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चाणक्यसूत्राणि
अभिगमनका वह भर्थ लगाना भ्रान्तिमूलक होगा जो कि अनिष्ट परिणामका ही नामान्तर है । इसपर प्रश्न होता है कि जिस माशंकाके निकट संबन्ध अनिष्ट कर बताया जा रहा है उस निकट संपर्कका स्वरूप क्या है ? पतन. संभावनासे बचाये रखनेवाला शारीरिक, प्रार्थक्य या दूरता किस सीमातक संरक्षणीय है इस बातका निर्णय कौन करे ? उत्तर यही है कि जो विद्यार्थी विद्यार्थिनी पवित्रताको सुरक्षित रखने के आदर्शको पालना अपना कर्तव्य समझें वे ही स्वयं इसके निर्णायक होनेके योग्य हैं। उन्हींको इसका निर्णय करना चाहिये।
जब गुरुलोग उन्हें सावधानताके उपदेश दें तब वे उनके सामने केवल पवित्रताकी महिमाका बखान करें। उनके समक्ष पवित्रताकी महिमाके कीर्तनके अतिरिक्त उनके सहावस्थानकी सीमायें न बतायें। इसलिये न बताये कि सीमा बतान! या न बताना कोई अर्थ नहीं रखता। वह सब बेकार जाता है । बात यह है कि पतनकी सम्भावना शारीरिक पार्थक्यपर निर्भर नहीं है। इसलिये नहीं है कि पतनका स्थान तो मन ही है । इस सूक्ष्म विवेचनके भाधारपर इस सूत्रने सतीर्थ्य नरनारियों के सम्बन्ध में जो शंका प्रकट की है इसका वास्तव प्रतिकार सहशिक्षाको रोक देना ही है । सूत्रकार प्रकारान्तरले कहना चाहते हैं कि सहशिक्षा नहीं होनी चाहिये। जो क्षेत्र शंकासे व्याप्त है, मनुश्य उसमें प्रवेश ही क्यों करें ? शंकाक्षेत्रमें प्रवेश करना अनिवार्य कर्तव्य नहीं हुमा करता । शंकाके क्षेत्रका वर्जन ही मात्मरक्षाका एकमात्र उपाय होता है। जिस क्षेत्रमें पतनकी सम्भावना होती है, भामरक्षार्थी के लिये उस क्षेत्रका वरण करना कदापि वांछनीय नहीं होता । ऐसे क्षेत्रका तो परित्याग ही आदर्श के अनुकूल होता है।
इस सूत्रमें आपाल दृष्टिसे कुछ सीमातक सहशिक्षाका समर्थन किया गया प्रतीत होता है परन्तु उसके भयावह परिणामों की ओर संकेत करके सहशिक्षाका खण्डन कर डाला गया है। विद्यार्जन ही विद्यार्थी-विद्यार्थिनियोंका ध्येय है, पारस्परिक सानिध्य नहीं । जब कि विद्यार्जनके लिए