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पत्नीत्वका सदुपयोग
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सहशिक्षा अनिवार्य रूपमें कदापि स्वीकरणीय नहीं है तब सहशिक्षा स्वयमेव परित्याज्य सिद्ध होजाती है। सूत्र में इसी सिद्धान्तका स्पष्ट समर्थन है। पाठान्तर-- न सतीर्थाभिगमनाद् ब्रह्मचर्य नश्यति ।
न परक्षेत्रे बीजं निक्षिपेत् ॥ ३९२ ॥ यह पाठ अपपाठ है।
(पत्नीत्वका सदुपयोग)
पुत्रार्था हि स्त्रियः ॥ ३९३ ॥ पत्निये भोगार्थ न होकर सत्पुत्रोत्पादनार्थ हैं। विवरण-- स्त्रिय धर्मपूर्वक सत्पुत्र उत्पन्न करके समाजको गुणी, स्वस्थ, विद्वान, सदाचारी और बलवान् सदस्य देकर पितऋण उतारने या कर्तव्य. बुद्धिसे सृष्टि परम्पराकी ३क्षा धार्मिक सहयोग देने के लिये हैं । पत्नीसंग्रहका एकमात्र लक्ष्य समाजको धार्मिक प्रवृत्ति की सन्तान देना है। समाजने योग्य सदस्य पाने के लिये एकनिष्ठ दाम्पत्यकी व्यवस्था की है । समा. जको धार्मिक प्रवृत्ति की सन्तान देने के लिये पति-पत्नीका भोगाकर्षणसे संबद्ध न होकर यज्ञक्रिया अर्थात् विवाहको धार्मिक कतव्य समझ कर परस्पर संबद्ध होना आवश्यक है। समाज सद्गणी सदस्य पाने के लिये चाहता है कि पति-पत्नीका सम्मिलन " प्रजाय गृहमेधिनाम् : केवल योग्य सन्तानोत्पत्ति रूपी लक्ष्य को पूरा करने के लिये हो और वह भोगार्थ न होकर अपने उपर धार्मिक कर्तव्यका रूप लेकर रई।
स्वदासीप्ररिग्रहा हि स्वदासभावः ॥ ३९४ ॥ अपनी दासीको भोग्या बनाकर ग्रहण करना उसीका दास बनकर पतित होजाना है।
विवरण-जी धिकार्जनके लिये अपने सम्पर्क में मानेवाली दासीपर कुदृष्टि डालना और उसे भोगपात्र बनाना स्वयं भी उसीका दास बन जाना है।