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चाणक्यसूत्राणि
करे । लब्धव्योंका वैध ( उचित ) यत्नसे अर्जन करे तथा प्राप्तोंका विवेक से उपयोग करे । यदि मनुष्य अपनी नीति - दीनता से अपने संचित साधनक्की रक्षा, जीवनार्थ आवश्यक पदार्थोंका अर्जन और अर्जितोंका सदुपयोग नहीं करेगा तो क्लेश, दीनता तथा बुद्धिमान्य उसे आ चिपटेंगे । ( वृथा कर्म त्याज्य )
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क्षीरार्थिनः किं करिण्या ॥ ४९३ ॥
जिसे दूधकी आवश्यकता है वह हथिनीको लेकर क्या करे ? विवरण- उसे तो गोपालन करना चाहिये। अपने प्रयोजनके उपयोगी द्रव्योंका ही संचय करना चाहिये, अप्रयोजनीयका नहीं । मनुष्य कोई भी वृथा काम करे | वृथा कार्मोसे बडे अनर्थ आ खड़े होते हैं ।
( सर्वोत्तम वशीकार )
न दानसमं वश्यम् ।। ४९४ ॥ दान जैसा लोकवशीकार दूसरा नहीं है ।
विवरण- घनी लोग दानरूपमें धन के सदुपयोगसे समाजका दित और कीर्तिका उपार्जन तथा उपकृतपर वशीकार पा लेते हैं ।
( पराधीन वातों में उत्कण्ठा वर्जित )
परायत्तेषूत्कण्ठां न कुर्यात् ।। ४९५ ।।
तुम्हार जा पदार्थ दूसरोंके हाथमें फँस गये हा, उन्ह पानक लिए उतावले मत बनो। उन्हें पाने के उपाय करने चाहिये । इस संबन्ध में उत्कंठासे अपनी शक्तिपर श्रद्धाहीन नहीं होना चाहिये । दूसरेकी शक्तिपर निर्भर मत रहो । परहस्तगत अधिकारके पुनरुद्धार के लिए दुश्चिन्ता या निराशा छोड़कर धैर्य के साथ दृढ प्रयत्न करो । उतावलापन शक्तिहीनता है ।