी प्रकार दुष्ट प्रकृतिके लोग पुराने पडकर भी अपनी सारहीनता नहीं छोड दत और सारवान नहीं बन जाया करते। विवरण-जैसे कुत्ते की पूछ बारह बरस नलकी में रक्खी जानेपर भी अपना टेढापन नहीं त्याग देती इसी प्रकार गुणहीन लोग पुराने होजानेसे अपने दुरभ्यास नहीं त्याग देते । ( सन्तान मातापिताके समान ) यथा बीजं तथा निप्पत्तिः ॥ ४५८ ।। जैसा बीज वैसा फल । विवरण-- जैसी जिपकी कारणशक्ति वैसा उसका फलांवपाक । जैसी बुरी-भली मंत्रणा वैसा ही कार्य । जैसे माता-पिता या समाज वैसे ही २७ (चाणक्य.) Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि बालक । जैसे बोलोगे वैसा काटोगे । इसलिये बीजको सदा शुद्ध निर्दोष बनाकर रखना चाहिये । मातापिता ही बालकोंके बीज हैं। उनके निर्दोष आचरण होनेसे ही देशको ऊँचे मनुष्य मिलने संभव हैं। मानवशिशु जिन या जैसे मातापिताकी गोदमें उतरता है उसमें अनिवार्यरूपमें उन्हींके गुण आते हैं । संयमी असंयमी मातापिताके संयमी असंयमी सन्तति होती है । ४१८ ( बुद्धि शिक्षादीक्षा के अनुसार ) यथाश्रुतं तथा बुद्धिः ॥ ४५९ ॥ जैसी जिसकी शिक्षा होती है वैसी उसकी बुद्धि बनती है । विवरण- इस किये शिक्षा में यह ध्यान रखना आवश्यक है कि विद्यार्थियोंको भ्रान्त इतिहास, भ्रान्त विचार, भ्रान्त चरित्र, पढाया, सुनाया, सिखाया या दिखाया ही न जाय। जिन बालकोंकी शिक्षादीक्षापर राष्ट्रका भविष्य निर्भर है उनके चारित्रिक विकासके विषय में कितनी बडी सावधानीकी आवश्यकता है ? यह बात शिक्षाशास्त्रियोंके सोचनेकी है। ( आचार कुलके अनुसार ) यथाकुलं तथाऽऽचारः || ४६० ।। जैसा कुल वैसा आचार | विवरण - लोगोंके आचार कुलकी आचारपरम्परा के अनुसार होते हैं। जो वंश, धर्म, गुण, गौरवमें जितना सम्पन्न होता है, उस कुलका किकव्यवहार भी उसी प्रकारका उदार होता है । उस कुलमें पले बालकका उदार होना स्वाभाविक होता है । आाचारके कुलाचार, शिष्टाचार, लोकाचार, स्याचार आदि अनेक भेद होते हैं । इसी अभिप्रायसे ' सुत पितृगुणं धत्ते धत्ते मातृगुणं सुता' की लोकोक्ति प्रचलित है । जिस कुलके बड़े लोग सूरज निकलने तक सोते हैं, उस कुलके बालक भी सूरज निकलने तक सोये पड़े रहते हैं। जिस कुलके बड़े लोग खड़े होकर Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्रुव अल्पको मत त्यागो ४१९ मूत्रोत्सर्जन करते हैं उसके बालक भी खडे होकर मूत्र करने में गौरव अनुभव करते हैं । जिस कुटुम्बके बड़े लोग एक थाली में एक दूसरेका जूठा खा लेते और एक पात्र में जूठा पानी पी लेते हैं उस घरके बालकोंको उच्छिष्ट भोजन, धूम्रपान तथा उच्छिष्टपानमें धृणा नहीं रहती। उन्हें पतित रोगियोंकी जूठनकी संभावनावाले साझेके बाजारू पात्रों में पेयपान करने में घृणा नहीं रहती। ( ऊंचेसे ऊंचे विद्यालय कुलाचारसे ऊंचा आचरण नहीं सिखा सकते ) संस्कृतः पिचुमन्दो न सहकारो भवति ।। ४६१ ॥ जैसे गुड आदिके संस्कारोंसे संस्कृत भी निम्बवृक्ष अपनी स्वभाविक तिक्तता त्याग कर आम्रवृक्ष नहीं बन जाता, इसी प्रकार दुर्जन किसी प्रकार भी उपदेश, प्रचार आदि द्वारा दुर्ज. नता त्याग कर सजन नहीं बनता । विवरण- मनुष्य अपनी कुलपरम्परासे ऊंचामाचरण नहीं कर सकता। बालकपनमें अपने उत्पादक कुलसे सीखा हुमा स्वभाव सैकडों यत्नोंसे भी नहीं छटता । जैसे मिट्टीके नये पात्र में सबसे पहले भरी हुई वस्तकी गन्ध उसके अन्तरतम तक समा जाती है और कभी नहीं बदलती, इसी प्रकार बाल्यावस्थामें सीखे कौटुम्बिक संस्कार अपरिवर्तनीय होते हैं । पाठान्तर-सुसंस्कृतोऽपि पिचुमन्दो न सहकारः । ( अध्रुव महान के लिये ध्रुव अल्पको मत त्यागो ) न चागतं सुखं परित्यजेत् ॥ ४६२॥ ध्रुव अल्पसुखको अनागत अध्रुव बृहतके लिये न त्यागे। विवरण-मनुकूल वर्तमानको त्यागकर भनिश्चित भावीकी भाशासे उसके पीछे दौड़कर उभयभ्रष्ट न बने । माया सुख न छोडे । सुअवसर खोना नहीं चाहिये । सुअवसर गाढान्धकारमें प्रकाशदर्शनके समान दुर्लभ Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि हुमा करते हैं । सुअवसर कभी कभी माया करते हैं। सुअवसर सदा प्रार्थनीय और सदा उत्पादनीय होते हैं। परन्तु मनुष्यको सुखके भ्रममें दुःखको नहीं अपना लेना चाहिये। मनुष्य यह जाने कि इस संसारमें सुखकी मूरत लगाकर संसारको ठगते फिरनेवाले दुःखों की न्यूनता नहीं है। ( दुःख मनुष्यकी स्वेच्छास्वीकृत व्याधि ) स्वयमेव दुःखमधिगच्छति ॥ ४६३ ॥ मनुष्य स्वयं ही अपने दुःखोका कारण बना करता है दूसरा नहीं। विवरण-दुःख मनुष्य के अज्ञानसे उत्पन्न हुमा रोगमात्र है। मनुष्यको बाहरवाला कोई दुःख देता है यह उसकी मूढ धारणा है। मनुष्य के पास तत्वज्ञान नामकी एक ऐसी कला है कि वह संसारभरके दुःखों को शर्करालिप्त भोज्यों के मधुर बन जाने के समान सुखरूप में परिवर्तन कर देती है। दुःखको सुख बनाने की जो कला है वही तो तत्वज्ञान है । मनुष्य तस्व. ज्ञानी न होने तक तो दुःख भोगता और तत्वज्ञान होजानेपर दुःखके प्रश्नको समाप्त पाता है। यदि तत्वज्ञान होजानेपर भी दुःखका प्रश्न समाप्त नहीं हुआ तो निश्चय जानो कि तत्वज्ञान वास्तविक नहीं है। श्रम या दानसे लेना भी लेना है और चोरीसे लेना भी लेना है । लेना एक समान होनेपर भी एक लेना सुखका कारण तथा दूसरा लेना दुःखका कारण होता है। उचित मार्गसे आये धनसे मनुष्य सुख पाता तथा अन. धिकारपूर्वक ( अर्थात् चोरी, माया, वंचना मादि गर्हित उपायोंसे ) आये धनसे अपनी ही भूलोंसे दुःख भोगता है। लेना समान होनेपर भी लेनेकी दुर्नीतिसे दुःख तथा लेनेकी सुनीतिसे सुख होता है । लेनेकी दुर्नी. तिसे होनेवाला दुःख उसे किसी दूसरेके देनेसे नहीं होता। इस दुःखका तो मनुष्य स्वयं ही विधाता है । सचमुच मनुष्य स्वयं ही अपने अच्छे बुरे भाग्यका एकमात्र विधाता है । Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रात्रिभ्रमण अकर्तव्य ४०१ ( जीवनका ऊंचा मापदण्ड मनुष्य के सुखका विनाशक ) ( अधिक सूत्र ) स्वयमेव दुःखमधिगच्छति राजचर्यात् । मनुष्य अपनी घनशक्तिसे अधिक राजाओंके आडम्बर (ठाठबाट ) बनाकर अपना व्यय बढाकर अपने आपको दुःखों में फंसा लेता है | मनुष्यका भाग अपने ही हाथमें सुरक्षित या अरक्षित रहता है 1 एतदेवात्र पाण्डित्यं यदायादल्पतरो व्ययः । चतुराई तो यह है कि व्यय आयसे न्यून हो । यः काकिनीमध्यथप्रणष्टां समुद्धरे निष्कसहस्रतुल्याम् । कालेषु कोटिष्वपि मुक्तहस्तस्तं राजसिंहं न जहाति लक्ष्मी । ॥ जो कौडीको भी कुमार्ग से नष्ट न होने देकर सहस्र सुवर्ण मुद्राओंकी भांति बचाता और योग्य समय आनेपर करोडो मुद्राओंको मुक्तहस्त होकर व्यय कर देता है लक्ष्मी उस राजसिंहको कभी नहीं त्यागती । ( रात्रिभ्रमण अकर्तव्य ) न रात्रिचारणं कुर्यात् ॥ ४६४ || रात्रि में भ्रमण न करे । विवरण - रात्रिमें निशाचर दुश्चरित्र मनुष्य तथा हिंस्र पशु निःशंक होकर विचरण करते हैं इसलिए रात्रि भ्रमणसे प्राणसंकट होसकता है । रात्रि में समागत विपत्तिको दिखानेवाला प्रकाश तथा सहायकोंका सान्निध्य न होनेसे उस समय विपत्ति मनुष्यको सहसा पकड़ लेती है और रात्रिकालीन असावधानता से अप्रतिकार्य हो जाती है। रात्रि में विपद्धारक सहायकों का मिलना भी प्रायः कठिन होता है। रात्रिभ्रमण से शरीर में वायुकोप, अग्निमान्द्य, रूक्षता और स्वास्थ्यहानि होती है । Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२२ चाणक्यसूत्राणि ( रात्रि जागरण अकर्तव्य ) न चार्धरात्रं स्वपेयात् ।। ४६५ ।। आधी रात बिताकर न सोये । विवरण - रात्रिके प्रथम याम बीतनेपर सो जाना चाहिये तथा एक याम रात्रि रहते जाग उठना चाहिये केवल मध्यके यामोंमें सोना चाहिये । ब्राह्म मुहूर्त में उठना अत्यावश्यक होनेसे मनुष्य पहले प्रथम यामसे अधिक न जागे । ' ब्राह्मे मुहूर्ते या निद्रा सा पुण्यक्षयकारिणी' ब्राह्म मुहू की नींद पुण्यक्षय करनेवाली है। आधी रात तक जागते रहने से दिनमें सोना अनिवार्य होजाता है जो स्वास्थ्य के लिये हितकर नहीं है । दिनमें सोना आयुर्वेद में प्रायः समस्त रोगका कारण बताया गया है । दिवानिद्रा से बचनेके लिये प्रथम यामसे अधिक नहीं जागना चाहिये । पाठान्तर - न चार्धरात्रं स्वप्यात् । स्वप्यात् पाठ व्याकरणसंगत है । ( जीवनाचार कुलवृद्धों से सीखो ) तद्विद्भिः परीक्षेत ॥ ४६६ ॥ कब सोना, कब जागना, कब खाना तथा कब चलना युक्त है, ये बातें अनुभवी कुलवृद्धों, संभ्रान्त विद्वानोंसे सीखे। विवरण - भविचारशील लोग अपनी दैनिक चर्यामें यथेच्छ व्यवहार करके मिरन्तर रोगी रहते और क्लेश पाते हैं । युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु । युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा ॥ ( भगवद्गीता ) परिमित भाहार विहार करनेवाले युक्त कर्म, युक्त जागरण तथा युक्त शयन करनेवाले के पास दुःखनाशकी कला का बसती है । पाठान्तर - न तद्विपरीक्षेत । दिनचर्यासंबन्धी कर्तव्याकर्तव्यकी परीक्षा में हानिकर विरुद्ध निर्णय न कर बैठे । यह पाठ अपपाठ है । Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असंयमने समाजका भ्रष्टाचार ४२३ ( परगृहप्रवेश अकर्तव्य ) परगृहमकारणतो न प्रविशेत् ॥ ४६७ ॥ विना उचित कारण तथा विना वैध अधिकारके दूसरेके घर में प्रवेश न करे । विवरण - मनुष्य गृहस्वामी की प्रवेशाज्ञा, प्रगाढ परिचय या सुपुष्ट विश्वास होनेपर ही पर-गृह-प्रवेश करे । इन परिस्थितियोंके विना परगृह-प्रवेश संकटपूर्ण तथा अपमानकारी होता है । घर तो उपलक्षण है । दूसरेके स्थान, द्रव्य, शस्य-क्षेत्र, उद्यान आदि में भी प्रवेशानुमति पाये विना जाना अनुचित है। इनमें प्रवेशका अर्थ इनमें से कुछ लेना है | अननुमत, भदत्त, भवैध, स्वखद्दीन वस्तुको लेना चोरी है । धर्मशास्त्रकार तो परद्रव्य चुरानेकी भावनाको भी चोरीमें गिनते हैं । पाप भावना में ही होता है कर्ममें नहीं । 1 ( असंयमने समाजको भ्रष्टाचारी बना दिया है ) ज्ञात्वापि दोषमेव करोति लोकः || ४६८ || लोग अपनी सत्य स्वाभाविक बुद्धिसे अपने कामको बुरा समझते हुए भी परद्रव्य- हरणादि रूप अपराध कर बैठते हैं । विवरण - यहांतक कि राज्यसंस्थाको हथिया बैठनेवाले देशके गिनेचुने चोटी के लोग भी राज्याधिकारका आस्वाद चखते ही अपनी मर्यादा भूल जाते हैं और राष्ट्रकी धरोहर के चोर, डाकू, लुटेरे, लम्पट, ठग बनने में राजशक्तिका जानबूझकर दुरुपयोग करके विधानका भंग करते, संविधानकी प्रतिज्ञाको पददलित करते, 'पयोमुख विषकुम्भ' बनकर जनताको झूठे आश्वासन दे देकर मिथ्याचार करते हैं । 1 ये लोग जनता के अविश्वास भाजन बननेका कोई डर नहीं मानते । ये जनता के अपने दुराचारोंसे परिचित होजानेपर भी निर्लज होकर धुआँधार व्याख्यान दे देकर अपने मुँह मियाँ मिट्ठू बनते फिरा करते हैं । ये लोग Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२४ चाणक्यसूत्राणि अपने हाथों में मा फंसी हुई बासुरी शक्तिके घमंडमें भाकर लोकनिंदाका र नहीं मानते । ये लोग जनमत व्यवसायी चाटुकार पत्रकारोंके स्तुतिलेखोंको ही अपने राज्याधिकारका समर्थक तथा जनमतको दबाकर रखने. वाली भव्यर्थ शक्ति मानकर निर्भर होकर यथेच्छ अत्याचार करके प्रजाको जर्जरित कर डालते हैं । मनुष्य पहले तो दुष्ट स्वभाव बना लेता है और फिर सस स्वभावके अधीन होकर उसीका दीनदास बनकर रहने लगता है। यह मानवजीवनका कैसा निकृष्ट पहल है कि वह जानता हुभा भी दुराभ्यासवश पापमें हाथ डालनेसे अपनेको रोकता नहीं है । मानव कैसा निःसार, कितना पामर, कितना तुच्छ और कितना घृण्य बन चुका है कि अपने मापको भूल करने से रोकनेका सत्साहस तक खोबैठा है। भले बुरेकी पहचान तो सब हो मनुष्योंको है । फिर भी संसारमें भला करने तथा बुरा छोडनेकी सुबद्धिका प्रायः अभाव पाया जाता है । लोग जानते और भली प्रकार जानते हैं कि दूसरेके घर, उद्यान, क्षेत्र आदिमें विना उचित अधिकारके नहीं जाना चाहिये फिर भी जाते हैं। लोग जानते हैं कि राजशक्तिको हाथमें लेकर राज्याधिकारका दुरुपयोग करके उससे व्यक्तिगत स्वार्थीका साधन नहीं करना चाहिये, फिर भी लोग कार्या. र्थियोंपर राजशक्तिका दबाव देकर अन्यायपूर्वक उपार्जन करना नहीं छोरते । मानवकी यह प्रवृत्ति मानवजाति के भयंकर अधःपतनका दुष्ट उदा. हरण है। इसका अर्थ हुआ कि साधारण मानव अपने ऊपरसे संयम खोबैठा है। फलं पापस्य नेच्छन्ति पापं कुर्वन्ति यत्नतः। फलं पुण्यस्य चेच्छन्ति पुण्यं नेच्छन्ति मानवाः ॥ लोग पापके फलोंसे तो घृणा करते परन्तु पाप बडे यत्नसे करते हैं। लोग पुण्योंका फल तो चाहते हैं परन्तु पुण्य करना नहीं चाहते । सोचिये तो सही कि मानवका कितना अधःपतन होचुका है। Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकाचारका आधार (लोकाचारका आधार ) शास्त्रप्रधाना लोकवृत्तिः ॥ ४६९॥ लोकाचार शास्त्रके आधारपर ही प्रचलित हुए हैं। विवरण-लोगोंको चाहिये कि वे स्वेच्छाचार-मूलक प्रवृत्तियों को हानिकारक समझकर उनसे बचकर रहें । शास्त्रविधिके अनुपार कार्याकार्य. विवेक करके कार्यों में प्रवृत्त हों। शास्त्र तीन प्रकारका है पहला शास्त्र- ऋगादिशास्त्र । सन्तों के नश्वर देशका अन्त होजाने पर भी उनके अनुभवों से लाभ उठाते रहने के लिये शास्त्रोंकी मष्टि हुई है। भ्रम, प्रमाद, विप्रलिप्सा इन तीन दोषों से हीन होकर लिखी गई पुस्तके शास्त्रश्रेणी में आती हैं। दूसरा शास्त्र- 'तद्विद्वद्भिः परीक्षेत' में वर्णित है। व्यवहारपारं. गत ज्ञानवृद्धोंका जीवित अनुभव भी शास्त्र कहता है ।। तीसरा शास्त्र- पलं हि शास्त्रमिन्द्रिय जयः' में वर्णित हुअा है । अपनी इन्द्रियोंकी भोगाभिलाषाओं या कण्डतियोंका मनुष्यपर माधिपत्य में होकर उन मनपर मनुष्य के विवेकका ही पूरा पूरा भाधिपत्य हो और उसकी इन्द्रियशक्तियों का जीवन-यात्रामें केवल सदुपयोग ही सदुपयोग हो, यह भी एक महान् जीवित शास्त्र है । मानवकी प्रवृत्ति इन तीनों प्रकार के शास्त्रोके पूर्ण नियन्त्रणमें हो इसी में उसका कल्याण है। बोधायनके शमोंमे शिष्ट वे हैं जो वेदह रागद्वेषादि-परित्यागी, ईर्ष्या, अहंकार, कपट, लोभ, तृष्णा, शंका, क्रोधसे हीन हैं । जो दस दिन मात्र अनसे सन्तुष्ट है, ईश्वर-भान, पितृमातृ-भक्ति करते हैं। शान्त प्रकृति हैं । स्वतंत्रता- प्रिय हैं । असूया कटुपनसे अतीत स्पष्टभाषी, कृतज्ञ, धार्मिक तथा स्थिर हैं वे शिष्ट कहाते हैं। शिष्ट वही है जिसके मानसिक, वाचिक तथा कायिक आचरण माठों पहर व्यर्थताके कलंक से मुक्त रहते हैं। जिसका एक भी माचरण न्यर्थताके लपेट में आ जाता है वह कदापि शिष्ट नहीं है। पाठान्तर-शास्त्रप्रघाना लोकप्रवृत्तिः । लोककी प्रवृति शास्त्रमधान होनी चाहिये। Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि ( शास्त्राभावमें शिष्टाचार ही शास्त्र) शास्त्राभावे शिष्टाचारमनुगच्छेत् ॥ ४७०॥ जिसे शास्त्रका ज्ञान न हो या जिसका विवेच्य विषय शास्त्र में अवर्णित हो वह शिष्टाचारको माने। विवरण- सूत्र कहना चाहता है कि श्रुति, स्मृति, इतिहास, पुराण, धर्मशास्त्र न जाननेवाले लोग धर्मिष्ठ विद्वानों के आचरणोंको ही शास्त्रोपदेशके समान प्रमाण मानकर तदनुसार आचरण करें। मनुष्य जाने कि धार्मिक लोगोंके आचरण ही तो शास्त्रों में लिखे हुए हैं । इसीलिये धर्मशास्त्रों में वर्णित शिष्टाचार, कुलाचार, देशाचार, स्त्र्याचार आदि धर्म में प्रमाण माने हैं। न पाणिपादचपलो न नेत्रचपलो मुनिः । न च वाग्भंगचपलो इति शिष्टस्य लक्षणम् ॥ शिष्ट वे हैं जिनके हाथ, पैर, नेत्र, वाणी आदि चपल न होकर मानव. जीवनके लक्ष्य में पूर्ण संयत हैं । शिष्ट वे हैं जो न मनधिकृत काममें हाथ लगाते, न अनधिकृत स्थानपर पैर रखते, न पापदष्टि से किसीको देखते और न किसीसे असंयत भाषण करते हैं। शिष्टोंका समाजको धर्मभावना सिखानेका जो महान् उत्तरदायित्व है उसे ध्यानमें रखकर वे लोग मति सावधान जीवन बिताते हैं। (शिष्टाचार शास्त्रसे अधिक मान्य ) नाचरिताच्छास्त्रं गरीयः ॥४७१।। शास्त्रका महत्व शिष्टाचारसे अधिक नहीं है। विवरण- शास्त्रका व्यावहारिक रूप ही तो शिष्टाचार है। यही कारण है कि शास्त्र और शिष्टाचारके विरोध शिष्टाचार ही प्रामाणिक और अनु. सरणीय माना जाता है । शास्त्र लोगोंको इतना नहीं सिखाता जितना शिष्टा. चार सिखाता है। शास्त्रानभिज्ञ लोग भी शिष्टाचार-परम्पराके अनुसार धार्मिक जीवन बिताते चले जाते हैं । शिष्टाचार शास्त्र-ज्ञान प्राप्त न कर Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संसार मेषमनोवृत्ति है सकने वालोंका मार्गदर्शक होता है। शिष्टाचार जीवित शास है । यह समाजरूपी जीवित ग्रन्थके भाचरणरूपी पृष्ठोंपर लिपिबद्ध होकर ममिट शास्त्र बना रहता है। (राजाकी दूरदर्शिताका साधन ) दूरस्थमपि चारचक्षुः पश्यति राजा॥ ४७२॥ राजा अपने दूतोंकी आंखोसे दूर दूर देश-विदेशकी बातें समीपस्थके समान जान लेता है। विवरण- गौवें गन्धसे, मनुष्य मांखसे, विद्वान् बुद्धिसे और राजा दूतोंसे देखा करते हैं। गावो गन्धन पश्यन्ति वेदैः पश्यन्ति ब्राह्मणः । चारैः पश्यन्ति राजानश्चक्षुामितरे जनाः ॥ गौवें गन्धसे खाद्याखाद्य पहचानती, ब्राह्मण वेदसे कर्तव्य पहचानते, राजा चारों ( गुप्तचरों, दूतों) से राष्ट्र परराष्ट्र की वस्तुस्थिति को समझते तथा साधारण लोग मांखोंसे अपना गन्तव्य मार्ग पहचानते हैं । ( संसार मेपमनोवृत्ति है ) गतानुगतिको लोकः ॥ ४७३ ।। साधारण लोक (विचारशील न होकर ) गतानुगतिक (भेडा चाल ) होता है। विवरण- बुद्धिमान् लोग प्रकृत विषयपर पूर्ण विचार कर, अहितकर मार्ग त्यागकर हितकरको अपनाते हैं । मूढ लोग प्रकृत विषयपर स्वयं कोई विचार न करके, दूसरेके चाहे या कहे अनुसार आचरण करते हैं। उनके पास वस्तु-विवेक करनेवाली बुद्धि नहीं होती । वे सब कुछ संसारकी देखादेखी करते हैं। वे घुडदौडके घोडोंके समान लोकप्रवाहमें दौरा करते हैं। Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि कालक्रमेण जगतः परिवर्तनीया। चक्रारपंक्तिरिव गच्छति लोकपंक्तिः ॥ (भारवि ) भागे पीछे पंक्ति (डार ) बनाकर उडमेवाले सारस पक्षियोंके समान लोग प्रवाहके पीछे दौडा करते हैं, वे सब कुछ लोक दृष्टान्तोंको ही आधार बनाकर करते हैं । लोक ही उनका शास्त्र होता है। संसारमें देवी और मासुरी दो प्रकारकी प्रवृत्तियाँ सदासे चली भारहीं हैं। शुभप्रवाहमें प्रवाहित होनेवाले लोग शुभकर्मी और अशुभप्रवाहमें प्रवाहित होनेवाली प्रजा अशुभकर्मी हो जाती है । सर्वसाधारणके लिये विचारपूर्वक काम करना शक्य नहीं होता । साधारण प्राणी सोचकर काम नहीं करता । वह तो करके सोचता है । करके सोचनेका परिणाम पश्चात्ताप और दुःख होता है। परन्तु साधारण जनताके पास इस दुःखदायी मार्गसे बचनेकी बुद्धि नहीं होती और वह दुःख-परम्परामें ही उलझी पडी रहती है । जो व्यक्ति स्वयं हिताहितविचारसे शून्य है उसके गतानुगतिकतासे शुभकर्मा दीखनेपर भी उसके शुभ चरित्रका, ज्ञानपूर्वक न बनाकर अकस्मात् कोई साकृति बना डालनेवाले घुन (कीट ) के निर्मित माकारके समान तबतक कोई मूल्य नहीं है जबतक वह स्वयं विचारवान् बनकर शुभाशुभमेंसे अशु. भको जानबूझकर त्यागकर शुभको जानबूझकर नहीं अपनाता । समाज के विवेकी लोग ही गतानुगतिक समाजको सन्मार्ग दिखाने के उत्तरदायी होते हैं । जब कहीं गतानुगतिक लोगों को कुमार्गगामी होता पामो वहीं समझ जाओ कि इस देशका विवेकी समाज अपने आपको समाजके सामने लानेमें असमर्थ ही रहा है और उसे सन्मार्ग दिखाने के धोकेसे कर्तव्यभ्रष्ट करनेवाले कपट महारमा लोग गुप्त बनकर नैष्कर्म्यका मिथ्या सन्तोष भोग रहे हैं । समाजके विवेकी लोग समाजकी सम्पत्ति होते हैं । विवेकिताका दम भरनेवाले लोगोंको सामाजिक चारित्रिक हानि करनेका कोई भाधिकार नहीं है । सच्चे विवेकिओंकी विवेकिताको समाजसेवामें उपयुक्त कराना समाजका वैध अधिकार है । इसको विवेकीके Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संसार में बुद्धिमानका कर्तव्य कन्धोंपर चढा हुआ ऋषि ऋण कहा जाता है । समाजमें विवेककी परंपरा प्रवाहित किये बिना विवेकी लोग इस ऋणसे उऋण नहीं हो सकते । जब लब्ध- प्रतिष्ठ गतानुगतिकों को सन्मार्ग-प्रदर्शनका कर्तव्य करनेवाले विवेकी लोग विलुप्त हो जाते हैं, तब केवल साधारण जनता ही नहीं राजशक्ति भी कुमार्गगामी होकर लोकचरित्रको कलुषित करने लगती है । ऐसे प्रामादिक अवसरों पर विवेकी लोगोंकी सामर्थ्याधीन कर्तव्य - शीलता ही समाजकी ध्रुव-ज्योति होती है। ऐसे समय राष्ट्रके विवेकी लोगोंका कर्तव्य होता है कि वे अपनी संगठित शक्तिसे राजशक्तिको सुधारने के लिये सुदृढ अव्यर्थ उपायोंको काममें लायें । यदि समाजके विवेकी कहलानेवाले लोग भी राजशक्तिको सुधारनेके लिये आगे न बढ़ें तो उन्हें भी मासुरिकता के समर्थक कर्तव्यमूढ अविवेकियों की असुर-श्रेणीमें सम्मिलित होनेका अपराधी समझना चाहिये । नीरक्षीर विवेके हंसालस्यं त्वमेव तनुषे चेत् । विश्वस्मिन्नधुनान्यः कुलवतं पालयिष्यति कः ॥ ४२९ ओ राजहंस ! यदि नीरक्षीर विवेकमें तू ही आलस्य करने लगेगा तो बता संसार में और कौन कुरुव्रत पा लेगा ? (मेषमनोवृत्ति संसार में बुद्धिमानका कर्तव्य ) (अधिक सूत्र ) जीविभिस्तस्मिन्नाजीवेत् । अपने मानवजन्म की सफलता चाहनेवाले मनुष्य मानवजीवियों अर्थात् भोजन- भोग-परायण, उदरम्भरि लोगों की श्रेणी के साथ मिलकर अपने जीवनको गतानुगतिकतामें प्रवाहित न हो जाने दें। अपने जीवनको सफल करनेका इच्छुक मनुष्य अपने प्रत्येक कर्मके शुभाशुभ परिणामोंपर पूर्ण सतर्क दृष्टि रखकर कर्म से आत्म-कल्याणकी संभावनाके सुनिश्चित होनेपर ही किसी कर्मको अपनाये । Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३० चाणक्यसूत्राणि विवरण- मनुष्यकी प्रकृति ससे सदा ही कर्म करनेकी प्रेरणा देती रहती है। मनुष्य चाहे या न चाहे कर्म तो उसे विवश होकर करना ही परता है। उसे तो केवल कर्मकी नीति-निर्धारण करने की स्वतंत्रता है। विचारशील मनुष्यको अपनी कर्म करनेकी प्रवृत्तिपर अपने मानव-जीवनके लक्ष्यका पूर्ण नियंत्रण रखकर ही अपनी कर्मप्रवृत्तिको व्यावहारिक रूप लेने देना चाहिये, नहीं तो अपनी उस लक्ष्य-विरोधी कर्म करने की प्रवृत्तिको लक्ष्यानुकूल मार्गमें परिवर्तित कर डालना चाहिये और लक्ष्यारुढ रहना चाहिये। (स्वामिनिन्दा अकर्तव्य ) यमनुजीवेत्तं नापवदेत ॥४७४॥ मनुष्य अपने उपजीव्य (जिसके सहारे जीविकार्जन करता हो उस ) की निन्दा न करे। विवरण-- ऐसा करनेसे जीविकाका ग्याघात होता है । यह समस्त संसार धन, पुण्य, धर्म, जीविका भादिके प्रसंगोंमें उपकार्य-उपकारक तथा ऊंचमीच भावसे परस्पर बँधा रहकर ही निर्विघ्न चल सकता है। उपजीन्यकी विन्दासे उपजीवि तथा उपजीम्यका यह संबंध टूटकर जीवनयात्राका विघ्न बन जाता है। ऐसे अनिष्टकारी प्रसंगोंसे बचनेका एकमात्र उपाय वाक्संयम है। क्या बोलना, क्या नहीं बोलना ! यह परिणाम तक सोचे बिना एक भी वाक्य न बोलनेसे इस प्रकारके संकटोकी उत्पत्ति स्वयमेव रुक जाती है। वाणीपर विजय पानेसे मनुष्य विश्व-विजय पा लेता है। यदीच्छसि वशीकर्तुं जगदेकेन कर्मणा। परापवादसस्येभ्यो गां चरन्ती निवारय ॥ यदि तुम एक ही कामसे विश्व-वीकार करना चाहो तो अपनी वाणीरूपी गौको परनिन्दारूपी दूषित सस्य मत खाने दो। Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इंद्रियनिग्रह जीवन की विशेषता ___४३१ (इन्द्रियनिग्रह जीवनकी परमविशेषता ) तपासार इन्द्रियनिग्रहः ॥ ४७५ ॥ जितेन्द्रियता ही तपस्याकी सार ( सर्वस्व निचोड, जान या प्राण ) है। विवरण- मनुष्योंकी, लोगोंकी तथा राजकर्मचारियों की ज्ञानेन्द्रिय तथा कर्मेन्द्रिय उनके कर्तव्य-पालनमें विघ्न डालनेवाली मोग-लालसानों की पूर्ण उपेक्षा करने लगी हों, वे अपनी बालसाओं को कर्तव्य-पालनका विघ्न न बनने देती हों, वे उन्हें कर्तव्य-पालनसे रोकने में असफल होने कगी हों, यही उन ( राज्याधिकारियों ) की ( जप, तप, योग, ध्यान, भजन, कीर्तनरूपी) समस्त तपस्याभोंका निचोड है। यदि मनुष्यों राजकर्मचारियों या लोगों के जीवन में कर्तव्य हार या दब गया हो और भोगलालसा या इन्द्रिय. लोलुपता प्रबल हो गई हो तो उनकी सारी तपस्या फूटी कौडीके भी मूख्यकी नहीं रहती। वनेऽपि दोषाः प्रभवन्ति रागिणां । गृहेऽपि पंचेन्द्रियनिग्रहस्तपः ॥ अनुत्सिते कर्मणि यः प्रवर्तते । निवृत्तरागस्य गृहं तपोवनम् ॥ अनिन्द्रियविजयी विषयानुरागी लोग वोंके एकान्तों में भी दोषों की क्रीडास्थली बन जाते हैं। यदि मनुष्य घरमें रहकर या जीवनरक्षार्थ उद्योग करता हुआ इन्द्रियोंपर वशीकार पाकर रहे और उन्हें अपने सिद्धान्तका वध न करने दे तो वह तप कर रहा है । जो मनुष्य अनिन्दित माचरण कर रहा है और ग्यवहारको ही परमार्थ बनानेमें लगा हुआ है उस निवृत्तराग पुरुषका तो पारिवारिकोंसे भरपूर घर ही एकान्त तपोभूमि बन जाता है। __ तपोवन किसीको तपस्वी नहीं बना देता। तपोवनमें जा बसनेसे कोई तपस्वी नहीं बन जाता। किन्तु तपस्वी लोग समाज-कल्याणकारी कर्तव्य के माह्वानसे जब जहां जाते और रहते हैं तब वहीं उनका तपोवन बन जाता Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३२ चाणक्यसूत्राणि है । जो तपोवन समाज-कल्याणरूपी कर्तव्य से हीन होते हैं वे तपोवन कहानेवाल स्थान भी स्वच्छाचारी पतित जीवनकी लीलाभूमि होते हैं । चाणक्य के स्त्री-सम्बन्धी अग्रिमसूत्र अपराधी, आक्रान्त, पीडित, मनाथ, स्थानच्युत स्त्रियोंसे प्रसंग पडनेवाले गजकर्मचारियोंकी भोग-लोलुपताके संबन्धमें सावधान वाणीके रूपमें लिखे जा रहे हैं। मन्तगामी विचार ज कर सकनेवाला मनुष्य-समुदाय स्त्रो-सुखसे माबद्ध रहता है । राज्यशक्ति हाथमें भाजानेपर इस सूखेच्छाके उच्छृखल, उच्छास्र, उन्मर्याद हो जानेकी पूरी संभावना रहती है। इसीलिये ऊपरवाले सूत्रोंमें इन्द्रियनिग्रह की महिमा गाई जा चुकी है। उसीके पश्चात् इन्द्रियाधीन होने के प्रसंगोंसे रोकने के लिये अगले सूत्रों को माना पड रहा है। सांसारिक सुख इच्छामाग्रसे प्राप्त नहीं होते । घे इच्छा होनेपर भी दुर्लभ तथा संकटपूर्ण होते हैं। मनुष्यका सच्चा इन्द्रिय-सुख इन्द्रिय-संयममें ही छिपा रहता है, असंयममें नहीं। मनुष्य इन्द्रियसुखको भी इन्द्रिय-निग्रहसे ही प्राप्त कर सकता है, भोग-लोलुपतासे नहीं। अज्ञान-विजय ही ज्ञानानंद है। लोलुप लोग संयत ऐहिक सुखोंसे वंचित होजाते हैं। पाठान्तर-- तत्सार इन्द्रियनिग्रहः । __ जीविका चलाने या जीवन धारण करनेका सार अर्थात् महत्व इन्द्रिय. निग्रह ही है। यौवनं धनसंपत्तिः प्रभुत्वमविवेकिता । एकैकमप्यनर्थाय किमु यत्र चतुष्टयम् ॥ यौवन, एश्वर्य, प्रभुत्व और अविवेक इन चारों में से एक भी किसीके पास हो तो वही महा अनर्थ कर डालता है । जिसके पास संयोगसे चारों इकट्र हो जाएँ तो उसके विनाश भोर असफल हो जानेमें कोई सन्देह नहीं है। अविवेक सर्वावस्थामें अनर्थकारी है। अविवेकीका यौवन, धन या प्रभुता उसकी दुष्प्रवृत्तियोंको ही साधन बनती है । इन सब दृष्टियों को ध्यान में रखकर इन भग्रिम सूत्रोंका अभिप्राय समझना चाहिये । इन्हें स्त्री. निन्दाके रूप में लेना अभिप्राय विरुद्ध होगा। Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पापों तथा उत्पातोंका मूल ४३३ ( असाधारण मनोबलका काम ) दुर्लभः स्त्रीबन्धनान्मोक्षः ॥ ४७६ ॥ स्त्रीसंबन्धी भोगका बन्धन सम्मुख आनेपर उससे अपनेको बचा सकना असाधारण मनोबल और तपस्याका काम है । वेधा द्वेधा भ्रमं चक्रे कान्तासु कनकेषु च । तासु तेष्वप्यनासक्तः साक्षाद्भर्गो नराकृतिः ॥ वेधाने कान्ता और कनक दो स्थानों में भ्रमका आधान किया है। उनमें कान्ता और कांचनमें अनासक्त मानव मानव नहीं नराकृति महादेव हैं। यदि राज्यशक्ति - सम्पन्न लोग अपने को इस बन्धन से बचाकर नहीं रक्खें तो उनके मानवस्वके सम्मानका नष्ट होना तथा उनका राज्यसे भ्रष्ट हो जाना अनिवार्य है | राजकाजी लोग अपने जीवन में भोगपक्षको उपेक्षापक्ष में रखकर ही सफल शासक बन सकते हैं । ( स्त्रीबन्धन समस्त पापों तथा उत्पातों का मूल ) स्त्रीनाम सर्वाशुभानां क्षेत्रम् ॥ ४७७ ॥ स्त्री सर्वाशुभका क्षेत्र है । स्त्रीसंपर्क समस्त प्रकारकी विपत्तियों, शत्रुताओं तथा पातित्योंका कारण वन जाता है । विवरण - रामायणकी घटना, महाभारतका गृह कलह, पृथ्विराजजयचन्द्रों का विनाश तथा यवनोंके खोलोभसे अनेक वार विध्वस्त हुआ। राजस्थान इसका साक्षी है । इसलिये यह सूत्र राज्यसंस्थामें काम करनेबालोंसे कहना चाहता है कि राज्यसंस्था तथा राज्यसंस्थाका निर्माता राष्ट्र श्रीकारणोंसे आनेवाली विपत्तियों से बचे रहने के लिये खीजाति के संबंध में अपने कर्तव्य के विषय में पूर्ण सचेत रहे । यदि मनुष्यसमाज स्त्रीजातिको अज्ञानान्धकारमें रखकर उन्हें भोगसाधनमात्र बनाये रखकर उन्हें अपने दाथकी कठपुतली बनाये रक्खेगा, तो इससे जहाँ देश पथभ्रष्ट होगा वहाँ २८ (चाणक्य. ) Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३४ चाणक्यसूत्राणि पुरुषसमाज स्वयं भी पथभ्रष्ट होकर भ्रष्टा स्त्रियोंके हाथों की कठपुतली बने विना नहीं रहेगा। मनुष्यसमाजका प्राचीन तथा अर्वाचीन इतिहास या तो स्त्रीलोभ या स्त्रीप्रेरणाके कारण उत्पन्न हुई राष्ट्रीय, सामाजिक, पारिवारिक तथा व्यक्तिगत विनाशों या कलहों घटनाओंसे भरा पड़ा है। इसका एकमात्र प्रतिकार यही है कि मनुष्यसमाजमें ज्ञानका प्रचार किया जाय और उसे व्यक्तिगत कल्याणको सामाजिक कल्याणमें विलीन करना सिखा दिया जाय । भ्यक्तिगत कल्याणको सामाजिक कल्याणमें विलोन कर देना हो मनुष्यताका संरक्षक आदर्श है। न च स्त्रीणां पुरुषपरीक्षा ।। ४७८॥ स्त्रीणां मनः क्षणिकम् ॥४७९॥ पाठान्तर-स्त्रीणां हि मनः क्षणिकमेकस्मिन्न तिष्ठति। (विचारधर्मा लोगोंका स्त्रियोंसे कर्तव्यमात्रका संबन्ध ) अशुभद्वेषिणः स्त्रीषु न प्रसक्ताः (प्रसक्तिः) ॥४८०॥ अशुभद्वेषी अर्थात् समाजहितमें अपना हित समझनेवाले लोग स्त्रैण न बनें। विवरण- वे स्त्रियों में मासक्त न होकर उनके साथ केवल कर्तव्यका संबन्ध रक्खें । स्त्री-प्रसक्तिसे बचे रहनेसे मनुष्यता, यश तथा सुप्रजा प्राप्त होती है और बुद्धि प्रखर हो जाती है। अत्यासक्तिसे स्त्रीपुरुष दोनों पतित होजाते हैं। पाठान्तर- अशुभवेशाः स्त्रीषु न प्रशस्ताः । (आत्मवेत्ता ही वेदज्ञ हैं) यज्ञफलज्ञास्त्रिवेदविदः ॥४८१॥ त्रिवेदविद अर्थात् वेदश वे लोग हैं जो समस्त यशोंके फल ( फलस्वरूप परमेश्वर, औपनिषद् पुरुष या आत्मस्वरूप) को ठीक-ठीक पहचान चुके हैं। Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुखोकी अस्थायिता विवरण- जो लोग आत्मतत्वको नहीं समझते, वे किसी भी प्रकार वेदज्ञ नहीं हैं । धन्य हैं वे लोग जिनके जविनसत्र (यज्ञ) का रूप धारण करके बेकी टीका या भाष्यरूप होकर संसारके लोगोंके सामने पाठ्य ज्ञान - ग्रन्थोंका का रूप लेकर रहने लगे हैं । ऐसे लोगों के जीवन संसारान्धकार में भटकनेवाले लोगोंके लिये ज्ञानदीपका काम करते हैं। इस सूत्रमें अथर्ववेदको ऋग्यजुः साममें अन्तर्भाव करके चारों वेदोंको त्रिवेद कहा है । प्रत्यक्षेणानुमित्या वा यस्तूपायो न बुध्यते करनेवाला जो तं विदन्ति तु वेदेन तस्माद् वेदस्य वेदता ॥ वेदका वेदस्व इसी बात है कि मानव- -जीवनको सफल उपाय प्रत्यक्ष या अनुमानसे न जाना जासके वह उससे ज्ञान लिया जाय । व्यवहार में शुद्धि स्वरूप-बोध ( कि मैं कौन हूँ, दूसरे कौन हैं, संसार क्या है ? इनसे मेरे क्या संबन्ध हैं यह बात ठीक समझ लेने) से ही मानवजीवन सफल होता है । ईश्वरबोधसे ही जीवन में पवित्रता भाती है । ईश्वर मानवजीवनको अनिवार्य आवश्यकता है । यही कारण है कि संसारभर में ईश्वरकी कल्पना पाई जाती है। मानवजीवनको मनुष्यतामें ढालनेका जो सांचा है वही तो ईश्वर है । जिस समाजकी जैसी ईश्वरकल्पना होती है उस समाजका वैसा ही चरित्र होता है । मनुष्य की ईश्वरकल्पनामें जहां दोष रह जाता है वहीं उस समाजका चरित्र दूषित होजाता है । इसका अर्थ यह हुआ। कि संसारकी जो जाति आज चरित्रहीन हैं उनकी ईश्वरकल्पनामें ही दूषण है 1 ४३५ ( सुखोंकी अस्थायिता ) स्वर्गस्थानं न शाश्वतम् ( यावत्पुण्यफलम् ) ॥४८२॥ कर्मोपार्जित दैहिक सुखभोग सदा नहीं रहा करते । विवरण- वे उस दिन नष्ट होजाते हैं जिस दिन उसे देनेवाले पुण्य भोगानुकूल कर्मोंका प्रभाव क्षीण होजाता है । मानव सुख-भोग समाप्त Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३६ चाणक्यसूत्राणि होनेपर अपनेको दुःखमग्न निराश्रय अवस्थामें पाता है। भौतिक सुखनाशके पश्चात् निराशाको घोर अंधेरी रातें अविचारशील मनुष्यके सामने मा खडी होती हैं । ऐसे समय यदि मनुष्यके निराशासे टूकटूक होनेवाले भमहृदयको बचानेवाली कोई शाश्वत वस्तु इस संसारमें है तो वह भारतीय ऋषियोंका ढूंढा हुभा मारमस्वरूपका परिज्ञान हो है । इसे पा लेनेपर फिर मनुष्यको हताश, निराश, दुःखी और साहसहीन होना नहीं पड़ता। पारम. स्वरूपको जान लेना ही आत्माको पा लेना है । ज्ञानार्जित अम्रियमाण सुख ही शाश्वत पद है । इसीके विषयमें श्रीमद्भगवद्गीतामें कहा है - नेहाभिकमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते । स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात् । स्वरूपज्ञान ऐसा ज्ञान है जो प्रारंभ तो होता है परन्तु फिर नष्ट होना नहीं जानता । स्वरूपावबोधके इस मार्गमें पाप,ताप आदि नामोंवाले दुःख नहीं रहते। इस धर्मका थोडासा भी आचरण मनुष्यको अज्ञानरूपी महा. भयंकर संसार-भय से बचा लेता है । पाठान्तर- स्वर्गस्थानं न शाश्वतम् । ( भोगानुकूल कर्मके प्रभावका काल ) ( अधिक सूत्र ) यावत्पुण्यफलं तावदेव स्वर्गफलम् । जबतक पुण्यफल भोगानुकूल कर्मका प्रभाव रहता है तबतक हो स्वर्गफल ( भोग सुख ) रहता है। विवरण- जैसे तीरमें जितनी शक्ति भरकर फेंका जाता है वह उतनी शक्तिके समाप्त होनेपर गिर जाता है, इसी प्रकार पुण्य ( भोगानुकूल ) कर्मकी जितनी मात्रा होती है उसी परिमाणसे सुखको मात्रा बनती है। भौतिक फलाशासे किये हुए कर्मका अनुकूल फल उसे ( सुखको ) देनेवाले नाशवान पदार्थक बने रहने तक रहता है। किन्तु फलाकांक्षारहित कर्मकी प्रेरिका जो शुद्ध भावनारूपी अनासक्ति होती है वह चिरस्थायी होती है। वह नष्ट नहीं होती। उसका माधुर्य तो कभी भी समाप्त नहीं होता। Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सबसे बड़ा दुःख ४३७ ( सबसे बडा दुःख ) न च स्वर्गपतनात् परं दुःखम् ॥ ४८३॥ साधारण मानवके लिये भौतिक सुख-नाशसे बढकर कोई दुःख नहीं होता। सुखाच्च यो याति नरो दरिद्रतां, धृतः शरीरेण मृतः स जीवति । प्राप्त भौतिक सुखों का विनाश, पहले कभी सुख न मिलनेसे अधिक दुःखदायी होता है । आँख पाकर उन्हें खो बैठनेवालेको जन्मान्धकी अपेक्षा मधिक कष्ट होता है । सदासे नगदीन अँगूठी उत्तनी बुरी नहीं लगती जितनी नग निकाली हुई लाती है । सुखका नियम है कि वह दुःखोंको भोग लेने के पश्चात ही मीठा लगता है। ___सुखं हि दुःखानुभूय शोभते ।' जो मनुष्य दुःखों की जान कर बेच्छाले भोगता है अर्थात् मापात दृष्टि से अष्टप्रद समझ तपस्वी जीवनको अपना स्वभाव बना लेता है उसके पास जीवनभर दुःख नहीं फटकता। उसे सुखकी भावश्यकता ही नहीं रहती। उसे सुखकी आवश्यकता न रहना ही उसका सुखी होना होजाता है । सुखाभिलाषी लोग अनिवार्यरूपसे दुःखद्वेषी होते हैं । सुख सुखाभिलापियों के पास से सदा ही ( नियमसे ) अनुपस्थित रहते हैं। अभिलाषाका यह नियम है कि वह जिसके साथ लग जाती है उसे ही अनुपस्थित बना डालती है । मुखके साथ अभिलाषाका सम्बन्ध होते ही सुख मानवजीवनमें से अनुपस्थित होजाता है। इसी प्रकार दुःखद्वेषीके पाससे दुःख कभी नहीं हटते। मूढ अश्वको डरानेवाली उसीकी छायाके समान दुःख मनुष्यकी एक काल्पनिक बिभीषिका है। जो दुःखसे डरता है, दुःन (अपनेसे डरने. वालोंको ही चिपटनेवाले भूतोंके समान ) उसीको जा चिपटता है। दुःखको Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि दुःख न मानकर उसे संसारकी नियमावलीका एक अकाट्य अंग मानकर कर्तव्यबुद्धिसे सामर्थ्याधोन प्रतिकार या सहनें करने से ही दुःखकी दुःख दायिता मिटाई जा सकती है । दुःख संसारसे हट नहीं सकता । मनुष्यको बुद्धि हो तो वह दुःखोंके विषय में अपना दृष्टिकोण, परिवर्तित करके उन्हें दुःख - कोटि में से निकाल बाहर करके कर्तव्यका अवसर मानकर सच्चे सुखी हो सकते हैं। इस प्रकारका बुद्धि-परिवर्तन किये बिना अपनी संसारयात्राको दुःखसे रीता नहीं बनाया जा सकता । कुछ लोग इस प्रकारके होते हैं जिन्हें न सुखकी इच्छा होती है और न कभी दुःखोंसे डरते हैं । ये लोग सुखके साथ ' आगते स्वागतं कुर्याद् गच्छन्तं न निवारयेत् ' वाली नीति अपनाकर उनकी ओरसे निर्विकार रहकर अपने इस शतवार्षिक जीवनयज्ञ में अपनी कर्तव्य पालनकी आहुति डालते चले जाते हैं और अपने जीवनको अमर सनातन विश्वव्यापी जोवनमें विलीन देखनेकी कलाकी पुनः पुनः आवृत्तियाँ करते रहते हैं । ४३८ ये लोग प्राकृतिक प्रबन्धानुसार अपने पास आनेवाले भोतिक दुःखों को कर्तव्यबुद्धिसे व्यर्थ करते हुए भी उनके छूटने न हटनेके प्रति निरपेक्ष बने रहते हैं । ये लोग अपनेको जानबूझ कर तपस्वो, संयमी, सहिष्णु, कठोर जीवन में आबद्ध रखकर दुःखद समझी हुई अवस्थाओं को अपना मधुभक्षण जैसा रुचिकर स्वभाव बना लेते हैं और जीवनभर सुखदुःखातीत नित्य सुखी रहने की कलाका आनन्द लेते रहते हैं । ऐसे लोगोंका न तो कभी स्वर्गसे पतन होता है और न कभी दुःखरूपी नरक इनके पास तक आनेका साहस करते हैं । - अपने देश में इस प्रकार के सुखदुःखातीत विश्वविजयी मनुष्य उत्पन्न करना देश के शिक्षा - शास्त्रियोंका उत्तरदायित्व है । साधारण मानवकी स्वर्गकल्पनाकी भयानक मूर्तिके संबन्ध में भर्तृहरिने कहा है- ' विपाकः पुण्यानां जनयति भयं मे विमृशतः ।' मैं जब पुण्यके विपाकपर विमर्श करने बैठता हूँ, तो मुझे बडा भय प्रतीत होता है । पुण्यसे सुख, सुखसे प्रमाद, प्रमादसे पाप, पापसे दुःख, उससे पुण्यवासना, " उससे पुण्य Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानव सुख चाहता है " और फिर सुख प्रमादादि । यों यह समाप्त नहीं होता। मुझे इस चक्रपर झूलते रहनेवाले बालकों के समान घूमते लगी है । मैं तो सुखदुःख दोनोंका बन्धन तोड डालना चाहता हूँ । वास्तविकता यह है कि भौतिक सुख पाना नामकी कोई भी अवस्था मानव के लिये स्पृहणीयें नहीं होनी चाहिये । कर्तव्यपालना ही एकमात्र वह अवस्था है जिसकी मानवको स्पृहा होनी चाहिये । भौतिक सुखोंका तबतक कोई मूल्य नहीं है जबतक मनुष्यका मनुष्योचित मनोविकास या उसे ज्ञानलाभ न हुआ हो । मनुष्य यह जाने कि जबतक वह संसारकी सच्ची परिस्थिति, आवश्यकता और लक्ष्यको नहीं समझ लेगा तबतक उसका सुख-नाश तथा दुःख - प्राप्तिका रोना कभी समाप्त नहीं होगा । पाठान्तर --- न च स्वर्गफलं दुःखम् । ४३९ पुण्यपापोंके परिपाकका चक्र कभी भारूढ होकर चक्करवाले झूलेपर रहना मूढ अवस्था प्रतीत होने स्वर्ग व स्थिति है जिसमें दुःख नहीं होता । अथवा दुःख स्वर्ग अर्थात् सुकृतका फल नहीं है । ( मानव केवल वर्तमान में सुख चाहता है ) देही देहं त्यक्त्वा ऐन्द्रपदं न वांछति ॥४८४ ॥ arter देह इतनी आसक्ति होती है कि वह वर्तमान देह छोडकर ऐन्द्रपद तक लेना नहीं चाहता । विवरण- इससे पाठक मानवका यह स्वभाव समझने का प्रयत्न कर कि मानव ( देहधारी ) मरकर सुखी होना नहीं चाहता । मरकर सुख चाहनेकी उसकी इच्छा उधारी और काल्पनिक है । भौतिक सुखके लिये मृत्यु वरण अस्वाभाविक स्थिति है । पाठान्तर देही देहं त्यक्त्वा ऐन्द्रपदं वांछति । जैसे भारवाही ग्रीष्मयात्री विश्राम के लिये शीतळ छायाबाले वृक्षमूल में जाना चाहता है इसी प्रकार संसारी दुःखोंसे पराभूत अज्ञानी मानव Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि जीवनभर अपनी वर्तमान स्थिति से ऊँचे सुखवाली स्थितिकी इंदमें मारामारा फिरा करता है । ४४० पर्वतयात्रीको निरंतर दीखती चली जानेवाली अगली अगली पर्वतमालाओं के समान सुखान्वेषी मानवको एकसे एक अच्छे सुखोंके आकर्षण दीखते चले जाते हैं और उसके मनमें दाव - दाइ प्रज्वलित करते चले जाते हैं। सांसारिक सुखभोगोंकी अन्तिम स्थिति या उनसे पूर्ण तृप्ति नामकी कोई अवस्था संसार में नहीं है। सुखभोगों की कोई सीमाको इयत्ता या मर्यादा नहीं है। यही देखकर भोगी प्राणीने समस्त भौतिक सुखोंके प्रतीक के रूपमें ऐन्द्रपद या मरनेके पश्चात् मिलनेवाले स्वर्गकी कल्पनाके रूपमें मानवके संसार-तापष्ठ हृदयको मिथ्यासान्खना देनेका एक निष्फल प्रयत्न किया है। मनुष्य सुखका ययार्थ रूप न समझकर सुखविषयक अंधी भावनाके पीछे मारा-मारा फिरता है । उसकी इस वृथा भटकका कारण उसका सुखविषयक अज्ञान ही है । पाठान्तर देहं त्यक्त्वा ऐन्द्रपदं न वाञ्छन्ति । संसारी लोग संसारी सुख त्यागकर देवराजका पद तक नहीं चाहते ! ( मनकी बन्धनहीन स्थिति दुःखोंकी एकमात्र चिकित्सा ) दुःखानामोषधं निर्वाणम् ॥ ४८५ ॥ मोक्षलाभ करते हुए जीवन बिताना ही दुःखोंका एकमात्र प्रतिकार है । विवरण -- निर्वाण ( अर्थात् प्रयत्न या तत्वज्ञानसे दुःखोंका अंत कर डालना ) ही दुःखोंकी औषध है । सुखदुःखसे अप्रभावित स्थिति लेकर उदार, वीर, व्यवहारकुशल, प्रशस्त जीवन बिताना ही दुःखोंकी यथार्थ चिकित्सा है । वन्धन से मुक्त होजाना या अबद्ध रहना ही निर्वाण या मुक्ति है । बन्धन और मुक्ति दोनों सापेक्ष शब्द हैं। बन्धन या मुक्ति परस्परविरोधी मानसिक स्थितियोंके दो नाम हैं । बन्धन और मुक्तिका परस्पर वध्यघातक सम्बन्ध और वध्यघातक सम्बन्धमूलक सहभाव है। सुखदुःख के Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानव सुख चाहता है विषय में जो मनुष्यका अज्ञान है वही तो उसकी बंधनकी स्थिति है । सुखदुःख के विषय में मनुष्यका अभ्रान्त ज्ञान ही उसकी मुक्तिकी स्थिति है । जीवित देह इन्द्रियभोग्य साधनोंकी अनुकूलतापर निर्भर है । देहरक्षाका जो असाधारण अभिप्राय है वह भोग भोगना नहीं किन्तु अक्षयसुख या मोक्ष पा लेना है । मानवका देह भोगसाधन न होकर मोक्षका ही साधन है । भोग और अशान्ति या भोग और अतृप्ति अथवा भोग और मानसिक असन्तोषका नित्य साथ है । बन्धन मानव-जीवनका लक्ष्य नहीं ४४६ | मानवका मन बन्धनका स्वाभाविक विरोधी तथा मुक्तिका स्वाभाविक पक्षपाती है । बन्धनमें रहना मानवदेहके लक्ष्यसे विरोध करनेवाली स्थिति है । भोगप्राशिके लिये देह-रक्षा करना मनुष्यका कर्तव्य नहीं है । किन्तु अक्षय, अमर, सनातन, नित्य, अद्वैत सुखका अधिकारी बननेके लिये देवरक्षा करना मनुष्यका कर्तव्य है । मनुष्यको देह-रक्षा के लिये जीवनोपकरणोंका संग्रह करना पडता हैं । परन्तु उसे इस संग्रह सुख-दुःखका वरण अनिवार्य रूप से करना पडता है। मनुष्यका साधन-संग्रहरूपी कसे सुखदुःखों में से किसी एकको उत्पन्न किये बिना नहीं रहता। निर्वाण, मोक्ष या दुःखनिवृत्ति ( किसी भी नामसे कह लीजिये) इसी बात है कि देव धारणमात्र के लिये किये जानेवाले कर्मको दुःखोसाइक न बनने देकर सुखोपादक बनाकर रक्खा जाय । इस काम के लिये यह बात सही रहनी चाहिये कि देव रक्षाका उद्देश्य क्षुद्र सुख न होकर अक्षय सुख है । जब मनुष्य देहरक्षा के उद्देश्य मोक्षनामक अक्षयसुखको तो अपनी दृष्टिसे बाहर खड़ा कर देता है और देहको ही भोक्ता बनानेकी भ्रान्ति कर लेता है, उस समय मनुष्यका सुखसाधन संग्राहक कर्म लक्ष्यच्युत होकर सुख-साधन-संग्राहक न रहकर भोग-संग्राहक होजाता है। 1 यह तो सब जानते हैं कि भोगाकांक्षाका कोई अन्त नहीं है । भोग्यसंग्रह जिस मात्रासे किया जाता है वह उसी मात्रा में भोगाकांक्षारूपी Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि आगकी आहुति बनकर भोगानिका ही प्रज्वालक बनता चला जाता है । भोगानिको भोगेन्धनों से तृप्त या निर्वापित नहीं किया जा सकता । इसे तो भोगाकांक्षा के परित्याग से ही बुझाया जा सकता है । स्पष्ट बात यह है कि मनुष्यका मन भोगाकांक्षाको ही दुःख तथा उसके त्यागको ही सुखके रूप में जान ले तब ही सुखदुःखातीत मोक्षधर्मपर आरूढ हो सकता है । वह उस समय देह-रक्षा के लिये जो भी पुरुषार्थ करता है, वह क्योंकि विवेकके नेतृत्व में होता है इस कारण वही सच्चा पुरुषार्थं होता है । इसके विपरीत जो पुरुषार्थ विवेकहीन होता है वह भोगाकांक्षी मानवके लिये भ्रान्त सुखान्वेषण के रूपमें उसे बींध डालनेवाला अनन्त दुःख - जाल बन जाता है । ४४२ भौतिक अभावों को अपने अदस्य भौतिक प्रयत्नोंसे दूर करनेका सामधीन संतोष कमाकर मानसिक दुःखका अपने विवेकसे अन्त कर डालना ही दुःखोंकी पूर्ण चिकित्सा है। पुरुषार्थ तथा विवेक दोनों ही मानव के लिये समान रूपसे अपेक्षित हैं । विवेकके विना केवल पुरुषार्थ से मनुष्यको शान्ति मिलनी संभव नहीं है। विवेक पुरुषार्थकी मर्यादा बना देता है । निर्ममयि पुरुषार्थ करनेवाला मनुष्य अपनी विषयाभिलाषाको बढाता चला जाता और जीवनभर दुराशाकी दावाग्निमें झुलसता रहकर अन्तमें नष्ट होजाता है । पुरुषार्थपर विवेकका शासन रहने से मनुष्यको असीम, अनुचित या शक्तिबाह्य पुरुषार्थ करने की भ्रान्त इच्छा ही नहीं होती । व्यवहार - भूमिसे दूर खडे हुए पुरुषार्थद्दीन कोरे विवेकके पास कर्मक्षेत्र न होनेसे वह मनुष्यको यथार्थ सुख उत्पन्न करके नहीं दे सकता । यही बात ईशोपनिषद् में इस प्रकार कही है अन्धं तमः प्रविशन्ति येऽविद्यामुपासते । ततो भूयइव ते तमो य उ विद्यायां रताः ॥ ( ईशावास्य ) जो केवल पुरुषार्थ में रत हैं, वे घोर अन्धेरे में धक्के खाते हैं। उनसे भी अधिक धक्के वे खाते हैं जो ( कोरे अव्यावहारिक ) ज्ञानमें मस्त पडे रहते हैं । ज्ञानके साथ तो व्यवहार - भूमि चाहिये और व्यवहार - भूमिके Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनार्यसंबन्ध अकर्तव्य ४४३ साथ नियामक ज्ञान चाहिये । इसका यह अर्थ हुभा कि संयम रखने तथा प्रतिकार करते रहने से मनुष्य के भौतिक तथा आध्यात्मिक दोनों ही प्रकार के दुःख हटाये जा सकते हैं । एक ही प्रकारके दुःखों के पीछे न पडकर दोनों ही प्रकारके दुःखोंको हटानेका समन्वित उद्योग करना मानवका कर्तव्य है। अथवा-निर्वाण ( अर्थात् सुखदुःखसे अप्रभावित स्थिति लेकर उदार वीर व्यवहार-कुशल प्रशस्त जीवन बिताना ) ही दुःखोंकी यथार्थ चिकित्सा है। बात यह है कि भौतिक दुःख इस संसारकी अटल घटना है। वे लाख हटानेपर भी मनुष्यके देहेन्द्रियोंके पास से नहीं हटते । उन्हें केवल मनसे हटाया जा सकता है । उन्हें मन में से हटाने का एकमात्र उपाय निर्वाण या मुक्तिकी स्थितिको अपनाय रहकर जीवन बिताना है । अपना कम्यपालन तो करना, परन्तु उस कतव्यसे किसी कामनाके बन्धनमें न रहना ही मुक्ति है। निष्काम स्थिति ही दुःखातीत स्थिति है। मनुष्यका जो दुःखरूपी भवरोग है वह सांसारिक सुख पानेसे नहीं मिटता । यह रोग तो तत्वज्ञान या साक्षात्काररूपी महोषधसे ही मिटता है । जीवन्मुक्तिकी अवस्थामें जीवन बिताने लगना हो संसारी तापोंको निवृत्तिका एकमात्र उपाय है। संसारी ताप मानव-जीवनमें से टल ही नहीं सकते। मनुष्य इन तापमयी घटनाओंको दुःखश्रेणीसे निकाल बाहर करे, इन्हें दुःखोंका नाम ही न देकर इन्हें प्राकृतिक घटनामात्र मानकर सुखदुःखातीत होकर उच्च मानसिक स्थितिमें कालयापन करे यही दुःखोंकी एकमात्र रामबाण औषध है। तत्वसाक्षात्कार रूप औषध के विना दुःखरोग कभी भी नष्ट होनेवाला नहीं है । (अनार्यसंबंध अकर्तव्य ) अनार्यसंबन्धादूरमार्यशत्रुता ॥ ४८६ ॥ अनार्योंसे सौहार्द बढानेसे आर्योंकी शत्रुता अच्छी है। विवरण- इसका अर्थ यह है कि मायावी, कपटी, धूर्त मित्रसे कतम्या. कर्तव्य-विवेकी शत्रु अच्छा होता है। मूर्ख ही मनुष्यसमाजका शत्रु है Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४४ चाणक्यसूत्राणि और ज्ञानी ही उसका परम मित्र है । ज्ञानकिी भोरसे कभी किसी अनिष्टकी शंका नहीं है। मूर्खकी ओरसे कभी किसी भलाई या हितकी आशा दराशा है। दस्यु, तस्कर, पामर लोगोंसे कुछ भौतिक लाभ उठानेसे तो यह अच्छा है कि मनुष्य भौतिक लाभसे वंचित रहे। इस प्रकारके हीनलाभ भाते ही माते अच्छे लगते हैं परन्तु ये हानि किये विना नहीं मानते । सत्पुरुषों के संगसे भौतिक लाभ न होनेपर भी शान्ति तो निश्चित होती है। असाधु. समागम दुग्ध तथा अम्ल के संबन्धके समान हानिकारक होता है। इस विषम संबन्धसे दग्धका दग्धत्व ही नष्ट होजाता है । साध-समागम दुग्ध तथा मिष्टके समागम जैसा समसंबन्ध होता है और सुखद होता है। इस संगमसे दुग्ध में माधुर्यकी वृद्धि हो जाती है । मार्य तथा अनार्य विवेकी और अविवेकीके पर्यायवाची शब्द हैं। अविवेकी के पास हिताहितबुद्धि नहीं होती । विवेकी वह है जिसमें हिताहितबुद्धि होती है । विवेकी मित्र सब समय हिताहितबुद्धि से शून्य होकर अनिष्ट ही किया करता है। कोई भी बुद्धिमान् अविवेकी मित्रपर विश्वास करके निश्चित नहीं रह सकता। इसलिये विवेकी मनुष्य किसीको मित्ररूपमें स्वीकार करके भी जर उसकी विवेकिताके संबन्ध में पूर्ण सन्तोष पा लेला है तब ही उसका मिन्न जैसा विश्वास करता है। यदि उसे उसके अविवेकी होने का प्रमाण मिल जाता है तो वह उसे अपने मित्रत्व से वंचित कर देता है। इस सुत्रकी भाषासे यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि क्या कभी कोई विवेकी किसी विवेकीसे शत्रुता कर सकता है ? इसका समाधान यही है कि कोई भी विवेकी जानबूझकर अपने जैसे विवेकीसे शत्रुता कर ही नहीं सकता । यदि कोई विवेकी दैववश लोक-चरित्रकी अनभिज्ञताके कारण किसी विवेकीके अपापविद्ध शुद्ध हृदयका परिचय न पाकर, उसके बाह्य व्यवहा. रमें संदिहान होकर, उसे शत्र समझ बैठे और उससे शत्रु जैसा बर्ताव भी कर डाले तो भी वह शत्रु समझा हुभा विवेकी व्यक्ति उसके साथ जो कोई बर्ताव करेगा वह माक्रामक बर्ताव न होकर भात्मरक्षात्मक होगा। Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संसारका महत्वपूर्ण सुख इस सूत्रका मभिप्राय अपने पाठकोंके केवल मूर्ख मित्रसे बचाने तक सीमित है । इसका यह अभिप्राय कदापि नहीं है कि शत्रुता करनी हो तो विवे. कीके साथ करनी चाहिये । मूर्खसे मित्रता जोडने तथा मूढताको दृढताके साथ निन्दित ठहराने के लिये ही विवेकी शत्रुकी उत्तमताको उपमाके रूप में उपस्थित किया गया है। (निन्दित कुलोत्पन्न का चिन्ह ) निहन्ति दुर्वचनं कुलम् ॥ ४८७ ॥ दुर्वचनसे कुलके गौरवका नाश होजाता है। विवरण- दुर्वचन वक्ताके कुलको कलंकित कर देता है। वचनकी निर्दोषता ही मनुष्य के उच्च कुलका प्रमाणपत्र है। दुर्वचनी लोग अपने कुलको निश्चितरूपसे कलंकित घोषित कर देते हैं। मुख से वचन निकलते ही सबसे पहले वक्ताके कुल का परिचय मिलता है कि यह कैसे कुल में पला है ? मनुष्यका व्यक्तिगत परिचय तो पीछेसे होता है। सूत्र कहना चाहता है कि वक्ता लोग वचन बोलते समय अपने कुलके गौरवका ध्यान रखकर बोलें। पाठान्तर-नाति दुर्वचनं कुलम् । यह पाट अर्थहीन है। ( संसारका महत्वपूर्ण सुख ) न पुत्रसंस्पात् परं सुखम् ॥ ४८८॥ पुत्र-लाभ सांसारिक सुखों में सर्वोत्तम सुख माना जाता है । विवरण- इस सृष्टि के विधाताने अपनी सृष्टि-परम्पराको चलाने तथा मातापितासे पुत्रोंको पलवाने के लिये उन्हें पुत्र मोह नामकी सुदृढ रज्जुओंसे बाँधा हुआ है। इसी प्रबन्धसे यह सृष्टि-परम्परा चल रही है । यदि संसारमें पुत्र सुख नामकी वस्तु न होती तो सृष्टि-परम्पराका चलना ही पसं. भव हो जाता। पिताको दुःखमयी या पापमयी स्थिति से उबारनेवाला ही पुत्र नाम पानेका अधिकारी है। Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४६ चाणक्यसूत्राण ( अन्धा विरोध अकर्तव्य ) विवादे धर्ममनुस्मरेत् ॥ ४८९ ॥ विवाद ( कलह ) के समय धर्मको भूल मत जाओ । धर्मको कलहके समय भी अपनाये रहो । विवरण - मनुष्य विवाद के समय धर्मको अपनाये रहे तो किसीपर अन्याय और अत्याचार करनेसे बचा रह सकता है । विवादका शान्ति पूर्वक निर्णय तब ही होता है जब निर्णायक धार्मिक हो । विवाद के समय अन्धा होकर किसीका विरोध न करना चाहिये । एक आँख से लडना चाहिये और दूसरीसे अपना कर्तव्य - शास्त्र देखते रहना चाहिये । अन्धा विरोध मनुष्यका आत्मघात है । धर्म स्मरणसे ही विवादको मर्यादाका ज्ञान होता है । मनुष्य धर्ममर्यादाके विस्मरणसे ही अन्याय और अत्याचार करता है । पाठान्तर-- विवादे कार्यमनुस्मरेत् । विवाद के समय अपना मुख्य लक्ष्य ध्यानमें रक्खे । उसपर आंच आनेवाली बात न होने दे । ( दैनिक कर्तव्यों पर चिन्ताका काल ) निशान्ते कार्यं चिन्तयेत् ॥ ४९० ॥ मनुष्य रात्रिका विश्राम समाप्त हो जानेपर ( ब्राह्ममुहूर्त में ) अपने दिनभर करनेके समस्त कामोंका (आदिले अन्ततक सांगोपांग ) विचार किया करे । विवरण -- प्रभातकाल या ब्राह्ममुहूर्त के समय मनुष्य की बुद्धिवृत्ति सतेज उद्भावनशील तथा नवीन होती है । उस समय शरीर, इन्द्रिय तथा मन तीनों स्वभावसे स्थिर, स्वस्थ और शान्त होते हैं। कार्य-चिन्ता या दैनिक कार्यक्रम बनानेका काम अत्यन्त गंभीर है । यह काम कार्यकी अधि कता से मनके व्यग्र या चंचल हो जानेपर दिन के समय उतना अच्छा होना संभव नहीं है । निशान्तचिन्ता के विषय में मनुने कहा है Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनाशोन्मुखका चिन्ह ४४७ ब्राह्म मुहूर्ते बुध्येत धर्मार्थों चानुचिन्तयेत् । कायालेशांश्च तन्मूलान् वेदतत्वार्थमेव च ॥ कल्याणार्थी मानव सूरज निकलनेसे लगभग एक घंटा पहले नींद त्यागा कर जाग उठा करें और उस समय स्वस्थ मनसे सबसे पहले अपने मानसिक उत्थानके लिये किये जानेवाले आजके सामाजिक कर्तव्योंका स्वरूप निर्धारित किया करे तथा उनकी उपायादि चिन्ता करे। फिर अपनी व्यक्तिगत जीवन-यात्राके संबन्ध दिनमें करणीय कर्तव्यपर दृष्टि डाले । उसके पश्चात् शरीरको रोग-मुक्त स्वस्थ रखने तथा रोगजनक कारणोंके संबन्धमें सोचे । इतना कर लेनेके पश्चात् कुछ कालतक वैदिक ज्ञानके सर्वस्व मारमाके स्वरूपपर प्रतिदिन गंभीर विचार करे कि मैं कौन हूँ? दूसरे कौन हैं ? उनसे क्या सम्बन्ध है ? इत्यादि। __ अथवा-निशान्त शब्द एकान्त शान्त स्थान तथा राधिके अन्तकका भी वाचक है। तथा सूत्रार्थ यह है कि राजा लोग एकान्तमें शान्त स्थानपर जहाँ कोई अनधिकारी मन्त्रणाको सुन न सके मन्त्रणा करें। अथवा वे भी रात्रिके अन्त में ही मनके स्वाभाविक रूपसे स्थिर होनेपर अपने विचार. णीय विषयपर गंभीरतासे सोचें । कामकी अधिकतासे मनके चंचल होजाने. पर दूसरे किसी समय कार्य-नीति-निर्धारण या मन्त्रणाके कामका उतना अच्छा होना संभव नहीं। प्रदोषे न संयोगः कर्तव्यः ॥ ४९१ ॥ (विनाशोन्मुखका चिन्ह) उपस्थितविनाशो दुर्नयं मन्यते ।। ४९२ ॥ जिसका विनाश उपस्थित होता है (जिसके बुरे दिन आते हैं ) घही अनीतिको अपनाता है। विवरण- विनाशोन्मुखकी बुद्धि नष्ट होजाती है । अनीति या दुष्ट नीति स्वयं ही विनाश है । मनुष्य समुपस्थित साधनोंकी नीतिपूर्ण रक्षा Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि करे । लब्धव्योंका वैध ( उचित ) यत्नसे अर्जन करे तथा प्राप्तोंका विवेक से उपयोग करे । यदि मनुष्य अपनी नीति - दीनता से अपने संचित साधनक्की रक्षा, जीवनार्थ आवश्यक पदार्थोंका अर्जन और अर्जितोंका सदुपयोग नहीं करेगा तो क्लेश, दीनता तथा बुद्धिमान्य उसे आ चिपटेंगे । ( वृथा कर्म त्याज्य ) ४४८ क्षीरार्थिनः किं करिण्या ॥ ४९३ ॥ जिसे दूधकी आवश्यकता है वह हथिनीको लेकर क्या करे ? विवरण- उसे तो गोपालन करना चाहिये। अपने प्रयोजनके उपयोगी द्रव्योंका ही संचय करना चाहिये, अप्रयोजनीयका नहीं । मनुष्य कोई भी वृथा काम करे | वृथा कार्मोसे बडे अनर्थ आ खड़े होते हैं । ( सर्वोत्तम वशीकार ) न दानसमं वश्यम् ।। ४९४ ॥ दान जैसा लोकवशीकार दूसरा नहीं है । विवरण- घनी लोग दानरूपमें धन के सदुपयोगसे समाजका दित और कीर्तिका उपार्जन तथा उपकृतपर वशीकार पा लेते हैं । ( पराधीन वातों में उत्कण्ठा वर्जित ) परायत्तेषूत्कण्ठां न कुर्यात् ।। ४९५ ।। तुम्हार जा पदार्थ दूसरोंके हाथमें फँस गये हा, उन्ह पानक लिए उतावले मत बनो। उन्हें पाने के उपाय करने चाहिये । इस संबन्ध में उत्कंठासे अपनी शक्तिपर श्रद्धाहीन नहीं होना चाहिये । दूसरेकी शक्तिपर निर्भर मत रहो । परहस्तगत अधिकारके पुनरुद्धार के लिए दुश्चिन्ता या निराशा छोड़कर धैर्य के साथ दृढ प्रयत्न करो । उतावलापन शक्तिहीनता है । Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पापीके धनका दुरुपयोग ४४९ विवरण- जब अपनी अधिकृत वस्तु अपने प्रमाद या असामर्थ्य से दूसरेके अधिकारमें चली जाय और उसके पुनरुद्धारका कोई उपाय अपने पास शेष न रहे, तब मनुष्य यह जानकर उस संबन्धी विचारके प्रवाहको शेक दे कि अब मेरा इस संबन्धमें कोई कर्तव्य शेष नहीं रहा। बात यह है कि कर्तव्य बहिभूत चिन्ता दुश्चिन्ता होती है । दुश्चिन्ता हो भशान्ति है। अपने मनको शान्त रखना ही संभव और सफल प्रयत्नका मार्गदर्शन अपने मामाधीन कर्तव्य है। उस समय उस अपहृत वस्तुके संबन्धमें मनमें किसी प्रकारकी उत्कण्ठाको स्थान देकर कर्तव्यहीन चंचल नहीं होजाना चाहिये । चांचल्य कर्तव्यका विन्न है ।। अथवा-- दुसरेके हाथकी बात के संबन्धमें उत्कण्ठा या स्वरासे काम मत लो। दूसरा अपनी परिस्थिति से विवश होकर कभी कभी उसमें देर भी कर सकता है ! ऐसे समय उसे अपनी अधीरता दिखाकर चंचल तथा म मत करो । प्रत्येक काम करने के निराले ढंग तथा सुभाते होते हैं उनका ध्यान रखकर इस संबन्ध में धीरतासे काम लो और शान्तिसे तीक्षा करो। (पापांके धन का दुरूपयोग ) असत्समद्धिरसद्भिरेव भुज्यते ।। ४९३ ।। चुरोको सम्पत्ति (या बुरी सम्पत्ति ) बुगहीकी भोग्य बना करती है। विवरण--- गहित उपायोल उपार्जित धनक! कु. और कुकर्ममें श्य होना अनिवार्य होता है। पर- पोदा, चोरी, उत्कोच, अनुचित लाभ, वचन, अपहरण आदि उपाय धनागमनके गति उपाय हैं। गर्हित उपायसि प्राप्त धनका निन्दित में व्यय होना अनिवार्य है। उचित उपायोसे आया धन ही उचिन कार्यों में व्यय होता है । सिद्धान्तपूर्वक उपार्जित चनका सिद्धान्तपूर्वक गय होना अनिवार्य है। वृद्ध चाणक्य ने कहा है-- २९ चाणक्य.) Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५० चाणक्यसूत्राणि संचितं कृतुषु नोपयुज्यते प्रार्थितं गुणवते न दीयते । तत्कदर्थं परिगतं धनं चोरपार्थिवगृहेषु भुज्यते ॥ अनुचित उपायोंसे उपार्जित कृपणका धन न तो किसी शुभकर्ममें व्यय होता है और न किसी गुणीके अभाव अभियोग पूरा करनेमें काम आता है । वह या तो चोरके या राजाके घर खाया जाता है । निम्बफलं काकैर्भुज्यते ॥ ४९७ ॥ जैसे नीमका निन्दित कटु फल कौवोंके ही काम आता है इसी प्रकार अशिष्ट उपायासे उपार्जित धन चरित्रहीन लोगोंके ही निन्दित भोगों में काम आया करता है । इसलिये मनुष्य उचित उपायोंसे धनोपार्जन करे जिससे जीवन-यात्रा भी हो और मनका उत्कर्ष भी हो। यात्रा-मात्र- प्रसिद्धयर्थ स्वैः कर्मभिरगर्हितैः । अक्लेशेन शरीरस्य कुर्वीत धनसंचयम् ॥ ( मनु ) मनुष्य केवल जीवन-यात्रा चलाने योग्य, सो भी अपने अनिन्दित शुभ कर्मोसे, शरीरको संकट में डाले बिना धनसंचय करे । ( पापी धन सज्जनके काम नहीं आता ) नाम्भोधिस्तृष्णामपोहति ।। ४९८ ।। जैसे समुद्रका खारा पानी किसी भी प्यासेकी प्यास बुझा नेके काम नहीं आता. इसीप्रकार अशिष्ट उपायोंसे उपार्जित धन किसी भी अच्छे काममें अर्थात् किसी भी सच्चे अधिकारीकी कामना पूरी करने के काम नहीं आ सकता । ( बुरे अच्छे कामोंमें धनव्यय नहीं कर सकते ) बालुका अपि स्वगुणमाश्रयन्ते ॥। ४९९ ।। जैसे बालुका अपने रूक्ष कर्कश स्वभावको ही पकड़े रहती हैं, इसी प्रकार कोई भी असत् मनुष्य अपना स्वभाव नहीं छोडत Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भले बुरोंसे हिलमिलकर नहीं रहते ४५१ और अपने गर्हित उपायोंसे उपार्जित धनको सत्यार्थ सदुपयोग करनेको उद्यत नहीं होता। विवरण- किसीसे स्वभाव विरुद्ध पाशा नहीं की जा सकती। अभद्र पुरुष अपने धनका सदुपयोग कर दे ऐसी आशा करना बालुकासे तेल पाने जैसी बन्ध्या इच्छा है। ( भले बुरोंसे हिलमिल कर नहीं रहते ) सन्तोऽसत्सु न रमन्ते ॥ ५०० ।। भद्र पुरुष अभद्र पुरुषोंके साथ हिलमिल कर नहीं रहा करत। विवरण- भद्र पुरुष सद्र लोगों के ही साथ संग करते हैं। मनुष्य समाजजीवी प्राणी है । सत् और असत् दो प्रकारका मनुष्य-समाज होता है। जिसके जैसे साथी होते हैं. उसका स्वभाव वैसा ही होता है। जिसका जैसा स्वभाव होता है उसके साथी भी वैसे ही होते हैं । विपरीत स्वभाव. वाले परस्पर मिलकर नहीं बैठा करते । पाठान्तर- न सतां मूर्खषु रतिः । न हंसाः प्रेतवने रमन्ते ।। ५०१ ।। जैसे हंस श्मशान में नहीं रमते, इसी प्रकार गुणी लोग अयोग्योके संगमें रहना स्वीकार नहीं करते। विवरण- गुणी लोग एकान्ता अज्ञात जीवन बिता देना तो स्वीकार कर लेते हैं परन्तु बुरी संगतमें रहना कभी स्वीकार नहीं करते। कुसुमस्तबकस्येव द्व वृत्ती तु मनस्विनः । मूनि वा सर्वलोकस्य विशीर्यत वनऽथवा ॥ मनस्वी लोग वनमें खिले कुसुम- स्तबक के समान या तो लोगों के शिरोधार्य होकर रहते हैं या वन में पड-पडे सूख जाते हैं। Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२२ चाणक्यसूत्राणि शान्तिप्रिय मनुष्य का स्वभाव अनुद्वेगकारी, शान्त, अनुकूल स्थान में बहना स्वीकार करता है, उद्वेगकारी अशान्त प्रतिकूल में नहीं । भलको बुरे वातावरणमें रहने से उद्वेग होता है । बुर्रोको अच्छा शान्तिपूर्ण वातावरण सहन नहीं होता । न विना परवादेन रमते दुर्जनो जनः । काकः सर्वरसान् भुक्त्वा विनाऽमेध्यं न तृप्यति ॥ दुर्जनों की चौपाले परनिन्दासे मुखरित रहती हैं। उन्हें परनिन्दा के विना रोटी नहीं पचती । काक पड्स खाकर भी जबतक विष्ठा नहीं खा लेता तबतक उसका मन नहीं छकता ( संसार भोजन और भोग में जीवन नष्ट कर रहा है ) अर्थार्थं प्रवर्तते लोकः ॥ ५०२ ।। सारा संसार अर्थके लिये कर्ममें प्रवृत्त होता है । विवरण - सबको जानना चाहिये कि अर्थ जीवनका साधनमात्र ही है परन्तु लक्ष्य नहीं है। क्योंकि लोग जीवनका लक्ष्य निश्चित करनेसें भ्रांति कर लेते हैं इसीलिये ये असदुपायोंसे बनार्जन करने लग जाते हैं ! जब मनुष्य श्रान्तिवश इन्द्रियसुखको ही जीवनका लक्ष्य बना लेते हैं, तब उनके मनका इन्द्रिय-दास बन जाना स्वाभाविक होजाता है। कामना तथा दुःख ये दोनों इन्द्रियों की दासताके ही नाम हैं । जो मनुष्य इन्द्रिय-सुखको जीवनका लक्ष्य बनाकर धनोपार्जन करते हैं, उनका धन सुख-साधन न रहकर दुः खसाधन रह जाता है। वह अपने ही उपार्जित वनसे दुःख मोल लता चला जाता है। उसका धन अनुपायसे अर्जित होनेके कारण असत्यसेवारूपों दुःखवरणमें दो दुरुपयुक्त होता है। इसके विपरीत जिसके जीवनका लक्ष्य इन्द्रियोंपर मनको प्रभुता सुप्रतिष्ठित रखना होता है, अनिवार्य रूपसे सदुपायोंमें ही धनार्जन करता है। उसके जीवनका लक्ष्य जिस किसी प्रकार धनार्जन कर लेना न होकर सदुपायसे ही धनार्जन व६ Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भोगमें जीवन नष्ट कर रहा है करना होता है । मनपर सत्यकी प्रभुताको सुप्रतिष्ठित रखना ही उसका लक्ष्य होता है। वह सत्यस्वरूप प्रभुकी सेवाको द्वार बनाकर धनोपार्जन भी करता और उसे सत्यकी सेवामें लगाकर अखण्ड सुखमयी चिरशान्तिका उपार्जन भी कर लेता है। याग, दान, औषध, जीवन यात्रा मादि समस्त कामों के अर्थाश्रित होनेसे संसारकी धनार्थी प्रवृत्ति स्वाभाविक है । परन्तु स्वाभाविक होनेपर भी'अति सर्वत्र वर्जयेत् ' के अनुसार मनुष्यकी इस प्रवृत्ति में अतिके माते ही उसके समस्त मानवीय गुणों का पर्वनाश होजाता है । अर्थपरायण मनुष्य भूल जाता है कि "धन तो एक साधन है। धनके सदुपयोगसे साध्य, शान्ति या सुस्व ही मानवजीवन का लक्ष्य है । इस लक्ष्यको खो देनेपर धन का कोई भी मूल्य नहीं है । जो धन मानवजीवनके लक्ष्य, शान्ति या उसके मानवोचित गुणों का विरोध करके माता है वह उसकी मनुष्यताके गलेपर छुरी चलाता है। ऐसा धन प्राणों का जंजाल बन जाता है और ग्राह्य न होकर त्याज्य होजाता है।" __ सब मानते हैं कि धन जीवनकी अत्यावश्यक वस्तु है। परन्तु धन ही तो सब कुछ नहीं है। मानवजीवन में मानवोचित गुणों का ही तो धनसे ऊँचा महत्वपूर्ण स्थान है । धनको मानवोचित गुणसे अधिक महत्व देना तो मनुष्य की पाशविक प्रवृत्ति है। इसीलिये यदि अपने समाजको मानवसमाज बनाना हो तो मनुष्य की भाँख मींचकर अर्थार्थी बन जाने की प्रव. त्तिपर रोकथाम रखकर अपने समाजको सामाजिक गुणोंका उपजाऊ क्षेत्र बनाने का सुदृढ प्रबन्ध करना ही होगा। मनुष्य अर्थार्थी रहता रहता स्वार्थान्ध होकर अपनी ही माताको नोंच. नोंचकर खानेवाले बिच्छूके बच्चोंके समान अपने ही उपजीच्य समाजकी आंखों में धूल झोंकझोंककर उसे ठगकर उसके उचित अधिकारका अप. हरण करके धनी और सुखी बनना चाहता है। देशमे से मनुष्यताको निर्वासित कर डालता है और अपने संसारमें अधर्म तथा स्वार्थका साम्राज्य Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि प्रतिष्ठित कर देता है यहांतक कि मातापिता, भ्राता, संतान सबको ठगने लगता है । जो समाजके सत्पुरुषको ठग रहा है वह अपने पारिवारिक स्वजनों को भी ठग रहा है। उसे कहीं भी स्वजन नहीं दीखता, धन ही उसका ध्येय है । इस प्रकार सामाजिक गुणकी अभिवृद्धिकी दृष्टिसे मनुष्यको अर्थार्थी प्रवृत्तिपर पूर्ण नियन्त्रण होना चाहिये। यह ध्यान रक्खा जाना चाहिये कि देश में सामाजिक गुण ही पूज्य माने जायँ और धनको मनुष्यतासे उच्च प्रतिष्ठाका पद न मिल सके। इसका एकमात्र सरल उपाय मनुव्यता - प्रेमी सुसाहित्य - प्रचार से समाजकी आध्यात्मिक दृष्टिको भ्रान्तिरहित करके नैतिक राज्यसंस्थाके द्वारा सुशिक्षाका प्रचार करना है ! ४५४ आशया बध्यते लोकः ॥ ५०३ ॥ अविचारशील संसार कर्तव्य के बन्धन में आवद्ध न होकर आशाके बन्धन में बँधकर काम करता और अपना धैर्य खोता रहता है । विवरण - ' यह मुझे मिल जाय ' इस प्रकारको आकांक्षा दी अाश । है | आशा में रहना, शुभ भावीकी प्रतीक्षा में वर्तमानका शुभ उपयोग न कर सकना हानिकारक मनोदशा है। मनुष्य आशाकी दासतामें अधीर होकर कर्तव्य में हाथ डालकर दुःखी होता है । समाज के उत्थान में आशा के दास मनुष्यों का कोई स्थान नहीं है। समाज के अभ्युत्थानों के कर्तव्य में अपनेको झोंक देनेवाले तथा फल मिळने न मिलनेके प्रति उदास रहनेवाले कर्तव्यनिष्ठ लोगोंका ही समाजमें महत्वपूर्ण स्थान होता है । समाजकी उन्नति कर्तव्यपरायण कर्तव्यैक-सर्वस्व लोगोंके अदम्य उत्साहोंपर ही निर्भर करती है । आशापाश- शतैर्बद्धाः काम-क्रोध-परायणाः । ईहन्ते काम - भोगार्थ मन्यायेनार्थ संचयान् ॥ Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भोगमें जीवन नष्ट कर रहा है माशाकी सैकडों रस्सियोंसे बंधे हुए, काम-क्रोधमें ही अपना जीवननामक महत्वपूर्ण सुअवसर मिटा डालनेवाले लोग काममोगके लिये अन्यायसे धनोपार्जनकी चेष्टा करते हैं । बताइये जिस देश में इस प्रकारकी प्रवृ. त्तिके लोग अधिक हो जायेंगे वह देश रसातलको न जायगा या अशान्तियों, कलहों और दुःखोंका घर न बन जायगा तो क्या होगा ? सुखी तो वे देश होंगे जहां के लोगोंका कर्तब्यसे ही महत्वपूर्ण सम्बन्ध होता है और फल उपेक्षापक्षमें पड़ा रहता है । मनुष्य जाने कि 'नैराश्यं परमं सुखम् ' निराशा ही ( सुखेच्छारूपी दुःखका संसारका सर्वोत्तम रहना ही ) सुख है। कर्तव्य करने का ही मानवको अधिकार है, कर्तव्य बहिर्भूत वंध्या फलाशाका नहीं। आशानाम नदी मनोरथजला तृष्णातरंगाकुला। रागग्राहवती वितर्कविहगा धैर्यद्रमध्वंसिनी । मोहावर्तसुदुस्तरातिगहना प्रोत्तुंगचितातटी । तस्याः पारगता विशुद्धमनसो नन्दन्ति योगीश्वराः ॥ माशा संसारके यात्री मनुष्यको डुबानेवाली नदी है, मनोरथ उसके जल हैं, तृष्णा उसकी तरंग है, राग उसमें रहने वाला मगरमच्छ है, वितर्क नामके पंछी इसके किनारोंपर बैठे रहते हैं । यह माशा नदी धैर्यरूपी दमको जडसे उखाड़ फेंकती है। मोहात्मक भवरोंसे दुम्तरणीय लम्बी चौडी चिन्तायें इस नदीको द्वितट भूमि है । इस नदीको पार करना विचारशील मनवाले कर्मयोगियोंका काम है । यदि मनुष्य सुखी जीवन व्यतीत करना चाहे तो उसे माशाके बन्धनमें न रहकर कर्तव्य के कठोर निष्काम बन्धनमें रहना ही होगा। पाठान्तर ---- इतःपरमधीतः परं कुशलो भविष्यतीत्याशया लोको जीवति। इसके पश्चात् विद्वान् बनकर सुस्त्री जीवन बितायेंगे इस भाशासे संसार जीता है। Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५६ चाणक्यसूत्राणि ( आशाके दास सदा श्रीहीन ) न चाशापरैः श्रीः सह तिष्ठति ॥ ५०४ ॥ आशापरायण व्याक्त सदा श्री-हीन रहा करते हैं। विवरण- आशा अर्थात् विषय-स्पृहाके पीछे-पीछे मारे फिरनेवालों ( और यदि वह पूरी न हो तो अपने भापको अकृतार्थ, असफल और विनष्ट मानकर हतोत्साह हो बैठने वालों ) के पास सम्पत्तियें निवास नहीं करती। सम्पत्तियां तो भयंकरसे भयंकर विपत्तिके दिनों में भी साहसको कभी न त्यागनेवालों, निराशा दीखनेपर भी कभी उद्यम तथा कर्मका त्याग न करनेवालोंके ही साथ रहती हैं । यदि मनुष्य आशापर निर्भर न रहकर कर्तव्यपालनपर निर्भर रहे तो श्री (सफलता ) को झख मारकर उसके पास रहना पडे । आशाके दासोंके पास चाहे जितनी श्री ( भौतिक ऐश्वर्य ) मा जानेपर भी उनकी श्रीहीनता कभी नहीं मिटती। अतृप्त कामना ही आशा है । कामनादग्ध हृदय कभी तृप्त होना नहीं जानता । माशा-परा. यण व्यक्तिका धन-भंडार उपकी दृष्टि में सदा ही अधरा रहता है। समस्त विश्वको अपना भोग्य बनाने की कल्पना सदा ही उसके मनको दुखाती रहती है । इसलिये माशापरायण लोग सब समय जिस किसी प्रकार धनोपार्जन करने में सब प्रकार के गर्हित उपायों का सहारा लेकर (धनोपार्जन ) करते हुए भी आशानुरूप धन पाने से वंचित रहते हैं। कर्तव्य शीलतासे संपन्न बनकर सन्तोष धनका धनी बनना उनके भाग्य में कभी नहीं होता। उनके हृदयमें कामनारूपी दरिद्रताका अटल निवास बन जाता है । दुराशा परिहृत्यैव सदाशां वर्धयेत् सदा। मनुष्य दुराशा ( या बन्धनरूप आशा ) को त्यागकर भबन्धनकारिणी सदाशा ( सत्य निर्भरता ) पर ( जिसे ईश्वरेच्छा भी कहते हैं ) स्थिर रहे ! 'अनिर्वेदः श्रियो मूलम् ।' उत्साह न छोडना, खिन्न न होना, कातर न होना ही श्री-प्राप्तिका मूल है। Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आशाके दास सदा अधीर ४५७ 'दुरधिगमः परभागो यावत्पुरुषेण पौरुषं न कृतम् ।' जबतक मनुष्य पुरुषार्थ नहीं करता तबतक श्रेष्ठपद, महत्व या परिस्थिति पर विजय नहीं पाता। ( आशाके दास सदा अधीर ) आशापरे न धैर्यम् ॥ ५०५॥ आशापरायण व्यक्तिके पास स्थिरघुद्धितारूपी धैर्य नहीं होता। विवरण- आशाका दास धीरज खोये बिना नहीं मानता। व्यावहारिक जगत में माशाका स्थान होने पर भी उसकी मर्यादायें भी तो हैं । दुःखरहित होकर सुसंपादित कर्तव्य के उचित भौतिक परिणामतक माशाको सीमित रखना चाहिए । निर्माद आशा तो मनुष्य की मनुष्यताका भयंकर शत्रु है। निर्मर्याद माशावाला मार्ग कुमार्गसे उपार्जनमें प्रवृत्त होकर संसारमें आग लगा डालता है । वह धीरज नहीं रख सकता। कर्तव्यनिष्ठ, दुराशासे अनभिभूत लोग ही धीरज रख सकते हैं। धीरजके बिना सुखशान्ति दोनों असंभव हैं । भाशा पूरी न हो तो जीवनको निःसार मान बैठने वाले पर धीरज अर्थात् सत्यार्थ जीवन-धारण करनेवाला विवेक नहीं होता । आशापर निर्भर रहनेवाला मानव स्पीसे बंधे पशु के समान हाशारूपी रश्मियोंसे बँधा रहकर कर्तव्यसे बचता भीर अकर्तव्य किया करता है। कर्तव्य का स्वभाव है कि वह कुछ न कुछ भौतिक हानि किये विना पूरण नहीं होता । माशाका दास मकतन्यसे भौतिक लाभोंकी संभावना देखकर उसी मोर झुक जाता है । कर्तग्यसे बँधनेवाले लोग दुराशासे कभी नही बैंधते। उन्हें उनके कर्तव्यपालनका फल मिले या न मिले वे तो कर्तव्य.. पालनका संतोषरूपी फल हाथ में लेकर कर्तव्य-बुद्धिसे कर्म करते चले जाते हैं । उनकी दृष्टि में अपना कर्तव्य पूरा कर लेना ही उनकी कृतार्थता होती है । मनुष्य जबतक इस दृष्टि से कतय करना नहीं सोनेगा और कम्यके Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५८ चाणक्यसूत्राणि मार्गके कांटे इस आशाको धक्का देकर अपने मार्गसे दूर नहीं हटा देगा, तबतक वह भोजस्वी, तेजस्वी, अष्य, अप्रकाम्य, उदात्त, सम्मानित जीवन नहीं बिता सकेगा। आशाके दासके पास सम्मान, स्थिरता, धीरज, तेज, मोज और विजयी जीवन नामकी कोई वस्तु नहीं होती। आशायाः खलु ये दासा दासास्ते सर्वलोकस्य । येषामाशा दासी तेषां दासायत लोकः ।। आशाके दास सारे ही संसारके दास होते हैं । जो लोग आशाको अपनी दासी बना कर रखने की कला जान जाते हैं, यह संसार उनका दास होजाता है। माशाके दासकी भाशा कभी पूरी नहीं होती । भाशाके दासका संपूर्ण जीवन नैराश्यमय होकर दुःखभरे दीर्घ निःश्वासोंसे भरपूर रहता है। ___अश्नुते विक्षिपति जनमिति आशा।' जो मनुष्यको व्याप्त करके विक्षिप्त बना डाले उसे माशा कहते हैं। पाठान्तर--नास्त्याशापरे धैर्यम् । (अनुत्साह मृतावस्था ) दैन्यान्मरणमुत्तमम् ॥ ५०६ ॥ दीन बननेसे तो मर जाना उत्तम है । विवरण--- अपने को दीन, निकृष्ट, निकम्मा, असहाय, कृश, अपरिच्छद समझकर अनुत्साहित हो बैठना मर जानेसे भी निकृष्ट अवस्था है । दैन्य न रहना ही जीवन की सार्थकता या जीवित हृदयवाली स्थिति है। जीवनके उद्देश्यको उपेक्षित करके जीवनमृत रहने की स्थितिको निन्दित तथा जीवनको सार्थक करने के लिये उत्साहित करना ही इस सूत्रका अभिः प्राय है, मृत्युका आह्वान करना नहीं। मृत्यु को अच्छा माननेकी मनोदशा किसी भी अवस्थामें प्रशंसनीय नहीं है। जीवन ही जीवित मनुष्य के लिये वरणीय स्थिति है । जीवनका अन्त कर डालनेकी भावना मानव-देहधारणके उद्देश्य के विरुद्ध है । अपने को दीन, निकृष्ट, निकम्मा समझकर अनुत्साहित हो बैठना मृत्युसे भी निकृष्ट अवस्था है। Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मप्रशंसा अकर्तव्य ४५९ मानव-जीवनका उद्देश्य निकृष्ट बनना नहीं है। उत्कृष्टता ही मानवजीवनका लक्ष्य है। दीनता दुराशाका ही विकार है । मृत्यु मनुष्यको केवल एकबार मारती है जब कि दीनता उसकी मनुष्यताका प्रत्येक क्षण दम घोटती रहती है। ( आशाके दास निर्लज्ज ) आशा लज्जां व्यपोहति ॥ ५०७ ॥ आशा ( अर्थात् विषय- लोलुपता जिसे दुराशा भी कहना चाहिये ) मनुष्यकी लज्जा अर्थात् शिष्टताको नए करती और लोभाग्निको प्रज्वलित करती है। विवरण- आशा मनुष्य को गर्दित, अविचारित, अनुचित काममें लगा डालती है । माशाधीन मनुष्य लज्जा त्यागकर शिष्टताको तिलांजलि देकर असाध आचरण करनेपर उतर भाता है। वह किसी भी पास अपना लोभ पूरा होने के सपने देखकर उसके आगे हाथ पसार देता है और अपमानित होता है। पाठान्तर--- आशापरो निर्लज्जो भवति । पाशाका दास मानध लजा त्यागकर असाधु आचरण करता है। न मात्रा सह वासः कर्तव्यः ॥ ५०८ ॥ ( आत्मप्रशंसा अकर्तव्य ) आत्मा न स्तोतव्यः ॥ ५०९॥ अपनी प्रशंसा नहीं करनी चाहिये । विवरण-प्रशंसनीय माचरण करने की ही आवश्यकता है, आत्मप्रशंसा करने की नहीं । भात्मप्रशंसासे श्रोतृसमाजके धैर्य पर माक्रमण होता है तथा वक्ता स्वयं निंदित होजाता है । प्रशंसनीय भाचरण स्वयं ही मूर्तिमान प्रशंसा बन जाता है। Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६० चाणक्यसूत्राणि 'न हि कस्तूरिकामोदः शपथेन विभाव्यते । कस्तुरीके आमोद के लिये शपथकी आवश्यकता नहीं पडती | आचरणकी न्यूनता ही आत्मश्लाघीके मनमें अपने न्यूनभागको वाणी से पूरा करने की प्रवृत्तिको उत्पन्न करती है । प्रशंसिताचरणी मानव आत्मतृप्तिकी अवस्था में समुद्र के भीतर-बाहर जलपूर्ण घडेके समान पूर्णावस्था में रहता है । जैसे क्षुद्र व्यापारी लोग विक्रेय पदार्थोंके निकम्मेपनको उसके मिथ्यागुणकीर्तन से ढक देना चाहा करते हैं, इसी प्रकार समाजको ठगने के इच्छुक धूर्त लोग अपने श्रोताओं को आत्मप्रशंसासे प्रतारित करनेका प्रयत्न करते हैं । भात्मश्लाघा बुद्धिमान् श्रोताओंको कटु भी लगती और वक्ताको निष्कपटता के विषय में संदेह भी उत्पन्न कर डालती है । सत्यकी ही महिमा गारा वाणीकी कुशलता है । अपने व्यक्तित्वका गुणगान तो वक्ताकी वाणीकी अोता है। अपने व्यक्तित्वका प्रचार करनेकी भावना प्रचारककी असत्यनिष्टा या मिध्यायशोभिलाषाका परिचायक होता है 1 ( मूढसमाज में आत्मकथा' के नाम से आत्मप्रशंसाकी प्रवृत्तिको बडा प्रोत्साहन मिल जाता है । आत्मकीर्तित पाप भी प्रशंसनीय महात्मापन बन जाने लगा है । मूढलोग अपने कानों को रद्दीको टोकरी बनाकर जो कोई कुछ सुनाने या पढाने लगे उसे ही सुनने और पढनेको प्रस्तुत होजाते हैं । हमारी श्रवणशक्ति हमपर हमारे विधीताकी पवित्र धरोहर है । इसलिये किसीकी आत्मप्रशंसा सुनने और आत्मकथा पढने में अपनी श्रवणशक्ति व्यय कर डालना बडी ही निकृष्ट मनोदशा है । लोगों की इस मौठ्यमयी स्थिति से अनुचित लाभ उठाना चाहनेवाले प्रभुतालोभी असुर प्रवृत्तिके लोगों ने राज्यसंस्थाको हथियाने के लिये आत्मप्रशंसाको राजनैतिक क्षेत्र में अनुचित महत्व दे डाला है और राजनीतिको विक्रेता व्यापारियोंकी विक्रेय वस्तु बना डाला है । क्योंकि अपना ढिंढोरा पीटकर, राजनीतिज्ञ बनकर, देशकी आंखों में धूल झोंककर, राज्यसंस्थाको इथिया लेने की परिपाटी कानून के द्वारा स्वीकृत होगई है इस कारण समाजने आत्मप्रशंसाकी निन्दनीयताको Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मप्रशंसा अकतव्य कंवल भुला ही नहीं डाला प्रत्युत उसे राज्यसंस्थामें प्रवेशका द्वार भी बना लिया है। अपने गले में भारमप्रशंसाका ढोल डालकर राजनीतिज्ञ बनकर, देशको धोखा देकर राज्य हथियाने की प्रवृत्ति कानूनसे निन्दनीय होना चाहिये । परन्तु जब कानन बनाने का अधिकार ही अपरिणत तथा अनुभवहीन, अमिष्ठ, प्रमादी, विप्रलिप्सु, आत्मम्भरि, प्रतारक अयोग्य लोगों के हाथों में पहुँच जाय तब देश की डूबती नौकाको इन प्रात्मश्लाघी धर्मों के हाथोंसे कौन बचाये ? जिस आत्मश्लाघाका समाज में अत्यन्त निन्दित स्थान हो, उसीको राज्य. थाके निर्माणमें स्थान दे दना देशके साथ कितना बडा विश्वासघात है ? यह देखकर समाजको इन भास्मश्लाधी धोकेवाज राजनीतिज्ञों के लिये उचित दण्डव्यवस्था करके इनके आत्मप्रचारको कानन से रोकना चाहिये । कोई भी व्यक्ति अपनी आत्मप्रशंसाके पुल बांधकर राज्यव्यवस्थामें नहीं जा सकता चाहिये । उसमें जो कोई जाय केवल समाज की सदिच्छा भार आवश्यकतासे जाना चाहिये । जिसे समाज प्रशंसनीय पाय उसके पास अपनी ओर से जाकर राज्यसंस्थामें जाने के लिय प्रार्थना करके उसे वहां भेजे, तो राज्य. व्यवस्था में पवित्रताका बोलबाला हो । ऊपर स्वयं स्वगुण कीर्तनका निषध किया है । यदि कहीं किसी अपरि. वित क्षेत्र में सत्यार्थ स्वगुण-कीर्तन करना आवश्यक तथा अनिवार्य हो को अपने व्यक्तित्वको महत्व न दकर सत्यको हो महत्व देना चाहिए । मनुष्य आत्मश्लाघासे दाम्भिक तथा अभिमानी माना जाने लगता है । मनुष्यों को आत्मश्लाबोस घृणा हो जाती है । याला पुष्पगन्ध मारक बायुके समान बुद्धिमान प्रतिष्ठित लोगो द्वारा समाज फल तब ही या समाज में प्रीति कर और स्वीकृत होता है। अद्यापि दुर्निवारं स्तुतिकन्या बहात कौमारम् । सद्भ्यो न रोचते साऽसन्तस्तस्ये न रोचन्त । स्तुतिकन्या मष्टि प्रारंभसे आजतक कुंआरी चली बार है और उसके Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि कौमीरके मिटने के कोई लक्षण नहीं है । उसका पहला कारण तो यह है कि भले लोगोंको यह रुचती नहीं । दूसरा कारण यह है कि निकृष्ट लोग इसे नहीं रुचते। संत लोक स्तुति नहीं चाहते। असत लोक स्तुति के अयोग्य होते हैं। मात्मप्रचारककी मारमपशंसा उन्हें निंदित ही सिद्ध करती है। पाठान्तर- नात्मा क्वापि स्तोतव्यः । कहीं भी किसी भी रूप में भात्मप्रशंसा न करनी चाहिये । (दिवाशयन अकर्तव्य ) न दिवा स्वप्नं कुर्यात् ।। ५१० ॥ दिनमें नहीं सोना चाहिये। विवरण- दिनमें सोनेस निश्चित रूपमें कार्य हानि, देह में वायुकी वृद्धि, मग्निमान्द्य शिरोरोग तथा आयुका ह्राम होता है । दिनमें सोन! आयुर्वेदमें प्रायः प्रत्येक रोगका कारण लिखा है । छोटे बालक रोगी तथा रातमें जागे हुए लोग दिन में हो सकते हैं। 'आयुः क्षयर्या दिवा निद्रा।' दिवानिद्रा आयुनाशक होती है। भारत में कहा है--- 'दिवाशया न मे पुत्रा न रात्री दाधमोजिनः ।' मेरे पुत्र न तो दिनमें सोते हैं और न रातको दधि खाते हैं। मायुर्वेद में दोनोंकी हानियां वर्णित हैं। (ऐश्वर्यान्ध निर्विवेक ) न चासन्नमपि पश्यत्यैश्वर्यान्धः न शणोतीष्टं वाक्यम् ॥५११॥ धनान्ध व्यक्ति व्यावहारिक संपर्कमें आनेवाले हितोपदेष्टा आसन्न व्यक्तियोंके व्यक्तित्वकी उपेक्षा किया करता है तथा उनके हितकारी वचनोंपर भी कान नहीं दिया करता। Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐश्वर्यान्ध निर्विवेक विवरण- राज्यैश्वर्य पाकर अंधा बना हुआ सजा या राज्याधिकारी अपने संपर्क में थानेवालों की उपेक्षा करता तथा राष्ट्रके गुणी लोगोंके हितोपदेशपर काम नहीं देता। जब कि मनोविकार धनगर्वित साधारण व्यक्तिमें भी अनिवार्य रूपसे आ जाते हैं तब हाथमें राज्यैश्वर्य जैसी महा. शक्ति पा जानेवाले व्यक्किमें मनोविकारोंका आना स्वाभाविक है। जब राज्यै. श्वर्य पा जानेवाले लोग अपने आपको राष्ट्र के सेवक न समझकर राष्ट्रके प्रभु या शासक जातिके स्वेच्छाचारके विशेषाधिकारी नरत्न मान बैठते हैं तब इन लोगों की उद्दण्डताकी कोई सीमा नहीं रहती । कर्तव्य के अनुरोधसे देशके गण्य, मान्य, बुद्धिमान् स्वाभिमानी लोगों के इन उद्दण्ट लोगों के पाप जाने के अवसर माते ही रहते हैं। अपने अनैतिक प्रयत्नोंसे शासकपदोंपर चढ़ पैठ हुए ये असुर लोग अपने उद्दण्ड स्वभावसे विवश होकर लोगों के साथ शिष्टाचार बरतना अपने शासकीय मिथ्या गौरवके विरुद्ध समझ लेते और नाक-मी चढाकर अपने द्वारपर मानेवाले भद्र पुरुषों का अपमान या उपेक्षा किये बिना नहीं मानते। ये लोग ऐसे भ्रष्ट होजाते हैं कि राष्ट्रका लोकमत राष्ट्रकल्याणकी दृष्टि से इनके भासुरीपनके विरुद्ध चाहे जितनी रोल मचाता रहे या इनके अधिकारोष्ण मस्तिष्कको शीतल करने के लिये कर्तव्यपरायणता तथा राष्ट. सेवाके चाहे जितने हितोपदेश सुनाया करे, वे इनके बहरे कानों में प्रवेश नहीं कर पाते। इन लोगोंके उत्तेजक स्वभाव राष्ट्रमें अशान्ति उत्पन्न करके विद्रोहाग्नि भडकाकर अन्त में इन लोगों को लंकाभ्रष्ट रावणके समान राज्य भ्रष्ट किये विना नहीं मानते । धनांधों की राष्ट्र के योग्य लोगों को न पहचानने तथा उनका हितोपदेश न सुनने की यह प्रवृत्ति उन्हीके विनाशकी पूर्व सूचना है। विपत्ति पाने के समय मनुष्य की बुद्धि, मन और इन्द्रियाँ विकल होजाती हैं । 'प्रायः समापन्नविपत्तिकाले धियोऽपि पुसां मलिनीभवति ' जखे ऐन्द्रि यक विषयों के अति सेवनसे शरीर में रक्तका हास होकर आँखों में तैमिरिक Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि रोग होजाता है, इसी प्रकार धनवृद्धि से भविवेक हो जानेपर धनगर्वित मानवको हितकारी विद्यावयोवृद्ध लोग भी क्षुद्र तथा उपेक्ष्य दीखने लगते हैं, अन्याय, न्याय प्रतीत होने लगता है और अधर्म धर्म भासने लगता है। सम्पत्ति एक प्रकारका मनायुर्वैदिक रोग है । यह मनुष्य के कानोंको बहरा, वाणीको गूंगा, आँखोंको अंधा तथा गात्रयष्टिको विकृत ( ऐठीला ) बना डालता है। बधिरयांत कर्णविवरं, वाचं मूकयति, नयनमन्धयति । विकृतयति गात्रयष्टि, सम्पद्रोगोऽयमद्भुतो राजन् ।। 'श्रियाप्त्यभीक्षां संवासो दर्पयन्मोहयेदांप' सम्पत्तिके साथ निरन्तर अविवेकपूर्ण सहवास मनुष्य में दर्प और मोह उत्पन्न कर ही डालता है। धन एक साधनमात्र है। साधन सदा अंधा होता है। वह कार्य के ही समान अकाय करने का भी साधन होता है। धनका सदुपयोग करनेवाला विवेक ही धनकी भाख है । वहीं उसे चक्षुष्मान बनाता है । धन अपने सुयोग्य संचालकके नेतृत्वमें दी शक्ति बनता है । साधन सुयोग्य नेतृत्व के अभाव में शक्ति न बनकर अशक्ति तथा हानिकारक बन जाता है । इसलिये विचारशील लोग धनपर अपना सैद्धान्तिक नियंत्रण रखते हैं। वे सिद्धान्त विरुद्ध उपार्जन करना या अवैध धनका अपने पास खाना स्वीकार नहीं यह सच है कि धन जीवनयात्राका एक साधन है । परन्तु यह भी सच हैं कि घनान्धता मनुष्य की मनुष्यताका शत्रु है । धनान्धता दरिद्रताले भी भयंकर अति है । सिन्द्वान्तहीनता के साथ माया हुआ धन जिस घर में मा चुलता है, उस समन्त दुगुंगों को आ धुलने का निर्वाध अधिकार दे देता है। वह उस घर के समस्त मानवोचित गुणों का बहिष्कार कर देता है । वह उस घरका नैतिक रूपसे नाश किये बिना उस घरसे नहीं टलता। इसलिये जिस प्रकार अग्निकी गृहदाहकताको बचाकर उसका सदुपयोग किया जाता है, इसी प्रकार मनुष्य धनजन्य दानियों को बचाता हुना ही धनका उप. योग करें। Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जारीका सर्वश्रेष्ठ देव पाठान्तर--न चासनमपि पश्यत्यैश्वर्यतिमिरचक्षः न शृणोतीष्टं वाक्यम् । ऐश्वर्यरूपी तिमिर रोगका रोगी राज्याधिकारी शेष अर्थ समान है। ( नारीका सर्वश्रेष्ठ देव) स्त्रीणां न भर्तुः परं देवतम् ॥५१२॥ आर्यनारियोंका पतिसे अधिक पूजनीय और सेव्य कोई नहीं है। विवरण- सत्य ही मनुष्यमात्रका पति या प्रभ है। पतिव्रता नारीके लिए अपने सत्यनिष्ठ सुयोग्य पतिकी सेवा सत्यकी ही सेवा है। मूर्तिमान सत्य स्वरूप पति की अवज्ञा करनेवाली बनना और उसकी सेवामें त्रुटि करना नारीकी कलुषित मनोवृत्तिका परिचायक है । सत्यस्वरूप पति के सेवाधर्मसे च्युत होनेवाली नारी परिवार तथा समाजकी सेवाको भी त्याग देती है । सत्यस्वरूप पति-सेवा स्त्रीके समस्त सामाजिक कर्तव्योकी प्रतीक है । सत्यम्वरूप पतिकी सेवा त्यागनेवाली स्त्री अधर्म के प्रभावमें आकर अपना, परिवारका तथा समाजका, सबका ही अहित करने लगती है। पतिव्रता नारी भाई-बहन, चाचा-ताऊ, श्वशुर मादि तथा घरके सेवकों तककी श्रद्धासे सेवा करती भोर किसीको आक्षेपका अवसर नहीं देती। स्नेह, प्रेम, मात्मत्याग, सेवा और लावण्य स्त्रियों का विशेष स्वभाव होता है । स्त्रियों को अपने इन सब गुणों की रक्षाके लिये जिस समाजके सहयोगकी श्रावश्यकता होती है, उस समाज ने उनके इन गुणों की रक्षा के लिये दाम्पत्य नामक समाजबन्धनमें रहने तथा इस बन्धनको दृढतासे स्थिर रखने में ही उनका कल्याण नियत किया है और इसे 'ममाज -व्यवस्था का नाम दिया है। यदि वे इस समाज-बन्धनकी उपेक्षा करें तो उनका अस्तित्व निराश्रित हो कर अरक्षित होनाय । दाम्पत्य नामक धर्म-बन्धनके उपेक्षित होने पर स्त्रियों को समाज में सुख-शान्ति से जीवन-यापनकी संभावनायें नष्ट हो जाती ३० (चाणक्य. Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि हैं । पाठक यह न भूलें कि नारीका पातिव्रत्य धर्म साय-सेवासे अभिन्न होने के कारण यह सूत्र पतिपर भी सत्य सेवक होनेका बंधन लगा रहा है । तदनुवर्तनमुभयसौख्यम् ॥५१३॥ पत्नी पतिके समस्त धार्मिक कृत्योंमें सहयोगिनी बनी रहे इसमें पतिका ही नहीं दोनों हीका जीवनभर सुख और हित है। विवरण- इन दोनोंका परस्पर विरोध होनेपर गृहस्थसंबन्धी कर्त. व्योंकी हानि तथा दोनों को निरन्तर क्लेश रहने लगता है । स्त्रीका कर्तव्य है कि वह घरेलू, सामाजिक या पारमार्थिक सब कामों में सत्यनिष्ठ भर्ताका अनुसरण करे, उसकी अनुज्ञा पाकर ही कोई काम करे और अपने संबंध उसकी सुमति बनाये रहे । इसी प्रकार पतिके भी पत्नीके संबंध गंभीर कर्तव्य हैं । जहाँ दाम्पत्य धर्म उभयपक्षसे पालित नहीं होता वहाँके गाईस्थ्य जीवनका दुःखदायी होना अनिवार्य होजाता है। पाठान्तर- अपत्यं स्त्रीणामुभयत्र सौख्यं वहति । अपस्य स्त्रियोंको वर्तमान तथा भावी दोनों में सुख देता है। (अतिथि-पूजा) अतिथिमभ्यागतम् पूजयेद्यथाविधि ॥५१४॥ अतिथि (समय निश्चित न करके अकस्मात् घर उपस्थित होनेवाले तथा उपस्थित होकर गृहस्थसे सेवा पानेके परिचित या अपरिचित अधिकारी) तथा अभ्यागत (समय निश्चय करके आनेवाले सेवा पानेके परिचित अधिकारी) दोनोंका यथाविधि सत्कार करे। विवरण- अतिथि तथा अभ्यागतकी सेवा करनेका प्रसंग मानेपर मनुष्य के सामने यह मुख्य विचारणीय समस्या भा खड़ी होती है कि इन्हें हमसे सेवा पानेका अधिकार है या नहीं ? आगन्तुकके अपरिचित होने पर उसका परिचय, मानेका उद्देश्य तथा गृहस्थ की सेवा करनेकी Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दान दैनिक कर्तव्य ४६७ शक्ति इन तीन बातोंपर ध्यान रखकर सोचना चाहिये कि आगन्तुककी सेवाके दुरुपयुक्त होने की सम्भावना तो नहीं है ? और इसकी सेवा करना समाज-कल्याणकी रष्टिसे अत्याज्य भावश्यक कर्तव्य भी है या नहीं? इन दोनों प्रश्नोंका संतोषजनक समाधान होजानेपर आगन्तुक लोग अतिथि रूपमें स्वीकृत होनेके अधिकारी बन जाते हैं। अतिथि-सेवाका प्रसंग मानेपर गृहस्थमें उसकी सेवा करने की शक्ति होने न होनेका विचार भी अत्यावश्यक होता है । यदि गृहस्थ रोग, शोक, कर्त. न्यान्तरको व्यग्रता, स्थानाभाव आदि अनिवार्य कारणों से अशक्त हो तो उसकी अशक्तता ही सेवाधर्मकी अस्वीकृतिका उचित कारण बन जाती है। उस समय नम्रताके साथ मतिथिसे अपनी असमर्थता प्रकट कर देना गृहस्थका कर्तव्य होता है। गृहस्थके पास किसी प्रकारकी विवशता न होनेपर अपने भोजनाग्छादन तथा माश्रय स्थानसे हार्दिकताके साथ भागन्तुककी सेवा करना कर्तव्य होता है। यदि गृहस्थोंको भागन्तुकके उद्देश्य और परिचयसे संतोष न हो तो शक्ति होते हुए भी उसकी सेवा न करना मी गार्हस्थ्य धर्मके ही अन्तर्गत है । अज्ञात कुलशील व्यक्तिको क्षणभरके लिये भी परिवारमें सम्मिलित करना अनिष्टकी सम्भावनासे रीता न होने के कारण उसे स्वीकार करना न केवल निर्बुद्धिता है प्रत्युत समाजकल्याणकी इष्टिसे अधर्म भी है। न ह्यविज्ञातशीलस्य प्रदातव्यः प्रतिश्रयः । ( दान दैनिक कर्तव्य ) (अधिकसूत्र ) नित्यं संविभागी स्यात् । अपने उपार्जित धनपर उचित अधिकार रखनेवालोंको उनका भाग सदा ही देता रहे। विवरण- धनोपार्जन जिस समाजकी सहानुभूति तथा जिन स्वजन बान्धवोंके सहयोगसे हो पाता है, धन सबको उन सबका अधिकार समाज Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि बन्धनकी रीतिनोतिके अनुसार राजकरके रूप में देते रहना चाहिये। इसके अतिरिक्त सामर्थ्यानुसार देश, काल, पात्रका ध्यान रखकर दान भी करना चाहिये । आपने उपार्जनका भोगाधिकार अपने में ही संकुचित न रखा जाकर जिस समाजके साथ अपना मन सम्मिलित हो, जिसके प्रति अपनी सहानुभूति हो, उसके कल्याणके अनुकूल अपने जीवन-साधनोंको विभाजित करते रहना भी गृहस्थ का धर्म है । गृहस्थ धर्म में दीक्षित लोग समस्त राष्ट्र-कल्याणके उत्तरदायी हैं। यथा नदीनदाः सर्वे सागरे यान्ति संस्थितिम् । तथा गृहस्थमाश्रित्य सर्वे जीवन्ति जन्तवः ॥ ( मनु ) उनका कर्तव्य है कि वे अपनी जीवनयात्राके साधनों को समाज-कल्याणके कामों में बाँटकर जब अपने भोग्यदयोको समाजसेवारूपी यातक। शेष बना लें तब ही उनका उपयोग करें । यशशिष्टामतभजो यान्ति ब्रह्म सनातनम् । मनुष्य जितना उपार्जन करे उसमें से प्रतिदिन अतिथि, देवता, पितर, दीन मादि उन समस्तको जो समाजपर निर्भर रहते हैं, दान दे तथा समाज कल्याणके काम में नियमित रूप र उत्साहपूर्वक अर्पण करे । अपना समस्त उपार्जन स्वयं ही खा पीकर बराबर न कर दे । मनुष्य जिस समाज के सहयोगसे उपार्जन कर रहा है उस ( समाज ) को तो उस उपार्जनमें से उपा. जकको दानभावना के द्वारा योग्य भाग पानेका पूर्ण अधिकार है और योग्य भाग देने में कृतज्ञ मानवका भात्मकल्याण है। __प्रत्येक मनुष्य अपने समाज को सुखी तथा सद्गुणी बनाने में अपने दैनिक उपार्जन में से एक सुनिश्चित भाग देता रहे तब ही कोई समाज सुखी रह सकता है और अपने व्यक्तियों को सुखी तथा सदगगो रख सकता है । मनुप्यके व्यक्तिगत जीवनका सुखी होना उपके समाज के सुखी, सद्गुणी तथा दानी होनेपर ही निर्भर है। मनुष्य का व्यक्तिगत जीवन उसकी सामाजिक स्थिति के अनुसार ही सुखी-दुःखी या भला-बुरा होता है। इसलिये मनुष्य Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दान अव्यर्थ साथी ४६९. अपने सामाजिक उत्तरदायित्व तथा कर्तव्योंको पहचानकर अपने दैनिक उपार्जनमें से समाजका भाग समाजको अनिवार्य रूपसे दान के रूप में दिया करे । केवल पेट पालना कोई महत्व नहीं रखता । मनुष्यका महत्त्व तो उस बात में है जिसे मनुष्येतर प्राणी नहीं कर सकते । दूसरे प्राणी में सामाजिक दिवादित बुद्धि नहीं है । वे अपने समाज कल्याणमें कोई महत्वपूर्ण योग देनेके योग्य ही नहीं होते । मनुष्यका सेव्य समाज ही है । वह अपने समाजके कल्याणमें आत्मकल्याण बुद्धिसे महत्वपूर्ण सहयोग दे सकता है । वह अपने समाज के व्यक्तियोंको सद्गुणी, सम्पन्न और सुखी बनाने में अपना सहयोग देनेके पश्चात् शेष रहे धनरूपी यज्ञशेषसे अपनी यात्रा करे इसी में उसकी महत्ता है, इसीमें उसका आत्मकल्याण है और इसी में उसके देशका उदार है 1 ( दान अव्यर्थ साथी ) नास्ति हव्यस्य व्याघातः ।। ५५५ ॥ योग्य पात्र में दिया हुआ दान व्यर्थ नहीं जाता । www * विवरण - योग्य पात्र में दिया दान ही हव्य या यज्ञ-सामग्री है। समाज के योग्य सदस्योंकी सहायता करना समाजकी ही सेवा है । समाज कल्याणमें ही अपना कल्याण है । इस दृष्टिले मानवका जीवन ही एक विशाल यज्ञका रूप ले लेता है । इस दृष्टिसे योग्य पात्रमें दान करनेवाला दाता ग्रहीतापर कोई उपकार न करके आत्मकल्याण ही करता है । अथवा - हव्य ( अर्थात् देवपूजा या समाज-सेवा आदि कमौके लिये श्रद्धापूर्वक प्रदत्त द्रव्य ) को नष्ट हुआ नहीं माना जाता । दान कभी भी व्यर्थ या निष्फल नहीं जाता। सच्चा दान अपना कोई बाह्य परिणाम ला सके । या न ला सके उससे दाताका आत्मा निश्चितरूप से उन्नत हो जाता ( क्षुद्रता त्यागकर महत्ता प्राप्त कर लेता ) है दान आत्म Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७० चाणक्यसूत्राणि दर्शनकी स्थिति है। दान किसीपर कृपा नहीं है, दान तो अपना ही कल्याण या अपना ही साविक स्वार्थ है। दान अक्षय निधि है। सत्य के हाथों भारमदान दानका सच्चा रूप है। (शत्रुको पछाडनेका उपाय ) ( अधिकसूत्र) शत्ररपि प्रमादी लोभात । लोभमें आ जानेपर शत्रु भी अपने शत्रुतारूपी लक्ष्य में प्रमाद कर लेता या अपने लक्ष्यसे भ्रष्ट होजाता है। विवरण--हमारा शत्र हमें मिटाना चाहता है। वह हमारा अनिष्ट करनेपर तुला होता है। उसे इस लक्ष्यसे भ्रष्ट करने के भी कुछ उपाय होते हैं । ऐसे समय उसे ऐसा भारी लोभ देना चाहिये जिस लोभपर विजय पाना उसके वश में न हो । लोभ मनुष्यका निर्बल स्थान ( मर्मस्थल ) है। निर्बल स्थानपर अभ्यर्थ आघात करनेसे शत्रको विनष्ट करना सुखकर होता है । लोभ आया तो मनुष्यकी संग्राम-प्रवृत्ति-को मर गया समझो! ( भजितेन्द्रियतासे पराजय निश्चित ) शर्मित्रवत प्रतिभाति ॥५१६ ।। बुद्धिभ्रंश होजानेपर शत्रु भी मित्र दिखाई देने लगता है। विवरण- लोभ मा जानेपर मनुष्यको शत्रु भी विश्वासपात्र हितकारी मित्र प्रतीत होने लगता है । लोभवश होजाना ही बुद्धि भ्रंशता है। लोभ ही प्रलोभन उपस्थित करता है । शत्रु भी प्रलोभनों के द्वारा मित्रका वश बनाकर ठगने का प्रयत्न करता है । लोभके वशमें न माना जितेन्द्रिय लोगोंका काम है। जितेन्द्रिय होकर ही संग्रामविजयी बनना सम्भव है। इन्द्रियों के दासके लिये वीरता नामकी कोई स्थिति नहीं होती। जितेन्द्रिय लोग ही रणक्षेत्रमें वीरताका सम्मान पाने तथा सुनिश्चित विजय लाभ करने के अधिकारी होते हैं। Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजितेन्द्रियतासे ठगईमें आना निश्चित ४७१ अथवा- शत्रु अपनी चतुराईले मित्रता दीखने लगता है। अपने मनमें शठता और कपट रखनेवाला शत्रु अपने दुर्भावको मीठी वाणी तथा दिखावटी सौजन्य से छिपाकर सामनीतिसे मित्रका भेष भर लेता है। भोला मानव लोभाकान्त होकर विश्वास न करने योग्यका विश्वास कर लेता और दुःख भोगता है । इसलिये मनुष्य दिखावटी मित्रों के धोकेमें फंसनेसे बचे रहने के लिये पूर्ण सतर्क रहे। ( अजितेन्द्रियतासे ठगईमें माना निश्चित ) मृगतृष्णा जलवद् भाति ।। ५१७॥ जैसे मृगतृष्णा जल सी दीखने पर भी जल नहीं होती, इसी प्रकार वचक लोग लुभावनी वातोके ऐसे हरे-भरे उद्यान लगा. कर प्रस्तुत कर देते हैं कि अजिनेन्द्रिय योद्धा उन्हें सच मानकर उनके वाग्जालमें फँस जाते. ठगईमें आ जाते और अपने संग्राम करने के लक्ष्यसे भ्रष्ट होजाते हैं। ऐसे अवसरोंपर अजितेन्द्रियोंका पराजय निश्चित होता है। विवरण-- धोख के स्थानों में छिपा तो कुछ और होता है और दीखता कुछ और है। बुद्धिका उपयोग धोके से बचकर रहने में ही है । जैसे व्याध मृगों को बीनसे मोहित करके उनका आखेट करते हैं इसी प्रकार शत्रु लोग प्रलोभनों के पाशोंसे बांधकर मनुष्य का सर्वनाश करते हैं । वंच. कोंकी ठगई में न आना बुद्धिमानोंका कर्तव्य है । 'मगाणां तृष्णा मृग. तृष्णा' मूढ मृग तीन धूपके समय मरुभूमिको तप्त बालुकाओंकी दीप्तिको जलकी तरंग समझकर पानी पानेकी मिथ्या अभिलाषासे उस ओर दोडते हैं और वह दीप्ति उनसे मागेही मागे सरकती और उन्हें प्यासा मारती चली जाती है। उनकी यह मूढ वन्ध्या भभिलाषा ही मृगतृष्णा है। पाठान्तर- जलार्थिनां जलवत् मृगतृष्णा प्रतिभाति । मृगतृष्णा जलार्थियों को जलनुल्य प्रतीत हुमा करती है। Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७२ चाणक्यसूत्राणि ( दुर्विात उलहनेसे न मानकर दण्डसे मानता है ) ( अधिक सूत्र ) उपालम्भो नास्त्यप्रणयेषु । __ अविनीत अश्रद्धालुओंको उलाहना देना या उनकी शाब्दिक निन्दामात्र करना निरर्थक होता है (कोई अर्थ नहीं रखता )। विवरण- विनय, श्रद्धा तथा प्रीतिसे हीन दुहृदय, अप्रणयी लोग अपने अपराधोंपर उपालम्भ, ( उलाहना, निन्दावचन ) रूपी सामान्य दण्डका कोई मूल्य नहीं लगाते । उन्हें तीव्र दण्ड देनेकी आवश्यकता होती है। लज्जाहीन मविनीत अश्रद्धालुओंपर उलहनेका कोई प्रभाव नहीं होत!! उन्हें उलहना देकर उनका कुमार्ग नहीं छडाया जा सकता। वं सामक नीतिसे वशमें न आकर दण्डनीति के योग्य होते हैं । उपालम्भ दो प्रकार का होता है- एक तो गुणों का स्मरण दिलाकर कि ऐसे प्रतिष्ठित कुल में उत्पन्न हुए तुम्हारे लिये यह क्या उचित था ? दूसरेदोषोंकी निन्दा करके कि तुम जैसे अयोग्य व्यक्ति और कर हो क्या सकते थे ? (कुसाहित्य समाजको भ्रष्ट करता है ) दुर्मेध सामसच्छास्त्रं मोहयति ।। ५.८॥ म्लच्छोंके शास्त्र अर्थात् अनात्मज्ञ लोगोंके लिखे हुए ग्रंथ अल्पबुद्धि लोगोंको ठगते हैं। अथवा- मिथ्याशास्त्र या ग्रन्थोंकी कुसृष्टि दुर्मेधा लोगोको विपथगामी किया करती है । विवरण- विषयाभिनिवेश या अकर्तव्यमें प्रवृत्त करने तथा कर्तव्य छुडानेवाले शास्त्र असच्छास्त्र कहाते हैं । यह सारा संसार मसान्यों या असच्छास्त्रों का बहकाया हुमा ही तो विपथमें धक्के खाता फिर रहा है । किसीकी अनुभवसंपत्ति उसीके मनरूपी खेतकी उपज होती है। उस अनुभवसम्पत्तिका गणित या लेखाजोखा ही शारोंका रूप ले लेता है : Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुसाहित्य समजको भ्रष्ट करता है ४७३ शास्त्र सच्छास्त्र भसच्छास्त्र भेदसे दो प्रकारके होते हैं । प्रन्थलेखक लोग अपने जीवनों में बुरी भली घटनाओं के रूपमें अमृत तथा विष दोनोंहीको अनुभव करते हैं। किसी भी विचारशील लेखकको अपने अनुभूत विषको प्रन्थका रूप नहीं देना चाहिये । उसे तो अपने अनुभूत दुष्प्रसंगों को संसा. रको उसके दुष्प्रभावसे बचाकर अपने में ही जीर्ण होने देने के लिये गुप्त रखना चाहिये। उन्हें उसे भरने कटु अनुभवों को संसारके सामने रखकर संसारमें पाप बढाने में भूलकर भी सहायक नहीं बनना चाहिये । परन्तु संसारका आधुनिक लेखक-समाज इतना अंधा और गंदा हो चुका है कि वह अपने मिथ्या विश्वासों, कुरुचियों, भ्रान्तियों, प्रमादों तथा अपने जीवन के असामाजिक अनुचित अधार्मिक कामोंको भी अपनी धार्मिकता या सत्य भाषिताके प्रख्यापनके लिये या दूसरोंसे महात्मापनका प्रमाणपत्र लेने के लिये ग्रन्थका रूप देने में लज्जा और कन्यहीनता अनुभव नहीं करता। वह नहीं जानता कि मेरे यशस्वो समझे हए लेखकके ये लेख मेरे देश के मल्पमति पाठकों के लिये दुष्टान्त उपस्थित करनेवाले बन कर हालाहलका काम करेंगे और मेरे समाजमें पाप फैलानेवाले बनेंगे ? जवसे मनुष्यने अपना विवेक खोया है, तबसे समाजके दुर्भाग्यसे कुप्रन्धों को भी ग्रंथोंकी श्रेणी में खडे होनेका कुअवसर प्राप्त हो गया है । विचारशील लेखक अपने जीवन. व्यापी अमृतास्वादको ही ग्रन्थका रूप दिया करते हैं। उनके इस अमत. वर्णनसे बाबालवृद्ध किसी भी पाठकके मोहग्रस्त होनेका डर नहीं होता । अच्छे लेखकोंमें भ्रम, प्रमाद, विप्रलिप्सा न होनेसे उनके प्रन्थ मनुष्यको दिग्याष्टि देनेवाले होते हैं । उपन्यास नाटक, गल्प कहानी, अश्लील गाथा, कामोत्तेजक तुकबन्दी, आत्मचरित्र आदि सब आमच्छास्त्रों की श्रेणी में आते हैं। पाठान्तर- दुर्मेधसां महच्छास्त्रं बुद्धिं मोहयति । विशालकाय दुरूहशास्त्र दुर्बुद्धियों की बुद्धि कुंठित कर डालता है। ज्ञानको शास्त्र कहलानेवाले ग्रन्थों में से उधारा नहीं लिया जा सकता। सत्यका शासन ही शास्त्र है । सस्य मानवका स्वरूप है। सत्य ज्ञान तथा Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि आनन्द तीनों ही मानव के स्वरूप हैं। मानव के स्वरूप में वेदशास्त्रोंका वास है | सत्य मानवहृदयवासी जीवितशास्त्र है । मनुष्यने अपने प्रमादसे इस जीवित शास्त्र से अपना संबन्ध तोड लिया है । इस जीवित शास्त्र के साथ आदान-प्रदानका संबन्ध जोडकर रखना मनुष्यका कर्तव्य है । यह संबन्ध होजानेपर अर्थात् अपने हृदयस्थ सत्यस्वरूपका प्रत्यक्ष कर लेनेपर ही मनुष्य शास्त्रज्ञ ज्ञानी बनता है । कर्तव्याकर्तव्य निर्णय करनेकी कुशलता पा जाना ही तो शास्त्रावलोकनका उद्देश्य है । ग्रन्थावलम्बी बन जाना शास्त्रावलोकनका उद्देश्य नहीं है । ग्रन्थावलम्बीको सदसद्विचार प्राप्त नहीं होता । सदसद्विचारकी योग्यता अपनी भान्तर स्वरूपभूत ज्ञानज्योतिके जगमगा उठने से ही प्राप्त होती है । मनुष्य ज्ञानी बन चुकनेके पश्चात् ही शास्त्रमें सत्यका दर्शन करने में समर्थ होता है। अज्ञानी रहते हुए शाखों के पन्नों में से अज्ञानका ही समर्थन प्राप्त होता है । ४७४ , निरुक्तकार यास्क के शब्दोंमें ' नैतेषु ज्ञानमस्त्यनृपेर तपसो वा 'वेदों में उस मनुष्य के लिये कोई तवज्ञान नहीं है जो स्वयं वेदोंके द्वष्टा, ऋषियों जैसा तत्वदर्शी और तपस्वी नहीं है । दूसरे शब्दों में शास्त्रों में सत्यका दर्शन सब किसीको न होकर वेवल ज्ञानीको होता है । अज्ञानी अवस्था में रहते हुए शास्त्रोंमें अपने अज्ञानका ही समर्थन ढूँढना स्वाभाविक होजाता है । अज्ञानी मनुष्य शास्त्र कहलानेवाले ग्रन्थको अपने अज्ञानका समर्थक बना लेता है। सूत्र में इसीको अज्ञानीका शास्त्र से मोहग्रस्त होजाना कहा है । अपने में सत्यदर्शन कर चुका हुआ मोद्दातीत ज्ञानी ही श्रुति, स्मृति तथा शिष्टों के आचरणोंको अपने हृदयस्थ सत्यके शासनकी कसौटी पर कसकर इन सबकी एकता के संबंध में संदेह-रहित होकर अपने व्यावहारिक जीवन में शास्त्रको मूर्तिमान् कर देता है । ( भूमिका स्वर्ग ) सत्संगः स्वर्गवासः ॥ ५१९ ।। सत्संग ही स्वर्गनिवास है । विवरण- इस दुःख भरे संसार में सन्तसमागम ही एकमात्र सार है । Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आर्यका उदार वर्ताव ४७५ सन्त लोग इस झुलसती हुई मरुभूमिके ठण्डे जलस्रोत हैं । ' सतां सद्भिः सङ्गः कथमपि हि पुण्येन भवति' सन्तोका सन्तोसे समागम कभी कभी बडे पुण्योंसे होता है । महाकवि तुलसीदास के शब्दों मेंसन्तसमागम हरिकथा तुलसी दुर्लभ दोय । (आर्यका उदार बर्ताव ) आर्यः स्वमिव परं भन्यते ॥५२०॥ कर्तव्याकर्तव्यके विचारसे सम्पन्न उदारमति सज्जन लोग दूसरोंसे जिस वर्तावकी आशा करते हैं वे स्वयं भी दूसरोंके साथ वही बर्ताव करते हैं। विवरण-- सजन वे हैं जो दूसरों के साथ अपनी मनुष्यताकी मर्या. दामें रहकर बर्ताव करते हैं । ' उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्ब कम' यह सम्पूर्ण वसुधा उदारचरित लोगों की दृष्टि में उन्हींका विराट परिवार है। जो कामनाका दाम है जिसने कर्तव्याकर्तव्य विचारको तिलांजलि दे रक्खी है वही ' मनार्य ' है । मनार्य वह है जो कामनाधीन होकर दूसरों के साथ वही बर्ताव करता है जिसे वह अपने लिये किसी भी रूपमें किसी से भी नहीं चाहता। श्रूयतां धर्मसर्वस्वं श्रुत्वा चैवावधार्यताम् । आत्मनः प्रतिकृलानि परेषां न समाचरेत् ॥१॥ यदन्यैर्विहितं नेच्छेदात्मनः कर्म पुरुषः । न तत्परेषु कुर्वीत जानन्नप्रियमात्मनः ॥२॥ न तत्परस्य सन्दध्यात् प्रतिकूलं यदात्मनः। एष सामासिको धर्मः कामादन्यः प्रवर्तते ॥ ३॥ महाभारत धर्मका यह सार सुनो और अपनानो कि जो बात तुम्हारे साथ की जाने पर तुम्हें बुरी लगे उसे तुम दूसरों के साथ मत करो ॥ १ ॥ मनुष्य जो Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७६ चाणक्यसूत्राणि व्यवहार अपने प्रति दूसरों से किया जाना न चाहे वह दूसरों के साथ भी न करे। मनुष्य कटु व्यवहारको सब होके लिये कडवा समझकर दूसरों के साथ भी न करे ॥२॥ अपने प्रतिकूल लगनेवाला व्यवहार दूसरोंसे न करना ही सम्पूर्ण धर्मका सार है। मनुष्य कामनाके अधीन होकर ही दूस. रोंके साथ धर्मविरोधी बर्ताव करता है । (आकृतिसे गुणों का प्राथमिक आभास ) रूपानुवर्ती गुणः ॥५२१॥ जैसा रूप वैसा ही गुण होता है। विवरण- प्रायः मनुष्य के रूप ( शारीरिक अभिव्यक्ति ) के भीतर उसके शौर्य, धैर्य, शान्ति, संयम शादि गुण व्यक्त होजाते हैं । गुणियों के गुण उनके अवयवों तक में अलका करते हैं । इन गुणोंको जनानेवाली एक सांकेतिक लिपि गुणियोंकी मुखाकृतिपर लिखी रहती है । पुरुष परीक्षाके पारंगत लोग मनुष्य को देखते ही उसके गुणोंको भाप लेते हैं । 'यत्राक तिस्तत्र गुणा वसन्ति ' मनुष्य के गुण उसके साकारमें भी आ बसते हैं । अथवा- साधारण मनुष्य की आकृतिसे उसके गुणों का परिचय मिल जाता है। यह तो सच है कि गुण मनुष्य के हृदय में रहता है इस कारण प्रथम. दर्शनसे गुणका परिचय मिलना संभव नहीं होता। परन्त मनुष्य के मनुष्यसे मिलनेका प्रथम सोपान प्राथमिक मिल न ही होता है। लोगोंका स्वभाव है कि वे अपने देहको अपनी रुचिके अनुसार वेषभूषासे अलंकृत करते हैं । देहके इस अलंकरण और प्रसाधनमें ही मनुष्य के चरित्र का पूरा इतिहास सांकेतिक भाषामें लगभग अंकित हो जाता है। मनुष्य की रुचि उसकी शिक्षा-दीक्षासे बनती है । गुणपारखी लोग रूपके प्राथमिक दर्श. नमें ही अपरिचित व्यक्तिके गुणोंका प्रत्यक्ष करके तदनुरूप व्यवहार-विनिमय करते हैं। Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चस्तव्य स्थानकी परिभाषा साधारणतः प्रथमदर्शन ही अपरिचितके गुणोंका अभ्रान्त परिचायक बन जाता है । यही कारण है कि जबतक किसीका साक्षात् दर्शन करके उससे व्यवहार-विनिमय नहीं मिलता, तबतक गुणका परिचय मिलना संभव नहीं होता । गुणका परिचय रूपसे परिचित होजानेके पश्चात् ही होना सम्भव होता है | मनुष्यको विना देखे उसका अभ्रान्त परिचय होना असंभव है । मनुष्यका रूप चक्षु इन्द्रियका विषय है तथा उसके गुण विचारनेत्र के विषय हैं। मनुष्यको साक्षात् विचार-विनिमय न हो चुकनेवाले मनुष्य के गुण-दोष के सम्बन्धमें उधारी सम्मति नहीं बनानी चाहिये। कहनेका तात्पर्य यह है कि यद्यपि प्रकृति अपनी ओरसे किसीके रूपमें गुणको प्रकट नहीं करती, परन्तु मनुष्य अपनी रुचि तथा शिक्षा-दीक्षा के अनुसार अपने देहको वस्त्राभूषणोंसे सज्जित करता है । उसीसे उसके गुण उसकी बाकूनिपर झलकने लगते हैं । स्वच्छता, अनाडम्बर, सौम्यता आदि देद्दिक लक्षणको देखकर गुणीके गुणों का प्राथमिक आभास मिल जाता है । पाठान्तर - प्रायेण रूपानुवर्तिनोगुणाः । साधारणतया आकृतिके अनुसार गुण होते हैं । ( वस्तव्य स्थानकी परिभाषा ) यत्र सुखेन वर्तते तदेव स्थानम् ॥ ५२२ ।। सुखकर स्थान ही निवासयोग्य स्थान कहाता है । ४७७ विवरण - सुख मानसिक स्थिति है । मनकी अनुकूलता ही सुखकी परिभाषा है । मन या तो इन्द्रियोंका दास या उनका प्रभु बनने में स्वतंत्र है । इन्द्रियोंकी दासता मनका अज्ञान भी है और यह उसके लिये परतंत्रताकी दुःखदायी स्थिति भी है। इन्द्रियोंके ऊपर मनकी प्रभुता मनकी स्वरूपस्थिति भी है और यह उसकी स्वतंत्रता ( या स्वतंत्रताकी सुखद स्थिति ) भी है। स्वतंत्रता ही सुख है और इन्द्रिय परतंत्रता ही दुःख है। स्वतंत्र मन किसी बाह्य अत्याचारी शक्तिकी अधीनता स्वीकार करने को Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि कभी भी सहमत नहीं होता । इसलिये मनकी स्वतंत्रावस्था ही उसका वास्तविक निवासस्थान है | स्वतंत्र मनका देह उस स्वतंत्र स्थितिको सुरक्षित रखकर कर्तव्यवश जब, जहां, जिस परिस्थिति में रहता है, वहीं वह अपनी स्वतंत्रताको सुरक्षित रखकर सत्यकी अधीनता स्वीकार कर तथा अस त्यको पददलित करके अपने मानस सुखको भटल बनाये रहता है । अपने बाहु ( पुरुषार्थं ) के प्रतापसे अर्जित स्थान ही मनुष्य के लिये सुखकर होता है । जो लोग अपने पुरुषार्थं से अपने भाग्य के स्वयं ही विधाता होते हैं उन्हें ही सुखद स्थान प्राप्त होते हैं । वे जहां जाते हैं वहीं उन्हें सुखद स्थान प्राप्त होजाते हैं । ४७८ को वीरस्य मनस्विनः स्वविषयः को वा विदेशस्तथा यं देशं श्रयते तमेव कुरुते बाहुप्रतापार्जितम् । यदंष्ट्रानख लांगलप्रहरणः सिंहो वनं गाहते। तस्मिनेव तद्विपेन्द्ररुधिरैस्तृष्णां छिनत्यात्मनः ॥ वीर पुरुष के लिये देशविदेशका कोई प्रश्न नहीं होता । वह जहां पहुं चता है उसे ही अपने बाहु-प्रतापसे अनुकूल स्वदेश बना लेता है । क्या संसारमें देखते नहीं है कि सिंह जिस वनमें घुसता है वहां स्वयं मारे हाथियोंके रक्त से अपनी प्यास बुझाता है । ( विश्वासघाती की दुर्गति ) विश्वासघातिनो न निष्कृतिः ।। २२३ ।। विश्वासघातीका उद्धार नहीं है । विवरण -- विश्वासघातीका पापमोक्ष, निस्तारा, बचाव, सुधार या प्रायश्चित नहीं है । संसार के समस्त व्यवहार विश्वासमूलक होते हैं । विश्वासघाती प्रत्येक दुराचार कर सकता है । मित्रताका सम्बन्ध ही विश्वासका संबन्ध है । सत्य ही मनुष्यमात्रका अनन्य मित्र है । हितकारी होना ही मित्रकी परिभाषा है । इस संसार में केवल सत्य ही वह वस्तु है जो मनु Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्वासघातकी दुर्गति ४७९ प्यका हितकारी माता, पिता, प्रभू आदि नामोसे सम्मानित होकर मानवके हृदय सिंहासनका सम्राट बनने का अधिकारी है। सत्यसे विश्वासघात अर्थात् मसत्यकी दासता करना ही विश्वासघात नामका अपराध है। असत्यकी दासता करना जन्मसे ही मानवके साथ सम्बद्ध शुभसंकल्पकका विघात कर देना है। जिसने एकवार मित्रताका हनन किया है उसे कभी भी यह भ्रान्ति करके कि वह सुधर गया है, विश्वास मत करना । राष्ट्रसे विश्वासघात करके राज्य हथियानेवाले देशद्रोहियों की पहचान होजानेके अनन्तर उन जैसे प्रतारक, ढोंगी नेताओंसे सदा सावधान रहना चाहिए। सहयज्ञाः प्रजाः सृष्टा पुरोवाच प्रजापतिः । अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक् ॥ ( भगवदगीता) प्रजाओं के स्वामीने प्रजामों को यज्ञ अर्थात् उच्च भावना या उच्च बुभूषाके साथ उत्पन्न किया है और उनसे कह दिया है कि तुम जो कुछ मर्जन, उत्पादन या भक्षण करो इसीसे करो। तुम अपने किसी भी कामसे अपनी ऊर्ध्वगामिताको पददलित मत होने दो। तुम अपनी कामनामों को यज्ञभावनासे पूरा करो । जीवनको यज्ञका रूप देकर रक्खो । तुम्हारी यज्ञभावना ही तुम्हें इष्ट भोग देनेवाली बने । तुम अयज्ञिय अशुभ भावनासे अपनी कामपूर्ति मत चाहो । सत्पुरुष ही सत्पुरुषका विश्वासपात्र होता है। चोर सत्यके साथ विश्वासघात करके ही चोर बनता है। मनुष्य अपने हृदयेश्वर सत्यके साथ विश्वासघात किये विना चोर नहीं बन सकता। सत्पुरुष सत्पुरुषके साथ की विश्वासघात नहीं करता। जो कोई सत्पुरुषोंसे विश्वासघात करता पाया जाता है वह चोर ही होता है। वह धोखा देकर कपट सन्त बनकर विश्वासका हनन किया करता है। इस दृष्टि से मनुष्यका सरपुरुष न होना ही समाज के साथ विश्वासघात है । सस्य ही विश्वास है। विश्वासका सम्बन्ध सत्यका ही सम्बन्ध है । सत्यको त्याग देना विश्वासघात दी है । सत्यद्रोही मज्ञानी Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८० चाणक्यसूत्राणि अपने मनको सदा मज्ञानरूप नरक में फंसा रखता है। उसकी मुक्तिका प्रश्न ही कहा है ? पाठान्तर- विश्वासघातिनो निष्कृतिर्न विद्यते । (दुर्घटनाओंसे मत घबराओ ) देवायत्तं न शोचेत् ॥ ५२४ ॥ मनुष्य देवाधीन दुर्घटनापर व्यर्थ चिन्ताग्रस्त न हुआ करे। विवरण- मनुष्य अपना सम्पूर्ण बल लगाकर भी जब यह देखे कि यह काम मेरे वशका नहीं है तब उसे देव या ईश्वरेच्छा मानकर, दुश्चिन्ता छोड कर या देवाधीन बातको अधिक से अधिक शक्ति प्रकट करनेकी देवी प्रेरणा मानकर उसका कोई प्रबलतम उचित उपाय कर सके तो करे । भूकम्प, जलाप्लावन, आंधी, महामारी, दुर्मिक्ष, राष्ट्रविप्लव मादि शक्तिवाह्य परिस्थितियों में चिन्ताग्रस्त न होकर अपने सामर्थ्य तथा कौश ल के अनुसार विधान करते चले जाना मनुष्यका कर्तव्य है। जीवनेच्छा रहने तक मनुष्यका यह कर्तव्य किसी भी प्रकार समाप्त नहीं होता । कभी कभी प्रयत्नों के प्रतापसे भयंकर निराशाके पश्चात् भी आशाकी किरणें दीख पडती हैं। कभी कभी ऐसे भी बिकट समय आते हैं जब मर जाना ही रामकी इच्छा होती है। उस समय हाय हाय कर के मरने की अपेक्षा शान्ति. पूर्वक रामकी अचिन्त्य इच्छा या भवितव्यता माताकी सर्वसंहारी प्यारी गोदमें प्रसन्नता के साथ विलीन होकर मुख छिपाकर ) रामके प्रलय नाट. कका अभिनायो बन जाने में ही मानवका कल्याण होता है। मनुष्य जाने कि वह इस संसारमें सदा रहने के लिये नहीं आया। मरना अनिवार्य हो तो तड़प-तड़प कर मरना इस ईश्वरदत्त मरणावसरका महादुरुप. योग है । यदि मनुष्य इस भयंकर समझी हुई अवस्थाका सबसे अच्छा उपयोग कर सकता है तो वह मोतका सहर्ष स्वागत करके ही कर सकता है। मवश्यंभावी मौत को अपनी मानस शक्तिले प. भूत कर के विजयी बन. कर मरनेमें ही मानव कल्याण है । बताइये इस सम्बन्ध मनुष्य इससे अच्छा और कर ही क्या सकता है ? Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधुका आश्रितोसे सद्वर्ताव फलभोगमें देवायत्तता है। कर्म करनेमें देवायत्तता नहीं है । सफलता ही पुरुषार्थ है और असफलता ही देव है । दे। निर्बल है और पुरुषार्थ प्रबल है । मनुष्य यह जाने कि कर्म या पुरुषार्थ करनेसे देवायत्तता नहीं है। जहाँ मनुष्य पुरुषार्थका काम न करे और कुंठित होकर हाथपर हाथ धरकर खडा होगया हो, वहाँ देव या रामकी इच्छा ही मानवकी एकमात्र शरण सम्वा, सुहृद तथा माता-पिता होती है। ऐसे समय मनुष्य का कल्याण इसीमे होता है कि वह प्रलयलीलाकारी भगवान में परम समर्पण कर दे और मत्युसे अभिन्न होकर या उसे अभिहृदय मित्र के रूप में आलिंगन करके इस संहार-लीलाको तटस्थ भाव से देखें । और अपने भौतिक अस्तित्व के विनाशमें अपनी स्वीकृतिकी मुद्रा लगाकर जीवन्मुकों की मौत मरे । पाठान्तर- देवायत्तं न शोचयेत् । साधुका आश्रितोंसे सद्वर्ताव ) आश्रितदुःखमात्मन इव मन्यते साधुः ।। ५२५।। उदारचेता साधु पुरुष आश्रितोंके दुःखों को अपने ही ऊपर आया हुआ दुःख मानकर उस दूर करने के लिये अपने व्यक्तिगत दुःखोंको हटाने जितना ही सुदृढ प्रयत्न करता है। विवरण-~- साधु पुरुष प्राश्रित के दुःख को उसक! व्यक्तिगत दुःख मानने के स्थान में उसे अपना ही दुःख मानकर उसका प्रतिकार करता है। सत्पुरुषके दुःखको स्वदुःख मानना ही तो सावुकी साता है और यही उपकी महत्ता भी है।। ___ आत्मोपम्येन सर्वत्र दयां कुर्वन्ति साधवः । मायु स्वयं सत्याश्रित होता है । वह सत्यमें आत्मसमर्पण करके स्वयं सत्यस्वरूप होचुका होता है । सत्यमें आत्मसमर्पण कर देनेवाले उस जैसे सब लोग उसके आश्रितों में गिने जाकर उपकी सेवा पाने के अधिकारी हो जाते हैं। माश्रित और माश्रयदाता दोनों की एकता ही सेव्यसेवक के पार. २१ ( चाणक्य.) Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि स्परिक अटूट प्रेमबंधनका आधार होती है । साधु पुरुषोंकी आत्मानुभूति उनके पांच भौतिक देहोंमें सीमित न रहकर विश्व के समस्त ज्ञानियों में व्याप्त रहती है । साधु भी आत्मानुभूति उसके दैहिक कारागारसे सीमित नहीं होती । साधुके पास सबके ही संबंध में कर्तव्य रहते हैं और वह उन कर्तज्योंको अपनी अनन्त श्रद्धा से इसलिये पालता है कि उसे विश्वभर के ज्ञानियों में आत्मदर्शन और आत्मसम्भोग करके अपना जीवन धन्यः करना है । ४८२ ( अनार्यका कपटी व्यवहार ) हृद्गतमाच्छाद्यान्यद्वदत्यनार्यः || ५२६ ॥ दुष्ट लोग मनकी दुष्टताको तो छिपाये रखते हैं और केवल जिद्वासे अच्छी बातें किया करते हैं । विवरण- दुष्ट लोग मनसे तो परवंचन, परस्वापहरण, परपीडन आादिके उपाय सोचते हैं और वाणीसे परोपकार, देशसेवा, साधुता आदिका बखान करते हैं । न धर्मशास्त्रं पठतीति कारणं न चापि वेदाध्ययनं दुरात्मनः । स्वभाव एवात्र तथातिरिच्यते यथा प्रकृत्या मधुरं गवां पयः ॥ ८ " 'धर्मशास्त्रोंके वचन सुनाना, गंभीर सिद्धान्त बघारना, ऊंचे नारे लगाना और वेदाध्ययन करना दुरात्माको विश्वासयोग्य नहीं बना पाता । इसमें तो स्वभाव ही प्रबल रहता 1 आर्य वही है जिसका आचरण समाज के लिये वेदके समान प्रमाणभूत है। कार्य वही है जो अपने आचरणको यशोभिलाषासे कभी आत्मप्रचारका विषय नहीं बनाता। आर्यका आचरण ही देशसेवाका प्रत्यक्ष प्रमाण या मूर्तरूप होता है / आर्यका खानपान, रहनसहन, वाग्विनिमय आदि सब कुछ अपने समाजकी सेवाका रूप लेकर रहता है। उसका आचरण उसके मनके पूर्ण आत्मप्रसादका कारण होता है । उसके मन में अपने भात्मप्रसादको यशोलिप्सासे आत्मप्रचारके द्वारा कलंकित करनेकी मलिन भावना कभी स्थान नहीं पाती । Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सदबुद्धिहीनता ही पैशाचिकता ४८३ धूर्त लोग मनकी बात छिपाकर दूसरोंको ठगनेके लिये ऊपरके मनसे बनावटी बातें बनाया करते हैं। मनस्यन्यद्वचस्यन्यत्कर्मण्यन्यद् दुरात्मनाम् । मनस्येकं वचस्येक कर्मण्येकं महात्मनाम् ॥ (विष्णुशर्मा ) दुर्जनके मनमें कुछ, वाणीमें कुछ तथा कर्ममें कुछ और ही होता है। महात्माके तो मन, वाणी, कर्म तीनोंमें एक ही बात होती है। अनार्य के वाणीमें कपट शीतलता होती है परन्तु उसके हृदय में वज्रसे भी कर्कश दुर्बुद्धि छिपी रहती है। ( सद्बुद्धिहीनता ही पैशाचिकता ) बुद्धिहीनः पिशाचादनन्यः ॥ ५२७ ॥ सुबुद्धि (या सद्बुद्धि ) हीन व्यक्ति घृणाका पात्र होता है। विवरण- बुद्धिहीनके माचरणमें सर्वत्र लघुता, क्षुद्रता, नीचता और पैशाचिकताका प्रदर्शन रहता है । बुद्वियुक्त मनुष्य तो बुद्धि से हिताहितका विवेक करके हेयको त्यागकर, उपादेयको अपनाकर सब काम सचित रीतिसे कर लेता है । बुद्धिहीनसे यह सब नहीं हो पाता। वह अपने स्वेच्छाचारसे ठोगोंकी घृणा तथा अपेक्षाका पात्र बन जाता है। राजाका कर्तव्य है कि वह अपने राज्य मेंसे बुद्धिहीनताका बहिष्कार करने के लिये सुबुद्धि के प्रचार तथा प्रसारके सुदृढ उपाय करे। राज्यमें धार्मिक, सदाचारी, बुद्धिमान् लोग अधिकतासे उत्पन्न होते रहें, ऐसा प्रबन्ध करना राजाका राष्ट्रीय कर्तव्य है । जो राजा योग्य लोगोंके उत्पादनकी भोरसे उदासीन है वह अपने राज्य में श्रीवृद्धि के लंबे चौडे कार्यक्रम चलाता हुमा भी पिशाचोंकी संख्या बढा रहा है। बुद्धिहीन तथा पिशाचमे कोई मन्तर नहीं है। भोजन तथा मोगमात्र पहचाननेवाली बुद्धि वही है जिसे हिताहितका परिचय है। हिताहित Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८४ चाणक्यसूत्राणि बुद्धि से हीन मनुष्य सदा ही समाजका अहित करनेवाला कुकर्मा होता है । समाजकी शान्ति हरनेवाले कुकर्मा लोग ही असुर या पिशाच हैं । पाठान्तर- धीहीनः पिशाचादनन्यः । ( आत्मरक्षाके साधनोंके साथ यात्रा करो ) असहायः पथि न गच्छेत् ।। ५२८ ।। अपने साथ आत्मरक्षाके साधन शस्त्रास्त्र लिये विना मार्ग न चले। विवरण-- यहां पर जानना यह है कि मनुष्यका असहायपना आरमरक्षाकी योग्यतासे ही मिटता है। शस्त्रहीन दो चार, दश पांच भी असहाय ही माने जाते हैं। मनुष्यका अपहायपन संख्याधिक्यसे दूर नहीं होता। प्रजामें आत्मरक्षाकी व्यक्तिगत योग्यतासे दी देशका असहायपन मिटता है। अंग्रेज जब भारत आया था तब उसने भारतके प्रत्येक ग्राममें विभक्त शासनशक्ति तथा न्यायशक्तिको छीन कर तो जिलों में न्यायालयों की स्थापना करके उन्हें न्यायकी दूकानोंका रूप दे दिया था और ग्रामोंका आत्मरक्षामें समर्थ बनाये रखनेवाली शस्त्रशक्तिको उनसे छीनकर अर्थात् ग्रामवालि. योको निःशस्त्र, नपुंसक विरोध करने के अयोग्य बनाकर रखा था और सोचा था कि नपुंसक राष्ट्रपर शासन करना सुकर है। हमारी वर्तमान राष्ट्रीय कहलानेवाली सरकार भी नपुंसक राष्ट्र पर शासन करने में सुभीता देखकर विदेशियों को दुष्ट स्वार्थी बुद्धि की निन्दनीय उपज शस्त्रकान नको जानबूझकर नहीं तोड रही है। जिस कारणसे ब्रिटिशने यह कानून बनाया था उसीको हमारी अविचारशील शहरी सरकार चालू रख रही है । जनता स्वभावसे शान्तिप्रिय है। शान्ति-प्रिय प्रजाका शान्ति-रक्षक राज. शक्तिका विद्रोही होना असंभव कल्पना है । जो सरकार कानुनके दबावसे जनताको निरस्त्र, नपुंसक, असंगठित रखने में अपनी सुरक्षा समझ रही है वह जनताकी सदिच्छाका विद्रोह करके पशुबल से राज्यशासन कर रही है। Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामीका यशोगान कर्तव्य इसने जनता के स्वतंत्र सामरिक संगठनको गैर कानूनी कर रखा है। इसके मूलमें यही दुर्बुद्धि छिपी हुई है कि जनता में उसके राष्ट्रद्रोही कृत्यों का विरोध करनेकी शक्ति न रहे । यदि वह वास्तव में राष्ट्रहितैषी सरकार होती तो उसके मन में ऐसी भीति कभी भी न होती । क्योंकि जनताकी स्वतंत्र सामरिक शक्ति उसकी राष्ट्रहितैषिताका अनिवार्य साथी कभी रहती । शस्त्रकानून उन्मूलित होते ही शांतिप्रिय जनता तत्क्षण संगठित होकर गांवगांव में शान्तिरक्षा में स्वयमेव समर्थ हो जाती । पाठान्तर - असहायो न पथि गच्छेत् । ( पुत्रस्तुति अकर्तव्य ) पुत्रो न स्तोतव्यः ॥ ५२९ ।। पुत्रकी स्तुति नहीं करनी चाहिये । विवरण - गुणी पुत्रका गुणग्राही होना पिताका अपराध नहीं है। प्रत्युत यह तो पुत्रको उत्साहित करनेवाला पितृधर्म है । परन्तु यह पितृधर्म पितापुत्र में ही सीमित रहना चाहिये । बाह्य जगत् में पुत्रकी स्तुति करना आत्म-प्रचारके समान ही श्रोताओंके कानों को भी कष्ट पहुँचाने तथा उनके मन में अविश्वास उत्पन्न करनेवाला अपराध होता है । पिताके मुखसे पुत्र - स्तुति उसे प्रभावहीन बना देती है। पुत्र-स्तुति पिता आत्म-स्तुति मानी जाती है । पुत्र के विशेष गुणोंकी स्तुति पिता के मुखको शोभा नहीं देती, प्रत्युत के उन गुणोंमें भी संदेह पैदा कर डालती है । पाठान्तर - न पुत्रः स्तोतव्यः । ४८५ ( स्वामीका यशोगान मृत्यकर्तव्य ) स्वामी स्तोतव्योऽनुजीविभिः ॥ ५३० ॥ भृत्य लोग गुणी स्वामीको लोकप्रिय बनाये रखनेके लिये जनता में उसके गुणोंकी प्रशंसा किया करें। Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८६ चाणक्यसूत्राणि विवरण- स्वामी के गौरव, बुद्धि तथा उसकी उपकार, भरण तथा रक्षाकी प्रवृत्तियों को उत्तेजित करते रहनेके लिये उसकी स्तुति करना अनु. जीवियोंके लिये लाभदायक होता है। भृत्य लोग गुणी स्वामीके प्रति कृतज्ञता तथा प्रभु भक्तिका प्रदर्शन करके प्रभु-भृत्य सम्बन्धको न टूटने दें और समाजमें प्रभुको लोकप्रिय बनानेके लिये उसका गुण-कीर्तन करके समाजकल्याणके काममें प्रभुके सहायक बनें। पाठान्तर --- स्वामी स्तोतव्यः सर्वानुजीविभिः।। पाठान्तर- न निन्दनीयः स्वामी स्तोतव्यः सर्वानुजीविभिः । धर्मकृत्येप्वपि स्वामिन एव घोषयेत् ॥ ५३१ ॥ अनुजीवी लोग राजाज्ञासे किये हुये लोकोपकारी धर्मकृत्योंको अपने न बताकर स्वामी या अपनी राज्यसंस्थाके ही किये बताया करें। विवरण- अनुजीवी लोग राष्ट्रभरमें स्वामी या अपनी राज्यसंस्थाकी धार्मिकताका प्रचार करके उसके लिये जनताका प्रेम और सहानुभूति प्राप्त करें । ऐसे करनेसे राजा या राज्यसंस्थाको राष्ट्रसेवा करनेमें अनुकूलता और सुकरता हो जाती है। पाठान्तर- धर्मकृत्येष्वपि स्वामिनमव घोषयेत् । पाठान्तर-- सर्वकृत्येष्वपि ,, ,, । सब कामों में स्वामीके ही कर्तापनकी घोषणा किया करे । ( राजाज्ञापालनमें विलम्ब अकर्तव्य ) राजाज्ञा नातिलंघयेत् ॥ ५३२ ॥ राजाशाके पालनमें अनुचित देर न करें। विवरण- राजाज्ञा टालनेसे राष्ट्र में दुराचारियों को दुराचार करनेका अधिक अवसर प्राप्त हो जाता है । राजाके आदेशके समयपर पालित होते Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भृत्यका धर्म रहने से नगर, ग्राम, हाट, घाट, शिल्प, वाणिज्य आदि समस्त कार्यों में सौकर्य व्यवस्था और शान्ति मा जाती है। राजाज्ञाके अपालित रह जानेपर प्रजामें मात्स्यन्याय चल पडता है। निर्वलपर बलवानोंका दबाव या जिसकी लाठी उसकी भैंस ही मात्स्यन्याय है। जैसे बड़ी मछली छोटीको खा जाती है उसी प्रकार बलवान् लोगोंके निर्बलों पर अत्याचारका निष्प्रतिबन्ध चलते रहना ही मात्स्यन्यायका अभिप्राय है । (भृत्यका धर्म ) ( अधिक सूत्र ) स्वाम्यनुग्रहो धर्मकृत्यं भृत्यानाम् । अपने कर्तव्य-पालनसे प्रभुका अनुग्रह प्राप्त कर लेना ही भृत्योंका धर्माचरण है। विवरण -- राष्ट्रपालन ही राजकर्मचारियोंका एकमात्र धर्म है । राष्ट्रपालन द्वारा स्वामी की कृपा पा लेने पर ही मृत्योंकी उन्नति निर्भर है । स्वामीको कृपा न होनेपर शुभकर्म होना असंभव हो जाता है तथा कुपित होनेपर तो जोवन विघ्नोंसे घिर जाता है।। यथाऽऽज्ञप्तं तथा कुर्यात् ।। ५३३ ॥ लोकहितकारी कार्यों के सम्बन्ध राजाकी ओरसे जब जैसी आज्ञा मिले तब उसे कर लेने में सर्वात्मना लगकर उसे अवश्य पूरा करे। विवरण- राजकर्मचारी राजाज्ञाके विना कोई काम न करे जैसे प्रभु और भृत्यका सम्बन्ध माज्ञा देने और पालने का ही है। जो लोग राजा. ज्ञाके प्रति आत्मदान कर देते हैं वे ही अपनी और राष्ट्र की दोनों की उन्नति करते हैं । राज्यमें ऐसे ही लोग भृति स्वीकार करें। पाठान्तर- यथैव यत् स्वामिना आशापितं तथैव वा कुर्यात् । Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८८ चाणक्यसूत्राणि ( अधिक सूत्र ) सविशेषं वा कुर्यात् । तात्कालिक विशेष कर्तव्य विना पूछे तुरन्त कर लिया करें। विवरण- राजभृत्यलोग राष्ट्रहितकारी वे तात्कालिक विशेष काम, जो कालविलम्ब न सह पकते हों, जिनके सम्बन्ध राजाज्ञा प्राप्त करने में अवसर निकल जानेकी अधिक संभावना हो. राजाज्ञा न मिलने पर अपनी सूझसे राजाका अनुमोदन मिल सकने के पूर्ण विश्वास के साथ कर लिया करे और राजासे कर्तव्यनिष्ठ, स्वामिभक होने की प्रशंपा प्राप्त करें । ( अधिक सूत्र ) स्वामिनो भीरुः कोपयुज्यते । राजसेवामें भीरु अकर्मण्य लोगोका कोई उपयोग नहीं है। ( अनार्य की निर्दयता ) ( आधिक सूत्र ) नास्त्यनार्यस्य कृपा। अनार्य ( अर्थात् नीच मनुष्य अपनी क्रूरता तथा अनुदारताक कारण दूसरों के साथ सदय वर्ताव करना नहीं जानता। विवरण- अनार्योको कर्तव्या-कर्तव्यकी कसौटी मार्यो सर्वथा विप. रीत होती है । अनार्य लोक कर्तव्यों को त्यागते तथा अकर्तव्य करते हैं। अनार्य लोग अपनी स्वार्थ बदि से मनुष्य- समाजका ३ल्याण करने वाले कर्तव्यों को त्याग देते हैं और मनुष्य-समाजके कल्याणपर आक्रमण किया करते हैं । अनार्य लोग अपनी संकीण दृष्टि से लोभान्ध, कामान्ध होकर अशान्तिकारिणी पैशाचिक लीला किया करते हैं । दया, कृपा आदि उदारगुण भार्या में ही पाये जाते हैं। जिसमें ये गुण पाये जाते हैं वे अनार्य कहानेवाली जातियों में उत्पन्न होनेपर भी कार्य हैं । जो दया, कृपा भादि करना नहीं जानते वे मार्यपरिवारमें जन्म लेकर भी मनार्य या म्लेच्छ कहाते हैं। सार्वभौम धोका पालन करने वाले लोग ही भार्य कहे जा सकते हैं । मायताका किसी सम्प्रदाय, जाति या भूमण्डल से सम्बन्ध नहीं है । आर्यता Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शत्रुके प्रति बुद्धिमानका दृष्टिकोण तो क्रियात्मक या सदाचारात्मक धर्म है। आर्य लोग समस्त विश्वको अपनी मानवताके संरक्षक क्षेत्र विराट् परिवार के रूप में देखते और उसकी सेवाको अपना भादर्श या धर्म स्वीकार करके उसे पालते रहते हैं। अनार्य लोग अपने कुविश्वासोको ही धर्मान्धताके रूप में अपनाये रहकर अपने क्षुव,मासुर, पारिवारिक या साम्प्रदायिक स्वार्थ-साधनको ही जीवन का ध्येय बनाकर अपने सम्प्रदायसे ससम्बद्ध मनुष्यसमाज की मनुष्यताकी निर्मम हत्या कर नेको स्वधर्मप्रचार या सम्प्रदाय विस्तार समझते हैं । इश्वरक पवित्र नामपर ईश्वरकी रची विधर्मी प्रजापर अत्याचार करना अनार्यों का स्वभाव है। (शत्रुके प्रति बुद्धिमान् का दृष्टिकोण) नास्ति बुद्धिमतां शत्रुः ॥ ५३४ ।। बुद्धिमानोंक शत्र नहीं होते। विवरण-- बुद्धिमान् लोग किसी भी बाह्य शत्रुको स्वीकार नहीं करते । वे तो मनुष्य की नियुदिता, अचातुर्य और ज्ञान को ही उसका शत्र पाते हैं. ये निवास या ज्ञान को पसभा का ज्ञानी बने रहते हैं । किया बाह्य शत्रुको शव मानना ही अज्ञान या निर्बुद्धि ता है। बुद्धि. मान वे हैं जो अपनी बुद्धि के सफल प्रयोगोंसे बाह्य शत्रुओं के माक्रमणको स्थिरचित्तसे तथा दृढतासे व्यर्थ करके अपने मन की शांति को सुरक्षित रखते हैं । बुद्धिमानों की बुद्धिमत्ता शत्रुओं के शत्रुताचरणको अपने विजय मनोबलसे व्यर्थ करने में ही है। संकल्प गर्व हानि पहुँचाने वाले लोग शत्रु कहाते हैं । क्योंकि अज्ञान मनुष्य की सबसे बडी हानि करता है इसलिये अज्ञानसे बडा मनुष्यका कोई शत्रु नहीं है। मनुष्य -समाजको अपने इस शत्रुसे अपनी संगठित शक्ति से लडना चाहिये और इसे संसार भरमें से निष्कासित करके छोडना चाहिये । परन्तु मनुष्य की कैसी मति मारी गई है कि वह इस वास्तविक शत्रुको ज्योंका त्यों शनिमान रहने देकर वेवल बाह्य शत्रुभोसे लइकर हारने में ही मानव-जीवन नामक इस लघु सुअवसरको कूड़े के ढेरके Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि बाह्य शत्रु समान उपेक्षित करता चला आ रहा है । मानव-समाजको सचेत हो जाना चाहिये, अज्ञानके विरोध में सुदृढ व्यूह ( मोरचा ) लगाना चाहिये और इसके विरोध में महान् आायोजन करने चाहिये । बुद्धिमान् लोग इस अज्ञान रूपी शत्रुको नष्ट करके संसार के सबसे बड़े सबसे भयानक शत्रु पर विजयी बने रहते हैं । यह तो असंभव है कि बाह्य शत्रु ज्ञानीपर आक्रमण न करें । तो अपने स्वभावानुसार ज्ञानी अज्ञानी सबद्दीपर आक्रमण करते हैं । परन्तु ज्ञानी लोग उस शत्रुको अपनी हानिका कारण नहीं मानते | वे उसके आक्रमणका भी सदुपयोग कर लेनेकी दिव्य कला जान चुके होते हैं। जैसे कठोर छिलकेवाला नारियलका फल काक- चंचुओंको व्यर्थ करता रहता है इसी प्रकार ज्ञानी लोग शत्रुओं के आक्रमणको व्यर्थ बनाते रहते हैं। चाणक्यका चरित्र देशद्रोही शत्रुओं को नष्ट करनेका जीवित उदाहरण उपस्थित कर गया है। बाहर के शत्रु या तो ज्ञानीके देहपर या उसकी देवरक्षा भौतिक साधनपर आक्रमण करके ज्ञानीको उसके ज्ञानका क्रियास्मक आस्वाद लेने का सुअवसर दे देते हैं । ज्ञानीके ज्ञानपर कोई चोट पहुँचा सकना बाह्य अज्ञानी शत्रु शक्तिके बाहर होता है। कर्मकी जो कुशलता है वही तो ज्ञान है । ज्ञानी बाह्य शत्रुके आक्रमणको शत्रु-विजयका शुभ अवसर मानकर उससे अप्रभावित होकर उसका प्रतिकार करता चला जाता है । वह बाह्य शत्रुके आक्रमणको नाशवान् भौतिक जगत्की परिवर्तन-शीलता में सम्मिलित कर लेता है और अपनी संपूर्ण शक्ति से प्रतिकार करने में लगा रहता है । वह इस अज्ञानीके आक्रमणका विरोध करते समय अपने सत्यस्वरूप प्रभुके नेतृत्व या कर्तापनमें रहकर अपने पांच भौतिक देहको असत्य विरोध के साधन के रूपसे उपयोग में लाकर सत्यसेवाका अमृत चखता रहता है। वह उस बाह्य शत्रुको हानि पहुँचानेवाले के रूप में स्वीकार ही नहीं करता। वह तो हानिसे अतीत रहना सीखकर उस आक्रामक घटनाको सत्यास्वादनका सुअवसर मानकर उसका मित्रकी भाँति स्वागत करता है । बात यह है कि आभ्यन्तर शत्रुके ऊपर ४९० Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'शत्रुको निबल रूप मत दिखाओ ४९१ पहले से ही विजय पा चुकनेवाले ज्ञानीका समस्त बाह्य व्यवहार सत्यरूपी मित्र-मिलनका विजयोत्सव बन जाता है । पाठान्तर- न सद्बुद्धिमतां शत्रुः । (सभामें शत्रुसे व्यवहारकी नीति ) ( अधिक सूत्र) शत्रु न निन्देत सभायाम् । सभामें शत्रुको निन्दा न करे। विवरण- सभामें शत्रुकी निन्दा करना अपनी ही धैर्यच्युति तथा शत्रुकी स्थितिमें उतारकर झगडा बढानेवाली निन्दनीय स्थिति है । सभामें दोनों पक्षों की पारस्परिक व्यक्तिगत उच्छंखल भर्सना-प्रतिभत्सनाका अप. राध प्रथम निन्दकके सिर मा पड़ता है । सभामें शत्रुको व्यक्तिगत निन्दा न करके उसके मनुष्योचित व्यवहार पाने के अधिकारको सुरक्षित रखते हुए केवल उसके निन्दनीय व्यवहार सुमभ्य संयत भाषामें अपने शिति-परि. चय, कोशल-जाल तथा सुगंभीर वाक्पटुतासे खण्डन करके उसे अप्रतिभ, हतप्रभ और निरुत्तर बनाना चाहिये । शत्रसे नि:सार वाग्युद्ध छोडकर शत्रकी निंदनीय स्थिति में उतर जाना अपनी ही पराजय है। उसकी बातोंका सयुक्तिक निराकरण करके उसके मायाजालको छिन्न-भिन्न करना और उसे मुत्तर देने योग्य न रहने देना ही 'सभा-पाण्डित्य ' कहाता है । ( शत्रुको अपना निर्वल रूप मत दिखाओ ) आत्मच्छिद्रं न प्रकाशयेत् ॥५३५॥ आत्मामें किसी प्रकारका छिद्र अर्थात् निबलता प्रकट होना चाहती हो तो उस प्रकाशित न करे अर्थात् अस्तित्वमें न आन दे। पाठान्तर-नात्मछिद्रं प्रकाशयेत् । पाठान्तर- न सर्षपमात्रमप्यात्मच्छिद्रं प्रकाशयेत् । Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि मनुष्य अपनी तुच्छातितुच्छ निर्बलताको भी प्रकट न होने दे अर्थात उसे व्यवहारभूमि प्राप्त न होने दे। ___ मनुष्य अपने मनमें उत्पन्न होनेवाली लघसे लघु निर्बलताको भी व्याव. हारिक रूप न लेने दे । स्पष्ट शब्दों में मनुष्य अपने मनको इतना संयमी और दृढ बनाकर रखे कि उसमें चित्त-चांचल्यजनित दुर्बलताको किसी भी प्रकार स्थान न मिलने पाये। मार्यचाणक्यका भूम्र यह लघुताभरी निर्बल बात नहीं कहना चाहता कि मनुष्य दुर्वलताको शत्रकी दृष्टि से छिपा. कर दुर्बल बना रहे । प्रत्युत यह कहना चाहता है कि मनुष्य किसी भी प्रकार की दुबलताको जीवन में कार्यकारी तथा समाजमें मंक्रामित न होने दे। दृढनित्तता ही वीरका स्वभाव होना चाहिये । पहले तो दुल भीरु बनकर रहना और फिर उस दुर्बलता या भीरुताको छिपाये रखना कोई अर्थ नहीं रखता। यह सुत्र अनिवार्य भौतिक निबलताओंके सम्बन्धमें कहना चाहता है कि वीरका कर्तव्य है कि वह अपनी भौतिक न्यूनताको असमर्थता न माने और शत्रुके तथा जगत् के सामने धीरज न छोड बैठे। विजिगीषु मनुष्य इस सत्य सिद्धान्तको कभी नहीं भूलता कि वीरकी दृष्टि में भौतिक सामथ्र्य की न्यूनता असमर्थता नहीं होती । मनुष्य को जानना चाहिये कि लोग भौतिक सामथ्र्यसे विश्वविजयी नहीं बना करते । भौतिक सामर्थ्य का न्यूनाधिक होना अवश्यंभावी होता है । वीरके पास यहच्छासे जो या जितना भौतिक सामर्थ्य होता है वह उतना ही वीरको वीरताके महान् नेतृत्वमें भाकर शत्रुविजयका ब्रह्मास्त्र बन जाता है और उसकी अनिवार्य मृत्यु भा खडी होने पर भी उसे विश्वविजेता बना देता है। ( सहनशीलताकी प्रशंसा ) ( अधिक सूत्र ) शक्ती क्षमा श्लाघनीया । निग्रह अनुग्रहका सामर्थ्य रहने पर भी सहनशीलता प्रशंसा योग्य प्रवृत्ति है। विवरण- यहाँपर क्षमाका अर्थ अप्रतिकार नहीं है। अप्रतिकारको Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहनशीलताकी प्रशंसा ४९३ क्षमा समझना बडी भूल है। शक्ति होनेपर भी उत्तेजित न होकर विवेकपूर्वक कर्तव्य करते जाना ही प्रशंसनीय स्थिति है। क्रोधवेगपर वशीकार रखना ही क्षमा है। अशक्तकी सहनशीलता तो उसकी दुर्बलता है। अशक्तकी सहनशीलता तो अगतिककी गति है। बुरीसे बुरी स्थिति में भी उत्तेजित न होने तथा प्रतिकार न छोड बैठने की क्षमावाली नीतिका स्पष्टीकरण भारवि कविके पाण्डवाग्रज युधिष्ठिर के मुखसे कहाय निम्न श्लोकों में देखा जा सकता है। क्षमा धर्मका पालन करते हुए शत्रुका नाश करना ही इन पद्यों में क्षमा शब्दका अभिप्रेत अर्थ है। शिवमापायिकं गरीयसी फलनिष्पत्तिमदूषितायतीम् । विगणय्य नयन्ति पौरुषं विजितक्रोधरया जिगीषवः ।। विजोगीषु लोग अपने क्रोधावेशपर अपना पूरा नियंत्रण रखकर महत्व. युक्त तथा सुन्दर भविष्यवाली फलसिद्धि को अपना लक्ष्य बना लेते हैं और अपने पुरुषार्थको फलसाधक उपार्योसे मिला देने के लिये शान्त रहते हैं । वे फलसिद्धि में विघ्न डालनेवाले कोधावेशमें नहीं आते । उपकारकमायतभृशं प्रसवः कर्मफलम्य भूरिणः । अनपायि निबर्हणं द्विषां न तितिक्षासममस्ति साधनम् ॥ स्थिर फल देने वाला होनेसे भविष्य को अत्यन्त सुधारनेवाला, विपुल कर्म. फल देनेवाला, स्वयं नष्ट न होकर शत्रुओं को नष्ट कर डालनेवाला, तितिक्षा (अर्थात् दुष्ट क्रोध के वशमें न आकर अपने कर्तव्य-पथपर दृष्टि रखे रहने ) से दूसरा कोई साधन नहीं है। पाठक दखे यहाँ तितिक्षा शब्द प्रतिकारका वाचक नहीं है। तितिक्षा शब्द क्रोधके कारण उत्पन्न होने वाले कार्यके असामर्थ्य के अवरोधक गुणका वाचक है । तितिक्षा तथा क्षमा एकार्थक हैं। अपने यमुदतुमिच्छता तिमिरं रोपमयं धिया पुरः । अविभिद्य निशाकृतं तमः प्रभया नांशुमताप्युदीयते ॥ उन्नतिकामी लोग सबसे पहले अपनी विवेक बुद्धि से रोष, भावेश या अक्षमासे होनेवाले अज्ञानान्धकारको हटायें । संसारमें देखा जाता है कि Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि सूर्य भी पहले अपने प्रकाशसे रात के किये अँधेरेको छिन्न-भिन्न किये बिना उदित नहीं होता । ४९४ बलवानपि कोपजन्मनस्तमसो नाभिभवं रुणद्धि यः । क्षयपक्ष इवैन्दवः कलाः सकला हन्ति स शक्तिसंपदः ॥ बलवान् भी जो कोपजन्य मोहके आक्रमणको व्यर्थ नहीं बना लेता, वह क्षयपक्ष में घटती चली जानेवाली चन्द्रकलाओंके समान अपनी समस्त शक्तियों को अपने भाप नष्ट कर डालता है। क्रोधान्धका लोकोत्तर सामर्थ्य भी व्यर्थ हो जाता है । ( क्षमासे प्रतिकारका सामर्थ्य ) क्षमावानेव सर्वं साधयति ।। ५३६ ॥ क्षमावान् (दुःख, अपमान, कटुवचन, धन-जन-हानि आदिको स्थिर बुद्धितासे सह कर अपना कर्तव्य करते चले जानेवाला ) ही सब कार्यों में सिद्धि पाता है । दुष्टों की विवरण - अनिष्ट देखकर आपसे बाहर न होकर अनिष्टकारीके साथ धीरज तथा कौशल के साथ यथोचित बर्ताव करना ही क्षमाका पूरा अर्थ है । क्षमा और विजय एक ही अर्थको प्रकट करते हैं । क्षमाका अर्थ विषरीत घटनाका प्रतिकार छोड देना कदापि नहीं है किन्तु विपरीत घटना के दर्शन से निर्बल न होकर स्वीकृत कर्तव्य करते चले जाना हैं। दुष्टताका प्रतिकार न करना या दुष्टताको सह लेना क्षमा नहीं है। दुष्टापराध-सहन किसी भी रूपमें क्षमा नहीं है । प्रत्युत क्षमाशील ही दुष्टों की दुष्टताका उचित प्रतिकार कर सकता है । अक्षमाशील लोग उत्तेजित होकर अन्याय, अत्याचार या आक्रमणका यथोचित प्रतिकार करनेके अयोग्य हो जाते हैं । पाठान्तर -- क्षमावानेव जयति लोकान् । पाठान्तर - क्षमायुक्ताः ः सर्व साधयन्ति Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आपत्कालीन कोश आवश्यक ४९५ ( आपत्कालीन कोश आवश्यक ) आपदर्थं धनं रक्षेत् ॥ ५३७ ॥ मनुष्य आकस्मिक विपत्तियोंके प्रतिकारके लिये कुछ धन संचित रक्खें। विवरण- वह जीवनयात्रामें अपव्यय न करके जितना बचाया जा सके उतना धन अपनी या अपने राष्ट्रकी विपत्तिके दिनों के लिये सुरक्षित रक्खें । जैसे वृद्ध मातापिताको पुत्रसे असमर्थ दिनों में पालन-पोषण पानेका अधिकार है वैसे ही समाज या देशको अपने प्रत्येक व्यक्ति से अपनी श्री. वृद्धि में सहयोग पानेका पूर्णाधिकार है। इसका कारण यह है कि समाजके कल्याणमें ही मनुष्यका कल्याण है। समाजके कल्याणमें सहयोग देना मनुष्यका अपना ही कल्याण है । प्रत्येक मनुष्यके पास अपने या राष्ट्र के बुरे दिनों के लिये कुछ सुरक्षित कोष अवश्य रहना चाहिये । सत्यपर असत्यके माक्रमणका काल ' आपत्काल ' कहाता है। उस समय असत्यका विरोध करके सत्यकी रक्षा करना मनुष्यका कर्तभ्य होता है । महामारी, विपूचिका, माततायीके भाक्रमण आदि कर्तव्य के अवसरपर उदासीन रहना असत्या. वस्था है। सत्यरक्षाका कर्तव्य मनुष्य के सामने अनेक रूप लेकर आया करता है। क्योंकि मनुष्यका देह सत्यकी सेवाका साधन है इसलिये उसका देह-धारण भी तो सत्य रक्षारूपी कर्तव्यमें ही सम्मिलित है । इस दृष्टिसे देहधारणसे संबन्ध रखनेवाले कर्तव्यों की अवहेलना करना असत्यकी दासता है। परन्तु यह ध्यान रहे कि देह-रक्षा वहांतक सत्यसेवा है जहाँतक वह सस्यानुमोदित उपायोंसे हो रही हो । असत् उपायोंसे देह-धारण करना तो भसस्यको ही सेवा है । इस रष्टिसे सत्यकी सेवा करते हुए देहको बलिदान करनेकी मावश्यकता भा खडी होनेपर उसके लिये सहर्ष प्रस्तुत हो जाना भी सत्यकी सेवामें ही सम्मिलित है। __ मनुष्यको अपने संचित धनको सत्यकी सेवामें सदुपयुक्त करनेका ही अधिकार है । धनका असत्यकी दासता करने में दुरुपयोग करना मनुष्यका Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९६ चाणक्यसूत्राणि अधिकार नहीं है इसीलिये अकर्तव्य है । इस दृष्टि से अपने राष्ट्रके आपसि कालका प्रत्येक कर्तव्य धनके सदुपयोगका अवसर बन जाता है । यह अवसर अपनी व्यक्तिगत दैहिक, पारिवारिक या सामाजिक आवश्यकताओंको पूरा करने या अभावको दूर करनेके रूप में उपस्थित होता है। समाजके विपदप्रस्त सत्यनिष्ठ व्यक्तिर्योकी भौतिक आवश्यकतायें भी सामाजिक आवश्य कतायें होती हैं । ऐसे अवसर उपस्थित होनेपर अपने धनको अपनी व्यक्ति गत संपत्ति न मानकर उसपर सत्यका अधिकार स्वीकार करके उसके तारकालिक सदुपयोग के द्वारा सस्यकी सेवा करने का आत्मसन्तोष प्राप्त करना मनुष्यकी लक्ष्यारूढता कहाती है । इसके विपरीत व्यवहार करना लक्ष्यहीनता या लक्ष्य भ्रष्टता है । 1 जिस देश में प्रजाको साधारण आर्थिक स्थिति आवश्यक संचय न कर सकने योग्य हो गई हो वहाँ समझना पडता है कि प्रजाके उपार्जनपर शासन व्यवस्थाकी कुदृष्टि है और उसकी शोषणनीति प्रजाकी रक्षक न रहकर भक्षक बनी हुई है। प्रजाकी निकृष्ट तथा उत्कृष्ट आर्थिक स्थिति राजशक्तिकी योग्यता- अयोग्यता, प्रबन्ध-पटुता, प्रबन्ध-हीनता, लोभ, निर्लोभ आदिपर निर्भर करती है। कोटलीय अर्थशास्त्र में कहा है तस्मात् प्रकृतीनां क्षयवरागकारणानि नोत्पादयेत् । राजा अपनी ओर से प्रजाके धन क्षय, तथा रोष के कारण उत्पन्न न करे । राजा अकरणीय करके तथा करणीयको त्यागकर, दातव्य न देकर, तथा अग्राह्य लेकर, अपराधीको दण्डित न करके निरपराधको दण्ड देकर प्रजाको चोर डाकुओं से न बचाकर लोगोंकी निरापदताको सुरक्षित रखने में प्रमाद करके प्रजाको असन्तुष्ट, दरिद्री तथा लोभी बना देता है । राष्ट्र-कल्याणकी दृष्टिसे राजाका कर्तव्य है कि वह प्रजाके धन-भंडारका शोषक न होकर उसे भरपूर रखने के भरसक प्रयत्न करे। प्रजाकी दरिद्रता राजा या राज्य · व्यवस्थाका ही अपराध है । यहीं कारण है कि राजशक्तिको प्रजाके अकस्मात्, अपहृत और दरिद्र हो जानेपर उसे अपहृत और दरिद्र हो जाने Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असत्यविरोधी वीरोंकी सहायता देनेके अपराध के प्रायश्चित्त के रूपमें उसकी माकस्मिक दरिद्रताको अपने कोषसे दूर करना पड़ता है । परन्तु राजशकि इस उत्तरदायित्वको तब ही पूरा कर सकती है जब वह प्रजाके धनका लूटमारके धनकी भांति अपव्यय न करती हो। राजशक्तिका कर्तव्य है कि प्रजासे प्राप्त राजकीय धन-भंडारको अनुचित अतिरिक वेतन या भंते आदि अपव्ययोंसे महाकृपणके तुल्य बचाकर पूर्ण बनाये रहे कि विपत्तिके दिनों में प्रजाके काम मा सके। जैसे विपत्ति के दिनों के लिये धन बचाकर रखना व्यक्तिका पारिवारिक कर्तव्य है इसी प्रकार राष्ट्र की विपत्ति के दिनोंके लिये राष्टकोश में धन बचाकर रखना राज्य संस्थाका राष्ट्रीय कर्तव्य है। राष्ट्र भी तो एक विराट परिवार हैं। मितव्ययिता ही परि. वारकी श्रेष्ठ अर्थनीति है। परिवार के लिये हितकर-नीति ही राष्ट्र के लिये भी हितकर हो सकती है । जैसे परिवार पति लोग धनका अपव्यय न करके बद्धमुष्टि रहने हैं इसी प्रकार राज्यसंचालक लोग प्रजाके धनको अपने भोगविलासमें अपव्यय न करके बद्धमुष्टि रहें । पाठान्तर - आपत्प्रतीकारार्थ धनमिष्यते। आपत्तियों के प्रतिकारके लिये धनसंग्रह अभीष्ट है । पाठान्तर- अत्रापदर्थ धनं रजेत् । संसारमें विपत्ति टालने के लिये धनसंचय करे । ( अस-यविरोधी वीरों की सहायता स्वहितकारी कर्तव्य ) साहसवतां प्रियं कर्तव्यम् ॥ ५३८ ॥ असत्यका विरोध करनका सत्साहस करनेवालोंके असत्य विरोध में सहयोगी बनो । विवरण- अपत्याविरोधियों के साहसमें सहयोग देने का साहस प्रदर्शन करो। सत्य या सम्मान -रक्षाके नामपर विपत्तिकी बाढको रोकने में छाती अढा देनेवाले तस्साहसी लोग समाज के प्राण होते हैं। समाजमें धमकी ३२ (चाणक्य.) Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९८ चाणक्यसूत्राणि रक्षा ऐसे ही लोगोंके द्वारा होती है। ऐसे लोगोंकी मास प्रवृत्तिको दानमानादिसे सम्मानित करना समाज तथा राज्यका स्वहितकारी कर्तव्य है। जो लोग सत्यके बलसे बलवान् होकर भौतिक शक्तिका घमंड करने. वाले माततायियों या शत्रुओंका विरोध करनेको भागे मा खडे होते हैं और दुःसाहसी शत्रुओं के दुःसाहसोंके विघ्न बन जाते हैं ऐसे साहसियों को सुख-सुविधा पहुँचाना, वे इस सेवायज्ञ में नष्ट हो जाये तो उनके निराश्रित पारिवारिकों का पालन-पोषण करना समाज या राज्यके विचारशील लोगोंका खोपकारक कर्तव्य है । साहसी लोगों की पूजा करना ही समाज-धर्म है। अपनेको सत्यकी शक्ति से अनन्त शक्तिमान मानकर असत्य का डटकर विरोध करना ही इस सूत्र के साहस शब्दका अर्थ है । सत्यकी सेवा करने में सम्पूर्ण संसारके विरोधी हो जानेपर भी उसका विरोध करके सत्यपर अकेले भी स्टे रहना साहस ' है । कुछ ऐसे लोग भी होते हैं जो असत्यकी दासतामें अपना जीवन संकट में डाल देते हैं । उनका असत्यकी दासता करते हुए जीवनको संकट में डालना साहस नहीं है । किन्तु दुःसाहस या उन्मत्तता है। ( कर्तव्य अभी करो) श्वः कार्यमद्य कुर्वीत ॥ ५३९॥ मनुष्य कलका काम अभी करे।। विवरण- मनुष्य कर्तव्य करने में क्षणभरकी भी देर न करे। वह माये कामको फिरके लिये न टाल कर उसे तत्काल करे । कर्तव्यको उसके उप. युक्त समयपर करें, क्योंकि वह उसी समयका कर्तव्य है । समयपर कर्तव्य न करना कतव्यभ्रष्टता है। इसलिये कम्यको तत्काल कर देने में ही मनुव्यका कल्याण है। आदानस्य प्रदानस्य कर्तव्यस्य च कर्मणः । क्षिप्रमक्रियमाणस्य कालः पिबति तद्रसम् ।। लेना, देना तथा करना सूझते ही न कर लिया जाय तो काल इन तीनों कामोंका रस चूस लेता है और फिर ये काम होनेसे सदाके लिये रह जाते है ! Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म व्यावहारिक हो ४९९ अपराह्निकं पूर्वाह्न एव कर्तव्यम् ॥ ५४० ॥ मध्याह्नोत्तरका काम दिनके प्रथम भाग में ही कर लेना चाहिये । विवरण- कर्तव्यको अगले क्षणके लिये न टालकर उसी क्षण करना चाहिये । यदि मनुष्य अवश्य कर्तव्य कार्य में आलस्य करेगा और उसे फिर कभी के लिये टालेगा तो दूसरे समय के लिये दूसरे काम आ उपस्थित होंगे । तब इस टाले हुए कामके लिये कभी भी उचित समय न मिल सकनेसे यह काम हो ही न सकेगा । - ( धर्म व्यावहारिक हो ) व्यवहारानुलोमो धर्मः ॥ ५४१ ॥ धर्मको व्यवहारमें आने योग्य या व्यवहारमें आनेवाला होना चाहिये । विवरण - धर्मको व्यवहारकी रुकावट न बनकर उसका संशोधक, सुधारक, सहायक तथा मार्गदर्शक बनकर रहना चाहिये । धर्मका ज्यावहारिक जीवन के साथ अभिन्न संबन्ध होना चाहिये । स्वधर्म ही मनुष्यके व्यवहार में प्रकट होता है । स्वधर्मका सत्यनिष्ठ मनुयके व्यवहार में प्रकट होना अनिवार्य है । सत्यनिष्ठा ही मनुष्यका स्वधर्म है । अपने व्यवहार में सत्यको प्रकट करना ही मनुष्यका स्वधर्म है । धर्म लोकेच्छाका बनाया नहीं होता । लोकेच्छा सदा ही अंधी ( अवि. वेकवती ) होती है । धर्मका काम तो लोकेच्छापर नियंत्रण रखकर लोकेच्छाको सत्याभिमुख प्रवाहित करना है । इसलिये मनुष्य लोकेच्छा के अनुसार न चलें | वह वे आचरण करे जिनसे मन कुमार्गसे रुके और समाजमें शान्ति तथा सुव्यवस्था रहे । जिस धर्मको व्यवहार में लाना मनुष्य-शक्तिके बाहर हो वह धर्म अव्यवहार्य धर्मके रूपमें माननीय नहीं हो सकता । व्यवहारको सन्मार्गपर रखना ही तो धर्म है । सत्यनिष्ठा ही सन्मार्ग है । Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०० चाणक्यसूत्राणि सत्यनिष्ठा कभी भी मनुष्यकी शक्ति से बाहर नहीं होती। मनुष्य सचे भोंमें सत्यनिष्ठ होना चाहे और न होसके ऐसा कभी संभव नहीं है । मनुष्य अपनी प्रत्येक अवस्थामें सत्यपर भारत होने में अनन्त शक्तिमान है । सर्वोपायोंसे असत्यका विरोध करना ही पत्यका व्यावहारिक रूप है। असत्यके प्रति अत्यन्त असहिष्णुता ही सत्यका कठोर स्वभाव है । सत्यनिष्ठ लोग समाजकी शत्रु असत्यकी दाम आसुरी शक्तिका विरोध करनेमें परि. स्थितिके अनुसार जब जो उलटा-सीधा व्यवहार करते हैं वही सत्यनिष्ठा या धर्म होता है। ___ महाभारतमें धर्मके संशोधित रूप पर इस प्रकार विचार किया है धारणाद्धर्म इत्याहुन लोकचरितं चरेत् । सामाजिक जीवनको सुव्यवस्थित रूप देकर धारण करनेवाला ही धर्म है। मनुष्य गतानुगतिक होकर ( स्वार्थी जीवन अपनाकर ) अधर्म न करे। मनुष्य स्वार्थी लोक-चरित्रका अंधा अनुकरण न करे । स्वार्थ समाज. घाती व्याधि होनेसे अधर्म है । मनुष्यको समाजमें शान्ति तथा सुन्यवस्था रखनेवाले तथा मनको कुमार्गसे रोक रखनेवाले भाचरण करने चाहिये । ( पुरुषपरीक्षा ही सर्वज्ञता ) सर्वज्ञता लोकज्ञता ॥ ५४२ ॥ अपनी सुतीक्ष्ण बुद्धिसे लोक-चरित्रको समझ जाना ही ज्ञान या सर्वज्ञता है। विवरण- लोक-चरित्रके विषयमें किसी भ्रान्ति में न रहना सर्वज्ञता है। किसीसे धोका न खाना, किसी अविश्वास्य को विश्वास्य न मानना यही मनुष्य. बुद्धिकी जीवनसे सम्बध रखने वाली सर्वज्ञता है। लोगोंके व्यवहार को सत्यकी कलौटीपर परखने लगना, दुष्टोंके दुष्प्रभावसे बच जाना तथा श्रेष्ठोंके सुप्र. भावसे लाभ उठालेना ही लोक-चरित्रके विषय में ज्ञान पानेकी कुशलता है । सत्यनिष्ठ व्यक्ति स्वयं ही एक कसौटी होता है । वह स्वयं ही लोक Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्रकी उपयोगिता ५०१ चरित्र की सत्यासत्य-परीक्षा करनेकी कसोटी बनकर रहता है। वह स्वयं सत्यको अपना स्वरूप जानकर सर्वज्ञ बन जाती और संसारको परखा करता है । ज्ञान ही अज्ञानसे मुक्त रहने या रखनेवाली सर्वज्ञता है। ( मानवको न पहचाननेवाला मूढ ) शास्त्रज्ञोऽप्यलोकज्ञो मूर्खतुल्यः ।। ५४३ ॥ लोक-चरित्रको न समझनेवाल। शास्त्रका उधारा ज्ञान रखने. वाला मानव मूर्ख ही रहता है। विवरण- ज्ञान शास्त्रोंके पन्नोंसे उधारा लेनेकी वस्तु नहीं है। न्या. वहारिक ज्ञान तो सत्यनिष्ट बनकर अपने ही अनुभवके माधारपर प्राप्त होता है। लोकज्ञ बन जाना ही ज्ञानी बन जाना है। लोकज्ञताको प्रयोजनीय तथा प्रधान बताना ही सूत्रका उद्देश्य है । व्यवहारमें लोकज्ञताका महत्त्वपूर्ण स्थान है। लोगों को शास्त्राध्ययनसे रोकना इस सूम्रका उद्देश्य नहीं है। पाठान्तर- शास्त्रज्ञोऽप्यलोको मूर्खध्वनन्यः । अनन्य शब्द तुल्यार्थक है । अर्थ समान है । (शास्त्रकी उपयोगिता ) शास्त्रप्रयोजनं तत्वदर्शनम् ॥ ५४४ ।। तत्त्वदर्शन अर्थात् लौकिक अलौकिक पदार्थोके याथार्थ्य या रहस्यका पूर्ण परिचय प्राप्त हो जाना या करा देना ही शास्त्रकी उपयोगिता है। विवरण- तत्वदर्शन न होनेपर शास्त्रपाठ तीन कौडीका रह जाता है । कर्तव्याकर्तव्य-निर्णय की कुशलता ही तत्वज्ञान है। अपने जीवनको सुखमय बनाना ही तत्व या मानव-जीवनका लक्ष्य है। ज्ञानके द्वारा दुःखातीत स्थितिको अपनाये रहना ही शास्त्र-पाठका उद्देश्य है और अपने जीवनपर सस्यका शासन बनाये रखना ही शास्त्रज्ञता है। शास्त्रनामक Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०२ चाणक्यसूत्राणि ग्रन्थोंको रट लेना या उनका अंधानुगामी होना शास्त्रज्ञता नहीं है किन्तु अपनी इन्द्रियोंके पैरों में शमकी भारी श्रृंखला डाल देना ही सच्ची शास्त्र. 'देवो भूत्वा देवं यजेत् ' जैसे देव बने बिना देवपूजन अशक्य है, इसी प्रकार जबतक शास्त्रपाठी लोग, अपनी तपस्या, संयम, विचारशीलता तथा इन्द्रिय-निग्रह आदि उदार स्वभावोंके द्वारा शास्त्रकारकी महत्वपूर्ण मानसिक स्थिति ले कर जीवन बिताना नहीं सीखेंगे या जीवन नहीं बिता. येंगे तबतक उन्हें शास्त्रोंकी तोतारटनसे कुछ नहीं मिलना है। निरुक्तकारने इस प्रसंगमें बडी मार्मिक बात कही है नेतेषु ज्ञानमस्त्यनृषेरतपसो वा ।' वेदोंमें उन लोगोंके लिये कोई भी ज्ञान नहीं है जो स्वयं मंत्रद्रष्टा ऋषियों ही जैसे तपःपूत ऋषि और उन्हीं जैसे तपस्या परायण लन्त नहीं हैं । निरुककार कहना चाहता है कि वेदों में से केवल तपस्वियों को ही कुछ प्राप्त हो सकता है। शास्त्रका मर्मज्ञ बननेके लिये पवित्र वातावरणमें रहना तथा अपने वातावरणको पवित्र बनाकर रखना आवश्यक है। ( तत्वज्ञानका अवश्यंभावी फल ) तत्त्वज्ञानं कार्यमेव प्रकाशयति ॥ ५४५ ॥ तत्त्वज्ञान अर्थात् कार्याकार्य-परिचय या सदसद्विचारकी शक्ति कार्य । कर्तव्यके स्वरूप) को ज्ञानज्योतिसे प्रकाशित कर देती है। विवरण- तत्वज्ञान (मर्थात् कर्तव्याकर्तव्य-निर्णय करनेकी कुश. लता ) मनुष्यको ग्यावहारिक जीवनका स्वरूप बतला देता है कि वह कैसा होना चाहिये । किस समय, किसको, कहां, क्या, क्यों करना चाहिये ये सब बाप्त मनुष्यका तत्त्वज्ञान रूपी हृश्यस्थ गुरु ही इसे समझाता है। विचारशील लोग जो कोई काम करते हैं उन्हें उसकी कर्तव्यताके सम्बन्धमें Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहारको सुखद बनानेका उपाय 1 कोई भी संदेह नहीं रहता । वे लोग अपने कर्तव्य के सम्बन्धमें संदिहानावस्था में नहीं रहते । कर्तव्य पालन ही कर्तव्यपालनकी सफलता है । कर्तव्य. निष्ठ व्यक्ति फलाकांक्षा-रहित होकर भौतिक शुभाशुभ परिणामके सम्बन्ध में निरपेक्ष होकर, अपने कर्तव्यको पालने के सन्तोष रूपी फलको या यों कहें कि कर्तव्यको प्रेरणा देनेवाले शुद्ध भावना रूपी फलको पहले ही से अपनी मुट्ठी में बैठा हुआ पाकर निःसंकोच होकर जीवनसंग्राम के सिद्धहस्त विजयी वीर बन जाते हैं और कर्तव्य पालनका व्रत लिये रहते हैं । ५०३ व्यवहार में सत्यका तो विजयी रहना और असत्यका पराजित रहना ही कर्तव्या कर्तव्य - निर्णयकी कुशलताका परिचायक है । तत्त्वज्ञानका काम मनुष्यको अकार्य से रोकते रहना तथा कर्ताको संदिहान न रहने देना है । व्यावहारिक जीवन में भ्रान्ति बने रहना कर्तव्य निर्णयकी अकुशलताका ही परिचायक होता है । असत्यकी पहचान सत्यको अपना चुकनेपर ही होती है । सत्यको अपना चुकनेसे पहले असत्य नहीं पहचाना जाता | असत्यको पहचान चुकनेवर मनुष्यको स्वभाव से ही उसे त्यागनेकी कुशलता प्राप्त हो जाती है | सत्यको अपना चुकना ही तत्वज्ञान है । तत्त्वज्ञके व्यवहारमें शान्ति, सौमनस्य, दयालुता, कृतज्ञता आदि गुणोंकी लंबी पंक्ति होती है । उसमें अशान्ति नहीं रहती । जिसके व्यवहार में कर्तव्यभ्रष्टता, अशान्ति, गरमी, उत्तेजना, संदेह और कर्तव्य मूढता नहीं है वही तत्त्वज्ञ है । अथवा - तत्वज्ञान सफल कार्योंको ही कर्तव्य बताता है। वह निष्फल अकरणीय कर्मोंको कर्तव्य नहीं बताता । ( व्यवहारको सुखद बनाने का उपाय ) व्यवहारे पक्षपातो न कार्यः || ५४६ ॥ व्यवहार में पक्षपात नहीं करना चाहिये । विवरण - व्यवहार सत्यानुकूल होने से ही सुखद होता है मनकी निष्पक्ष स्थिति है । इन्द्रियोंकी अभिलाषाओं या भौतिक कार्मोसे | सत्य Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०४ चाणक्यसूत्राणि अप्रभावित रहना निष्पक्षता है। व्यवहार में जितेन्द्रियता, निःस्वार्थता या सत्यसेवाको आधार बना लेना ही पक्षपात -रहित होना है। सत्यकी रक्षा पक्षपातरहित हो जाने से ही होती है। निष्पक्ष व्यवहार न करनेसे अपना तथा अपने समाज दोनों ही का अनिष्ट होता तथा समाजमें दुर्नीति की वृद्धि होती है। पाठान्तर- अपक्षपातेन व्यवहारः कर्तव्यः । ( व्यवहारकी धर्मसे मुख्यता अर्थात् व्यवहार अंगी धर्म उसका अंग ) धर्मादपि व्यवहारो गरीयान् ॥ ५४७ ॥ व्यवहार धर्मसे भी श्रेष्ठ या मुख्य है। विवरण- अव्यवहार्य धर्म धर्म ही नहीं है । धर्मको व्यवहारका रूप मिल जाना अर्थात् धर्माचरण तथा व्यवहारका एक बन जाना दूसरे शब्दों में व्यवहारका ही परमार्थ बन जाना या सकल प्रवृत्तियों का धर्ममय बन जाना ही धर्मकी सार्थकता है। व्यवहार ही धर्म कर्मक्षेत्र या माघारभूमि है। न्यवहार ही धर्मको प्रकट होने का अवसर देता है । व्यवहारके लिए ही धर्म है । व्यवहारमें धर्म का उपयोग न होना धर्म की व्यर्थता है। सत्यनिष्ठा ही मनुष्य का धर्म या स्वधर्म है ! व्यवहार में सत्यको प्रकट करना ही मनुष्यकी सत्यनिष्ठा है । यदि मनुष्यके व्यवहार में सत्य प्रकट न हों, तो मान लो कि असत्य ही उसके जीवन में प्रबल हो कर रह रहा है। जीवन में अपत्यके प्रबल होनेसे मनुष्यका अधार्मिक होना प्रमाणित होता है। वास्तव में देखा जाय तो लेखकके आधार गणनापट्टके समान व्यवहार हो धर्मका संरक्षक क्षेत्र है। धर्मको व्यवहारमें ही आत्मलाभ होता है । जो धर्म व्यवहारमें उपेक्षित रहता है, जो धर्म ग्यवहारभूमिमें उतरने का साहस नहीं करता, वह धर्म न होकर अधर्म का ही भावरणमात्र होता है। वह अधर्मको ही खुलकर खेलने की आज्ञा देनेवाला असत्य का ही चाटुकार बनकर रहने वाला नपुंसक, निर्वीर्य, अन्यावहारिक, आसुरी धर्म होता है । धर्मको Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहारकी साक्षी व्यवहार-ब - बहिर्भूत रखनेवाली आसुरी आध्यात्मिकता ही मनुष्यता- घाती आसुरी राजकी जननी है । मनको अभ्रान्त, अव्यर्थ आत्मशक्तिले जितेद्रिय बने रहने की व्यवहार कुशलता हो तो आध्यात्मिकता है। इस सीधीमी सरल बातको मूढतासे दृष्टि बहिर्भूत रखकर प्रवंचनामूलक जप, तप, भजन, कीर्तन, ध्यानधारणा, योगयज्ञ, समाधि आदि शारीरिक जटिल भ्रान्त प्रयत्नोंसे व्यर्थता वरण करते हुए अज्ञात अलोक ईश्वरकृपाका नपुंसक भिखारी बनकर, मनुष्यताहीन असुर बनना ही आसुरी आध्यात्मिकताका ध्येय है । ( व्यवहारका साक्षी ) आत्मा हि व्यवहारस्य साक्षी || ५४८ ॥ ५०५ आत्मा ही व्यवहारका साक्षी है । विवरण- सत्य ही मनुष्यका आत्मा या स्वरूप है। मनुष्य अपने इस सत्यस्वरूपकी कसौटीपर कसकर ही कर्तव्याकर्तव्यका विचार तथा निर्णय किया करता | मनुष्यका अन्तारा या उसके सीवर रहनेवाला सत्य, जिस बातको कर्तव्य के रूपमें स्वीकार कर लेता है, उसे व्यवहार में लाना उसके लिये अनिवार्य हो जाता है । उसे माणके नाकी शंका तक भी कर्तव्य से च्युत नहीं कर सकती । सत्यके नामपर हुए ऐतिहासिक बलिदान इस बातके साक्षी हैं। यदि मनुष्य व्यवहार में सत्यको उपेक्षा कर देता है तो उसीका आत्मा उसे सहस्रधा निन्दित करने लगता है । मनुष्य स्वयं ही अपनी परायी व्यवहारशुद्धिकी कसौटी है । मनुष्यको व्यवहारकी श्रेष्ठताका स्वरूप किसी दूसरे से नहीं सीखना है । जैसे मछली के बच्चोंको तैरना नहीं सिखाया जाता, इसी प्रकार मनुष्यको व्यवहारकी सच्चाई सिखाई नहीं जाती । वह उसे स्वभावसे जाती है। बाह्यशिक्षा उसीमें परिष्कार करनेवाली हो सकती है । अथवा आत्मा अर्थात् ( आत्मा शब्दको [ आत्मवान् राजा ] के समान मनका वाचक मान लेनेपर ) मनुष्यका मन ही उसके समस्त व्यवहारोंकी सच्चाई या झुठाईका साक्षी है । Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०६ चाणक्यसूत्राणि मनुष्य सारे संसारको धोका दे सकता है परन्तु अपने मनको नहीं ठग सकता । मनुष्यका मन उसके कर्मों के प्रौचित्य अनौचित्य के निर्णयका ऐसा न्यायालय है जिस न्यायालयकी आँखों में धूल नहीं झोंकी जा सकती। मनुष्यका मन उसकी प्रत्येक चेष्टा और उस चेष्टाकी प्रेरक भावनाओंसे पूर्ण परिचित रहता है। यत्कर्म कुर्वतोऽस्य स्यात्परितोषोऽन्तरात्मनः । तत्तद्यत्नेन कुर्वीत विपरीतं तु वर्जयेत् ॥ जिस कामको करते हुए मानव के अन्तरात्माको साविक, सन्तोष और निःस्वार्थ हर्ष हो उसे यस्नसे करे तथा संतोषहीन, साबिक, हर्षरहित, चित्त चाचल्यकारक, भीतिजनक, लजावह काम न करे । . ( संसारभरका साक्षी ) सर्वसाक्षीह्यात्मा ॥ ५४९॥ सत्यस्वरूप आत्मा इस सकल जगत्के या इस मानवके जीवन व्यापी समस्त चरित्रको या तो सत्य होनेका प्रमाणपत्र देकर साधुवाद देने या असत्य प्रमाणित करके धिकारनेके लिये मानव हृदयमें साक्षी अर्थात् तटस्थद्रष्टा बनकर बैठा है ।। विवरण- बाहरवाला साक्षी चाहे सर्वत्र न मिल सके परन्तु यह आत्मारूपी विश्वव्यापी साक्षी तो सदा सर्वत्र उपस्थित रहता है । आत्मैव ह्यात्मनः साक्षी गतिरात्मा तथात्मनः । मावमंस्थाः स्वमात्मानं नृणां साक्षिणमुत्तमम् ॥ १॥ मन्यन्ते वै पापकृतो न कश्चित्पश्यतीह नः । तांस्तु देवाः प्रपश्यन्ति स्वस्यैवान्तरपूरुषः ॥२॥ एकोऽहमस्मीत्यात्मानं यत्त्वं कल्याण मन्यसे । नित्यं स्थितस्ते हृदये पुण्यपापेक्षिता मुनिः ॥३॥ अपना आत्मा ही अपना साक्षी तथा पनी गति है। मनुष्यको इसके अतिरिक्त मौर किसीको भी नहीं पाना है। मनुष्य ! तू मनुष्यों के सर्वोत्तम Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साक्षीका धर्म ५०७ साक्षी अपने आस्माका अपमान अवहेलना या उपेक्षा मत कर ॥ १ ॥ पानी लोग समझते हैं कि हमें कोई नहीं देखता। पापी लोग जाने कि उन्हें देवता और उन्हींका भीतरवाला पुरुष देख रहा है ॥ २ ॥ भो भले मानस ! तू जो अपने आपको अकेला समझकर पापमें कूद पडना चाहता है यह तेरी भयंकर भूल है । तू अकेला कभी भी नहीं है । तेरे भीतर पापपुण्य दोनों का द्रष्टा एक मुनि बैठा है । वह तुझे दिन-रात आठ पहर देख यमो वैवस्वतो देवो यस्तवैष हृदि स्थितः । तेन चेदविवादस्ते मा गंगां मा कुरून् व्रज ॥ १ ॥ यस्य विद्वान् हि वदतः क्षेत्रो नाभिशंकते । तस्मान देवाः श्रेयांसं लोकतन्यं पुरुषं विदुः ॥२॥ मो मानव! तेरे हृदय में जो वैवस्वत यम तेरा हृदयेश बनकर तेरे कमौकी साक्षी लेने के लिये बैठा है उससे यदि तेरा उसका कोई विवाद नहीं है, यदि उसे तेरा कोई ऐसा पाप हाथ नहीं आता कि जिसपर वह तुझे टोक सके तो तू निष्पाप और धन्य है । अब तुझे पाप-नाशके लिये गंगा या कुरुक्षेत्र जाने की कोई मावश्यकता नहीं है । जिस मनुष्य के कोई बात मुंहसे निकालनेपर उसकी गुप्ततम भावनाओं तकको भली प्रकार जाननेवाला अन्तरालमा शंकित नहीं होता विद्वान् लोग इस संसारमें उससे श्रेष्ठ किसी पुरुषको नहीं जानते । विद्वान् लोग उसे पुरुषोत्तम कहते हैं। ऐसा मानव तो मानव रूपधारी परब्रह्म है । उसके देहमें साक्षात् नारायण मानव-लीला करते हैं। पाठान्तर-सत्यसाक्षी ह्यात्मा । मात्मा सबसे सच्चा साक्षी है। ( साक्षीका धर्म ) । न स्यात् कूटसाक्षी ॥ ५५० ॥ मनुष्य मिथ्यापक्षका समर्थक साक्षी न बने । विवरण- कूटसाक्षी बननेसे सत्यका आच्छादन, परवंचन, समाजगर्दा, तथा भात्मग्लानि होती है । जो मनुष्य सच्ची घटनाको जानता हुआ भी Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०८ चाणक्यसूत्राणि साक्ष्य देनेसे बचता है वह भी कूटसाक्षी माना जाकर कूटसाक्षीके ही समान दण्डनीय होता है। यही बात याज्ञवल्क्यने कही है न ददाति हि यः साक्ष्यं जाननपि नराधमः । स कूटसाक्षिणां पापैः तुल्यो दण्डेन चैव हि ॥ महाभारत में भी कहा है यश्च कार्यार्थतत्वज्ञो जानन्नपि न भाषते । सोऽपि तेनैव पापन लिप्यते नात्र संशयः ॥ जो सच्ची बात जानता हमा भी नहीं बताता उसे भी वही पाप लग जाता है जो साक्षात पापीको लगता है। वास्तविक बातको निरर्थक बना डालनेवाली वक रीतिसे कहनेवाला साक्षी भी कूटसाक्षी कहाता है । साक्षी लोग मिथ्या साक्षी, गृढ साक्षी आदि अनेक प्रकार के होते हैं । मनुके सातवें अध्याय तथा व्यवहार तत्व में इसका सविस्तर वर्णन है। अन्धं तमः प्रविशन्ति ये के चात्महनो जनाः । ( ईशावास्य ) अपने भारमाका वात करने अर्थात् अपने मनकी सच्ची वाणीको जान. बृझकर सकनेवाले लोग घोर अज्ञानान्धकारमें डूबे हुए लोग हैं । सच्ची साक्षी देनेसे बचना तो आज समाजकी साधारण मनोदशा बन गई है । लोग सच्ची साक्षी देना अपना कर्तव्य ही नहीं समझते। यह मानवकी कैसी हीनता है कि लोग सत्यको विजय दिलाने में उल्लास अनुभव नहीं करते । यह उससे भी बड़े दुःखकी बात है कि समाजमें मिथ्या साक्षी देनेका एक व्यवसाय बन गया है । मिथ्या साक्षी देनेवाले लोग आगे बढकर साक्षी देते और इस व्यवसायसे अनुचित भौतिक लाभ भी उठाते हैं। इस सूत्र में मिथ्या साक्षी देने की प्रवृत्तिको निन्दित ठहराया गया है। परन्तु सच्ची साक्षी न देने के कारणोंपर प्रकाश नहीं डाला गया। जो लोग सच्ची साक्षी देने से बचते हैं, आइये उनकी मनोदशाका विश्लेषण करके Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कूटसाक्षीकी हानि देखें | वर्तमान न्यायालयों ( प्रचलित अदालतों ) में अनैतिकताका वाताचरण है यह सर्वविश्रुत तथा सर्वसम्मत बात है । जो लोग वर्तमान न्यायालयों ( या अदालतों ) के संपर्क में जाते हैं, उन सबका अपने स्वाभिमान तथा अपनी स्वाभाविक सत्यनिष्ठा पर पग-पगपर चोट आनेका भस्यन्त कटु अनुभव है । यों तो सत्यनिष्ठ के लिये सच्ची साक्षी देना सुखकर कर्तव्य है, परन्तु जिन न्यायालयों ( अदालतों ) में सत्यका अपमान करनेका ही सुदृढ प्रबन्ध हो, जहाँ स्वयं अदालत सत्यको अपमानित करके मिथ्याको महत्व देनेके लिए तुली हुई दो और न्यायके सिरपर अपने स्वेच्छाचारको बैठा रखा हो तथा न्यायार्थीके मानवीय उचित अधिकारको पददलित करके सब प्रकारका प्रमाद, आलस्य और दुराग्रह करनेके लिए स्वतंत्र हो जहां पुलिस नाना प्रकार के अनुचित उपायोंसे मिथ्या प्रमाण सजाकर अघदिन अभियोग प्रस्तुत करने में लगी रहती हो, वहाँ पुलिसके तथा घमंडी अदालतके संपर्क में आना सत्पुरुषों के सिद्धांत के विरुद्ध हुए बिना नहीं रहता । ५०९ सत्य साक्षी देनेका आग्रह रखनेवाले परपुरुषको जबतक न्यायालयकी पवित्रता, पुलिसकी कर्तव्यनिष्ठा तथा न्यायालयकी कार्यवाहियों में अपनी सम्मान - रक्षाका पूर्ण सन्तोष न मिले, तबतक सत्य साक्षी देनेकी अभिलाषा रखनेवालोंको सत्य ( सचाई ) की विजयके सम्बन्ध में निश्चिन्तता कभी भी नहीं हो सकती । इसलिये मनुष्यको जानना चाहिये कि सत्यको निश्चित विजय दिलानेवाला न्यायालय ही सच्चा न्यायालय है । जो लोग ऐसे लब्धप्रतिष्ठ न्यायालयोंमें सत्य साक्षी देने से बचें उनका बचना मिथ्या पक्षका समर्थन रूपी दंडनीय अपराध है। सच्चे न्यायालयों में ही सत्य कहा जाय इसी में सच्ची साक्षीकी सार्थकता है । पाठान्तर - न च कूटसाक्षी स्यात् । ( कटसाक्षी की हानि ) कूटसाक्षिणो नरके पतन्ति ॥ ५५९ ॥ मिथ्याको सत्य बना डालनेवाली साक्षी देनेवाले अज्ञानी Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि मूढ लोग मिथ्याभाषणरूपी कलंकको ही सुख समझकर अनन्त दुःख-जाल-रूपी नरकम फँसे पडे रहते हैं। विवरण- कूटसाक्षी लोग मिथ्याचारको ही अपने जीवनका सिद्धान्त बना लेते हैं। (प्रत्येक व्यवहारका अपने ऊपर प्रभाव ) ( अधिक सूत्र ) न कश्चिन्नाशयति समुद्धरति वा । किसीके विरुद्ध या अनुकूल साक्षी देनेवाला कोई भी किसी दूसरेका नाश या उद्धार नहीं करता । विवरण-- मनुष्य सत्य या मिथ्याका आश्रय करके स्वयं हो अपना उद्धार या नाश कर लेता है । मनुष्य कूटसाक्षी देकर दूसरेका नाश या उद्धार नहीं करता, किन्तु अपना ही सर्वनाश कर लेता है। जिसके विरुद्ध या अनुकूल मिथ्या साक्षी दी जाती है इसका हानि-लाभ उसके अपने ही माचरणोंपर निर्भर होता है। मिथ्या साक्षीसे दूसरेका निग्रह-अनुग्रह करानेवाले वास्तव में अपना ही निग्रह-अनुग्रह कर लेते हैं। मनुष्य के सामने दूसरेकी कोई समस्या ही नहीं है। उसे ये नहीं सोचना है कि दूसरेका क्या बनेगा ? उसे तो यही सोचना है कि इस कुकर्म या सुकर्मसे मेरा क्या बनना है ? उसे तो अपनी ही दृष्टिसे अपना कर्तव्य करना चाहिये । इसीसे उसका कल्याण होना है। (पापीको देखनेवाली प्रकृतिसे साक्षी लो ) प्रच्छन्नपापानां साक्षिणो महाभूतानि ॥ ५५२ ॥ छिपाकर किये हुए पापोंकी साक्षिता भौतिक परिस्थितिमें संलग्न रहती है। विवरण- पापी अवश्य ही समाज की मांख बचा कर पाप करता है। समाजकी आंखोंसे चाहे पाप बचाया जा सके परन्तु प्रकृतिकी मांखोंको Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पापीको देखनेवाली प्रकृति बचाकर तो पाप नहीं किया जा सकता । पाप स्वयं ही प्रकृतिके शान्त वातावरणका विरोध करता है । प्रकृतिमें कहीं न कहीं पापकी छाप लग ही जाती है । यदि पापीको दण्ड देनेवाले लोग प्राकृतिक परिस्थितिका उचित ढंग से गम्भीर निरीक्षण, परीक्षण और अध्ययन करें तो पापीके पापको प्रकाशमें ला सकते हैं और उसे अपराधी सिद्ध करके दण्ड भी दे सकते हैं । प्राकृतिक नियमोंका भंग करनेवाले पापी लोग प्रकृतिको अपना शत्रु बना लेते हैं । प्रकृति भी अपराधीपर रुष्ट हो जाती और उसका साथ देना बन्द कर देती है । प्रकृति स्वयं चाहने लगती है कि कोई सतर्क राज्यव्यवस्था हो तो मैं इस अपराधीको पकडवा दूं । प्रकृति दण्डदाताकी सदायक बन जाती है । वह दण्डदाताको केवल निमित्तमात्र बनाकर स्वयं ही पापीको दण्ड देनेके लिये उतावली हुई फिरने लगती है । प्रकृति स्वयं ही दण्डदात्री संस्था है । ५११ प्रच्छन्न पापके कुछ न कुछ भौतिक साधन और कोई न कोई भौतिक परिस्थिति होती है । पापस्थलके आसपास के पंचभूर्तीपर या कर्ताकी मुखाकृति, मुखभंगी तथा इन्द्रिय- चेष्टाभोंपर पाप-कर्मके कोई न कोई चिह्न रह जाना अनिवार्य होता है। गुप्त पापोंके स्थलोंके सूक्ष्म पाप चिह्नोंकी एक सांकेतिक लिपि होती है । मननशील गुप्तचर विभागको इस सांकेतिक लिपिका पंडित होना चाहिये । वह यदि सतर्क हो तो उसकी सूक्ष्मेक्षिकासे प्रच्छ पाप भी सुनिश्चित रूपमें पहचाने जा सकते हैं और देश में गुप्त पापोंको पूर्णतया रोका जा सकता है । परन्तु यह काम परिश्रम, अवधान तथा पूर्ण सतर्कता रखनेवाले आन्तरिक रक्षा-विभागका है । गुप्त पाप इस विभागको कर्तव्यहीनता से ही अज्ञात और अडित रहकर देशमें पापके वर्धक और प्रोत्साहक बन जाते हैं। यदि कोई राज्य व्यवस्था पापका पता न चला सकनेवाले अधिकारियोंको किसी प्रकारका दण्ड मिलनेकी व्यवस्था कर दे और अत्याचारितकी क्षतिपूर्ति राजकोष से करना नियम बना ले इस प्रकारके पाप निश्चित रूपमें देश मेंसे रोके जा सकते हैं। Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि जब कि संसारका कोई भी कर्म ऐसा नहीं है जो मनुष्य के पुरुषार्थ से सिद्ध न हो सके और जब कि प्रकृति दण्ड दाताका पूरा-पूरा साथ देने की प्रस्तुत है, तब पापीके अपराधको प्रकाश में लाकर उसके सिरपर समाजका दण्ड रख देना पुरुषार्थ से बाहर कदापि नहीं हो सकता। पापीके प्रच्छन पापों को भी दंडित कर सकना विशेष रूपसे उस अवस्थामें तो किसी भी प्रकार पुरुषार्थसे बाहर नहीं हो सकता जब कि पापी इकला-दुकला हो और सारे समाजका बल खुल्लम-खुल्ला दण्ददाताको पाप खोजनेकी पूरी सुविधा देकर उसका पूरा साथ देनेको प्रस्तुत हो। यदि प्रच्छन्न पापों का Rमाजकी दृष्टि में माना असंभव मान लिया जाय तो पापियोंको दण्ड मिलना भी मसंभव मान लेना पडेगा । जब कि प्रजापालनकी कला ही दण्डनीति है तब पापियों को दण्ड न मिल सकना राज्य. व्यवस्थाका निकम्मापन मानना पडेगा । राज्य-संस्थाकी दण्डनीतिने ही तो समाज में शान्तिकी स्थापना करनी है। आप सोचिये तो सही कि प्रजाका जो व्यक्ति प्रच्छन्न पापका माखेट बना है और उसपर मारयाचार करनेवाले पापीको दण्ड नहीं दिया जा सका है, तो शान्ति स्थापनाके नामपर राष्ट्रसे बडे-बडे वेतन डकार जानेवाले राजनीतिके पंडित लोग बतायें कि राज्यव्यवस्था उस मत्याचारितसे आजतक जो रक्षा तथा शान्ति स्थापनाके नाम पर कर लेती भा रही है और भविष्य में लेती रहना चाहती है उस करग्रहणका क्या औचित्य है ? नहीं, नहीं, हमें कहने दीजिये कि राज्यव्यवस्था जिन अत्याचारितोंको न्यायोचित सान्त्वना और हानिका विनिमय न दे सके उसे अत्याचारितोंसे कर ग्रहण करने का कोई मौचित्य नहीं है। भारतीय राजनीति चाहती है कि राष्ट्रवासियोंसे जीधन बीमेकी किस्तोंके रूप में ही कर लिया जाना चाहिये। राष्ट की दण्डनीति पूर्ण सशक्त होनी चाहिये। यदि दण्डनीति सशक्त हो तो पापियों के पापों को किसी भी रूप में अदंडित नहीं रह जाना चाहिये । माजकी राज्यव्यवस्थाने शांतिरक्षक पलिसको तथा उस विभागके कर्मचारि. योंको नागरिककी मोरसे की हुई अशांतिकी शिकायतपर हस्तक्षेप न करके Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पापीको देखनेवाली प्रकृति तटस्थ रहने की भाज्ञा देकर दंडनीतिका भंग किया और समाजमें पापको प्रोत्साहन दे रही है । जब कि राष्ट्रमें दण्ड-यवस्थाके नामपर लोगोंसे भरपूर कर लिये जा रहे हो और रक्षाके नामपर पूरा व्यय किया जा रहा हो तब भी पापका अज्ञात तथा अदण्डित रह जाना राज्यसंस्थाकी हीनताका सूचक मानना पड़ता है। पापोंको पता न चला सकनेवाली और पापि. योको दण्डित न कर सकनेवाली राज्यव्यवस्थाको अपने हाथों में शासनसूत्र पकडे रहनेका कोई मौचित्य नहीं है। राज्यसंस्था बनाई ही इस कामके लिये है कि दण्डनीति के प्रयोगसे भौतिक परिस्थितिकी साक्षीसे प्ररछस पापों को प्रकाश में लाये । मास्यन्यायको रोकने के लिये ही तो राज्य संस्था बनाई जाती है। नहीं तो राज्यसंस्था राष्टके सिरपर व्यर्थका व्यय बन जाती है। समाजकी पवित्रताकी रक्षा करना राज्यव्यवस्थाका मुख्य कर्तव्य है । यदि राज्यव्यवस्था प्रच्छन्न पापियों का पता न लगा सके और उन्हें दण्डित न कर सके तो ऐसी राज्यसंस्था या ऐसे राज्य-कर्मचारीको तत्काल पदच्युतिका दण्ड देकर हटा दिया जाना चाहिये । प्रच्छन पापोंको भदण्डित न रहने देने के लिये राष्ट्रमें त्रुटि रहित सुयोग्य और सतर्कतासे पूर्ण कठोर आनिवार्य व्यवस्था होनी चाहिये। दण्डः शास्ति प्रजाः सर्वा दण्ड एवाभिरक्षति । दण्डः सुप्तेषु जागर्ति दण्डं धर्म विदुर्बुधाः ॥ ( मनु) दण्ड ही प्रजापर शासन करता है, दण्ड ही उनकी रक्षा करता है। दण्ड तब भी जागता है जब कि सारा संसार सोता है ।। सर्वो दण्डजितो लोको दुर्लभो हि शुचिर्नरः । संसार दण्डभय से सुमार्गपर रहता है दिना दण्डभय के सुमार्गपर चलनेवाले लोग तो करोडोंमें कोई होते हैं । ३३ ( चाणक्य.) Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१४ বাথৰুমালঃ ( पाप पापीके ही मुखसे स्वीकार कराया जा सकता है ) आत्मनः पापमात्मैव प्रकाशयति ॥ ५५३ ॥ पापी अपने पापको स्वयं ही प्रकाशित कर देता है। विवरण- मनुष्य पाप करनेसे पहले अपने सत्यस्वरूप या सत्यनारायणको अस्वीकार कर चुकता है । वह अपने जीवन में सत्यनारायणको अस्वीकार कर चकने के अनन्तर पापाचरण करने पर उद्यत होता है। फिर वह पापको स्थल जगतकी दृष्टि से गुप्त रखकर समाज-व्यवस्थासे मिलनेवाले दण्डसे बचना चाहता और कभी-कभी बच भी जाता है। समाजव्यवस्थाकी ओर से मिलने वाले पापके दण्डसे बच जानेपर भी उसके पापका प्रत्यक्षदर्शी साक्षी उसका जड भी पाँचभौतिक देह अपने भीतर पापके प्रमाणोंका संग्रह करके रखता है। उस देहकी अधिष्ठात्री देवी चेतनाने उस पापको प्रत्यक्ष देखा होता है । उप्त जीवित देहका देही ही उसके पापका दण्ड उसे पगपगपर देते रहने के लिये उस देहमें चक्षुष्मान होकर रहता मौर उसे धिक्कारता रहता है । उस देहका देही उसके पापकी मिलनतासे उसके मनमें आत्मग्लानि उत्पन्न किये विना नहीं रहता। देही मानवमनका रूप लेकर सत्-असत्, पुण्य-पाप, सुखदुःखको अपनाने में स्वतंत्र होता है। अज्ञानके वश हो जाना, पुण्य त्याग देना, पापको अपनालेना, पवित्रताकी स्वाभाविक बाकांक्षाको पददलित होता देखना देहीके स्वभावके विरुद्ध होता है। इस प्रकार पापीका अपना ही पापस्वभाव उसीके लिये मन्तःशल्य बन जाता है। पतित मनको अपवित्रता रूपी वह वृश्चिक दंशन सब समय भुगतना पडता है। पतित मनके पास इस वृश्चिक दंशनसे बचनेका कोई उपाय शेष नहीं रहता। मनुष्य पाप भी कर ले और अशान्त भी न हो यह कभी संभव नहीं है । कोई भी जीवित देह शांति के अधिकारको भी त्याग दे और अशान्ति रूपी दुःखसे भी बचा रहे यह संभव नहीं है। Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाप पापीसे स्वीकार करना आइये अब इसपर दूसरी दृष्टिसे विचार करें- सब जानते हैं कि पाप समाजकी दृष्टिको बचाकर किया जाता है । परन्तु वह जिस समाजकी दृष्टि बचाकर किया जाता उसीको अपना आखेट भी बनाता | जो पाप सशक्त समाजकी दृष्टिसे बचाकर किया जाता है वही पाप अशक्त समा जको अपना आखेट बनाता है । पापाचरणकी कोई व्यक्तिगत घटना चाहे कभी समाज के सामने न भी भा सकें तो भी पापीका समाज कल्याणघाती पापी स्वभाव समाजसे छिपा नहीं रहता । समाज प्रच्छन्न पापियोंको पापी समझ ही जाता है । पापीकी पहुंचाई हुई हानि तथा उसके हानिकारक प्रभावको प्रत्यक्ष देखनेवाला समाज उसे दण्डित करनेका यथाशक्ति प्रयत्न भी करता है । कभी कभी दण्डसे बच जानेपर भी पापी अपने आचरणों में समाजकी घृणाका पात्र तो अनिवार्य रूपसे बन जाता है । ५१५ समाजकी घृणाका पात्र हो जाना कुछ न्यून दण्ड नहीं है । पापीका पाप चाहे उसे दण्ड दिलवाने में अपराध ( चूक ) कर जाये परन्तु उसका पापी स्वभाव उसे समाजसे यह अनिवार्य दण्ड दिलाये बिना नहीं रहता । पाप करनेवाला पापी चाहे अपने पापकी घटनाको समाजकी दृष्टिमें न आने देने में पूर्ण सफल हो जाय, परन्तु वह अपने चित्तकी पाप-प्रेरक महिनताको अपने पापी स्वभावके रूपमें प्रकट होते रहने से नहीं रोक सकता । मनुष्य छिपकर पाप भी करता रहे और अपने स्वभावको पापमुक्त संतोंवाला भी रख सके यह किसी भी प्रकार संभव नहीं है । यह निश्चित है कि मलिन स्वभाववालेका हृदय पहले से ही मलिन हो चुका होता है । मलिन हृदयवालेके आचरणोंका मलिन होना अनिवार्य होता है । निंदित नहीं रह सकता ! पापी मनुष्य अपने भीतर बाहर कहीं भी पापीको बाह्य में अनिंदित रहने की कोई स्थिति नहीं है। मनुष्यकी पाप वासना भस्माच्छन्न भनिके समान पापीके हृदय में सुलगती रहती और अपनी पापमग्नावस्थाको अपनी आंखोंके सामने लाती ही रहती है । मनुष्य सारे संसारकी आंखों में धूल झोंकनेका दुःसाहस तो कर सकता है परन्तु Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१६ चाणक्यसूत्राणि वह अपने पापको अपने भीतर बैठे हुए पुण्य-पापेक्षिता मात्ममुनिसे छिपा नहीं सकता। पापको जब तक समूल उखाड नहीं फेंका जाता तब तक वह पापीका तोदन करना नहीं छोड़ता। पापीका माचरण ही उसे अपने हृदय तथा समाजमें निन्दित घृणित स्थान दे देता है । अपनी तथा समाजकी दृष्टि में घृणित हो जाना भी पापीका दण्ड पा जाना होता है। यदि कभी समाजसे छिपाकर एक दो गर्हित पाप करना संभव हो भी जाय तो भी पाप स्वभाव बना लेनेवाले मनुष्यका उन पापोंसे बचे रहना असंभव है जो स्वभाववश उसके जीवन में प्रकट हुए विना नहीं रह सकते । __ पापीका देह पापके बोझको ढोता रहता है । यह देह पापके बोझको अपने ऊपर ढोकर अपने देहीकी ओरसे निन्दित और लाच्छित होता रहता है । जगत्से चाहे पाप छिप जांय परन्तु मनुष्य जिस देहसे पाप करता है उससे तो नहीं छिपाया जा सकता । जैसे छुरेसे को हुई गुप्त हत्याका पाप छुरेसे नहीं छिपाया जा सकता और वही रक्तरंजित छुरा संयोगवश दण्ड. दाताके हाथों में पहुँचकर हत्यारेकी हत्याके साधनके रूपमें प्रमाणित होकर ससे अपराधी सिद्ध करके दण्डित करा देता है, इसी प्रकार पापीके पापका साधन देह देहीरूपी पटल ( अव्यर्थ ) दण्डदाताके सम्मुख प्रतिक्षण अपराधोंकी साक्षी देता रहकर पापी मनको पात्मग्लानि नामक दंडसे दंडित करता रहता है । जो मनुष्य पापको अपनी जीवन-यात्राके साधन के रूप में अपनालेता है पाप उसका शीतांगारके कृष्णवर्णके समान अत्याज्य स्वभाव बन जाता है । जिस मूतको पवित्रताकी पहचान नहीं है, जो भविवेककी अपवित्रतामें ही सुख मान रहा है, सोचिये तो सही कि वह क्यों अपने पापसे मिलनेवाले सुखको त्यागेगा ? और क्यों पुण्य करनेका दुःख मोल लेगा? पापाचरण मनुष्य का आध्यात्मिक आत्मघात है। पापीका पाप उसका भनन्त मानसिक दुःख और अन्तःशल्य बन जाता है। पापजनित दुःख बन्धनमें उलझकर कराहते तथा माह भरते रहना ही पापीका अपने पाप रूपको अपने सामने प्रकट रखना है। Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाप पापीसे स्वीकार करना अथवा- पापीके पापाचरणसे माहत समाज उस पापीपर कठोर दण्ड या प्रलोभनका दबाव देकर उसीके मुख से पाप स्वीकार करा ले और उसके पापके सम्बन्धमें उचित प्रमाण संग्रह करके उसे दण्ड देनेको उद्यत हो जाय तो वह पापी अपने पापको अपने आप प्रकाशित कर देता है। इस सूत्रका अभिप्राय यही है कि पापी हृदय कभी भी रन नहीं होता। पापी मनुष्य स्वभावसे चंचलचित्त होता है। छिपाकर पाप करने पर भी उसकी स्वाभाविक चंचलचित्तता स्वयं ही उसके पापकर्मको प्रकाशमें लाने का साधन बनायी जा सकती है। पापीपर मावश्यक कठोरता करके तथा प्रलोभन आदि उपायों को काममें लाकर उसीके मुखसे अपराध स्वीकार कराया जा सकता और उसीके मुख से अपराधसाधक प्रमाणों की सूची लेकर उनका संग्रह करके उसे दण्ड दिया जा सकता है। यदि कोई राज्य-व्यवस्था चंचल चित्त पापीको, दण्डित न कर सके तो यह उप राज्य-व्यवस्थाका अक्षम्य अपराध है। इसका अर्थ यह होगा कि समाजभरके अनुमोदनसे बनी हुई राजशक्ति चंचलचित्त एक-दो पापियोंसे भी न्यून शक्ति रखती है। जो राजशक्ति इतनी कर्तव्यहीनतारूपी न्यूनता दिखाने में न लजाती हो उसे तत्काल पदच्युत कर देने में ही समाजका कल्याण है। क्योंकि समाज अपने साधु-असाधु व्यक्तियों से स्वयं परिचित रहता है, इसलिये किसी भी अपराधीका चालचलन समाजको अज्ञात नहीं रहता। पापी अपने पापको अपने स्वभाव तथा आचरणके द्वारा ही प्रकाशित किया करता है। ऐसे पापीको दण्डित न कर पाना समाजका और उसकी राजशक्तिका अंधापन है। पापीका अपराधी हृदय अपना पाप छिपानेका जो अनुचित भाग्रह रखता है उसके कारण वह अस्वाभाविक माचरण करने लगता है। उसके वे अस्वाभाविक माचरण दण्डाधिकारियोंके सामने उसके पापका भंडाफोड कर देते हैं। पापीका अपराधी हृदय अपने पाप छिपानेका आग्रह किया Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि करता है । वह जानता है कि मैंने समाज कल्याणकारी नियमका संग किया है इसलिये मैं समाजका अपराधी हूँ । वह इसी दृष्टिके कारण अपने पापको छिपाकर रखना चाहता है । वह अपना पाप छिपानेकी चादके वशीभूत होकर कुछ इस प्रकार के अस्वाभाविक आचरण करने लगता है जो दण्डाधिकारियोंके सम्मुख उसका भंडाफोड कर देते हैं । दण्डाधिकारी लोग ऐसे अवसरोंपर उसपर उचित दबाव डालकर उसके अपराधको उसीके मुखसे प्रकट कराने में समर्थ हो सकते हैं । पापीका चालचलन, रंगढंग, रहनसहन, वाक्यपरिपाटी, चंचलचित्तता, गात्रों की गति आदि सब कुछ सब समय संदेहजनक बना रहता है। उससे अस्वाभाविक कर्म करानेवाली उसकी अस्वाभाविक मानसिक स्थिति उसे पुरुष-पररीक्षकों की दृष्टिमें संदेहका पात्र बना देती है । पाठान्तर प्रच्छन्नं यत्कृतं तदपि न प्रच्छन्नमात्मनः । दूसरोंकी दृष्टि बचाकर किये पाप भी अपने आत्मासे प्रच्छन्न नहीं रहती । ( आकृतिपर चरित्रकी छाप आ जाती हैं ) व्यवहारेऽन्तर्गत माकारः सूचयति ।। ५५४ ।। मनुष्यकी आकृति उसके मनके व्यवहार प्रेरक गुप्त भावोंको व्यवहार - भूमिमें दूसरोंपर प्रकट कर देती है । ५१८ विवरण -- व्यवहार करानेवाली मानसिक स्थिति व्यवहार में मनुष्यकी भाकृति पर झूलने लगती है । मनुष्य जिस भावनासे जो व्यवहार करता है, वह भावना उसके आकार में प्रतिबिम्बित होकर रहती हैं। मनुष्यकी आकृतिपर उसके मनकी पवित्रता या अपवित्रताका प्रतिबिम्ब अनिवार्य रूप से पडता है । लोकचरित्रको समझनेवाले पुरुष-परीक्षाके विशेषज्ञ लोगों की सूक्ष्म दृष्टिमें मानवोंकी आकृतियाँ ही उनकी मानसिक स्थितिको प्रकट कर देनेवाली पाठ्यसामग्री होती है । आकारैरिङ्गितैर्गत्या चेष्टया भाषणेन च । नेत्रवक्त्रविकारश्च लक्ष्यतेऽन्तर्गतं मनः ॥ ( विष्णुशर्मा ) Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आकारसंगोपन असंभव ५१९ आकार, संकेत, गति, चेष्टा, माषण तया नेत्रवक्त्र विकारोंसे भीवर छिपा मन कंचपात्रमें रखे पदार्थ के समान स्पष्ट दीख जाता है। ( आकारसंगोपन असंभव ) आकारसंवरणं देवानामशक्यम् ॥ ५५५।। अपनी मुखाकृतिपर अपने मनोभावोंको प्रकट न होने देना किसीके लिये भी शक्य नहीं है। विवरण- आकृतिकी लिपिके विशेषज्ञोंकी सूक्ष्मेक्षिकासे अपना साकार छिपा लेना शक्तिशालियोंके भी सामर्थ्य से बाहरकी बात है । दृष्टि-संचालन, असंगत वचन, भावावेश आदिके द्वारा मनोभाव पहचाने जा सकते हैं । भिन्नस्वरमुखवर्णः शंकितदृष्टिः समुत्पतिततेजाः । भवति हि पापं कृत्वा स्वकर्मसन्त्रासितः पुरुषः ।। आयाति स्खलितैः पादैर्मुखवैवर्ण्यसंयुतः । ललाटस्वेभाग्भूरि गद्गदं भाषते वचः ॥ अधो दृष्टिर्वदेत् कृत्वा पापं सभां नरः । तस्माद्यत्नात्परिशेयश्चितैरतैर्विचक्षणैः ॥ (पंचतंत्रसे) पाप कर्म करने के पश्चात् अपने कर्मसे संत्रासित मानवका स्वर बदल जाता, मुखका रंग फीका पड जाता, नेत्र भयभीत और तेज नष्ट हो जाता है। वह न्यायाधीशके सामने लाया जानेपर लडखडाते पैरोंसे माता है, मुखका रंग उडा हुमा होता है, मस्तकपर पसीना बार बार टपकता है और अस्पष्ट अधूरी बातें कहता है ! आकृतिसे घबडाहट टपकती है, दष्टि नीची रखता है । कुशल लोग इन लक्षणों से अपराधीको यत्नपूर्वक पहचानें । प्रसन्नवदनो हृष्टः स्पष्टवाक्यः सरोपटक । सभायां वक्ति सामर्ष सावष्टम्भो नरः शुचिः ॥ अपने चरित्र के साथ सत्यका सहारा रखनेवाला निष्पाप मनुष्य न्याया. लय के सामने प्रसन्नवदन हर्षित होकर स्पष्ट बातें कहता है, उसके नेत्रों में Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२० আগাড়ি उसे पकडकर लाने वालों के लिये रोष और स्थिरता होती है वह धैर्य तथा अमर्षसे उत्तर देता है । निष्पाप मनुप्य इन लक्षणोंसे पहचाना जाता है। पाठान्तर- आकारसंवरणं अकरणावाचो राजपुरुषेभ्यो निर्त्य रक्षेत् । मसंगत पाठ है। (प्रजा तथा राष्ट्र के धन को चोरों तथा राज कर्मचारियों से बचाओ) चोरराजपुरुषेभ्यो वित्तं रक्षेत् ॥५५६॥ राजा लोग चोरों तथा राज्यपुरुषों (राजकर्मचारियों) से जनताका धन बचाते रहे । विवरण- चोर तथा राजकर्मचारी दोनों ही अर्थलोभी होते हैं । चोर जो काम चोरीसे करते हैं राजकर्मचारी वही काम अपने माखेटपर राज. शक्तिका अनुचित अवैध प्रभाव डाल कर करते हैं। मनोवृत्ति दोनों की एक सी है । दोनों अधिकारहीन अनुचित ढंगसे दूसरों के जीवन-साधन छीन लेना चाहते हैं। (प्रजासे न मिलनवाले राजा प्रजाके विनाशक ) दुर्दर्शना हि राजानः प्रजा नाशयन्ति ॥५५७॥ अपनी नीति-हीनतासे दुर्दर्शन अर्थात् प्रजाको कभी दर्शन न देने अर्थात् अपने कानोंसे प्रजाके सुखदुःख न सुननेवाले राजा लोग प्रजाका प्रेम पाने, उसका हित सोचने या शासनको लोक प्रिय बनाने में असमर्थ होकर प्रजाका विनाश करने वाले बन जाते हैं। विवरण- राजकर्मचारियों पर निर्भरशील होकर प्रजासे साक्षात् न मिलनेवाले राजा लोग स्वयं अवैध रूपसे राजभोग करने के कारण प्रजाकी कष्टगाधा न सुननेवाले अवैध रूपसे धनोपार्जन करने वाले राज्य कर्मचारि. Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायी राजाके प्रति प्रजाकी भावना योंके अधीन होकर प्रजाको राजकर्मचारियों की भांति-भांतिकी लूट का माम्बेट बना देते हैं । ऐसे राजा लोग प्रजामें दुःख और क्षोभ पैदा करनेवाले बनकर अपने समस्त राष्ट्रका नाश कर बैठते हैं । पाठान्तर- ... ... ... ... विनाशयन्ति । (प्रजारंजनका उपाय ) सुदर्शना हि राजानः प्रजा रंजयन्ति ॥ ५५८॥ लोकप्रिय या प्रजाको सुकरतासे दर्शन देते रहनेवाले राजा लोग अपनी प्रजाको सखो और प्रसन्न रखने में प्रयत्नशील रहते हैं। विवरण- गुण, गौरव, शौर्य, प्रज्ञा, तथा दयासे भूषित सौम्यमूर्ति राजा लोग कर देकर राज्य संस्थाको पालनेवाली प्रजाको सुखसमृद्धि से संपन्न बनाकर रखनी अपना कर्तव्य मानते और न्यायार्थी प्रजाको सुकरतासे दर्शन मिलने की व्यवस्था रखते हैं। जब राजा लोक प्रजाको स्नेह, क्या, अभयदान तथा दर्शनोंसे अनुगृहीत करते रहते हैं तब ही प्रजा उनके प्रति अनुरक्त और सुखी रहती है । (न्यायी राजाके प्रति प्रजाकी भावना ) न्याययुक्तं राजानं मातरं मन्यन्ते प्रजाः ॥५५९ ॥ प्रजा न्यायी राजाको मातृतुल्य माना करती है। विवरण- कर देकर राजकोषको सम्पन्न बनानेवाली प्रजा, नीतिपूर्ण, न्यायपरायण राजाको माताके समान हितैषी मानने लगती और उसे सम्पन्न रखना अपने मातृपालन जैसा पवित्र कर्तव्य माना करती है। प्रजाको ऐसे नीतिपरायण राजाको कर देते समय हर्ष होता है । ऐसे राजाकी प्रजा नात्मकल्याणकी भावनासे उत्साहित होकर उसके राज्यकोषको भरने में कर्तव्य-पालनका संतोष तथा गौरव अनुभव किया करती है । मातापिता Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि तो मनुष्यको केवल जन्म ही देते हैं परन्तु कर्तव्यपरायण राजा लोग तो अपनी प्रजाको शिक्षा, रक्षा, भरण-पोषणोंसे अपने औरस पुत्रोंके समान पालकर प्रजाके सच्चे मातापिता बन जाते हैं । जबतक राजाप्रजामें परस्पर सन्तान तथा मातापिताकासा मधुर संबन्ध स्थापित नहीं होता तबतक प्रजाका सुखी होना और राज्यका सुरक्षित रहना दोनों ही असंभव है। यदि राजाने प्रजाका माताकासा प्रेम प्राप्त नहीं किया, यदि वह माताकासा विश्वासभाजन नहीं बन सका तो उसके राज्यको एक प्रकारका लूटका ठेका ही जानना चाहिये। पाठान्तर- न्यायवर्तिनं राजानं मातरमिव मन्यन्त प्रजाः । (न्यायी राजाका लाभ ) तादृशः स राजा इह सुखं ततः स्वर्गमाप्नोति ॥५६०॥ न्याययुक्त, स्वधर्मरत, प्रजा-पालन-तत्पर, लोकप्रिय राजा वर्तमान तथा भविष्यत् दोनों कालोंमें सुख पाता तथा प्रजाके शुभाशीर्वादोंका पात्र बना रह कर आत्मप्रसाद रूपी स्वर्ग पाता है। स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धि लभते नरः । मनुष्य अपने अपने कर्तव्यपालनमें दीक्षित रहकर ही सिद्धि पाते हैं । पाठान्तर-- स्वधर्मानुष्ठानादेव सुखमवाप्यते स्वर्गमवाप्नोति । राजाको राजधर्म पालनसे सुख और स्वर्ग प्राप्त हो जाता है। (राजाका कर्तव्य । ( अधिक सूत्र ) चोरांश्च कण्टकांश्च सततं विनाशयेत् । राजा चोरों तथा राष्ट्रकण्टकोंको सदा नष्ट करता रहे । विवरण- राजा, चोरों तथा दूसरोंका अनिष्ट करनेवाले उन सब लोगों को जो प्रजाको गुप्त उपायोंसे लूटलूटकर कानूनकी पकडमें न आकर Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजाका कर्तव्य ५२३ कष्ट पहुँचाते रहते हैं, उन्हें अपने कौशल और बलसे सदा नष्ट करता रहे। राजा गुप्त रूपसे लोगों के दस्यु-कष्टों तथा राज्यकीय लोगोंके राजशक्तिके दवावसे किये हुए गुम उत्पीडनों को जाने और उनका प्रतिकार करें। _चाणक्य कहना चाहते हैं कि राष्ट्र में प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष दो प्रकारके चोर होते हैं । जिसका जो अधिकार नहीं उसका उसे लेते रहना या लेनेका उद्योग करना चोरी है। मनधिकार भोग तथा अनधिकार भोगकी इच्छा हो चोरी है। कानून की पकडमें भा जानेवाले चोर 'प्रत्यक्ष चोर ' कहाते हैं । कानूनकी पकडमें न मानेवाले चोर ' अप्रत्यक्ष चोर' होते हैं । चोर गठकरें, जेबकटे, राहगीर, डाकू, उचक्के, जुआरी, उस्कोचजीवी, राजकर्मचारी आदि प्रत्यक्ष चोरोंकी श्रेणी में माते हैं। अनुचित लाभ लेनेवाले व्यापारी, रोगीका अर्थ शोषण करनेवाले वैद्य, डाक्टर, हकीम, वक्कलों के शोषक तथा अन्यायी अदालतोंके समर्थक वकील, मंत्री आदि राज्य के संचालक, राष्ट्रको निर्धन बनाकर अपरिमित वेतन-भत्ते आदि डकार जानेवाले शासक, सच्चा धर्मप्रचार न करनेवाले धर्मोपदेशक, देशके युवकों को सच्चो शिक्षा न देनेवाली, प्रत्युत उनका नैतिक पतन करने. वाली शिक्षासंस्थायें, अध्यापक, आचार्य, प्रोफेसर, प्रिन्सिपल, राजनीतिसे अलग रहकर भीरु, निवीय, वन्ध्या, निस्तेज धर्मकी दुहाई देने फिरनेवाले धर्मध्वजी सन्त, महात्मा, महर्षि राजर्षि, कथावाचक, व्याख्याता तथा ग्रन्थलेखक कुशासनका विरोध करनेसे डरने कतराने और इसीलिये दूषित राज्यसंस्थासे अविरोधकी नीति अपनानेवाले पत्रकार, नेता, व्यवस्थापिका, सभामों के सदस्य, धार्मिक, साहित्यिक, माध्यास्मिक संस्थायें विद्वत्सभार्य तथा प्रजाको न्याय न देकर न्याय बेचनेवाले न्यायालय ये सबके सब काननकी पकड में न आनेवाले राष्ट्रके अप्रत्यक्ष चोर हैं । ये लोग प्रत्यक्ष चोरोंसे अधिक हानिकारक हैं । ये लोग कानूनको पहुँचसे बाहरवाले दुर्गामें मुर. क्षित बैठकर प्रजाका धन अपहरण करते हैं। इनके अतिरिक्त समाजके पतनसे जीविका चलानेवाले लॉटरी, पहेली घुडदोड आदि अनेक रूपों में Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि अपनी चोरी छिपाये फिरनेवाले लोग भी अप्रत्यक्ष चोरोंकी श्रेणी में आते हैं । प्रत्यक्ष चोर तो देखता है कि मैं दण्डविधान के अधीन हूँ इसलिये वह तो दण्ड से बचकर चोरी करता है । परन्तु किसीकी प्रत्यक्ष चोरी न करनेवाले अप्रत्यक्ष चोर व्यवहार-विनिमय के नामसे व्यापार-लेन--लेन-देन आदि सम्पर्कौमें आकर लोगोंसे अनुचित अर्थशोषणका अवसर पा जाते या लोगों की सेवा के नामसे उनसे अवैध अर्थ-संग्रह करते रहते हैं । ये सब लोग राष्ट्रके भयंकर चोर हैं। शत्रुराष्ट्रको देशका भेद देनेवाले स्वराष्ट्रद्रोही तथा पर राष्ट्रप्रेमी लोग राष्ट्रकण्टक कहाते हैं । I ५०४ इन किसीको भी देशकी हानि न करने देना राज्यसंस्थाका गंभीर उत्तरदायित्व है । 'स्वधर्मानुष्ठानादेव सुखमवाप्यते स्वर्गमाप्नोति । 3 " राजा लोग राष्ट्र-रक्षा नामक स्वधर्मको पा लें तो वर्तमान तथा भविष्यत् दोनों कालों में सुख पा सकते हैं । ( धर्मका लक्षण ) अहिंसालक्षणो धर्मः ॥ ५६१ ॥ धर्मका लक्षण अहिंसा है } विवरण - अहिंसा शारीरिक व्यापार नहीं है। अहिंसा तो मानस व्यापार है । अपने मनको काम, क्रोध आदि मानसिक दोषों, निर्बलताओं या हिंसालोंके आक्रमणसे सुरक्षित रखनारूपी अहिंसा ही मनुष्यका स्वधर्म हैं और यही उसकी सत्यनिष्ठा भी है। परपीडन ही अहिंसाको परिभाषा है । जो दूसरेका पीडन करके आत्मसुख चाहता है वह सुखको ही नहीं समझता । वह मूढ अपने सुखको समाजके सुखका विरोधी बना लेता है । समाजकी सुख-शान्तिकी आधारशिला तो मनुष्यताका सुरक्षित रहना ही है । जो समाजको दुःखी करके सुख चाहता है वह अपनी मनुष्यताका हनन Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्पुरुषका लक्षण ५२५ किये बिना अपना अभीष्ट सुख कभी नहीं पा सकता। यह सोचने की बात है कि मनुष्यताके हनन और सुखका परस्पर क्या सम्बन्ध है ? अपनी मनुष्यताका हनन करना ही हिंसा है। अपनी मनुष्यताको अनाहत रखना ही माहिसा है। मनुष्यता ही मनुष्यका स्वधर्म है। परपीडन से बचना इस बातका प्रमाण है कि यह मनुष्य अपनी मनुष्यताको सुरक्षित रखकर स्वधर्मनिष्ठ जीवन व्यतीत कर रहा है । राष्ट्र में मनुष्यतानामक धर्मको सुप्रतिष्ठित रखना राज्यसंस्थाका मुख्य उत्तरदायित्व है। यदि राज्यसंस्था अपनी नीतिमें मनुष्यताका संरक्षण कर रही हो तो राष्ट्र उसकी देखादेखी मनुष्यताका संरक्षण करनेवाली राज्य संस्था बनानेवाला बन जाता है और अहिंसारूपी धर्मको पालने लगता है । इससे राष्ट्र में राष्ट्रनिर्माणकी परम्परा सुरक्षित हो जाती है। यदि राज्यसंस्था अपनी नीतिमें मनुष्यताका संरक्षण नहीं करती तो राष्ट्र उसकी देखादखी मनुष्यताघाती राज्यसंस्थाको जन्माने तथा पालनेवाला बनकर हिंसक बन जाता है। हिंसासे राष्ट्रमें राष्ट्रद्रोहकी परम्परा बह निकलती है। हिंसाका अर्थ अपनी हिंसा और अहिंसाका अर्थ अपनो अहिंसा है। हिंसा अहिंसा दोनों परधर्म न होकर दोनों आत्मधर्म हैं। (सत्पुरुषका लक्षण ) स्वशरीरमपि परशरीरं मन्यते साधुः ॥ ५६२ ॥ सत्पुरुष अपने शरीरको भी दूसरोंका शरीर मानता है। विवरण- वह दूसरों को भी यह अधिकार दिये रहता है कि वे उसके शरीर से उचित सेवा लेते रहें। (अधिक सूत्र ) स्वशरीर (मपि) मिव परशरीरं मन्यते साधुः। साधु दूसरके शरीरको अपने शरीर जैसा ही मनुष्यताका प्रतिनिधि मानता है। Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि विवरण - उसे जैसे अपनी मनुष्यतापर आक्रमण होना नहीं रुचता, इसी प्रकार उसे दूसरेकी मनुष्यतापर आक्रमण होना भी सह्य नहीं होता । साधु मनुष्य दूसरे से अपने लिये जिस व्यवहारकी आशा करता है दूसरोंको भी अपने से वैसा व्यवहार पानेकी आशा करने देता है । इसीको 'न्यायबुद्धि' कहते हैं । न्यायबुद्धि ही मनुष्यकी मनुष्यता है । मानवदेह धारण करके मनुष्यताका प्रेमी होना ही 'साधुख ' है । मनुष्य अपनी मनुष्यताको तिलांजलि देकर समाजकी शान्ति हरण करनेवाला मनुष्यता द्वेषी असुर बन जाता है | मनुष्यसमाजमें अपने कर्तव्यक्षेत्र में जहाँ कहीं आसुरिकता दीखे, उसका विरोध करके उसमें मनुष्यतारूपी शान्तिको सुरक्षित रखना ही 'साधुता ' है । ५२६ जिस समाज में गुणी लोगोंका निरादर तथा गुणोंके शत्रुओंका सम्मान होता है उस पतित समाजकी राजशक्ति पतितोंके हाथोंमें जा चुकी होती हैं । समाजकी पतितावस्था इस बातका पूर्ण प्रमाण है कि राजशक्ति असु के हाथों में है और वह समाजका नैतिक उत्थान रोक रही है, गुणियों के अस्तित्वको न सहकर उन्हें मिटा रही है और समाजके नैतिक उत्थानकी शत्रु बनकर प्रजाको अनैतिक बना रही है । ऐसे समाज में गुणी, ज्ञानी, समाजहितैषी लोगोंका संगठन न होना राजशक्तिके समाजद्रोही षड्यन्त्रोंका परिचायक है । ऐसे राष्ट्रीय संकट के समय में सच्चे गुणी समाजसेवकों को के साथ संगठित होनेका प्रयत्न करना अत्यावश्यक है । समाजकी पतितावस्था में ही सेवकोंकी आवश्यकता होती है। सच्चे गुणियों का इस कर्तव्यबुद्धिसे रहित होना समाजका दुर्भाग्य है । इस दुर्भाग्य का एकमात्र कारण समाजके विज्ञ लोगोंका आत्मशक्तिमें अविश्वास तथा कपट आध्यात्मिकतासे मिलनेवाली काल्पनिक शान्तिका मोह है । ये लोग नैक नामकी अलीक स्थितिको अपनाकर कर्तव्यभ्रष्ट होकर कल्पना के स्वर्ग में आत्मप्रवंचना करते रहते हैं । वास्तविकताको समझनेवाले अत्यल्पसंख्यक सच्चे गुणियोंकी कर्तव्यनिष्ठापर ही उस समय के समाजके उत्थानका Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्पुषका लक्षण ५२७ उत्तरदायित्व समर्पित रहता है । वे लोग अपने अक्कांत परिश्रमसे समाजको भासुरिक प्रभावसे मुक्त करनेवाले होते हैं । असुर विनाशिका सच्ची शक्तिको जाग्रत करनेवाली लोकशिक्षाको प्रबन्ध इन्हीं लोगोंकी भोरसे चालू रहकर भावी सन्तानको ज्ञानालोक देकर नवीन राष्ट्रका निर्माण किया करता है। मूढ लोग सम्मानाई लोगों का सर्वत्र निरादर करते हैं । मूढोंकी मूढताका यही स्वरूप है कि वे आसपास में अपने जैसे मूढोंको ही देखना चाहते हैं। वे अपने आसपासमें अपने जैसे मूढोंको देखकर यह यात्मसंतोष कमा लेना चाहते हैं कि यह संसार मूढोका ही स्थान है। जैसे उलकको प्रकाश स्वरूप सूर्यका देखना सहन नहीं होता, इसी प्रकार मूढों को अपने से आधिक योग्य व्यक्ति सहन नहीं होता । वे अपनी इस मनोवृत्ति से समाजके बुद्धि . मान सदस्योंको अपमानित करके अपनेको ही समाजके श्रेष्ठासनका अधि. कारी प्रमाणित करनेकी सृष्टता करके झूठा मास्मसंतोष पा लेना चाहते हैं। वे नहीं समझते कि समाजके योग्य लोगोंका सम्मान करना तो अपने ही को योग्य प्रमाणित करना होता है। गुणी लोग ही गुणग्राही होते हैं । निर्गुण, अधम लोग गणों का निरादर करके ही तो अपनी अधमताको प्रकट करते हैं। साधुपुरुष अपने शरीरको अपने समाजकी सेवाके काममें मानेके लिये मिला हुआ सेवोपकरण मानते हैं । साधु लोग अपने देहको भी अपना न मानकर उसे सत्यको सेवाका साधन मानते हैं। और समाज के अन्य व्यक्तियोकी मनुष्यताको अपनी मनुष्यता जैसा ही सेन्य मानते हैं। मनुष्यसमाजके प्रत्येक व्यक्तिकी कल्याणकामना करनेवाला सत्यनिष्ठ साधुपुरुष सत्यकी सेवामें आत्मसमर्पण करके रहता है और अपने देहको सम्पूर्ण मनुष्यसमाजके अधिकारमें सौंप देता है। वह अपने देदको अपने समाजकी पुनीत धरोहरके रूपमें देखता है। सर्वभूतात्मदर्शी सबके साथ ईश्वरबुद्धिसे व्यवहार तथा सर्वत्र ईश्वरबुद्धिसे विहरण करनेवाला ज्ञानसम्पल मनुष्य अपने समाजके साथ अपने Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२८ चाणक्यसूत्राणि पराये दैहिक भेदों को तो उठाकर बालेपर रख देता है और समाजके माहित को अपना ही माहित तथा दूसरोंपर हुए अन्यायों को अपने ही ऊपर हुआ अन्याय मानकर उनका प्रतिकार करने में दत्तचित्त हो जाता है। उसका समस्त जीवन उसके व्यावहारिक अध्यात्मकी प्रयोगशाला बन जाता है । सच्चे साधुओका अन्यावहारिक अध्यात्मसे कोई सम्बन्ध नहीं होता। (राजनैतिक ठगोंका माननीयोंको नीचा दिखाना) ( अधिक सूत्र ) सर्वत्र मान्यं भ्रंशयति बालिशः। मूढ लोग सर्वत्र ( सब स्थानों तथा सब कामों में ) सम्मानार्ह लोगोंका महत्व छीनना चाहा करते है। विवरण- मूढ लोग नहीं समझते कि हमारी किप्त बातसे किसका क्या अपमान हो जाता है ? वे तो जैसे स्वयं नीच होते हैं, वैसे ही सम्मानार्ह व्यक्तिको भी अपने जैसा नीच सिद्ध करना चाहते हैं। वे जैसे अपनी मनुष्यताकी अवज्ञा करते हैं वैसे ही सत्पुरुषोंकी मनुष्यताकी भी करते हैं । वे किसीकी अवज्ञाको भी अपराध नहीं समझते । नीति के अनुसार तो सच्चे मनुष्यका कर्तव्य है कि वह चोरों को दण्ड दे, शठोंको शठतासे व्यर्थ करे, श्रेष्ठों का मान करे तथा दोनोंको दान दे। (निन्दित आहार ) मांसभक्षणमयुक्तं सर्वेषाम् ।। ५६३ ।। मांस मनुष्यका आहार बनने योग्य पदार्थ नहीं है। विवरण- मनुष्यकी साधारण बुद्धि खाद्य अखाद्यका विचार करते समय वानस्पतिक या प्राणिज दो भिन्न भिन्न प्रकारके पदार्थों में श्रेष्ठ या ग्राह्यअग्राह्यका विचार करती है। प्रकृतिने अन्न, शाक, फल, कंद, मूल आदि वानस्पतिक आहारको ही मनुष्य के स्वाभाविक आहारके रूपमे निर्दिष्ट किया है । इसलिये वही उसके स्वाभाविक खाद्य के रूप में ग्रहण करने योग्य है । Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निन्दित आहार ५२९ वानस्पतिक खाद्यसंग्रह करने में हत्या जैसे अस्वाभाविक कर घिनौने घृण्य (घिनौने ) उपायोंका अवलम्बन करनेकी आवश्यकता नहीं पड़ती। इसके विपरीत प्राणिज माहार प्राप्त करने में अपने भोज्य प्राणीका प्राणहरण करना पड़ता है। प्राणहरणके लिये हृदयविदारक अस्वाभाविक उपायोका अवलम्बन करना पडता है। इस कारण प्राणिज आहार प्राप्त करना मानव. स्वभावके विपरीत स्थिति है। प्राणिज माहार मानवके दयालु स्वभावकी हत्या किये बिना प्राप्त ही नहीं हो सकता । जीवितं यः स्वयं चेच्छेत् कथं सोऽन्यं प्रघातयेत् । यदयदात्मनि चेच्छेत् तत्परस्यापि चिन्ययेत् ॥ जो मनुष्य स्वयं जीना चाहे वह किसी दूसरे को कैसे मारे १ वह अपनी अनुभूतिको सबमें फैलाकर क्यों न देखे ? मनुष्य जो अपने लिये चाहे वह दूसरेके लिये भी सोचे। स्वच्छन्दवनजातेन शाकेनापि प्रपूर्यते । अस्य दग्धोदरस्याथै कः कुर्यात् पातकं महत् ॥ मनुष्य का जो क्षुद्र पेट वनमें स्वच्छन्द उपजे साग-पातसे भी भर जाता है, उसके लिये कौन बुद्धिमान् दूसरे प्राणियों के प्राणहरणका पाप मोल ले । वानस्पतिक भोजनकी स्वास्थ्यप्रदता स्पष्ट देखी जा सकती है । प्राणीके शरीरोंके रोग आँखोंसे देखनेसे नहीं जाने जा सकते । ऐसी अवस्थामें प्राणिक माहार करनेसे रोगी प्राणीके रोगों को भी अपने दरमें जाने देना और पाकस्थलीको रोगग्रस्त बना डालना बुद्धिमत्ता नहीं है। इस प्रकार स्वास्थ्य तथा रुचि दोनों ही दृष्टियोसे जरायुज तथा अण्डज भोजन बान. स्पतिक भोजनोंसे निकृष्ट है। यदि मनुष्य प्राणिज भोजन त्याग देगा तो वह क्षतिग्रस्त न होकर लाभवान् रहेगा। आमिष भोजन रोगकारक मायुनाशक तथा उपद्रवकारी है । निरामिष भोजन नैरोग्यकारी मायुवर्धक तथा निरुपद्रव भोजन है। ३४ (चाणक्य.) Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३० चाणक्यसूत्राणि सृष्टिव्यवस्थाने जिन प्राणियों को स्वभावसे मांसभोजी बनाया है, वे घुट भरकर पानी नहीं पी सकते किन्तु जीभसे चाटचाटकर पीते हैं । पसीना मांसभोजियों के समस्त शरीर पर न लाकर जिह्वाके अग्रभागसे लारके रूप में टपका करता है, मुख में खाद्य चाबनेवाली दाढे न होकर मांस काटने के तीक्ष्ण कीलें होते हैं । इत्यादि अनेक चिह्न स्वभावसे सामिय भोजियों में ही पाये जाते हैं । इससे प्रकट है कि प्रकृतिमाता मानवको मांसभोजी देखना नहीं चाहती। मोक्ष (चतुर्थ पुरुषार्थ) का प्रतिपादन [ ग्रंथकार यहाँसे आगे अपने पाठकोंमें तत्वज्ञानमयी बुद्धि या मोक्षरूप चतुर्थ पुरुषार्थक समुन्मेषपर विशेष बल लगा रहे हैं ।। (ज्ञानीके लिये संसारमें दुःख नहीं है ) न संसारभयं ज्ञानवताम् ॥५६४॥ शानी व्यक्तियोंको संसारमें दुःख-भय नहीं रहता। विवरण- ज्ञान स्वयं ही सुखरूप तथा भीतिहीन स्थिति है । अज्ञान ही दुःख तथा भयस्वरूप है । संसारमै ज्ञानीका दुःखी होना परस्परम्याहत अवस्था है। क्योंकि दुःखनिवृत्तिको कला हो तो ज्ञान है। सुखदुःखके स्वरूपोंको न समझना हो तो अज्ञान है । अज्ञानी मानव दुःखको ही सुख मानकर दुःखवरण कर बैठता है । ज्ञानी सुनेच्छारूपी दुःखकोही दुःख के रूपमें पहचानकर उसे त्याग देता और निकामनासक्त रहकर कर्तव्य. पाल नवे संतोपरूपी अखंड सुखका अधिकारी बनता है। भोगासत जीवन त्याग देने वाले संसार के मूल कारण अपने स्वरूप के ज्ञाता ज्ञानी व्यक्तिको संसारबन्धन में बंध जाने का भय नहीं रहता । इसालय नहीं रहता कि उसे देहगेह मादि में अदभाव या ममभाव शेष नहीं रहता ! अहंभाव और मम. भाव ही भयका कारण होता है। हाइमम भाव शेष न रहने से ज्ञानीको किसी बातका भय नहीं रहता। "अधरोत्तरमस्तु जगत् का हानिर्वीतरा. गस्य" संपर चाहे उलटपुलट हो जाय वीतरागका क्या बिगडता है ? Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शानदीपकसे संसारान्धकारका विनाश ५३१ ज्ञानी नित्यमुक्त और सर्व मुक्त है। वह सर्वमुक्त रहकर ही जागतिक व्यवहार करता है । संसारके पदार्थों में न उलझना ही उसकी मुक्ति है और यही उसकी ज्ञानयी स्थिति भी है । फलाकांक्षा ही उलझन या आसक्ति है । अपनी फलाकांक्षा पूरी होती न दीखे तो कर्तव्य त्याग देना अर्थात् भकर्तव्य करना रूपी भासक्ति है । ज्ञानी मानव फलाकांक्षासे रहित शुभ कर्मकी प्रेरिका शुभ भावनासे स्वयं कृतकृत्य रहकर ही कर्म किया करता है। वह अकृतकृत्य, अकृतार्थ, फललोभी, दीन, दुखिया होकर कभी कोई काम नहीं करता। वह अपनेको भौतिक फलकी भाशारूपी रस्सीसे कभी नहीं बंधने देता । 'न बिभेति कुतश्चन ।' अभयं सर्वभूतेभ्यो दत्वा यश्चरते मुनिः। न तस्य सर्वभूतेभ्यो भयमुत्पद्यते क्वचित् ॥ जो सब भूतों को अपनी ओरसे अभयदान दे देता है उसे किसीसे भी भय नहीं रहता। अथवा- ग्यवहारकुशल विचारशील लोग संसारी घटनामोंपर अपने विचार-बलसे माधिपत्य पा लेते हैं। इस कारण मूल्को भयानक तथा दुरूह दीखनेवाला संसार-सागर उनके लिये भयानक या दुरूह न रहकर गोपदके समान सुनसन्तरणीय पवित्र कर्तब्यक्षेत्र हो जाता है । पाठान्तर-न संसारभयं ज्ञानिनाम् । ( ज्ञानदीपकसे संसारान्धकार का विनाश ) विज्ञानदीपेन संसारभयं नितेते ॥ ५६५॥ ज्ञानी पुरुष अपने मनको ब्रह्मानन्दरूपी दीपकसे आलोकित करके रखता और संसार वन में फंसने से बच जाता है। विवरण--- विज्ञानानन्द झी मिति जानी हय को अपर कार मोहित कर लेती और उसे अपने से अलग नहीं होने देती : मानसिक २२स्न शान्ति ज्ञानी के अधिकार में रखनी । भौतिक सुख शान्ति के प्राकृतिक परिस्थिति के Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३२ चाणक्यसूत्राणि अधीन होनेके कारण वे मनुष्यके अधिकारसे बाहर अध्रुव हैं, साधनों के अधीन हैं और अनित्य हैं । कर्तब्यकी प्रेरक शुभभावना ही मनुष्य के अधिः कारमें रहनेवाला ध्रुव सुख तथा शान्ति है। (सारा ही संसार मृत्युका ग्रास) सर्वमनित्यं भवति ॥५६६॥ सम्पूर्ण भौतिक सुख तथा उसके समस्त साधन अनित्य है। विवरण- ज्ञानवान् मानवको अपने अदेहरूप या स्वानुभूत ब्रह्मान. न्दके अतिरिक्त जगत के समस्त भोग्य पदार्थ भनित्य और अध्रुव दीखने लगते तथा निस्तेज और मनाकर्षक बन जाते हैं। उसकी दृष्टिपर सत्यनाराय. णका एकाधिकार हो जाता है। फिर उसे सत्यनारायणके अतिरिक्त कुछ भी आकर्षक दीखना बन्द हो जाता है । वह अपने स्वरूपमें अवस्थानरूपी ध्रुवशान्तिको त्यागकर अध्रुव भौतिक सुखों के पीछे धावन वहीं करता। पाठान्तर- सर्वमनित्यम् । पाठान्तर- सर्वमनित्यमध्रुवम् । सम्पूर्ण भौतिक सुख अनित्य तथा भध्रुव हैं । ( अधिक सूत्र ) स्वदेहे देहिना मतिमहती । यह अर्थहीन पाठ है। (देहासक्ति मानवका अज्ञान ) ( अधिक सूत्र ) स्वदेहे देहिनां मतिमहती। देहधारियोंको निजदेहमें बडी आसक्ति होती है। विवरण- देहासक्त मनुष्य दैहिक सुखको ही जीवनका लक्ष्य बना लेता है। मनुष्य यह जाने कि दैहिक-सुख-साधन-संग्रह करना जीवनकेलिये उपयोगी होनेपर भी जीवनका लक्ष्य नहीं है। इसलिये नहीं हैं कि यदि दैहिक-सुख-साधन-संग्रह करनामात्र जीवनका लक्ष्य हो, तो बता. Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देहासक्ति मानवका अज्ञान इये मनुष्य दूसरोंसे छीना-झपटी करके भोजन, वस्त्र तथा विलास - सामग्री क्यों न एकत्रित कर के १ यदि दैहिक सुख-साधन-संग्रहको व्यक्तिगत या राष्ट्रीय जीवनका लक्ष्य बन जाने दिया जायगा, तो समाजमें छीना-झपटी आदि अवैध उपायोंसे भोजन, वस्त्र तथा विकास - सामग्री संग्रह करने की प्रवृत्ति उच्छृंखल होकर सामाजिक जीवनकी नींवतक हिला डालेगी | मनुष्यसमाजको मनुष्यतारूपी जीवनके आदर्शको न भूलने देना विचारशील समाजसेवकों का मुख्य कर्तव्य है । परन्तु इस मूढताका क्या किया जाय कि मनुष्य समाजके विचारशील गिने जानेवाले लोग भी व्यक्तित्व के अंधानुगामी बनकर साम्यवाद समाजवाद आदि पाश्चात्योच्छिष्ट नार्मोसे जनता में दैहिक - सुख-स्वच्छन्दता के सार्वजनिक समानाधिकार तथा भौतिक धनसंपत्के समान विभाजनकी कल्पनाका प्रचार करनेकी भ्रान्ति करते हैं । इन लोगों के इन विचारहीन प्रचारोंने दैहिक सुखोंको ही मानव-जीवनका लक्ष्य मनवा डाला है | इन भद्र कोगोंके प्रचारका दुष्परिणाम यह हुआ है कि धनसंपतके उपार्जनमें सत्यानुमोदित सदुपायका जो महत्वपूर्ण स्थान चला आ रहा था, वह उससे छिन गया है और आजके मानवको जिस किसी प्रकार धनोपार्जन करनेकी छूट दे दी गई है । ५३३ समाजके विचारशील गिने जानेवाले इन उज्ज्वलवेषी भव लोगोंने इस बातपर विचार ही नहीं किया कि भौतिक सुख भोगों में सन्तोष नामकी ऐसी कोई वस्तु नहीं है, जिसके लिये प्रत्येक मनुष्य मारा मारा फिरता है । मनुष्यको ऊपर ही ऊपरसे देखने में मीठी लगनेवाली वासनाभिकी इस भयंकरताको पहचान जाना चाहिये कि उसमें समग्र जगत् के भोग्य पदार्थोंकी आहुति दे देनेपर भी मनुष्यकी भोगामि नहीं बुझती या भोगाभिलाषाका पेट नहीं भरता । मोगाद्मिके पीछे अपने राष्ट्रको भटकाना या भटकने देना भ्रान्त आदर्श है । लोगों के सामने इस भ्रान्त आदर्शको रख देनेका परिणाम यही हुआ है कि देहरक्षा के लिये सत्यानुमोदित उपार्जन आवश्यक नहीं रह गया है जो रहना चाहिये था और जिससे समाज में शान्तिका सुनिश्चित 1 Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३४ चाणक्यसूत्राणि वास होना था। पाठक सोचें कि देहरक्षा के लिये लस्यानुमोदित उपार्जनको मावश्यक न रखने के ममनुष्योचित आदर्शने मनुष्य सत्यस्वरूपी जीवनलक्ष्यको लोगों की कल्पनामे से ही निकाल बाहर किया है । मनुष्यको जानना चाहिये कि सत्य ही उसके हृदय की संतोषरूपी वह सम्पत्ति है जिसपर प्रत्येक मानवका समानाधिकार है और जो उसके पास अपने कर्तव्य पालन के संतोष के रूप में रहना ही चाहिये । भौतिक धनसंपतपर मानवका समानाधिकार कभी भी संभव नहीं है। मनुष्य देह नहीं है फिर भी वह भ रनेको देह मानता है । वह अपनेको काला गोरा अमुकका पुत्रादि मानता है, जब कि भदेह विश्वव्यापी अमर सनातन सत्य अभिसा है। उसकी देहात्मबुद्धि उसको बडी हानि करती है। वह जो अपने को देह समझ बैठा है, उसीके कारण उसका सारा कर्तव्यशास्त्र बिगड़ गया है । उसकी देहात्मबुद्धि के उसको सत्यरूपी सार्व. जनिक संपत्तिसे वंचित करडाला है और उसे दीन, दुखिया, कंगाल, भिखारी तथा भोगाकांक्षाका, कीतदास बनाकर उसे मनुष्यसमाजका आखेटक ( शिकारी) बना डाला है ! भोगवादी संस्कार नहीं जातना कि उसने संसारकी कितनी बडी हानि की है ? इस भोगवादी संसारने मनुष्यको समाजके सत्यस्वरूप सार्वजनिक सुख के समानाधिकारसे वंरित कर डाला है और उसे अपने व्यक्तिगत सुन के लिये लोगों के गले काटने से न बचनेवाला समाज-कल्याण-विद्वेपी नरकासुर बना डाला है । भोगवादो जड संपारने परस्पर को लूट लूट कर खाने का जघन्य आदर्श अपना लिया है। देहासक्त भविचारशील मूढ प्राणीके पास देह-रक्षा या पेट-पूजाकी ही एकमात्र बुद्धि रहती है । देहासक्तकी समस्त बुद्धि केवल पेट पालनके काम आती है । उसके पास पेट और भोगसे अलग कोई समस्या नहीं रहती। वह जिस समाजके मूक सहयोगसे जीवनसाधन पा रहा है, जिप समाजकी भाषामें सोच और बोल रहा है, जिसकी सहनशीलतासे सुखपूर्वक जीवन बिता रहा है, उसे भूलकर उसके उत्थानमें कोई योग न देकर, दिनरात Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शरीर उसका एक साधन ५३५ पेट-पालन और इन्द्रिय लालनकी विद्यामें लगा रहता है और समाजविरोधी कार्य करने में धृणा नहीं करता। उसके समस्त गुण देह-रक्षामें ही व्यय होते रहते हैं। पाठक सोचे कि देह-रक्षा तो पश, पक्षी, कीट, पतंग, कीडे, मकोडे तक सबकी हो ही रही है । उतना ही यदि मनुष्य भी कर रहा है तो उसमें इसकी अपशुसुलभ मानवीय प्रतिभाका क्या उपयोग हुला ? मानवीय प्रतिभाका उपयोग तो उस विश्वव्यापीका देहातीत सत्यमयी अवस्थाका दिव्य भानन्द प्राप्त कर लेने में है जिसका मानन्द मनुष्येतर कोई भी प्राणी कदापि नहीं ले सकता। भोजनाच्छादने चिन्ता प्रवला प्राकृते जने । साधारण मानव पेट पालने की ही चिन्ता रखता है । उसे मानसिक उदात्तता पाने की कभी चिन्ता नहीं होती। शरीर मानव नहीं वह उसका एक साधन ) कृमिशकुन्मत्रभाजनं शरीरं पुण्यपापजन्महेतुः॥५६७॥ कृमि, विष्ठा तथा मूत्रका पात्र यह शरीर पुण्य या पापके अर्जनका कारण बनता है । विवरण- कृमि, विष्टा तथा मूत्र पात्र शरीर लोगोंको अपना मोही बनाकर उन्हें पुण्य पापका भागी बना देता है। मूढ मानव शरीरको 'आपा' मानने को भूल करता है। कृमि, विष्टा तथा मूत्रका भाजन यह शरीर मनुष्य का स्वरूप नहीं है । उसका यह पांच भौतिक देह निश्चय ही मनुष्य नहीं है । यह तो उसे जीवन-याशाके साधन रथ के रूप में कुछ दिनोंके लिये तथा केवल इसका सदुपयोग करने के लिये मिला है । यह तो उसका यात्रागृह है। मनुष्य अपने अज्ञान से अपने इस यात्रागृह में मम. भावसे आसक्त हो गया है। उसकी यह देहासकि ही उसका पाप है। वह चाहे तो इस देहका सदुपयोग भी कर सकता है । देह में मनुष्य की अना. सक्ति ही उसका पुण्य है। कृमि, विष्टा तथा मूत्रका पात्र यह क्षणभंगुर देव Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३६ चाणक्यसूत्राणि देहधारीको पुण्य पापमें से किसी एकके साधनके रूपमें मिला है। देहधारीको पुण्य पापके साधनरूप इस देहका अच्छेसे अच्छा उपयोग करनेकी कलासे पूर्ण परिचय होना चाहिये। पाठान्तर- कृमिशकृन्मूत्रभाजनं शरीरम् । शरीर कृमि, विष्ठा तथा मूत्रका पात्र है। हीनपाठ है । पाठान्तर-पुण्यपापमेव जन्महेतुः। पुण्य पाप ही जन्मके कारण हैं । महत्वहीन पाठ है। (दुःखका स्वरूप ) जन्ममरणादिषु दुःखमेव ।। ५६८॥ जन्म-मरण आदियोंमें दुःख ही दुःख है। विवरण-जन्म-मरणके अधीन रहनेवाले इस नाशवान देहको अपना स्वरूप समझ बैठने वाली देहात्मबुद्धि रूपी अज्ञान ही दुःख है। देही जन्ममरण दोनोंसे सतीत है। जन्ममरणातीत देहीको अपना स्वरूप समझ जाना ही दुःखातीत अखंर सुखमयी, चिरशांतिदायिनी, ज्ञानमयी, पावनी स्थिति है । जन्म, मरण, रोग, शोक, ताप, बंधन तथा विपत्तियोंकी भ्रान्तिमें फंसे रहने में दुःख ही दुःख भरा है। इनकी भ्रांतिमें फंसे रहनेसे ही मनुष्यको दुःखी बनाया है । वास्तविकता यह है कि मनुष्यका देही न तो जन्मता है न मरता है और न यह अन्य किसी असुविधा या विपत्ति में फंसता है । देह ही जन्मता, मरता तथा अन्य कष्ट भोगता है । देहीको तो जन्ममरणादिका धोका ही धोका है । देही मानवको अपना यह मजन्मा, मजर, अमर, सनातन, सकलभूत साधारण रूप पहचानना है। अपना स्वरूप जान देना ही देहीका ज्ञान है । जन्मने, मरने तथा कष्ट भोगनेवाले देहमें भ्रान्तिभरी देहात्मबुद्धि रखना ही उसका अज्ञानरूपी दुःख है और यही उसका दुःखमें इबे रहना भी है । देहीके स्वरूपको न समझना ही उसका दुःख बन गया है। Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुःख से निस्तारेका उपाय ( दुःख से निस्तारेका उपाय ) तपसा स्वर्गमाप्नोति ॥ ५६९ ॥ ५३७ तपसे स्वर्गका लाभ होता है । 6) विवरण - इन्द्रियोंके द्वारा संसारको जानना ज्ञान नहीं है किन्तु सद सद्विचार - बुद्धिके द्वारा संसारके वास्तविक रूपको पहचान जाना ही 'वास्त विक ज्ञान ' है । संसारको इंद्वियोंके द्वारा जानना, चाहना तो अपनेको न जानना है | आत्मविस्मृति ही तो इंद्रियजनित संसार- ज्ञान है । मनुष्यका यह मायिक जगत् क्षणिक आत्मविस्मृतिमात्र है । इस दृष्टिसे संसारको इन्द्रिय भोग्य रूप से जानना अज्ञान है । अपने स्वरूप देद्दीको पहचान जाना ही ज्ञान है । ज्ञानीका संपूर्ण जीवन-व्यवहार सुखदुःखातीत स्थिति में रहकर होता है । उसका जीवन-व्यवहार सुखदुःखातीत स्थितिमें रहने के कारण सत्यकी सेवारूपी तपश्चर्या बन जाता है । इन्द्रियलौल्य या भोगासक्ति मानवके देवीका स्वभाव नहीं है । उसका स्वभाव तो जितेन्द्रियता और अनासक्ति है । यही कारण है कि ज्ञानी समाज में जितेन्द्रिय लोग पूजते और अजितेन्द्रिय सम्मानहीन होकर जीवन के दिन निष्प्रभता के साथ काटते हैं । देह इन्द्रियोंका पुतला है । चक्षु, कर्ण, नासिका आदि इन्द्रिय देवकी जीवितावस्था है । जबतक इन्द्रिय काम करती है तब तक ही देह जीवित रहता है । ज्ञानी और अज्ञानी दोनों ही इन्द्रियोंसे काम लेते हैं । जितेन्द्रिय ज्ञानी इन्द्रियों का उपयोग सत्यस्वरूप आत्मा के दर्शन तथा देहकी रक्षा के लिये करता है । वह आत्मदर्शन के लिये ही अपने देहकी रक्षा भी करता है । इसीको इन्द्रियोंके ऊपर देहकी प्रभुता भी कहते हैं और इसीको विदेहावस्था भी कहा जाता है । इन्द्रियाधीन या मजितेन्द्रिय मन तो अज्ञानकी स्थिति है । जितेन्द्रिय मन ही मनुष्यका स्वरूप है । इन्द्रियाधनि मन देहात्मबुद्धि में फँस गया होता है । देहात्मबुद्धि में फँसा हुआ इन्द्रि याधीन मन मात्मविस्मृतिरूपी अज्ञानकी स्थिति है । स्वतंत्र मन ज्ञान Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३८ चाणक्यसूत्राणि मज्ञानमें से किसी एकके निर्वाचनको समस्याके उपस्थित हो जानेपर ज्ञानको ही अपने जीवनका मार्गदर्शक बगा लेता है । वह सत्यार्थ कर्तव्य पालनको ही अपने जीवनका ध्येय बना लेता है। उसका शरीर सत्यकी सेवामें सम. र्पित होचुका होता है। उसका शरीर सत्यकी सेवामें समर्पित होकर जीवन व्यापी तपश्चर्या का साधन बन जाता है। भोग-निवृत्ति ही मनुष्यका तपो. मय जीवन है। जीवन भर कामक्रोधादि आभ्यंतर रिपोंका दमन करते रहना ही सच्ची तपस्या है । मनपर इन्द्रियों की प्रभुता न होने देकर इन्द्रियों के ऊपर विवेकी मनकी प्रभुताकी स्थापना ही मनुष्यकी जितेन्द्रियता है और यही उसकी इन्द्रियदमन नामकी तपस्या भी है । यही वह तपस्या है जिससे मनुष्यको स्वर्ग अर्थात् सच्चा सुख मिलता है। ब्राह्मणस्य तपो ज्ञानं, तपः क्षत्रस्य रक्षणम् । वेश्यस्य तु तपो वार्ता तपः शूद्रम्य सेवनम् ॥ ज्ञान ही ब्राह्मणों की तपस्या है । अत्याचार पीडितों की रक्षा ही क्षत्रियकी तपस्या है। धर्मानुकूल व्यापारसे अपनी तथा राष्ट्रकी श्री-वृद्धि ही वैश्यकी तपस्या है । मधई। तपस्या सबको योग देना ही शूद्रोंकी तपस्या है । यद्दस्तर यद्दराप यद्दर्ग यच्च दुष्करम् । सर्व तु तपसा साध्यं तपो हि दुरतिक्रमम् ॥ संसार में जो कुछ दुस्तर, दुराप, दुर्ग और दुष्कर है वह सब तपसे संभव है । तप अनभिभवनीय, भनतिक्रमणीय, मनिषेध्य, समोध स्थिति है । अहिंसा सत्यवचनमानृशंस्यं दमोऽघृणा । एतत्तपो विदु/रा न शरीरस्य शोषणम् ॥ अहिंसा, सत्य, भानृशंस्थ, दम, मघृणा मादि तपस्याके रूप हैं । शरीर. परिशोषण तपस्या नहीं है । गीतामें तपके तीन भेद Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तपोवृद्धिका साधन ५३९ 1 देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम् । ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते ॥ अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहितं च यत् स्वाध्यायाभ्यसनं चैव वाङ्मयं तप उच्यते ॥ मनःप्रसादः सौम्यत्वं मोनमात्मविनिग्रहः । भावसंशुद्धिरित्येतत्तपो मानसमुच्यते ॥ देव, द्विज, गुरु तथा बुद्धिमानोंका पूजन, शौच, ऋजुता, ब्रह्मचर्यं तथा अहिंसा शारीरिक त है । अनुद्वेगकारी सत्यप्रिय, दितकारी वाणी तथा स्वाध्याय करानेवाले सद्ग्रन्थोंका अभ्यास वाणीका तप है । मनका नैर्मल्य, सौम्यस्त्र, मौन, आत्मविनिग्रह, भावशुद्धि यह मानम तप कहाता है । पाठान्तर- तपसा स्वर्गमवाप्नोति । (तपोवृद्धिका साधन ) क्षमायुक्तस्य तपो विवर्धते ॥ ५७० ॥ क्षमाशीलकी तपोवृद्धि होती है । विवरण -- क्षमाके अर्थके विषय में संसारको पर्याप्त भ्रम है। अपराश्रीको दण्ड न देना ही प्रायः क्षमाका अर्थ बन बैठा है। यह जये समाजव्यवस्थाका प्रबल श है | इसलिये क्षमा शब्दका यह अर्थ किसी भी प्रकार संभव नहीं है । वास्तव में यह शब्द ऐसे प्रसंगके लिये बना ही नहीं है । यदि क्षमा शब्दका अपराधीको दण्ड न देना रूपी प्रचलित अर्थ मान लिया जाय तो क्षमाशील बननेके नामपर अपराधियों को दण्ड देनेके लिये बनाये हुए न्यायालय बन्द कर देने पडे | आइये इस दृष्टिसे क्षमा शब्दका अर्थ ढूँढ --- हमें क्षमा शब्दका ऐसा अर्थ ढूँढना पढेगा कि इस समाज में सुव्यवस्था रखनेके लिये अपराधीको अदण्डित भी न रहने दें और क्षमाशील भी बने रह सकें । शत्रुके प्रति क्रोधको कभी न भूलना तथा उसे उसके अपराधका बदला भी देकर छोडना धमर्रक्षक धार्मिक लोगोंका Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४० चाणक्यसूत्राणि मत्याज्य कर्तव्य है । अब हमें धार्मिकों की इस कर्तव्यनिष्ठामेसे क्षमाका संभव मर्थ ढूंढना है। बात यह है मनुष्य, शत्रु या अपराधीके आक्रमणका उचित प्रतिकार तब ही कर सकता है जब वह उस माक्रमणको देखकर उत्तेजित न हो गया हो। यह तो मानना ही पडेगा कि मनुष्य स्थिर और शान्त बुद्धि रहकर शत्रुके माक्रमणका जितना अच्छा प्रतिकार कर सकता है उतना अशान्त होकर नहीं कर सकता । उत्तेजना या भाकाहटके अवसरपर शत्रु. विजयरूपी लक्ष्य की सेवामें शान्त हृदयसे लगे रहना ही क्षमा शब्दका माननीय अर्थ हो सकता है। इस दृष्टिसे अपराधीको दण्ड देने योग्य बने रहना, निरपराधको अदण्डित रखना अर्थात् उत्तेजनाधीन होकर निरपराध. पर हाथ न छोड वैठना ही क्षमा है। उत्तेजनाजन्य भ्रान्तिसे अपराधी तक दण्ड न पहुँचा सकना अक्षमा है । अक्षमा प्रतिकार मूढताका ही नामान्तर है। यदि अपराधीको दण्ड देने में प्रमाद हो जाता है तो वह समाजके शत्रुओंको प्रबल बनाना हो जाता है । मनुष्य के वास्तविक शत्रु उपहीके भीतर रहनेवाले कामक्रोधादि रिपु हैं। कामक्रोधादि रिपुओंके वशमें आकर जिसके साथ जो कोई व्यवहार किया जाता है वह वास्तव में अक्षमा, उत्तेजना, प्रमाद या मूढता ही होता है। अक्षमाका परिणाम यही होता है कि बाह्य शत्र अदण्डित रहकर सब समय शत्रुताचरण करने के लिये स्वतंत्र हो जाते हैं। समाजके शत्रु तब उत्पन्न होते, पलते, प्रोत्साहित होते और वृद्धि पाते हैं जन समाज उन्हें दण्ड देने में प्रमाद करता है । समाजमें सची क्षमाशीलता न रहनेसे निरपराध तो दण्ड पाने लगते और अपराधी अदण्डित रहने लगते हैं । अपराधियोंके अदण्डित रह जानेसे समाजके शत्रु बढ जाते हैं। मनुष्यके भाभ्यन्तरिक क्रोधलोभादि शत्रु मनुष्य के मन में समाजद्रोह करनेकी भावना उत्पन्न कर देते हैं । समाजद्रोही मनुष्य अपने स्वार्थको समाजके सार्वजनिक कल्याणका घातक बना लेता है। इसका परिणाम यह Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तपस्या सर्वकार्य साधक होता है कि स्वार्थियों के समाजमें कानूनकी पकडमें न मानेवाले समाजको लूटनेवाले समाजद्रोही लोग तो अदण्डित रहकर फूल ते फलते हैं और समाजके शान्तिप्रिय लोगोंपर अत्याचारके मेघ बरसने लगते हैं। अपने व्यक्तिगत कल्याणको समाज के सार्वजनिक कल्याणमें विलीन कर डालनेवाली मानवीय न्याय बुद्धि ही क्षमाशीलताका मर्म है । क्षमासे समाजमें शान्ति सुरक्षित रहनी चाहियेन कि वह नष्ट हो जानी चाहिये। शान्तिरक्षामें भ्रान्ति क्षमाका दुरुपयोग है । क्षमा शान्तिरक्षाका निषेध या विरोध करनेवाली नहीं होनी चाहिये । क्षमा शब्दका मर्म समझने के लिये जानना चाहिये कि दूसरे को क्षमा करना यथार्थ क्षमा नहीं है । अपने दोषों का मानमर्दन ही क्षमा है। कामक्रोधादि भाभ्यंतरिक दोष, मनुष्यक सच्चे सुखके मागमें विघ्न डालनेवाले अर्थात् उसके मनपर भाक्रमण करनेवाले सच्चे शत्र हैं । वे मनुष्य के कर्तव्यका मार्ग भी बिगाडते हैं तथा सुखके मार्गको भी नष्ट कर डालते हैं । इन शत्रुओंपर विजय दिलानेवाली जितेन्द्रियता ही अमा है और यही एकमात्र वह सफल तपस्या है जिसे मनुष्यको अपने जीवनमें अपनाना है। जितेन्द्रिय तपस्वी नित्य सुखका अधिकारी बन जाता है। ( तपस्या सर्वकार्य साधक ) तस्मात् सर्वेषां कार्यसिद्धिर्भवति ॥५७१॥ उस (तप ) से सबके काम सिद्ध होते हैं। विवरण- जितेन्द्रिय मनुष्य अपने व्यक्तिगत स्वार्थको समाजके कल्याणमें विलीन कर डालता है। वह अपने स्वार्थको समाज-कल्याणमें विलीन करके जो कुछ करता है सबका सब सस्यकी सेवा होता है। वह सबका सब समाज कल्याणरूपी तपस्या ही होता है। जितेन्द्रियता राज्यश्रीको सुरक्षित रखने तथा उसकी मायुको बढाने. वाली तपस्या है। ग्रन्थके प्रारंभमें ही ' राज्यस्य मूलमिन्द्रियजयः । Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि इन्द्रिय विजयको राज्यका मूल कहा जा चुका है । राजाओंके समस्त शुभ कर्म जितेन्द्रियता रूपी तपस्याले सिद्ध होते हैं । जिवेन्द्रिय ज्ञानी राजा फलाकांक्षासे रहित होकर कर्तव्यबुद्धिसे राजकाज करता है इसीलिये उसे भौतिक सफलता मिले या किसी कारणसे न मिल पाये वह सदा ही सफलताका संतोष पाता रहता है । जितेन्द्रिय तपस्वी राजा असफल होना जामता ही नहीं । वह अपनी जितेन्द्रियताको हो संसारका सर्वश्रेष्ठ तप और तपस्याको ही संसारका सर्वश्रेष्ठ फल मानता है । वह बाह्य संसारी फलका दास नहीं बनता । इसी कारण सफलता उसकी चेली बनकर उसके सामने किंकरके समान हाथ बांधकर खड़ी रहती है । सफलतामें उसके पास से टलनेकी शक्ति नहीं रहती । ५४२ मनुष्य यह जाने कि कर्तव्यपालनका सन्तोष ही कर्तव्य पालनका फल है । परन्तु यह एक ऐसी सचाई है जिसे विषय लोलुप अजितेन्द्रिय पामर प्राणी लाख बतानेपर भी नहीं जान सकता । इस सत्यको तो जितेन्द्रिय मनुष्य ही जान सकता है। इस संसार में जितेन्द्रियतासे ऊँचा और कुछ भी नहीं है । जितेन्द्रियता ही मनुष्यमात्रका अधिकार तथा मनुष्यमात्र के जीवनका लक्ष्य है । संसारकी सर्वश्रेष्ठ साधनाकी जो अन्तिम स्थिति है वही तो जितेन्द्रियता है । जितेन्द्रियता ही मानवजीवनका अन्तिम साध्य है । जिनेन्द्रियता स्वयं ही फल है । वह किसी फलका साधन नहीं है जैसे फलका कोई फल नहीं होता इसी प्रकार जितेन्द्रियताका इससे भिन्न और कोई फल नहीं है । वह स्वयं ही अपना फल हैं । 1 - इति चाणक्यसूत्राणि । चाणक्य सूत्र समाप्त । Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट प्रसंगोचित आलोचना चाणक्य सूत्रोंका ऐतिहासिक आधार तथा चाणक्यकी प्रतिभाको विकसित करनेवाली भारतीय तथा वैदेशिक परिस्थिति___ जब ईसासे पूर्व चौथी शताब्दिमें पहले तो यूनान के राजा सिकन्दरने तथा उसके पश्चात् सेल्यूकसने भारत के उस समयके देशद्रोहियोंकी सहायतासे मारतपर आक्रमण किया था तब पश्चिमोत्तर भारतके कुछ देशप्रेमी वीरोंने न केवल इन दोनों आक्रामकों को बुरी तरह पीट कर भगाया था और देशद्रोहियों को मिटाया था। प्रत्युत अगणित खंडों में बंटकर अपने अपने राज्योंको अपनी अपनी भोगेच्छामूलक संगठित लटका क्षेत्र बनाकर रखने. वाले तथा परस्पर कलह करने में लगे हुए भारतीय गणराज्यों को आजसे दुगने विस्तृत ही नहीं किन्तु सुसंगठित साम्राज्यका रूप देकर उसे संसार भर की दृष्टि में एक ऐसा अजेय राष्ट्र बना डाला था कि भविष्य में शताब्दियों तक भारतपर वैदेशिक मणकी संभावना कमला रही थी। उस समय भारतीय स्वाभिमान की रक्षा करने का साम्राजकी आधारशिला पश्चिमोत्तर भारतीय वायाँक ही हाथों रकधी राइ था। २१६ t. त्तर भारतके दशप्रेमी हीरोन संमा लोगोंपर भारत की वीरता ऐमी छाप लगा दी थी कि फिर किया भी विदेशी बहुत दिक भारतकी ओर लालच भरी दृष्टि से देने का साल नहीं खाया। Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४४ चाणक्यसूत्राणि सिकन्दरका भारतपर पाक्रमण देवकी भचिन्त्य इच्छासे भारतमें जिस आर्य साम्राज्यका जन्मदाता बन गया था जो साम्राज्य तीसरी पीढीमें बौद्ध साम्राज्य के रूपमें परिणत होकर कुछ दिन पश्चात् छिन्न भिन्न हो गया था उस विशाल साम्राज्य के सुयोग्य सम्राट तो चन्द्रगुप्त मौर्य के तथा उस साम्राज्य तथा सम्राट दोनोंके निर्माता स्वनामधन्य महामति महर्षि चाणक्य थे जो दोनों ही पश्चिमोत्तर भारतके निवासी थे। चाणक्य चन्द्रगुप्त दोनों पश्चिमो. तर भारतके निवासी होनेसे देशपर विदेशी माक्रमणकी हानियां प्रत्यक्ष देखी और अनुभव की। अपनी देशसेवाके इन दोनोंने इस अनुभवके भाधारपर मापसमें यह मन्तव्य स्थिर किया कि एक सपके रूपमें सुसंगठित भारत ही सफलतासे विदेशी आक्रमण रोक सकता है। विदेशी आक्रमणका पंजाबके गगराज्योंपर जो प्रतिकारात्मक मनोवैज्ञानिक प्रभाव पडा वही प्रभाव मागे चलकर चन्द्रगप्तके संयुक्त भारतीय सिंहासनका सम्राट बननेका आधार बना । पंजाबकी ब्राह्मण जातियों में जो यवनोंके विरुद्ध विद्रोह हुमा उसका पूरक नेता चाणक्य ही था। चाणक्य चन्द्रगुप्त दोनोंकी ब्राह्मण क्षात्र शक्तियोंने भमिन्न हृदयसे मिलकर केवल चौबीस वर्ष में अपना अखण्ड भारतीय साम्राज्यका स्वप्न पूरा करके छोडा।। ऋषि चाणक्य सम्राट चन्द्रगुप्तके तक्षशिला विश्वविद्यालयसे गरु थे । उस समयकी पैदेशिक विपत्तिने इन दोनों संवेदनशील देशप्रेमी वीरों के मनोंमें राष्ट्ररक्षाका प्रश्न उत्पन्न किया था और इन्हें उस माक्रमणका प्रति. रोध करनेके लिये प्रस्तुत कर दिया था । आर्य चाणक्य समय समय पर साम्राज्य-निर्माणरत चन्द्रगुप्तको भादर्श राज-चरित्र-निर्माणके जो जो पाठ सिखाया करते थे उन्हें उन्होंने उसके तथा भारतके भावी राजाओंके स्वाध्यायके लिये कौटल्य ( कौटिल्य नहीं) अर्थशास्त्र के नामसे छः सहस्त्र श्लोक परिमाण ग्रन्थमें लिपिबद्ध किया था। यह बात उन्होंने अपने ही श्री मुखसे अर्थशास्त्र के अन्तमें कही है सर्वशास्त्राण्यनुक्रम्य प्रयोगमुपलभ्य च। कौटल्येन नरेन्द्रार्थे शासनस्य विधिः कृतः॥ (कौटलीय अर्थशास्त्र २।१०।२८) Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रसंगोचित आलोचना ५४५ कौटल्यने बार्हस्पत्य भादि समस्त अर्थशास्त्रों को जानकर उनके व्यावहारिक प्रयोगों को अपने तात्कालिक राजनैतिक व्यवहारों में प्रत्यक्ष प्रयोगके द्वारा सुनिश्चित सत्य के रूप में पाकर चन्द्रगुप्त राजाके लिये शासन विधिका उपदेश किया। अर्थात कौटल्यने इस अपने शास्त्र में अपने राजनैतिक विचारोंकी पूर्णता और सौष्ठव को पराकाष्ठा तक पहुँचा दिया है । इस अनुद्यमान तथा व्याख्यायमान ग्रन्थमें अनुदित तथा व्याख्यात ५७१ चाणक्य सूत्र प्रायः उसी कौटलीय अर्थशास्त्र के निचोड हैं। ग्रन्थकारने इन सूत्रोंमें धर्म और राजनीतिको अलग समझनेवाले भाजके पाठकों के सम्मुख राज. नीतिको धर्मसे अलग न होने देनेवाला अपना दृष्टिकोण रक्खा है और राष्ट्रकल्याणकी दृष्टि से धर्म तथा राजनीति संबन्धी विचारोंके परिमार्जनका सफल प्रयास किया है। ___ मनुष्यसमाजको आदर्श समाज-रचना तथा आदर्श चरित्र-निर्माणके पाठ देकर उसे पच्चो सुख शान्तिका मार्ग दिखाना ही ब्राह्मण चाणक्य के आर्य जीवन का एकमात्र उद्देश्य था। आर्य चाणक्यको अध्यात्मसे अनु. प्राणित भारतीय राजनीति तथा आर्षप्रतिभाका समन्वित तथा पूर्ण विक. लित रूप कहना अत्युक्त नहीं है । उनके संबन्धमें यह भी अतिशयोक्ति नहीं है कि इस प्रकारकी व्यावहारिक बुद्धि रखनेवाले उलझन भरे राजनैतिक व्यवहारों में भी धर्मको सुरक्षित रखने वाले राज्य संस्थाको लटका ठेका मात्र न रहने देनेवाले प्रत्युत उसे तपोवनका जगत् पावन रूप देनेवाले प्रतिकूल परिस्थितियों से संग्राम करके उन सबपर अपने बुद्धि बलसे विजय पा लेनेवाले चाणक्य जैसे व्यक्ति संसार भरके इतिहासमें देखनेको नहीं मिलते । आर्य चाणक्यने ढाई सहस्र वर्ष पूर्व अपने जिन विभ्राट कर्मोंसे भारतीय इतिहासको सुशोभित किया है और भारत में अपने जैसे लोकोत्तर कर्मकी पुनः पुनः आवृत्ति होते रहने का शाश्वत साधन प्रस्तुत कर देनेवाली अपनी राजनैतिक प्रतिभाको कोटलीय अर्थशास्त्र तथा चाणक्य सूत्रोंका रूप ३५ ( चाणक्य.) Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि देकर केवल भारतको भावी पीढियों को ही नहीं संसारभरको कितना अनु. गृहीत किया है यह जो देखना चाहें वे इस भाष्य में विस्तारसे दिखाये उनके मनोभावोंसे भली प्रकार जान सकते हैं । अन्य कारकी लेखनीमें जो ओज, तेज, दृढता, साहस, आत्मविश्वास तथा राष्ट्रसुधारकी गहरी लगन है उसे देखनेसे पता चलता है कि उनके पास न्यक्तिगत जीवन नामकी कोई स्थिति नहीं थी। उनका जीवन समाजसुधारके लिये सर्वात्मना समर्पित हो चुका था । असाधारण प्रतिभाशाली सभ्रान्त मनोवैज्ञानिक अक्लान्त कर्मवीर तेजस्वी, तपस्वी, सूक्ष्मदर्शी, ज्ञानावतार चाणक्य पण्डितका नाम भारतके घर-घरमें सुपरिचित है ! यही कारण है कि जैसे भारतमें कुशल वैद्यको धन्वन्तरि कहा जाता है इसी प्रकार ग्यवहारमें अतिकुशल व्यक्तिको चाणक्य उपनामसे विभूषित किया जाता है। भारत ही नहीं पाश्चात्य देशों के ज्ञानपिपासु विद्वानों ने भी चाणक्य--प्रचारित ज्ञान-सागरमेसे रत्न-भंडार लेकर अपने देशोंके राजनैतिक साहित्यको समृद्ध किया है और इस भारतीय प्रतिभाके प्रति कृतज्ञताके साथ श्रद्धांजलि अर्पण करनेमें कृपणता नहीं की है। भादर्श समाजरचना तथा आदर्श चरित्रनिर्माण दोनों एक दूसरेपर निर्भर करते हैं । इनपर एक साथ समान भावसे ध्यान देना अत्यावश्यक है । भादर्श समाज होनेपर ही राष्ट्रमें भादर्श चरित्र बनता है और मादर्श चरित्र होनेपर ही मादर्श समाजकी रचना होती है। मादर्श समाज ही मादर्श राजशक्ति पैदा कर सकता है। जिस देशमें भादर्श समाज नहीं होता वहां भादर्श राजशक्ति पैदा हो ही नहीं सकती। आदर्श राजशक्तिके बिना समाज आदर्श समाज बना नहीं रह सकता। अवैध भोगोंसे बचे रहना ही मानव-जीवनकी विशेषता है और यही मानव-जीवनका आदर्श भी है । भादर्श राजा ही आदर्श समाजका सेवक तथा संरक्षक हो सकता है । मादर्श समाज तथा आदर्श राजा दोनों अनि. वार्य रूपमें एक दुसरेके पूरक अनन्य प्रेमी तथा श्रद्धालु होते हैं। कोई भी पतित राजा मादर्श समाजपर शासन नहीं कर सकता। जहां पतित Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रसंगोचित आलोचना ५४७ राजा शासन कर रहा है जान लो कि वहांका समाज निश्चित रूपसे भादर्श हीन है और पतित है। आदर्श राजा अपनी पूरी शक्ति लगाकर समाज में अपवित्रताको उत्पन्न होने, घुसने तथा फूलने फलनेसे रोके रहता है। मार्य चाणक्य भारतका भादर्श नागरिक तथा भारत माताका अत्यन्त यशस्वी सूपूत था। मार्य चाणक्य उन विशेष मादर्श सेवक पुरुषों में से था जो अपने टूटे-फूटे जैसे तैसे रद्दी राष्ट्रकी सेवाके नामसे दिन न काटकर राष्ट्रको यथार्थ में जैसा होना चाहिये वैसा बनानेके लिये अनर्थक परिश्रम करके गये हैं। आदर्श पुरुष आदर्श राष्ट की दिव्य मूर्ति की कल्पना करके सारे राष्ट्रको उसीके अनुसार ढालने में लग जाया करते हैं । वे देश को इतनी मुख्यता नहीं देते जितनी अपने भादर्शको देते हैं, वे अपने भादर्शको मुख्यता देकर सारे राष्ट्रको उसकी इच्छा भनिच्छासे निरपेक्ष रहकर अपने भादर्भ के पीछे घसीटते ले जाते हैं । उनका आदर्श राष्ट्र संसार में कभी मूर्तरूप धारण कर सके या न कर सके वे तो अपनी संपूर्ण शक्ति उसीकी सेवामें लगाते रहते हैं। उनकी कल्पनाका आदर्श राष्ट्र उनकी संपूर्ण सेवाशक्तिको अपनी ओर आकृष्ट किये रहता और उन्हें सेवाका सन्तोष देता रहकर तृप्त रखता है। भारत माताके सुपूत चाणक्य के सम्मुख भारतके कल हायमान भोगमन्न समाज तथा राजा दोनोंको अपने भादर्शपर मारूढ कर देनेका गंभीर कर्तव्य उपस्थित हुभा जो पूर्णतया सफल हुआ था। उन दिनों भारतमाताके उस एक ही स्पूतके अक्लान्त परिश्रमसे भारत परा. भूत होनेसे बच गया था। एकेनापि सुपुत्रेण सिंही स्वपिति निर्भयम् । सहैव दशभिः पुत्रै र सहति गर्दी॥ सिंहनी अपने म केले पुत्र के बल और पुरुषार्थ से जंगल में निर्भय रहती है जब कि गधीको अपने दसों पुत्रोंके साथ बोझ ढोना पडता है। भारतकी उस समयकी निर्बल राजनैतिक परिस्थितिने चाणक्य जैसे विचारशीलकी ब्राह्मी प्रतिभाको तथा उसके शिष्य चन्द्रगुप्त जैसे वीरकी Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४८ चाणक्यसूत्राणि मात्र प्रतिभाको राजनैतिक तथा सामाजिक दोनों कर्मक्षेत्रों में उतरने के लिये विवश कर डाला था। उस समयकी देशकी आभ्यन्तर बाह्य दोनों परिस्थितियोंने चाणक्य जैसे विचारशीलकी सर्वतोमुखी प्रतिभाको देशके संकटमें काम आने तथा देश में स्वार्थ के स्थानपर मनुष्यताके नामपर काम करने वाली शक्तियोंको झकझोर कर, जगा जगाकर व्यावहारिक क्षेत्रमें खडा करनेका ऐसा इतना तीव्र निमंत्रण दिया था जिसे चाणक्य जैसा संवेदना शील व्यक्ति अस्वीकार नहीं कर सका। देशकी उस समय की जिस परि. स्थितिने चाणक्यकी नीतिको व्यवहार भूमिमें मानेका अवसर दिया था उसका पूरा चित्रण करने के लिये पश्चिमके प्रसिद्ध माततायी सिकन्दरके चरित्रकी आलोचना करना प्रासंगिक तथा अत्यावश्यक है। पाश्चात्य ऐतिहासिकों में से कुछ तो सिकन्दरको महान् विश्वविजेता तथा कुछ उसे विश्वविख्यात माततायीके नामसे स्मरण करते हैं । लगभग सवा दो सहस्र वर्ष पूर्व यूनान में सिकन्दरका अभ्युदय हुआ था । वह रणोन्मत्त था। उसे केवल बीस वर्षकी अवस्था में अपने माततायी पिताका केवल राज. सिंहासन ही नहीं मिल गया था किन्तु असे साथ ही अपने पिताकी परराज्य-लोलुप मनोवृत्ति उत्तराधिकार के रूपमें मिली थी। उस समय यूना. नमें सामरिक एकतन्त्र शासन (मिलिटरी मोनी) का प्रादुर्भाव हो चुका था। सैन्यबलसे बलवान् होकर जनतापर मनमाना अत्याचार करना, लोगोंको डरा-धमकाकर उनपर प्रभुत्व जमाये रखना तथा सैनिकों को लूटके मालका लोभ देकर राज्य विस्तार करना पश्चिमके अत्याचारी राजाओंकी राजनीति बन गई थी। सिकन्दरका पिता फिलिप इसी पशुशक्तिके बलसे यूनानका अधिपति बना था। उसे देशके साथ विश्वासघात करने के कारण एक गुप्त हत्यारेके हाथों देशद्रोहीकी मौत मर जाना पड़ा था । उस समय यूनानमें सशस्त्र राजकीय अत्याचारोंका बोलबाला हो रहा था। उस समयकी यूनानी राज्य. व्यवस्था लूटका ठेका ( दूजारा) मात्र रह गई थी। उस समय यूनानी Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रसंगोचित आलोचना ५४९ राजनैतिकोंने इस सशस्त्र राजकीय अत्याचारके विरोधमें जनताको जगाने तथा उससे स्वतंत्रताकी रक्षा करानेके पर्याप्त प्रयत्न किये थे । उस समयके इतिहास प्रसिद्ध वाग्मी डीमस्थनिसने स्पष्ट शब्दों में यूनानी जनताको यह सावधान वाणी सुनाई थी कि 'फिलिप सम्पूर्ण यूनानका शत्रु है । इसे राज्याधिकार मिल गया है । यदि इसे अपने उद्देश्य में सफलता मिल गई तो यह यूनानको दास बनाकर छोडेगा। यदि यूनान अपनी स्वतंत्रताकी रक्षा करना चाहे तो वह अपने पारस्परिक कलहको तो छोड दे और अपने स्वतंत्रता नामवाले जन्मसिद्ध अधिकारकी रक्षाके लिये संयुक्त न्यूह (मोरचा) बनाकर अत्याचारी राज के विरुद्ध संग्राम घोषणा करे । ' परन्तु यूनानके हितैषीको यह सावधान वाणी यूनानने नहीं सुनी और फिलिपकी हत्याके पश्चात् उसका उत्तराधिकारी सिकन्दर सेन्य सामन्तोंकी शक्ति में अपने पिता फिलिपसे भी बढ गया। उसने सैन्य सामन्तोंकी शक्तिसे शक्तिमान होकर सारे यूनानको दास बना लिया और दिग्विजयके लिये निकल पड़ा। ग्रीक ऐतिहासिकोंने स्पष्ट शब्दों में कहा है कि हमारे जिस यूनानने प्रसिद्ध दार्शनिक विचारशील समाज-सेवक तथा प्रजावत्सल राजा उत्पन्न किये हैं उसीके निवासी हम लोगोंके लिये अपने यूनानको सिकन्दरके जन्मदाताके नामसे कलंकित होते देखना और इसके दुष्ट राजका कुछ न बिगार सकना बडे ही परितापका विषय है और किसी भी रूपमें वाञ्छनीय नहीं है। सिकन्दर भूमण्डलके विख्यात माततायियों में गिना जाता है। प्रभुताप्रिय रणोन्मत सिकन्दरका जीवन नृशंस हत्याओं परतन्त्रताके विरुद्ध उठ खडे होनेवाले स्वतंत्रताप्रिय विजित व्यक्तियों के अंगच्छेद भादि अमानुषिक अत्याचारों, विश्वासी मित्रों, राजनैतिक नेतामों तथा न्यायप्रिय नागरिकोंका अस्तित्व मिटा डालने के लिये सब प्रकार के पाशविक उपायोंके अवलम्बनोसे परिपूर्ण था। भू-माताको निर्दोष लोगों के रक्तोंसे रँगना तथा उसे अस्याचारियोंके आँसुओंसे सींचना उसकी मनोरंजक क्रीडा थी। वह अपने को Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि ईश्वरका अवतार कहने लग गया था। उसे योरोपका हिरणाकुश कहना चाहिये । वह अपना विरोध करनेवालोंकी हत्या कर देता था और अपने अवतापनेको निष्कंटक करनेकी नीतिसे काम लेता था । जो उसके अव. तारपनेका समर्थन नहीं करता था वही उसका वध्य बन जाता था। उसकी इन माततायी प्रवृत्तियों के कारण संसार उससे ठन के लगा था। संसारके संत्रासक सिकन्दरको भारतसे निकाल कर भारत को उसके दुष्ट मारसे मुक्ति दिलाने में जिन भारतीय देशभक्तोंकी प्रतिभा तथा रणकौशलने पूरा सहयोग दिया था । आर्य चाणक्य भारतके उन सब देशसेवकोंके सुयोग्य नेता थे । कामन्दकीय नीतिशास्त्रमें चाणक्य के व्यक्तित्वके संबन्धमें निम्न प्रामाणिक विवरण विद्यमान हैं- इससे चाणक्य संबन्धी बहुतसी निराधार किंवदन्तियोंका अपने भाप संशोधन हो जाता है । वंशे विशालवंश्यानां ऋषीणामिव भूयसां। अप्रतिग्राहकाणां यो बभूव भूवि विश्रुतः ॥ २ ॥ जातवेदा इवार्चिष्मान् वेदान् वेदविदां वरः । योऽधीतवान् सुचतुरः चतुरोऽप्येक वेदवत् ॥ ३ ॥ यस्याभिचारवज्रेण वज्रज्वलनतेजसः ।। पपातामूलतः श्रीमान् सुपर्वा नन्दपर्वतः ॥४॥ एकाकी मन्त्रशक्त्या यः शक्त्या शक्तिधरोपमः । आजहार नृचन्द्राय चन्द्रगुप्ताय मेदिनीम् ॥ ५ ॥ नीतिशास्त्रामृतं धीमान् अर्थशास्त्रमहोदधेः । समुहले नमस्तस्मै विष्णुगुप्ताय वेधसे ॥६॥ " मैं वेधा अर्थात् समाज निर्माता जगद्वरेण्य उस विष्णुगुप्तको प्रणाम करता हूं जो उस प्रतिष्ठित ब्राह्मण परिवारमें उत्पन्न हुमा था जिसके सदस्य ऋषितुल्य थे, दान दक्षिणा नहीं लेते थे और समाजमें सम्मानका सर्वोच्च स्थान पाये हुए थे। विष्णुगुप्त होमाग्निके समान ज्योतिर्मय वेदान्तके मादर्शको अपनानेवालोंमें अग्रगण्य और प्रतिभासे चारों वेदोंपर एक जैसा Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रसंगोचित आलोचना अधिकार पाये हुए थे। उन्होंने अपनी अलौकिक शक्तिके दीप्त वज्रसे पर्वत. तुल्य विशाल नन्दवंशको मिटा डाला था, उस अकेलेने अपनी बुद्धि, प्रतिभा तथा देव सेनापतियों जैसो वीरतासे चन्द्रगुप्तको लोकप्रिय राजा तथा पृथिवी पति बना दिया था। जिसने अर्थशास्त्र रूपी समुद्रका मन्थन करके लोगोंको राष्ट्रनिर्माणको कलासे परिचित कराने के लिये राजनीति नामक अमृतका उद्धार किया था । " चाणक्य संबन्धी इस स्तुति वाक्यमें जिस नन्दवंशके ध्वंसका उल्लेख है, सिकन्दरके भारत-माक्रमणका उस नन्दवंशके साथ विशेष संबन्ध है। सिकन्दरको मासुरी-समर-यात्राका उद्देश्य ईरान के मार्गसे भारतपर माक्रमण करना और भारतका सम्राट बनकर विश्वसम्राट बनना था। देवकी अचिन्त्य इच्छासे उस समय समस्त भारत के भाग्यका प्रतिनिधित्व करनेकी भावना निष्किञ्चन परन्तु बुद्धि के धनी विप्र चाणक्य के मनमें जाग उठी। विप्र चाणक्यकी अनागतविधात्री बुद्धि ने भश्वक नामक क्षत्रिय जातिके अधिपति चन्द्रगुप्तको जो चाणक्यका आज्ञाकारी ही भारमसमर्पणी राजनैतिक अन्तेवामी बन चुका था। सिकन्दरकी भारताभिमुख गतिको भारतमें घुसने से भी पहले रोक देने के लिये ईरानकी महायताके नामसे ईरान भेज दिया था । ईरान निर्बल तथा हतोत्साह और वहां मनुष्यरध तथा स्वाभिमानके नामपर करनेवाली शक्तियों का सर्वथा अभाव था। वह सिकन्दरके दण्डे के सामने सिर झुकानेको प्रस्तुत बैठा था। चन्द्रगलने अपनी परम साहसी अश्वक सेनाओं के द्वारा सिकन्दरके मार्गमें पग-पगपर विघ्न उपस्थित किये परन्तु उसे रोका नहीं जा सका। उस समय अवसरवादी चाणक्यने, सिकन्दरको विश्वास में लाकर उसके सहायकों तथा उसकी सेनाओं में विद्रोह पैदा करके उसे पछाडने की दृष्टिसे चन्द्रगुप्तसे सिकन्दर के प्रति कपट भात्मसमर्पण करा दिया। सिकन्दरकी यही नीति थी कि स्थानिक विरोधी राजामों के बारमसमर्पण कर देनेपर वह उन्हींको वहांका आधिपत्य सौंपकर उन्हें अपना लेता Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५२ चाणक्यसूत्राणि था। यही उसका वैदेशिकोंसे सहायता पाने और सामरिक मार्गको सुरक्षित रखनेका एकमात्र उपाय था। उसने चन्द्रगुप्त के बारमसमर्पणको अपनी नीति की सफलता मानकर विश्वास करके भारत के प्रवेशमार्ग पर बने हुए महत्वपूर्ण मारनस नामक दुर्गका अधिपति बना दिया । चन्द्रगुप्त पूर्वनिश्चित कार्यक्रम के अनुसार इस महत्वपूर्ण स्थानको पाकर अपने सिकन्दर विरोधी उद्देश्य की पूर्तिमें लग गया। इस मध्यमें पश्चिमोत्तर प्रान्त सिकंदरके अत्याचारों से पूर्ण रूपमें क्षुब्ध हो चुका था और वह किसी सुयोग्य नेताके नेतृत्व में पिकन्दरका अदम्य विरोध करनेके लिये उतावला हो रहा था। जब पश्चिमोत्तर भारतीय प्रदेशके आदि क्षत्रिय तथा वाह्मण? लोग मिलकर सिकन्दर के पाशविक अत्याचारों के प्रतिशोधके लिये उठ खड़े हुए। तब परिस्थितिने चन्द्रगुप्तको सिन्दरके विद्रोहियों का नेतृत्व करने के लिये विवश कर डाला। जब मिन्दरको चन्द्रगुप्त की इस राजनैतिक गतिविधिका पता चला तब उसने उसका वध करनेकी आज्ञा दी। इस समा. चारको पाकर चन्द्रगुप्त खुल्लमखुल्ला विद्रोहियोंका सहायक और नेता बन बैठा। देशद्रोही तक्षशीला--नरेश अभी अपने पडौसी शक्तिशाली शत्रु पंचनन्द नरेश पुरुराज ( पर्वतक) को विनष्ट करने के लिये सिकन्दर से जा मिला । इन दोनों ने मिलकर आलमारके प्रदेश जीतो प्रारंभ कर डाले। सिकन्दर पशिमोत्तर भारतकी छोटी-छोटी सफलताओसे बहककर अपने साम्राज्य विस्तार के कार्यक्रम के अन्तर्गत पर्वतेश्वर पुरुराजको विजय करने की कार्यक्रम बना बैठा और उसे अभिसार नरेश भादि दूसरे राजाओं से संग. ठित होकर बलशाली बनने का अवसर न पाने देने के लिये शीघ्रताले झेलम के तटपर उसके सम्मुख आ डट! | इन दोनों की शीघ्रतासे पर्वतेश्वर अकेला रह गया । परन्तु वह अकेला रह जाने पर भी शक्तिशाली राजा था। उसकी सेना सुव्यवस्थित थी । सिकन्दर आक्रमण तो कर बैठा परन्तु इस युद्ध के प्रारंभिक दिनोंसे ही उसे लेने के देने पड़ने की समस्या उपस्थित दीखने लगी। यहांतक कि प्रथम तो उसे झेलम पार करना ही अत्यन्त कष्टसाध्य Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रसंगोचित आलोचना हो गया । फिर उसे पर्वतेश्वरकी हाथियोंकी उन सेनाओंसे लोहा लेना पडा जिनका सिकन्दरकी सेनाओंको कोई अनुभव ही नहीं था और उसे जिनकी अजेयताकी कल्पना भी नहीं थी । ५५३ पुरुराज के उद्भद योद्धा हाथियोंको सेनाने सिकन्दरकी सेना में विध्वंस मचा डाला । उसके रणबांकुरे हाथो रणक्षेत्र में सूंडोंसे शत्रुसैनिकों को पकड पकडकर अपने सशस्त्र महावतों से उनका सिर कटवा कर उन्हें कमल वनकी भाँति पैरोंसे कुचल डालते थे और यूनानी सेनाके सैनिकोंकी हड्डियों तथा कवचोंको पैरोंसे पीसकर चूर-चूर कर देते थे । जीवित सैनिकों को सूंडसे पकडकर धरती में दे मारते थे | यों पर्वतेश्वरके हाथियोंने यूनानी सेनाको प्रायः नष्टभ्रष्ट कर डाला । सिकन्दर के अधिकांश घुडसवार इस युद्ध में मारे गये। यह देखकर उसकी सेनामें आतंक छा गया और वह सिकन्दरको त्यागकर शत्रुपक्ष में आत्मसमर्पण करनेको प्रस्तुत दो गयी । अब उसके पास पर्वतेश्वर से तत्क्षण संधिप्रार्थना करनेके अतिरिक आत्मरक्षाका और कोई उपाय नहीं रहा । संसार में स्वार्थप्रेरित तथा कर्तव्यप्रेरित दो प्रकारके योद्धा होते हैं । कर्तव्यप्रेरित योद्धा अपने अन्तिम श्वासोंतक अपने लक्ष्यकी सेवा करते रहने के लिये युद्धमन रहकर अपना यश अमर कर जाते हैं । स्वार्थप्रेरित योद्धा स्वार्थीपर चोट आते ही श्वेत झण्डा दिखाकर आत्मसमर्पण कर देते हैं । यही दशा भावतायी सिकन्दरकी सेना में उपस्थित हो गई थी। निराश होकर सिकन्दरको युद्ध रोकनेकी माज्ञा देनी पडी और पर्वतेश्वर के सामने इस प्रकार विनती करनी पड़ी कि जो भारतीय राजन् ! पर्वतेश्वर ! मुझे क्षमा कर । मैं तेरा शौर्य तथा बल पहचान गया। अब विपत्ति नहीं सही जाती । मेरा हृदय पूर्ण व्यथित है । मैं नहीं चाहता कि मेरे साथ जानेवाले समस्त लोग नष्ट हों इन्हें मौत के मुँह में लानेवाला मैं हूं। अपने सैनिकोंको मुत्युमुखमें धकेलना मेरे लिये किसी भी प्रकार उपयुक्त नहीं है। आततायी के इस प्रकार सर्वतोमुखी विनाशके समय सदा नहीं आया करते । राजनैतिक सूझ बूझ रखनेवाले व्यक्ति के लिये यह एक ऐसा शुभ 1 Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ चाणक्यसूत्राणि अवसर हाथ माया था कि उसे तुरन्त हथकडी पहनाकर नष्ट कर डालना चाहिये था । परन्तु सब यह तब होता जब पर्वतेश्वरको अपने देशकी कोई चिन्ता होती । उसे तो केवल अपनी चिन्ता थी। उसने भात्मसमर्पणके लिए विवश हो जानेवाले पर्वतकको शिकारीको हाथ लगे खूखार कुत्ते के समान अपनी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाका साधन बना लेना चाहा और उसके सहयोगसे भारतीय राजामों को पराजित करके भारतका सबसे बडा प्रतापी राजा बनने का मनोरथ ठान लिया। यदि वह देशप्रेमी होता तो ऐसा कभी न करता । इस प्रकारको चिन्ता उसका राजनैतिक दिवालियापन था। यदि वह देशप्रेमी होता तो उसे सिकन्दरको उसी समय नष्ट कर डालना चाहिये था और उस आततायीका मुंड काटकर भारतमाताके चरणों में भेंट चढाना चाहिये था। कुछ लेख. कोका कहना है कि पर्वतेश्वरने शत्रुको क्षमा करने की क्षात्र परम्परा के अनु. पार संधिप्रार्थीपर प्रहार नहीं किया। परन्तु यह बात नहीं थी। उसकी देशद्रोही राज्यलोलुप मनोवृत्तिने उसे अँधा बन! डाला था और वह अपनी फूटी आँखोंसे सिकन्दरको मिटा डालने के सर्वोत्तम अघसरको नहीं पहचान सका। उस समय वह देशकी ओरसे न सोचकर अपने व्यक्तित्वकी रष्टिसे सोचकर भ्रान्त निर्णय कर बैठा। सिकन्दरने तो संधिको आत्मरक्षाका साधन मात्र बनाया था। वह तो आततायी भेडिये की भूख लेकर अपने देशसे समराभियान के लिये चला था । झेलम के तट पर अपने भाग्य का पासा पलटता देखकर संधिप्रार्थना तो उसकी मरमरक्षाकी एक चाल थी। उसके मनमें तो विश्वसम्राट बनने की महत्वाकांक्षा पहले से ही विद्यमान थी जो अब भी नहीं मिटी थी। सिकन्दरने पर्वतकको अच्छा धोका दिया। उसने भारतको जीतकर अपनी विश्वसम्राट बनने की महत्वाकांक्षा पूरी करने के लिये उस जैसे शक्तिशालको अपना भारतीय साधन बना लेनेका निश्चय कर लिया। उसको भारतका सम्राट् बनानेका लालच देकर ठगा और संधि पक्की कर ली। Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रसंगोचित आलोचना उस समय मगध भारतके गणराज्योंमें सबसे अधिक शक्तिशाली राज्य था। पर्वतककी दृष्टि भारतका सम्राट बनने के लिये सबसे प्रथम मगधकी ओर गई और उसने सोचा कि यदि मुझे मगधका सिंहासन मिल जाय तो भारतके भिन्न-भिन्न खण्ड राज्यों को अपने अधिकारमें कर लेना सुगम हो जायगा । पर्वतक देशके शत्र सिकन्दरको नष्ट करनेका सुअवसर भूलकर विदेशी सहायतासे भारतका सम्राट बननेके लोभ में उलझकर सिकन्दरकी मनोवांछित संधिके द्वारा युद्ध स्थगित करके इतने बड़े विश्वविख्यात भाततायाको क्षमा कर बैठा। भारतमें सिकन्दरपर मार पडनेके जो दिन इस युद्ध के पश्चात् उपस्थित हो रहे थे इस संधिने उन्हें कुछ दिन के लिये और टाल दिया और सिकन्दर कुछ दिन पर्वतकका रक्षित दुष्ट अतिथि बन कर रहा। उसने उसके राज्य के भासपासके कुछ प्रदेश जीतकर पर्वतकके राज्य में मिला दिये और पर्वतकका विश्वासपात्र बननेका अभिनय किया। पर्वतककी विदेशियों के कर्तृत्वसे भारतका सम्राट बनने की यह दुष्ट बुद्धि भारत के सर्वनाशका कारण बनने जा रही थी कि सौभाग्य से महामति चाणक्यको उसकी इस देशद्रोही दुष्ट बुद्धि का पता चल गया । चाणक्य समझ गया कि सिकन्दर देशद्रोही पर्वतकको ठग लेना चाहता है। और पर्वतक लोभमें भाकर इस शत्रुका नाश करने में प्रमाद कर गया है । उसने काँटेसे काँटा निकालनेकी नीतिसे काम लिया और देशद्रोही पर्वतकको केवळ तात्कालिक रूपमें समझाकर इन दोनोंकी दुष्ट संधिको यह कहकर तुडवाकर छोडा कि, " तुम सिकन्दरका विश्वास करके मगधका सिंहासन कभी नहीं पा सकते । इसलिये नहीं पा सकते कि यह सन्धि तुम्हें ठगने के लिये ही की गई है। सिकन्दर तम्हें अन्त में तब ठगेगा जब तुम उसका कुछ न कर सकने की स्थिति में होगे और उसके हाथ में शक्ति जा चुकी होगी।" "जिस सिकन्दरने आजतक विश्वासघातके अतिरिक्त किसीसे कोई वर्ताव किया ही नहीं क्या वह तुमसे अपना काम निकाल लेने के पश्चात् तुम्हें सम्राट Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५६ বাঙ্গাল बन जाने देने के लिये जीवित छोडेगा । यदि तुमने उससे संधि बनाये रक्खी और उसकी सहायतासे मगधका सिंहासन लेना चाहा तो स्मरण रखना कि मगधका सिंहासन तो तुम्हें उल्लू बनाकर तम्हारी शक्तिसे उसके अधिकारमें चला ही जायगा। साथ ही भारत सदाके लिये उसकी लूटका क्षेत्र बन जायगा। यदि तुम मेरे सुझावपर ध्यान नहीं दोगे तो भारत भी यूनान, ईरान तथा मिस्त्रकी भ्रॉति यवनों की आसुरी लीलाका क्षेत्र बन जायगा । तुम स्वयं इतने बड़े शक्तिशाली होकर इस नीच विदेशीकी सहायतापर क्यों निर्भर होते हो ? मगधका सिंहासन तो हम ही तुम्हें अतिसुगमतासे दिलवा देंगे। हमारी प्रेरणासे तुम्हें उस चन्द्रगुप्तकी सहा. यता भी मिल जायगी जो पश्चिमोत्तर भारतीय प्रदेशों में सिकन्दर विरोधी विद्रोहोंका सफल नेतृत्व करने के कारण सीमाप्रान्तकी एक शक्तिशाली सत्ता बन चुका है । यदि तुम हमारा कहा नहीं मानोगे और तुम सिकन्दरको लेकर मगधपर आक्रमण करोगे ही, तो हम पश्चिमोत्तर भारत की समस्त शक्तियों को साथ लेकर अपनी संपूर्ण शक्ति से तुम्हारा विरोध करायेंगे। तब हमें और चन्द्रगुप्त को अपने भारतको विदेशी आक्रमणसे बचाने के नामपर तुम्हारे साथ लोहा लेना पड़ेगा।" ___ “जिस समय तुम अज्ञानवश देशके शत्रु सिकन्दरका साथ दे रहे होगे वह समय तुम्हारे लिये शुभ सिद्ध नहीं हो सकेगा। तुम इसी राजनैतिक उलझनों में उलझा लुप्त हो जामोगे ।' चाणक्यका मन्त्र काम कर गया। पंचनद नरेश पर्वतक उनके परामर्शको मान गया। वह प्रभागा मान तो गया परन्तु सीधे मागसे या सद्भावनासे नहीं माना । वह भारत-रक्षाके नामपर न मानकर मगधका सिंहासन पाने के लोभसे मान।। यदि वह निष्क. पट देशप्रेमी होता तो संभव था कि चाणक्यको उसको भारतका भावी सम्राट् बनानेके लिये विवश होना पड जाता। क्योंकि वह स्वभावसे भारतका शक्तिशाली राजा था। अब पर्वतकको चाणक्यका परामर्श मान. ने में अपनी स्वार्थसिद्धिकी निश्चित संभावना दीखने लगी और इसलिये उसने सिकन्दरकी सहायताकी कल्पना त्यागकर संधि भंग कर डाली। Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रसंगोचित आलोचना सिकन्दरकी सहायताकी कल्पना त्यागते ही उसने अब तक जिस सिक. न्दरको अपनी रक्षा ( शरण ) में ले रक्खा था उसे हटा दिया और तब सिकन्दरको उसके देशसे बाहर निकल जाना पड़ा। इन राजनैतिक दाव. पंचोंमें सिकन्दरको जिसने भारतमें अपने मनन्त शत्रु बना लिये थे फिर अनेक झल्लाये हुए घातक शत्रुभोंके मध्यमें निराश्रित स्थितिमें चला जाना पडा । ज्योंही सिकन्दर उसके आश्रयसे विच्छिन्न हुआ त्योंही चाणक्यके पूर्वनिर्दिष्ट कार्यक्रमके अनुसार उसपर उसका विद्रोह करनेपर तुले हुए गणराज्यों की ओरसे भयंकर मार पडनी प्रारंभ हो गई । सिकन्दरको स्वयं ग्यक्तिगत रूपमें भी मल्लोसे युद्ध के समय अच्छी मार खानी पड़ी और मरनेसे बाल बाल बच पाया। शरीर घावोंसे इतना छिद गया था कि जीवित रहना माश्चर्य की बात मानी गई थी। अपनी हतोत्साह सेनाको उत्साहित करने के लिये कई बार अपने जीवनको संकट में डालना पड़ा। घटनाचक्र इस प्रकार घूमा कि चन्द्र गुप्तने पूर्व षड्यन्त्र के अनुसार पहले तो सिकन्दरकी सेनामें फूट पैदा करके उसकी सेनामें मगधपर आक्रमणके सम्बन्धमे ही विद्रोह पैदा करा डाला था। उसके पश्चात् उसपर चारों ओरसे पाक्रमण करवाने प्रारंभ कर दिये। उसने अपनी राजनैतिक प्रति. भासे सिकन्दरके लिये ऐसी विषम परिस्थिति पैदा कर डाली कि उसे विश्व सम्राट बनने का सपना तो मध्य में छोड ही देना पडा, साथ ही उसके सामने भारतसे अपनी जान चुराकर भाग निकलने का प्रश्न मुख्यरूप लेकर उपस्थित हो गया । चन्द्रगुप्त ने अपनी तथा अपने मित्रोंकी विद्रोही प्रबल सेनामोंकी नियुक्तिसे सिकन्दरका भारतसे लौटने का वह मार्ग जिससे वह भारत विजय के लिये गर्व के साथ भाया था, अगम्य बना दिया। उस मार्गके वे अधि. वासी जिन्हें पहले सिकन्दरने अपने अत्याचारोंका आखेट बनाया था उसकी जानके गाहक बन गये थे और कठोर प्रतिहिंसाका अवसर दृढ रहे थे । पर्वतकके आश्रयसे विच्छिन्न होते ही सिकन्दरकी भारतमें वह गति हो गई थी जो पराये गाँव में जा फँले निरुपाय कुत्ते की हो जाती है। Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५८ चाणक्यसूत्राणि सिकन्दरने इसी विवशतासे स्वदेश लौटनेका सीधा मार्ग त्यागकर सिन्ध और मकरानके रेगिस्तान तथा समुद्र के मार्गसे भाग निकलना चाहा । पर्वतकको विजय न कर सकने के समाचारने सिकन्दरके अत्याचारित पश्चिमोत्तर भारत में, उसके विरुद्ध विद्रोहको और भी अधिक भडका डाला था। यह विद्रोह सुसंगठित तथा शक्तिशाली बन चुका था। इसे दबाया नहीं जा सका । सिकन्दरको इसी विराट् विद्रोहको लपेटमें आकर सिंध तथा मकरानके ऊबड़ खाबड मरुस्थलोंके उस दुर्गम मार्गसे, जिसमें खाद्य तथा पेय सामग्री मिलनी कठिन हो गई थी और जिसमेंसे सेनाकी सामग्रीको ले चलना दुष्कर हो जाने के कारण पडावोंपर ही छोड देना पडता था, भागना पडा, तथा अपनी छोटी छोटी उन नौकाओंसे जो पंजाबकी नदियों के भी योग्य नहीं थी, समुद्रके उस पथसे वहांका ऋतु सावन भादोंकी वायुसे सर्वथा विपरीत हो चुका था, स्वदेश भागने के लिये विवश हो जाना पडा । इन मागोंके कारण उसकी बची खुची सेनाका भी अधिकांश नष्ट हो गया। उप्लकी सेनापर भारतमें जिस प्रकार मार और कष्ट पडे उसका कुछ माभास इस समाचारसे मिल सकता है कि उसके अवशिष्ट सेनापति तथा सैनिक आदि इतने विवर्ण हो चुके थे कि अपने देश में लौटने पर पहचाने तक नहीं जा सके । सिकन्दरसे उत्पीडित सिन्ध तथा बिलोचिस्तान मादिकी समस्त विद्रोही जातियों का नेतृत्व चाणक्य और चन्द्रगुप्त दोनों कर रहे थे । चाणक्य सिकन्दरको जानसे मरवा डालना चाहता था। इस कामके लिये वह सिन्धमें उन ब्राह्मण जातियोपर पहुंचा जो 'समानशीलव्यसनेषु सख्यम् ' के अनुसार पहलेसे ही सिकन्दरके विरोध के लिये उसके साथी बन चुके थे। चाणक्य ने उसे जीवित स्वदेश न लौटने देनेका भगीरथ प्रयत्न किया। उस समय भारतीय सेनाभोंने सिकन्दरपर पग-पगपर घातक प्रहार किये। प्रतिहिंसात्मक भाक्रमणोंसे ध्वस्त कर डाला और भारतपर माक्रमण करनेके अपराधके बदले में अत्यन्त कडवा घुट पिलाकर छोडा।। संयोगवश सिकन्दर अपने शरीरपर घातक प्रहार लेकर भी जैसे तैसे भाग तो निकला परन्तु बेबिल न जाकर मर गया। इसी कारण पाश्चात्य Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रसंगोचित आलोचना "> इतिहासकारोंने सिकन्दर के मुखसे यह अन्तिम पश्चात्ताप निकलवाया है कि " भारतवासियोंने मुझे पग-पगपर त्रास पहुँचाया, मेरी सेनायेंनष्ट की, क्रुद्ध होकर असह्य यंत्रणायें दीं और मेरे शरीरपर घातक प्रहार किये । भारतपर आक्रमण मेरे जीवनकी भयंकर भूल थी । सिकन्दरपर चन्द्रगुलकी इस असामान्य विजयने न केवल समस्त पश्चिमोत्तर भारतका किन्तु मध्य एशिया और पूर्वी परशिया तककी समस्त जातियोंका पराक्रमी नायक बना दिया था । पाठक देखें इस प्रकार चाणक्य चन्द्रगुप्त के संयुक्त राजनैतिक कौशल से अन्तमें मगध में जो विशाल साम्राज्य बनकर प्रस्तुत हुआ उसके निर्माणका प्रारंभ पश्चिमोत्तर भारतसे ही हुआ था । और वह उसकी सिकन्दर विरोधी प्रवृत्तियोंसे हुआ । वास्तव में देखा जाय तो इस साम्रा ज्यका बीज तो चाणक्यका हृदय ही था। चन्द्रगुप्त चाणक्यकी मंत्रशक्ति में सिकन्दर के आक्रमणके दिनोंमें ही पश्चिमोत्तर भारत, ईरान, अफगानिस्तान आदिका एक प्रमुख व्यक्ति बन चुका था । उसने भारतसे सिकन्दरको खडते ही अवशिष्ट यूनानी अधिकारियोंको भी नष्ट कर डाला । सिकन्दर के भारतके लौटते ही सारा पश्चिमोत्तर प्रदेश यदच्छासे चन्द्रगुप्तके अधिकार में ५५९ अा गया था । चाणक्यने सिकन्दरको तो मिटा डाला । परन्तु उसके सम्मुख भारतको संभावित विदेशी आक्रमणोंसे सुरक्षित रखने की समस्याका पूर्ण समाधान करना अब भी शेष था। क्योंकि उस समय समग्र भारतका आत्मा और भाग्य दोनों परहितनिरत चाणक्य में आकर एकीभूत हो गये थे इसलिये वह दिनरात भारतकी सुरक्षाकी चिन्तामें डूबा रहता था । भारतकी राजनैतिक परिस्थिति चाणक्य से निरन्तर यह कह रही थी कि जबतक मगधके सिंहासनपर चन्द्रगुप्त जैसे चरित्रवान् वीर व्यक्तिको अभिषिक्त नहीं कर दिया जायगा तबतक भारतको एक शक्तिशाली साम्राज्य या एक विराट् राष्ट्रपरिवारका रूप देने की तुम्हारी कल्पना अधूरी ही पड़ी रह जायगी । जब चाणक्य चन्द्रगुप्तको ईरानमें सिकन्दरकी भारताभिमुख गति रोकने के लिये अश्वक सेनाओं के अधिपति के रूप में भेजा था उसी समय उसने स्वयं Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६० चाणक्यसूत्राणि पैदल मगध जाकर मगधेशके मंत्री सुबुद्धिशर्मा से जिसका उपनाम अमात्य राक्षस था, भारत के इस महान् संकटमें सहयोग माँगा था । सुबुद्धिशर्मा शत्रु संहार में भीषण पराक्रमी होनेके कारण अमात्य राक्षस उपनाम से प्रसिद्ध था, संस्कृत भाषा के माध्यम से शिक्षा देनेवाले तक्षशिला के विश्वविद्यालयका चाणक्यका समकालीन विद्यार्थी था । देशप्रेमी होने के नाते दोनोंको विद्यार्थी जीवन में ही बन्धुत्व हो गया था । चाणक्यने अमात्य राक्षसको इस भाँति समझाना चाहा था कि इस समय पश्चिमोत्तर भारतकी रक्षा मगधकी ही आत्मरक्षा है । यदि इस समय मगधका सिंहासन मगध के कल्याणको समग्र भारतके कल्याणसे अलग मानकर उदाप्लीन रह गया तो यह उसका राजनैतिक प्रमाद और मरण होगा । इसलिये होगा कि सिकन्दर भारतके असंगठित गणराज्योंके पारस्परिक विरोधोंकी निर्बलतासे लाभ उठाने के लिये सबसे पहले मगधको ही अपनी लूटका क्षेत्र बनायेगा । अमात्य राक्षस ! तुम समझ रखना, यदि तुमने मेरा सुझाव न माना तो तुम्हारा यह नन्दराज्य जिसकी रक्षाकी संकीर्ण दृष्टिसे आज तुम्हें भारत रक्षा नामवाली बृहत्तम दृष्टिसे वंचित कर रही है, स्वयं भी लुप्त हो जायगा और भारत के भी विध्वस्त होनेका कारण बन जायगा । अमात्य राक्षस राजा नन्दका केवल मंत्री ही नहीं था उसका प्रगाढ स्नेही भी था । उसका स्नेह कर्तव्य पालनकी सीमा लाँघ कर मोदका रूप ले चुका था । इस कारण वह नन्दकी देशद्रोहीकी निष्क्रियता के विरुद्ध चाणक्य के प्रस्तावको न मान सका । इसलिये न मान सका कि राजा नन्द ( मुद्राराक्षस ३-१८) चाणक्यके शब्दों में विलासी तथा अत्याचारी राजा था। इसी कारण वह प्रजाकी घृणाका पात्र बन चुका था । अमात्य राक्षस उसे उसके दुर्गुण त्यागने के लिये विवश नहीं कर सका जो प्रधानमंत्री होने के नाते उसका अत्यावश्यक कर्तव्य था । जब वह उसके समझानेसे नहीं माना था तो उसे उससे असहयोग करने का दबाव डालकर उसको सुधारना चाहिये था । Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रसंगोचित आलोचना ५६१ नन्देर्विमुक्तमनपेक्षितराजवृत्तैरध्यासितं च वृषलेन वृषेण राज्ञाम् । सिंहासनं सदृशपार्थिव सत्कृतं च प्रीतिं त्रयस्त्रिगुणयन्ति गुणा ममैते ॥ ( मुद्राराक्षस ३ -१८ ) मगधका सिंहासन राजचरित्र से पतित हो जानेवाले नन्दोंसे छुड़ा लिया गया, उनके स्थान में राजर्षभ चन्द्रगुप्त मौर्य अभिषिक्त कर दिये गये । अर्थात् उस रिक्त राजसिंहासन पर धीरोदात्तत्व आदि महाराज गुणोंसे युक्त चन्द्रगुप्तको बैठा दिया गया। मेरे ये नन्दोद्धरण चन्द्रगुप्ता-भिषेचन तथा योग्य व्यक्तिको राजसिंहासन पर भारूढ कर देनेवाले तीन गुण मेरे हर्षको तिगुना बना रहे हैं। मैंने अपने मनमें भारतको एक साम्राज्यका रूप देने, चन्द्रगुप्तको भारत सम्राट् बनाने, तथा नन्दको उखाड फेंकनेका जो संकल्प किया था, वह मेरे बुद्धिकौशल्यसे आज पूरा हो गया । यही मेरे आनन्दातिशयका कारण है । तात्पर्य यह है कि अमात्य राक्षसने बुद्धिमान होते हुए भी अपने आपको कुछ ऐसी परिस्थितियों में फँसा रक्खा था कि उसे चाणक्यका महत्वपूर्ण प्रस्ताव विवशता के साथ अस्वीकार कर देना पडा । चाणक्यके पास तो अखिल भारतीय दृष्टि श्री । वह तो भारतकी समस्त परिस्थिति को समझकर उसे एक शक्तिशाली साम्राज्य बना देने में विघ्न बननेवाले या सहायक बननेको प्रस्तुत न होनेवाले प्रत्येकको देशद्रोही मानता था और उसे मिटा डालने पर तुला बैठा था । भारतके प्रति उसकी राष्ट्रीय कर्तव्यबुद्धिने उसे ऐसा करनेके लिये विवश किया था। सिकन्दरके विनष्ट हो चुकने के पश्चात् पंचनद नरेश पर्वतकने जिसे गुरुराज भी कहा जाता था, मगधका सिंहासन लेनेका संकल्प किया जिसके लिये उसे चाणक्य की ओरसे अाश्वासन मिल चुका था। यह स्थिति चाणक्यकी भारतीय साम्राज्य कल्पना तथा सम्राट् कल्पना में बाधा डालनेवाली थी । समग्र भारतकी ओरसे सोचनेवाले चाणक्य के राष्ट्रचिन्तक न्यायालय में पर्वतक देशद्रोही के रूप में ३६ ( चाणक्य . ) Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि कलंकित था । इसलिये उसने चाणक्यको अपने ऊपर विनाशक प्रहार करने के लिये विवश कर डाला । भारतका प्रत्येक देशद्रोही चाणक्यका विनाश्य शत्रु था। जब पर्वत ने सिकन्दरसे संधि कर ली थी या करनी चाही थी. तबसे ही पर्वतक चाणक्य के मनसे उतर चुका था। इसीसे उसने उसके शक्तिशाली होते हुए भी उसे अपनी किसी भी महत्त्वपूर्ण राष्ट्रीय योजनामें सम्मिलित नहीं किया था। उसके मन में उसके प्रति अविश्वास पैदा हो चुका था। यह भारतके भाग्य की बागडोर किसी भी भवस्था में उसके हाथों में जाने देने में भारतका कल्याण नहीं देख रहा था। साथ ही वह यह भी समझ रहा था कि पर्वतकके साथ चन्दालकी प्रतिद्वन्द्विताके भको उठ जाने देना भयंकर राजनैतिक भूल होगी। इस भूलको कार्यान्वित होने देने से देशके भीतर संग्राम छिड़ जायगा । इसीलिये उसने सिकन्दरको परास्त तथा विध्वस्त करने के प्रयत्नों के साथ ही साथ पर्वतकको मगध सिंहासनका मिथ्या लोभ देकर उसे अपने अखिल भारतीय उद्देश्यकी सिद्धि का बहायक बननेके लिये ठगा। परिस्थिति गूंगी नहीं होती । वह सूझ बूझ वालोंको स्वयं ही सब कुछ बताने लगती हैं। सिकन्दरको पराजित करने में चन्द्रगुप्त ने जो महत्वपूर्ण भाग लिया था और पश्चिमोत्तर भारत के विद्रोही गणराज्योंका नेतृत्व करके सफलताको अपनी मुट्ठीमें बन्द कर लिया था, उसके कारण भारतीय राज. नैतिक गगनमें चन्द्रगुप्त का प्रभाव अपने आप दिन रात बढता जा रहा था। पर्वतक चन्द्रगुप्त के इस महत्वको देखकर अपने मगधाधिप बनने के उद्देश्य के प्रति मन ही मन शंकित होने लगा था। इधर तो चाणक्यको पर्वतकमें अविश्वास था और उधर पर्वतकके मनमें चन्द्रगुप्त के शौर्य-वीर्य-रणकौशल तथा सिकन्दरको मिटा डालनेके महान् यशके कारण उसे पश्चिमोत्तर भार. तीय गणराज्यों में मिली प्रतिष्ठाके संबन्धमें भयंकर ईा हो चुकी थी। चन्द्रगुप्त तथा पर्वतकके मनों में एक मान्यन्तरिक संघर्ष जिसे भाजकी भाषामें Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रसंगोचित आलोचना शीत युद्ध कहा जाने लगा है चल रहा था। परन्तु चाणक्यकी असाधारण प्रभावशालिता तथा सूक्ष्म नीतिकुशलता के कारण इन दोनों विरोधियोंकी सम्मिलित शक्ति मगधके देशद्रोही राजा नन्द के विरुद्व युद्ध में उपयुक्त होनेके लिये प्रस्तुत हो गई । '५६३ चन्द्रगुप्तको सुदूर पश्चिमोत्तर भारत से आकर मगध विजय पानी थी । परन्तु पर्वतकका राज्य मगध तथा पश्चिमोत्तर भारतके मध्य में पडता था । उस समय दो महत्वपूर्ण राष्ट्रीय प्रश्न उपस्थित हुए या तो देशद्रोहीको मिथ्या आश्वासन देकर उससे सहायता लेनेके लिये उसे ठसा जाय या उसका दमन किया जाय। इसके बिना यह मध्यका मार्ग पार करना असंभव था । अन्तमें उसे मगधविजय सायक बननेके लिये मगसिंहा. सन देनेका मिथ्या आश्वासन देकर धोका देकर ठगना ही राष्ट्रीय कर्तव्य के अनुकूल स्वीकार करना पडा । तदनुसार अब मगध-विजय के लिये सम्मिलित समस्यात्रा प्रारंभ हुई । उस समर-यात्रामें सम्राट् बनने के पर्वतक तथा चाणक्यानुमोदिन चन्द्रगुप्त दो परस्पर विरोधी प्रतीक्षक सम्मिलित थे । इसलिये चाणक्यको मगधराजसे युद्ध उनसे भी पहले मगध विजय कर चुकने पर अनिवार्य रूप से उपस्थित होनेवाली राज्याधिकार के लिये कलहायमान स्थितिकी चिन्ताने आ घेरा । यह स्थल चाणक्यकी राजनैतिक प्रतिभाकी परीक्षाका कठिन अवसर था । - चाणक्य देख रहा था कि मगध के युद्ध में विजय पाते ही पर्वतक तुरन्त मगधका वह सिंहासन लेना चाहेगा जिसको उसे देने का आश्वासन दिया तो गया है, परन्तु वह देशद्रोही होनेके कारण किसी भी रूप में उसका अधिकारी नहीं है । चाणक्यने निर्णय कर डाला कि यद्यपि हमने उससे मगध-सिंहासन देने की प्रतिज्ञा कर ली है परन्तु राष्ट्रीय कर्तव्यबुद्धि के अनुसार हमें वह उसे किसी भी स्थिति में नहीं देना है । यह स्थिति ऐसी जटिल थी कि युद्ध समाप्त होते ही राजसिंहासनपर अधिकार सम्बन्धर्मे Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६४ चाणक्यसूत्राणि दूसरा युद्ध मा खडा होता। इस आसन युद्धको क्रियात्मक रूप लेने देने में भारतका निश्चित अकल्याण होता । तब भारतकी सखण्ड साम्राज्य की कल्पना खटाई में पड जाती। इन सब दृष्टियोंसे मार्य चाणक्यने अपनी कूटनीतिसे ऐसी सष्टि रचकर प्रस्तुत की कि मगध सिंहासन के लिये युद्ध यात्रा होनेपर भी युद्ध न होने पाये और मगध पिना ही युद्ध के विजित हो जाय। इस कामके लिये उसने इधर तो नन्द सेनामें नन्दके प्रति विद्रोह तथा चन्द्रगुप्तके प्रति अनुराग पैदा कराया, मगधका सिंहासन चन्द्रगुप्त के लिये निष्कंटक कर दिया और उधर नन्दकी गुप्त हत्या करा डाली । परिस्थितिने ऐसी अनुकूल करवट बदली कि मगधकी राजधानी पाटलीपुत्रमें चन्द्रगुप्तके पहुंचने पर युद्ध के स्थानमें चन्द्रगुप्तका शत्रुपक्षकी भोरसे पुप्प. मालाओं से स्वागत हुआ। चाणक्य के कूटनैतिक प्रयोगोंने पुरुराजके मगध राज्याभिलाषी मनको राज्य मांगनेका साहस न करने देनेका स्वाभाविक वातावरण बनानेके लिये मगधकी सेना तथा राज्यके प्रधान पुरुषों के हार्थोसे चन्द्रगुप्तका राजतिलक कराकर उसे सिंहासन समर्पण करनेका अभिनय करा दिया। चन्द्रगुप्तको पाटलीपुत्रकी प्रजाकी सम्मतिसे सिंहासनारूढ होता देखकर पर्वतक मन ही मन भौंचक्का रह गया। वह चन्द्रगुप्त के भारतव्यापी प्रभाव तथा मगध सिंहासन लाभकी इस अकल्पित घटनाको देखकर उसका प्रत्यक्ष विरोध करने का साहस नहीं कर सका । इस प्रकार चाणक्यकी कूटनीति ने राज्यलाभोत्तरकालीन विग्रहको टाल तो दिया परन्तु पर्वतकको ईर्ष्या उस समय कुछ न कर सकने पर भी प्रतिहिंसाका रूप धारण कर गई। इस लिये उसने सिकन्दरके भूतपूर्व सेनापति, इस समयके सीरियाके राजा सेल्यूकसके पास, जिसके मनकी भारत को लूटने की महत्वाकांक्षा निर्मूल नहीं हुई थी, दूतके द्वारा भारत पर आक्रमण करनेका निमंत्रण भेज दिया। पर्वतकका यह देशद्रोही काम चाणक्य जैसे सतर्क बुद्धिमानसे गुप्त नहीं रह Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यका मंत्रित्व त्याग ५६५ सका। चाणक्यने उसके इस देशद्रोही कामका तत्काल प्राणान्त दण्ड देना उचित माना। इसलिये माना कि चन्द्रगुप्त में वीरता तथा संगठन-शक्ति अत्यधिक होनेपर भी पर्वतक उन दिनों उससे कहीं अधिक शक्तिशाली राजा माना जाता था। उसके रहने तक चन्द्रगुप्तका सम्राटपन सुरक्षित नहीं समझा गया। इसलिये उसने अपने सुचिन्तित राजनैतिक षड्यन्त्रको कार्य रूपमें परिणत करके नन्दके समान पर्वतककी भी गुप्त हत्या करा हाली। इस प्रकार चाणक्यने चन्द्रगुप्तको मगध सिंहासन पर निष्कंटक बनाने का प्रथम सोपान पूरा कर डाला। __ ज्यों ही पर्वतकका दूत सेल्यूकसके पास पहुंचा त्यों हो वह भारत पर आक्रमणके लिये चल तो पडापरन्तु भारतमें आते ही उसे पता चला कि उसे निमंत्रण देकर बुलानेवाले पर्वतककी सहायता सुपना बन चुकी है। इस अवसरपर भी भारतका विख्यात देशद्रोही तक्षशिला नरेश भीक सेल्यूकसकी सहायताक लिये आगे बढा । इस समाचारको पात ही बगुल विशाल सेना लेकर मिन्धके तट पर जा पहुँचा और सेल्यूकस तथा हम्भिकको संयुक्त सेनापर ऐसे धाक श्रामण किये कि अम्मा का तो नाम और चिन्हतक शेष नहीं रहा तथा सेल्यूकसको प्राण बचाने के लिये चन्द्रगुप्त से भारत पर फिर कभी आक्रमण न करने की प्रतिज्ञाके साथ अपने भव्य एशियाके विजित क्षेत्रोंको भागमण रूपी अपराधके दण्ड स्वरूप चन्द्रगुप्तको सौंपकर संधि मांगनी पडी और उल्टे पैरों स्वदेश लौट जाना पडा । यों चाणक्य के भारतको एक विशाल साम्राज्य बनानेवाले कार्यक्रमका दूसरा काँटा भी निकाल दिया गया। चाणक्यका मंत्रित्व त्याग अब चाणक्य के मनमें पाटलीपुत्रके सिंहासनपर चन्द्रगुप्त जैसे सुदूरवा. सीकी लोकप्रियताको सुदृढ़ करनेका केवल एक प्रश्न शेष रह गया | चाणक्य समझ रहे थे कि मगधके लोकप्रिय मंत्री अमात्य राक्षसके मनमें स्वाभाविक रूपसे नन्दवंश के उच्छदका पश्चाताप काम कर रहा है । अमात्य राक्षसको Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६६ चाणक्यसूत्राणि संकीर्ण दृष्टि में उसके इस पश्चात्तापका कारण चाणक्य तथा चन्द्रगुप्त थे । चाणक्यको तो अमात्य राक्षसकी भारत साम्राज्य के महामंत्री बननेकी योग्य. ताके संबन्धमें पूरा संतोष था। परन्तु प्रान्तीयताको संकीर्ण दृष्टि रखनेवाले अमात्य राक्षस तथा मगधकी कुछ प्रजाके मनमें उत्तरपश्चिम भारत से पाये चाणक्य तथा चन्द्रगुप्तका मगध सिंहासन पर हस्तक्षेप मप्रीतिकर होने की पूरी संभावना थी । अमात्यपक्षमें इतनी उदारता तथा समग्र भारतीय रष्टिकोण नहीं था। उनके लिये प्रान्तीय भावना त्यागकर अखिल भारतीय भावनाको अपनाना एक अपरिचित नवीन समस्या थी। परन्तु चाणक्यकी उदार प्रतिभा तथा उसकी आत्मबलिदानी मनोवृत्ति ने इस समस्याको भी निर्मूल करनेका एक उपाय सोच निकाला। ___ उसने मुद्राराक्षसके शब्दों में इसका एकमात्र सरल सुगम उपाय अमात्य राक्षसको ही चन्द्रगुप्त के महामंत्रित्वका भार सौंपना पाया। उसने अपने कूट प्रयोगोंसे अमात्य राक्षसके हृदय पर अपनी उदारताकी इतनी गहरी छाप लगाई और उसे चन्द्रगुप्त का मंत्रित्व भार संभालने के लिये इस दंगसे विवश किया कि उसके पास चन्द्रगुप्तका मंत्रिपद संभालनेके अतिरिक्त कोई भी मार्ग शेष नहीं रहा । चाणक्य के इस संबन्धी कूटप्रयोगों का मुद्राराक्षसमें सुविस्तृत उल्लेख है। चाणक्य के प्रयत्नोंसे अन्तमें इन दोनों शत्रुपक्षोंका मित्रत्वमें मिलन हो गया। जो समात्य राक्षस चन्द्रगुप्त का प्रबल वैरी था उसे उसके गुणोंपर मोहित होकर युवावस्थामें उसकी इतनी राजनैतिक उन्नति देखकर विवश होकर कहना पडा वाल एव हि लोकेन संभावितमहोन्नतिः । क्रमेणारूढवान् राज्यं यूथैश्वर्यमिव द्विपः ॥ (मुद्राराक्षस १३) बालकपनमें ही राजलक्षणों से युक्त होने के कारण जिस चन्द्रगुप्त के विषय में महोन्नत होनेकी संभावना बन चुकी थी, वह अब क्रमसे उन्नत होता हुभा यथैश्वर्य पा जानेवाले गजराजके समान राज्य पा गया सो ठीक ही है। अमात्य राक्षसने चाणक्यको चन्द्रगुप्त जैसे प्रतिभाशाली सम्राट शिष्यका Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यका मंत्रित्व त्याग पक्ष लेने के कारण सराहना की- सर्वथा स्थाने यशस्वी चाणक्यः । कुतः ? चाणक्यको मिलना सर्वथा ठीक हुमा है । क्योंकि द्रव्यं जिगीषुमधिगम्य जडात्मनोऽपि नेतुर्यशस्विनि पदे नियतं प्रतिष्ठा । अद्रव्यमेत्य तु विविक्तनयोऽपि मंत्री शीर्णश्रियः पतति कूलजवृक्षवृत्या ।। (मुद्राराक्षस १४) विजिगीषु कल्याण प्राप्तिके योग्य जयोद्योगी राजाको पाकर तो मन्दबुद्धि मन्त्री भी अवश्य प्रतिष्ठा पा जाता है। उदार बुद्धि अमात्य के प्रतिष्ठा पा जानेकी तो बात ही क्या ? परन्तु अयोग्य प्रभुका आश्रय कर लिया जानेपर तो विशुद्ध नीतिवाला मंत्री भी नदी के पतनोद्यत किनारे खडे हुए वृक्षकी भांति ( मेरे समान ) निराश्रय होकर गिर पडता है। चन्द्रगप्त तथा अमात्य राक्षसके मिलन का यह प्रभाव हा कि संकीर्ण प्रान्तीयता अखिल भारतीयताके रूप में परिणत हो गई । इस मिलनके परिणामस्वरूप प्रान्तीय भावना समाप्त हो गई और देश में अखिल भारतीयताका बीज वपन हो गया। समात्य राक्षसके मन्त्रित्वभार संभालते ही सारा मगध प्रान्तीयताका पश्चात्ताप भूल कर चन्द्रगुप्तका अनुरक्त हो गया। मगधमें अमात्य राक्षसकी लोकप्रियता चन्द्रगप्तका पक्का साथी बन गई। चाणक्यकी अन्तर्दृष्टिने भारत के स्वातन्त्र्य यज्ञमें अपने मंत्री बने रहने के न्याय्य लोभकी आहुति देकर भारतसे प्रान्तीयता मिटा डाली और उसके स्थानमें अखिल भारतीयताको जन्म दे दिया। उसने अपने इस मन्तिम राजनैतिक कर्तव्यको भी हर्ष तथा उत्साह से पूरा करके न केवल चन्द्रगुप्तकी लोकप्रियतामें चार चाँद लगा दिये, किन्तु भारतको एक विशाल राष्ट्र के रूपमें परिणत करने के अपने उद्देश्य की ब्राह्मणोचित निष्कामताके संबंध अमात्य राक्षसको नि:सन्दिग्ध भी कर डाला | इन दोनोंका मिलन चाणक्य के राजनैतिक जीवनको अन्तिम कृष्य था। अमात्य राक्षसने चाणक्यके राजनैतिक निष्काम महान् उद्देश्यसे गद्गद होकर चन्द्रगुप्त का मन्त्रिस्व ग्रहण किया और भारतसे प्रान्तीयताका रोग मिटा डाला। Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६८ चाणक्यसूत्राणि पाठक देखें इतने बडे राष्ट्रकी कल्पना तथा निर्माण दोनोंके सर्वेसर्वा बने हुए आर्य चाणक्यने अपनी इस महती राष्ट्रसेवाके बदले में राष्ट्रसे एक कौडी तक नहीं चाही। किसी कोठी (बैंक ) में कोई व्यक्तिगत धन संगृ. हीत नही किया । कोई प्रासाद ( कोठी बंगला ) नहीं बनवाया। पैन्शन नहीं बंधवाई और अन्त में तो रायके कल्पक निर्माता तथा विधाता होने के कारण अपने मंत्री बने रहने के वैध अधिकार को भी समात्य राक्षसको सौंपकर दैनिक राजकाजोंसे अपना संबन्ध तोह लिया। तपोवनं यामि विहाय मोर्य त्वां चाधिकारयधिकृत्य मुख्यम् । त्वयि स्थिते वाक्पतिवत्सुबुद्धौ भुनक्तु गामिन्द्र इवैष चन्द्रः ।। ( मुद्राराक्षस ) अब मैं मोर्यको तो सम्राट बलाकर तथा तुझे मुख्यमंत्रित्वज्ञा भार सौंपकर अपनी ब्राह्मो तपस्या के लिये तपोवन जा रहा हूँ। मेरा आशीर्वाद है कि सम्राट चन्द्रगुप्त वृहस्पति के समान तुम जैसे कुशल मंत्री के रहते हुए इन्द्र के समान वृधिनीका पालन करें । इसके पश्चात् चाणक्यने अपने आकिंचन ब्राह्मण जीवन ही सौभाग्य मानकर जीवन भर राष्ट्र सेवाको दृष्टि से केवल चन्द्रगुप्त तथा उसके साम्रा. ज्यका ही नहीं संसारभर के राजनीति के भावी विद्यार्थियों का भी पथप्रदर्शन करने के लिये राजनीति पर 'न भूतो न भविष्यति 'जपा शास्त्र बनाने में अपनी वह प्रबल मानसिक शक्ति लगा डाली, जिससे सिकन्दरको पराभूत करापा, गणराज्यों को एक महा साम्राज्यका रूप देकर उसे एक आदर्श राष्ट्र बनाकर दिखाया और आदर्श राज चरित्रका निर्माण किया। चाणक्य. का अर्थशास्त्र मगधविजय के शीघ्र ही पश्चात् लिखा गया और ये चाणक्य सूत्र भी उन्हीं दिनों लिखे गये । आर्य चाणक्यका इतिवृत्त चाणक्य तथा कौटल्य इन दो उपनामोसे अत्यधिक विख्यात इस विद्वा. नका जन्मनाम विष्णुगुप्त है । ये इन्द्रियविजयी मेधावी विद्वान् प्रभाव. Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आर्य चाणक्यका इतिवृत्त शाली अप्रतिग्राही ब्राह्मण थे । ये महानुभाव चन्द्रगुप्तको भारतका सम्राट बनानेतक उसके प्रधान अमात्य रहे । उसके पश्चात् यह पद भूतपूर्व मगध देशके मंत्री अमात्य राक्षसको सौंप दिया और स्वयं सम्राज्य के शासन के निर्देशक बनकर रहते रहे । इन्होंने अर्थशास्त्र के अन्तमें अपना जन्मनाम विष्णुगुप्त उद्घोषित किया है। दृष्टा विप्रतिपत्तिं बहुधा शास्त्रेषु भाष्यकाराणाम् । स्वयमेव विष्णुगुप्तश्चकार सूत्रं च भाष्यं च ॥ जब एक ग्रन्थपर भनेक भाष्यकार भाष्य करते हैं तब कोई कुछ कहता है और कोई कुछ । इस प्रकार ग्रन्थकारका मुख्य तात्पर्य भाष्यकारों की लेखिनीमें सुरक्षित नहीं रह पाता यह देखकर विष्णुगानने अपने सूत्रों को भाष्यकारोंकी कृपापर न छोड़कर अपने साए ही उनका भाष्य भी किया। कौटल्यश्चणकात्मजः-इस हेमचन्द्र कोशमें उन्हें चणकात्मज बताया है। उसके अनुसार ये चमके पुत्र ( वंशज होनेसे चाणक्यनाम से प्रषिद्ध हुए। कौटल्येन नरेन्द्रार्थ शासनस्य विधिः कतः। कौटल्य ने सम्राट चन्द्रगुप्त के लिये अर्थशास्त्र के रूप में शासन विधान बनाया । उन्होंने इस स्वरचित ग्रन्थ में अपने कोटलग नाम का भी जा रहा सगौरव उल्लेख किया है। कूटो घटः तं धान्यपूर्ण लान्ति संगृह्णन्ति इति कुटलाः कुम्भीधान्याः त्यागपरा ब्राह्मणश्रेष्ठाः। तेषां गोत्रापत्यं कौटल्यो विष्णुगुप्तो नाम । कूट घटका नाम है। जो लोग एक घटसे अधिक भन्न संग्रह नहीं करते थे उन कुम्भीधान्य नामक नत्यन्त त्यागी श्रेष्ठ ब्राह्मणों का गोत्रापत्य कौटल्य कहाता है । कोटल्यका मुख्य नाम विष्णुगप्त है ___ आर्य चाणक्य अपने को कुलीनता तथा त्यागवृत्ति के सूचक चाणक्य तथा कौटल्य इन दोनों उपनामोंसे अभिहित करने में गौरव अनुभव करते थे । Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि ये अपने अनुवंशिक निःस्पृह ब्राह्मणत्व तथा अपनी सुतीक्ष्ण प्रतिभाका सात्विक अहंकार रखते थे । इन महानुभावको विगत सैकडों वर्षोंतक कौटिल्य इस भ्रममूलक अशुद्ध सदोष नामसे स्मरण किया जाता रहा है । इतिहास संशोधक लोगोंका कहना है कि यह अशुद्ध नामकरण ब्राह्मण धर्म श्रद्धालु बौद्ध तथा जैन लेखकोंकी कल्पना है । वे इसका कारण यह बताते हैं कि ये महाशय ब्राह्मणधर्मके प्रवर्तक वर्णाश्रमधर्मके प्रति निष्ठा रखनेवाले तथा वैदिकधर्मकी शाश्वतपरम्परा के अनुयायी और पोषक थे, इस लिये तो बौद्ध सेवकोंने चाणक्य तथा चन्द्रगुप्त दोनोंके युगप्रवर्तक होनेपर भी इन्हें कोई महत्व नहीं दिया । तथा इनके पौत्रको बौद्धधर्म में दीक्षित हो जाने से ब्राह्मणधर्मी लेखकोंने भी इन्हें कोई महत्व नहीं दिया । जैन, बौद्ध लोगोंने ब्राह्मणधर्मके प्रवर्तक चाणक्यसे रुष्ट होकर इनके कौटल्य नामको बिगाडकर कुटिलता रूपी निन्दाको सूचक कौटिल्य नाम लिखा जो सैकडों वर्षों प्रचलित रहा । अबके इतिहास संशोधकोंकी कृपासे अब निन्दासूचक कौटिल्य नाम हटा दिया गया है और कौटल्य यह शुद्ध नाम स्थापित किया जा चुका है । ५७० कुछका विचार है कि कौटिल्य नाम कौटल्य नामका प्रामादिक संशोधन या संस्करण है । ऐतिहासिकों की खोज के अनुसार ये महानुभाव पश्चिमो उत्तर भारत में तक्षशिला के निवासी अप्रतिग्राही ब्राह्मण थे । हमारी दृष्टि में तो ये कहीं भी निवासी रहे हों इनके जन्मस्थानका कोई महत्व नहीं है । इन्हें जो ख्याति मिली है वह न तो भारतके किसी विशेष भूभागके निवासी होनेसे मिली है और न किसी वंशके वंशज होने से मिली है । ये महानुभाव तो अनन्य साधारण प्रतिभासे जगद्विख्यात हुए हैं। क्योंकि चाणक्य अखिल भारतीयता के अनन्य उपासक थे इस दृष्टिसे भारत माताका शस्यश्यामळ सुजल सुफल सम्पन्न वक्षःस्थल ही उनका जन्मस्थान था और समग्र भारतके निवासी उनके भ्राता भगिनी थे। वे जीवन भर भारतवासियोंकी चिन्तामें अपना जीवन उत्सर्ग करके गये हैं । न केवल Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आर्य चाणक्यका इतिवृत्त भारतको प्रत्युत समग्र संसारको राजनीतिका अनन्यसुलभ पाठ सिखानेवाले चाणक्यके चरित्रका संपूर्ण चित्रण करनेके लिये तो उन्हों यों कहना उपयुक्त होगा कि यह समग्र वसुन्धरा ही उनकी जन्मभूमि थी तथा मानवमात्र उनके सहोदर सहोदरा थे और मनुष्यता ही उनका आराध्य भगवान् था । स पुमानर्थवजन्मा यस्य नाम्नि पुरः स्थिते । नान्यामंगुलिमन्येति संख्यायामुद्यतांगुलिः ॥ ५७१ सार्थक जन्म उसी मनुष्यका माना जाता है कि गुणियोंकी गणना प्रारंभ हो जाने पर गिननेवाली अंगुलि उसीके लिये उठकर रद्द जाय और उसके साथ दूसरा कोई गिना ही न जा सके । जैसा वास्तव में चाणक्य अपने जैसे अपने आप ही थे | संसारने उन दूसरा कोई व्यक्ति आजतक पैदा नहीं किया यह कहना अत्युक्ति नहीं है । उन्होंने अर्थशास्त्र के नाम से जो कुछ लिखा है वह कर चुकनेके पश्चात् लिखा है । उनके लेख अननुभूत तथा अव्यवहारिक नहीं हैं । यही उनकी लेखनीकी विशेषता या अनन्यसाधारणता है। उन जैसे कर्मठ लेखक संसार में कितने हैं ? सर्वशास्त्राण्यनुक्रम्य प्रयोगमुपलभ्य च । कौटल्येन नरेन्द्रार्थे शासनस्य विधिः कृतः ॥ कौटल्यने बाईस्पत्य आदि समस्त अर्थशास्त्रोंको समझकर तथा उनके व्यवहारिक प्रयोगोंको करके देखकर उन भाचार्योंके मतों में अपना अनुभव मिलाकर शासनको सुदृढ बनाने तथा उसका विधिपूर्वक संचालन करानेके अभिप्राय से चन्द्रगुप्त के लिये शास्त्रको रचना की । जैसे गीता अर्जुन के लिये कही जानेपर भी परम्परासे सबसे कही गई हैं, इसी प्रकार अर्थशास्त्र चन्द्रगुप्त के लिये रचा जानेपर भी संसारभरकी राज्यव्यवस्थाओंका मार्गदर्शक है । जब यह सिद्ध किया जा चुका कि चन्द्रगुप्त मगधका निवासी तथा नन्दवंशका नहीं था तब चाणक्यको चन्द्रगुप्त तथा नन्दोंके कौटुम्बिक Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७२ चाणक्यसूत्राणि विवादमें लिप्त बताना भी निराधार होजाता है । इस कल्पनाने चाणक्य की भारतीय साम्राज्य बनाकर खडा कर देनेवाली राजनैतिक प्रतिभाका अप. मान किया है और उसे एक प्रतिहिंसापरायण व्यक्तिका रूप दे डाला है जो चाणक्यके महान् व्यक्तित्वका भारी अपमान है । पाठक देखे 'नन्दैर्वि मुक्तमनपेक्षितराजवृत्ते ।' इस मुद्राराक्षसने भी नन्दोंके उन्मूलनका कारण उनका राजोचित कर्तव्योंसे विमुख होना बताया है। श्राद्ध भोजन के समय नन्दवंश में चाणक्य के अपमानको भी कहीं कहीं नन्दवंशोच्छेदका कारण बताया गया है। यह कल्पना भी कामन्दकके निम्न चाणक्यवृत्तके साधारसे खंडित रह जाती है-- वंशे विशालवंश्यानामृपीणामिव भूयसां । अप्रतिग्राहकाणां यो बभूव भुवि विश्रुतः ।। जब कि चाणक्य दान लेते ही नहीं थे तब वे किसीके घर श्राद्ध खाने जायें यह एक असंगत कल्पना है। जिसके मस्तिष्कमें इतने बड़े साम्राज्यकी सारी सामग्री भरी हुई थी और इतना बड़ा कार्यभार जिसकी प्रत्येक समय प्रतीक्षा कर रहा था, वह लोगों के घर श्राद्ध खाता फिरे यह कल्पना ही असंगत है। जिन दिनों संसारमें कहीं भी मनुष्यताका उन्मष नहीं हो पाया था । जिन दिनों पाश्चात्य जगम्में राक्षसी प्रवृत्ति उन्मेषोन्मुख होकर मनुष्यता पर पाशविकताके प्रहार कर रही थी और भारतीय मनुष्यता भी लक्ष्यभ्रष्ट होकर पाश्चात्य आनरिकताका आह्वान कर रही थी, वह एक महान् अन्त. राष्टीय संकट था। उस समयके भारतका यह कितना बड़ा सौभाग्य था कि उस महान् जगदम्यापी संकट के समय उसे चाणक्यकी सेवायें प्राप्त हो गई थीं । चाणक्यने अपने ज्ञाननेवसे अपनी माराध्यदेवी सत्यस्वरूप मनु. प्यताको या मनुष्यताके नामपर करनेवाली शक्तियों को भारतमाताके वक्षः स्थलसे नष्ट न होने देनेवाले रामबाण उपायोंकी उद्भावना की थी। चाणक्य अपनी बुद्धि की अभ्रान्तता, सार्थकता तथा उसकी विश्वविजयी Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आर्य चाणक्यका इतिवृत्त शक्तियों पर इतना सुहढ विश्वास रखते थे कि संसारभरके इतिहास में किसी साधनहीन मनुष्यका इस प्रकार के आत्मविश्वासका उदाहरण मिलना दुर्लभ है। बुद्धिरेव जयत्यका पुंसः सर्वार्थसाधनी । यद्वलादेव किं किं न चक्रे चाणक्यभूसुरः ॥ कौटलीय अर्थशास्त्र ) वर्धिष्णु लोग जाने कि बुद्धि ही मनुष्य के सकल वांछितको पूर्ण करनेवाली सर्वोत्तम वस्तु है । जिसके बलसे चाणक्य भूदेवने क्या क्या नहीं कर दिखाया । ५७३ " ये याताः किमपि प्रधार्य हृदये पूर्व गता एव ते ये तिष्ठन्ति भवन्तु तेऽपि गमने कामं प्रकामोद्यमाः । एका केवलार्थसाधनविधां सेनाशतेभ्योऽधिका नन्दोन्मूलनदृष्टवीर्यमहिमा बुद्धिस्तु मा गान्मम ॥ ( मुद्राराक्षस ! " जो कुछ सोचकर पहले ही चले गये वे तो गये ही, जो यहां अब हैं वे भी चाहें तो जाने की ठाने । समस्त कार्याको सिद्ध करनेवाली मेरी केवल वह बुद्धि, जो समस्त कार्योंको सैकडों सेनाओंके समान सिद्ध कर सकती हैं नन्दोन्मूलन में जिसकी महिमा देखी जा चुकी है वह मुझे त्यागकर न जाय । फलेन परिचीयते' कार्यकर्ताकी महत्ता उसके किये कार्यों के परिणामों से जानी जाती है । जैसे चन्द्रगुप्तका साम्राज्य चन्द्रगुप्तकें अदम्य साहस, कर्तव्यतत्परता तथा उसकी योग्यताका प्रमाणपत्र है इसी प्रकार चन्द्रगुप्तका चरित्र उसके निर्माता गुरु महर्षि चाणक्यके व्यक्तित्वकी श्रेष्ठताका एक सुन्दर प्रमाणपत्र है । क्रिया हि वस्तुपहिता प्रसीदति । ( भारवि ) क्रिया हि द्रव्यं विनयति नाद्रव्यम् । ( कौटलीय अर्थशास्त्र ) पात्र में किया हुआ परिश्रम ही सफल होता है । क्रिया पात्रको ही लाभ पहुंचाती है अपात्रको नहीं । Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७४ चाणक्यसूत्राणि 'समानशीलव्यसनेषु सख्यम् ' के अनुसार उन दिनों ये दोनों ही महानुभाव राष्ट्रचिन्तासे व्याकुल थे। दोनों की व्याकुलतोंने दोनोंका स्वाभा. विक रूपमें मिलन करा दिया था। फिर भी इन दोनों में प्रेरक चाणक्य ही थे। सौभाग्यसे उस समय भारत में अबके समान मनबलका अभाव नहीं हो गया था। न्यूनता यह थी कि भारत का तत्कालीन मनोबल प्रकाशमें मानेका अवसर न मिलनेसे सपकाशित रह रहा था । भारतके मनोबलको प्रकाश में लाना अर्थात् भारतमें संकीर्ण प्रान्तीयता मिटाना और उसके स्थान पर अखिल भारतायताको प्राधिकार देना चाणक्यकी ब्राह्मशक्ति तथा चन्द्र गुप्तकी शासनिक के सम्मिलित उद्यम का लक्ष्य बन गया था। अग्रतश्चतुरा वेदाः पृष्ठतः सशरं धनुः । इदं ब्राह्ममिदं क्षात्रं शापादपि शरादपि ॥ जैसे भार्गव ( परशुराम ) ब्राह्मण तथा क्षात्र शक्तिके मिश्रण थे वैसे ही इन दोनों का मिलन ब्राह्मण क्षात्रशक्तियों का सम्मिलन होगया था। एक सोचकर राजनैतिक कार्यक्रम प्रस्तुत करता था दूसरा उसे न्यावहारिक रूप देने में अपनी पाहुति दे देता था। उन दिनों भारतकी धनसंपत्ति बाह्य शत्रुओंको प्रलोभित कर रही थी। देश इतना संपन्न था कि नन्दराज महापद्म अर्थात् महापद्म धनराशिका अधीश कहाता था। जिस देश के राजाओंपर इतना धन था उस देशकी साम्पत्तिक स्थितिका सहज ही अनुमान किया जा सकता है । चाणक्यने देखा भारतकी भ्रान्त आध्यात्मिकता या भारतमें फैलनेवाले अव्यावहारिक धर्माने ही उसे मनाध्यात्मिक तथा अधार्मिक बना डाला है। भारत की आध्यात्मिकता और उसके धर्मने समाजका मुख राष्ट्ररक्षा नामक कर्तव्यसे मोड लिया है और भारत व्यक्तिवाद में सीमित होकर अनाध्यात्मिक तथा धार्मिक बन गया है। उसने देखा भारतकी भ्रान्त माध्यात्मिकताने भारतमें सर्वत्र भन्यायका विरोध करने से बचने की नीति फैला डाली है और यों भारतकी माध्यात्मिकता ही उसके तेजस्वी जीवनको घातक शत्रु बन गई है। Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७५ आर्य चाणक्यका इतिवृत्त भारतका शौर्य, वीर्य आदि सब भ्रान्त मार्ग अपना बैठा है । भारतमें अखिल भारतीयता के नाम पर देशका संकट टालनेवाली शक्तियाँ कहीं भी काम नहीं कर रही हैं । इससे देशको राजशक्ति भी कुमार्ग पर पड गई है। भारतीय समाज देश की राजशक्तिको कुमार्गसे हटाकर सुमार्गपर रखनेके कर्तव्यको उपेक्षा कर रहा है । सम्पूर्ण समाज व्यक्तिगत स्वार्थसिद्ध करनेवाले प्रयत्नों में मग्न होकर राष्ट्रसुधारकी ओरसे उदास हो गया है। देश में शासन सुधार नामक कर्तव्य करने वाला कोई भी नहीं रह गया है। यदि देशको यह निर्बल असावधान कर्तगहीन मानानक स्थिति बनी रहने दी गई तो यह भारतीय सम्पदाको विदेशी भाकमकोंके हाथों में जानेसे रोक नहीं सकेगी। इसका अखिल भारतीय परिणाम यह होगा कि सच्ची माध्यात्मिकता, नैतिकता, शूरता, वीरता आदि गुणांकी जननी मनुष्यता भारतसे सदा के लिये लप्त हो जायगी और देशमें मासुरिकता तथा म्लेच्छता निर्विरोध भावसे फैलकर रहेगी और देश म्लेच्छोंका देश हो जायगा। भारतका वक्षःस्थल तो रुधिरराजित तथा स्नात हो जायगा और भारतीय गगन अत्याचारिताक आर्तनादोंसे गूंज उठेगा । चाणक्य देख रहे थे कि भारतमें आनेवाली इस आसन्न विपत्तिको व्यर्थ करने के लिय भारत. वासियोंके मनोराज्य में आमूल सुमहती क्रान्ति करने की आवश्यकता है। वे भारतकी भ्रान्त माध्यात्मिकताके दुष्परिणामोंसे सुपरिचित थे । इसीसे उन्होंने अपने अर्थशास्त्रमें उत्तरदायित्वहीन होकर कपडे रंगकर नैष्कावलम्बी संन्यास लेनेका अभिनय करके समाज में कर्तव्यहीन श्रेणी बढ़ाने. वालों के लिये दण्डकी व्यवस्था की है। वे समाजमें उत्तरदायित्वहीन लोगोंकी उत्पत्ति रोककर समाज के प्रत्येक मनुष्यका समाजकल्याणसें उपयोग कर लेना चाहते थे। वे देख रहे थे कि भारतके घर घरमें आध्यात्मिकता, शूरता, वीरताकी सच्ची विधिका प्रचार किये बिना भारतकी मनुस्यताकी रक्षा नहीं हो सकेगी। देश विदेशको मानसिक स्थिति से पूर्ण परिचित चाणक्य समझ रहे थे कि यदि भारत मनुष्यत्वसे हीन हो गया तो मनु. प्यता संसार भर में से मानवके अधिकारसे बाहर चली जायगी। चाणक्य Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि मनुके निम्न मन्तव्य से सहमत थे और इसीलिये भारत में मानवताकी रक्षा के लिये आगे बढ़े थे । ५७६ एतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः । स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवाः ॥ ( मनु ) संसारभर के लोग भारतवर्ष के ब्राह्मणों से अपना अपना मानवोचित चरित्र सीखा करें। भारतीय ऋषियोंके समान उनका भी यह दृढ विश्वास था कि यह मानव सृष्टिआसुरिकताको क्रीडा करने देनेके लिये नहीं बनी किन्तु अपने स्रष्टाके असुरिकताक अनधिकार और दुःसाहसको पग पगपर व्यर्थ करने. वाले अभिप्रायको प्रेरणा से व्यक्त हुई है । मानवसृष्टि के विधाताकी यह हार्दिक कामना है कि आसुरिकता के विरुद्ध मनुष्यतारूपी देवी संपत्तिकी समरयात्रा विजयश्री से मण्डित हो । चाणक्य के मानस में प्रत्येक क्षण यही पवित्र ध्वनि गूंजती रहती थी कि मैंने विधाता के इसी अभिप्रायको सार्थक करनेका निमित्तमात्र बननेके लिये ही भारतमें देह धारण किया है । मेरे देव धारणका इसके अतिरिक्त अन्य कोई प्रयोजन नहीं है । भारत के वैदिक युग से लेकर चारों वेदों तथा वेदान्त आदि समस्त ज्ञानभंडारोंमें जो ज्ञाननिधि संचित है वह सब मुझे प्रत्येक क्षण यही प्रेरणा दे रही है कि तुम्हें इस राष्ट्रीय कर्तव्य से विमुख होकर एक भी श्वास लेने का अधिकार नहीं है। तुम भारतवासियोंकी मनोभूमिको ही अपना कर्मक्षेत्र या कर्मभूमि मान लो । इसलिये मान लो कि तुम विवेकी हो I कर्तव्यका भार विवेकी डीके पास रहता है । विवेकी ही किसी भी सच्चे राष्ट्रकी शक्ति होते हैं । बाजका भारतवासी विश्वसाम्राज्य के एकच्छत्र सम्राट् मनुष्यता नामवाले जीवित आराध्य भगवानूकी उपेक्षा कर रहा है और अलीक अस्तित्व रखनेवाले कल्पित ईश्वरकी प्रवंचक कल्पना से बहककर व्यक्तिगत जीवन में मोह रखनेवाला कपट धार्मिक आसुरी शक्तिका समर्थक बनकर कर्तव्यभ्रष्ट बना हुआ है । Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आय चाणक्यका इतिवृत्त ५७७ चाणक परे देखा कि भारत सावितको जन्मभमि है। भारत के एक प्रान्तसे दूसरे बात तक, एक छोरले दूसरे छोर तक, बसा हुआ समस्त मनुष्य. समाज माध्यामिक स्वतंत्रताका प्यामा है। भारतका प्रत्येक मनुष्य अपनी कल्पनामिक ल र क पहुंज! चला सारतका पारि. वारि संगठन तालिम ( 41 की हार करके चलता है । भारतका श्रिम मनुष्य हे काम ताकी विजया फैराना चाहता है । म सबकुछ होने पर भी मारनका ध्याहिमकता भ्रान्तिकी जा रही है। यह देम्बर चाणक्यक सनने यसकतन्य. त्रुद्धि जागी कि हालात को शिशिबानाकी है और कुछ नाप किया था कि दचार का नाम सयास्मिकता या ज्ञान का कि सुभाव का जो वयन्त्र है वही तो अध्यारम ज्ञान है। भारत श्राध्यात्मिकताको जन्मभूमि होला हुला सीमावारिक ज्ञानसे दूर हटता जा रहा है जबकि अध्यकताका ८५ वदारिक जानसे अलग कोई भी मूल्य नही है। भारत कालिमम मानव सामाजिक कर्तव्यों. पर साधारित न कर मानव जातिव्यहीनता की ओर भगा ले जा रहा है । भारतम वर्णाश्रम धर्म के नाम पर कर्मण्य का बोलबाला होता चला जा रहा है। समाज इतना वेिचारशील हो गया है कि उसने समाजके प्रति अपना कोई उत्तरदाधिध न माननेवाली नष्कम्य नामको स्थितिको श्रेष्टता दे डाली है, एक काल्पनि आध्यात्मिकता बना ली गई है और उसीको अपना ध्येय बना लिया है। कर्मसंन्याम जामको स्थितिने भारतीय मनुष्यों को कर्तव्यहीन झुंडों के रूप में परिवर्तित कर डाला है। जिस गाईस्थ्य धर्मका लक्ष्य समाजका सामूहिक कल्याण करना था, भ्रान्त माध्या. स्मिकताके प्रचारने उपका बह लक्ष्य न रहने देकर प्रत्येक गृहस्थको कर्मसंन्यासका प्रतीक्षक बना डाला है। ३७ चाणक्य.) Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि भारतका गाईस्थ्यधर्म समाज कल्याणकी उपेक्षा करने लगा है। जिस गार्हस्थ्य धर्मको सामाजिक मोक्षका उपासक होना चाहिये था वह उसकी उपेक्षा करके व्यक्तिगत मोक्ष नामक अलीक लक्ष्यको अपनाकर वर्णाश्रम धर्मकी कल्पनाके मुख्य लक्ष्य सामाजिक श्रृंखलाका संरक्षक न रहकर उसका घातक बन गया है । भारतका प्रत्येक मनुष्य कर्तव्यहीन होकर नैष्कम्र्यसिद्धि नामक मोक्षका प्रतीक्षक बनकर सामाजिक हितों की भोरसे मुख मोड बैठा है । व्यक्तियोंसे ही समाज बनता है । जैसे व्यक्ति होते हैं वैसा हो समाज होता है । एक तिल तेल दे सकता है तो समस्त दिल तैल दे सकते हैं । एक सिकता तैल नहीं दे सकती तो समस्त वितानोंसे भी तेल प्राप्त नहीं हो सकता | ५७८ व्यक्ति अध:पतित हों तो समाज भी अध:पतित होता है। व्यक्तिका अधःपतन समग्र समाजका अधःपतन होता है । समाजका अधःपतन राज्य व्यवस्थाका पतित बनाये बिना नहीं मानता। पतित राज्यव्यवस्था सम्पूर्ण राष्ट्रको निर्बल मनुष्यताले दोन तथा राष्ट्रीय कर्तव्योंसे उदासीन बना डालती है । ऐसे उदासीन राष्ट्रका राजा राष्ट्रको पतितावस्था में रखता और प्रजाकी सुखसुविधाका चोर तथा घातक बन जाता है । चाणक्यकालीन भारत में भी राजा प्रजाका पितापुत्रवाला पवित्र संबन्ध विकृत हो चुका था । प्रजाको केवल धनोत्पादनका यन्त्र मात्र मान लिया गया था और राजा प्रजाके धनोंका संरक्षक न रहकर अपहारक बन गया था | ये सब तब भारतकी आम्यन्तरिक निर्बलतायें थीं जो चाणक्यका मर्मच्छेद कर रही थीं । ० भारतकी इसी आभ्यन्तरिक निर्बलता के अवसर पर सिकन्दर भारतपर आक्रमण कर बैठा । सिकन्दरका लक्ष्य पहले तो पर्वतकका और फिर मगधका सिंहासन लेकर भारतका सम्राट् बनना था । क्योंकि भारत में ये ही दो मुख्य शक्तिशाली राजा थे। चाणक्यने सिकन्दरके पश्चिमोत्तर भारतपर किये जानेवाले भाक्रमणको रोकनेक लिये मगधराजकी सेवामें स्वयं उपस्थित होकर यह सुझाव लेनेका प्रयत्न किया था कि " पश्चिमोत्तर भारतकी Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आर्य चाणक्यका इतिवृत्त ५७९ रक्षामें सहयोग देना मगध की ही रक्षा है । पश्चिमोत्तर भारतके नागरिकोंपर होनेवाला अत्याचार मगधके नागरिकों पर ही अत्याचार है। नागरिक चाहे पश्चिमोत्तर भारतका हो या दक्षिणका, देशके प्रत्येक सच्चे नागरिककी दृष्टि में वह अत्याचार समस्त राष्ट्रपर अत्याचार है । देशके किसी भी प्रान्तके नागरिक पर होनेवाले अत्याचारका दमन समस्त समाजको संगठित शक्तिसे किया जाना चाहिये।'' परन्तु संकीर्ण दृष्टि मगधराज प्रान्तीयताके पंकमें सना हुआ था । उसपर इस सुझावका कोई प्रभाव नहीं पडा। यह देखते ही चाणक्य के कर्तव्यशस्त्रको एक नया मोड ले लेना पडा। तब चाणक्यके सामने इससे भी बड़ा राजनैतिक कर्तव्य मा उपस्थित हुआ। माधराजकी हो नहीं देशभर राजालों को राही संकीण मानसिक स्थिति थो। देशके राजाओंकी इस मानसिक स्थिति को देख कर चाणक्यको निश्चय करना पड़ा कि दशभरकी संपूर्ण बुद्धिको सुमार्गपर लाये विना भारतकी रक्षा असंभव है। अबतक चाणक्यके राष्ट्ररक्षा संबन्धी बयानों में अंशत: शाखा सिंचनकी स्थिति अपनाई हुई थी। चाणक्य को भारत रक्षा के संबन्ध में मगधराजकी भोरसे निराश होने ही शाखा सिंचनको नीति त्याग देनी पड़ी और उसके स्थानपर भूल पाचन की नीति मुख्य रूपसे अपना लेनी पडी। दूसरे शब्दों में उन्हें भारत को एक रायका रूप देने का निश्चय करना पड़ा। क्योंकि ऐसा किये बिना भारत के उद्धारका अन्य कोई मार्ग शेष नहीं रह गया था। उन्हें दीखा कि देश में कहीं भी राष्ट्रीय उत्तरदायित्व काम नहीं कर रहा है। जबतक देशकै घर घरमें जाकर देशके लोगोंको गपीय उत्तरदायित्वका जीवित पाठ नहीं पढाया जायगा तबतक राष्ट्र संगठन असंभव है । जबतक देश के छोटे राजाओं का अपना अपना अलग अलग राग अलापना बन्द नहीं किया जायगा और जबतक राष्ट्रको एक महाकार्य के रूपमें संगठित नहीं कर लिया जायगा तबतक राज्यव्यवस्थाको समाजका संरक्षक नहीं बनाया जा सकता। Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि अब देशवासियों को राष्ट्रीयता लिखानाही एकमात्र कर्तव्य अपनी अनिवार्यता लेकर चाणक्य के सामने ला उपस्थित हुआ। उस समयकै देशके सौभाग्य से भारतवासियों को सीयाका जी! ३त्य पार देने के लिये चन्द्रगुप्त की शानियको सुधार लाकी सेनाके लिये हाथ जोडकर न रिने । "यीशा संबंधी प्रत्येक योजना अ मान्दार र चन्द्रगुः । व्रत बन गया ५। चाय और द हा तासाशनियोका भूतपूर्व ममिलना १ पाने वाले निर्देशा. नुपार सिकन्दर ईरान RE को ही १५ मा माकर ईरान की सहायता के लिये को क नाबनाया था। चागल की चाशयति समर्पmको जो भावना थी वह उसका एक निष्काम कर्मयपालन था। ममर्पण किली मावी मौतिक लाभ के लिये नहीं किया गया था। परन्तु ईश्वरीय व्यवस्थाकी भचिन्त्य इच्छासे इस जामसमर्पणो में चन्द्रगत को भारत का सम्राट ही नहीं बना दिया किन्तु संसार भरके सम्राटोले भी अधिक यशानी बना डाला । ईरान में सिकन्दरसे अपनी अश्वक सेनामोंको लजाले के पास से चन्द्रका प्रत्येक संग्राम भारन मनुष्यता तथा राष्ट्रीयताको जगाने की ही दृष्टि से किया जाने लगा था। चन्द्रगुपने अपने जीवन में जितने संग्राम किये सबमें संपूर्ण भारतकी जाग्रत मनुष्यता का पूरा सहयोग मिलने लगा था । चन्द्र गप्तने अपने राजनैतिक प्रयत्नों में धार्मिकताको प्रमुख स्थान दिया था उसके कारण इस धर्मप्राण देश में जमके लिये अनुकूल वातावरण प्रस्तुत हो चुका था। यही कारण था कि देश में उसकी प्रत्येक समर यात्राको विजय मिलना सुनिश्चित होगया था। ___ अनथक कर्मवीर चाणक्यने भारतवे धर घरमें यह भादर्श फैला दिया था कि कर्म-सन्यासका आदर्श रामघाती होने के कारण आध्यात्मिकता नहीं है। धर्मको जंगलोंकी गुफाओं में भास्मप्रकाश ज करके उसे राष्ट्र में ही आत्म. Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आर्य चाणक्यका इतिवृत्त ५८१ प्रकाश करके रहना चाहिये। कर्मसंन्यास या पारलौकिक चर्चा मनुष्यता घाती कर्मविमुखता है । मनुष्य को कर्म त्यागना नहीं है उसे तोड ले सुधा. रना है। उसे भविष्य नहीं सुधारका उसे तो केवल अपना वर्तमान सुधा. रना है । मनुष्यका कर्मक्षेत्र भविष्य नहीं है किन्तु वर्तमान ही मनु यकी कर्तव्य भूमि है। मनुष्य व्यक्तिगत मोक्षकी लीक कल्पनाको त्याग दे और राम-कल्याणमें ही रमल्याण समझकर अपने आपको राष्ट्र सेवा लगा दे यही मानव-धर्म है। चाणक्यको दीख रहा था कि भाजके भारतके द्वारपर पश्चिमकी म्लेच्छ शक्ति भारतको आदच्युत करके भारतीय मनुष्यताको पदालित करने के लिये उपस्थित है। चाणक्य भारत के लोगोंको समझा रहा था कि पश्चिमोत्तर भारत के मनुष्य समार होने वाला यह माक्रमण भारतको मनुष्यता और राष्ट्रीयता पर साक्रमण है। प्रत्येक भारतवासी इस माक्रमणको अपनी होमप्यता तथा समीयता पर माक्रमण मानकर इससे लोहा लेने के लिये धर्मत: बाध्य है। जो भारत. वासी अपनी मनुष्यता तथा राष्ट्रीयताको रक्षा के नामपर जाततायीसे लोहा लेने के लिये धार्मिक दृष्टिसे विवश है वहीं सच्या माध्यामिक है, वह सचानोति. मान है और यही सच्चा शूरवीर है । मनुष्यता ही राष्ट्रीयता है। मनुष्यता ही मानवका माराध्य सत्यस्वरूप ईश्वर है। नैतिकता ही मनुष्यताका संरक्षण करने वाली है । क्योंकि मनुष्य समाज में कहीं कहीं भी किसी पर होनेवाला मासुरी लाकमण संपूर्ण राष्ट्रभरकी मनुष्यसापर आक्रमण होता है, इस. लिये संपूर्ण राष्ट्रका प्रत्येक मानव उस बासुरी भाक्रमण का दमन करने के लिये जिस धार्मिक दृष्टिले बंधा हुआ है वह धार्मिक बन्धन हो सच्ची साध्या. स्मिकता, सच्ची नैतिकता और सच्ची शूर वीरता है।' चाणक्य के ये उपदेश उस समयके भारतीय समाजमें उपरवान न होकर श्रद्धाके साथ सुन लिये गये। चन्द्र गुप्तने चाणक्य के निर्देशानुसार भारतको केवल शस्त्र बल से ही संगठित नहीं किया किन्तु भारतके मनुष्य समाजपर शस्त्रबलसे भी कहीं अधिक शनिः रखनेवाले मनन्त शक्तिसम्पन्न Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि घटघटवासी सत्यस्वरूप विवेक भगवान्के द्वारा संगठित किया, देशकी कपट आध्यात्मिकता नामवाली कर्तव्यविमुख बासुरी प्रवृत्तियोंको पराजित किया और देश में फैली हुई अपनी राज्यसंस्थाको सुदृढ बनाने और उसे सुधार कर रखनेकी ओरसे उत्पन्न हुई दीर्घकालीन उदासीनताको मूल से मिटा डाला। उस उदासीनताको मूलसहित मिटाकर देश में राष्ट्रीय पुरुषार्थको जगाया और जगाते जगाते समग्र भारतके मानव-समाजको अपने साथ कर लिया। चाणक्यने जो भारतपर विजय पाई उसे केवल राजनैतिक विजय नहीं कहा जा सकता। वह विजय जितनी राजनैतिक है उससे कहीं अधिक माध्यात्मिक विजय कहा जा सकता है। इतिहास में चाणक्यकी आध्यात्मिक विजयके प्रमाण विद्यमान हैं। चाणक्य. का शिप्य चन्द्रगुप्त मगधके सिंहासन पर आरूढ होनेसे भी पहले समद्रसे हिमालय पर्वतवासी मानव-समाजके हृदयका सम्राट् बन चुका था। चन्द्रगुप्त भारतमें श्रद्धा, प्रेम तथा स्नेहका भासन पा चुका था। यही चाणक्यकी आध्यात्मिक विजय थी । यही कारण था कि लोग चन्द्रगुप्त के नामसे संत्रम्त न होकर प्रेम तथा कृतज्ञतासे उसके शासनको शिरोधार्य करने लगे थे । क्योकि चाणक्य का आदर्श भारतवासियों के हृदय में स्थान पा चुका था इसलिये भारत में चन्द्रगुप्त की विजयके परिणामस्वरूप सुसंगठित राष्ट्रीय ताका जन्म हो गया था । क्योंकि सुसंगठित राष्ट्र-निर्माणका भादर्श मनुष्य ताका संरक्षक होता है इस कारण वह भादर्श जगत् भरके लिये वरेण्य मादर्श है । इस दृष्टि से चाणक्यने भारतके ही नहीं संसार भरके मनुष्य समाजको निर्धान्त राजनैतिक दृष्टिकोण देनेवाले मार्ग-दर्शकके रूप में जो प्रतिष्ठा पाई है चाणक्य उसके सर्वथा उपयुक्त थे । आर्य चाणक्यकी नीति आदर्श राष्ट्र, मादर्श राजचरित्र, तथा सुसंगठित भखंड भारतीय साम्राज्य इन तीन बातोंकी स्थापना करना चाणक्यकी कल्पनामें था । यह महापुरुष मपनी इन तीनों कल्पनामको मूर्तरूप देनेमें उन दिनों जब कि भाजके Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आर्य चाणक्यकी नीति वैज्ञानिक आविष्कारोंकी सुविधाएं नहीं थीं केवल चौबीस वर्षमें पूर्ण रूपसे सफल हुभा था। उन्होंने चन्द्रगुप्त मौर्यमें मादर्श राजचरित्रका निर्माण करके दिखाया और उसीके मार्गदर्शन के लिये कौटलीय अर्थशास्त्रकी रचना की । उन्होंने आदर्श राष्ट्र निर्माणकी दृष्टि से भारतके अपने अपने क्षुद्र स्वार्थों के लिये आपस में लडते, झगडते छोटे-छोटे राज्यों को एक विशाल शक्तिशाली राष्ट्र के रूपमें बदला और उसकी शासन-व्यवस्थाको सुचारुरूपसे चलानेके लिये अर्थशास्त्र के रूपमें एक निर्दोष विधान बनाकर प्रस्तुत किया। भारतके प्राचीन संस्कृत साहित्य में कोटलीय अर्थशास्त्रका महत्वपूर्ण स्थान है। उस समय उनका यह महान् ग्रन्थ भारतके प्रत्येक प्रान्तकी पाठविधियों में स्वीकृत हो चुका था। ___ इस ग्रन्थ के सम्बन्धमें जर्मन विद्वान् बेलोरेनने लिखा है- 'अर्थशास्त्र एक ऐसे प्रतिभावान मस्तिष्ककी उपज है जो न कभी लक्ष्यभ्रष्ट हो सकता है और न विशृंखल ही और यह ग्रन्थ राजनैतिक विचारधाराकी पराकाष्ठाको पहुंचा दिया गया है । ' इस ग्रन्थमें राष्ट्र के स्वदेशी तथा विदेशी नागरिक सामरिक, व्यावसायिक, व्यावहारिक, अर्थनैतिक, राजस्विक तथा न्याय आदि राष्ट्र-निर्माण तथा समाज संगठनसे सम्बन्ध रखनेवाले समस्त सावश्यक विषयोंका पूर्ण मार्गदर्शन कराया गया है । इसमें इन सब विषयोंपर सुप. रिष्कृत ढंगसे विचार किया गया है । चाणक्यने इस ग्रन्थमें स्थान स्थानपर जिस प्रकार मनु, बृहस्पति, औश. नश, भारद्वाज, विशालाक्ष, पराशर, पिशुन, कोणपदन्त, वातव्याधि, बाहुदन्तीपुत्र आदि आचार्यों के मतोंकी अनेक स्थानोंपर तुलना की है । उनकी तुलनासे यह स्पष्ट हो जाता है कि प्राचीन भारतमें समाज तथा राष्ट्र संबंधी विषयोंपर भले प्रकार विचार भी होता था और इन विषयोंके अध्ययनकी एक जीवित परम्परा भी थी। उन्होंने पूर्वाचार्योंके मतोंका उल्लेख करते हुए । नेति कौटल्यः '' नेति चाणक्य: ' मादि शब्दों में जिप प्रौढतासे अपने मतकी स्थापना की है उससे इनका भात्मविश्वास पूर्ण निःसंदिग्धता Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि प्रकट होती है। इन्होंने जहां अर्थशास्त्र का उद्धार किया वहां विघटित होनेसे निर्बल पड गये हिंदु राज्यतंत्रको एक शस्त्र के नीचे लाकर सबल हिन्दू राज्यका रूप देकर हिन्दू राजनीतिमें नीन जान डाल दी थी। उस समय में छोटे-छोटे हिन्दू राजा कलहों तथा व्यसनोंमें फंसे रहते थे। देश में एकताकी स्थापना करने वाला कोई शासन नहीं था। चाणक्यने मनुष्य समाजको सब प्रकार की सामाजिक व्याधियों से मुक्त कर दिया था और देश को कल्याण तथा अखण्डशान्तिका अव्यर्थ राजमार्ग दिखाया था। चाणक्य की कल्पना देशद्रोह मनुष्यरमाजका कलंक है : इस कलंकको धोना प्रत्येक राष्ट्रप्रेमीका पवित्र का है ! चाणक्यने देखा कि प्रभुताके लोगों को देशदोरा बीज विद्यमान है। सच्चा राजा बन ने के लिये यह अनिवार्य रूप से वश्यक है कि वह प्रभुताका लोभी न होकर सच्चा समाजसेवक । चाणगे अपने समस्त राजनैतिक प्रयत्नोंके द्वारा इसी सत्यको मानो सानो रक्खा था और रखकर राजाओं को त? आदर्श राज्य नशा राष्ट्रको आदर्श समाज बनाने की कला सिखाई थी। राजानमुत्तिष्ठभानमनुनिष्टन्ते भृत्याः । प्रमाद्यन्तमनप्रमाद्यन्ति । कर्माणि चास्य भक्षयन्ति । द्विद्भिश्चातिमधीयते । तस्मादुत्थानमात्मनः कुर्वीत । राशां हि व्रतमुत्थानं यज्ञ कार्यानुशासनम् । दक्षिणा वृत्तिसाम्यं च दीक्षितस्याभिषेचनम् । प्रजासुखे सुखं राज्ञः प्रजानां तु प्रियं हितम् । तस्मानित्योत्थितो राजा कुर्यादानुशासनम् । अर्थस्य मूलमुत्थानमनर्थस्य विपर्ययः । अनुत्थाने ध्रुवो नाशः प्राप्तस्यानामतस्य च । प्राप्यते फल मुत्थानालभते चार्थसम्पदम् ॥ अर्थशास्त्र १-१९ Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आर्य चाणक्यकी नीति यदि राजा अपने काम में तत्पर ( मुस्तैद ) हो तो अमात्य आदि सब भत्य अपना अपना काम ठीक ठीक करते हैं। यदि राजा मालस्थ करे और अपना राजधर्म न पाले तो अमाय लादि भुत्य भी अपना अपना कर्तव्य करने में प्रमाद करने लगते हैं और राजाका सलेवाकार्य कर डालते हैं। तब शत्रभों को राजाको अभिभून करने का अवसर मिल जाता है। इस. लिये राजा राजधर्मपालन के सम्मान में सदा ही सजग और रिबन रहे। राजा सजग तथा कटिबद्ध रहने के लिये मरने दिनको दिर्शक शासनसम्बन्धी कठोर अटल बंध में बांधकर को उधोगतपर कटिबद्धता ही राजाका व्रत है। व्यवहारनिर्णय हो जाता है। शासन शाके सम्बन्धमें शत्र मित्र सबपर समष्टि ही राजाका का। जासुखमें ही सजाका सुख है । प्रजाप कितने ही राजाका हित है। राजाका सपना कोई व्यक्तिगत हित नहीं है। प्रजाका प्रिय ही राजाको हि । इन कारणों से राजा नित्योद्योगी महकर अयंग्यवहार करे। उदार भी करत का एकमात्र उपाय है। अनुटोका नर्थक मूल है। लस्य के कारण उद्योग न करने पर राल तथा आगामी (भाव्य ) दोनों अयोजनोंका निश्चित विनाश हो जाता है। उद्योगमा ही फल मिलता है और अर्थ पनि प्र! होती है । उद्योग तीनों कालो हिलकारी है। इस प्रकार चाक्यो राजाका प्रजासे मला स्वार्थी अनित्य मिटाकर उसे समाजसेवकका लाघनीय स्थान दिया है। चाणक्य की साम्राज्य कल्पना स्वेच्छाचारी एकतन्त्र कहलाने वाले किसी बाकि या इलाका शालन नहीं है। उसकी साम्राज्य कल्पना नो सम्पूर्ण मनु समाजका स्वाधीन शासन है। चाणक्य के मन्तानुसार राजामें विचारशील गृहस्थ समान व्यवस्था सम्बन्धी समस्त गुण होने चाहिये । उसे राष्ट्रव्यवस्था के नामपर एक कांडी भी व्यर्थ नष्ट न होने देना चाहिये । उसे अपनी अाणित प्रजाको अपने पारिवारिक सदस्यों की भांति बढी चिन्ता तथा सतर्कता से कम एके शासन में रखना चाहिये । उसे प्रजाको सत्यके शासन में रखने के लिये स्वयं धर्मके मार्गपर चलना चाहिये और अपनी प्रजाके सामने अपने सत्याचरणोंका Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८६ चाणक्यसूत्राणि सुदृष्टान्त उपस्थित करके लोगोंको सन्मार्ग पर चलनेके लिये उत्साहित करना चाहिये । उसे राष्ट्रीय कर्तव्यपालनमें प्रत्येक क्षण सचेत रहना चाहिये। विश्वासघाती शत्रुओं की चेष्टाओंको व्यर्थ करने के लिये पूरा सावधान रहना चाहिये । प्रजापर अनुचित करभार नहीं लादना चाहिये । प्रजा तथा राजकर्मचारियों के समस्त आचरण विश्वस्त गप्तचरों के द्वारा देखे भाले पडताले जाने चाहिये । प्रजामें गृहकलह नहीं होने देना चाहिये । प्रजापर राजकर्म. चारियों तथा राजसभाके सदस्यों के अत्याचारों को मिटाने तथा राजविद्रोहका दमन करने के लिये प्रभावशाली प्रबन्ध रखना चाहिये। अपने राज्यकी रक्षाका सुदृढ प्रबन्ध करके पडोसी शत्रुराज्यको अपने वश में रखना भी राजाका राष्ट्रीय कर्तव्य है । शत्रुओं के साथ मिलकर रहना या उन्हें अपना सहयोगी बनाना नीतिहीन आचरण है। चाणक्यकी यह नीति प्रत्येक काल में सब देशोंके लिये मान्य है। भारतकी यही राजनीति है। भारतकी यह राजनीति वैदिक युगकी प्राचीनताका ठीक ही अभिमान करती है। इसलिये करता है कि चाणक्यने श्रुति स्मृति पुराणों में दण्डनीतिके नामसे उल्लिखित राजनीतिको अपने अर्थशास्त्रमें संकलित करके बृहस्पति, भरद्वाज, विशालाक्ष, वातव्याधि मादि आचार्योंके सिद्धान्तोंको भी उसमें संकलित किया है। उन्होंने समाजसंगठनके आदर्श को ही मनुष्यमात्रके धार्मिक जीवनका उत्स (मृल, झरना) मानकर साधु राजाको उस आदर्शका संरक्षक बनाया है । अपने राजसमें जितेन्द्रियताको रक्षा करना ही राजाका मुख्य कर्तव्य स्वीकार किया है। सभासदों, पुरोहितों, मन्त्रियों, सेनापतियों तथा दृत आदिके चरित्रोंको जितेन्द्रिय ताकी कसौटी पर कसने के लिये तीक्ष्ण निरीक्षण करते रहना राजाका अनिवार्य कर्तव्य बताया है। यही उनकी राजनीतिकी वेदानुकूलता है । जितेन्द्रियता ही वेदका सर्वस्व है। राजशक्तिको समाजकी अनिवार्य आवश्यकता बताया है। समाजमें राज. शक्ति न रहने से समाजकी मानवोचित कर्मण्यता नष्ट हो जाती और मालस्य तथा अपवित्रता समाजके देह और आत्मा दोनों को नष्टभ्रष्ट कर डालते हैं। Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आर्थिक समाजरचनाके दोष जैसे मनुष्यकी व्यक्तिगत कामासक्ति उसकी दृष्टिको अंधा बना देती और उसे इन्द्रियों के दास बनाकर छोडती है, इसी प्रकार राजाकी अजितेन्द्रियता राज्य में बाह्य शत्रुओं को आनेका निमन्त्रण देकर राजाको पराधीन बना देती है । अपनी इन्द्रियोंको वशमें न रखनेवाला राजा सागरपर्यन्त भूभागका अधिपति होता हुआ भी नष्ट हो जाता है । मन्त्रियों की अजितेन्द्रियता तथा अनुचित महत्वाकांक्षा भी राजशक्तिका प्रबल शत्रु होनेके साथ साथ देशपर विपत्ति आने का भी प्रबल कारण होता है । इसलिये चाणक्यने मन्त्रियों की योग्यता के लिये सद्वंश, विद्या, दूरदृष्टि, ज्ञान, साहसिकता, वाग्मिता, बुद्धि की प्रखरता, उत्साह, स्वाभिमान, चारित्रिक निर्मलता, आदर्शनिष्ठा, आत्मसंयम तत्परता तथा दढचित्तताको कसौटीके रूपमें बताया है । मन्त्री लोग इन्हीं गुणोंके आधारपर समाजको सच्ची व्यावहारिक आध्यात्मिकता तथा सुश्रृंखलाके बंधन में रख सकते हैं । इस आदर्शसे हीन मन्त्रियोंका देशद्रोही और राजद्रोही हो जाना अनिवार्य है । उस समयके देशका यह सौभाग्य था कि समुद्र से हिमालय तक सुवि स्तीर्ण भारतीय साम्राज्यकी उर्वर भूमिमें समाजकी संगठित शक्तिसे धनसंपत उत्पन्न करके देशमें सुखशान्तिको अविच्छिन्न गंगा बहानेका आचार्य चाणक्यका सुपना साकार हो गया था और उनके व्यावहारिक माध्यात्मके प्रचारके प्रभाव से देश में धर्मराज्य स्थापित हो गया था । चन्द्रगुप्त उसका पुत्र बिन्दुसार तथा पौत्र अशोक चाणक्यकल्पित धर्मराज्य के स्थापक होने ही के कारण संसारभरके सम्मुख न्यायनिष्ठ शान्तिप्रिय राजचरित्रका बादर्श रखने में समर्थ हुए थे । आर्थिक आधारोंपर समाजरचना के दोष आर्थिक आधारोंपर समाजका पुनर्निर्माण करना चाहनेवाले लोग संसार में अधिक संख्या में हैं । परन्तु ये लोग नहीं विचार पाते । आर्थिक आधारोंपर समाजका पुनर्निर्माण करनेसे देश में स्वार्थी प्रवृत्तियोंको अनिवार्य रूपसे बढावा मिलता है और अन्तमें अव्यवस्था और पापको फैलने से रोका ही ५८७ Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८८ चाणक्यसूत्राणि नहीं जा सकता । इस कारण समाजका पुनर्निर्माण अर्थ के आधारपर न करके सत्य तथा न्यायके आधार पर करना चाहिये । सत्य तथा न्यायके माधारपर समाजका पुनर्निर्माण करने से ही भादर्श २१ करित्रका निर्माण किया जा सकता है । न्याय तथा सत्य के लाधारपर समाज का पुनर्निर्माण किये बिना देशको शादर्श चरित्रवाला राजा नहीं मिल सकता । कौटल्य जो उन दिनों आसेतुहिमाचल भारतको धल छालता फिर रहा था उसमें उसका यही महान् उद्देश्य था कि लोगों के सामने सत्य और न्यायके आधारपर समाजरंगठन करके देश को आदर्श राजा देकर व्यावहारिक रूपमें समझा दिया जाय कि देखो सादर्श राष्ट्र चरित्र तथा आदर्श राजचरित्र बनानेकी यही एकमात्र विशि। कौर मुख भारत के बंधनहीन छिन्नलिन समाज की दयनीय अवस्था उपस्थित यो । भारके छोटे-छोटे गणराज्यों को दुर्बलताओंने चाण. क्यको व्यक्ति र डाला था। वह अपने देश के समस्त गणराज्यों के सम्म लन एक सुपरिचालित विमाल राज्यकी तथा उनीके साथ उस विशाल राज्यके संचालक सुयोग्य राजाको आवश्यकता अनुभव कर रहा था। वह देख रहा था कि यदि दशके लिये कोई एक प्रतापी राजा न छांट लिया गया तो इतने विशाल मनुष्यसमाजका छिन्नभिन्न बने रहना अनिवार्य और नष्ट हो जाना निश्चित है। चाणको मानवसमाज के ध्वंसको रोकने के लिये वर्मात्रमानुकूल दगडनीति के द्वारा समस्म समाजको संगठित करके नीतिमान बनाये रखने की आवश्यकता प्रतीत हुई। उन्हें दीया कि किसी केन्द्रवर्ती रामाके हाथों में शक्ति दिये बिना एक संस्कृतिवाले इस देशकी दण्डनीति प्रभावशाली नहीं रह सकती। वे यह भी भली प्रकार समझते थे कि देशकी दण्डनीतिका जहां शालितों तथा शत्रुओंके ऊपर प्रभावशाली रहना आवश्यक है वहां उसको शासकोंके कार प्रभावशाली बनाकर रखना उससे अधिक आवश्यक है । दण्डनीति के शासकोंके ऊपर पभावशाली बनकर रहने से ही शासन यन्त्र सुपरिचालित Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आर्थिक समाजरचनाके दोष में रह सकता या शापित लोग नीतिसरी पर रह सकते हैं | यदि दण्डनीति शापक लोगोंके ऊपर अपना जाव नहीं हो सकेगी तो राज्यसंस्था अनिवार्य रूप नविन दो जायगी जी समाजके बड़े लोग छोटोकोक्त का डास चाणक्य हा तत्कालीन भारतका अनेक गणराज्यों में विभक्ता ही सारी सामूहिक दार्दिके प्राहुर्मुहानेका विघ्न बना हुआ था ५८९ उस ममय भारतीय राज्य शरव बाई आदि भिन्न अपने अध्यात्मिक आदर्शसे भी लधिक भित्र सम्प्रदायों के प्रभाव लाये हुए और इसी समझे हुए असामाजिक आदर्शको राजनैतिक महत्व देते थे । इस कारण देशकी राजनीति भी पत्र हो रही थी । यह सब देखकर चाणक्यको साम्राज्यनिर्माणका यही मत्सर आदर्श उप युक्त प्रतीत हुआ कि तरारा ऊपर भी एक केन्द्रिय राज दण्ड स्थापित करके देश के राजनैतिक आदर्शको रक्षा की जाय। देशमें इन समस्त गणराज्योंको किसी एक राजपलाये बिना सरकी सामूहिक रक्षा नामका कर्तव्य से किसी भी प्रकार नहीं पलवाया जा सकता | चाणक्यको स्पष्ट प्रतीत हो रहा था कि प्रान्तीय या स्थान विशेषसे सम्बन्ध रखनेवाली संकीर्ण दृष्टि राखनेवाले गणराज्योंको भरको चिन्ता रख सकनेवाली किसी शकिमती प्रभुदत्ताके आज्ञापालक बनाये विना वह साम्राज्यनिर्माण किसी भी प्रकार नहीं हो सकता जो इस सम के भारतीय राष्ट्रकी अनिवार्य बावश्यकता है। वे मानते थे कि देशभर के लोगों में अपने व्यक्तिगत जीवनके लिये उत्तरदायि पैदा हो जाना ही साम्राज्यनिर्माणकी मुख्य आधारशिला है। आर्य चाणक्यको देशमें इस उत्तरदायित्वको जगाना आवश्यक दीख रहा था। नैतिकता ही मानवजीवनका सार है। मानवजीवनको सार नैतिकताको अपने व्यावहारिक कर्म क्षेत्र में सुरक्षित रखना ही समाजकल्याणकारी व्यक्तिगत उत्तरदायित्व है। इस उत्तरदायित्वको राष्ट्रके सामने युक्तिपूर्वक उपस्थित करके राष्ट्रसे स्वीकृत करा लेना चाणक्यकी सफल नीति थी । वे Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९० चाणक्यसूत्राणि समझते थे कि मनुष्य हृदयपर विजय दिलानेवाला ब्रह्मास्त्र युक्ति ही है, बलात्कार नहीं । वे मनुष्यकी स्पष्ट ज्ञानशक्ति तथा तीक्ष्ण बुद्धिवृत्तिको दी ऐसा अव्यर्थं हथियार समझते थे जिससे बाह्य प्रतिकूल परिस्थितियों को पराभूत किया जा सकता है । वे अपनी स्पष्ट ज्ञानशक्ति तथा सुतीक्ष्ण बुद्धिवृत्तिको ही सदा काममें लाते थे । आर्य चाणक्य में इन अभूतपूर्व गुणोंने जैसा पूर्ण आत्मविकास पाया था संसारके इविद्वान में वैसा विकास पाने. वालोंका प्रायः अभाव पाया जाता है | चाणक्यने गुणजन्य आत्मविश्वास के कारण ही अपने तीनों महान् उद्देश्य पूरे किये थे । भारतमें जो राजनैतिक शक्तिका सूत्रपात हुआ वह चाणक्यको बुद्धिके ही कारण हुआ। उसी सू पातके कारण भारत अशोक के समय पहली बार संसारको सफलता साथ शान्तिप्रेम और भ्रातृभावका सन्देश सुनाने योग्य बना | हिन्दुसार तथा अशोक दोनों के यशकी पृष्ठभूमि भी आर्य चाणक्यकी प्रतिमा ही थी । इस दृष्टिसे चाणक्यको न केवल भारत के प्रत्युत संसारभरके इतिहासके अत्यन्त महत्वपूर्ण युगका प्रवर्तक कहा जा सकता है } चाणक्यने आदर्श राट्र, यादर्श राजचरित्र तथा अखण्ड राष्ट्रनिर्माण नामक अपने तीनों महान् उद्देश्योंको पूरा करनेके लिये भारत पर होनेवाले विदेशी आक्रमणको व्यर्थ करना श्राम्यन्तरिक देशद्रोहियोंको मिटाना तथा व्यक्ति गत स्वार्थद्दीन आदर्श समाजको संगठित करना आवश्यक समझा और अपने सफल प्रयोगों से भारतवासियों को इन सब बातोंकी व्यावहारिक शिक्षा दी ! यदि वे देशद्रोहियों को देशद्रोह करनेका अवसर देते रहते, देशको विदेशी आक्रमणोंकी संभावनाको न मिटा डालते, देश तथा उसके प्रत्येक ग्रामको विदेशियोंसे पृथक् पृथक् स्वतन्त्र रूप से लोहा लेनेके लिये प्रस्तुत न कर देते, देश में व्यक्तिगत स्वार्थभावनाको फूलने फलने देते तो देश से राष्ट्रसेवा नामका मानवधर्म पलवाया नहीं जा सकता था । राष्ट्रसेवामें ये तीनों कर्तव्य अत्याज्यरूप से राष्ट्रसेवायें सम्मिलित है । जिस राष्ट्रमें देशद्रोही लोग हैं जो राष्ट्र विदेशी आक्रमण या लूटको व्यर्थ नहीं बना सकता। जिस राष्ट्र के ग्राम शत्रुओं के मार्ग पग पगपप्रतिरोधके लिये सन्नद्ध नहीं होते, जिस राष्ट्रका मनुष्यसमाज अपने व्यक्तिगत स्वार्थीको समाजके सहसम स्वार्थमें विलीन Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आर्थिक समाजरचनाके दाष करना नहीं जानता, जान लो कि उस राष्ट्रमें राष्ट्रसेवाका स्थान सूना पडा हुआ है । जान लो कि वह राष्ट्र असुरोंकी स्वेच्छाचारिताकी क्रीडाभूमि बन चुका है। आजके भारतवासीको चाणक्यसे राष्ट्रसेवाका यही मद्दत्वपूर्ण पाठ पढना है । ५९१ अपने समाज से अलग मनुष्यका कोई मूल्य या अस्तित्व नहीं है । मनुका जो समाज है वही तो उसका राष्ट्र है। राष्ट्र दो राज्यसंस्थाका कर्णधार है । राष्ट्र ही राजाकी कल्पना निर्माण और नियुक्ति करता है। राजाकी भ्रान्ति तथा दुष्प्रवृत्तियोंको रोकना राष्ट्ररूपी राज्यसंस्थाके कर्णवारका ही काम है | यदि राष्ट्र अपनी राज्यसंस्था रूपी नौकाको लेने में वोडासा भी प्रमाद करेगा तो इस नौकाका डूब जाना क्या अपने सब यात्रियों को डूबनेके लिये विवश करना निश्चित हो जायगा । इसलिये कौटल्यने रात्रसम्मत जितेन्द्रिय राजाको समग्र राष्ट्रका प्रतिनिधित्व करनेका अधिकार दिया है और उसीके कंधों पर सम्पूर्ण राष्ट्रका नैतिक तथा वैज्ञानिक दोनों प्रकारका उत्तरदायित्व सौंश है | उनका यह सुदृढ विश्वास था कि जैसे संपूर्ण प्राणियों के पदचिन्ह हाथीके पैर में समा जाते हैं इसी प्रकार संसारके समस्त धर्म राजधर्मके उदर में समा जाते हैं । राजधर्म समस्त धर्मोका संरक्षक है । जिस देशका राजधर्म सुरक्षित रहता है उसीकी समस्त प्रजा धार्मिक रह सकती है | यदि राजधर्म सुरक्षित या व्यवस्थित नहीं रहता यदि वह्न लूला, लंगडा, अंधा, बहरा बनकर रहता है तो राजचरित्रका अनुकरण करनेवाली प्रजा धर्ममार्गपर नहीं रह सकती । चाणक्यको जो भारत अखण्ड राष्ट्रका निर्माण करने की प्रेरणा मिली थी वह एक तो भारतपर बाह्यशत्रुओंके आक्रमणको हटाने, दूसरे उस आक्रमणमें आन्तरिक देशद्रोही शत्रुओंका सहयोग मिलना असंभव बना देने की आवश्यकता से मिली थी । भारतपर विदेशी आक्रमण होते ही भारतकी राजनैतिक रुग्णावस्था राष्ट्रवैद्य चाणक्यसे छिपी नहीं रह सकी । उन्होंने स्पष्ट देख लिया कि Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ যাখালি मित सपा सिन्धके छोटे छोटे गणराज तथा वहां की स्वतंत्र जातियां संगठन हीनतासे किसी भी महत्वाकांक्षी पशु के सामने सिर झुकाने को स्तुत हैं । देशकी यह शोचनीय स्थिति देश के विज्ञ लोगोंको काटेकी भाँति चुभ रही थी। सड़ी के 24 कि देश की रक्षा के नामपर देश के शुद्ध शुद्र ज्यों को क ल शशिमालो साम्राज्य के रूपमें परिणा कर अलने का प्रस्ताव ना को बारे मा में समर्थन भी मिलने लायचा हा निर्वाचित र शिक्षित चन्द्रगुप्तको केवल आधुनिक कामटही नाकारभरका चर्मकी नींग पर सुप्रति घर घले (ले. सामाज में मान मार्य च ले ४३ ५५१२१ २२ भारत र १ वातावरण चन्द्र गुप्त के सबाट बनने के अनुकूल बन चुका था। इस अनुकूल वातावरणाने चन्द्रगुपको गीय क्रान्तिका अग्रदूत तथा विजयी नेता बना डाला ने मगध के सिंहा. जनपर अति सुगमतासे अधिकार प्रतिष्टित करने के पश्चात अन्य भी रहतसी समरयात्राओंमें विजय पाकर एक विशाल साम्राज्य बना लिया। वह न केवल लिन्नभिन्न भारतको अपितु भारत सीमासे बाहर तक के मनुष्यसमाजको एकताकी धर्मप्रधान डोस में बाँधने में सफल हो गया था। चन्द्रगुप्त के पश्चात् उसके पुत्र बिन्दुसार तथा पौत्र अशोकने देश में इतिहासात नई राष्ट्रीय चेतना उत्पन्न करके मानवजातिकी उन्नति के लिये भारत के धर्ममूलक राजनैतिक आदर्शको लसार के सामने ला सडा किया। चाणपकी देशभक्तिको आदर्श ही अशोककी सच्ची देशभक्तिका कारण बना । चाणक्यको अशोक के महान् व्यक्तित्वकी भूमिका कहना अत्युक्ति भाचार्य लॉटल्य २ ज चरित्र तथा मानवधर्ममें कोई भेद नहीं मानते थे । वे इन दोनों को अभिन्न मानते थे। उनके विचार के अनुसार राजा न्यायका अवतार, धर्मका प्रवर्तक तथा मनुष्यताको साक्षात् मूर्ति है। राष्ट्र में धर्मकी Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आर्थिक समाजरचनाके दाप ५९३ रक्षा राजाका ही उत्तरदायित्व है। न्यायपूर्वक प्रजाकी रक्षा ही राजधर्म है । उनकी दृष्टि में विधाताने जो मानव सृष्टि बनाई है वह नैतिक मादर्शकी रक्षा ही के लिये बनाई है । आजके संसारने जो आदर्श अपना रक्खा है उसे तो पशुओंने भी अपना रक्खा है। इसे अपनाने में मानवकी कोई विशेषता नहीं है । इसे अपनानेसे तो उसकी पशुता ही विकसित हुई है। इसमें उसकी मानवताके विकसित होने की कोई संभावना नहीं है । चाणक्यकी यह हार्दिक अभिलाषा थी कि संसारकी राजसंस्थाने मानवताको फूलनेफलने देनेवाले इसी प्राकृतिक नियमके आधारपर प्रतिष्ठित हों। चाणक्य वर्णाश्रम धर्मके प्रबल समर्थक थे । वे देशकी राजनीतिको वर्णाश्रमधर्मके अनुकूल बनाये रखने में ही समाजका कल्याण समझते थे। उनका विश्वास था कि मनुष्य का राजनैतिक जीवन उसके नैतिक जीवनसे भिन्न नहीं होना चाहिये । उनके अनुसार राजनैतिक जीवन तथा नैतिक जीवनमें सुदृढ एकता होनी चाहिये। वे मानते थे कि राजसंस्था समाजको शृंखलामें तब ही रख सकती है जब वह अपने व्यवहारमें भी नैतिकताके भादर्शको अक्षुण्ण रखे । इस दृष्टि से राजनीतिको मानवधर्मसे अलग रखना माचार्य कौटल्यके सिद्धान्त के विरुद्ध था । उनका विश्वास था 'धर्माय राजा भवति न कामकरणाय ' त राजा इसलिये राजा नहीं बना कि राज्यैश्वर्य पाकर कामभोगोंमें फंस जाय । वह तो स्वयं धर्म करने तथा राष्ट्र में धर्मकी स्थापना करने के लिये राजा बना है । चाणक्यका राजा उत्तरदायित्वहीन स्वेच्छाचारी राजा नहीं है। चाण. क्यके राजाका तो दुगना उत्तरदायित्व है। वह प्रजाको धर्मच्युत न होने देने के लिये भी समाजके सामने उत्तरदायी है और स्वयं भी धर्मरत रहनेके लिये समाजके सामने उत्तरदायी है। न्याय ही प्रजा या सम्पूर्ण राष्ट्रमें शृंखला बनाये रखनेवाला धर्मबन्धन है । व्यक्ति समाजसे अलग अपना अस्तित्व नहीं रखता। व्यक्तिका कल्याण भी समाजके कल्याणसे अलग कोई वस्तु नहीं है । चाणक्य के निर्देशानुसार जीवन बितानेका इच्छुक व्यक्ति ३८ ( चाणक्य.) Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९४ चाणक्यसूत्राणि अपने व्यक्तिगत सुखोंपर मरनेवाला भोग लोभी व्यक्ति नहीं है। वह तो अपने को सामाजिक शृंखलाली रक्षामें लगाये रखकर समाजमें अपना सम्मानपूर्ण स्थान बनाये रखने लिये सपस्वी जितेन्द्रिय जीवन बिताने के लिये बाध्य है। चाणक्य के सिद्धान्तमें व्यक्तिगत स्वतंत्रता नामकी ऐसी कोई स्थिति नहीं है जो धर्मकी सीमाको लांघनेका दुःसाहस कर सकती हो। वे धर्मको मीमाके भीतर ही ध्यानकी स्वतंत्रता मानत हैं। चाणक्य प्रजाको जीवनरक्षा संबन्धी प्रत्येक आवश्यकता पूरी करनेकी प्रत्येक सुविधा दन राजाका कर्तव्य मानते हैं। उनके विचार के अनुसार राजा पनेको जनताका सेवकम समझे। समाज के प्रभावशाली ज्ञानी लोग अपनेको जनताके अभिभावक माने और बनकर रहें । राजा समाज के प्रभावशाली ज्ञानियोंका सहयोग पाये विना, स्वेच्छाचारसं राजशक्तिका प्रयोग न करें । काटल्यको राज्यसंस्था समाजको संत्रस्त, नपुंसक तथा नीतिहीन बनानेवाले दण्डभय (पशुशक्ति ) पर आश्रित नहीं है किन्तु समाजके स्वतंत्र कर्तव्यपरायण तथा नैतिकतारूपी शान्तिके मार्गपर आरूढ कर देने. वाली बुद्धिशक्ति पर आश्रित है। राजाका प्रजाके सुख तथा कल्याणमें ही अपना सुख तथा कल्याण ढूंढनेवाला होना चाहिये । अपना व्यक्तिगत सख राजा नाम पा जानेवालेका सुख नहीं रहता, किन्तु प्रजाका सुख ही राजाका सुख बन जाता है । कौटल्यके राजाका कतव्य है कि वह जीवनभर प्रजाके सम्मुख इन्द्रियविजयी होकर अपनी सच्ची कल्याणबुद्धि तथा समाजको हित. कामनाके प्रमाण जीवनभर उपस्थित किया करे । कौटल्यके अनुसार राजा ही राज्यका मुख्य नागरिक है। क्योंकि कौटल्यका राजा प्रजासे योग्य तम न्यक्ति मानकर छांटा हा व्यक्ति है इसलिये उसमें नागरिकताके संपूर्ण गुण अपनी पूर्णावस्था तक विकास पाये हुए होने चाहिये । इसी कारण राजा राष्ट्रका मुख्य नागरिक है। वह नागरिकतामें तो प्रजाके साथ मिला रहता है परन्तु राज्याधिकारका प्रयोग करते समय न्यायमूर्ति राजाका रूप धारण कर लेता है । वह नाग. रिकतामें प्रजाके साथ मिला रहकर ही राजभोगका अधिकारी बनता है। Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजाकी दिनचर्या ५९५ कामासक्ति, क्रोधकी अधीनता, लोभग्रस्तता, दम्भ, मद्यरुचि, औद्धत्य मादि दोष राजाके परम शत्र हैं। राजाको मृगया, जुआ, मद्यपान, कामभोग, मादि प्रलोभनोंसे पगपगपर बडी सावधानीसे अपनेको बचाये रखना चाहिये । राजा जनकल्याणके काममें त्रुटि करनेसे दण्डका भागी बन जाता है। अज्ञान और असंयम ( अर्थात् अनुभवहीनता और स्वार्थ ) ये दोनों राज्यसंस्थाको नष्ट करनेवाली व्याधि है । भारमसंयम सीखना ही राजचरित्र निर्माणकी मुख्य सामग्री है । सच्चे राजाको मानवताके महान् मादर्शका उपासक होना चाहिये । मानवता के महान लादशंका उपासक हुए विना किसीको राजा बनने का अधिकार ही प्राप्त नहीं होता। राजाको राज्य के अनुभवो वृद्ध, ज्ञानी लोगों के संपर्क में रहना चाहिये । इसलिये रहना चाहिये कि शासन की जटिल समस्याओंका समाधान करने में अनुभवी वृद्धों की बुद्धि तथा अनुभवसे लाभ उठाया जाय । राजाको सदाचारी अनुभवो वृद्धोंके अनुभवोंसे लाभ उठानेवाला शिष्य बनने के लिये इन्द्रियविजयी भी बनना चाहिये । मनुष्यको सच्चा मनुष्य बनानेवाली संपूर्ण शिक्षा इन्द्रियविजय पर ही मुख्यतया माश्रित है। राजा अपनेको योग्य राजा बनाये रखने के लिये अपने आपको अटल दिनचर्याके कठोर बन्धनमें बांधकर रक्खे । वह अपने दिन के प्रत्येक भागको कर्तव्य से भरपूर रक्खे. और बड़ी श्रद्धासे दिनचर्याका पालन किया करे । राजाकी दिनचर्या दिनरातको सोलह नलिका ( डेढ घंटा ) में बांटकर दिनके आठ भागों (बारह घंटों)को कर्तव्योंसे भरा रक्खे । राज्यके मायन्ययका निरीक्षण नागरिकों तथा उनकी सुविधाओंकी देखभाल, स्नान, मारमचिन्तन, वैदिक अनुष्ठान, भोजन, स्वाध्याय, राजस्व ग्रहण, राजकर्मचारियों के कर्तव्यों का निरी. क्षण, मंत्रियोंसे राजकार्योंकी मालोचना, गुप्तचरोंसे देशविदेशके समाचारोंका संग्रह, चित्तविनोद, हाथी, घोडे, रथ तथा पदाति सेनामोंका निरीक्षण सेनापति के साथ संग्रामसंबन्धी कार्यवाहियों की मालोचना करके दिनके मन्तमें Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि सन्ध्योपासना करे यह राजाका दैनिक कर्तव्य है। रातमें गुप्तचरोंसे देशविदेशके समाचार सुनकर सायंकालीन स्नान, भोजन तथा स्वाध्याय समाप्त करके शयनगृहमें प्रवेश करे और चौथे या पांचवें याममें मधुर संगीतके साथ नींद छोडकर उपस्थित दिनके भावी कर्तव्योंका चिन्तन करे। सूर्यो प्रसे पहले ही गुप्तचरों को कर्तव्य सौंपकर पुरोहितों तथा आचार्योंसे भाशीर्वाद लेकर वैद्य, सूपकार तथा ज्योतिषी से स्वास्थ्यसंबन्धी आलोचना करे । इसके पश्चात् गोमाता, गोवत्स तथा हल जोतनेवाले बैलोंकी परिक्रमा तथा प्रणाम करके राजस भामें उपस्थित हो। राजा ध्यान रखें कि राजसभामें कभी भी प्रार्थीको राजद्वारपर अनुचित प्रतीक्षा न करनी पडे । राजदर्शनार्थीको दर्शनकी पूरी सुविधा न देनेसे जनताकी घृणाका पात्र बने राजा धर्मकार्यों, वैदिक अनुष्ठानों, गो-सेवा, तीर्थसेवा, शिशु, वृद्ध, रोगी, नारी तथा असहायआदिकी सेवाके लिये न्यक्तिगत रूपमें उद्यम करे । अत्यावश्यक कर्तव्योंको उसी क्षण करे ! इस लिये करे कि सहजसाध्य कर्म भी समय बीत जानेसे दुःसाध्य हो जाते हैं । कर्तव्य तत्परता ही राजाकी धर्मनिष्ठा है कर्तव्य ससम्पन्न करना ही उसका यज्ञ है । प्रजा समष्टि रखना उसकी पवित्रता है। प्रजाके सुखमें ही उसका सुख है। उसकी समृद्धि में ही उसकी समृद्धि है। राजा अपने व्यक्तिगत सखको तबतक सुख न माने जबतक वह प्रजाके लिये भी सखकर न हो । इसलिये राजा कर्तव्य परायणताको ही अपने राज्यैश्वर्यका मूल माने, इसके विपरीत कर्तव्य हीनताको राज्यका ध्वंस समझकर उससे बचे । राजाकी दिनचर्या राजाके ऐन्द्रियक भोगोंको अवसर देनेवाली न रहकर प्रजाके कल्याण साधनके उद्देश्यको पूरी करनेवाली होनी चाहिये । राजा भी हो और प्रजाकी रष्टिमें दुराचारी, अनैतिक, धृष्य, व्यक्तिगत सुखान्वेषी भी हो यह परस्पर व्याहत कल्पना है । यदि राजा सच्चे अर्थमें राजा है तो उसका प्रजापालनके अतिरिक्त व्यक्तिगत सुखान्वेषी बननेका तो प्रश्न ही नहीं उठता। प्रजासे पूजा पाने योग्य समस्त गुणोंसे युक्त होना ही राजाकी Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजाकी दिनचर्या ५९७ योग्यता है। अपने मंत्रियों तथा राजकर्मचारियोंको कर्तव्यके मार्गपर रखना उन्हें कतन्यमार्गसे तिलमात्र भी इधरसे उधर न होने देना राजाका ही उत्तरदायित्व है। राजाके पास इस उत्तरदायित्वको पालनेके लिये ऐसे विश्वासी गुप्तचर होने चाहिये जिनका काम राजाको राज्यसंस्थाकी भपवित्रताके विरुद्ध सावधान करना हो । धार्मिक राजामविश्वास्य मंत्रियों, देशद्रोही प्रजाओं तथा शत्रुओंको उचित रूपमें दण्ड देनेके लिये जिस किसी उपा. यका सहारा लेना उचित समझे वही राष्ट्रहितकारी होनेसे सत्यानुमोदित हो जाता है । जितेन्द्रिय होकर सब प्रकार के अधार्मिक आचरणोंसे अपनेको बचाये रखना राजाका व्यक्तिगत कर्तव्य या पुरुषार्थ है । प्रजाहितकी दृष्टिसे दुष्टों के साथ दुष्टता करके भी उनकी दुष्टताको तत्काल रोक देनेवाले सब प्रकारके शासकोचित व्यवहार करना राजधर्म के अनुकूल है। समाजद्रोही, देशद्रोही प्रवृत्ति दण्डसे ही संयत रक्खी जा सकती है । जितेन्द्रिय लोग ही शासनदण्डका उचित प्रयोग कर सकते हैं। राज्यसंस्था ही एकमात्र वह शक्ति है जो दण्डप्रयोगसे मनुष्यकी समाजद्रोही प्रवृ. त्तियोंको संयममें रखकर उसे विवश कर सकती है कि राष्ट्रका प्रत्येक व्यक्ति सार्वजनिक कल्याण कर सकनेवाली नीतिको अपनाये । सर्वो दण्डजितो लोको दुर्लभो हि शुचिर्नरः । संसारके लोग दण्डभयसे ही कर्तव्य करते और अकर्तव्यसे बचते हैं। अपनी माभ्यन्तरिक प्रेरणासे कर्तव्य करते और अकर्तब्ध से बचने वाले शुचिलोग संसारमें होते तो हैं परन्तु दुर्लभ होते हैं। इसलिये राजा दण्डको सदा दी जगाये रक्खे । इसलिये रक्खे कि दण्ड ही एकमात्र ऐसा ब्रह्मास्त्र है जो राष्टको तो सब प्रकार की विपत्तियोंसे तथा शासकोंको कुशासनरूपी कर्तव्यभ्रष्ट तासे बचा सकता है । इसलिये जबतक मनुष्य-समाज दण्ड धारिणी राज्यसंस्थाके रूपमें सुसंगठित नहीं हो जाता तबतक कोई भी राष्ट्र राष्ट्रीय जीवनका आनन्द नहीं भोग सकता। न्यायकी रक्षा दण्डपर ही माश्रित है। यदि न्यायसंस्था के साथ दण्डसंस्था न हो तो न्यायका कोई मूल्य नहीं रहता, दण्ड ही न्याय्य बातको माननेके Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९८ चाणक्यसूत्राणि लिये विवश करता है । राष्ट्रमें न्यायका बलिदान हो जानेसे राष्ट्रका विनाश अवश्यंभावी हो जाता है । क्योंकि न्यायकी रक्षा ही राज्यकी रक्षा है इस लिये न्यायकी रक्षा ही राजा और राजसत्ताका सार है । भलेबुरे की पहचान करना ही न्याय है । शासक शासित दोनोंके कल्याणका एक होना ही राज्य संस्थाका न्याय है । कौटलीय अर्थशास्त्र न्यायके शासनको ही सत्यका प्रतीक मानता और उसकी रक्षाको ही राजधर्म बताता है । राज्यसंस्था प्रजाके कल्याण के लिये ऐसे नियम प्रचलित करे जो समस्त विश्व के माननीय श्रद्धेय विवेकका पूरा प्रतिनिधित्व करते हों । राजनियम बनानेवालों में न तो भ्रम हो न प्रमाद हो और न किसीका अधिकार छीननेकी लोभ या द्वेषी दुर्बुद्धि हो । भ्रमिष्ठ, प्रमादी, स्वार्थी, विप्रलिप्सु, अनुभवहीन लोग राजनियमों के निर्माता तथा निर्वाहक न बनने पांय । राजनियम स्पष्ट भाषा में हों । यद्यपि कौटल्यने राज्यशासनमें राजाका एकाधिकार स्वीकार किया है परन्तु उन्होंने राजाको जनताका सेवक बननेके बन्धनमें रखकर सिद्ध कर दिया है कि राजा राज्यपर जनताकी प्रभुता स्वीकार करे, राष्ट्रसें जनता के ही शासनको प्रभावशाली बनाकर रक्खे और अपने व्यक्तित्वको प्रजाकी सदिच्छार्मो में बिलोन कर डाले । अपने व्यक्तित्वको जनमत में विलोन करके राज्यशासन चलाना ही कौटल्य की राज्यसंस्था या राजाका वास्तविक स्वरूप है । इस रूपसे कौटल्यका राजा तो वास्तव में जनता ही है । जनताका अस न्तोषभाजन हो जाना तो राजाकी अयोग्यता है । शत्रुदमन ही कौटल्य के न्यायका स्वरूप हैं । राजा जितेन्द्रिय होनेपर ही न्यायनिष्ठ रह कर शत्रुदमन कर सकता है। दूसरे शब्दों में काम, क्रोध आदि आन्तरिक शत्रुओं पर विजय पाना ही राजाको न्यायपरायण बनानेवाली योग्यता है । न्यायी राजा शत्रुदमनके लिये जो कुछ काम करता है वही न्याय कहलाने लगता है । प्रजापालन ही राजाका राजधर्म है । प्रजापालनकी विद्या ही राजाकी दण्डनीति है । जब राजाको प्रजापालनके लिये शत्रुकी Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजाकी दिनचर्या प्रतारणा, हत्या मादि मावश्यक क्रूर ( कठोर ) उपायोंका अवलम्बन करना पडता है तब वह समाजके अन्यायपरायण शत्रुओंसे जो बर्ताव करता है वह न्यायकी परिभाषामें भाजाता और समाजकल्याणकारी होजाता है । किली कर्मकी सदोषता या निदोषता कर्म के बाह्य माकारमें न रहकर उसकी प्रेरक भावनामें रहा करती है । समाजकल्याणकी भावना स्वयं ही इतनी शुद्ध है कि पापियों को दिया हुभा वधदण्ड उसकी पवित्रताको किसी भी रूपमें खण्डित नहीं कर सकता । पापियों को दण्ड देनेवाला राजा अहिंसक ही रहता है। हत्वापि स हमाँल्लोकान् न हन्ति न निवध्यते । (भगवद्गीता) तत्पापमपि न पापं यत्र महान् धर्मानुबन्धः । (नीतिवाक्यामृत) यदि राजा अन्यायी लोगों को उचित दण्ड देने में प्रमाद करता है तो वह शत्रुओंसे लाक्रान्त हुए विना नहीं रहता। राष्ट्र, समाज तथा व्यक्तियोंके शत्रुओंके विरुद्ध प्रभावशाली उपायोंका अवलम्बन करना ही प्रजा. पालन है। इमी दृष्टि से उसे 'शठे शाठ्यं समाचरेत् ' की नीतिका अवलम्बन करना पड़ता है और उसके लिये उसे पूर्ण रूपसे कार्यकुशलता तथा प्रत्येक क्षण जागरूक रहना पडता है। कुछ लोगोंने चाणक्य के हृदगत अभिप्राय को न समझकर उसे कुटिल नीतिवाला कहकर निन्दा की है और चाणक्य संबन्धी सत्य छिपाया है । कुछ लोग माज भी उसकी उपेक्षा करना चाहते हैं । ये सब वे लोग हैं जो देश में चाणक्य नीतिक मान्य हो जानेसे हानि उठानेकी सम्भावना देखते हैं । चाणक्य तो 'शठे शाठयं समा. चरेत् ' या 'मायाचारो मायया वर्तितव्यः' की नीति के प्रबल समर्थक थे। चाणक्य शठोंसे सदा ही शठता किया करते थे और करवाना चाहते थे। वे किसीकी शठताका समर्थन करनेको भी शठता मानते थे और भूलकर किसीकी शठताको अपना कोई समर्थन नहीं पाने देते थे। शठ लोग ऐसे चाणक्य की निन्दा करें और उससे शत्रुता रक्खें तो इसमें आर्य क्या है ? वास्तविकता यह है कि चाणक्यकी निन्दा उनके निन्दकों को ही शठ सिद्ध कर देती है। Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०० चाणक्यसूत्राणि जो बर्ताव शिष्टके साथ शिष्टाचार है दुष्टके साथ उसके विपरित पशिष्ट दीखनेवाला व्यवहार ही चाणक्यका शिष्टाचार है। उनके मतानुसार जिस शिष्टाचारको पानेका केवल शिष्टको अधिकार है उसे दुष्टको दे देना शिष्टके प्रति अशिष्ट व्यवहार है, सत्यका द्रोह है, अन्याय है तथा दुष्टका पक्षावल. मन करना रूपी दुष्टता भी है । न्याय दण्ड ही राजदण्ड है । सम्राट् चन्द्रगुप्त चन्द्रगुप्त का प्रारम्भिक राजनैतिक जीवन पश्चिमोत्तर भारतके निवासी लगभग २० वर्षीय युवा अश्वक नामक क्षत्रिय जातिके छोटेमे अधिपति के रूपमें प्रारंभ हुआ था। अन्तमें तो वह अपनी विचक्षण प्रतिभा, देशभक्ति. तथा अनन्य साधारण विक्रम के कारण न केवल भारतका सम्राट बन गया था प्रत्युत पृथिवीका असुरभार उत्तम उतारनेवाले विष्णुका अवतार तक कहा जाने लगा था । वाराहीमात्मयोनेस्तनुभवन विधामास्थितस्यानुरूपां यस्य प्राग्दन्तकोटिं प्रलयपरिगता शिश्रिये भूतधात्री। म्लेच्छरुद्धज्यमाना भुजयुगमधुना पीवरं राजमूर्तेः स श्रीमान् बन्धुभृत्यश्चिरभवतु महीं पार्थिवश्चन्द्रगुप्तः ॥ • जैसे प्रलयमें डूबी हुई पृथ्वीने कल्पके प्रारंभमें भूरक्षासमर्थ मादिबराह भगवानकी दंष्ट्रामें माश्रय लिया था, इसी प्रकार अब म्लेच्छोंसे उद्वे. ज्यमान भूमिने जिस चन्द्रगुप्त राजाके भुजाओंमें आश्रय लिया है वह चन्द्रगुप्तरूपधारी भादि विष्णु भारतभूमिकी रक्षा करे' । इसका अर्थ यह हुमा कि पृथिवीने म्लेच्छोंके आक्रमणसे बचने के लिये विष्णुके अवतार चन्द्रगुप्तक भुजामोंकी शरण ली थी। उसे अवतार माननेका कारण ही यह था कि म्लेच्छसंहारिणी शक्ति ही भारतमें वैष्णवी शक्ति मानी जाती रही है। त्यक्तस्वधर्माचरणा निघृणाः परपीडकाः। चण्डाश्च हिंसका नित्यं म्लेच्छास्ते ह्यविवेकिनः। Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साम्राट चन्द्रगुप्त ६०१ गोमांसखादको यस्तु विरुद्धं बहु भाषते सर्वाचारपरिभ्रष्टो म्लेच्छ इत्यभिधीयते । अपना धर्माचरण त्याग देनेवाले क्याहीन, परपीडक, क्रूर, हिंसक, अविवेकी म्लेच्छ कहाते हैं । गोमांस खानेवाले मार्य मन्तव्यों के विरुद्ध बोलनेवाले माचारहीन लोग म्लेच्छ कहाते हैं । भारतीय भाषामें मनुष्य समाजमेसे मनुष्यताको विलुप्त करनेवाले लोग आततायी, असर, म्लेच्छ, राक्षस आदि नामोसे कहे जाते हैं । इन नामोंसे कहे जानेवाले शत्रुओंको आततायीके रूपमें वध्य माना गया है। मनुष्यसमाजमें जो समय समयपर अवतार भव. तीर्ण होते हैं वे इस मसुरदलसंहारिणी शत्रुविनाशिनी शक्तिको लकर ही होते हैं । यही अवतारकी परिभाषा है। यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥ ( भगवद्गीता ) भारतके लोगोंने जब कभी किसीको म्लेच्छदमन या असुरसंहार करते देखा है तब ही उन्होंने उसे अवतार नाम देकर मनुष्यसमाजमें सर्वोच्च पूज्य स्थान दिया है। इन अवतारोंके मनोंकी असुर संहार करनेवाली भावना ही विष्णु है । “भाव हि विद्यते देवः ।' विशिष्ट समाजसेवकोंका देह विराट् समाजकी सेवाका कर्मयन्त्र होनेसे समाजमें अवतार नामसे पूजा जाने लगता है । अवतार वैष्णवी शक्तिका यंत्र मात्र होता है। यन्त्रको यन्त्रीको आवश्यकता होती है। यन्त्रीके बिना यन्त्र होता ही नहीं। जब हम भारतकी भूमिले असरभार उतारने के संबन्ध में पानी कृतज्ञता प्रकट करना चाहते हैं तब चन्द्रगुप्त को विष्णु के अवतार नामसे सम्मानित करते हैं । जब हम चन्द्रगुप्तको अवतार के नामसे सम्मानित करते हैं तब उसे चाणक्यसे अलग नहीं रख सकते । जब हम चन्द्रगुप्तको विष्णुका अवतार मानते हैं तब भाचार्य चाणक्य को साक्षात विष्णु कहना पड़ता है। विप्र चाणक्य की राजनैतिक सूझबूझने चन्द्रगुप्तके देहमें माकर क्षात्ररूप धारण कर लिया था। माचार्य विष्णुगुप्तकी समस्त राजनीतिक योजनामोको मूर्त. रूप देना चन्द्रगुप्तका ही काम था। Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०२ चाणक्यसूत्राणि माचार्य विष्णुगप्त तथा चन्द्रगुप्तका यह मिलन वेद और धनुषका या ब्राह्म तथा क्षात्रशक्तियों का अभूतपूर्व संगम था। चन्द्रगुप्तके जो शौर्यवीर्य रणक्षेत्रमें अवतीर्ण हुए थे और वहां जो उसने म्लेच्छोन्मूलन किया था उनके साथ पदपदपर चाणक्यकी प्रतिभा लगी हुई थी । वास्तवमें चन्द्रगुप्त चाणक्यके हाथका यन्त्र मात्र था।' निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन्' वाली घटनाने एक बार भारतमें फिर अपनी पुनरावृत्ति की थी। चाणक्य यन्त्री थे और चन्द्रगप्त उनके हाथका यन्त्र था। चन्द्रगत की चारित्रिक श्रेष्ठताने उसकी इतनी बड़ी सहायता की थी जो पैकडों सेनाओंसे भी नहीं हो सकती थी। उसकी चारित्रिक श्रेष्टताने शत्रुराज्यों तक की प्रजाको उसका भक्त बना दिया था। इससे उसे साम्राज्यविस्तार में अकथनीय सहा. यता मिली थी। कभी कभी विपत्तियां भी संपत्ति बरसाने लगती हैं। विपत्तियां सदा विनाश ही के लिये नहीं आतीं। सिकन्दरने जो भारतपर माक्रमण किया था, वही भारतमें चाणक्य तथा चन्द्रगुप्तके अवतारोंकी जोडीके प्रकट होनेका कारण बना था और उसी माक्रमणने भारतीय साम्राज्य के निर्मागका बीज भी बोया था । यदि सिकन्दरने भारत पर आक्रमण न किया होता तो नहीं कहा जा सकता कि चाणक्य और चन्द्रगतकी जोडी मार. तको मिलती या न मिलती। इस दृष्टि से तो यह माक्रमण भारतके लिये एक महातरदान बन गया था। यह घटना हानिसे लाभ दिलानेवाली बन गई थी । सिकन्दरके प्राक्रमणने आर्य भारतकी प्राचीनतम मार्यसभ्यताके साथ पाश्चात्य अनार्य बर्बरताका संघर्ष उत्पन्न कर डाला था। चन्द्रगुप्त नंद वंशका नहीं था मुद्राराक्षस नाटकके निम्न उद्धत प्रकरण देखनेसे मानना पडता है कि उसका नन्दोंसे कोई कौटुम्बिक सम्बन्ध नहीं था । उसे जो नन्दवंशका दाप्तीपुन कहा जाता है वह मिथ्या कल्पनामात्र है। Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रगुप्त नंद वंशका नहीं था ६०३ १ अहो राक्षसस्य नन्दवंशे निरतिशयो भक्तिगुणः । स खलु कस्मिाश्चिदपि जीवति नन्दान्वयावयवे वृषलस्य साचिव्यं ग्राहयितुं न शक्यते । (अंक ) राक्षस नन्दकुल में अत्यन्त स्नेह रखता है। वह निश्चय ही नंदवंशके किसी भी व्यक्ति के जीतेजी चन्द्रगुप्तका मंत्री नहीं बनाया जा सकता। २ राक्षसः- उत्सन्नाश्रयकातरेव कुलटा गोत्रान्तरं श्रीर्गता। (अंक ६) लक्ष्मी आश्रयहीन कुलटासी बनकर दूसरे गोत्र ( चन्द्रगुप्त के गोत्र) में चली गई । अर्थात् चन्द्रगुप्त नन्द गोत्रका नहीं था। ३ वज्रलोमा-- नन्दकुलनगकुलिशस्य मौर्य कुलप्रतिष्ठा पकस्य आर्यचाणक्यस्य । ( संक ४) अजेय नन्दकुलरूपी पर्वत को भी छिन्नभिन्न कर डालनेवाले विनाशक वज्र तथा मौर्यकुलके प्रतिष्ठापक मार्य चाणक्यका इससे भी यह सिद्ध होता है कि यह नन्द वंशका नहीं था । ४ राजा ( चन्द्रगुप्तः ) किमतः परमपि प्रियमस्ति? राक्षसेन समं मैत्री राज्ये चारोपिता वयम् । नन्दाश्चोन्मूलिताः सर्वे किं कर्तव्यमतः परम् ॥ अंक ७-१७ ) राजा ( चन्द्रगुप्त ) कहने लगा- गुरुवर चाणक्य ! इससे अधिक और क्या प्रिय हो सकता है। आपने राक्षससे मैत्री करा दी, मुझे सम्राट् बना दिया, सब नन्दों को नष्ट कर डाला। इसके पश्चात् अब करना ही क्या है ? ५ चन्द्रगुप्त की राक्षससे प्रथम भेंट के समय राक्षसका व्यवहार बताता है कि उसने तब युवक मौर्य समाट्को प्रथम वार ही देखा था। यदि चन्द्रगुप्त मगधवासी तथा नन्द वंशका होता तो राक्षपको उससे पहले से ही पूर्ण परिचित होना चाहिये था। उसे उसको देखकर आश्चर्यान्वित नहीं होना चाहिये था। Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि राक्षसः ( विलोक्यात्मगतम् ) सत्यं अये अयं चन्द्रगुप्तः ? अंक ७ ) ६०४ सचमुच क्या यही चन्द्रगुप्त है ? ६ सिकन्दर के आक्रमणके समय चन्द्रगुप्त पश्चिमोत्तर भारत में था और ईरान जाकर उससे लडा था । वहां वह सिकन्दर विरोधी विद्रोहका नेतृत्व कर रहा था । वह उन दिनों कठिनतासे बीस वर्षका था । वह इतनी छोटी अवस्था में मगध से जाकर वहां इतने प्रभावशाली काम कभी नहीं कर सकता था । यदि वह मगधनिवासी होता तो यह गंभीर प्रश्न होता है कि इस बीस वर्षके युवकने सिंधु नदीके पश्चिमकी सब जातियों को थोडे समय में कैसे संगठित कर लिया ? सुदूर मगध से आये युवकके लिये सिन्धक आसपास के गणराज्योंका इस प्रकार अभूतपूर्व ढंगका भात्मसमर्पण समझ में आनेवाली बात नहीं है । वास्तविकता यह है कि इन लोगोंने अपने में से ही एकको शक्तिशाली पाकर उसके प्रति आत्मसमर्पण कर दिया था जो संयोग से चन्द्रगुप्त था । इस प्रकार वह सिंधु नदीके आसपास कहींका निवासी था । ७ जब चन्द्रगुप्तकी सेनाओंने मगध पर आक्रमण किया था तब उसके साथ यवन, पारसीक, बाल्हीक, काम्बोज सेनायें भी लडने के लिये आयी थीं। यदि वह मगधका निवासी होता तो इतनी छोटी अवस्थामें उसका इन प्रदेशोंसे सेना पा लेने योग्य प्रभाव होने की बात सहसा समझ में नहीं भाती । अस्ति तावत् शक - यवन - किरात - काम्बोज - पारसीकबाल्हीक प्रभृतिभिः चाणक्य-मति परिगृहीतैः चन्द्रगुप्तपर्वतेश्वरवलः उदधिभिरिव प्रलयोच्चालितसलिलैः समन्तात् उपरुद्धं कुसुमपुरम् । ( अंक २ ) 6 चन्द्रगुप्त तथा पर्वतेश्वरकी प्रलय में उछलते जलवाले सागरोंके समान चाणक्य बुद्धि-संचालित शक, यवन, किरात, काम्बोज, पारसीक, बाल्हीक आदि सेनाओं ने कुसुमपुरको चारों ओर से घेर लिया है। इन सब वर्णनों से स्पष्ट है कि चन्द्रगुप्त नंद वंशका नहीं था । ' Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रगुप्त नंद वंशका नहीं था चन्द्रगुप्तके शासन के विषयमें पाश्चात्य ऐतिहासिकोंके लेख तथा चन्द्रगुप्तकी राजसभामें सेल्यूकसकी ओरसे दूत के रूपमें नियुक्त होकर बहुत दिन भारत में रहनेवाले मेगास्थनीजके विवरण ही प्रमाण रूपमें मिलते हैं। उन वर्णनोंके अनुसार चन्द्रगप्तका राज्य सुव्यवस्थित राज्य था और प्रजा सुखी थी। प्रजाकी सुखसमृद्धि तथा शान्ति बता रही थी कि राष्ट्रमें चन्द्र • गुप्तका व्यक्तिस्व राज्य नहीं कर रहा था किन्तु चन्द्रगप्तका माराध्य न्याय ही इस विशाल साम्राज्यको चला रहा था। उस समय भारतमें चोरी, डाके, लुण्ठन, न्यभिचार, देशद्रोह, चाटुकारिता, चुगली, ईर्ष्या, द्वेष, मिथ्या, महत्वाकांक्षा, प्रभुतालोभ नहीं था तथा मिथ्या प्रचारोंसे जनताको धोका देने तथा लोकमतका गला घोटनेके लिये पत्रकारिता तथा नेतापन नामवाली ठगीके व्यवस्था व्यवसायका तो नाम या चिह्न तक नहीं था। चन्द्रगुप्त निश्चित समयपर न्यायालयमें उपस्थित होकर न्याय की सुरक्षा तथा अन्याय मिटाने का सन्तोष स्वयं लिया करते थे। मेगास्थनीजके वर्णनके अनुसार चन्द्रगुप्त इतने कर्तग्यलीन रहते थे कि दिन में सोते तक नहीं थे । न्यायालय में प्रतिदिन नियमसे जाकर वहाँ घण्टों बेठ. कर काम करते थे । जनसाधारण स्वयं उनके समक्ष उपस्थित होकर अपने अभियोग उपस्थित किया करते थे । प्रजाको चन्द्रगुप्तके सम्मुख उपस्थित होने के लिये किसी विचीलियेको किसी प्रकारको घुस नहीं देनी पडती थी। प्रजाका चन्द्रगुप्तसे व्यक्तिगत संपर्क होने में कोई रोकटोक नहीं थी। चन्द्र गप्तकी दिनचर्या बताती है कि दिनभर शासनके कामों में लीन रहता था। वह ब्राह्ममुहूर्तमें शयन त्यागकर सबसे प्रथम राजमहलकी देखभाल करके न्यायालयमें जाया करता था। उस समय वहां न्यायार्थी लोग उपस्थित हुमा करते थे। उनसे मिलने के लिये किसीको अनुचित प्रतीक्षा नहीं करनी पडती थी। किसी भी दर्शकके समयका अपव्यय न होनेके लिये उसकी बातपर ध्यान देकर उसे सन्तुष्ट किया जाता था । उसके पश्चात् वे स्नानवन्दनादि करके भोजन करते थे। मध्याह्नके समय मन्त्रियोंके शासन विभागों की देखभाल तथा उनसे परामर्श करते Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि थे। इसके पश्चात् दो घण्टे खेल मादिसे चित्त विनोद किया करते थे। तीसरे पहर सेनाकी देखरेख करके सायंकालको राजामों तथा राजदूतोंसे मिला करते थे। वे राजकार्य में भ्रान्ति या टाल कभी नहीं करते थे। उन्होंने साम्राज्यकी शक्तिवृद्धि तथा जनसाधारणकी सुख समृद्धि के लिये बहुतसी विशाल योजनाओंको कार्यरूपमें परिणत किया था। भारतकी चारों दिशाओंमें छायावाले वृक्षोंसे भाच्छादित विशाल राजमार्ग बनवाये थे जिनपर थोडी थोडी दूरपर कूप तथा पान्धशालाये बनवाई थी। राज्यामर याता. यातकी सर्वत्र सुव्यवस्था थी। खेतों में जलसिंचनका उत्तम प्रबन्ध था । उन्होंने सौराष्ट्रको सुदर्शन नामक झोलके समान बहुतसो झोलें तथा नहरे बनवाई थीं। पाटलिपुत्रकी महास्तिकाओंकी शोभा संसारभरमें उत्तम यो । चन्द्रगुप्त ने नापने तोलने के बाट सारे देश में सुव्यवस्थित कराये थे। न्यवसायकी सगमताके लिये सोने चांदीकी मुद्रा, यातायातकी सुविधा, मंडी बाजार मादिकी सुव्यवस्था भी की थी। अन्तर्राष्ट्रीय व्यापारकी उन्न. तिका भी सुप्रबन्ध किया था । जलाशय खुदवाने, खानों तथा जंगलोंकी उपजको उचित ढंगसे निकलवाने, पशुओंकी जाति ( नसल ) को उन्नत करने पर भी ध्यान दिया था। मनुष्यों तथा पशुओं की चिकित्साके लिये चिकित्सालय तथा मातुरालय बनवाये थे। चन्द्रगुप्तका विशाल हृदय अतिवृष्टि, अनावृष्टि, टिड्डी, चूहे आदि प्राकृतिक प्रकोपोंके विरुद्ध प्रबन्ध था। मनाथ बच्चों, स्त्रियों तथा दरिद्रोंका दुःख मिटाने के लिये सब समय सन्नद्ध रहता था। चन्द्रगुप्तने राष्ट्रियशिक्षाके विस्तारका विभाग अपने ही हाथों में रक्खा था। उनका शासनदण्ड अन्यायकी उत्पत्ति रोकनेके लिये सदा उद्यत रहता था। इस कामके लिये उन्होंने स्थान स्थानपर न्यायालय खोले थे जिनमें भाजके न्यायालयों ( कचहरियों ) की भांति न्याय बचा नहीं जाता था किन्तु न्याय किया जाता था। मौर्य कालमें न्यायपर बहुत बल दिया जाता था। जैसा कि आचार्य कौटल्यने अपने अर्थशास्त्र में लिखा है कि राज्यकी नींव न्याय पर ही आश्रित है । न्यायके मागे राजका पुत्र तथा शत्रु दोनों एक समान हैं। Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रगुप्त नंद वंशका नहीं था ६०७ दण्डो हि केवलो लोकं परं चमं च रक्षति राज्ञः पुत्रे च शत्री च यथादोषं समं धृतः । अनुशासद्धि धर्माण व्यवहारण संस्थया न्यायेन च चतुर्थन चतुरन्तां महीं जयेत् । ३-१ दण्ड अकेला ही इस तथा परलोककी रक्षा करता है। वह सुप्रयुक्त होने पर प्रयोक्ताको उभयलोकका सुख भोग देता है, यदि वह पुत्र और शत्रुमें अपराध अनुरूप निर्विशेष भावसे प्रयुक्त किया जाय । धर्मानुसार साक्षी वाक्यानुसार लोकाचारके अनुसार तथा न्यायानुसार लोकको न्याय. मार्गपर रखनेवाला राजा चतु:समुद्रा भूमिको प्राप्त कर सकता अर्थात सार्वभीम राजा बन सकता है ।। पाश्चात्य इतिहासकाहोंने चन्द्रगुप्तको मुक्त कंठसे जगतका सर्वश्रेष्ठ सम्राट स्वीकार किया है। अधिक विस्तार में न जाकर संक्षेपमें यही कहना पयास होगा कि चन्द्रगुप्त चाणक्य के अर्थशास्त्रका मूर्तिमान भादर्श था और उसकी राज्यव्यवस्था सर्वांगसुन्दर थी। उसकी राज्यव्यवस्थाकी सवागसुन्दरताका प्राण या मुख्य कारण चन्द्रगुप्त का मनथक परिश्रम कर्तव्यनिष्ठा तथा प्रजा वात्सल्य था। 'प्रजाः पुत्रानिवौरसान् । ' राजा प्रजाके लिये सन्तान के समान स्नेह रक्खे यही मादर्श राजचरित्र है । चन्द्रगुप्त इस आदर्शका मूर्तिमान दृष्टान्त था। यद्यपि उस समय न तो माधुनिक ढंगके वैज्ञानिक आविष्कार थे और न शासनदण्डको सुदूर राष्ट्र के व्यक्तिकी रक्षाके लिये प्रत्येक न्यायार्थी अत्याचारिताके पास पहुँचानेवाले आधुनिक साधन उपलब्ध थे तो भी उन्होंने अपनी राज्यव्यवस्थामें लोककल्याणकारिणी, नवनवोन्मेषशालिनी प्रति. भाके बलसे इतनी नवीनतम सुविधायें पैदा कर ली थीं कि उसके लिये इतिहास उनकी शतमुखसे प्रशंसा कर रहा है। भारत के इस छोरसे उस छोरतक सुखशान्ति बरस रही थी। घरबार, राह, घाट आदिमें सर्वत्र नैतिकताका बोलबाला था। चन्द्रगुप्तकी सुव्यवस्थाके सम्बन्धमें इतिहास Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०८ चाणक्यसूत्राणि विशारद लोग तो यहांतक कहते हैं कि देशमें चोरी डाकोंका नामतक शेष नहीं था । लोग चोरों तथा डाकुओं को भूल गये थे। लोग घरोंमें तालेतक लगाने की मावश्यकता नहीं मानते थे । ऐसी परिस्थिति में यदि कभी चोरी जैसी अस्वाभाविक घटना हो जाती थी तो राज्यव्यवस्थाको ही उस चोरीका अपराधी माना जाता था। गोतमधर्म सूत्रोंमें लिखा है कि क्षतिग्रस्त व्यक्तिकी हानि राजकोषसे पूरी की जाय । उस समय जो प्रजासे राज कर लिया जाता था वह राजाके वेतनके रूपमें होता था । वह आधुनिक ढंगका प्रजाके जीवनका वीमा था। यदि राज्यव्यवस्था किसीके अपहारक लुण्ठनकारी या धातकका पता लगाने में असफल रहती थी तो वह पाप राज्यव्यवस्थाको अपने सिर लेना पड़ता था और प्रजाकी धन, जन, हानि राजकोषसे भरनी पडती थी। बताहये शासन विभागका इतना महान उत्तरदायित्व होनेपर अन्याय अपरिशोधित कैसे रह सकता था? चन्द्रगुप्त इन्हीं सब प्रबन्ध सम्बन्धी विशेषताओंके कारण अपने समयके नहीं अपने इधर उधर दो तीन सहस्त्रवर्ष तकके राजामों में सबसे विलक्षण ऐतिहासिक पुरुष था। उसके पास कोई मानुवंशिक बडा राज्य नहीं था। वह किसी साम्राज्यका उत्तराधिकारी नहीं था। वह तो साम्राज्यका निर्माता था। उसने अपने बाहुबलसे केवल चौवीस वर्षमें इतने विशाल साम्राज्यका निर्माण किया और लगभग चौवीस वर्षतक उसपर निष्कंटक शासन किया । उसने अपनी युवावस्थामें ही सम्राटपद पा लिया था। सुविश्रब्धैरंगैः पथिषु विषमेष्वप्यचलता चिरं धुर्येणोढा गुरुरापि भुवो यास्य गुरुणा धुरं तामेवोच्चैनववयसि वोढुं व्यवसितो मनस्वी दम्यत्वान् स्खलात न तु दुःखं वहति च । अंक ३-३ ( मुद्राराक्षस ) Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रगुप्त नंद वंशका नहीं था ६०९ इनके प्रौढ गुरु चाणक्यने जो गुरुभार संभाल रक्खा था उसे ये अपने नवयौवनमें ही बडी सुन्दरतासे संभाल रहे हैं और विशेषता यह है कि कभी पथच्युत तथा खिन्न नहीं होते । सिकन्दरकी विजयके समय तो ये शैशव और यौवनके मध्य में थे । मगधविजयके समय भी युवा ही थे। मगधविजयके पश्चात् चन्द्रगुप्तने भारतके अन्य बहुतसे भागोंपर भी विजय पा ली थी। उनसे युद्धस्थलसे अलग नहीं रहा जाता था। ये अपने हाथी. पर बैठकर सेनाके अग्रभागमें रहकर युद्ध किया करते थे। वे अपनी वीरता तथा साहसके कारण अपनी युवावस्थासे भी पहले पहले तो सिकन्दरपर फिर सेल्यूकसपर विजय पाने के कारण न केवल भारत तथा पंजाबकी वीर जातियोंपर प्रत्युत अपने साम्राज्यान्तर्गत परशियन यवन तथा मध्य एशियाकी अन्य वीर जातियों पर भी अपना पूर्ण प्रभाव स्थापित करनेमें समर्थ हुये थे। वे केवल विजेता ही नहीं प्रत्युत एक सफल शासक भी थे। राशि धर्मणि धर्मिष्ठाः पापे पापाः समे समाः। राजानमनुवर्तन्त यथा राजा तथा प्रजाः ।। (मनु) राजसिंहासनारूढ मादर्श नागरिक चन्द्रगुप्तके श्रेष्ठ चरित्रका उदाहरण प्रजामें पूरा पूरा प्रतिबिम्बित हुमा था। चन्द्रगुप्तके वरेण्य राजचरित्रका प्रजापर इतना सुन्दर प्रभाव पडा था कि प्रजा भी अपने राजाका चारित्रिक उदाहरण देख देख कर अपने व्यक्तिगत कल्याणको समाज कल्याणमें विलीन करना सीख गई थी और मुक्तहस्त होकर अपनी धनजन बुद्धिशक्तिको सार्वजनिक कल्याणमें समर्पित कर देने में अपनेको कृतार्थ मानने लगी थी। चन्द्रगुप्त को अपने साम्राज्य विस्तारमें जितनी बडी सहायता अपनी चारि. त्रिक श्रेष्ठतासे मिली थी उतनी और किसी सेना मादिसे नहीं। यह सर्वथा सत्य है कि यदि राजा उत्साही, कर्मण्य, बुद्धिमान तथा समाजसेवक हो तो मनुकरणमार्गी प्रजा अस जैसी बने विना नहीं रह सकती। 'स्वामिसंपत् प्रकृतिसंपदं करोति ' ( चाणक्यसूत्र १२)। इसके विपरीत यदि राजा अनुत्साही, अकर्मण्य, निर्बुद्धि और भात्मम्भरि हो तो अनुकरणमार्गी ३९ (चाणक्य.) Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१० चाणक्यसूत्राणि प्रजा अवश्य ही उस जैसी बनकर रहती है । अकर्मण्य सुखिया (भारामतलब ) राजा शत्रओंको आक्रमणका निमन्त्रण देनेवाला बन जाता है। इस दृष्टिसे राजाको अपने चरित्रके संबन्धमें पूरा सतर्क और सावधान रहना चाहिये। कौटलीय अर्थशास्त्र में राजाके कर्तव्य जिस रूप में वर्णित है उसमें प्रजाशक्तिका अक्षुण्ण रहना ही राजशक्तिका मूलाधार मान गया है। दूसरे शब्दोंमें कौटल्यका राजा ही असंख्य देशवासियों की हिताकांक्षाका एकीभूत स्वरूप तथा प्रजातंत्रका मुखिया अगुभा या नेता है। राज्य के प्रत्येक व्यक्तिका हित तो कौटल्य के राजाके व्यक्तिगत हित में तथा कौटल्य के राजाका व्यक्ति. गत हित राष्ट्र के प्रत्येक व्यक्तिके व्यक्तिगत हितमें सम्मिलित है। कौटत्यके राजाको ऐसी कोई भी व्यक्तिगत सुखसुविधा भोगनेका अधि. कार नहीं है जिसका प्रजाहित के साथ विरोध हो । प्रजाका धनशोषण करके राज्याधिकार भोगनेवाला राजा तो कौटलीय अर्थशास्त्र के अनुसार देशद्रोही हैं। देशद्रोही राजाको राज्यच्युत करके उसका अस्तित्व मिटाकर राष्ट्रको देशद्रोह नामक कलंकसे मुक्त रखना प्रजाका अधिकार स्वीकार किया गया है। आविनीतस्वामिलाभादस्वामिलामः श्रेयान् ।। (चाणक्यसूत्र १५) भयोग्य व्यक्तिको राजा बनानेकी अपेक्षा किसीको राजा न बनाकर जन तांत्रिक ढंगसे राजव्यवस्था कर लेना अच्छा है । इसका अर्थ यह हुमा कि आदर्श चरित्र व्यक्तिको ही राजा बनाना चाहिये । सम्राट चन्द्रगुप्त कौटल्य वर्णित इस राजचरित्रका षोडशकला पूर्ण भादर्श था। यों भी कह सकते हैं कि कौटल्यवर्णित राजचरित चन्द्रगुप्तके ही व्यक्तित्वका एक सुन्दर चित्रण है। यदि आप इस सत्यकी साक्षी लेना चाहें तो सद्वंश जात अलौकिक बुद्धि मान, सुदीर्घदी धार्मिक वीर, उत्साही, रणकुशल, कृतनिश्चय, स्वार्थत्यागी, निरन्तर कर्तव्यतस्पर सम्राट चन्द्रगुप्तका कन्याकुमारीसे हिन्दूकुशतक तथा मकरानसे ब्रह्मदेशतक अपने भुजबल तथा बुद्धि बलसे बनाया विस्तृत भारत साम्राज्य इस सत्यको प्रमाणित करने के लिये पर्याप्त है। Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास लेखकोंका उत्तरदायित्व ६११ इतिहास लेखकोंका उत्तरदायित्व प्रसन्नताकी बात है कि हमारे देशके कुछ इतिहास-संशोधक प्राचीन मिथ्या प्रचारोंके छिपाये अबतक प्रकाश में न आये हुए चाणक्य चन्द्रगुप्तसे सम्बन्ध रखनेवाले समुज्ज्वल चरित्रको प्रकाशमें लाये हैं । परन्तु हमारी दृष्टिमें उनकी इस साहित्यसेवामें कुछ संशोधनीय त्रुटि रह गई हैं। उनकी इस साहित्यसेवासे कुछ इने गिने साहित्यसेवी ही अनुगृहीत हो पाये हैं। इन लोगोंने इस युगलमहापुरुषों के चरित्रसंबन्धी गुप्त सत्योंका जो उद्घा. टन किया है उससे इन्होंने न तो इन दोनों महापुरुषोंपर ही कोई कृपा की है और न अबसे सवादो सहस्त्र वर्षपूर्ववाले भारतीय मनुष्य समाजको ही अनुगृहीत किया है। नवीन साहित्य की रचना केवल वर्तमान तथा भावी समाज कल्याणकी दृष्टिसे की जाती है। इसलिये इन लोगों के इतिहास लेखन नामक इस प्रयत्नका वर्तमान तथा भावी भारतका कल्याण करना ही एकमात्र उद्देश्य होना चाहिये । इतिहास संशोधक कहलाना मात्र लेखन-कलाकी सार्थकता नहीं है किन्तु साथ ही अपनी वर्तमान तथा भावी पीढीको राजनैतिक या चारित्रिक सत्परामर्श देकर अनुगृहीत करके धन्य होना ही प्रन्थ-लेखनकी सफलता है । स्वभावसे प्रश्न उत्पन्न होता है कि इन लोगोंकी इन महत्व. पूर्ण ऐतिहासिक खोजोसे वर्तमान या भावी भारतको कोई लाभ पहुंचाया नहीं ? यदि पहुंचाते तो किस दृष्टि से और नहीं पहुंचा तो उसका कारण इस इतिहास लेखनकी कौनसी त्रुटि हुई? इन सब बातोंकी मालोचना करना ही इतिहास संशोधकोंकी साहित्यसेवाका लक्ष्य होना चाहिये। इसलिये होना चाहिये कि इन दोनोंको लैखिक या मौखिक श्रद्धांजलि अर्पण कर देना ही हमारे इस अभागे देशके लिये पर्याप्त नहीं है। इन दोनों महापुरुषोंने समाजसेवाके जिस कामको जीवनका कम्य तथा उद्देश्य मानकर इस मुमूर्षु देशको संजीवनी सुधा पिलाई थी और इसका जीर्णोद्वार किया था, क्या हमारे देशके इतिहास शोधकोंकी साहित्यसेवा भारतवासियोंके Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१२ चाणक्यसूत्राणि मनोंमें इनकी समाजसेवाको अपनानेकी प्रवृत्ति पैदा कर रही है ? यह निश्चित है कि इन दोनोंकी देशसेवकताको जान लेने या इन दोनोंको किन्हीं रंगमंचों के रूपमें देख लेनेमात्र से भारतवासियोंकी देश सेवक बन जाना संभव नहीं है । निश्चय ही इन लोगोंकी साहित्यसेवाका सार्वजनिक कल्याणके साथ कोई सम्बन्ध दिखाया जाना चाहिये था जो दिखाया नहीं गया । हम अपने देश के साहित्यिकोंसे पूछना चाहते हैं कि आप लोग चाणक्य चन्द्रगुप्तसम्बन्धी जिस सत्यको प्रकाशमें लाये हैं उसे समाजोपयोगी क्रियात्मक रूपमें पहले तो समाज के सामने उपस्थित करना और फिर उसे क्रियात्मक रूप देना भी आपका ही कर्तव्य है या नहीं ? या इसके लिये देशको अलग कोई प्रबन्ध करना होगा ? यदि आप लोग उसे क्रियात्मक रूप देनेके साथ अपना कोई संबन्ध रखना नहीं चाहते तो हमें कहने दीजिये कि आपकी साहित्यसेवा निर्वीर्य और निष्फल है । वास्तविकता के संसार में किसी सत्यको अनुपयोगी रद्द जाने देकर उसे केवल प्रकाशमें ले आनेवाली फल्गु साहित्यसेवाका कोई मूल्य नहीं है । साहित्यसेवा ऐसी होनी चाहिये कि वह फलप्रसू हो, और वह जिस सुपुप्त समाजको लक्ष्य में रहकर की गई हो उसे झकझोरकर जगाकर खडा कर दे । सब ही उसे साहित्यसेवाका यश दिया जा सकता है । बरसाती कीडोंके समान साहित्यसर्जन कर देना मात्र साहित्यसेवा नहीं है किन्तु देशके मनको दबा बैठनेवाले अज्ञानपर शस्त्रक्रिया करके देशको मानसिक दृष्टि से नीरोग बननेका अवसर देना ही साहित्यसेवाकी धन्यता है । किसी सत्यको समाजोपयोगी बना देनेपर ही साहित्यिक साहित्यिक कहानेका अधिकारी बनता है । साहित्यसेवीका मुख्य काम किसी सत्यको समाजोपयोगी बना देना ही है। सच्चा साहित्यसेवी वही है जो समाजका अच्छेद्य अंग है | सच्चे साहित्यसेवीको समाजके हानिलाभ तथा मानसिक उत्थान पतन से हर्ष और विषाद दोनों होते हैं और इसीलिये वह अपने समाज में Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास लेखकोंका उत्तरदायित्व ६१३ जिस सत्यकी न्यूनता पाता है उसीको अपने समाजका अंग बनाने में अपनी संपूर्ण शक्ति लगा डालता है । सच्चे साहित्यिककी समाजसेवा कटुसत्यों को प्रकाश में लाने तथा वर्तमानमें देशको पतित बनानेवाले शक्तिशाली असत्य के खण्डनके संकट में पडनेसे बचकर अपनी पुस्तकों में केवल अर्धसत्य लिख देने मात्रसे पूरी नहीं होती । सच्चा साहित्यकार जिस सत्यको अपने समाजसे पलवाना चाहे उसे समाजसे पलवाना तथा उसे स्वयं भी पालना अपना कर्तव्य मानता है। मार्य चाणक्य इसी अर्थ में अर्थशास्त्र ग्रन्थ के साहित्यकार के रूपमें हमारे सामने उपस्थित हैं। मार्य चाणक्य प्रत्येक सच्चे ग्रन्थकारके भादर्श हैं। सन्होंने अपनी लेखनीसे चो कुछ लिखा है वह उन्होंने करके भी तो दिखाया है । भो हमारे देशके साहित्यकारो ! भार लोग आर्य चाणक्यकी साहित्यसेवाके साथ अपनी साहित्यसेवाकी तुलना तो करके देखिये कि माप लोगोंने अपनी साहित्यसेवामें उसे उपयोगी न्यावहारिक रूपमें उपस्थित करने तथा उसे वर्तमानमें उपयोगी बनानेवाला पहल अपूर्ण क्यों रख दिया ? हमारे कुछ इतिहास संशोधकोंने सवादो सदसवर्ष पूर्व के इतिहासके भानुपूर्वी समाचार न देनेवाले तत्कालीन लेखकों के संबन्धमें खेद प्रकट किया है । इन लोगोंने इस संबन्धमें जो खेद प्रकट किया है और उस समयके ऐतिहासिकोको सत्य समाचार न देने का दोषी ठहराया है वह सत्यका आविष्कार करना चाहनेवाले वर्तमान ऐतिहासिकों के लिये स्वाभाविक है । परन्तु सोचना तो यह है सवा दो या ढाई सहस्रवर्ष तो बहुत लम्बा काल है । पाठक अन्तर्दष्टि से देखें कि मापके देखते देखते वर्तमान भारतका इतिहास भी तो मिथ्या आवरणसे ढका जा रहा है और लोगों से छिपाया जा रहा है। सबसे तीस वर्ष पूर्व स्वतंत्रता आन्दोलनका इतिहास तथा सात वर्ष पूर्व राज्यलोलुप देशद्रोहियोंकी वे राज्यलिप्सु प्रवृत्तियाँ भी तो वर्तमान तथा भावी पीढ़ियों से गुप्त रक्खी जा रही हैं जिन प्रवृत्तियोंका Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१४ चाणक्यसूत्राणि दुष्परिणाम भाजके भारतको सर्वत्र सुतीक्ष्ण कटुताके साथ भोगना पड रहा है और भावी भारतको न जाने कबतक भोगना पडता रहेगा। भाजके भारतीय इतिहाससेवी लोग इस बातका उत्तर दें कि वर्तमानमें की जाती हुई इस ऐतिहासिक राष्ट्रिय चोरीके अपराधके प्रकाशमें न आनेका उत्तरदायित्व आप लोगोंपर नहीं है तो किसपर है ? ऐतिहासिकोंका वर्तमान कर्तव्य एक भोर तो चाणक्यकालीन भारतका गौरवपूर्ण इतिहाप्त है और दूसरी ओर वर्तमान भारतकी देशद्रोही असामाजिक प्रवृत्ति हैं। इन परस्पर विरुद्ध प्रवृत्तियों की उपस्थितिमें इतिहासपर लेखनी उठानेवालोंका कर्तव्य है कि वे भारतके गौरवमय अतीतको तथा अध:पतित वर्तमानको तुलना. स्मक ढंगसे देशके सामने लायें, देश के असामाजिकता रोगकी औषधके रूपमें चाणक्य चन्द्रगप्त के वास्तविक आदर्शको उसके सामने उपस्थित करें और पूरा बल लगा दें कि देश उस आदर्शको ग्रहण करके मात्मसुधार करे। जबतक हमारे साहित्यिक लोक अपनी साहित्यसेवामें इस दृष्टिकोणको नहीं अपनायेंगे तबतक किसी भी साहित्य सेवीको साहित्यसेवा ऊखर-वपन या वन्ध्य प्रयत्न हुए बिना नहीं रहेगी। वर्तमान ढंगके साहित्यिकका साहित्य विचारशील पाठकके मनमें चाणक्य चन्द्रगुप्तके संबन्धमें कुछ निर्वीर्य ( अकार्यकारी ) श्रद्धामात्र उत्पन्न करके कर्तव्यहीन होकर खडा हो जाता है और अपने पाठकोंको भारतको जगानेसे संबन्ध रखनेवाला अगला कर्तव्य बतानेके संबन्धमें किंकर्तव्यमूढ होकर इस प्रकार बगले झांकने लगता है मानो इन लोगोंके साहित्यका देशके वर्तमानके सुधारके साथ कोई संबन्ध ही नहीं। देशहितैषी लोग भारतके साहित्यसेवियोंसे पूछना चाहते हैं कि क्या माप लोग अपने भारतकी सच्ची सेवा करनेकी रष्टिसे अपने इस अपराध ( सेवापराध) का परिमार्जन करनेके लिये अपनी साहित्य कलाका सदुपयोग करना अपना कर्तव्य मानेंगे? वर्तमान भारतको चाणक्य चन्द्रगुप्तके इतिहाससे सच्चे राष्ट्रसेवकका भादर्श लेना है और उसे भारत सन्तानकी सुरक्षाके लिये सुरक्षित रखना Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिकोका वर्तमान कर्तव्य ६१५ है। परन्तु जिन षड्यंत्रकारियोंने वर्तमान भारतके सरचे इतिहासको मिथ्याकी चादरसे ढक डाला है वे लोलुप लोग चाणक्य चन्द्रगुप्तकी निःस्पृह देश सेवाके मादर्शकी उपेक्षा करने में ही अपना व्यक्तिगत लाम समझते हैं । यदि देश अपनी आँखोंसे काम ले तो निश्चय ही ये लोग राज्यलोभी भौर देशद्रोही माने जाय । इन लोगोंने जनताले विश्वासघात करके राज्य हथियानेका कुदृष्टान्त ही देशके सामने उपस्थित किया है और राजा कालस्य कारणम् ' के अनुसार देशभरपर चरित्र हीनताकी छाप लगा डाली है । ये लोग तो अपनी करनी कर चुके । अब भारत के ऐतिहासिकों के सिर राष्ट्रीय भादर्शकी रक्षा करनेके कर्तव्यको करनेका अवसर मा खडा हुआ है । राट्रीय भादर्शकी रक्षा करनेका उत्तरदायित्व इन राज्यलोभी लोगोंके भरोसे पर नहीं छोडा जा सकता ! छोड दिया जाय तो देशका निश्चित भकल्याण होना है। इस समय भारत के ऐतिहासिकोका कर्तव्य है कि वे इन भादर्शघातियों का भंडाफोड करे और भारत सन्तानके सम्मुख चाणक्यकी राष्ट्र-सेवावाले निर्मल आदर्शको सदाके लिये उज्ज्वल तथा अमिट बनाकर सुरक्षित कर डाले।। हमारे देश के साहित्यसेवी जाने कि चाणक्य चन्द्रगप्तका पदानुसरण ही वीर पूजा है । किन्हीं महापुरुषोंका नाम रट लेना मात्र या उन्हें शाब्दिक अन्दांजलि अर्पण कर देना मात्र वीर पूजा नहीं है । श्रद्धेय वीर जैसा वीर बन जाना ही सरची वीर पूजा है। 'देवो भूत्वा देवं यजेत् ' जैसे देव बनकर ही देव पूजा होती है इसी प्रकार वीर बनकर वीरका गुणगान होता है । वीर बने विना वीरका गुणगान करना तो वीरताका उपहास है। साहित्यकी सार्थकता यह है कि वह समाजका सरचा कल्याण करनेवाला अभिन्न सार्थी बने और उसके हितमें रत रहे । ऐसे मादर्श साहित्यनिर्माणसे बचनेवाले साहित्यिक कुसाहित्य उत्पन्न करने के कारण देशद्रोही हैं । सिकन्दरकी नृशंसता भारतके प्राचीन तथा वर्तमान पाहिरियकोंकी दृष्टि में कठोरतम भाषामें निंदनीय है और सिकन्दरके संपूर्ण मनुष्य समा Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि जका शत्रु होने से उसे भारत के प्रवेशाधिकार न देनेवाले चाणक्य चन्द्रगुप्त हार्दिक कृतज्ञताके साथ पूज्य हैं । परन्तु माश्चर्य की बात है कि वर्तमान साहित्यिकों की आँखोंके सामने उससे भी कहीं अधिक तीव्रताके साथ निंदनीय, अपने नीतिहीन निर्णयोंसे भारतमाताके वक्षस्थलपर नृशंसताके नायक सिकन्दर जैसी ही क्रूर नृशंसता करनेवाले भारतके ही अनजलसे परिपुष्ट, राज्यलोभी, कृतघ्न, असुर लोग उन्हीं वर्तमान साहित्यिकों के द्वारा दंडनीय सिद्ध नही किए जा रहे हैं। समझमें नहीं आता कि इन साहित्य. कोंकी दृष्टि इन लोगोंसे कौनसा उत्कोच लेकर इस प्रत्यक्ष सत्यकी ओरसे अंधी हो गई है कि चन्द्रगुप्त चाणक्य के जीवनयापी भगीरथ प्रयत्नसे सुनिर्मित अखंड भारतको खंड खंड करके, उनके मादर्शको पैरोंतले रौंढकर, सिकन्दरके ही प्रतिनिधि बनकर भारतमाताके मातृत्वको कलंकित करनेवाले लोग भाज भारतके दोनों खण्डोंमें राज्याधिकारसे मतवाले होकर भारतकी छातीपर मनमाने अत्याचार बढा रहे हैं । इस गंभीर प्रश्नका उत्तर प्रत्येक सुसाहित्यिक अपने हृदयसे ले और भारतमाताके प्रति अपना कर्तव्य पूरा करे । यदि यह वह नहीं करेगा तो सिकन्दरकी नृशंस मासुरिकताको छिपाकर उसे वीर नामसे प्रचार करने वाले प्राचीन कुसाहित्यिकों जैसा अपराध वर्तमान साहित्यिकों के सिरपर भी चढा ही रहेगा। वर्तमान भारत चाणक्यने जो भारतको दक्षिण सागरसे हिमालय तक अखण्ड राष्ट्रनिर्माणका मादर्श दिया था, उसके सर्वथा विपरीत दो विद्यमान खण्डोंमें विभक्त आजके भारतका दयनीय चित्र वर्तमान भारतको राजनैतिक प्रति. भाको कलंकित करनेवाला अपमान है। आज भी भारतवासिके मनमें स्वभाव से निम्न प्रश्न उपस्थित होते हैं और अपना समाधान चाहते हैं , चाणक्यके सुयोग्य शिष्य भादर्श सम्राट चन्द्रगुप्तने राज्यशासन संबन्धी जो कुशलता दिखाई थी आजके शासनपदारूढ भारतवासीने उस कुशलताको अपनाया है या पददलित किया है ? इसका उत्तर भारतवासीको सपने विवेकसे देना है। Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्तमान भारत २ चाणक्यकालीन भारतके घर घरमें जो सुखशान्ति विराज रही थी भारत के वायुमण्डल में प्रेमकी जो मधुरध्वनि प्रतिक्षण गूँज गूँजकर देशभर सें अमृत बरसाती फिर रही थी क्या आजके भारतवासीको वह सौभाग्य प्राप्त है ? या वह उससे वंचित होकर दुर्भाग्यकी चरमसीमा में पहुंचकर हाय हाय कर रहा है ? इस प्रश्नका उत्तर भी भारतवासीको अपनी आँखोंक सामने विद्यमान समाजके चित्रमेंसे लेना है । ६१७ ३ चाणक्यने जिन देशद्रोहियोंको मिटाकर भारतकी स्वतन्त्रताको निष्कंटक बनाया था क्या आजके स्वतंत्र कहलानेवाले भारतने अपने देशद्रोही मिटा डाले ? या वे भारतकी छातीपर मूंग दल रहे हैं ? क्या आज के भारत में सुखशान्तिको निष्कंटक बनानेवाला कोई चाणक्य या चन्द्रगुप्त है ? इन प्रश्नों का उत्तर भी विचारशील भारतसंतानको अपने हृदय से लेना है । ४ क्या वर्तमान भारतने अपने पडोसी राष्ट्रको वश में कर लिया है य। अपनेको ही दो रगडते झगडते खण्डों में बांटकर पडसमें शत्रु पैदा कर लिया है ? इस बातका उत्तर भारतकी राजनैतिक सूझ बूझ पर कलंक पोतनेवाली विदेशी षड्यन्त्रकी सफलता के रूपमें सबकी आंखोंके सामने विद्यमान है । चाणक्य और चन्द्रगुप्ठ जैसे कर्मठ लोगों का इतिहास ताश और शतरंज के खेलोंके समान कुछ समय काटनेके लिये पढनेकी वस्तु नहीं है । इतिहासपुराणं पंचमं वेदानां वेदः । इतिहास तथा पुराण ज्ञानदाता वेदोंमें पांचवां वेद है । इतिहासपुराणाभ्यां वेदं समुपबृंहयेत् । बिभेत्यल्पश्रुताद्वेदो मामयं प्रहरिष्यति ॥ वेदको इतिहासपुराणोंके द्वारा समझनेका प्रयत्न करो । वेद इतिहासपुराणोंसे अपरिचितोंसे भय मानता है कि यह मुझपर प्रहार करेगा | यह मुझे न समझकर अनर्थं करेगा । Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१८ चाणक्यसूत्राणि इतिहाससे देशके वर्तमानको उज्ज्वल भूतसे तोलकर आत्मनिरीक्षण करने का अवसर मिलता है उससे अपनी भूलें सुधारने तथा भूतकालीन मदुपायोंका अवलम्बन करनेका सुअवसर हाथ माता है । इतिहाससे पाठ. कोंको उपयोगी बातें अपनाने का अवसर प्राप्त होता है। इन दोनों महापुरुषोंका इतिहास भाज सवादो सहन वर्ष बीत जानेपर भी अपने सदा नवीन रूपमें संसारभरको ज्ञानज्योति देते रहने के लिये सदा ही मार्ग दीपके रूप में खड़ा है और रहेगा। इन दोनों महाशयोंके सम्मुख योरोपके हिरणाकुश सिकन्दर जैसे असुरका आक्रमण उतना चिन्तनीय विषय नहीं था जितना भारतमें देशप्रेम या मनुष्यताका अमाव उनकी चिन्ताका विशेष विषय बन गया था। प्रभुताका लोभी ही देशद्रोह है, देशद्रोह नामके रोगका जो मूलस्वरूप है वहीं तो प्रभुता लोभ है । वेदज्ञ चाणक्यने पर्वतकको उसके प्रभुतालोम. रूपी देशद्रोहका दण्ड मृत्युके रूपमें देना उचित समझा था। विदेशी आसुरी शक्तिकी सहायता या कृपासे स्वदेशका शासनाधिकार लेकर स्वदेश. वासियोंकी मनुष्यताको पददलित तथा विनष्ट करके अपनी राज्य लोलुपताको चरितार्थ करना ही तो देशके साथ द्रोह है । इस देशद्रोहका मूल व्यक्तिगत स्वार्थान्धतामें विद्यमान है। व्यक्तिगत स्वार्थान्धता मानवको दूसरे मानव के साथ प्रेमबन्धनमें आबद्ध नहीं रहने देती। अपने व्यक्तिगत स्वार्थको राष्ट्रकल्याणमें विलीन कर डालने की भावना ही राष्ट्रियता है । राष्ट्रियताके साथ न्यक्तिगत स्वार्थको संकीर्ण दृष्टिका जन्मवैर है। व्यक्तिगत स्वार्थ भावनाका नाम ही वह मात्स्यन्याय या जिसकी लाठी उसकी भैंस है जिसके संबन्धमें चाणक्यने मनुष्यसमाजको सावधान किया था। माजका भारवासी उसी व्यक्तिगत स्वार्थ भावनाके प्रभावमें भाकर मासुरी राजका माखेट बना है। मबसे सवादो सहस्र वर्ष पूर्व सिकन्दर तथा चन्द्रगुप्तने संसारके सामने दो विपरीत आदर्श उपस्थित किये थे। सिकन्दर तो भासुरीवृत्ति लेकर Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्तमान भारत ६१९ शस्त्रबलके माधारसे मनुष्यसमाजको संत्रस्त करके प्रभुतालोभी लुटेरा बनकर यूनानके राजसिंहासन पर आरूढ हुआ था । वह अपनी बीस वर्षके अवस्थासे लेकर संसारभरकी मानवता पर लगातार असंख्यों भाक्रमण करके भूमाताको रक्तसे रंगकर मानव हृदयको मर्माहत बनाकर बारह वर्ष तक अपनी हिंसक जन्तुओंकी-सी हिंस्र क्रियामोसे संसारके सामने पाश्चात्य साम्राज्यवादका दुष्ट दृष्टान्त उपस्थित करके केवल बत्तीस वर्षको अवस्थामें हाथ मलमलकर पछताता हझा संसारसे चल बसा था। इसके सर्वथा विपरीत भारतीय साम्राज्य के प्रतिष्ठापक चन्द्रगुप्तने सिकन्दरके भाक्रमणों से आहत न केवल भारतवासियों को अपितु भारतके पडौसी राष्ट्रोतकको शान्ति और सम्मानके साथ जीवन बितानेकी सविधा देनेकी पक्की विश्वस्त सान्त्वना देकर केवल चौबीस वर्षको अवधिमें विद्रोहद्दीन, स्वगुणमुग्ध, सुसंगठित साम्राज्य बनाकर मनुष्यताका संरक्षक बनकर संसारभरको राष्ट्रनिर्माणको कलाका व्यावहारिक पाठ सिखाया था। माज चन्द्रगुप्त तथा उनके निर्देशक मार्य चाणक्य को बीते लगभग सवादो सहस्र वर्ष बीत चुके । आज हम संसारमें क्या देख रहे हैं ? पाश्चात्य जगतने आजतक सिकन्दरका मादर्श नहीं छोडा । पाश्चात्य जगत् आजकल भी सिकन्दरके आदर्शको अपनाकर परराज्यलोलुपताकी पाशविक लीला करता ही चला जा रहा है और लोकसंहारक अस्त्रशनोंका आविष्कार कर करके संहारकी मूर्ति बना बैठा है। दुःखके साथ स्वीकार करना पड़ता है कि भारतने भी चाणक्यके आर्य भादर्शको पददलित कर डाला है। चाणक्य चन्द्रगुप्तकी ब्राह्मक्षात्र जोडीने भारतमें जिस शक्तिमान भारमविश्वासी साम्रा. ज्यका निर्माण किया था माज उसके स्थानपर निर्बल पारस्परिक लूटखसोट-हिंसा-द्वेषसे परिपूर्ण राष्ट्रियताहीन वैदेशिक शास्त्रवल की सहायताके प्रतीक्षक बना हुमा भारत है । भाजके भारतको राष्ट्रिय भ्रान्तिके दुष्परिजामको प्रत्यक्ष देखकर कौन विचारशील भारत सन्तान अपने को स्वतंत्र माननेका सुपना देख सकता है ? Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२० चाणक्यसूत्राणि माजका पाश्चात्यप्रभावित भारत पाश्चास्योंके सर्वक्षेत्रीय अन्धानुकरणमें ही अपना महोभाग्य मान रहा है। अनुकरण करनेवाला अपने अनुकर्तव्यका दास होता है। अपने अनुकर्तव्यका दास बन जाना हो दासताकी सर्व मान्य परिभाषा है । मनुष्यताको पददलित करनेकी प्रवृत्ति ही दास मनो. वृत्ति है । दास मनोवृत्ति ही देशद्रोह है। भारतवर्ष में जो दास मनोवृत्ति घर कर गई है यही तो भारतवासिका देशद्रोह है। पाश्चात्योंका अन्धानुकरण ही भारतवासिका देशद्रोह है । अंधा भारतवासी अपनी इस पाश्रा. स्यानुकरणी मनोवृत्तिको देशद्रोह न समझकर प्रत्युत उसीमें अपना सौभाग्य मानकर अपना कितना भकल्याण कर रहा है ? यह न समझकर इस पत. नको भी स्थान मान रहा है । यह कितने पारितापका विषय है कि भाजके भारतको अपना संविधान बनाने के लिये संस्कृति और परम्परामें से कोई ग्राह्य तत्व हाथ नही माया । जब कि पाश्चात्य जगत् के विचारशील विद्वान् चाणक्यकी राजकल्पना तथा परिननिर्माणके सिद्धान्तोंको अत्यन्त सम्मानकी दृष्टि से देखते हैं। आज चाणक्य हम लोगोंकी अज्ञानजन्य अकृतज्ञ. तास भारतमें न पूजकर विदेशी विद्वानों में पूज रहा है। भाजका भारत मनुष्यतासे हीन होकर योरोप, अमेरिकावाली उन्नतिका चरमोत्कर्ष पानेके उभयभ्रष्ट बनाने वाले सुपने देख रहा है । भाजके पाश्चात्यानुगामी भारतको यह कैसे समझाया जाय कि मनु. ध्यता ही किसी भी राष्टका प्राण या जीवनी शक्ति होती है। मनुष्यताके अभावमें समस्त भौतिक संपत्तिये मुरदेका श्रृंगार बन जाती हैं। मनुष्यतासे हीन होकर भौतिक उन्नति, राष्ट्रसेवा, विश्वशान्ति, समाजसेवा आदि नामोसे देशके मानवसमाजको ठगा ही ठगा जाता है। सेवा तो मनकी होती है । मनको शान्ति पानेकी कला न सिखाकर कुछ उज्ज्वलवेषी लोगोंका गन्दे मोहल्लों में जाकर कुछ समय झाडू लगानेका अभिनय मात्र करके दीन लोगोंसे ताली पिटवाले या जयघोष करवा लेना मात्र राष्ट्रको समतिका मार्ग दिखानेवाली सेवा नहीं है । राष्ट्रके मनका भज्ञानपनसे उद्धार करमा ही सेवा है। लोगोंके दुःखदायी अज्ञानको मिटाकर उन्हें स्वाभिमानी Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आर्यअनार्योंकी तुलनात्मक आलोचना उन्नचेता मनुष्यता-प्रेमी भन्यायके असहिष्णु बना देनेवाले ज्ञानालोक में पहुँचा देना ही राष्ट्र की सच्ची सेवा है। __ यदि भारतवासी अपना कल्याण चाहें तो वे सबसे सवादो सहस्र वर्ष पूर्व भारतमें अपनी देवीक क्रीडा कर चुकनेवाली चाणक्य चन्द्रगुप्तकी राजनैतिक प्रतिमाको हृदयसे अपनाये । आर्य अनार्य साम्राज्योंकी तुलनात्मक आलोचना तथा 'उसाव भारतीय राएको आर्यराष्ट्र न बनने देनेवाले वर्तमान, साम्यवाद, समाजवाद आदि अनार्य राजनैतिक वादोंके प्रभावसे बचनेका सुझाव अनार्य सम्राटोका अग्रणी सिकन्दर विश्वसम्राट बनने की महत्वाकांक्षा लेकर लुटेरों का विशाल दल संगठित करके, दूसरे राष्ट्रों की स्वतंत्रता छीना करता था। स्थाली पुलाकन्यायके अनुसार अपने क्षुद्र व्यक्तिगत स्वार्थासे दूसरोंकी स्वतंत्रता छीनना ही मनार्य साम्राज्योंका निर्माण करानेवाली मूल प्रेरणा थी। चाणक्यका शिष्य चन्द्रगुप्त ' ब्राह्मणेनधितं क्षत्रम् ' ब्रह्मशक्तिके नियन्त्रणमें काम करनेवाली क्षात्रशक्तिसे सुसजित मार्य सम्राटोंका प्रतीक था। उसने भारत तथा उसके पडोसके उन छोटे छोटे राज्यों को, जो स्वयं अपनी रक्षातक करने में असमर्थ थे या जो राजधर्म विहीन होकर अपनी प्रजा पर अत्याचार या लूटका ठेकामात्र लिये बैठे थे, प्रजाके प्रति कर्तव्य पालनेवाले शक्तिशाली साम्राज्यका प्रसन्न अनुवर्ती अंग बनाकर मानव समाजको सच्ची स्वतंत्रताका अधिकारी बना लिया था। जहांतक अपनी शक्ति जा सके वहांतक प्रजाकी सेवा करनेवाली वैधानिक राज्यव्यवस्थाकी स्थापना करना ही आर्य ( भारती) साम्राज्य की कल्पनाका प्रेरक था । जहाँ भनार्य साम्राज्य आततायीपनका प्रतीक है वहाँ मार्य साम्राज्य माततायीपनका प्रतिरोधक नोट-- बटलोई के एक चावलकी परखसे समस्त चावलों के परिपाक अपरिपाकको समझ लेनेकी पद्धति के अनुसार । Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२२ चाणक्यसूत्राणि तथा न्याय राज्यका संस्थापक था। जहाँ भनार्य साम्राज्य दूसरों की स्वतंत्रता छीनता पाया गया है वहाँ मार्य साम्राज्यका लक्ष्य किसीकी स्वतंत्रता छीनना नहीं था। किन्तु स्वतन्त्रताको सुरक्षित करके मानवसमाजका भाशीर्वाद और साधुवाद पाना ही उसका एकमात्र ध्येय था। मार्य साम्राज्यका उद्देश्य राष्ट्र के प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष दोनों प्रकारके चोरों तथा उन राष्ट्रकण्टकोंको निर्मूल करना था जो विश्व के स्वतन्त्र मानव परि. पारोंका विरोध किया करते थे। आर्य साम्राज्यों की समरयात्राका उद्देश्य विजित राष्ट्रोंको हताश, निराश तथा सुख सम्पत्तिहीन बना डालना नहीं था किन्तु विजित राष्ट्रोंको तुरन्त निरापद बनाकर अभय दान देकर उनकी लूट तथा उसपर अत्याचारको असंभव बनाना और उन्हें अपनी मातृहितैषिणी छत्रछायामें लेना होता था । संसार के इतिहास के पास जैसे अनार्य साम्राज्योंकी समर यात्राके विरुद्ध भयंकर अभियोग होनेपर भी उसके पास आर्य चन्द्रगुप्तकी समरयात्राके विरोध अत्याचार या लुण्ठन आदिका किसी प्रकारका कोई अभियोग नहीं है। प्रत्युत इतिहासके पास तो विजित राष्ट्रोंकी चन्द्रगुप्तके प्रति प्रगट की गई सामूहिक कृतज्ञताका ही उल्लेख मिलता है । इसलिये मिलता है कि चन्द्रगुप्त के साम्राज्यका स्वरूप विजित जनताको अपने विराट् परिवारमें सम्मिलित करके उसके ऊपर विजित जनताके निर्वाचित जनसेवकोंको स्थानिक शासनके परिचालनका भार सौंप देना होता था । चन्द्रगुप्तका साम्राज्य प्रजाको वे समस्त सुखसुविधा पहुँ. चानेका उत्तरदायित्व लेता था जो (सुखसुविधा) मानव हृदयको स्वभा. वसे प्यारी प्यारी होती है और इसीलिये राज्यव्यवस्थाको प्रजातंत्रका नाम दे देती हैं। चन्द्रगुप्त प्रत्येक विजित देशकी सदिच्छाओंका पूरा प्रतिनिधित्व करता था। इसलिये उसका साम्राज्य एकतन्त्र दीखनेपर भी प्रजातंत्र था। मैगास्थनीज तथा पाश्चात्य इतिहासकारोंके उन वर्णनोंसे, जो उन्होंने चन्द्रगुप्तके साम्राज्यको सुव्यवस्थाके संबन्धमें किये हैं स्पष्ट जाना जा सकता है कि उस समयकी प्रजा चन्द्रगुप्त के सुप्रबन्धसे इतनी सुशिक्षित Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आर्यअनार्योंकी तुलनात्मक आलोचना हो गई थी कि वह आत्मकल्याणको सुरक्षित रखने के लिये पर्याप्त मात्रामें समर्थ तथा जागरूक बन चुकी थी। 'प्रकृतिसम्पदा ह्यनायकमपि राज्यं नीयते ।' (चाणक्यसूत्र ) प्रजा यदि राज्य प्रबन्धसे परिचित हो जाय या बना दी गई हो तो किसी कारण राजाके न रहनेपर भी राष्ट्रव्यवस्था अक्षुण्ण रहती चली जाती है। प्रजाको सन्तुष्ट तथा सुशिक्षित करके प्रजाकी सदिच्छाभोंसे ही राज्यन्यवस्थाका संचालन करने का यह ढंग चन्द्रगुप्त के पुत्र बिन्दुसार तथा पौत्र अशोक तक सुरक्षित रहा । परन्तु साम्राज्य संचालकोंके भहिंसावादी बौद्ध धर्ममें दीक्षित हो जानेपर दण्डन्यवस्थाके ढीला पडनेपर ही साम्राज्य छिसमिन्न होगया । उस स्थिति को देखकर गीताके 'स्वधर्म निधनं श्रेयः पर धर्मो भयावहः।' इस मन्तब्यकी स्मृति बलात मा खसी होती है। राशो हि दुष्टनिग्रहः शिष्टपरिपालनं च धर्मः । न पुनः शिरोमुण्डनं जटाधारणादिकं वा । ( नीतिवाक्यामृतं ५-२) दुष्ट निग्रह तथा शिष्टपालन ही राजाभोंके धर्म हैं। सिर मुंडाना या जटा धारण करना आदि उनके धर्म नहीं हैं। व्रतचर्यादिकं धर्मो न भूपानां सुखावहः । तेषां धर्मः प्रदानेन प्रजासंरक्षणेन च । ( मागुरि ) व्रतचर्या भादि राजाभोंके लिये सुखकारक नहीं है । उनका धर्म तो प्रजाको अभयदान तथा उसकी रक्षा ही है। भारतीय आर्य साम्राज्य के ये तीनों लानुवंशिक सम्राट् इस भादर्शको सुरक्षित रखकर प्रजाकी सेवा करके न केवल मानवसमाजको कृतार्थ कर गये किन्तु स्वयं भी धन्य होकर गये । साम्राज्य स्थापनाका यही आयं मादर्श था। यह मादर्श भाजके पाश्चात्य साम्राज्यवादसे सर्वथा विपरीत प्रकारका है। यह कितना बड़ा दुर्भाग्य है कि भारत भी कालकी कुटिलगतिसे इस मादशको राष्ट्रियरूपमें अपनाकर नहीं रख सका । वह फिर पहले के ही समान आदर्शहीनतामें जा दुबा। Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि चाणक्य मनुष्यकी पशुशक्तिका उपासक नहीं था । वह तो मानव हृदकी शान्तिका उपासक और पुजारी था। वह लोगों की मानसिक शान्तिको ही राष्ट्रका बल मानने वालोंमें था । आजका पाश्चात्य अनार्य साम्राज्यवाद जडदेहकी भोगाकांक्षा या भोगकंडूतियोंका उपासक है । जडदेद्दों की भोगेच्छाके ऊपर अपनी समाजव्यवस्था बना लेना दुष्परिणामी कल्पना है इसलिये देद्दोंकी भोगेच्छाओं के आधारपर समाजव्यवस्था बनानेके संबन्ध मैं आजके पाश्चात्यनुकरणी भारतको सावधान रहना है। जडदेद्दोंकी भोगेच्छा ही इन अनायें साम्राज्यों की पृष्ठभूमि है । I वर्तमान राजनैतिक साम्यवाद, समाजवाद आदि अनार्यवादोंकी आलोचना चाणक्य वेदान्तप्रतिपादित आत्यन्तिक दुःखनिवृत्तिके उपासक थे । अनार्य साम्राज्योंकी निन्दा करनेवाला पाश्चात्य समाजवादी और साम्यवादी एक ओर तो साम्राज्यवादकी निन्दा करता और दूसरी ओर जडदेहकी उस भोगाकांक्षा या भोगवादको छोडनेको उद्यत नहीं है जो अनार्य साम्राज्यवादका मूल है । पाश्चात्योंके समाजवाद और साम्यवाद तथा उनके अनार्य साम्राज्य सबकी भोग ही एकमात्र आधारशिला है । पाश्चात्य या पाश्चात्य ढंगका समाजवादी और साम्यवादी अपने भोगवादी पाश्चात्य वातावरणके आनुवंशिक दोषसे पराभूत होकर जडदेहकी भोगेच्छासे आगे सोचने में नितान्त पंगु है । भोगवाद पाश्चात्य देशोंकी मज्जा तक जा पहुँचा चुका हुआ असाध्य रोग है । इसके विपरीत चाणक्य त्यागवादी भारतका सुपूत था । ६२४ वह तो मनुष्य की सुखेच्छाको ही दुःख माननेवाले लोगों में से था । वह सुखेच्छा के नियन्त्रण पर ही साम्राज्यकी प्रतिष्ठा करनेवाला था । वह सुखेच्छाको ही पापका मूल मानकर उसे राजशक्तिसे नियन्त्रित करना चाहता था। वह मनुष्यकी सुखेच्छा के नियन्त्रणमें आजानेको ही समाजकी शान्तिकी Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनार्यवादोंकी आलोचना कुंजी मानने वाले क्रान्तदर्शी विद्वानों में से था। वह मनुष्य की भोगाकांक्षाको खुलकर खेलने देने में समाजका अकल्याण मानता था। वह मनुष्यका कल्याण इप बातमें देखता था कि मानवकी भोगाकांक्षाका समाज हितमें उपयोग किया जाय । वह मनुष्य की भोगाकांक्षाको समाजको समाजका अहित करनेकी स्वतंत्रता देनेको किसी भी रूपमें प्रस्तुत नहीं था । वह मनुष्यकी व्यक्ति. गत भोगाकांक्षाको समाज कल्याणमें विलीन कर देनेवाली या उसे ( व्यक्त गत भोगेच्छाको ) समाज कल्याणका अविरोध बना लेनेवाली व्यक्तिगत और समाज दोनोंहीका कल्याण कर सकनेवालो भात्यन्तिक दुःखनिवृत्ति में हो मनुष्यका परमार्थ पा लेना या अखण्डशान्ति मिल जाना समझता था। इसके विपरीत अनार्य साम्राज्यवादों तथा अनार्य राजनैतिक पार्टियोने सिक. नरवाला वही भोगवाद अपना रक्खा है जो जड़देहकी भोगेच्छाका दास है और इसीसे पराये रमका प्यासा बने विना नहीं रहा जा सकता। माधु. निक मनार्य साम्राज्यवाद सिकन्दरवाले साम्राज्यवादका ही भौतिक विज्ञानों तथा नृशंस करताओंसे समुपबंहित आधुनिक संस्करण मात्र है । माम्यवादी या समाजवादी कहानेवाले कुछ उन विद्वान् नामधारियोंने जो अपने आपको पाश्चात्य पाम्राज्यवादका विरोधी उद्घोषित करते हैं, धनोपार्जन तथा धनभोगमें सार्वजनिक ममानाधिकारका काल्पनिक (अन्यावहारिक ) सिद्धान्त पैदा करके उलझन पैदा करती है। परन्तु इन लोगोंने भोगाकांक्षा समाजघातक दूषणका आद्योपान्त विचार नहीं किया। मोगाका. का यही प्रधान दूषण है कि वह कभी भी तप्त होना नहीं जानती। भोगेच्छु मानव भोगमें अपमर्थ तो हो सकता है परन्तु तृप्त कभी नहीं हो सकता । भोग और अतप्तिका नित्य साथ है मनुष्य की अतप्ति ही अत्याचारिणी राक्षप्ती है । अतृप्ति समाजका भयंकर शत्रु है । भोगेच्छाने संसारमें आजतक कभी भी तृप्ति, उदारता और मानवताका मुंह नहीं देखा । क्योंकि भोगाकांक्षा रूपी भाग सदा ही अतृप्त रहने वाली भाग और मनुष्यको पर. रक्तपिपासु अनुदार पशु बनाकर रखनेवाली दुष्ट अभिलाषा है इसलिये ४० ( चाणक्य.) Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्रा पहले मनुष्यसे उस मागमें ईंधन डलवानेका सिद्धान्त मान लेना और फिर ससी मनुष्यसे यह बाधा भी करना कि वह अपनी इच्छा या कानूनके भयसे समानताके सिद्धान्तमें बंधकर रहे यह एक असंभव मूढ कल्पना है। यह तो मांसलोलुप सिंहके सामनेसे उसका मांस उठा लेनेवाली अत्यन्त उत्तेजक कल्पना है। यह तो खुल्लमखुल्ला भोगको हो जीवनका लक्ष्य मान लेना और मानवसमाजको मनुष्यताकी ओर प्रोत्साहिन न करके भोगसंग्रहमें प्रोत्साहित करना है। मनुष्यको भोगसंग्रहमें प्रोत्साहित करना उसे उस भोगाकांक्षाको ओर ले जाना है जिसका कोई अंत नहीं है जिसकी भूख कभी मिटती नहीं जो भयंकरसे भयंकर पाप करनेसे डरती नहीं। जिसे संसारभरको अपनी वध्य माखेट बनाने में कोई संकोच होना संभव नहीं। भोगाकांक्षाको छूट मिल जाना सचमुच समाजघाती कल्पना है। भोगाकांक्षाका खुलकर खेलने देनेसे समाजमें पारस्परिक धातप्रतिवात आदि अनेक चिकित्स्य उलझने पैदा हो जाती है। इसलिये पहले तो भोगाकांक्षाको मान्यता देना और फिर उससे समानताकी सीमामें बंध कर रहनेकी भाशा बाँधना सम्यावहारिक लक्ष्य है । इस दृष्टि से इन साम्यवादियों और समाजवादियोंका लक्ष्य भन्यावहा. रिक है । इसलिये हम इन अव्यावहारिक लक्ष्यवाले साम्यवादी समाजवादियोंको पाश्चात्य साम्राज्यवादियोंका ही नामान्तर करना चाहते हैं और इसे समाजके लिये उतना ही कलहवर्धक तथा प्रशान्त बना डालनेवाला पा रहे है जितना कि पाश्चात्य साम्राज्यवादियोंको पाते हैं । कैसे पाते हैं सो भी ध्यान देकर सुन लीजिये-- ये लोग एक ओर तो साम्राज्यवादियों की परराष्ट्रपर भाक्रमण करनेवाली ध्वंसात्मक युद्धनीतिका विरोध करके संसारको अपनी ओर भाकृष्ट करने का प्रयत्न करते हैं और दूसरी ओर विश्वशान्ति या छोटे बडे मिन भिन्न राष्ट्रोंके पारस्परिक शान्तिपूर्ण सहावस्थानके एक खोखले सिद्धान्तका मावि. कार करके संसारकी भोली जनताको ठगते चले जा रहे हैं । जो पार्टी Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनार्यवादोंकी आलोचना मिन भिन्न देशों में उचित अनुचितका विधार स्यागकर किसी भी उपायसे शासक जाति बन गई है उन सबके साथ न लडनेका समझौता करके अपने देशकी जनता पर प्रभता करते रहने या वहांकी जनताकी लटका ठेका लिये रहने और उसपर अपनी शोषणनीति चलाते रहने में निष्कंट बने रहना ही इन लोगोंके विश्वशान्ति नामके पलाश कुसुमायमान निर्गन्ध सुन्दर ध्येयकी परिभाषा है। इन लोगोंकी विश्व-शान्तिके पेटमें स्थार्थलोलु. पता काम कर रही है। इन लोगों की विश्वशान्ति केवल इतना चाहती है कि संसारभरकी शासक जाति बनी हुई प्रभुतालोभी पार्टियां परस्पर संगठित रहें, अपने अपने अधिकार क्षेत्र में निर्विघ्न मनमाना अत्याचार करती रहें उनके ऐसा करने में कोई किसीको न टोके, कोई किसीका प्रतिद्वन्द्वी न बने और ये लोग विश्वकी अत्याचारित जनताके घरोंमें राष्ट्र की आभ्यन्तरिक अशान्तिकी भाग अनन्तकाल तक सुलगाते रहने में स्वतन्त्र रहें । मापने भोगवादियोंकी विश्वशान्तिका खोखलापन देखा । वह वास्तव में अशान्ति ही है। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण देखना चाहें तो भारतको देख लीजिये- भारत जैसे प्राकृतिक सीमाभोंसे सुरक्षित मनादिकाल से भखण्ड राष्ट्रको राज्यलोभी दो पार्टियोंके अप्रजातांत्रिक समझौतेने दो विद्यमान खण्डों में बाँट कर राष्टकी प्रभ जनताको अकथनीय अत्याचारोंका माखेट बना डाला और उसे अनाथालयों जैसे दूषित शरणार्थी नामसे कलंकित करके उसपर मनमाना शासन करते हुए उसकी मनुष्यताको विकसित न होने देनेवाला अशान्तिकारक निर्विरोध राजकीय षडयन्त्र चल रहा है। संसारकी वर्तमान राजनीति के अनुसार यह षड्यन्त्र भी भोगवादी शासक जातियोंकी विश्वशान्ति में सम्मिलित माना जा रहा है। अपने स्वेच्छाचारी शास. नकी सगमताके लिये राष्टकी वास्तविक स्वामिनी जनताको मनुष्यतासे हीन, मनैतिक, चाटुकार, निःशस्त्र, नपुंसक, पेट पूजक बनाकर रखना प्रभु. तालोभी राजनीति नहीं है तो क्या है ? इन लोगों की भौतिक उन्नतिकी मापात मनोरम योजनायें अपने दुधारु पशुओंके लिये अच्छा चारा उपजा Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२८ चाणक्यसूत्राणि नेकी व्यवस्थासे अधिक मूल्य नहीं रखतीं । किंबहुना हम स्पष्ट देख रहे है कि समाजवाद या साम्यवाद, पाश्चात्य साम्राज्यवादका ही आधुनिक अनुभव के आधारपर गठित माधुनिक संस्करण है। पाश्चात्य साम्राज्यवादके माधुनिक संस्करण इस समाजवाद, साम्यवाद या स्पष्ट शब्दों में प्रभुतावादने भोगवादी लोगों में पारस्परिक विवाद उत्पन्न कर डाला है। देशकी जनताको अनेक विद्यमान दलोंमें बॉटा दिया है और संसारको सदाके लिये मशान्तिकी भागमें जलते भुनते रहने का ही मार्ग दिखाया है। बात यह है कि समाजको भोगोंका भूखा बनाये रखनेवाला यह दीनवाद मावश्यकता पडनेपर भोगोंका विरोध करनेवाली स्वाभिमानके नामपर भोगोंपर लात मार सकनेवाली सञ्चो समाजसेवा करना ही नहीं चाहता। यह तो जिस किसी प्रकार समाजका प्रभु बन कर रहना चाहता है। सारी ही राजनैतिक पार्टियो समाजका प्रभ बन जाना चाहती है। भोगवादको लक्ष्य मान लेने में यह दोष है कि भोगेच्छाको न तो कमी मानवोचित संयम सिखाया जा सकता है और न कभी उसे तृप्त किया जा सकता है । जो मानवको मानव बनाये रखने के लिये अत्यावश्यक है। भोगेच्छाको अस्वीकृत तो किया जा सकता है परन्तु उसे संयत और तप्त नहीं किया जा सकता । भोगेच्छाको दूसरोंका भाग छीनने तथा उन. पर अन्याय ढानेसे रोक देनेवालो कोई शक्ति संसारमें नहीं है। जो समाज व्यवस्था देहकी भोगाकांक्षाको अपना मूलाधार बनानेको भूलकर लेतो है वह कभी भो समाजमें शान्तिकी रक्षा नहीं कर सकती। देहकी भोगे. च्छाकी तृप्तिको लक्ष्य बनाना समाजघाती डरावनी स्थिति है। देहकी भोगेच्छाकी तप्तिको लक्ष्य बना लेना समाजको अनैतिक बनाकर अशान्त बना डालना है । इसके विपरीत शान्तिको मानवजीवन का लक्ष्य बना लेना समाजको नैतिकताके मार्गपर चलाना तथा उसे संयमकी सीमामें रखना है । शान्तिको मानवजीवनका लक्ष्य बनाने का ही दूसरा नाम सम्पत्तिपर मनुष्यका व्यक्तिगत अधिकार न रहना और उसका समाजके सार्वजनिक Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनार्यवादोंकी आलोचना सुखाधिकारमें चला जाना है । शान्तिको जीवनका लक्ष्य बनाने को हो संप. त्तिका समविभाजन भी कहा जाता या कहा जा सकता है। भाधुनिक भारतीय प्रजातंत्र भी उन भोगवादी सिद्धान्तोंपर भाधारित तथा संगठित हुमा है जो (सिद्धान्त ) लोगोंको राज्यसंस्थाको अप्रजा. तांत्रिक ढंगसे हथियानेकी छट देते हैं। यही कारण हआ है कि यह माधु. निक भारतीय प्रजातंत्र राज्यसंस्थाको अप्रजातांत्रिक ढंगसे हथियानेवाले संगठन ( पार्टी ) का भोगक्षेत्र बन गया है। इस संगठन के नेतामोका द्देश्य देशका नैतिक उत्कर्ष माधना या देशके मनको स्वाभिमानी बनाना नहीं है किन्तु देशको राज्यसंस्थाका दास बनाये रखने के लिये उसके सामने भोगसंग्रहकी वे खोखली योजनायें बना बनाकर रखते चले जाना है जो केन्द्रसे परिचालित होकर इन लोगों की क्रमिक भौतिक महत्वाकांक्षाओं में इंधन जुटाने के लिये जनकल्याणके मनोहर नामसे अपनायी गई हैं। __ यद्यपि देशकी जनता ही समस्त संपत्तियोंकी उत्पादक है तो भी वह अपने भोगी स्वार्थी शासकों को कमा कमाकर खिलानेवाली मजदूर तथा उन्हींको उच्छिष्ट बूंदों को चाटने वाली भिखारिन बनी हुई है । वह इनलोगों के नन्दनकानन के भी कान काटनेवाले कोठी, बंगलों तथा राजप्रामादोंको ही अपने जीवनका लक्ष्य मान बैठी है । देशकी प्रभुतालोभी पार्टि. यों की कृपा भाजके भारतवामी के सामने कोई भी मानवोचित आदर्श नहीं छोडा है । इन लोगोंके भोगपरायण कुदृष्टान्तोंने देशके आध्यात्मिक भाद को देशके सामने मानेसे केवल रोका ही नहीं है प्रत्युत उसपर घातक प्रहार भी किये हैं । जनता इनके भोगनेसे बचीखुची जूठनको संग्रह कर. नेमें पारस्परिक कलहों, इर्ष्याओं तथा प्रतिहिंसामों में डूब गई है और समाजका कल्याण कर सकनेवालो नैतिकताकी जंजीरोंको निर्दयता के साथ तोर फेंकने में दिनरात लगी हुई है। अपनी फूसकी झोंपटीमें हो पूर्णकाम होकर राष्ट्र सेवाका अनुपम मानन्द लेनेवाले भारत पर कुदृष्टि डालनेवाली वैदेशिक शक्तियोंको धक्का देकर पीट Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३० चाणक्यसूत्राणि पीटकर देशसे बाहर निकाल डालनेवाले अपने ही बुद्धिबलसे तत्कालीन भारतीय साम्राज्यके निर्माण तथा स्थापनामें प्रमुख भाग लेनेवाले महामंत्री चाणक्यकी पर्णकुटोसे आधुनिक भारतमें प्रजातंत्री मंत्रियों के नन्दनवनकी शोभाकी भी हँसी उडानेवाले राजप्रासादो तथा इन लोगोंको मिलनेवाले इस निर्धन देशके प्राण सोख लेनेवाले लम्बे-चौडे वेतन-भत्ते मादि अगणित सुविधाओं की तुलना तो करके देखिये और फिर निर्णय कीजिये कि प्रजातंत्रका बाना पहननेवाले आपके देशके प्रजातंत्र का वास्तविक स्वरूप क्या है ? भारतका वर्तमान प्रजातंत्र नक्कारकी चोट यह घोषणा कर रहा है कि यह राज्यसंस्था राष्ट्रकी सेवाके लिये नहीं बनाई गई किन्तु राष्ट्रको ही राज्य. संस्थाको सेवाके काममें लाया जा रहा है । पाठक भाइये, सम्राट चन्द्रगुप्त के महामन्त्रीके निवासस्थानपर प्रजातंत्री दृष्टि डालें। कवि विशाखदत्त चाणक्यकी कुटीका वर्णन करते हुए लिखते हैं इदमार्यचाणक्यस्य गृहं यावत् प्रविशामि (नाटयेन प्रवि. श्यावलोक्य च ) अहो राजाधिराजमंत्रिणो गृहविभूतिः !! कुतः? अब मैं मार्य चाणक्यको कुटीमें चलूँ ( कुटीके भीतर जाकर देखकर ) ओहो ! गजाधिराजके मंत्रीके घरकी ऐसी निराली छटा ! उपलशकलमेतद भेदक गोमयानां बटुभिरुपहृतानां बर्हिषां स्तोम एषः । शरणमापि समिद्भिः शुष्यमाणाभिराभिविनमितपटलान्तं दृश्यते जीर्णकुड्यम्।। (अंक ३, श्लोक १५, मुद्राराक्षस) उसमें एक ओर कंडे तोडनेके लिये पत्थरका टुकडा पडा है, दूसरी मोर चाणक्यसे शिक्षा पाने वाले वाल विद्यार्थियोंकी लाई हुई कुशायें बिछी हुई हैं इसके जीर्णशीर्ण भीतोंवाले झुके हुए छप्पर पर होमाग्निकी समिधायें सूख रही हैं। ऊपर हम पाश्चात्य साम्राज्यवादके विरोधमें जन्म लेनेवाले पाश्चात्य समाजवादको उसीका नामान्तर कहकर उसके दोष दिखा भाये हैं और Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनार्यवादोंकी मालोचना ६३१ भारतपर उसके दुष्प्रभावका दिग्दर्शन करा आये हैं। परन्तु चाणक्य चन्द्रगुप्तने जिस समाजवादका प्रचार किया था वह बरसे बडे राज्याधिकारको भी स्वेच्छाचारकी छूट न देनेवाला प्रत्युत उसे सर्वथा निर्मूल करनेवाला और सच्चे मयों में प्रजातांत्रिक साम्राज्यका निर्माण करनेवाला था। माजका भारतीय प्रजातंत्र भिन्न भिन्न स्वेच्छाचारी प्रान्तीय संगठनोंकी पारस्परिक स्वेच्छाचारिताओंका ही समर्थन करनेवाला तेजोहीन समूहमात्र है। केन्द्र प्रान्तोंके किये किसी अन्याय पर उसे रोकने टोकनेका सामर्थ्य नहीं रखता । स्वेच्छाचारका दमन ही समाजवाद है। और स्वेच्छाचारका दमन ही सच्चे प्रजातंत्रका ध्येय भो है । चाणक्य तथा चन्द्रगुप्तके इतिहासका अध्ययन तब ही सार्थक हो सकता है जब प्रजातंत्र के इस ध्येयको उौक ठीक समझा जाय और उसे अपने देशकी राजसत्तामें व्यावहारिक रूप भी दिया जाय। यदि प्रजातन्त्र के इस ध्येयकोग्यावहारिक रूप नहीं दिया जायगा तो चाणक्य चन्द्रगुप्त दोनोंने उन दिनों सिकन्दरको भारतमें न घुसने और न ठहरने देकर भारतको जिस रोगसे बचाया था भारतभूमि उसी रोगकी उपजाऊ भूमि बने बिना नहीं रहेगी और गाँवों से लेकर केन्द्र तक सम्पूर्ण शासन व्यवस्थाका सिकन्दरका ही भारतीय संस्करण बनना अनिवार्य हो जायगा। मनुष्यकी भोगान्धता केवल बाहरवाले संसारमें ही अशान्ति नहीं फैलाती वह मनुष्य के पारिवारिक सम्बन्धों को भी बिगाडती है । भोगान्ध व्यक्ति अपने पारिवारिकोंसे अपनी व्यक्तिगत सुखेच्छा पूरी करने के अतिरिक्त उनके साथ कोई भी पारमार्थिक निःस्वार्थ कर्तव्य का पवित्र सम्बन्ध रखना नहीं चाहता। भोगान्ध व्यक्तिको मनोवृत्ति दूषित होती है। वह अपने पारिवारिकों को भी केवल अपने स्वार्थका साधन बनाना चाहता है। उसकी इस दूषित मनोवृत्ति के कारण उसके परिवार के किसी भी सदस्य की एक दुपरेसे कोई सहानुभूति नहीं रहती। भोगान्ध व्यक्तियोंसे संचालित इस प्रकारके परिवार कुछ दिन आपसमें लड झगडकर छिन्न भिन्न हो जाते हैं । Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि ऐसे परिवारका पुत्र पिता पर होनेवाले अत्याचारको अपने पर हुआ भत्या. चार मानकर उसके प्रतिकारके लिये उद्यत नहीं होता। इसी प्रकार भ्राता मादि अन्य सब पारिवारिक किसी व्यक्ति पर होनेवाले अत्याचार के कर्तव्य. हीन नपुंसक तटस्थ द्रष्टामात्र बनकर खडे देखते रह जाते हैं । परिवारों में से हो तो राष्ट्र बनते हैं । देशके परिवार जिस मनोवृत्ति के होते हैं राष्ट्र भी वैसा ही बन जाता है। परिवार भोगवादी होंगे और भोगवादके प्रभाव से परस्पर सहयोग नहीं कर रहे होंगे तो देशको सेवक कहांसे मिलेंगे ? इस प्रकारके भोगवादी परिवारों के मिलनसे बननेवाले राष्ट निबंल राष्ट्र होते हैं। इस प्रकार के राष्ट्र कुछ स्वार्थी महत्वाकांक्षी लोगोंकी लूट, हिंसा, द्वेष आदि दोषों को चरितार्थ करने के क्षेत्र मात्र बन कर रह जाते हैं। आपके वर्तमान भारतका भी यही राष्ट्रीय चित्र है। ___ मोगके लिये जो कोई उद्यम किया जाता है उस ( उद्यम) का कोह भी नैतिक माधार नहीं होता । नैतिकताका प्रश्न उठते ही भोग प्रयोजन. वाले उद्देश्यों को वहां ठहरने का साहस ही नहीं होता। जो उद्यम समाजक कल्याणकी दृष्टि से किये जाते हैं वे ही नैतिकताको भित्तिपर दृढतासे खड रह सकते हैं। अपनी भोगेच्छाको अवैध ढंगसे परितृप्त करने की भावना ही अनैतिकता बन जाती है । भोगेच्छा ही अनैतिकताकी जननी है। भोगे. च्छाका नियन्त्रण तथा अवहेलनाके द्वारा समाजकल्याणमें उपयोग करना ही नैतिकता है। समाजकल्याणको स्वीकार कर लेनेवाली कर्तव्य-बुद्धि ही नैतिकताकी सभ्रान्त परिभाषा है। मार्योंकी समाजव्यवस्थाका आदर्श इसी नैतिकताकी भित्ति पर आधारित है। मात्यन्तिक दुःख निवृत्ति ही भारतीय समाजव्यवस्थाका मादर्श है। आर्य चाणक्यने अपने निःस्पृह कर्मठ जोवनके उदाहरणसे सामाजिक भात्यन्तिक दुःखनिवृत्ति नामवाली माध्यात्मिकताका यही व्यावहारिक राजमार्ग भारतको दिखाया है । उसने अपनी व्यक्तिगत सुखेच्छाको समाजकी सुखसुविधा (शान्ति ) में विलीन कर डाला था। अपनी व्यक्तिगत सुखेच्छाको समाजकी सुख शान्तिमें विलीन कर डालना ही आत्यन्तिक दुःखनिवत्ति है Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनार्यवादोंकी आलोचना और इसीको सुखेच्छाकी पूर्ण परितप्ति मी कहते हैं । दूसरे शब्दों में सुखे. च्छा त्याग देने के रूप में सुखरूपताको अपना लेना ही मनुष्यकी मात्यान्तिक दुःखनिवत्ति है। समाज में इस मादर्शको मूर्तिमान कर डालना ही भार्य चाणक्यकी व्यावहारिक आध्यात्मिकता थी और इसीको वे लोककल्याणकारिणो राजनीति भी कहते थे। आर्य चाणक्य आध्यात्मिकता तथा राज. नीतिको अभिन्न मानते थे । उन जैसे बुद्धिमानकी दृष्टि में वे दोनों एक थे । उनके मन्तव्यानुसार राजनीति तथा माध्यात्मिकताको एक ( अभिन ) समझ लेना ही ज्ञानकी स्थिति है । राजनीतिको आध्यात्मिकतासे अलग समझ लेना ही भोगाकांक्षा है. व्यक्तिगत सखान्वेषण है और साथ हो राष्ट्रद्रोह भी है । दूसरे शब्दों में राजनीतिसे अलग रहकर आध्यात्मिक बननेको भावना अपने हितको समाजके हितसे अलग समझनेवाली निन्दित प्रवृत्ति है । इस प्रकार की भावना अत्याचारी मासुरी शकिके साथ क्रियात्मक सहानुभूति भी है और देशद्रोह भी है। भाजके संसारमें प्राय: भोगलक्ष्यवाले संगठन होते हैं। भोगलक्ष्यवाले संगठन सदा ही राष्ट्र में भोगाग्नि सलगाते हैं, द्वेष फैलात है, देशको भित्र भिन्न स्वार्थी दलों में बांटते हैं, और परिणामस्वरूप शान्तिका द्राई करने. वाले हो जाते हैं । इस प्रकार के संगठन मनुष्यममाजकी एकताको नष्ट कर डालते और उसे छिन्नभिन्न करके शनिहीन बना डालते हैं । इस प्रकार के भोगलक्ष्यवाले संगठन लोगोंकी मनुष्यताको ना पैरों तले रौढ देते हैं और उन्हें एक दूसरेका लुटेरा तथा सामाजिक दृष्टि से मंधा बना देते हैं। इस लिये बना देते हैं कि अंधों का शोषण तथा आखेट दोनों ही सुगम होत हैं । समाजके धूनतम लोग इस प्रकार के संगठनोंका नेतत्व किया करते हैं । ये लोग उज्ज्वलवेषी धूर्त होते हैं और कानूनकी पकडमें न पाकर अपने माप सामाजिक अपराध करते रहने की छूट पा लेते हैं। य लोग कानूनसे भी ऊंचा पद लेकर रहते हैं। ये कानून के अनुसार नहीं चलते। ये तो कानूनको सपने अनुसार चलाते हैं। प्रबन्ध सब जटिलताओंको सुलझाने के लिये जब चाहते हैं कानून में संशोधन कर या करा लेते हैं। ये लोग चोर नाम Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि अविख्यात राष्ट्रीय चोर होते हैं। जब इस प्रकार के संगठन राज्यसत्तामें हाथ डालते हैं तब इन लोगोंका उद्देश्य राष्ट्र में स्वेच्छाचार कर परवाना पा लेना तथा ठसे बढाते चले जाना होता है । इसके विपरीत समाजद्वेषिणी भोगाकांक्षाको मिटा डालने के लिये बननेवाले, समाजकी सुखशान्तिमें ही अपनी व्यक्तिगत सुखशान्तिको विलीन कर डालनेवाले, संयमके सर्वकल्या. णकारी मार्ग पर चलनेवाले संगठन, समाजको शक्तिमान बनानेवाले होते हैं और सदा ही शान्तिकी उपासना करते रहते हैं । इस प्रकारके संगठन भोगवादी स्वेच्छाचारके अत्यन्त विरोधी होते हैं। वे मानवकी भोगाकां. भाको निवृत्ति के मार्गपर ले चलना चाहते हैं । और मानवको भोगाकांक्षाका भी समाज कल्याणमें उपयोग कर लेना चाहते हैं । सच्चे मंगठन वे होंगे जो समाजमें सुखशान्ति बरसाने में अपना संपूर्ण बल लगा देते हैं। वे चाणक्य प्रतिपादी त्रिवर्ग ( धर्म, अर्थ, काम ) के उपासक समाज में से स्वेच्छाचारको हटाकर न्याय राज्य की स्थापना कर देते हैं। त्रिवर्गके संबन्धमें चाणक्य के निम्न गंभीर विचार है कि सुखका मूल धर्म है । मुख धर्मसे ही उत्पन्न होता है । अधर्मसे उत्पन्न होनेवाला सुख सुखाभास है। अधर्मसे सुख चाहना मनुष्य की बुद्धिका प्रमाद है और दुःखोंको नौतना है । दूसरे शब्दों में दुःखकी अत्यन्त निवृत्ति ही सुख है । दुःखकी अत्यन्त निवृत्ति रूपी सुख ही मानव जीवन में पाने योग्य स्थिति या मानव जीवन का लक्ष्य है। धर्मका मूल अर्थ है । धर्म अर्थ से उत्पन्न होता है । सदुपायों से अर्जित मर्थ ही अर्थ है । सदुपायोंसे अर्जित अर्थ ही धर्मका उत्पादन कर सकता है । असदुपायोंसे लर्जित धन मनुष्य जीवन के लिये महान् अनर्थ बन जाता है । असदुपायोंसे उपार्जित धनसे धोत्पत्तिको कोई आशा नहीं है । धोत्पादक अर्थ धर्मानुकूल राज्यव्यवस्था होनेसे पैदा होता है । 'राजानं प्रथमं विन्धात्ततो भायां ततो धनम् ' यदि राज्यव्यवस्था धर्मानुकूल न हो तो देशकी वह आर्थिक व्यवस्था जिससे समाजकी धर्मानुकूल जीवनयात्रा चल सकती है, नष्टभ्रष्ट हो जाती है । Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनार्यवादोंकी आलोचना ६३५ राज्यका मूल इन्द्रिय विजय है। व्यक्तिगत भोगेच्छापर पूर्ण प्रभुत्व ही राजा या राज्याधिकारियों की राज्यसंस्था चलानेकी मुख्य योग्यता है। राज्यका लाभ तथा रक्षा दोनों ही काम इन्द्रियविजयसे होते हैं। दूसरे शब्दोंमें सच्चे सुखकी जो मन्तिम साधना है वही तो इन्द्रियविजय है। मनुष्य इन्द्रियावजय कर लेने पर अपने मनोराज्यका सम्राट बन जाता है। कामको मनसिज कहा जाता है । काम मनोराज्यसे उत्पन्न होता है । कामपर्तिके साधन सुखदायी, दुःखदायी भेदसे दो प्रकार के होते हैं । कामप्राप्तिके सदिच्छा तथा दुरिच्छा ये दो साधन हैं । संदिच्छा कामपूर्तिका त्रिवर्गानुसारी सुखद साधन है । इन्द्रियविजय पा लेने पर उत्पन्न होनेवाली इच्छा ही शास्त्रीय काम है । इन्द्रियों की दासता करके अर्थोपार्जन करना दुरिच्छा है। इन्द्रियोंकी दासता करके भोगोपार्जन करना शास्त्रविगर्हित कामका रूप है। सदुपार्योंसे उपार्जित धन सदिच्छाको पूरी करने का साधन बन जाता या बन सकता है। सदुपायोंसे उपार्जित धनका सत्य के लिये सदुपयोग होना अनि. वार्य होता है । धनका सत्य के लिये सदुपयोग हो मानवधर्म है। ___ मनुष्य का जो वांछनीय सुख है वह उसे मानवधर्म पा लेने से ही मिलता है। यही मनुष्यसमाजका सामाजिक भादर्श है। मनुष्य समाज में इस मञ्च मादर्शको प्रतिष्ठित रखना ही मनुष्यमात्रका व्यक्तिगत धर्म है। मनुष्यका यह व्यक्तिगत धर्म समाजको सामूहिक सुख देने वाले धर्म से अलग कोई धर्म नहीं है। मनुष्य समाजका धर्म के मार्गपर मारूढ हो जाना ही त्रिवर्गकी प्राप्ति है। त्रिवर्ग प्राप्ति ही मोक्ष है। यों भी कह सकते हैं कि निवर्ग प्राप्ति ही मोक्षरूपमें परिणत हो जाती है। दुःख रहित स्थितिका नाम ही तो मोक्ष है । इन्द्रियोंके बन्धनसे अतीत रहना ही जीवन्मुक्तिकी दुःखरहित स्थिति या मोक्षलाभ है। समाजका जो उच्चतम आदर्श है वही तो मोक्ष है । पाठक जाने कि सपूर्ण समाजको इस उच्चतम भादर्श पर ले चलना ही तो मार्य राजनीति है। मनुष्य भोगलोलुप होकर जीवन न बिताये किन्तु अखण्ड सुखको अपनी मुट्ठी में करके भोगबन्धनको त्यागकर जीवन विताये अर्थात् लोगों के साथ व्यवहार करे । इसोको मनुष्यका अपने व्यक्तिगत कल्याणको समाज-कल्याणमें विलीन कर देना भी कहते हैं । यही उदार Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि ब्राह्मी स्थिति भी कहाती है और यही मार्य राजनीति भी है । सुखदायी मानवधर्म यही है कि ज्ञानी मनुष्य अपने जीवनको समाजकी आखों के सामने ध्रवनक्षत्र या पाठ्यग्रन्थके रूपमें समुज्ज्वल करके रक्खे । मनुष्य सदिच्छासे प्रेरित होकर सदुपार्योसे धनोपार्जन करके उस धनको सत्यकी सेवामें लगाकर ( अर्थात् उप्त धनसे मानवोचित कर्तव्य करके ) सुखरूप सत्यमयी स्थितिको पा जाता है। मनुष्य के जीवन व्यापार प्रत्येक क्षण सत्याश्रित रहें यही धर्म, अर्थ तथा काम के निवर्गको पानेका भाभिप्राय है । सच्चे भार्यको केवल जीवन धारण करने के लिये ही अर्थोपार्जन नहीं करना है किन्तु उसे इसलिये अर्थोपार्जन करना है कि वह सत्य के लिये जीवित रहना चाहता है। विद्यमान व सत्यके लिये जीवित रहने की अवस्थाके नष्ट होते ही अर्थोपार्जन त्याग बैठता है । तब उसके सामने सत्यके लिये मात्मबलिदानकी स्थिति भी खरी होती है। सत्यके लिये जीवित रहना ही आयाँक अर्थोपार्जनका उद्देश्य है । सत्य के लिये अर्थोपार्जन अनिवार्य रूप से अपने व्यक्तिगत सुखका साधन न बनकर समाजके सार्व. जनिक सुख का साधन बन जाता है । यही सत्यके लिये अर्थोपार्जन ही मादर्श राष्ट्र की आधारशिला है । Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ चाणक्य-सूत्राणामकारादिक्रम-सूची सूत्रसंख्या सूत्राणि ३३ अकामबुद्धयः ३०१ भकार्य प्रवृत्ती २६० अकुलीनोपि ४२९ अकुलीनोपि वि. अक्षदपि २७८ अकृते: २८० अगम्यागमनात ४९० अग्नावग्निम् ६४ अग्निवत् ७५ भग्निदाहादपि २५४ अजरामरवत् अजीर्ण अज्ञानिना ४.५ अतिज्वलितोपि ५२४ अतिथिम् ४५५ अतिदीप्तोपि ४५४ भतिदीपि १४६ अतिभारः ८. अतिलाभ: ४२६ अतिशूरः ४३९ भतिसंगः ४५३ अतिप्रवद्धा सूत्रसंख्या सूत्राणि ३३९ मत्युपचारः २५९ अदातारम् ३०० अद्रव्यप्रयत्नः २९३ अधनः अधनस्य मनन्तरप्रकृतिः अनार्यपम्बधात् १०० भनीहमानस्य अनुपद्रवम् ९५ अनुपायपूर्वम् २१० अनुरागस्तु ४४४ अनृतमपि ४४४ भनृतादपि ४१३ अन्नदानम् ५४६ अपक्षपातेन ४०५ अपचक्षुषः अपत्यम् १५४ अपरधनानि ३२८ अपराधानुरूपः अपराह्निकम् १३३ अपरीक्ष्यकारिणम् २५२ अप्रतीकारेषु ३५९ अप्रमत्तोदारान् Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३८ चाणक्यसूत्राणि. सूत्रसंख्या सूत्राणि १२८ अप्रयत्नात् ४५१ अप्रयत्नोदकम् १७३ अप्रिये कृतम् १७३ अप्रियेण कृतम् २५४ अमरवत् ७८ अमित्रः ६२ ममित्रविरोधात् ३१५ अयशो ५२ अरिप्रयत्नम् ७७ अर्थतोषिणम् ७७ अर्थदूषकम् ९२ अर्थमूलम् ९१ अर्थमूलो २५५ अर्थवान् १८९ अर्थसमादाने ११ अर्थसम्पद् १८९ अर्थसामान्य १९० अर्थसिद्धी ३ बर्थस्य मूलम् १९१ मधीन एव ३३३ अर्थानुरूपम् ५०२ अर्थार्थम ७३ अर्थेषु ७३ अषणा ३८ अलब्धलाभः । सूत्रसंख्या सूत्राणि ४२ अलब्धलाभादि अलसस्य ३५६ अलोहमयम् १४५ अल्पसारम् १६० अवमानागतम् २६० अवमानेन ३०८ अवस्थया २० अविनीतम् १४ भविनीतस्वामि १८७ अविश्वस्तेषु १८७ अविनब्धेषु ३०१ मशास्त्रकार्यवृत्ती ४८० अशुभद्वेषिणः ४८० अशुभवेशाः ४९६ असत्समृद्धिः १०० असमाहितस्य १५३ असंशयविनाशात् ५२८ असहायः पथि ५२८ असहायो न पथि ५६१ महिमालक्षण: आ ५५५ साकारसंवरणम् ४२९ माचारवान् ४३० भाचारादायुः २११ माज्ञाफलम् Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रम-सूचि सूत्रसंख्या सूत्राणि ५२५ आश्रितदुःखम् १४२ भाश्रितैरपि ५०३ इतः परमधीत: ५ इन्द्रिजयस्य । ७० इन्द्रियवशवर्तिनः । ७० इन्द्रियवशवर्ती ३०० इन्द्रियाणाम् २८० इन्द्रियाणि सूत्रसंख्या सूत्रााण १९५ मात्मछिद्रम् ३४३ मारमछिद्रम् ५३५ मात्मछिद्रम् ८४ मात्मनि रक्षिते ५.३ आत्मन: पापम् २४२ मात्मविनाशम् १४८ पास्मानमेव ५०२ पास्मा न ८५ आत्मायतो २८४ प्रात्मार्थम् ५४८ आत्मा हि ३५ आपत्सु ५३७ आपदर्थम् ५३७ आपत्तीकारार्थम् मामात्रम् २३२ मायसैरायसः २३२ मायसैरायसम् २३२ मायासैरायसम् ५२० आर्यः स्वमिव ३१० मार्यवृत्तम् १८९ आर्थिम् ४६ भावापः ५०३ माशया ५०७ माशापरः ५०५ आशापरे ५०७ आशा लज्जाम् १८२ उत्साहवताम् ६६ उद्धतवेशधरः ३९९ उपकारो १८० उपकर्तर्यपकर्तुम् २४१ उपस्थितविनाशः उपस्थितविनाशः ४९२ उपस्थितविनाशो २४१ उपस्थितविनाशानाम् ९४ उपायपूर्वम् ५१७ उपालम्भो ऋ १५९ ऋजुस्वभावः ४३५ ऋणशत्रु ४३५ ऋणाग्निशत्रु ४३५ ऋणाग्निव्याधितेषु Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि सूत्रसंख्या सूत्राणि २०० एकांगदोषः ५० एकान्तरितम् ४५२ एरण्डमवलम्ब्य २७५ ऐहिकामुष्मिकम् २५० कादपि ०७ कंचिदपि ३२९ कथानुरूपम् २.६३ कदाचिदपि ४१५ कदाचिदपि २०७ कदापि पुरुषम ३.१ कदापि मर्यादाम् ५७१ कर्मारम्भोपायः ४२३ कल हम् ६५ कस्यचिदर्थम् ३५५ काम्यैर्विशः ९७ कायं पुरुषकारेण २२७ कार्य बहुत्वे १३० कार्यबाह्यो न १२५ कार्यविपत्तो २१७ कार्यसंकटेपु ३.२ कार्यसम्पदम् सूत्रसंख्या सूत्राणि २९ कार्याकार्यप्रदीपः । ३३ कार्याकार्यतत्वार्थ ३३२ कार्यानुरूप: । २९ कार्यान्धस्य १२६ कार्थिना ९६ कार्यार्थिनाम् कार्यान्तरे १०७ कालवित १०८ कालातिक्रमात ३८४ कुटुम्बार्थम् ३७६ कुटुम्बिनः ३७३ कुटुम्बिना ३८७ कुलं प्रख्यापयति ३३१ कुलानुरूपम् ५५१ कूटसाक्षिण: ५६७ कृमिशकृन्मूत्र ख ४२३ खलत्वम् ५७ गजपादयुद्धमिव ४७३ गतानुगतिक ३७७ गन्तव्यम् १७३ गुणवदाश्रयात १७६ गुणऽवन्तमाश्रित्य १४ गुणवानपि Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रम-सूचि सूत्रसंख्या सूत्राणि सूत्रसंख्या सूत्राणि ३०५ गुणे न मस्सरः ४२७ गुरुदेवपाह्मणेषु ३७५ गुरुं च दैवं च ३३७ गुरुवशानुवर्ती ३६२ गुरूणां माता ३४७ गौर्दु करा ३८४ प्रामार्थम् ४०४ चक्षुर्दि २०८ चन्दनादपि २०६ चन्दनादीनपि ३४६ चिरपरिचितानाम् ५५६ चोरराजपुरुषेभ्यः ५६० चोरांश्च १४४ ततो यथाईदण्ड ५४५ तत्वज्ञानम् ४७५ तत्वारः ५१३ तदनुवर्तनम् ४६६ तद्विद्वद्भिः १५६ तद्विपरीतः १५८ तद्विपरीत: १८० तद्विपरीतः .४५ तंत्रम् ४७५ तपःसार: तपसा ४११ तपस्विनः ४४२ तप्यते ५७१ तस्मात तादृशः ३९८ तिलमात्रमपि तीक्ष्णदणदः ३९० तीर्थसमवाय २०६ तृष्णया मतिः ५३ तेजो हि २०४ तेषु विश्वास ३२ त्रयाणाम् १९२ छिद्रप्रहारिणः ३८३ जनपदार्थम् ५६८ जन्ममरणादिषु ५१७ जलार्थिनाम् १० जितात्मा ४४० जिह्वायत्ती २२० जीर्णभोजिनम् २२१ जीर्णशरीरे ४७३ जीविभिः ४१ (चाणक्य,) १६ दण्डपाध्यात् Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राण सूत्रसंख्या सूत्राणि ७९ दण्डनीतिम् ८३ दण्डनीत्याम् ८६ दण्डनीत्यादि ८२ दण्डभयात् ८० दण्डसम्पदा ८० दण्डसर्वसम्पदा ८१ दण्डाभावे ८९ दगडे ८९ दण्डेन ८६ दण्डोहि २३६ दया धर्मस्य २१२ दातव्यमपि २२४ दानम् १५५ दान धर्मः २५७ दारिद्वयम् ४८५ दुःखानाम् १०६ दुरनुबन्धम् ३८६ दुर्गते; ५५७ दुर्दर्शना हि ६३ दुर्बलाश्रयः ८७ दुर्बलोपि ५१८ दुधसाम् ४७३ दुर्लभः ३१० दुर्लभम् ४३८ दुष्करम् सूत्रसंख्या सूत्राणि ३५८ दुकलत्रम् ११८ दुस्साध्यमपि ४७२ दूरस्थमपि १०७ देशकालवित् २१० देशकालविभागों १११ देशकालविहीनम् ११० देशे काले च ४८४ दही देहम् ५०६ दैन्यान्मरणम् ९९ दैव विना १२३ दैवं शान्तिकर्मणा १११ देवहीनम् ५२४ दैवायत्तम् १०५ दोषवर्जितानि ६८ द्वयोरपि २९३ धनहीनः ५३१ धर्मकृत्येष्वपि २३७ धर्ममूले २ धर्मस्य मूलम् ५४७ धर्मादपि २४० धर्माद्विपरीतम् । तः ] २३८ धर्मेण जयति २३४ धर्मेण धार्यते ५२७ धीहीन; Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रम-सूचि सूत्रसंख्या सूत्राणि २१३ स्या १०० धेनोः क्षीरम् १४० धेनोः शीलज्ञः सूत्रसख्या सत्राणि ४८५ न चार्धरात्रम ४० न चालसस्य ४० न चालस्ययुक्तस्य ५०४ न चाशापरैः ५१६ न चासनम २६२ न चतनवताम २७० न चौर्यात्परम ६३ न जितेन्द्रियाणाम ५३ न ज्यायसा ४२६ न तद्विपरीक्षत् ४१ न तीर्थम् ३२४ न त्वरितस्य नदण्डात् ४९४ नदालसमम् ४०२ न कदाचित् ४१५ न कदाचिदपि ३११ न कदापि ४०२ न कदापि ५५१ न कश्चिन्नाशयति ७४ न कामासक्तस्य २७२ न कालेन मृतस्य ४३९ न कृतघ्नस्य २६४ न कृतार्थानाम् ४३४ न कृतार्थेषु ३२३ नक्षत्रादपि ३२३ नक्षत्रादि १६४ न क्षुधातः २७७ नक्षुधासमः ५५० न च कूटसाक्षी ३८० न चक्षुषापि ४०३ न चक्षुषः १०३ न चलचित्तस्य ४८३ न च स्वर्ग ४७८ न च स्त्रीणाम ४६२ नचागतम् UN ४५४ नदोषैपि ४३३ न दुजनेषु २१५ न दुर्जनः ६७ भदवचरितम् १२९ मदेवप्रमाणानाम् ४०७ न नमः ३२१ ननर्मपरिहासः ५३० न निन्दनीयः २८६ न नीचोत्तमयो: ३९२ न परक्षेत्र Um०.०० Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि गस्य सूत्र संख्या सूत्राणि १२३ न परीक्ष्यकारिणाम् १८१ न पापकर्मणाम् ३१९ न पुष्पार्थी ४८८ न पुत्रसंस्पर्शात् ५२९ न पुनः ४५६ न प्रवृद्धत्वम् ४१ न भत्यान् १७४ नमत्यपि १७४ नमन्त्यपि ३२१ न महाजनहास: ५०८ न मात्रा सह ४२२ न मीमास्याः २७२ न मृतस्य ३०३ न म्लेच्छभाषणम् ३७२ न राज: ४६४ न रात्रिचारणम् ४१४ न वेदबाह्यः । ६९ न व्यसनपरस्य ५०० नसताम ३९१ न सतीर्थाभि ५३४ न सदबुद्धिमताम ३६१ न समाधिः ५३५ न सर्षपमात्रम् ५.४ न संसारभयम ३१३ न स्त्रीरत्नसमम् सूत्रसंख्या सूत्राणि ३१७ न स्वणस्य ५५० न स्यात् ५०१ न हंसाः २७६ नहि धान्यसमः ४३९ नाकृतज्ञस्य १६८ नाग्निम ४७१ नाचरितात् ५४ नातप्तलो ( हो) हम् ४८७ नातिदुर्वचनम १३८ नातिभोरोः ५३५ नामछिद्रम् ५०९ नात्मा ३८८ नानपत्यस्य ४२१ नानृतात् ४०६ नापसु मूत्रम् ४९८ नाम्बोधिः ४३७ नार्थिववज्ञा १५६ नार्यागतः १६९ नाल्पदोषात नासहायस्य ४२४ नास्ति खल स्य ३५५ नास्ति गतिश्रमः २५१ नास्ति ( चो ) चौरेषु ३९६ नास्ति देहिनाम् १२८ नास्ति दवात् Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रम-सूचि सूत्रसंख्या सूत्राणि ३५४ नास्ति धनवताम् २३३ नास्ति धर्मसमः २४३ नास्ति पिशुनवादिनः ५३४ नास्ति बुद्धिमताम् १३८ नास्ति भीरोः ३५५ नास्ति यानवताम् १७१ नास्ति रत्नम् ४१७ नास्ति सत्यात् ५१५ नास्ति हग्यस्य ८८ नास्थ्यग्नेः २३३ नास्त्यधीमतः २१४ नास्त्यधृतेः १५२ नास्त्यनन्तरायः ५३३ नायनार्यस्य ३५३ १४९ २७९ २६६ नास्त्यपिशाचम् नास्त्यप्राप्यम् नास्त्य भक्ष्य म् नास्त्य मानमय मू ३१५ नास्त्यर्थः नास्त्यर्थिनः ४४८ १८४ नास्त्यलसस्य ३१६ नास्त्यलमस्य ३५३ २८८ ५०५ नास्त्याशापरे नास्त्यविशालम् नास्त्यहकारसमः सूत्रसंख्या सूत्राणि २०२ निकृतिप्रियाः ५१४ नित्यं संविभागी ४९७ निम्बफलम् १८५ निरुत्साहाव् १८५ निरुत्साहो ४९० निशान्ते ४८७ निम्ति ११२ नीतिज्ञः ४८ नीतिशास्त्रानुगः २०३ नीचस्य २७४ नीचस्य ३०२ नीचस्य १७ नंकम् ६६ नोद्धृतवेषधरः ३४४ नोपचारः ५५९ न्याययुक्तम् ५५९ न्यायवर्तितम् १५६ न्यायागतः प २२५ पटुतरे २१९ पथ्यम् २७५ पयःपानम् ४६७ परगृहम् ४१२ परदारान् ६४५ Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि सूत्रसंख्या सूत्राणि २६९ परद्रव्यापहरणम् २४४ पररहस्यम् २६७ परविभवादरः २६६ परविभवेषु २६७ परविभवेषु ४९५ परायत्तेपु ३२५ परिचये १३४ परीक्ष्य ११३ परीक्ष्यकारिणि २४९ परोपि २६८ पलालमपि ३३३ पात्रानुरूपम् ३३: पितपशानुवर्ती १६६ पिशुनः २४३ पिशुनवादिनः ५६७ पुण्यपापजन्महेतुः ३९३ पुत्रार्थाः ३८२ पुत्राः ३८५ पुत्रे ५२१ नो न ९८ परुषकारम् २८४ पुरुषस्य २९४ पुष्पहीनम् ३१९ पुष्पार्थिन: १०१ पूर्व निश्चित्य सूत्रसंख्या सूत्राणि । १३ प्रकृतिकोपः १२ प्रकृतिसम्पदा ५५२ प्रच्छन्नपापानाम् ५५३ प्रच्छन्नं यस्कृतम् १३२ प्रत्यक्षपरोक्षा ४०० प्रत्युपकारभयात् ४९१ प्रदोषे २५ प्रमादात् १६५ प्राणादपि ३८५ प्रायेण ५२१ प्रायेण ४३१ प्रियमप्यहितम् ४४२ प्रियवादिनः २३५ प्रेतमपि ३७ बलवानलब्धलाभे ५५ बलवान् हीनेन [हीने न] ४३२ बहुजनविरुदम् १६१ बहनपि १६७ बालादाप ४९९ बालुका अपि ५२७ बुद्धिहीनः २१९ भक्ष्यमपि ३३६ भर्तृवशवर्तिनी Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रम-सचि सूत्रसंख्या सूत्राणि ३३६ भर्तृवशानुवर्तिनी २०९ भत्रधिकम् ११५ भाग्यवन्तम् ४३६ भू (त्या) स्यनुवर्तनम् ४२७ भूषणम् ३६८ भूषणानाम् २०९ भेरीताडितम् म ३५२ मतिमत्सु ३५० मतिमुत्तिष्ठन् १८६ मरस्यवत् मत्स्यार्थीव १८६ ४५ मंत्रम् ३१ मंत्रकाले ३० मंत्रचक्षुषा २४ मंत्रनिःस्रावी :स्रावः २४ मंत्रनि: २२ मंत्रमूला: २३ मंत्ररक्षणे २३ मंत्र संवरण २७ मंत्रसम्पदा १७२ मर्यादातीतम १७२ मर्यादाभेदकम् १६२ महता साहसम् २४० मद्दती सूत्रसंख्या सूत्राणि २१३ महदैश्वर्यम् १६२ महात्मना परेण २५६ महेन्द्रमपि ३९७ मातरमिव २४७ मातापि ३४१ मातृताडितः मानी प्रतिमानिनम् मानी प्रतिपत्तिमान् १९ १९ १२४ मानुषीम् ५६३ मांसभक्षणम् २१८ मितभोज ( नः ) नमू मित्रसंग्रहणे ३६ २३१ मूर्खेषु मूर्खवत् २३० मूर्खेषु विवादः २२९ मूर्खेषु साहसम् ५१७ मृगतृष्णा ७२ १७८ मृत्पिंडोपि मृगयापरस्य २३९ मृत्युरपि ३०३ म्लेच्छभाषणम् ३०४ म्लेच्छानामपि य १३९ यः कार्यम् २९९ यः परार्थम् ४८१ यज्ञफलज्ञाः ६४७ Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४८ सुप्रसंख्या सूत्राणि यरप्रयत्नात् ९३ २४० यत्र यत्र यत्र सुखेन ५९९ ४६० यथाकुलम् ४१३ यथाचरितम् ५३३ यथाज्ञप्तम् ४५८ यथाबीजम् ४०९ यथाबुद्धिः १४४ यथाईदण्डकारी ४०८ यथाशरीरम् यथाश्रुतम् यथैव यः ४५९ ५३३ ९३ ३५१ यद्यपकारिणि ४७४ यमनुजीवेत् यदल्पप्रयत्नात् २७१ यवागूरपि २९८ यशः शरीरम् ३५७ यस्मिन् कर्मणि १४७ यस्संसदि १३६ यस्स्वजनम् १२० ३.९ १९३ याचिकत्वात या प्रसूते यावच्छत्रोः ४८२ यावत्पुण्यफलम् ३८७ येन तत्कुलम् सूत्रसंख्या सूत्राणि १५७ यो धर्मार्थी ११७ ३५७ १७९ १७९ चाणक्यसूत्रा रजतं कनकसंगात् रजतमपि ३७९ राजदासी ४४५ राजद्विष्टम् ३७८ राजपुरुषैः ५३२ ४३ ४४ ४ ६५ ३७१ ५२१ ३७४ यो यस्मिन् कर्मणि यो यस्मिन् कुशलः र राजाज्ञाम् राज्यतंत्रायत्तम् राज्यतंत्रेषु राज्य मूलम राज्यस्य मुलम् राज्ञः प्रतिकूलम् राज्ञो मंतव्यम रूपानुवर्ती रिक्तहस्त : ल २८२ लुब्धसेवी ४२५ लोकयात्रा २४० लोके प्रशस्तः व ३३४ वयोनुरूपः २४५ वल्लभस्य Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "क्रम-सूची सूत्रसंख्या सूत्राणि १८३ विक्रमधनाः ५६५ विज्ञानदीपेन ८ विज्ञानेनात्मानम् २९७ विद्यया २९६ २९५ विद्या धनम् विनयश्य विद्या ( वो ) चौरैरपि ६ १७० विपश्चित्स्वपि ३६६ विप्राणां भूषणम् ३३० विभवानुरूपम् २५८ विरूपः ४८९ विवादे २८३ विशेषज्ञम् ५२३ विश्वासघातिनः १८८ विषं विषमेव ३०७ विषादपि ४४१ विषामृतयोः ९० वृत्तिमूलम् २० वृत्तिमूलोर्थः ७ वृद्धसेवायाः ३६४ वैदुष्यम् ३६४ वैरूप्यम् ५४१ व्यवहारानुलोमः ५४६ व्यवहारे पक्षपातः ५५४ व्यवहारेश्तर्गतम् ४२ ( चाणक्य . ) सूत्र संख्या सूत्राणि २५३ व्यसनं मनागपि ०५३ १५१ व्यसनमनाः व्यसनार्तः ६२ ५३५ श शक्तिहीनः शक्तौ क्षमा १९४ छिद्रे २०१ शत्रुं जयति ५३४ शत्रु न निन्देत् ४५० शत्रुभिरनभि ५१६ शत्रुरपि प्रमादी ५१६ शत्रुर्मिश्रवत् २९० शत्रुव्यसनम् १९२ शत्रोरपि २९३ शत्रोरपि ३०६ शत्रोरपि ४५० शत्रोरपि शरीरे २२२ ५४३ शास्त्रज्ञोप्यलोकज्ञः ४६९ शास्त्रप्रधाना ५४४ शास्त्रप्रयोजनम् शास्त्राभावे ४७० २०६ शिरसि २१६ शौण्डहस्तगतम् २१ श्रुतवन्तम् १४६ श्रुतिसुखात् ६४९ Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५० सूत्रसंख्या सूत्राणि ४४६ श्रुतिसुखाः २८ श्रेष्ठतमाम् ५३९ श्वः कार्यमह्य ३४७ श्वः सहसात् ३४८ वो मयूरात् प ३४ पट्कर्णात् ३४ षटकर्णो मंत्रः स २४० सज्जनगर्हिते १७५ सतां मतम् ३९१ सतीर्थाभिगमनात् १६८ सत्यमपि ५४९ सत्यसाक्षी ४१८ सत्यं स्वर्गस्य ४२० सत्याद्देवो वर्षति ४१९ सत्येन ५१९ सत्संग: ५०० सन्तोऽसत्सु ६० सन्धायैकतः ४७ सन्धिविग्रह २७३ समकाले ९ सम्पादितात्मा १५ सम्पाद्यात्मानम चाणक्यसूत्राणि सूत्रसंख्या सूत्राणि १३७ सर्वकार्या ५३१ सर्वकृत्येष्वपि ३५० सर्व जयति ५४२ सर्वज्ञता २६ सर्वद्वारेभ्यः ५६६ ४२८ ५६२ ५४९ १३७ सर्वानुष्ठानात् ३६३ सर्वावस्थासु सर्वमनित्यम् सर्वस्य भूषणम् सर्वत्र मान्यम् सर्वसाक्षी ११४ सर्वाश्व ३६७ सर्वेषां भूपणम् ५३३ सविशेषं वा २८९ संसदि शत्रुम् ४६१ संकृतः १८ सहायः ३७० साधुजनबहुल: २८१ सानुक्रोशम् १४५ सारं माहाजनः ५३८ साहसवताम् १५० १५० १२१ सिद्धस्य १२१ सिद्धस्यैव साहसे खलु साहसेन न Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रम - सूची सूत्रसंख्या सूत्राणि १ सुखस्य ४५७ सुजीर्णोपि ३७३ सुतमपि ५५८ सुदर्शना हि ३१४ सुदुर्लभम् ४३८ सुदुष्करम् ३७३ सुदूरमरि २०५ सुपूजितोषि ४६६ सुसंस्कृत: ३४४ सोपचार: ४४९ सौभाग्यम् ३१८ स्त्रियोपि २८५ स्त्रीणाममैथुनम् ३६५ स्त्रीणाम् ४४९ स्त्रीणां भूषणम् ४७९ स्त्रीणाम् ५१२ स्त्रीणां भर्तुः ४७७ स्त्री नाम ३३० स्त्रीपु ४४३ स्तुता ३०९ स्थान एव ३४२ स्नेहवतः २७३ स्वकाले १३६ ६९८ स्वजनम् स्वजनस्य सूत्रसख्या सूत्राणि १९९ स्वजनावमानोपि २४६ स्वजनेषु ३९४ स्वदासी ५६६ स्वदेहे ४४७ स्वधर्महेतुः ३२७ स्वभावः २२८ स्वयमेव ३२६ स्वयमशुद्धः ४६३ स्वयमेव ४१६ स्वर्ग नयति ४८२ स्वर्गस्थानम् ४०१ स्वल्पमपि १३५ स्वशक्तिम् ५६२ स्वशरीरमपि ५३२ स्वशरीरमिव १९७ २४८ स्वहस्तोप १३९ स्वाभिनः शीलम् ३४० स्वामिनि ५३३ ११ २३० ३३५ ५३२ स्वहस्तगतम् स्वाभिनो भीरुः स्वाभिसंपत् स्वामी स्तोतव्यः स्वाम्यनुकूल: स्वम्यग्रहः ६५१ Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५२ चाणक्यसूत्राणि सूत्रसंख्या सूत्राणि ५०१ हंसाः १९७ हस्तगतमपि १०४ हस्तगताव ५७ हस्तिनः २९२ हितमपि ५२ हीयमानः ५२ हीयमानेन ५२६ हृद्तमाच्छाथ ५१ हेतुतः सूत्रसंख्या सूत्राणि २०८ क्षन्तव्यमिति ५७१ क्षमायुक्तस्य ५३६ क्षमायुक्ताः ५३६ क्षमावानेव ४९३ क्षीरार्थिनः १२७ क्षीरार्थी १७७ क्षीराश्रितम् १४१ क्षुद्रे ४३८ ज्ञात्वापि । १२२ ज्ञानवतामपि ११६ ज्ञानानुमानः १०९ क्षणं प्रति ॥ शिवमस्तु॥ Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणिकी शीर्षक सूची पृष्ठ १ से २६ राजा २६ ur me ४७ शीर्षक सूची पृष्ठ शीर्षक सूची भूमिका सुखका मूल शत्रुराष्ट्र धर्मका मूल, अर्थका मूल मित्रराष्ट्र राज्यका मूल निर्बल धार्मिक राजाकी इन्द्रियजयका मूल संधिनीति विनयका मूल सबल धार्मिक राजाकी सन्धिः शासन-कुशलता सीखने का साधन ६ नीति, सन्धिका कारण योग्य शासक बनने की विधि युद्धका अवसर आत्मविजयी शत्रुप्रयत्नोंका निरीक्षण, जितात्मताका लाभ संधिका अवसर प्रजाकी संपन्नता तथा राजभक्तिका सन्धिमें सावधानता कारण, प्रजाकी गुणवृद्धिका राजद्रोह अकर्तव्य कारण सोम्य वेष प्रजाजनोंकी गुणवृद्धिसे राष्ट्रका राजद्रोही संगठनों का विनाश महालाभ व्यसनासक्तिसे हानि पंचायती राज्यकी कल्पना शूतसे हानि मन्त्रोत्पादन मृगयासे हानि, मन्त्रीकी नियुक्ति ___कामासक्तिस हानि मन्त्रणाके अयोग्य, कठोर वाणासे हान मंत्रीकी योग्यता कठोर दण्ड से हानि मित्रसंग्रह का लाभ, आर्थिक संतोषकी घातकता बलका उपयोग शत्रुदमन दण्डनीतिपर निर्भर आलस्यसे हानि दण्डनीति प्रजाकी संरक्षक राज्यतन्त्रका लक्षण तन्न दण्डका माहात्म्य, आवाप, मण्डल ४५ दण्डभावसे हानि Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि शीर्षक सूची शीर्षक सूची पृष्ठ दण्डके लाभ, दण्ड आत्मरक्षक ७४ कार्यकाल टलने का दुष्परिणाम ९१ राजाकी आत्मरक्षाका राष्ट्रीय कर्तव्यपालनमें विलम्ब अकर्तव्य, कतव्यपालनम महत्व ७५ कार्य प्रारम्भ करने में ज्ञयतत्व ९२ दण्डप्रयोगमें सावधानता, राजाकी विपरीत परिस्थितिमें कार्य करनेसे __ अवज्ञा राष्ट्रीय अपराध ७६ हानि राजाकी योग्यताका प्रमाण ७७ कर्ममें देशकालकी परीक्षा कर्तव्य ९४ राजचरित्र अर्थलाभका आधार ७८ सुअवसरपर कर्म करनका लाभ, धर्म तथा कामका आधार ७९ सर्वविधसंपत्ति संग्रह राष्ट्रीय राष्ट्रीय कार्योका आधार, कर्तव्य उपायका स्वरूप अपरीक्ष्यकारिताकी हानि, उपायसे कार्य में सुकरता कर्तव्य परीक्षाके साधन अनुपायसे कायनाश ८२ राजकर्मचारियोंकी नियुक्तिका जीवन में उपायका महत्त्व ८३ आधार, उपायज्ञताकी महिमा ९७ कर्तव्यपालन ही जीवन का लक्ष्य ८४ अनुपायॉके कर्मों की महत्वहीनता ९८ पुरुषार्थ की प्रबलता, कर्मका उत्तर कार्यगुपिकी मर्यादा काल देवका अधिकार क्षेत्र है दैवी विपत्तियों के सम्बन्धम कर्तव्य १०० कमेकाल नहीं मानुषी विपत्तिका प्रतिकार, अव्यवस्थित चित्तताकी हानि, __ मूढ स्वभाव कर्तव्यतानिश्चयसे अनन्तर व्यवस्थापक भोलापन न बरने १०४ कार्यारम्भ, विलम्बकारिता कार्यविनाशका कारण, कार्यक! दूषण ___असफल होनेवाले लोग १०६ चञ्चलचित्तताको हानि, प्राप्त साध. कर्तव्यसे भागने का दुष्परिणाम, नांके अनुपयोगसे हानि ८८ अन्धा मानव निर्दोष कमी की दुर्लभता ८९ कर्तव्यनिश्चयके साधन, अशुभ परिणामी कर्म अकर्तव्य, ___ अपरीक्ष्यकारिताकीहानि १०८ कार्यसिद्धिमें अनुकूल समयका विपत्ति हटाने का उपाय, कर्म माहात्म्य ९० प्रारंभ करने की अवस्था १०९ १०७ Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीर्षक सूची ६५५ २४७ शीर्षक सूची पृष्ठ शीर्षक सूची पृष्ठ अमृतभोजी मानव ११० समाजकल्याणकारी त्रिवर्गान्तर्गत आय बढानेके उपाय, काम १३८ कापुरुषकी कर्तव्यहीनता १११. काम की दासतासे हानि १३२ स्वामीके स्वभाव परिचयका लाभ, समाजमें निष्कपटॉकी न्यूनता १४० ___ गुह्य बताने के अनधिकारी ११२ साधुपुरुषांकी अर्थनीति १४४ मृदुखभावसे हानि, लघु अपरा- । एक प्रधानदोष समस्त गुणनाशक १४५ । धमें कठोर दण्डसे हानि ११३ महत्वपूर्ण काम अपने ही दण्डमें औचित्यकी आवश्यकतः ११४ अगम्भीरतामे हानि, बहुताका विषम परिस्थिति में भी चरित्र. । ११६ कर्तापन कार्यनाशक रक्षा कर्तव्य विश्वासपात्र रहना प्राणरक्षामे शक्तिसे अधिक भार उठाने से हानि ११९ अधिक मूल्यवान , सभामें व्यक्तिगत कटाक्ष हानि पिशुन की हानि कारक १२२ उपयोगी बात नगण्य की भी ने, कोध करनेसे अपनी हानि १२४ मत्य अश्रद्धालसे मत कह १४९ सुत्यकी महत्ता १२५ सत्यकी अश्रद्धयता अनिवार्य १५० केवल भौतिक शक्तिकायका उपाय गुणिमोका आदर करना सीख १५१ नहीं, साहसमें लक्ष्मीका वास १२३ विद्वान् भी निन्दकाके लाग्छ. ध्यसनासक्तिसे हानि १२७ नोगे नहीं बचत समय दुरुपयोगसे हानि १२८ विद्वानकी निन्दा निन्दकका मुनिश्चित विनाशसे अनिश्चित अपराध विनाशमें लाभ, दूसरोंका विश्वासके सदा अयोग्य उत्तरदायित्व स्वार्थमूलक १२९ अविधासीको विश्वास रात्र दान स्वहितकारी कर्तव्य १३४ बनाना अस्तव्य १५४ दानका उचित मार्ग १३६ कपटपूर्ण नम्रताका विधान मत अनार्यप्रचलित व्यर्थ आचरण करो, साधुम्पोंके निर्णय के अनर्थजनक. सच्चा धन १३७ विरुद्ध चलना अकीर्तन १५५ Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५६ चाणक्यसूत्रााण १६७ ऐश्वर्यका फल शीर्षक सूची पृष्ठ शीर्षक सूची पृष्ट अनुभवीके सत्संगसे लाभ १५६ नीचोंका खभाव दुष्टोंका नीच स्वभाव नीचको समझाना अकर्तव्य, बुद्धिमानका कृतज्ञ स्वभाव, नीचका विश्वास अकर्तव्य १७७ पापियोंकी निर्लज्जता १५९ नीच स्वभाव उत्साहके लाभ अपमान करना अकर्तव्य १७९ विक्रम ही राजधन, निरपराधोंको कष्ट मत दो १८२ आलस्यसे विनाश १६४ अपमान सहनेवालॉपर अत्याचार पुरुषार्थीका कर्तव्य, मत करो १८४ विश्वासके अपात्र मन्त्रसभामें निर्बुद्धिको मत बैठाओ १८८ कार्यसिद्धमें वैरीका सहयोग परिणामसे हितबुद्धि पहचानो १८९ हानिकारक वैरी विश्वासका अपात्र मूढोका दानक्लेश १९२ संबन्धका आधार १६९ बडेसे बडा ऐश्वर्य असंयमीको __ नहीं बचा सकता शत्रुको मित्रतासे ठगने की अवधि, । क्षुद्र सदा त्याज्य शत्रुको असहाय छोड देनेका संसर्गके अयोग्य, दुष्टोंके गुण समय १७१ भी दोष, सच्ची बुद्धि १९६ शत्रुको बलवान दीखनेके आयो मित भोजनका परिणाम जन करो १७२ नीरोग रहने का उपाय शत्रुक, स्वभाव, अधीन शत्रुका वार्धक्यमें व्याधिकी उपेक्षा अकर्तव्य. विश्वास मूढता, राजकर्मचारि अजीर्णमें भोजन की हानि २०१ योंके दुराचार रोकना राजाका व्याधिकी हानिकारकता, स्वहितकारी कर्तव्य १७३ दानकी मात्राका आधार २०२ एक कर्मचारीके पापसे संपूर्ण अनुचित घनिष्टता बढानेवालोंसे राजव्यवस्था दृषित १७४ सावधान रहो, लोभसे हानि २०४ सदाचार शत्रुविजयका अमोघ अनेक कर्तव्यों में से एक छांटनेका साधन १७५ आधार २०५ Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीर्षक सूची ५७ करो का कसोटी २१५ महत्व शीर्षक सूची पृष शीर्षक सूची पृह बिगडे कर्मका स्वयं निरीक्षण २०८ दुष्टोंसे सम्बन्ध हानिकारक दुःसाहस मूोंका स्वभाव, हितैषिता ही बन्धुता २२७ __ मूखाँसे वाग्युद्ध अकर्तव्य २०९ विश्वासके अयोग्य ૨૨૮ दुष्टोंको बलसे समझाना संभव २१० इस समय शत्रुता न करनेवाले मुखोंके सच्चे मित्र नहीं होते, भी शत्रुको नष्ट करने में प्रमाद कर्तव्य ही मानवका अनुपम मत करो मित्र २१२ विपत्ति या दुर्व्यसनको छोटा धर्मका महत्व मानकर उपेक्षा न करो २३० धर्मकी माता | धन उपार्जनीय है मनुष्यताकी रक्षा ही सत्य और धनार्जनके प्रयत्न स्थगित मत दानके ठीक होने की कसोटी २१५ : मनुष्यताकी रक्षारूपी कर्तव्य दरिद्रताके दोष __ पालन विश्वविजयका साधन २१६ कर्तव्यनिष्ट मौतसे भी नहीं मरता नीच अपमानसे नहीं डरता, मनमें पाप बढनेपर धर्मका व्यवहार कुशलकी निभयता, अपमान २१७ जितेन्द्रियकी निर्भयता, व्यवहारकुशलता ही बुद्धिमत्त। सफल जीवनकी निभयता २३५ है, निन्दित काम मत करो २१९ साधुकी उदार हाट २३८ विनाशके चिन्ह, पिशुनको गुप्त परधन के सम्बन्धमें श्रेष्ट नीति २३९ बात न बताओ २२० परधनलोलुपतासे हानि, पररहस्य सुनना अकर्तव्य २२१ परधन की अग्राह्यता २४० राज्यसंस्थाका नौकरशाही बन. चारी मनुष्यका सर्वाधिक विनाश, जाना पापमूलक तथा पाप. समाजमें नैतिकताके आदर्शजनक २२२ की रक्षाके लिये अल्पसाध. हितैषियोंकी उपेक्षा अकर्तव्य २२४ नोंसे जीवन बिताने का व्रत स्वजनोंसे स्वार्थलोलुप व्यवहार लो, साधनांक उपयोगका हानिकारक उचित समय पहचानो Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५८ चाणक्यसूत्राणि शीर्षक सूची पृष्ठ शीर्षक सूची पृष्ठ अभुत्वरक्षा राज्यसंस्थाका सार्व- विद्या यशाकरी । २६२ दिक कर्तव्य, यश मानवका अमर देह कतव्यमें समयका महत्व २४३ सबके स्वार्थको अपना समझना नीव के ज्ञान का नीच उपयोग २४४ सत्पुरुषता है चरित्रक' जीवनव्यापी प्रभाव, शास्त्रकी उपकारिता जीवन में अन्नका महत्वपूर्ण नीचसे विद्याग्रहण हानिकारक २६७ स्थान २४५ अश्लील भाषण अग्राह्य राज्यसंस्था का सबसे बड़ा शत्रु, संघटन म्लेच्छों से शिक्षीय २७० निकम्मोंका भखों मरना शत्रुओंका रणकौशल शिक्षणीय २७१ निश्चित ४६ कल्याणकारिणी परिस्थिति बना. सुधाकी विकरालता. इन्द्रियों के देनेवालेका सम्मान २७३ दुरुपयोगका दुष्परिणाम २४७, अपने प्रभावक्षेत्र में हो मनुष्य की प्रभु बनाने योग्य, लोभीका प्रभ बनाने से हानि १४९ आर्य सदाचार पालनीय २७9 आश्रयणीय प्रभुके गुण, मर्यादोलंघन अकर्तव्य, गुणी समान वाहसे गार्हस्थ्य पुरुष के अमन्य धन २७८ जीवन को दुखदता २५० सचरित्र तपन्विनी स्त्रियाँ राष्ट्रक अनुपम रत्न मनुप्यका सबसे बडा वरी २५२ गुणी स्त्री पुरुषों की दुर्लभता समासभा में वायुसे वाटयवहार की जका महादुर्भाग्य, नीति निन्दित आचरण जीवन की शत्रुका सर्वनाश करना मानवीय भीषण अवस्था __ कर्तव्य २५६ अलस विद्याका अनधिकारी २८१ धनहीनता से बुद्धिनाश २५७ स्त्रैण कर्तव्यहीन तथा दुःखी २८२ धनहीनता की हानि २५९ स्त्रैण स्त्रियोंसे भी अपमानित निधनों का सम्म नित धन, भ्रान्त उपायोंसे सुखान्वेषण विद्याधनका श्रेष्ठता निष्फल २८३ २५४ Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीर्षक सूची ६५९ शीर्षक सूची पृष्ठ वीर्षक सूची पृष्ठ सीधे सादे सत्यनिष्ठोंका परिहास निर्बलसे सदोष परिचित नहीं अकर्तव्य २८५ छोडे जाते ३०७ अश्लील परिहास न करो, रूखे सहयोगीकी श्रेष्ठता, कारणसंग्रहमे कार्यसफलता २८६ वर्तमान छोटी स्थिति आशाक कारणसंग्रह का महत्व, बडे मेसि अन्छी शैन्यार्थी मुहूर्त नहीं देखता २८७ अनैतिकता कर्तव्यभ्रष्टताकी दोष ज्ञानकी स्थिति, बुरों के लिये उत्पादक, विश्वविजयी मानव ३०९ संसार में कोई भला नहीं २८८ बुद्धिविजय उदीयमान मानवका स्वभाव नहीं फट सकता २८९ सबसे पहला काम, दण्डका परिमाण क्रोधपर कोप करना कर्तव्य २० उत्तर कैसा हो ? विवाद किनसे न किया जाय ? ६१२ वघभूषा का हो? ऐश्चर्यमें पैशाचिकता अनिवार्य ३१३ आचरण कैसा हो ? प्रयत्न कितना हो ? धनोपासक सुकर्मसे मानवाचित प्रसन्नता पाने के अनधिकारी ३१५ दान कितना दें? विवाह प्रथा स्वकृर अपराध वेश कसा हो ? नत्य कैसा हो र २९८ रोधक स्वेच्छ। धर्मवन्धन ३७ भार्या कैसी हो २९९ नियुक्तिकी योग्यता, शिष्य कसा हो ? ३०० दुष्कल की दुखदायितः ३१८ पुत्र कैसा हो? अप्रमत्तपति पत्नी को सुमार्गपर अनुचित आदर तथा भेट मत रखनेका अधिकार ३२२ सहो, कुपित स्वामीपर प्रांत. बीजातिकी अविधाग्याता कोपन करके अपनी मल। सुधारो अज्ञान और चोचल्य स्त्रीस्वभाव ३२१ हितषियों के रोषमें अनिष्ट भावना जीवन में माताको सर्वोपरि म्यान ३२२ नहीं होती, मूढका स्वभाव ३०४ मातृसेवा अत्याज्य कर्तव्य ३२३ धूतःका वशीकरण मन्त्र, विद्वताविरोधी आचरण धूर्ततावाली सेवा उपचार है, देहाङ्गोकी नग्नताकी असयता शंकनीय सेवा ३०६ स्त्रियोंका अलंकार २० Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६० शीर्षक सूची ब्रह्मज्ञान ब्राह्मणोंका अलंकार कर्तव्यपालन मानवमात्रका अहंकार अलंकारोंका भी अलंकार भुजबलसे निरुपद्रव बनाये देशमें रहो सच्चा देश राजनियम श्रद्धा से पालो राजा राष्ट्रभर से धर्मपालन करानेवाला जीवित देवता राजशक्तिका व्यापक कर्मक्षेत्र राजदर्शनका आचार पृष्ठ शीर्षक सूची ३२९| पत्नीत्वका सदुपयोग ३३० ३३१ स्थिति, पुत्रत्यागकी स्थिति, सर्वत्यागकी स्थिति गुणवान् पुत्रके लाभको प्रशंसा सच्चा पुत्र सच्चा पुरुष सुपुत्र विना सुखकी असंभवता, भार्यात्वकी सफलता ब्रह्मचर्यविनाशकी स्थिति ३३३ ३३४ ३३५ ३३६ ३३७ ३३८ गुरुदर्शन तथा देवदर्शनका आचार ३४० राजाके पारिवारिकोंका सत्कार राजपरिषत्की गतिविधि से ३४९ परिचित रहो ३४२ पिताका स्वर्ग ३४३ राजधन अग्राह्य, ३४४ सन्तानके प्रति पिताका कर्तव्य ग्रामीण स्वार्थके बलिदानकी स्थिति ३४५ कौटुम्बिक स्वार्थके बलिदान की ३६६ ३४८ ३५० ३५२ ३५३ ३५४ चाणक्यसूत्राणि विनाशका पूर्वचिन्ह, सुखदुःख जीवनकी अनिवार्य स्थिति सुखदुःख स्वोत्पादित साधुका उपकारक के प्रति आत्मविक्रय वैभवकी मलाई बुराई बुद्धिपर निर्भर क्रोध के उत्तर में क्रोध मत करो, जितेन्द्रिय समाज के मूल्यवान् अपात्रका उपकार अकर्तव्य अनार्यकी अकृतज्ञताका कारण उपकारकके प्रति साधुकी कर्तव्य शीलता, देवापमान अकर्तव्य ३६५ घटनास्थल के प्रत्यक्ष दर्शनका धन परदाराभिगामी समाजकी पृष्ठ ३५७ ३६६ महत्व सार्वजनिक जलों के प्रति कर्तव्य ३६८ नग्नता असामाजिक स्थिति, ज्ञान देहोत्पादक समाजके अनुसार शान्तिका शत्रु, अन्नदानका माहात्म्य धर्मका मूलाधार धर्मद्रोह अकर्तव्य स्वर्गका साधन ३५८ ३५९ ३६१ ३६३ ३६४ ३६९ ३७१ ३७३ ३७४ ३७६ ३७७ ३७८ Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीर्षक सूची 3३५ शीर्षक सूची पृष्ठ शीर्षक सूची पृष्ठ सर्वश्रेष्ठ तपस्या ३७९ प्रिय वाणीका महात्म्य ४०२ स्वर्गका साधन ३८० दुर्वचन द्वषोत्पादक ४०४ समाजव्यवस्था रखनेवाला तत्व, राजाका द्वेष्य बनना अकर्तव्य ४०७ देवोंकी कृपा बरसानेवाला तत्व ३८१ मधुर भाषणका प्रभाव ४०९ सबसे बड़ा पाप कुकर्मीका पश्चाताप, गुरुओंकी भावना समझनेका सत्पुरुषका खभाव __ प्रयत्न करो, दुर्जनतासे बचो ३८६ गौरवहीन लोग, स्त्रियोंका भूषण ४११ धूर्तीकी मित्रहीनता, वैध जीविका शत्रकी भी अनाश्य ४१२ दरिद्रताके कष्ट जीवनोद्योगोंकी शत्रुसे रक्षा ४१४ सच्चा वीर, क्षुद्र के भरोसे बलवान्से मत मानवचरित्रका आभरण ३९० बिगाडो, देहकी विशालता मनुष्यमात्रका भूषण, जयका साधन नहीं आयत्वकी पहचान, आचार पालनके लाभ निर्बल मनसे बलके काम नहीं अवक्तव्य किये जाते, बढों का गुणी व्यक्तित्वके पीछे न चलकर होना अनिवार्य नहीं ४१६ सत्यके पीछे चलो ३९३ दुष्प्रकृतिवाले सारवान नहीं बनते, दुर्जनोंका साझा हानिकारक, सन्तान मातापिताके समान ४१७ सभाग्यशाली नीचोंसे बुद्धि शिक्षादीक्षाके अनुसार, संबन्ध अकर्तव्य आचार कुलके अनुसार ४१८ ऋण, शत्रु तथा व्याधिके संबंध में ऊंचेसे ऊंचे विद्यालय कुलाचारसे गंभीर कतव्य, सम्पन्न ऊंचा आचरण नहीं सिखा जीवनका माहात्म्य ३९७ सकते, अध्रुव महान् के लिये याचकोंका अपमान अकर्तव्य ३९८ ध्रुव अल्पको मत त्यागो ४१९ नीच प्रभुका स्वभाव ३९९ दुःख मनुष्यकी स्वेच्छास्वीकृत । अकृतज्ञ सर्वदा दुःखी व्याधि ४०० वृद्धि या विनाश सुवाणी जीवनका ऊंचा मापदंड मनुष्य के कुवाणीपर निभेर, सुखका विनाशक, विष तथा अमृतका भंडार १०१ रात्रिभ्रमण अकर्तव्य ४२१ Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्रााण पृष्ठ __ शीर्षक सूची पृष्ठ शीर्षक सूची रात्रि जागरण अकर्तव्य, मनकी बन्धनहीन स्थिति जीवनाचार कुलवृद्धोंसे सीखो ४२२ दुःखोंकी एकमात्र चिकित्सा ४४० परगृहप्रवेश अकर्तव्य, अनार्यसंबंध अकर्तव्य ४४३ असंयमने समाजको भ्रष्टा- निन्दित कुलोत्पन्नका चिन्ह, चारी बना दिया है ____ संसारका महत्वपूर्ण सुख ४४५ लोकाचारका आधार ४२५ अन्धा विरोध अकर्तव्य, शास्त्राभावमें शिष्टाचार ही शास्त्र, दैनिक कर्तव्योंपर चिन्ताका शिष्टाचार शास्त्रसे अधिक मान्य ४२६ विनाशोन्मुखका चिन्ह ४४७ राजाकी दूरदर्शिताका साधन, वृथा कर्म त्याज्य, सर्वोत्तम __संसार मेषमनोवृत्ति है ४२७ वशीकार, पराधीन बातोंमें मेषमनोवृत्ति संसारमें बुद्धि उत्कण्ठा वर्जित मानका कर्तव्य ४२९ पापीके धनका दुरुपयोग स्वामिनिन्दा अकर्तव्य ४३० पापी धन सज्जनके काम नहीं इन्द्रियनिग्रह जीवनकी परम आता, बुरे अच्छे कामोंमें विशेषता धनव्यय नहीं कर सकते ४५० असाधारण मनोबलका काम, भले बुरोंसे हिलमिलकर नहीं स्त्रीबन्धन समस्त पापों ४५१ तथा उत्पातोंका मूल ४३३ संसार भोजन और भोगमें विचारधर्मा लोगोंका स्त्रियोंसे __ जीवन नष्ट कर रहा है ४५२ कर्तव्यमात्रका संबन्ध, आशाके दास सदा श्रीहीन ४५६ आत्मवेत्ता ही वेदज्ञ है ४३४ आशाके दास सदा अधीर ४५७ सुखोंकी अस्थायिता ४३५, अनुत्साह मृतावस्थ! ४५८ भोगानुकूल कर्म के प्रभावका काल ४३६ आशाके दास निर्लज, सबसे बडा दुःख ४३७ आत्मप्रशंसा अक्तव्य ४५९ मानव केवल वर्तमान में सुख दिवाशयन अकर्तव्य, चाहता है ४३९ ऐश्वर्यान्ध निर्विवेक ४६२ Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीर्षक सूची पृष्ठ शीर्षक सूची पृष्ट शीर्षक सूची नारीका सर्वश्रेष्ट देव ४६५ अनार्यकी निर्दयता ४८८ अतिथि-पूजा ४६६ शत्रुके प्रति बुद्धिमान्का दृष्टिकोण ४८९ दान दैनिक कर्तव्य ४६७ सभामें शत्रुसे व्यवहारकी नीति, दान अव्यर्थ साथी ४६९ शत्रुको अपना निर्बल रूप शत्रुके। पछाडनेका उपाय, अजिते- मत दिखाओ न्द्रियतासे पराजय निश्चित १७० सहनशील ताकी प्रशंसा ४९२ अजितेन्द्रियतासे ठगईमें आना क्षमासे प्रतिकारका सामथ्य ४९४ निश्चित आपत्कालीन कोश आवश्यक ४९५ दुर्विनीत उलहने से न मानकर असत्यविरोधी वीरोंकी सहायता ___ दण्डसे मानता है, कसाहित्य स्वहितकारी कर्तव्य ४९७ समाजको भ्रष्ट करता है ४७२ कर्तव्य अभी करें। भूमिका स्वर्ग ४७४ धर्म व्यावहारिक हो आर्यका उदार बर्ताव ४७५ पुरुषपरीक्षा ही सर्वज्ञता आकृतिसे गुणों का प्राथमिक भानवको न पहचाननेवाला मुढ, आभास ४७६ शास्त्रकी उपयोगिता ५०१ वस्तव्य स्थानकी परिभाषा ४७७: तत्वज्ञानका अवश्यंभावी फल ५०२ विश्वासघातीकी दुर्गति ४७८ व्यवहारको मुखद बनाने का उपाय ५०३ दुर्घटनाओंसे मत घबराओ ४८० व्यवहार की धर्मसे मुख्यता साधुका आश्रितोंसे सद्वर्ताव ४८१ अर्थात् व्यवहार अंगी धर्म अनार्यका कपटी व्यवहार ४८२ उसका अंग ५०४ सद्बुद्धिहीनता ही पैशाचिकता ४८३ व्यवहार का साक्षा आत्मरक्षाके साधनों के साथ संसारभरका साक्षी यात्रा करो ४८४ साक्षीका धर्म ५०७ पुत्रस्तुति अकर्तव्य, कूटसाक्षीको हानि ५०२ स्वामीका यशोगान भृत्यकलव्य ४८५ प्रत्येक व्यवहारका अपने ऊपर राजाज्ञापालनमें विलम्ब अकर्तव्य ४८६ नम विलम्ब अक्तव्य ४८९ प्रभाव, पापीको देखने वाली भृत्यका धर्म ४८७ प्रकृतिसे साक्षी लो ५१० ५०० ० ० Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्यसूत्राणि 537 शीर्षक सूची पृष्ठ शीर्षक सूची पृष्ठ पाप पापीके ही मुखसे स्वीकार दुःखका स्वरूप कराया जा सकता है 514 दुःखसे निस्तारेका उपाय आकृतिपर चरित्रकी छाप आ तपोवृद्धिका साधन 539 जाती है 518 तपस्या सर्वकार्य साधक 541 आकारसंगोपन असंभव 519 परिशिष्ट प्रजा तथा राष्ट्र के धनको चोरों प्रसंगोचित आलोचना 543 __ तथा राजकर्मचारियोंसे बचाओ, चाणक्यका मंत्रित्व त्याग प्रजासे न मिलनेवाले राजा आये चाणक्यका इतिवृत्त 568 प्रजाके विनाशक 520 आर्य चाणक्यकी नाति प्रजारंजनका उपाय, न्यायी आर्थिक आधारोंपर समाजराजाके प्रति प्रजाकी भावना 521 रचनाके दोष न्यायी राजाका लाभ, राजाकी दिनचर्या 595 राजाका कर्तव्य 522 सम्राट चन्द्रगुप्त 600 धर्मका लक्षण 524 चन्द्रगुप्त नंद वंशका नहीं था 602 सत्पुरुषका लक्षण 525 इतिहास लेखकों का उत्तरदायित्व 611 राजनैतिक ठगोंका माननीयों को ऐतिहासिकोका वर्तमान कर्तव्य 614 नीचा दिखाना, वर्तमान भारत निन्दित आहार 528 आर्य अनार्य स्वाम्राज्यों की ज्ञानी के लिये संसारमें दुःख नहीं है 530 तुलनात्मक आलोचना 621 ज्ञानदीपकसे संसारान्धकारका वर्तमान राजनैतिक साम्यवाद, विनाश समाजवाद आदि अनार्यसारा ही संसार मृत्युका ग्रास, वादोंकी आलोचना 624 देहासक्ति मानवका अज्ञान 532 चाणक्य-सूयाणामकारादिशरीर मानव नहीं वह उसका क्रम-सूची 637 से 652 एक साधन 535 शीर्षक सूची 653 से 664