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आर्यका उदार वर्ताव
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सन्त लोग इस झुलसती हुई मरुभूमिके ठण्डे जलस्रोत हैं । ' सतां सद्भिः सङ्गः कथमपि हि पुण्येन भवति' सन्तोका सन्तोसे समागम कभी कभी बडे पुण्योंसे होता है । महाकवि तुलसीदास के शब्दों मेंसन्तसमागम हरिकथा तुलसी दुर्लभ दोय ।
(आर्यका उदार बर्ताव )
आर्यः स्वमिव परं भन्यते ॥५२०॥ कर्तव्याकर्तव्यके विचारसे सम्पन्न उदारमति सज्जन लोग दूसरोंसे जिस वर्तावकी आशा करते हैं वे स्वयं भी दूसरोंके साथ वही बर्ताव करते हैं।
विवरण-- सजन वे हैं जो दूसरों के साथ अपनी मनुष्यताकी मर्या. दामें रहकर बर्ताव करते हैं । ' उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्ब कम' यह सम्पूर्ण वसुधा उदारचरित लोगों की दृष्टि में उन्हींका विराट परिवार है।
जो कामनाका दाम है जिसने कर्तव्याकर्तव्य विचारको तिलांजलि दे रक्खी है वही ' मनार्य ' है । मनार्य वह है जो कामनाधीन होकर दूसरों के साथ वही बर्ताव करता है जिसे वह अपने लिये किसी भी रूपमें किसी से भी नहीं चाहता।
श्रूयतां धर्मसर्वस्वं श्रुत्वा चैवावधार्यताम् । आत्मनः प्रतिकृलानि परेषां न समाचरेत् ॥१॥ यदन्यैर्विहितं नेच्छेदात्मनः कर्म पुरुषः । न तत्परेषु कुर्वीत जानन्नप्रियमात्मनः ॥२॥ न तत्परस्य सन्दध्यात् प्रतिकूलं यदात्मनः। एष सामासिको धर्मः कामादन्यः प्रवर्तते ॥ ३॥ महाभारत धर्मका यह सार सुनो और अपनानो कि जो बात तुम्हारे साथ की जाने पर तुम्हें बुरी लगे उसे तुम दूसरों के साथ मत करो ॥ १ ॥ मनुष्य जो