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चाणक्यसूत्राणि
साक्ष्य देनेसे बचता है वह भी कूटसाक्षी माना जाकर कूटसाक्षीके ही समान दण्डनीय होता है। यही बात याज्ञवल्क्यने कही है
न ददाति हि यः साक्ष्यं जाननपि नराधमः ।
स कूटसाक्षिणां पापैः तुल्यो दण्डेन चैव हि ॥ महाभारत में भी कहा है
यश्च कार्यार्थतत्वज्ञो जानन्नपि न भाषते । सोऽपि तेनैव पापन लिप्यते नात्र संशयः ॥ जो सच्ची बात जानता हमा भी नहीं बताता उसे भी वही पाप लग जाता है जो साक्षात पापीको लगता है। वास्तविक बातको निरर्थक बना डालनेवाली वक रीतिसे कहनेवाला साक्षी भी कूटसाक्षी कहाता है । साक्षी लोग मिथ्या साक्षी, गृढ साक्षी आदि अनेक प्रकार के होते हैं । मनुके सातवें अध्याय तथा व्यवहार तत्व में इसका सविस्तर वर्णन है।
अन्धं तमः प्रविशन्ति ये के चात्महनो जनाः । ( ईशावास्य ) अपने भारमाका वात करने अर्थात् अपने मनकी सच्ची वाणीको जान. बृझकर सकनेवाले लोग घोर अज्ञानान्धकारमें डूबे हुए लोग हैं ।
सच्ची साक्षी देनेसे बचना तो आज समाजकी साधारण मनोदशा बन गई है । लोग सच्ची साक्षी देना अपना कर्तव्य ही नहीं समझते। यह मानवकी कैसी हीनता है कि लोग सत्यको विजय दिलाने में उल्लास अनुभव नहीं करते । यह उससे भी बड़े दुःखकी बात है कि समाजमें मिथ्या साक्षी देनेका एक व्यवसाय बन गया है । मिथ्या साक्षी देनेवाले लोग आगे बढकर साक्षी देते और इस व्यवसायसे अनुचित भौतिक लाभ भी उठाते हैं।
इस सूत्र में मिथ्या साक्षी देने की प्रवृत्तिको निन्दित ठहराया गया है। परन्तु सच्ची साक्षी न देने के कारणोंपर प्रकाश नहीं डाला गया। जो लोग सच्ची साक्षी देने से बचते हैं, आइये उनकी मनोदशाका विश्लेषण करके