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चाणक्यसूत्राणि
( अगम्भीरतासे हानि ) अल्पसारं श्रुतवन्तमपि न बहु मन्यते लोकः ।।१४५॥ लोक अगंभीर मनुष्यक विद्वान् होनेपर भी उसे प्रतिष्ठाकी दृष्टिसे नहीं देखता।
विवरण- जिस विद्वान्की विद्वत्ता उसके हृदयको प्रभावित करनेमें सफल नहीं होपाती वह उसके स्वभावपर भी अपना प्रभाव डालने में भसमथे ही रह जाती है । विद्या यदि सच्ची हो तो उसे मनुष्य के हृदय और स्वभाव दोनों ही पर प्रभावशालिनी होकर रहना चाहिये । विद्या जब तक विद्वानों के हृदयों तथा स्वभावों में स्थान नहीं लेपाती, तब तक वे विद्याका दुरुपयोग करते चले जाते हैं । उनकी विद्या रोगोत्पादक भजीर्ण भोजन के समान उनकी अप्रतिष्ठाका कारण बनजाती है।
( बहुतोंका कर्तापन कार्यनाशक ) । ( अधिक सूत्र ) सारं माहाजन: संग्रहः पीडयति । माहाजनसंग्रह अर्थात् किसी राजकाजके विषयमें बहुत लोगोंका सम्मिलित होना ( अर्थात् कर्तापन होजाना ) उद्देश्यको नष्ट कर डालता है।
विवरण- राष्ट्र के प्रबन्धसम्बन्धी कामों में मतदाताओं के हाथ यन्त्रके समान उठवाकर अथवा ढोरोंकासा जीवन बितानेवाले पशुतुल्य लोगोंसे परची डलवाकर बहुमत संग्रह करनेकी आवश्यकता राजकाजकी सारवत्ता तथा उद्दश्यको नष्ट कर डालती है । ऐसा करनेसे राजकीय निर्णयों में से औचित्य जाता रहता तथा स्वार्थरूपी अनौचित्य साघुसता है। प्रबन्धसंबन्धी निर्णय बहुतके निर्णयोंसे असार होजाते हैं। अज्ञबहुमतसे उसके अज्ञात विषयपर सम्मति लेकर कोई नियम या कर्तव्यशास्त्र बनाना संकटपूर्ण घातक अशास्त्रीय परिपाटी है।