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चाणक्यसूत्राणि
पौराणां राष्ट्रजातानां ग्राह्यं साम्ना न चान्यथा । दर्शयित्वा तथा दायान् ग्राह्य वित्तं ततो नृपैः ।। तथा शाश्वतलक्ष्मीकान् पुरोहितसमन्त्रिणः । श्रोत्रियांश्चैव सामन्तान् सीमापालान् तथैव च ॥
गृहं गत्वा प्रयाचेत यथा ते तुष्टिमाप्नुयुः । राजा अपने पुरवासियों का धन उन्हें सन्तुष्ट या सहमत करके ही ले । असंतुष्ट करके बलप्रयोगसे न ले । जो ले वह उन्हें दिखाकर ले। कुल परम्परासे श्रीमान चले आनेवालों, पुरोहितों, श्रोत्रियों, सामंतों तथा सीमापालोंसे धन लेने की आवश्यकता उपस्थित होनेपर राजाको इनके घर जाकर राज्यरक्षाके नामपर धनयाचना करनी चाहिये कि जिससे इन लोगोंको दानका पुण्य तथा यश दोनों प्राप्त हो जांय, ये लोग देने में सम्मान तथा गौरव भी अनुभव करें और देना अपमा कर्तव्य भी समझने लगें ।
( अपरीक्ष्यकारिताकी हानि ) भाग्यवन्तमपरीक्ष्यकारिणं श्रीः परित्यजति ॥ ११५॥
श्री अर्थात् सफलता कार्यका सुअवसर न पहचाननेवाले अपरीक्ष्यकारी भाग्यवानको छोड जाती है।
विवरण- इसलिये मनुष्य सदा कर्मके भले बुरे परिणाम, अपनी शक्ति, देश काल आदि सब बातोंके सम्बन्धमें आदिसे अन्ततक भले प्रकार सोचकर कर्म किया करें । पाठान्तर --- भाग्यवन्तमप्यपरीक्ष्यकारिणं श्रीः परित्यजति ।
। कर्तव्यपरीक्षाके साधन ) ज्ञानानुमानैश्च परीक्षा कर्तव्या ॥ ११५ ॥ अपनी ईक्षण ( अनुभव ) शक्ति तथा विचार ( ऊहना) शक्ति दोनोंक सहारसे परिणाम के कारणोंका ठीक ठीक पता चलाकर किस कारण से यह काम इस प्रकार होना है, अपना कर्तव्य स्थिर करें।