________________
आर्थिक संतोषकी घातकता
( आर्थिक संतोष की घातकता ) अर्थतोषिणं श्रीः परित्यजति ॥ ७७ ॥ राज्यलक्ष्मी अपर्याप्त राजकोषसे सन्तुष्ट होजानेवाले, उसकी वृद्धि में उदासीन उपेक्षापरायण नैष्कावलम्बी राजाको त्याग देती है
विवरण- राजकोषके असली स्वामी अगणित प्रजाका प्रतिनिधित्व करनेवाले राजाके लिए अपनेको राजकोषका स्वामी समझना तथा समझकर असे पर्याप्त मान बैठना भ्रान्ति है।
राजकोषका सदुपयोग ही उसकी वृद्धिका अनिवार्य कारण होता है। राष्ट्रीय धनको राष्ट्रकी आवश्यकताओंपर न्यय न करके उसे कोषमें दबा बैठना चाहनेवाले कृपण राजाके धनागमके समस्त मार्ग अनिवार्यरूपसे अवरुद्ध होजाते हैं और उसका परिणाम उसका राज्यश्रीहीन होजाना होजाता है।
राज्यश्री, हस्तगत अर्थमात्रको पर्याप्त मानकर उसीसे सन्तुष्ट होबैठने वाले तथा इस उद्योगको मागे न बढानेवाले एवं उपार्जित मर्थको राष्ट्रकी उचित मावश्यकताओंपर व्यय न करनेवाले राजाको छोड जाती है । "असन्तुष्टा द्विजा नष्टाः सन्तुष्टाश्च महीभुजः।" असन्तुष्ट ब्राह्मण तथा सन्तुष्ट राजा नष्ट होजाते हैं । राज्यसंस्थाका संबन्ध राष्ट्र के मनुष्यमात्रसे होने के कारण उसकी आवश्यकतायें अनन्त है। राजाके लिये अर्थसन्तोषनामकी कोई स्थिति वांछनीय नहीं है। राज्य के सम्बन्धमें अर्थसन्तोष विनाशक कल्पना है। पाठान्तर- अर्थदूषकं श्रीः परित्यजति।
श्री अर्थदूषक ( अर्थात् धनको कुत्सित कामों में बहा देनेवाले . अपव्ययी तथा कुत्सित उपायोसे उपार्जन करनके इच्छुक ) मनुष्यसे मुंह मोड लेती है।
विवरण- कुत्सित उपायोंसे भानेवाला धन माता ही आता अच्छा लगता है । वास्तवमें तो वह घरके धन को भी न करनेवाला होता है।