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मूढका स्वभाव
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नीचः सर्षपमात्राणि परच्छिद्राणि पश्यति ।
आत्मनो बिल्वमात्राणि पश्यन्नपि न पश्यति ॥ नीच मनुष्य दूसरोंके तो सर्षपतुल्य छोटे नगण्य दोष भी देखता फिरा करता है । परन्तु अपने तो बिल्व जैसे महादोष भी उसे दिखाई नहीं देते।
गुणदोषानशास्त्रज्ञः कथं विभजते जनः । किमन्धस्याधिकारोऽस्ति रूपभेदोपलब्धिषु ॥ ( दण्डी ) अशास्त्रज्ञ अर्थात् संयमसे अनभिज्ञ मनुष्य बुराई भलाईको नहीं पहचान सकता, क्या कहीं कभी अंधोको भी रूपों के भेद जाननेका अधिकार हुआ है ? ___ मूर्ख जब कोई मूर्खता करबैठता है, तब उसकी मूर्खताका यही रूप होता है कि हममें अपनी मूर्खताको पकडने तथा उसे निन्दित करनेवाली बुद्धि नहीं होती । यदि किनी में मूर्खता पहचानने तथा उसे निन्दित करने. बाली बुद्धि हो तब तो उसे बुद्धिमान् ही कहना होगा। मम बुद्धि का न होना ही तो मुर्खता है । आत्मसुधारकी जो भावना है वहीं तो बुद्धिमत्ता है । जिस हृदयमें आत्मसधारकी प्रवृत्ति प्रहरीका काम करती रहती है उस हृदयमें मूर्खताको स्थान नहीं मिलता। उस हृदय में भ्रान्ति कभी होती ही नहीं। मनुष्यताके संरक्षक समाजसेवकों को चाहिये कि वे अपने सेव्य प्रभ मानवसमाजको प्रत्येक क्षण मात्मसधार के लिये सतर्क रखें तथा समाजमें भापरिकताको न घुमने देने के लिये समाजके प्रहरी बनकर रहें। आत्मसुधारकी जो भावना है वही तो मूर्खताविध्वंसक पाण्डित्य या विद्वत्ता है। अपने मन में भलिनताको प्रवेश न लेने देना हो मात्मसुधारकको भावनाका अर्थ है । पवित्र हृदय ही आत्ममुधारका क्रियाशील क्षेत्र है। मलिन हृदयमें तो मलिनता ही बदमूल होकर रहती है। उसमें आत्मसुधारकी भावनाको उत्पन्न होने का अवसर ही नहीं मिलता। मूर्ख लोग मलि. नताको चिपटे रह का स्वापराव जनित क्षातको भी परापराधजनित माननेको भ्रान्ति करके भात्मसुधारसे वंचित रहते तथा सदा मूर्ख बने रहते हैं ।
२० (चाणक्य.)