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चाणक्यसूत्राणि
ग्रन्थोंको रट लेना या उनका अंधानुगामी होना शास्त्रज्ञता नहीं है किन्तु अपनी इन्द्रियोंके पैरों में शमकी भारी श्रृंखला डाल देना ही सच्ची शास्त्र.
'देवो भूत्वा देवं यजेत् ' जैसे देव बने बिना देवपूजन अशक्य है, इसी प्रकार जबतक शास्त्रपाठी लोग, अपनी तपस्या, संयम, विचारशीलता तथा इन्द्रिय-निग्रह आदि उदार स्वभावोंके द्वारा शास्त्रकारकी महत्वपूर्ण मानसिक स्थिति ले कर जीवन बिताना नहीं सीखेंगे या जीवन नहीं बिता. येंगे तबतक उन्हें शास्त्रोंकी तोतारटनसे कुछ नहीं मिलना है। निरुक्तकारने इस प्रसंगमें बडी मार्मिक बात कही है
नेतेषु ज्ञानमस्त्यनृषेरतपसो वा ।' वेदोंमें उन लोगोंके लिये कोई भी ज्ञान नहीं है जो स्वयं मंत्रद्रष्टा ऋषियों ही जैसे तपःपूत ऋषि और उन्हीं जैसे तपस्या परायण लन्त नहीं हैं । निरुककार कहना चाहता है कि वेदों में से केवल तपस्वियों को ही कुछ प्राप्त हो सकता है। शास्त्रका मर्मज्ञ बननेके लिये पवित्र वातावरणमें रहना तथा अपने वातावरणको पवित्र बनाकर रखना आवश्यक है।
( तत्वज्ञानका अवश्यंभावी फल ) तत्त्वज्ञानं कार्यमेव प्रकाशयति ॥ ५४५ ॥ तत्त्वज्ञान अर्थात् कार्याकार्य-परिचय या सदसद्विचारकी शक्ति कार्य । कर्तव्यके स्वरूप) को ज्ञानज्योतिसे प्रकाशित कर देती है।
विवरण- तत्वज्ञान (मर्थात् कर्तव्याकर्तव्य-निर्णय करनेकी कुश. लता ) मनुष्यको ग्यावहारिक जीवनका स्वरूप बतला देता है कि वह कैसा होना चाहिये । किस समय, किसको, कहां, क्या, क्यों करना चाहिये ये सब बाप्त मनुष्यका तत्त्वज्ञान रूपी हृश्यस्थ गुरु ही इसे समझाता है। विचारशील लोग जो कोई काम करते हैं उन्हें उसकी कर्तव्यताके सम्बन्धमें