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भूमिका
रहे, किन्तु मानवोचित्त मानसिक स्थितिमें रहने के लिये समाजकल्याणको ही अपना वास्तविक कल्याण समझे ।
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अपने व्यक्तिगत क्षुद्र लाभको ही जीवनका लक्ष्य मान लेना मनुष्यका स्वविषयक घोर अज्ञान है । ऐसे मानवने नहीं पहचाना कि मानवताका सम्बन्ध केवल अपने देहसे न होकर सारे ही संसारसे है । मानवसे सारा ही संसार कुछ न कुछ भाशा करता है । मानव संसारभरके कल्याणमें भोग देनेकी क्षमता रखता है । आपने देखा कि मानव बनना कितना उसरदायित्व वहन करता है ? व्यक्तिगत क्षुद्र लाभको ही जीवनका लक्ष्य मान लेनेवाले मानवने भगवान् व्यासकी 'न मानुषात् श्रेष्ठतरं हि किंचित् ' घोषणाका रहस्य नहीं समझा कि मानवीय सत्ता कितनी महामहिम सत्ता है और इस कारण उसका अपने, कुटुम्ब, ग्राम, समाज, देश तथा इस संसारके सम्बन्धर्मे कितना बडा उत्तरदायित्व है ।
आजकल अपने विषय में घोर अंधेरे में रहते हुए भी स्वभिन्न संसारके विषय में परिचय प्राप्त कर लेना ज्ञानकी परिभाषा बन गई है परन्तु निश्चय ही यह ज्ञान नहीं है; किन्तु अपने आपको जान लेना ही ज्ञान है । यह वह ज्ञान है जिसका मानव के चरित्रनिर्माण पर महत्वपूर्ण प्रभाव पडना है । शिक्षाका काम विद्यार्थीको अपने स्वरूपसे या यों कहें कि इस सृष्टिके विधाता के मानवदेह धारण कर लेनेके गुप्त उद्देश्य से परिचित कराकर समाजमें अद्रोद्दी शुद्ध आचारधर्मकी स्थापना करके सामाजिक शान्तिको सुप्रतिष्ठित करना है | पेटपूजा तो वे कछवे भी कर लेते हैं जिनके पास किसी यूनिवर्सिटीकी कोई डिगरी नहीं होतीं । शिक्षा वही है जिसके प्रभाव से मानव के मनमें अपने पराये दोनोंके अस्तित्व के विषयमें किसी प्रकारका अशान्तिजनक, . उसेजक, अत्याचारी, स्वार्थी, मूढ विचार शेष न रह जाये और शिक्षित मानव कर्तव्य त्यागने तथा अकर्तव्य अपनानेकी स्थिति से अपना सुनिश्चित उद्धार करके सुदृढ निष्ठा रखनेवाला मानव बने । विज्ञ मानवकी अनुभविक आन्तरिक ज्ञानचक्ष उन्मीलित होजानी चाहिये और उसे त्रिनेत्र महादेव