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चाणक्यसूत्राणि
द्रोही तथा उपेक्षक होते हैं। इन धनियों के चाटुकार लोग ही सांपको खिलानेवाले सपेरोंके समान इन्हें खिलाना, बुलाना घुमाना तथा द्रवित करना जानते हैं। ये लोग योग्य अधिकारी के लिये सदा ही दुर्ग बने रहते हैं ।
नास्ति गतिश्रमो यानवताम् ॥३५५॥ यान (वाहन ) पर निर्भर रहनेवाले लोग गतिश्रम नहीं उठाते।
विवरण- जैसे यात्राके लिये यानोंपर निर्भर होजानेवाले लोग पैर होते और चलने में समर्थ होते हुए भी पंगु बने रहते हैं, इसीप्रकार धनक सर्वस्व, धनोपासक, धनपिशाच लोग सुकर्म करके मानवोचित प्रसन्नता पानेके अधिकारी होते हुए भी अपनी मनुष्यताको तिलांजलि देदेते हैं। धनको ही अपने जीवन की सारवस्तु समझते हैं तथा धनसे समाजसेवा करके उससे मिलनेवाली मात्मप्रसाद रूपी सारवस्तुसे वंचित होजाते हैं । धनोपासक लोग अपने व्यक्तिगत कर्तव्यों को भी धनशक्तिसे मोल ली हुई दूसरोंकी कर्मशक्ति से करा कर अपने शरीरको मालस्यभोग करने के लिये सुरक्षित कर लेते हैं । वे गर्हित उपायोंसे धनोपार्जन करते-करते सत्कर्म करनेके योग्य ही नहीं रहते । उनका आत्मा उनकी धनलोलुपताके कारण मनुष्यतासे हीन आसुरी बन जाता है। उनकी धनासक्तिसे उनका सुकममें धन दान करनेके आत्मप्रसाद पानेका द्वार अवरुद्ध होजाता है । धनासक्ति न त्यागने तक मनुष्यको सत्कर्मका सुखाम्बाद मिलना संभव नहीं होता। धनासक्ति न छोड़ने पर सत्कर्म करना इतना ही कष्टप्रद दीखने लगता है जितना कि यानवाहनका सुख छोडकर पथश्रमको अपनाना । जैसे यानपर निर्भरशील धनियों का श्रमविमुखता रूपी मालस्य उनके ऊपर एक बोझ बन जाता है, वैसे ही धनोपासककी धनासक्ति मनुष्योचित समाजसेवासे मिलने. वाले आत्मप्रसाद रूप सारवस्तुको उसकी दृष्टि से बहिष्कृत रखनेवाला विघ्न बनजाती है। जैसे यानोपर निर्भर रहनेवाले लोग अपने पैरोंका उपयोग करनेसे बचते तथा अपने शरीरको निकम्मे बोझ के रूप में दोये फिरते हैं