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पररहस्य सुनना अकर्तव्य
खळ व्यक्ति स्वभावसे दूसरोंको हानि पहुँचानेका अवसर ढूँढता रहता । वह कानों में दूसरोंकी गोपनीय बात आते ही उसके सहारेसे दूसरोंमें भेद डालकर उसे दूसरोंमें झगडे पुरनेका साधन बनालेता है। किसी भी प्रकारकी मंत्रणा में ऐसे मनुष्यका विश्वास करके उसे अपना सहयोगी नहीं बनाना चाहिये |
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( पररहस्य सुनना अकर्तव्य )
पररहस्यं नैव श्रोतव्यम् ॥ २४४ ॥
दूसरोंकी गुप्त बात सुननेका अकारण आग्रह न होना चाहिये । विवरण - जैसे पराये धनका लोभ करना अपहरण ( चोरी ) प्रवृत्ति है, इसीप्रकार दूसरोंकी गुप्त बात ( अर्थात् जिस बात से केवल उन्हींके हानि-लाभका संबंध हो और अपना कर्तव्यका कुछ भी संबंध न हो ) सुनने का आग्रह होना व्यक्तिगत दृष्टिसे अशान्तचित्तता तथा सामाजिक दृष्टिसे चंचलता के रूप में निन्दित है । इस आग्रहको मनमें स्थान न देना इन्द्रियसंयम में सम्मिलित है । असंयत श्रोता तथा वक्ता दोनों ही समाज में हेय बनजाते हैं। ऐसी प्रवृत्ति शिष्टाचार विरोधी आचरण होनेसे सभ्यसमाजमें निन्दित होती है ।
वैरनिर्यातन से संबंध रखनेवाली शत्रुकी गुप्त बातोंका परिचय प्राप्त करना, प्रत्येक मनुष्यका कर्तव्य है । यदि कोई इस कर्तव्यको त्याग देगा। तो उसे शत्रुको अपनी हत्या करनेसे रोकनेकी सावधानता भी त्याग देनी पडेगी । मनुष्य को ऐसा असावधान बनाना चाणक्य जैसे सतर्क मुनिके इस सूत्र का अभिप्राय नहीं होसकता। इसका एकमात्र अभिप्राय यही हो सकता है कि अपने लिये अनावश्यक होनेपर भी दूसरोंकी गुप्त बात केवल • अपना कौतुहल हटानेके लिये सुननेकी इच्छा करना तथा अपने इस स्वभावके कारण फैले अपयश से समाजमें अपने विरुद्ध उत्तेजना फैलाकर लोगों की
में अपने ऊपर परच्छिद्रान्वेषी पैशुन्यवादी आदि घृणायोग्य कलंक ले लेना केवल अपनेको नीचा करना ही नहीं है प्रत्युत संकटमें डालना भी है । अपने से संबंध न रखनेवाली पर-निन्दा सुननेका कौतूइल निर्बुद्धिता