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चाणक्यसूत्राणि
कर्तव्याकर्तन्यकी समस्या सब किसीके पास नहीं होती। वह केवल विवेकियों के सम्मुख उपस्थित होती है । अविवेकियोंके सम्मुख कर्तव्याकर्तव्य नामका कोई प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता। अविवेकीके मनमें तो केवल यह प्रश्न उपस्थित होता रहता है कि स्वार्थमूलक परस्वापहरण नामका आचरण किस रीतिसे सफल हो सकता है ? यह इस दृष्टि से कभी भी नहीं विचारता कि मुझे परस्वाप हरण करना चाहिये या नहीं ? म्पष्ट बात यह है कि उसके मन में विवेकसापेक्ष प्रश्न कभी उपस्थित ही नहीं होता । जब कोई विवेकी किसी दूसरे विवेकीसे किसी कर्तव्यनिर्णयमें सम्मति लेने जाता है तब वह किसी आचरणके विवेकानुमोदित होनेका समाधान पहले स्वयं करके पीछेसे किसी दूसरे विवेकीके समर्थनकी आवश्यकता अनुभव करता है । एसे अवसरपर उसे जो अपने जैसे सुविचार रखनेवाले अनुभवी सत्पुरुषोंका समर्थन प्राप्त होजाता है यह समर्थन उसके हृदय की ही प्रतिध्वनि होता है और इसीलिये अनिवार्यरूपसे ग्राह्य भी होजाता है।
यह सूत्र अविवेकियों को सत्परुषों के मन्तव्यका अनुसरण करने की प्रेरणा देने के लिये नहीं है, किन्तु अनुभव न रखनेवाले परन्तु सद्बुद्धि-संपक लोगोंको अनुभवी विद्वानोंकी सम्मति के अनुसार आचरण करनेकी प्रेरणा देते हुए यह कहना चाहता है, कि विवेकी लोग अपनी जैसी सुरुचि रखनेवाले. विवेकियोंसे ही सम्मति लें। वे अविवेकियोंसे सम्मति लेनेकी भ्रान्ति न करें:
अनुभवी सत्परुषोंके कथनकी अवहेलनामें कल्याण नहीं है। प्रमाद या मविवेकके कारण विद्या तथा प्रज्ञाके पारदर्शी संसारकी वस्तुस्थिति पहचान चुकनेवाले साक्षात् कृतधर्मा लोगोंकी सम्मतिकी अवहेलना करना विनाश तथा दुःख बुलाना है । मनुष्यको सत्पुरुषोंके व्यावहारिक अनुभवसे लाभ उठाना चाहिये और पाग्रहके साथ उनका अनुसरण करना चाहिये ।
( अनुभवीके सत्संगसे लाभ ) गुणवदाश्रयान्निर्गुणोऽपि गुणी भवति ।। १७६ ॥ निर्गुण दीखनेवाला भी गुणवान्के संसर्गमें रहता रहता गुणी होजाता है।