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चस्तव्य स्थानकी परिभाषा
साधारणतः प्रथमदर्शन ही अपरिचितके गुणोंका अभ्रान्त परिचायक बन जाता है । यही कारण है कि जबतक किसीका साक्षात् दर्शन करके उससे व्यवहार-विनिमय नहीं मिलता, तबतक गुणका परिचय मिलना संभव नहीं होता । गुणका परिचय रूपसे परिचित होजानेके पश्चात् ही होना सम्भव होता है | मनुष्यको विना देखे उसका अभ्रान्त परिचय होना असंभव है । मनुष्यका रूप चक्षु इन्द्रियका विषय है तथा उसके गुण विचारनेत्र के विषय हैं। मनुष्यको साक्षात् विचार-विनिमय न हो चुकनेवाले मनुष्य के गुण-दोष के सम्बन्धमें उधारी सम्मति नहीं बनानी चाहिये। कहनेका तात्पर्य यह है कि यद्यपि प्रकृति अपनी ओरसे किसीके रूपमें गुणको प्रकट नहीं करती, परन्तु मनुष्य अपनी रुचि तथा शिक्षा-दीक्षा के अनुसार अपने देहको वस्त्राभूषणोंसे सज्जित करता है । उसीसे उसके गुण उसकी बाकूनिपर झलकने लगते हैं । स्वच्छता, अनाडम्बर, सौम्यता आदि देद्दिक लक्षणको देखकर गुणीके गुणों का प्राथमिक आभास मिल जाता है । पाठान्तर - प्रायेण रूपानुवर्तिनोगुणाः ।
साधारणतया आकृतिके अनुसार गुण होते हैं ।
( वस्तव्य स्थानकी परिभाषा )
यत्र सुखेन वर्तते तदेव स्थानम् ॥ ५२२ ।। सुखकर स्थान ही निवासयोग्य स्थान कहाता है ।
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विवरण - सुख मानसिक स्थिति है । मनकी अनुकूलता ही सुखकी परिभाषा है । मन या तो इन्द्रियोंका दास या उनका प्रभु बनने में स्वतंत्र है । इन्द्रियोंकी दासता मनका अज्ञान भी है और यह उसके लिये परतंत्रताकी दुःखदायी स्थिति भी है। इन्द्रियोंके ऊपर मनकी प्रभुता मनकी स्वरूपस्थिति भी है और यह उसकी स्वतंत्रता ( या स्वतंत्रताकी सुखद स्थिति ) भी है। स्वतंत्रता ही सुख है और इन्द्रिय परतंत्रता ही दुःख है। स्वतंत्र मन किसी बाह्य अत्याचारी शक्तिकी अधीनता स्वीकार करने को