SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 534
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ साक्षीका धर्म ५०७ साक्षी अपने आस्माका अपमान अवहेलना या उपेक्षा मत कर ॥ १ ॥ पानी लोग समझते हैं कि हमें कोई नहीं देखता। पापी लोग जाने कि उन्हें देवता और उन्हींका भीतरवाला पुरुष देख रहा है ॥ २ ॥ भो भले मानस ! तू जो अपने आपको अकेला समझकर पापमें कूद पडना चाहता है यह तेरी भयंकर भूल है । तू अकेला कभी भी नहीं है । तेरे भीतर पापपुण्य दोनों का द्रष्टा एक मुनि बैठा है । वह तुझे दिन-रात आठ पहर देख यमो वैवस्वतो देवो यस्तवैष हृदि स्थितः । तेन चेदविवादस्ते मा गंगां मा कुरून् व्रज ॥ १ ॥ यस्य विद्वान् हि वदतः क्षेत्रो नाभिशंकते । तस्मान देवाः श्रेयांसं लोकतन्यं पुरुषं विदुः ॥२॥ मो मानव! तेरे हृदय में जो वैवस्वत यम तेरा हृदयेश बनकर तेरे कमौकी साक्षी लेने के लिये बैठा है उससे यदि तेरा उसका कोई विवाद नहीं है, यदि उसे तेरा कोई ऐसा पाप हाथ नहीं आता कि जिसपर वह तुझे टोक सके तो तू निष्पाप और धन्य है । अब तुझे पाप-नाशके लिये गंगा या कुरुक्षेत्र जाने की कोई मावश्यकता नहीं है । जिस मनुष्य के कोई बात मुंहसे निकालनेपर उसकी गुप्ततम भावनाओं तकको भली प्रकार जाननेवाला अन्तरालमा शंकित नहीं होता विद्वान् लोग इस संसारमें उससे श्रेष्ठ किसी पुरुषको नहीं जानते । विद्वान् लोग उसे पुरुषोत्तम कहते हैं। ऐसा मानव तो मानव रूपधारी परब्रह्म है । उसके देहमें साक्षात् नारायण मानव-लीला करते हैं। पाठान्तर-सत्यसाक्षी ह्यात्मा । मात्मा सबसे सच्चा साक्षी है। ( साक्षीका धर्म ) । न स्यात् कूटसाक्षी ॥ ५५० ॥ मनुष्य मिथ्यापक्षका समर्थक साक्षी न बने । विवरण- कूटसाक्षी बननेसे सत्यका आच्छादन, परवंचन, समाजगर्दा, तथा भात्मग्लानि होती है । जो मनुष्य सच्ची घटनाको जानता हुआ भी
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy