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________________ पापों तथा उत्पातोंका मूल ४३३ ( असाधारण मनोबलका काम ) दुर्लभः स्त्रीबन्धनान्मोक्षः ॥ ४७६ ॥ स्त्रीसंबन्धी भोगका बन्धन सम्मुख आनेपर उससे अपनेको बचा सकना असाधारण मनोबल और तपस्याका काम है । वेधा द्वेधा भ्रमं चक्रे कान्तासु कनकेषु च । तासु तेष्वप्यनासक्तः साक्षाद्भर्गो नराकृतिः ॥ वेधाने कान्ता और कनक दो स्थानों में भ्रमका आधान किया है। उनमें कान्ता और कांचनमें अनासक्त मानव मानव नहीं नराकृति महादेव हैं। यदि राज्यशक्ति - सम्पन्न लोग अपने को इस बन्धन से बचाकर नहीं रक्खें तो उनके मानवस्वके सम्मानका नष्ट होना तथा उनका राज्यसे भ्रष्ट हो जाना अनिवार्य है | राजकाजी लोग अपने जीवन में भोगपक्षको उपेक्षापक्ष में रखकर ही सफल शासक बन सकते हैं । ( स्त्रीबन्धन समस्त पापों तथा उत्पातों का मूल ) स्त्रीनाम सर्वाशुभानां क्षेत्रम् ॥ ४७७ ॥ स्त्री सर्वाशुभका क्षेत्र है । स्त्रीसंपर्क समस्त प्रकारकी विपत्तियों, शत्रुताओं तथा पातित्योंका कारण वन जाता है । विवरण - रामायणकी घटना, महाभारतका गृह कलह, पृथ्विराजजयचन्द्रों का विनाश तथा यवनोंके खोलोभसे अनेक वार विध्वस्त हुआ। राजस्थान इसका साक्षी है । इसलिये यह सूत्र राज्यसंस्थामें काम करनेबालोंसे कहना चाहता है कि राज्यसंस्था तथा राज्यसंस्थाका निर्माता राष्ट्र श्रीकारणोंसे आनेवाली विपत्तियों से बचे रहने के लिये खीजाति के संबंध में अपने कर्तव्य के विषय में पूर्ण सचेत रहे । यदि मनुष्यसमाज स्त्रीजातिको अज्ञानान्धकारमें रखकर उन्हें भोगसाधनमात्र बनाये रखकर उन्हें अपने दाथकी कठपुतली बनाये रक्खेगा, तो इससे जहाँ देश पथभ्रष्ट होगा वहाँ २८ (चाणक्य. )
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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