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________________ ३०४ चाणक्यसूत्राणि अपनाये रहने का एकमात्र उपाय है। अपराधी बने रहकर तो हितैषी प्रभुके देषका पात्र ही बने रहना अनिवार्य होता है। पाठान्तर-मातृताडितो बालो ......... । (हितैषियोंके रोषमें अनिष्ट भावना नहीं होती) स्नेहवतः स्वल्पो हि रोषः ।। ३४२ ।। स्नेही गुरुलोगोंका रोष अनिष्टभावसे रहित होता है । विवरण-- स्नेहवानोंका रोष अनिष्टकारी न होकर सुधारक भावना या हितबुद्धि से प्रेरित होता है । ऊपर इसी भावनासे उनके कुपित होजाने पर भी उन्हींका अनुसरण करने के लिये कहा गया है। पाठान्तर- स्नेहवतः स्वल्पोऽपि रोषः । अपि शब्द हीका स्थानापन्न होनेसे अर्थसमान है । (मूढका स्वभाव ) आत्मच्छिद्रं न पश्यति परच्छिद्रमेव पश्यति बालिशः ॥ ३४३॥ मूर्ख अपना अपराध न देखकर दूसरोहीका अपराध देखा करता है। विवरण- मूर्ख अपना दोष या अपराध न देखकर दूसरोंका अहिता. चरण करनेकी अपनी दुष्प्रवृत्तिसे प्रेरित होकर दूसरों दीके अपराध ढूंढता फिरा करता है । वह मात्मसुधार न करके अपनी मूढतासे ही चिपटा रहनेवाला चिरमूर्ख बनारहता है। वह दूसरोंका छिद्रान्वेषण करके उन्हें भी अपनी जैसी मूर्ख श्रेणी में घसीटनेका मूढ प्रयत्न करके मिथ्या आत्मसन्तोष कमाया करता है। वह हिताहितविवेकशक्तिहीन होनेसे निजदोषोंकी मोरसे बंधा होकर दूसरों के दोषोंका आविष्कार करने में अपने अमूल्य दुर्लम मानवजीवनका दुरुपयोग किया करता है ।
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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