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________________ अनुभवीके सत्संगसे लाभ १०७ विवरण - विवेकी के अनुभवहीन होनेपर भी यदि वह अनुभवी लोगोंके संसर्गमें रहे, तो अनुभवी बनजाता है । विद्वत्ता, शूरता, महत्ता, चिन्ताशीलता आदि मानवोचित गुण हैं । इन गुणोंसे संपन्न गुणके संपर्क में रहनेवाला गुणप्रेमी व्यक्ति उसके वातावरणका अंग बनकर रहता रहता, उसे अपने आपको सुधारनेके लिये सौंपकर उसे अपनी भूलोंपर रोकने-टोकनेका अबाध अधिकार देकर उसी जैसा गुणी, चतुर, व्यवहारकुशल तथा विचारक बनजाता है । , राजनीति में सन्धिविग्रह, यान, आसन, संश्रय तथा द्वैधीभाव गुण कहते है । इन गुणोंसे परिचित राजनीतिज्ञों के साथ रहनेसे राजनीति से अपरिचित निर्गुण व्यक्ति भी इनका उचित प्रयोग करना जानजाता है । गुणसंग्रहार्थी व्यक्ति गुणीके संपर्क में आजानेपर निर्गुण नहीं रहसकता । पाठान्तर-- गुणवन्तमाश्रित्य 1 गुणवान्का आश्रय करके निर्गुण भी गुणी होजाता है । क्षीराश्रितं जलं क्षीरमेव भवति ।। १७७ ॥ जैसे दुग्धाश्रित जल भी दुग्ध ही होजाता है इसीप्रकार गुणीके हाथोंमें आत्मसमर्पणका सम्बन्ध जोडनेवाला गुणप्रेमी व्यक्ति स्वयं उस जैसा गुणी घनजाता है । विवरण- गुणप्रेमी ही स्वभावसे गुणीके संगका अधिकारी तथा अन्वेषी होता है । गुणी व्यक्तिके नित्यसंसर्ग में रहते रहने से मनमें उसके गुणका बार-बार आरोप होने लगता है इसलिये वह काल पाकर उसीके समान गुणी तथा प्रधानपुरुष बनजाता है । पाठान्तर क्षीराश्रितमुदकं 1 + संधि ( समझौता ) विग्रह ( लडाई ) यान ( शत्रुपर आक्रमण करने की कुशलता ) आसन ( आक्रमण के विरुद्ध आत्मरक्षाकी चतुराई ) संश्रय ( अवलम्बन ) द्वैधीभाव ( भावगोपन ) शत्रुको भेदको नीतिले सहायकहीन बनाकर निर्बल करना ।
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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