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चाणक्यसूत्राणि
व्यवहार अपने प्रति दूसरों से किया जाना न चाहे वह दूसरों के साथ भी न करे। मनुष्य कटु व्यवहारको सब होके लिये कडवा समझकर दूसरों के साथ भी न करे ॥२॥ अपने प्रतिकूल लगनेवाला व्यवहार दूसरोंसे न करना ही सम्पूर्ण धर्मका सार है। मनुष्य कामनाके अधीन होकर ही दूस. रोंके साथ धर्मविरोधी बर्ताव करता है ।
(आकृतिसे गुणों का प्राथमिक आभास )
रूपानुवर्ती गुणः ॥५२१॥ जैसा रूप वैसा ही गुण होता है। विवरण- प्रायः मनुष्य के रूप ( शारीरिक अभिव्यक्ति ) के भीतर उसके शौर्य, धैर्य, शान्ति, संयम शादि गुण व्यक्त होजाते हैं । गुणियों के गुण उनके अवयवों तक में अलका करते हैं । इन गुणोंको जनानेवाली एक सांकेतिक लिपि गुणियोंकी मुखाकृतिपर लिखी रहती है । पुरुष परीक्षाके पारंगत लोग मनुष्य को देखते ही उसके गुणोंको भाप लेते हैं । 'यत्राक तिस्तत्र गुणा वसन्ति ' मनुष्य के गुण उसके साकारमें भी आ बसते हैं ।
अथवा- साधारण मनुष्य की आकृतिसे उसके गुणों का परिचय मिल जाता है।
यह तो सच है कि गुण मनुष्य के हृदय में रहता है इस कारण प्रथम. दर्शनसे गुणका परिचय मिलना संभव नहीं होता। परन्त मनुष्य के मनुष्यसे मिलनेका प्रथम सोपान प्राथमिक मिल न ही होता है। लोगोंका स्वभाव है कि वे अपने देहको अपनी रुचिके अनुसार वेषभूषासे अलंकृत करते हैं । देहके इस अलंकरण और प्रसाधनमें ही मनुष्य के चरित्र का पूरा इतिहास सांकेतिक भाषामें लगभग अंकित हो जाता है। मनुष्य की रुचि उसकी शिक्षा-दीक्षासे बनती है । गुणपारखी लोग रूपके प्राथमिक दर्श. नमें ही अपरिचित व्यक्तिके गुणोंका प्रत्यक्ष करके तदनुरूप व्यवहार-विनिमय करते हैं।