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चाणक्यसूत्राणि
यह स्वभाव अति न कर जाय इसलिये इसपर नियन्त्रणकी परम मावश्य. कता है। वही नियन्त्रण इस सत्रका अभिप्राय है। पशुभोंमें देहको सुसज्जित रखनेकी प्रवृत्ति नहीं होती । पशुके पास मन नहीं है। मनुष्यका विवेकी मन जहां उसे आध्यात्मिक संपत्तिसे सुसज्जित देखना चाहता है वहां वह उसे लोकविद्विष्ट अमन्दर वेषमें भी रहने देना नहीं चाहता। देहको सौम्यदशन बनाकर रखना मनव्यकी ही विशेषता है। उसकी यह विशेषता मानवोचित शिष्टाचारों में सम्मिलित होगई है । शिष्टाचार मनुष्य समाजका अलंकार है। शिष्टाचार ही मनप्यसमाजकी संपत्ति है । जो समाज. भरका अलंकार है वही व्यक्तिके व्यक्तिगत आचरणका भी अलंकार है। परन्तु ध्यान रहे कि देहको सुसज्जित रखना समाजको शिष्टाचाररूपी सम्पत्तिमें ही सीमित रहना चाहिये । किसीका भी सपने देहको सामाजिक शिष्टाचारके विरुद्व सज्जित करनेका अधिकार नहीं है।
मनुष्य अपने देहको सजाने की प्रवृत्तिवाले मानवधर्मसे तब ही अलंकृत. करसकता है जब वह इस सम्बन्धी शिष्टाचारका पालन करे। मानवधर्म या मनुष्यता ही समाज तथा व्यक्तिकी साम्पत्तिा या मार्थिक स्थिति या वैभव है। पार्थिव धनकी बहुलता या न्यूनताको मानवधर्म नामवाली उस वैभव. मयी स्थिति में वैषम्य उत्पन्न करनेवाली नहीं बनने देना चाहिये । यह विधमता समाजमें अशान्ति उत्पन्न करनेवाली सामाजिक न्याधि है। अपने देहको अलंकृत करने के इस स्वाभाविक स्वभावको कदापि किसी भी प्रकार अपना सीमोल्लंघन नहीं करने देना चाहिये। अपने देहालं करणी स्वभावको व्यक्ति के हृदयको व्याधिग्रस्त करके समाजके भी हृदयको म्याधिग्रस्त करने. वाला नहीं बनने देना चाहिये। मनुष्यता समाजभरका समानाधिकार है। समाजमें मनुष्यतारूपी समानाधिकारको उपेक्षित नहीं होने देना चाहिये । समाजमें मनुष्यतारूपी समानाधिकारकी उपेक्षा होनेपर धनसंपत्ति के साथ नियमसे लगी रहनेवाली भेदोत्पादक ईा द्वेष, लोभ, अतृप्त कामना मादि व्याधियां उत्पन्न होजाती तथा समाजके सामाजिक अधिकारमें विघ्न माखडे होते हैं। इससे समाज अलंकृत होने के स्थानमें बीभत्स विषमरूप धारण