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________________ व्यवहारकी साक्षी व्यवहार-ब - बहिर्भूत रखनेवाली आसुरी आध्यात्मिकता ही मनुष्यता- घाती आसुरी राजकी जननी है । मनको अभ्रान्त, अव्यर्थ आत्मशक्तिले जितेद्रिय बने रहने की व्यवहार कुशलता हो तो आध्यात्मिकता है। इस सीधीमी सरल बातको मूढतासे दृष्टि बहिर्भूत रखकर प्रवंचनामूलक जप, तप, भजन, कीर्तन, ध्यानधारणा, योगयज्ञ, समाधि आदि शारीरिक जटिल भ्रान्त प्रयत्नोंसे व्यर्थता वरण करते हुए अज्ञात अलोक ईश्वरकृपाका नपुंसक भिखारी बनकर, मनुष्यताहीन असुर बनना ही आसुरी आध्यात्मिकताका ध्येय है । ( व्यवहारका साक्षी ) आत्मा हि व्यवहारस्य साक्षी || ५४८ ॥ ५०५ आत्मा ही व्यवहारका साक्षी है । विवरण- सत्य ही मनुष्यका आत्मा या स्वरूप है। मनुष्य अपने इस सत्यस्वरूपकी कसौटीपर कसकर ही कर्तव्याकर्तव्यका विचार तथा निर्णय किया करता | मनुष्यका अन्तारा या उसके सीवर रहनेवाला सत्य, जिस बातको कर्तव्य के रूपमें स्वीकार कर लेता है, उसे व्यवहार में लाना उसके लिये अनिवार्य हो जाता है । उसे माणके नाकी शंका तक भी कर्तव्य से च्युत नहीं कर सकती । सत्यके नामपर हुए ऐतिहासिक बलिदान इस बातके साक्षी हैं। यदि मनुष्य व्यवहार में सत्यको उपेक्षा कर देता है तो उसीका आत्मा उसे सहस्रधा निन्दित करने लगता है । मनुष्य स्वयं ही अपनी परायी व्यवहारशुद्धिकी कसौटी है । मनुष्यको व्यवहारकी श्रेष्ठताका स्वरूप किसी दूसरे से नहीं सीखना है । जैसे मछली के बच्चोंको तैरना नहीं सिखाया जाता, इसी प्रकार मनुष्यको व्यवहारकी सच्चाई सिखाई नहीं जाती । वह उसे स्वभावसे जाती है। बाह्यशिक्षा उसीमें परिष्कार करनेवाली हो सकती है । अथवा आत्मा अर्थात् ( आत्मा शब्दको [ आत्मवान् राजा ] के समान मनका वाचक मान लेनेपर ) मनुष्यका मन ही उसके समस्त व्यवहारोंकी सच्चाई या झुठाईका साक्षी है ।
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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