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चाणक्सूत्राण
बनकर व्यवहार भूमि में अत्यन्त सतर्क होकर रहना चाहिये। उसे दीख जाना चाहिये कि यह जगत् प्रतिक्षण उत्पन्न हो होकर क्यों नष्ट होता चला जा रहा है ?
विज्ञ मानवके लिये यह जगत् विधाताकी अपने मानव विद्यार्थीको ज्ञानदान करनेवाली पाठ्यसामग्री बन चुकना चाहिये । बात यह है कि जगतका मानवहितपी पर्वज्ञ विधाता जागतिक घटनाओं को ही द्वार बना बनाकर अपने मानव विद्यार्थीकी ज्ञानचक्षु उन्मीलित करके उसे ज्ञानो बना देना चाहता है । यह जगत् अपने निरन्तर उत्पत्ति विनाशोंसे मानव विद्यार्थीक सामने अपने मिथ्यात्व अर्थात् अस्थिरता ( अविश्वास्यता ) का डंका पीट पोट कर अपनी सांकेतिक अव्यक्त भाषामें अपने उत्पत्ति विनाशकी मूल भूमि अपने विश्वव्यापी अमर सनातन सच्चिदानन्दस्वरूप विधाताका विद्वद्गम्य यशोमान करता चला जा रहा है।
यह नितन्तर म्रियमाण जगत् अपनी नश्वरताके द्वारा अपने विधाताके जगद्रचनाके उद्देश्यका अमर डिण्डिम बना हुक्षा है। यह अपने विधाताकी गुणावलिका स्तुतिपाठक बन्दी ( आट ) है । यह संसार मानवको अपने विधाताका गौरवमय परिचय देने ही के लिये उत्पन हुमा है। और नष्ट हो रहा है। मानवदेह धारण कर लेने वाले देवीको संसारमें भाकर इसी सत्यका दर्शन करना है जो संसारकी घटनावलिके पीछे छिपा हुआ है। मानवका देही इसी सत्यका दर्शन करके भखण्ड मास्मस्मतिका लोकोत्तर आनन्द लेनेके लिये बार बार अनन्त बार देहधारणकी लीला करता चला मा रहा है। मानवीय मस्तिस्वकी महिमाका कहीं पार नहीं है । यह समस्त संसार मानवीय अस्तित्वकी दी तो पृष्ठभूमि है। मानव • इससे अपनेको पृथक नहीं कर सकता और यह संसार भी उससे अलग होकर अपने आपको अस्तित्व और प्रकाश में नहीं रख सकता । मानवीय मस्तित्व ही इस संसारका अस्तित्व और मानवीय मस्तिस्वकी प्रतीति ही संसारकी प्रतीति है । यह संसार अपने अस्तित्व तथा प्रतीति दोनों के लिये मानव पर माश्रित है ! यही मानवको महामहिमा है ।