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दण्डमें औचित्यको आवश्यकता
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दण्डसहनकी शक्ति और अपराधके स्वरूप तथा उसके राष्ट्रपर पडनेवाले प्रभावको समझकर दण्ड दे । स्मृतिमें कहा है -
अधर्मदण्डनं लोके यशोघ्नं कीर्तिनाशनम् ।
अस्वयं च परत्रापि तस्मात्तत् परिवर्जयेत् ॥ क्योंकि अधर्मपूर्वक दिया हुआ दण्ड, यश, कीर्ति तथा सुख तीनोंको नष्ट कर डालता है इसलिये अधर्मपूर्वक दण्ड देनेसे बचे। कल्पतरुमें कहा है
दण्डः संरक्षते धर्म तथैवार्थ विधानतः ।
कामं संरक्षते यस्मात् त्रिवर्गो दण्ड उच्यते ॥ क्योंकि दण्ड ही धर्म अर्थ, तथा काम तीनोंका वैधानिक संरक्षक है, इस लिये दण्डको ही त्रिवर्ग कहा जा सकता है । कल्पतरुमें यह भी कहा है'राजदण्डभयात् पापाः लोकाः पापं न कुर्वते ' - पापी लोग राजदण्डके भयसे ही पापसे रुकते हैं । यही मनुने भी कहा है। सोमदेव सरीने अति सुन्दर कहा है- 'चिकित्सागम इव दोषविशुद्धि हेतुर्दण्डः ' - जैसे आयुर्वेद दोषोंके सनिपातको नष्ट कर देता है इसी प्रकार अपराधियोंको दिया हुभा दण्ड उनके सकल दोषोंको धो डालता है । गर्गने भी कहा है
अपराधिषु यो दण्डः स राष्ट्रस्य विशुद्धये । विना येन न सन्देहो मात्स्यन्यायः प्रवर्तते ।
शूले मत्स्यानिवाभक्ष्यन् दुबलान् बलवत्तराः ।। अपराधियों को दिये दण्डसे राष्ट्रको शुद्धि होती है। यदि उन्हें दण्ड नहीं मिल पाता तो संसारमें मात्स्यन्याय चल पड़ने में कोई सन्देह नहीं रहता । तब बलवान् दुर्बलोंको काट में मछलियोंके समान बींधकर भून शलते हैं। पाठान्तर- ततो यथाहंदण्डः स्यात् । इस कारण यथायोग्य दण्ड देनेवाला बने ।