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चाणक्यसूत्राणि
मनुके निम्न मन्तव्य से सहमत थे और इसीलिये भारत में मानवताकी रक्षा के लिये आगे बढ़े थे ।
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एतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः ।
स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवाः ॥ ( मनु )
संसारभर के लोग भारतवर्ष के ब्राह्मणों से अपना अपना मानवोचित चरित्र सीखा करें। भारतीय ऋषियोंके समान उनका भी यह दृढ विश्वास था कि यह मानव सृष्टिआसुरिकताको क्रीडा करने देनेके लिये नहीं बनी किन्तु अपने स्रष्टाके असुरिकताक अनधिकार और दुःसाहसको पग पगपर व्यर्थ करने. वाले अभिप्रायको प्रेरणा से व्यक्त हुई है । मानवसृष्टि के विधाताकी यह हार्दिक कामना है कि आसुरिकता के विरुद्ध मनुष्यतारूपी देवी संपत्तिकी समरयात्रा विजयश्री से मण्डित हो । चाणक्य के मानस में प्रत्येक क्षण यही पवित्र ध्वनि गूंजती रहती थी कि मैंने विधाता के इसी अभिप्रायको सार्थक करनेका निमित्तमात्र बननेके लिये ही भारतमें देह धारण किया है । मेरे देव धारणका इसके अतिरिक्त अन्य कोई प्रयोजन नहीं है ।
भारत के वैदिक युग से लेकर चारों वेदों तथा वेदान्त आदि समस्त ज्ञानभंडारोंमें जो ज्ञाननिधि संचित है वह सब मुझे प्रत्येक क्षण यही प्रेरणा दे रही है कि तुम्हें इस राष्ट्रीय कर्तव्य से विमुख होकर एक भी श्वास लेने का अधिकार नहीं है। तुम भारतवासियोंकी मनोभूमिको ही अपना कर्मक्षेत्र या कर्मभूमि मान लो । इसलिये मान लो कि तुम विवेकी हो I कर्तव्यका भार विवेकी डीके पास रहता है । विवेकी ही किसी भी सच्चे राष्ट्रकी शक्ति होते हैं । बाजका भारतवासी विश्वसाम्राज्य के एकच्छत्र सम्राट् मनुष्यता नामवाले जीवित आराध्य भगवानूकी उपेक्षा कर रहा है और अलीक अस्तित्व रखनेवाले कल्पित ईश्वरकी प्रवंचक कल्पना से बहककर व्यक्तिगत जीवन में मोह रखनेवाला कपट धार्मिक आसुरी शक्तिका समर्थक बनकर कर्तव्यभ्रष्ट बना हुआ है ।