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________________ १२ चाणक्यसूत्राणि भारतवासी बाह्य और आभ्यन्तरिक दोनों प्रकारके शत्रुओंका आखेट बना है, वह इस अनीतिप्रसारक अर्थकारी विद्याके पीछे पडनेके परिणामस्वरूप मासुरीसमाज बन जानेसे ही बना है। अर्थका दास सम्मान या आत्म. गौरव नहीं चाहता। वह तो केवल अर्थ चाहता है। अर्थकारी विद्या देशमें अनीतिका प्रसार किये बिना नहीं मान सकती और स्वाभिमानहीन मनुष्य पैदा करने से नहीं रोकी जा सकती। श्रिया ाभीक्ष्णं संवासो दर्पयेन्मोहयेदपि । श्रीसे मनुष्य में दर्प और मोह उत्पन्न होना अनिवार्य है। श्रीक। जीवनमें उपयोग होने पर भी उसे जीवन में सर्वोपरि स्थान नहीं दिया जा सकता। श्रीको नैतिकताके बन्धनमें सीमित रखनेसे ही उसे मानवोपयोगी बनाकर रक्खा जा सकता है। नैतिक बन्धनोंसे हीन श्रीमहाविनाशका कारण बन जाती है। भारतका समाजसुधार तथा राज्यसुधार तब ही संभव है जब राज. नीतिका भारतीय दृष्टिकोण अपनाया जाय और अध्यारम तथा राजनीतिकी एकताको लेकर चलनेवाली भारतकी आर्यराजनीति के प्रतीक चाणक्यसूत्रों को भारतसन्तानकी पाठविधिमें सम्मिलित किया जाय। मानवसन्तानको जीवनके नैतिक आधारोंसे सपरिचित कराकर उसे ज्ञानालोकका दर्शन करा देना ही शिक्षाका उद्देश्य है । पाश्चात्य विचारोंसे प्रभावित लोग माध्या. त्मिकताके नामसे चौकते हैं। उन्हें जानना चाहिये कि भारतको राजनीति नैतिकता, मनुष्यता और आध्यात्मिकतामें कोई भेद नहीं है : ये सब अभिन्न है। ये एक ही वस्तु के विवक्षाभेदसे तीन अनेक नाम हैं। कर्तव्यपालन में जिस दृढताकी आवश्यकता है वही अध्यात्म है । दृढता सध्यात्मकी ही देन है । दृढताके विना राष्ट्र नहीं रह सकता। मानवीय यथायज्ञान बाध्यात्म. नैतिकता, मनुष्यता या मुक्ति मादिका यही स्वरूप है कि मानव माठों प्रहर भोगभोजनान्वेषी होकर भटकते फिरनेवाले भात्मम्भरि पशुपक्षियों के समान न हो जाय और केवल अपने व्यक्तिगत क्षुद्र स्वार्थो में फंसा न पा
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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