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चाणक्यसूत्राणि
इससे श्रोताके मनमें क्रोध बढकर भावी विवादके बीज बो दिये जाते हैं । शस्त्रका घाव तो मरजाता है परन्तु वाणीका घाव जीवनभर नहीं भर पाता । परुष वाणीकी पैदा की हुई शत्रुता जीवनभर नहीं मिटती ।
पाठान्तर- अग्निदाहादपि विशेष्ये वाक्पारुष्यम् । वाक्पारुष्यको अग्निदाहसे भी अधिक क्षोभजनक जानना चाहिये।
( कठोर दण्डसे हानि ) दण्डपारुष्यात सर्वजनद्वेष्यो भवति ॥ ७ ॥ दण्डदाताके मनमें व्यक्तिगत द्वेष या रोष आजानेसे दण्डके कठोर होजानेपर वह न्यायाधीशके पवित्र आसनसे पतित होकर जनताका द्वेषभाजन बनजाता है।
विवरण- इसलिये दण्डाधिकारीको दण्डमें कठोर न होना चाहिये। राज्य प्रजामोंकी शुभेच्छाओंपर ही ठहरा रहता है। इसलिये राज्यसंस्थामें काम करनेवाले लोग सदा प्रजाका हार्दिक अनुमोदन पाते रहने तथा क्षोभ उत्पन्न न होने देनेवाली नीति अपनायें । प्रकृतिका क्षोम अशा. न्ति तथा राष्ट्रविनाशका कारण बनजाता है । दण्डपारुष्यसे कौनसी बात किसको कितनी चुभ जाय और क्षुब्ध प्रकृतिमेसे कब कोई क्या करबैठे इसकी कोई निश्चित कल्पना नहीं की जासकती । लोगों में बनन्त प्रकारकी शक्तिये और प्रवृत्तिये सोयी पड़ी रहती हैं। राज्य संस्थाके कार्यकर्ताओंको अपनी भलोसे जनतामें राज्यविरोधी प्रवत्तिये न जागने देनेकी साथधानता रखने के लिये अपनी उत्तेजक उच्छृखल दण्डप्रवत्तियोंपर पूर्ण शासन रखना चाहिये तथा अत्यन्त सावधानतासे दण्डमें भौचित्यका सुगंभीर सनिवेश करना चाहिये । दण्ड सदा अपराधके अनुरूप होना चाहिये तथा अपराधीको ही मिलना चाहिये, निरपराध को नहीं। अपराधीका यथाविधि. निग्रह ही ' दण्ड ' कहाता है । अभियुक्त व्यक्ति राज्यधिकारियोंके व्यक्ति गत द्वेषका पात्र होनेपर अन्यायपूर्वक दण्ड पाजाता है । इस सूत्रमें उस दण्डको ही निन्दित किया जारहा है।