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धनोपासक सुकर्मसे अनधिकारी
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उदार हृदय धनवान् ही रहता है । अल्पधनी या धन लोग समाजके साथ रहने में अपना कल्याण समझते हैं । बिना सिद्धान्त उपार्जित धनसे मनुष्य में समाजहीनता माना अनिवार्य है। समाजकी उपेक्षा ही मनुष्यकी पैशाचिकता है। तुम जिस समाजके सहयोगसे धनी बने हो उसके अभ्युस्थानमें सहयोग देना तुम्हारा अनिवार्य कर्तव्य है । चाणक्य चाहते हैं कि धनी लोग धनपिशाच न बनने के लिये धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष चारों पुरुषा. थोंका समसेवन करें। इनमें से किसी भी एकको दूसरेका बाधक न बनने दें।
पाठान्तर- नास्त्यविशालमैश्वर्यम् । ऐश्वर्य विशालतासे हीन नहीं होता। विशालता ही ऐश्वर्य है। ( धनोपासक सुकर्मसे मानवोचित प्रसन्नता पाने के अनधिकारी )
नास्ति धनवतां सुकर्मसु श्रमः ।। ३५४॥ धनोपासक सुकर्मों में श्रम नहीं करते। विवरण- उनकी दृष्टि में सुकर्म कष्टकारक तथा धननाशक होता है । वे सत्कर्म करने का कष्ट नहीं उठाते । उनका किसी सत्कम में प्रेरित होना दुराशा है । धनोपासकोंमें दातापन असंभव है । पदार्थके योग्य अधिकासीको पाया जानकर उसकी धरोहर उसे सौंपकर उण होजाना तथा दानके बदले में घमंड न भोगना ही दानका यथार्थस्वरूप है। स्वार्थमूलक दान दान न होकर एक प्रकारका कुसीद जीवन ( सूदपर रूपया लगाना) है। धनलोलुप लोग जब दानका नाटक खेलते हैं, तब वह दान न होकर उनकी यशोलिपला या किसी प्रकारको फलाभिलाषा होती है । दान सौदा नहीं है । समाजका उचित अधिकार समाजको लौटाना ही सच्चे दानका रूप है । उसका उसे सौंप देना तथा भूलकर भी दातापनका अभिमान न भोगना ही सच्चा दान है । सत्पात्रको श्रद्धाके साश धरोहर लौटा देनेकी बुदिसे दिया दान ही सच्चा दान है । धनी लोग सत्पात्रोंके स्वभावसे वैरी,