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________________ राज्यका मूल उसे स्थिर रखनेवाला ऐश्वर्य उसके पास न हो तो राज्य स्थिर नहीं रह पाता । राजा और प्रजा दोनों ही अर्थसे ऐहिक अभ्युदयवाले कर्म करके जीवनयात्रा करते हैं। राजाको राष्ट्र , दुर्ग, कुल्या, बांध, सेना, मन्त्री, राजकर्म: चारी, शस्त्रास्त्र, रणपोत, अश्व, रथ आदि विविध प्रकारके यान आदि संग्रह करके तथा प्रजाकी रक्षा-शिक्षा भरण-पोषण मादिमें विपुल धनकी आवश्य. कता होती है। क्योंकि मर्थागम राज्यके सुप्रबन्धपर ही निर्भर होता है, इस लिये राज्याधिकारी लोग राज्यको सर्वप्रिय बनाकर स्थिर बनाने में प्रमादसे काम न लें। ( राज्यका मूल ) राज्यमूलमिन्द्रियजयः ॥ ४ ॥ अपनी इन्द्रियोंपर अपना आधिपत्य प्रतिष्ठित रखना राज्यका ( राज्यमें राज्यश्री आने और उसके चिरकाल तक ठहरनेका ) सबसे मुख्य कारण है। विवरण- राज्याधिकारियों की स्वेच्छाचारिता, विषयलोलुपता और स्वार्थपरायणता राज्यके लिये हालाहलका काम करती है । जब भोगलोलुप राज्याधिकारी राजशक्तिके दबावसे अपनी व्यक्तिगत भोगेच्छा पूरी करने के लिये प्रजासे धन ऐंठनेवाले बन जाते हैं, तब वह राज्य संस्था प्रजाके अनु. मोदनसे वंचित होकर नष्ट होजाती है। राज्य संस्थाको प्रजाका हार्दिक अनुमोदन मिलते रहनेके लिये राज्याधिकारियोंमें स्वेच्छाचारिता नहीं मानी चाहिये । वे अपनी स्वेच्छाचारितापर पूरा अंकुश रखें तब ही किसी राज्यका राज्यैश्वर्य सुरक्षित रह सकता है । राष्ट्र में राज्यश्रीको सुरक्षित रखनेके लिये राज्यके प्रत्येक कर्मचारीका इन्द्रियविजयी सन्त महात्मा होना अनिवार्य रूपसे आवश्यक है। इतिहास साक्षी है कि जब जब राज्याधिकारियोंकी स्वेच्छाचारिता नहीं रोकी गई, तब तब राजाओंके ऐश्वर्य प्रकुपित प्रजाके द्वारा अनेकों बार धूलमें मिलाये जा चुके हैं । जबतक राज्याधिकारी लोग अपनी इन्द्रियोंको संयत रखना अपना पवित्र कर्तव्य नहीं मान लेते, तबतक
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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