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सत्पुरुषोंके विरुद्ध चलना अकर्तव्य
( कपटपूर्ण नम्रताका विश्वास मत करो) नमन्त्यपि तुलाकोटिः कूपोदकक्षयं करोति ॥ १७४ ।। जैसे सिर झुकाकर नम्रतापूर्वक कूपमें घुसनेवाली ढीकली उसका पानी रिता देती है, इसीप्रकार स्वार्थी लोगोंको दिखावटी शिष्टाचारयुक्त भाषण करता देखकर उन्हें लूटनेके ही लिये आनेवाले प्रच्छन्न लुटेरे मानकर उनके मायाजालसे बचना चाहिये।
विवरण- जैसे चोरका ओढा रामनामी दुपट्टा भी चोरी हीका साधन होता है, इसीप्रकार दुष्टोंकी नम्रता और उनके गुण दुष्टताके ही साधन या अंग होते हैं । शत्रुओं या दुष्टों की नम्रता विश्वास करने योग्य नहीं होती। पुनसे सदा ही सावधान रहना चाहिये । पाठान्तर--- नमत्यपि तुलाकोटिः कृपस्योदकक्षयं करोति !
( सर पुरुषों के निर्णयक विरुद्ध चलना अकर्तव्य )
सतां मतं नातिकामेत् ॥ १७५ ॥ अनुभवी सत्पुरुषोंक मिद्धान्तोक विरुद्ध आचरण न करे । विवरण ---- मनुष्य का अपना विक हो उसकी कर्तव्याकतव्यकी समस्या का अन्तिम समाधान करनेवाली वस्तु है । मनुष्य बड़े से बड़े अनुभवी विद्वानों की बातको केवल उस अवस्थामें मानता है जब वह बात उसके विवेकको स्वीकृत होजाती है । यदि उसका विवेक उसे स्वीकार न करे तो वह किसीकी भी बात माननेको प्रस्तुत नहीं होता । सबका अनुभव साक्षी है कि बात अपने मन या विवेकके अनुकूल होनेपर ही मन्तव्य कोटिमें आती है। मनुष्य दूसरे व्यक्तिका अनुसरण करता दीखनेपर भी वास्तवमें अपना ही अनुसरण करता है । विवेक ही मानव हृदयमें सच्चे मार्गदर्शक सरपुरुषका रूप लेकर रह रहा है । विवेकी होना ही इस बातका कारण है कि संसारभरके सत्पुरुषों के कर्तव्यनिर्णय एक दूसरे के अविरोधी तथा अभिन्न होते हैं।