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चाणक्यसूत्राणि
अपने पास बुलाना है। परन्तु दण्डके संबन्धमें राजाका यह बड़ा सावधान कर्तव्य है कि दण्ड मौचित्यकी सीमाका उल्लंघन भी न करे और मपराधसे न्यून भी न हो। उसे यह ध्यान रखना चाहिये कि माततायी लोगोंके साथ मृदु बर्ताव न किया जाय ।
आततायिनमायान्तं हन्यादेवाविचारयन् । नाततायिवधे दोषो हन्तुर्भवति कश्चन ॥ मनु भाततायीको माता देखकर और इसके आततायी होनेका निश्चय हो जानेपर उसे बिना भागा पीछा देखे मार डाले। माततायीके वधसे हन्ताको कोई दोष या अपराध नहीं लगता । रक्षात्मक भाक्रमण करनेवाला भाक्रमण. जन्य वधका अपराधी नहीं होता।
( दण्डमें औचित्यकी आवश्यकता )
यथार्हदण्डकारी स्यात् ॥ १४४।। उचित यही है कि राजा यथायोग्य दण्ड देनेवाला हो । विवरण- उचितकारी ही सफल शासक बन सकता है। क्योंकि कठोर दण्ड जनतामें उद्वेग तथा राजद्रोह फैलाता है, इसलिये दण्डमें अपराधकी गुरुता लघुताका पूरा ध्यान रहना चाहिये । लघु अपराधमें गुरु दण्ड, निरप. राध भवस्थामें तीव्र या लघु दण्ड, गुरु अपराध लधु दण्ड या दण्डाभाव न होनेका पूरा ध्यान रखना चाहिये। कहा भी है
अदण्ड्यान् दण्डयन् राजा दण्ड्यांश्चैवाप्यदण्डयन् अयशो महदाप्नोति नरकं चैव गच्छति । अनुबन्धं परिज्ञाय देशकालौ च तत्वतः
सारापराधौ चालोक्य दण्डं दण्ड्येषु पातयेत् ॥ राजा दण्डनीयोंको दण्ड न देने और भदण्डनीयोंको दण्ड देनेसे बड़ा अपयश पाता और कष्टपरम्परामें उलझ जाता है। राजा पहले तो अपराधके कारणों तथा अपराधकी परिस्थिति और कालको देखे फिर अपराधीकी