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________________ संसार में बुद्धिमानका कर्तव्य कन्धोंपर चढा हुआ ऋषि ऋण कहा जाता है । समाजमें विवेककी परंपरा प्रवाहित किये बिना विवेकी लोग इस ऋणसे उऋण नहीं हो सकते । जब लब्ध- प्रतिष्ठ गतानुगतिकों को सन्मार्ग-प्रदर्शनका कर्तव्य करनेवाले विवेकी लोग विलुप्त हो जाते हैं, तब केवल साधारण जनता ही नहीं राजशक्ति भी कुमार्गगामी होकर लोकचरित्रको कलुषित करने लगती है । ऐसे प्रामादिक अवसरों पर विवेकी लोगोंकी सामर्थ्याधीन कर्तव्य - शीलता ही समाजकी ध्रुव-ज्योति होती है। ऐसे समय राष्ट्रके विवेकी लोगोंका कर्तव्य होता है कि वे अपनी संगठित शक्तिसे राजशक्तिको सुधारने के लिये सुदृढ अव्यर्थ उपायोंको काममें लायें । यदि समाजके विवेकी कहलानेवाले लोग भी राजशक्तिको सुधारनेके लिये आगे न बढ़ें तो उन्हें भी मासुरिकता के समर्थक कर्तव्यमूढ अविवेकियों की असुर-श्रेणीमें सम्मिलित होनेका अपराधी समझना चाहिये । नीरक्षीर विवेके हंसालस्यं त्वमेव तनुषे चेत् । विश्वस्मिन्नधुनान्यः कुलवतं पालयिष्यति कः ॥ ४२९ ओ राजहंस ! यदि नीरक्षीर विवेकमें तू ही आलस्य करने लगेगा तो बता संसार में और कौन कुरुव्रत पा लेगा ? (मेषमनोवृत्ति संसार में बुद्धिमानका कर्तव्य ) (अधिक सूत्र ) जीविभिस्तस्मिन्नाजीवेत् । अपने मानवजन्म की सफलता चाहनेवाले मनुष्य मानवजीवियों अर्थात् भोजन- भोग-परायण, उदरम्भरि लोगों की श्रेणी के साथ मिलकर अपने जीवनको गतानुगतिकतामें प्रवाहित न हो जाने दें। अपने जीवनको सफल करनेका इच्छुक मनुष्य अपने प्रत्येक कर्मके शुभाशुभ परिणामोंपर पूर्ण सतर्क दृष्टि रखकर कर्म से आत्म-कल्याणकी संभावनाके सुनिश्चित होनेपर ही किसी कर्मको अपनाये ।
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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