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चाणक्यसूत्राणि
हटते ही राष्ट्रभरमें दुर्नीति फैल जाती है। राज्यव्यवस्थाके भनीतिपरायण होनेपर समस्त समाजका सहस्रगुण अनीतिपरायण होजाना अनिवार्य होजाता है । नीति शब्द दण्डनीति, रणनीति तथा अर्थनीति तीनोंका वाचक है।
मनु, नारद, इन्द्र, बृहस्पति भारद्वाज, विशालाक्ष, भीष्म, पराशर, विदुर आदि पूर्वाचार्य धर्म, अर्थ तथा काम तीनोंको अबध्यघातक रखकर तीनोंपर सुनियन्त्रण रखने के लिये शास्त्र बना गये हैं। इनके पशात् आचार्य विष्णुगुप्तने इन सब पूर्वाचार्योका सार लेकर गभीराशय अर्थशास्त्र बनाया है । उसीका नाम कौटलीय अर्थशास्त्र है।
राज्यतन्त्रेप्वायत्ती तन्त्रावापौ ॥४४॥ तन्त्र अर्थात् स्वराष्ट्रसंबन्धी तथा आवाप अर्थात् परराष्ट्र सम्बन्धी कर्तव्य अपनी राघव्यवस्थाके ही अंग होते है।
विवरण- स्वराष्ट्रसंबन्धी तथा परराष्ट्रसे व्यवहारविनिमयसंबन्धी दोनों प्रकारके कर्तव्य राज्यतन्त्रमें सम्मिलित होते हैं । अर्थात् उसके भले बुरेके अनुसार भले बुरे होते हैं । परराष्ट्रचिन्ताके बिना राज्यता अधूरा रहता है । तन्त्र अर्थात् स्वराष्ट्र अर्थात् अपनी प्रजाके जीवनसाधनोंकी रक्षा तथा आवाप नामसे प्रसिद्ध परराष्ट्रचिन्ता या उससे व्यवहार ये दोनों बातें राज्यव्यवस्थाकी इतिकर्तव्यतामें सम्मिलित हैं। पाठान्तर- राज्यतन्त्रेष्वायत्तौ मन्त्रावापौ । मन्त्रावापौ पाठ भपपाठ है।
(तन्त्र) तन्वं स्वविषयकृत्येप्वायत्तम् ॥४५॥ स्वराष्ट्रव्यवस्था तन्त्र कहाती और वह केवल स्वराष्ट्रसंबन्धी कर्तव्योंसे संबद्ध रहती है।
विवरण- राज्य स्वदेशसंबन्धी कर्तव्य करते रहने मात्रसे अपने भाप व्यवस्थित होता चला जाता है । जहां राज्य व्यवस्थित होता है, वहां