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________________ ६१८ चाणक्यसूत्राणि इतिहाससे देशके वर्तमानको उज्ज्वल भूतसे तोलकर आत्मनिरीक्षण करने का अवसर मिलता है उससे अपनी भूलें सुधारने तथा भूतकालीन मदुपायोंका अवलम्बन करनेका सुअवसर हाथ माता है । इतिहाससे पाठ. कोंको उपयोगी बातें अपनाने का अवसर प्राप्त होता है। इन दोनों महापुरुषोंका इतिहास भाज सवादो सहन वर्ष बीत जानेपर भी अपने सदा नवीन रूपमें संसारभरको ज्ञानज्योति देते रहने के लिये सदा ही मार्ग दीपके रूप में खड़ा है और रहेगा। इन दोनों महाशयोंके सम्मुख योरोपके हिरणाकुश सिकन्दर जैसे असुरका आक्रमण उतना चिन्तनीय विषय नहीं था जितना भारतमें देशप्रेम या मनुष्यताका अमाव उनकी चिन्ताका विशेष विषय बन गया था। प्रभुताका लोभी ही देशद्रोह है, देशद्रोह नामके रोगका जो मूलस्वरूप है वहीं तो प्रभुता लोभ है । वेदज्ञ चाणक्यने पर्वतकको उसके प्रभुतालोम. रूपी देशद्रोहका दण्ड मृत्युके रूपमें देना उचित समझा था। विदेशी आसुरी शक्तिकी सहायता या कृपासे स्वदेशका शासनाधिकार लेकर स्वदेश. वासियोंकी मनुष्यताको पददलित तथा विनष्ट करके अपनी राज्य लोलुपताको चरितार्थ करना ही तो देशके साथ द्रोह है । इस देशद्रोहका मूल व्यक्तिगत स्वार्थान्धतामें विद्यमान है। व्यक्तिगत स्वार्थान्धता मानवको दूसरे मानव के साथ प्रेमबन्धनमें आबद्ध नहीं रहने देती। अपने व्यक्तिगत स्वार्थको राष्ट्रकल्याणमें विलीन कर डालने की भावना ही राष्ट्रियता है । राष्ट्रियताके साथ न्यक्तिगत स्वार्थको संकीर्ण दृष्टिका जन्मवैर है। व्यक्तिगत स्वार्थ भावनाका नाम ही वह मात्स्यन्याय या जिसकी लाठी उसकी भैंस है जिसके संबन्धमें चाणक्यने मनुष्यसमाजको सावधान किया था। माजका भारवासी उसी व्यक्तिगत स्वार्थ भावनाके प्रभावमें भाकर मासुरी राजका माखेट बना है। मबसे सवादो सहस्र वर्ष पूर्व सिकन्दर तथा चन्द्रगुप्तने संसारके सामने दो विपरीत आदर्श उपस्थित किये थे। सिकन्दर तो भासुरीवृत्ति लेकर
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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