________________
१५८
चाणक्यसूत्राणि
मृत्पिण्डोऽपि पाटलिगन्धमुत्पादयति ॥१७८ ।। जैसे गन्ध-ग्रहणमें समर्थ निर्गन्ध भी मृत्पिड सुगन्ध पुष्पके संपर्कमें आकर उसका सुगन्ध ग्रहण करलेता है, इसीप्रकार स्वभावसे गुण-ग्रहणमें समर्थ निर्गुण अश भी मानव-हृदय सद्गुण-संपन्न विद्वान् व्याक्तिके संपर्कमें आकर उसके सद्गुणोंको ग्रहण करलेता और ज्ञान-संपन्न बनजाता है।
अथवा- जैसे निर्गन्ध मिट्टी भी अवसर मिलनेपर अपने भीतरसे सुगन्ध पुष्प उत्पन्न करदेती है, इसीप्रकार गुण दिखानेका अवसर मिलनेपर गुणी लोगोंके गुण छिपे नहीं रहते । मिट्टी सुगंधित कुसुमोको अंकुरित करनेका अवसर आनेपर अपनी सुगन्धोत्पादक शक्ति प्रकट करती है। गुणियोंके गुण सच्चे गुणग्राहियों के संपर्कमें आने पर ही प्रकट होते हैं।
रजतं कनकसंगात् कनकं भवति ॥ १७९॥ जैसे चांदी, सोनेके साथ मिश्रित होजानेसे ( वह मिश्रित वस्त) सोना ही बनजाती है। चांदी नहीं रहती।
विवरण-जैसे सोनेके साथ मिलते ही उसके चांदीपनका अन्त हो जाता है, इसीप्रकार महत्वयुक्त मनुष्यसे संबद्ध होनेपर अनुभवहीन गुणग्राही व्यक्ति गुणानुभव-संपन्न होजाता है। पाठान्तर- रजतमपि कनकसंपर्कात् कनकमेव भवति ।
( दुष्टों का नीच स्वभाव ) उपकर्तर्यपकर्तुमिच्छत्यबुधः ॥ १८०॥ मन्दमति क्रूर अज्ञानी अपने बुद्धिदोष ( अर्थात् हिताहित. विवेकहीनता ) से हितकर्ताको भी हानि पहुँचाकर अपना नीच स्वार्थ सिद्ध करनेसे विमुख नहीं होता।
विवरण- अपकारस्वभाववाला मनुष्य उपकारका बदला अपकारसे ही दिया करता है। मनुष्यसे अपना स्वभाव नहीं छूटता । इसलिये अज्ञा. नियोंका हित करने की भ्रान्ति करनेवाले लोग उनके इस उपकारके बदले में