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चाणक्यसूत्राणि
किया जाता है, इसी प्रकार सच्चे विद्वानोंपर किया दोषारोपण मन्तमें उन्हें निर्दोष घोषित करनेवाला बनजाता है।
जैसे कोई भी रस्न अखण्डित नहीं रह पाता, जैसे उसे कोई न कोई खण्डित करनेवाला मिल ही जाता है इसी प्रकार धार्मिक श्रेष्ठ विद्वानोंको भी कोई न कोई निन्दक मिल ही जाता है । जैसे खण्डित होना रत्नापराध नहीं है इसी प्रकार धार्मिक विद्वान्का अधार्मिक भविद्वानोंसे निन्दा पाजाना विद्वान्का अपराध नहीं है किन्तु निन्दकका ही धर्मद्वेष या अज्ञान है ।
(विश्वासक सदा अयोग्य ) मर्यादातीतं न कदाचिदपि विश्वसेत् ।। १७२॥ सामाजिक नियमों के उल्लंघक, विवेकका शासन न माननेवाले निर्मर्यादका कभी विश्वास न करो। पाठान्तर--- मर्यादाभेदकं ......... ।
( अविश्वासीको विश्वासपात्र बनाना अकर्तव्य ) अनिये कृतं प्रियमपि द्वेप्यं भवति ॥ १७३॥ शत्रुके मीठे दीखनेवाले बर्ताव ( उपकार दीखनेवाली क्रिया) का पयोमुख विपकुम्भके समान द्वष ही मानना चाहिये।
विवरण- आजका शत्रु सदाके लिये शत्रु है । इसलिये शत्रुके मोठे बर्तावके धोखेमें नहीं आजाना चाहिये। शत्रका आलिंगन भी पेटमें छुरा भोंकनेवाला होता है। इस बातका ध्यान रखकर शत्रुपक्षकी ओरसे माने वाले मित्रताके प्रस्तावको भी प्रतिहिंसाको चरितार्थ करनेका अस्त्रमात्र समझकर उसका ऐसा उचित उत्तर देना चाहिये जिससे शत्रुको दुरभिसन्धि व्यर्थ होजाय ।
पाठान्तर- अप्रियेण कृतं ............। शत्रुका किया मिष्ट बर्ताव भी द्वेष ही माना जाता है।