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वेषभूषा कैसी हो ?
कर लेता है । समाजके विज्ञ लोगोंको उसे ऐसा बनने देनेसे रोकना चाहिये । देशको अलंकृत करना व्यक्तिका स्वेच्छाचार नहीं होना चाहिये ।
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देहको अलंकृत करने के अधिकारको व्यक्तिके स्वेच्छाचार में सम्मिलित न हो देकर उसे सामाजिक शिष्टाचार, सुरूचि तथा नैतिक कल्याण में सम्मि लित रखना चाहिये। क्योंकि सामाजिक कल्याणमें ही मानवका कल्याण है इसलिये सामाजिक शिष्टाचार, सुरुचि तथा मानवका नैतिक अभ्युस्थान ही मनुष्यका सच्चा वैभव या आर्थिक सामर्थ्य है । परमार्थ ही मनुव्यका सच्चा वैभव है। अपनी उपार्जित सुवर्णमुद्राओं पर यथेच्छ उपयोगका व्यक्तिगत अधिकार जमालेना व्यक्ति तथा समाज दोनों ही के लिये अनर्थकारी है ।
सत्य ही मनुष्यकी सार्वजनिक संपत्ति है । सत्यरूपी सार्वजनिक संपत्तिके अधिकार में समर्पित होजानेवाले व्यक्तिका धन उसका व्यक्तिगत धन न रहकर समाज के सार्वजनिक कल्याणके उपयोग में आसकनेवाला सार्वजनिक धन बनाता है । जब मनुष्य इस समाजधर्मको भूलकर भ्रान्तिसे धन पर मनुष्यका अधिकार मानता है तब ही वह अपने धन पर अपना अधिकार मानता है । यह उसकी भ्रान्ति होती है । इस भ्रान्तिका परिणाम यह होता है कि वह अपने धनका दुरुपयोग करके समाजका अकल्याण करनेमें प्रवृत्त होजाता है। सूत्र कहना चाहता है कि देव सजाने की स्वाभा विक प्रवृत्तिको साम्पत्तिक दुरुपयोगसे बचाकर रखना चाहिये | अपने देrपर वस्त्रालंकार धारण करनेसे पहले सावधान होकर सोच लेना चाहिये कि हमारी उस चेष्टाका हमारे समाजपर क्या प्रभाव होगा ? वह प्रभाव समाजमें ईर्ष्याकामना या किसीके किसी प्रकार के अधःपतनका कारण तो नहीं बन जायगा ?
समाजवासी प्रत्येक व्यक्तिका कर्तव्य है कि वह अपनी वेश-भूषाके संबन्ध में इस सार्वजनिक कल्याणकी दृष्टिसे विचार किया करे और उत्सव सम्मेलन तथा स्वाभाविक, सामाजिक अनुष्ठानोंके अवसरों पर बाडम्बर